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________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ३३ हठयोग की मान्यता है कि नाड़ी शुद्धि होने के उपरान्त कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है तथा यह षट् चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार चक्र में पहुँचती है। इस दशा में साधक का चित्त निरालम्ब और मृत्यु के भय से रहित हो जाता है। यह योगाभ्यास का मूल है।' इसी दशा को केलाश भो कहा जाता है। वास्तविक स्थिति यह है कि नाड़ी शुद्धि के पश्चात् जब मन स्थिर होने लगता है, निरोधावस्था में पहुँच जाता है, तब राजयोग की सीमा प्रारम्भ होती है। हठयोग में आचार-विचार की शुद्धि पर भी अधिक बल दिया गया है । वहाँ अनेक यम-नियमों के पालन का विधान है। हठयोग का साधक यम-नियमों का पालन करता हुआ अपने शरीर की आन्तरिक शुद्धि, नाड़ी शुद्धि, प्राणायाम आदि के द्वारा करता है और फिर अपनी शक्ति को अन्तमुखी बनाकर सूक्ष्म शरीर को वश में करता है, तब चित्त निरोध करता है और तदुपरान्त ईश्वर का साक्षात्कार करता है। यह सम्पूर्ण पद्धति और प्रक्रिया ही हठयोग है। नाययोग नाथयोग का प्रारम्भ गोरखनाथ (१०वीं शताब्दी) ने किया है। इस सम्प्रदाय की ऐसी मान्यता है कि शिव ने मत्स्येन्द्रनाथ को योग की दीक्षा दी थी और मत्स्येन्द्रनाथ ने गोरखनाथ को। नाथपंथीय परम्परा में मुख्यतः ह नाथ' माने जाते हैं, वैसे ८४ नाथ भी माने जाते हैं। इस पंथ के अन्य कई नाम भी प्रचलित हैं, जैसे सिद्धमत, योग सम्प्रदाय, योग-मार्ग, अवधूत मत, अवधूत सम्प्रदाय आदि-आदि । १ भारतीय संस्कृति और साधना, भाग २, पृष्ठ ३६७. २ शिवसंहिता ५. ३ हठयोग प्रदीपिका १७-१८. dha Siddhant Paddhati and other Works of Nath Yogis, ___pp. 7 and 10 (ख) Gorakhnath and Kanfata Yogis, pp. 235-36. ५ गोस्वामी, प्रथम खण्ड, वर्ष २४, अं० १२, १९६०, पृ० १२ ६ कबीर की विचारधारा, पृ० १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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