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३१२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
यद्यपि आगमों में 'समाधि' शब्द का उल्लेख पर्याप्त मात्रा में हुआ है। साथ ही समाधि के लिए उपयुक्त स्थानों का वर्णन भी यत्र-तत्र मिलता है। किन्तु समाधि शब्द से भी वहाँ ध्यान-विशेष या चित्त की निर्मलता एवं स्थिरता ही गृहीत हआ है। सूत्रों में दर्शन-समाधि, ज्ञान-समाधि, चारित्रसमाधि, श्रत-समाधि, विनयसमाधि आदि का वर्णन आया है; किन्तु कहीं पर 'समाधि' शब्द धर्मध्यान के अर्थ में प्रयुक्त है तो कहीं ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना के रूप में। लेकिन जिस रूप में 'समाधि' शब्द का प्रयोग पातंजल योगदर्शन में हआ है, वैसा जैन आगमों नहीं हुआ। चूँकि वह समाधि शुक्लध्यान की परिणतिस्वरूप ही है ।
साथ ही 'धारणा' शब्द भी जैन आगमों में उस रूप में नहीं मिलता, जिस रूप में इसका प्रयोग अष्टांगयोग में हआ है। जैन आगमों में भावना अथवा अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग हुआ है। दर्शन भावना, ज्ञान भावना, चारित्र भावना, वैराग्य भावना, योग भावना (मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य), महाव्रतों की भावना, बारह भावना आदि कई प्रकार की भावनाओं का वर्णन हुआ है।
आक्ष्यात्मिक एवं मूक्ति-प्राप्ति के पथ के रूप में भावनाओं का महत्त्व धारणा की अपेक्षा अत्यधिक है क्योंकि धारणा तो चित्तवृत्ति को किसी एक स्थान पर लगाना मात्र ही है। जबकि भावना, साधक की आत्मोन्नति एवं आत्म-प्रतीति में सहायक बनती है । धारणा जल प्रवाह का किसी एक स्थान पर केन्द्रित होना है तो भावना एक ही धारा में प्रवहमान स्थिति एकतानता है ।
अतः जैनदर्शन के अनुसार मुक्ति-साधना का क्रम यों बनता हैभावना, धर्मध्यान, शुक्लध्यान ।' ये तीनों ही ध्येय विषयक चिन्तनरूप ध्यान की विशुद्ध, विशुद्धतर और विशुद्धतम अवस्थाएँ हैं।
अतः मोक्ष का उपायभूत धर्मव्यापार जो कि 'योग' के नाम से विख्यात है, वह मुख्य रूप से शुक्लध्यान हो है क्योंकि शुक्लध्यान ही मोक्ष का साक्षात् कारण है। इसके अतिरिक्त व्रत, नियम, स्वाध्याय, आदि तप एवं संयम आदि जितने भी धर्मानुष्ठान, धार्मिक क्रिया-कलाप, भावनाओं का चिन्तन-मनन इत्यादि हैं, वे सभी शुक्लध्यान तक पहुँचने के सोपान हैं। इन सोपानों पर चढ़ता हुआ साधक शुक्लध्यान तक पहुँचता है।
१ अष्टांगयोग का मुक्ति साधना क्रम यों है-धारणा, ध्यान, समाधि ।
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