________________
107evidehi.M.
योग की परिभाषा और परम्परा २१ ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय । इन पाँच अंगों में योग के आठ अंगों का समावेश हो जाता है। जैसे-अध्यात्म और भावना में-यम-नियम-आसनप्राणायाम, प्रत्याहार का, ध्यान में-धारणा व ध्यान का, समता व वृत्तिसंक्षम में समाधि का। वैसे प्रथम चार प्रकार-संप्रज्ञातयोग में तथा वृत्तिसंक्षय असंप्रज्ञातयोग (निर्बीज समाधि) में समाविष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने योग की आठ दृष्टियों का वर्णन भी किया है जो सर्वथा मौलिक और सर्वग्राही है।
यहाँ तक, जैन योग सम्बन्धी विचारधारा पूर्णतया स्वतन्त्र रही, इस पर न हठयोग का प्रभाव पड़ा और न योगदर्शन का प्रभाव ही परिलक्षित होता है। . इसके उपरान्त योग सम्बन्धी प्रमुख ग्रन्थ हेमचन्द्राचार्य का योगशास्त्र तथा शुभचन्द्राचार्य का ज्ञानार्णव हैं। इन दोनों ही ग्रन्थों पर हठयोग का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। अष्टांग योग और तन्त्रशास्त्र का प्रभाव भी इन पर लक्षित होता है।
आगमयुग का धर्मध्यान (संस्थानविचय धर्मध्यान) अब पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार भागों में विभक्त हो गया। कुण्डलिनी ध्यान चक्र आदि की चर्चा भी सम्मिलित कर ली गई और पार्थिवी आदि धारणाओं को भी स्थान प्राप्त हो गया।
इसके उपरान्त जैन मुनियों ने अन्य भी अनेक योग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे हैं। इनमें उपाध्याय विनयविजयजी का शान्तसुधारस-~-भावनायोग की सुन्दर कृति है । उपाध्याय यशोविजयजी ने भी अध्यात्मोपनिषद्, अध्यात्मसार, योगावतार द्वात्रिंशिका आदि योग विषयक ग्रन्थों की रचना की।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि जैन योग की धारा योग सम्बन्धी अन्य धाराओं से मौलिक और स्वतन्त्र है। जैन दर्शनसम्मत ध्यानयोग, तपोयोग, संवरयोग, संयमयोग, अध्यात्मयोग, भावनायोग आदि ऐसे योग हैं जिनकी चर्चा योगदर्शन तथा अन्य योग परम्पराओं में या तो प्राप्त ही नहीं होती और यदि प्राप्त होती भी है तो बहुत ही कम । समिति और गुप्ति योग तथा भावनायोग और इसीप्रकार संवरयोग तो विशेष रूप से जैनधर्म की ही देन हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org