SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३८ ) ४. समतायोग-ध्यान में अत्यन्तोपयोगी चौथा समतायोग है। अविद्याकल्पित इष्टानिष्ट पदार्थों में विवेकपूर्वक तत्त्वनिर्णय-बुद्धि से राग-द्वेषरहित होना अर्थात् पदार्थों में की जाने वाली इष्टत्व-अनिष्टत्व-कल्पना को केवल अविद्याप्रभव समझकर उनमें उपेक्षा धारण करना, समता कहलाती है। उसमें निविष्ट मन, वचन, काया के व्यापार का नाम समतायोग है । अविद्या अथवा मोह के वशीभूत हुआ यह जीव अमूक वस्तु को इष्ट और अमुक को अनिष्ट मानकर इष्ट वस्तु में राग और अनिष्ट में द्वष करने लगता है। सौभाग्यवश जब उसमें विवेक-ज्ञान का उदय होता है तब वह इष्ट और अनिष्ट के मर्म को समझ पाता है। विवेक-चक्षु के खुलते ही वह देखता है कि कल जिस वस्तु को उसने अनिष्ट-अप्रिय-जानकर तिरस्कृत किया था आज उसी को इष्ट -प्रिय-समझकर अपना रहा है, इसलिए वास्तव में कोई भी वस्तु स्वयं इष्ट किंवा अनिष्ट रूप नहीं। वस्तु में इष्टानिष्टत्व की भावना तो अविवेकप्रभव-अविद्या-कल्पित-है । इस अविद्या के सम्पर्क से ही आत्मा में पदार्थों के इष्टानिष्टत्व की कल्पना द्वारा हर्ष-शोक रूप विभाव-संस्कारों का उदय होता है जिससे वह आत्मा अपने को सुखी या दुःखी मानती है । वस्तुतः ये संस्कार न तो आत्मा के गुण हैं और न ही इनका उससे कोई वास्तविक सम्बन्ध है; आत्मा का वास्तविक रूप तो सत्, चित्, आनन्द, दर्शन, ज्ञान, और चारित्र है (सत्-दर्शन, चित्-ज्ञान और आनन्द-चारित्र है)। इस प्रकार के विवेक-ज्ञान के उदय से आत्मा में विचारवैषम्य का लय और समभाव का परिणमन होने लगता है। इस सत् परिणाम द्वारा किये जाने वाले तत्त्वचिन्तन को ही समतायोग कहते हैं। समता, यह आत्मा का निजी गुण है । इसके विकास से आत्मा बहत ऊँची भूमिका पर चढ़ जाती है। यहाँ इतना और भी समझ लेना चाहिए कि ध्यान और समता ये दोनों सापेक्ष अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। समता के बिना १. 'अविद्याकल्पितेषूच्चरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु । संज्ञानात्तव्युदासेन समता समतोच्यते ॥ ३६३ ॥ इसीलिये साधु को शास्त्रों में आदेश किया गया है कि वह जगत् के समस्त प्राणियों को समभाव से देखे और राग-द्वष के वशीभूत होकर किसी प्राणी का भी प्रिय अथवा अप्रिय न करे । यथा: (क) 'सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा'। छा०-सर्वं जगत्तु समतानुप्रेक्षी प्रियमप्रियं कस्यचिन्न कुर्यात् । (सुयगडंग-अ० १०/७) (ख) 'पण्ण समत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी।' छा०---प्रज्ञासमाप्तः सदा जयेत्, समताधर्म मुदाहरेन्मुनिः । अर्थात् बुद्धिमान् साधु कषायों को जीते और समभावपूर्वक धर्म का उपदेश (सूयगडंग अध्ययन २, उ० २, गा० ६) करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy