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१३२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना पानी आदि किसी वस्तु को उठाते, रखते या छोड़ते समय प्रमाणोपेत दृष्टि से प्रतिलेखना-प्रमार्जन-पूर्वक ग्रहण करना, रखना, छोड़ना ।
(५) आलोकित पान-भोजन भावना-भोजन-पान की वस्तु को भलीभाँति देखकर लेना तथा सदैव देख-भालकर, स्वाध्याय आदि करके, गुरुआज्ञा प्राप्त करके, संयमवृद्धि के लिए शांत एवं समत्व भाव से स्तोक मात्र आहार ग्रहण करना। (२) सत्यमहाव्रत : योग का आधार
इसका आगमोक्त नाम 'सर्वमृषावावविरमण' है।
सत्य, योग का प्रकाश दीप है। श्रमणयोगी की सम्पूर्ण चर्या, साधना और उपासना यहाँ तक कि उसके जीवन के अणु-अणु में प्रकाश एवं तेजस्विता सत्य ही देता है। श्रमणयोगी हृदय में सत्य का दीपक सदैव प्रज्वलित रखता है।
श्रमणयोगी बिल्कुल भी असत्याचरण नहीं करता। सत्य तथ्य को प्रगट करता है और सदा हित-मित-प्रिय वचन बोलता है। इस प्रकार वह वचन योग की साधना करता है तथा अष्टांगयोग के प्रथम अंग यम के द्वितीय भेद सत्य की त्रिकरण-त्रियोग से साधना करता है और सत्य में ही स्थिर रहता है।
सत्य महाव्रत में स्थिर रहने की पाँच भावनाएं हैं
(१) अनुवीचि भाषण-निर्दोष, मधुर और हितकर वचन बोलना, कटु सत्य न बोलना तथा शीघ्रता और चपलता से बिना विचार किये न बोलना।
(२) क्रोधवश भाषण वर्जन-क्रोध के आवेश में न बोलना । क्योंकि क्रोध की तीव्रता में मुंह से कठोर वचन निकल जाते हैं, जिससे सुनने वाले का दिल दुःखी होता है।
(३) लोभवश भाषण वर्जन-लोभ के वशीभूत होकर भी झूठ बोला जाता है, अतः लोभ के उदय में साधु को भाषण करना-बोलना नहीं चाहिए।
(४) भयवश भाषण वर्जन-मिथ्याभाषण का भय भी एक प्रमुख
१ आचारांग द्वितीय श्र तस्कन्ध, अध्ययन १५, सूत्र ७७८ २ वही,
सू ०-८१-८२
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