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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
वस्तुतः ये दो महापुरुष न होकर एक ही थे; क्योंकि ऋषभदेव के अन्य नामों में एक नाम हिरण्यगर्भ भी था; जैसा कि महापुराणकार ने कहा है
सैषा हिरण्मयो वृष्टिः धनेशेन निपातिता। विमोहिरण्यगर्भत्वमिव बोधयितुं जगत् ॥
__-महापुराण १२/६५ अर्थात्-जब भगवान ऋषभदेव गर्भ में आये तो धनपति कुबेर ने माता-पिता का भवन हिरण्य की वृष्टि करके भर दिया अतः वे (ऋषभदेव) जगत् में हिरण्यगर्भ के नाम से प्रख्यात हुए।
अतः जैन और वैदिक दोनों ही परम्पराओं की मान्यता के अनुसार भगवान ऋषभदेव अपर नाम हिरण्यगर्भ योगविद्या के आदिप्रणेता हैं।
भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रदत्त यह योगविद्या सुदीर्घ काल तक चलती रही।
इस बोच असंख्य लोग योग साधना करते रहे और संसार से मुक्ति प्राप्त करते रहे। योगियों की परम्परा का प्रमाण हमें मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मुद्राओं में मिलता है। वहाँ कायोत्सर्ग मुद्रा में एक ध्यानावस्थित योगी की मोहर (seal)१ प्राप्त हुई है। स्व० राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इसे जैन तीर्थंकर की मूर्ति माना है। वे लिखते हैं-"मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त मोहरों में से एक में योग के प्रमाण मिले हैं । एक मोहर में एक ओर वृषभ तथा दूसरी ओर ध्यानस्थ योगी हैं, जो जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव हैं । उनके साथ भी योग को परम्परा लिपटी हुई है।"
इसके अतिरिक्त पटना के निकट लोहानोपुर से प्राप्त नग्न कायोत्सर्ग स्थित मूर्ति से भी इस बात की पुष्टि होती है।
___ इस प्रकार योग, योगी और योग-प्रक्रियाएँ सुदीर्घकाल तक चलती रहीं। किन्तु एक विशेष बात यह हुई कि काल प्रवाह से 'योग' अनेक प्रकार की विद्याओं, विशेषकर आध्यात्मिक विद्याओं और मोक्षप्राप्ति के उपायों में प्रयुक्त होने लगा। अनेक प्रकार के योग प्रचलित हो गये; यथा-ईश्वरभक्तियोग, तन्त्रयोग, राजयोग, ज्ञानयोग आदि-आदि ।
१ Modern Review, August 1932, pp. 155-156. २ आजकल, मार्च १६६२, पृ० ८. ३ जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, प्राक्कथन, पृष्ठ १०.
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