________________
२७० जैम योग : सिमान्त और साधना
भाव व्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं
(१) कषाय व्युत्सर्ग-क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चारों कषायों की अवस्थिति कार्मण शरीर में है। कषाय-व्युत्सर्ग तप की साधना में निरत साधक अपने कार्मण शरीर के शोधन का प्रयास करता है। वह जानता है कि कषाय शुद्धोपयोग में मलिनता उत्पन्न करते हैं। और साधक अपने चरण शुद्धोपयोग की ओर बढ़ाता है, इस कार्य हुतु वह कषायों का परिमार्जन करता है, उनका विसर्जन करता है, जिससे उसके चैतन्योपयोग में विक्षोभ न हो, चेतना की अखंड धारा, उसका शुद्धोपयोग निराबाध गति से बहता रहे।
(२) संसार व्युत्सर्ग-साधक चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण के हेतु आस्रवों का विसर्जन करता है। कामना-वासनारूपी भाव-संसार को नष्ट करता है। भाव संसार के नष्ट होते ही द्रव्य संसार का स्वयमेव ही नाश हो जाता है ।
(३) कर्म व्युत्सर्ग-इस तप की साधना में साधक कर्म-बंधन के हेतुओं का त्याग कर देता है। कर्मबन्धन के हेतुओं के त्याग से उसकी आत्मा विशुद्ध से विशुद्धतर होती जाती है। मोक्ष क्षण-प्रति-क्षण उसके समीप आता जाता है।
जैन तपोयोग में तप की साधना अनशन (स्थूल शरीर को पुष्ट करने वाले भोजन का त्याग) तप से शरू होकर व्युत्सर्ग तप पर समाप्त होती है। प्रथम सोपान अनशन तप में साधक देह की पुष्टि के साधनों का त्याग करता है और अन्तिम तप में देह के प्रति ममत्व का विसर्जन ।
साधक के लिए बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के तप आवश्यक हैं। बाह्य तप क्रियायोग के प्रतीक हैं और आभ्यन्तर तप ज्ञानयोग के । और ज्ञान तथा क्रिया के समन्वय से ही मोक्ष की प्राप्ति होती हैज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः ।
00
१ प्रज्ञापना पद १३ २ बाह्याभ्यंतरं चेत्थं तपः कुर्यात् महामुनिः । ३ विन्जाए चेव, चरणेण चेव ।
-ज्ञानसार, तप अष्टक ६
-स्थानांग २/६३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org