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शुक्लध्यान एवं समाधियोग ३१३ शुक्लध्यान में ही चित्त का निरोध पूर्ण रूप से होता है, चित्त की वृत्तियाँ पूर्णतया शांत होती है, कर्मों का क्षय होता है और मन का (भाव-मन का) आत्मा की अनन्त सत्ता में विलय होता है। कैवल्य (केवलज्ञान-दर्शन) और साथ ही अनन्त सुख और वीर्य का कारण भी शुक्लध्यान है और यही निर्वाण का हेतु है।
शुक्लध्यान ही आत्मिक अशुद्धियों को दूर कर उसे पूर्ण रूप से शुद्ध बनाता है । साधक शुक्लध्यान की साधना से सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर अपने स्वरूप (आत्मा के निज शुद्ध स्वरूप) में अवस्थित होता है।
अतः शुक्लध्यान ही सर्वोत्कृष्ट तप है, समस्त धार्मिक क्रियाओं की चरम परिणति है। साधक इसी की साधना से अपना चरम लक्ष्य-मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यही जैन योग द्वारा प्रस्तावित अध्यात्मयोग (तपोयोग) का चरम बिन्दु एवं फलश्रुति है।
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