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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
यद्यपि नाथयोग की यौगिक प्रक्रियाएँ हिठयोग से मिलती-जुलती हैं;
नाथयोग का अन्तिम साध्य अतः यह आत्मा का अमरत्व,
किन्तु इनके अन्तिम साध्य में बहुत अन्तर है । शाश्वत आत्मा की अनुभूति प्राप्त करना है । नादमधु का आनन्द, शिवभक्ति के साथ समरसता उत्पन्न करता है |
नाथयोग सम्प्रदाय में गुरु का महत्त्व अत्यधिक है । गुरु की कृपा से ही साधक संसार-बन्धन को तोड़कर शिव की प्राप्ति कर सकता है ।" नाथसिद्धान्तयोग द्वैताद्वैत विलक्षणी माना जाता है । इसका कारण यह है कि शिव न द्वैत हैं और न ही अद्वैत; वे तो अवाच्य और निरुपाधि हैं । वे द्वैतअद्वैत, साकार - निराकार से परे हैं ।
इस सम्प्रदाय में भी कुण्डलिनी शक्ति को विशेष महत्त्व दिया गया है । यह शक्ति सर्पाकार वृत्ति में सोई हुई रहती है तथा आत्म-संयम द्वारा जाग्रत होती है । जागने के बाद यह षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार चक्र में जाकर शिव के साथ एक रूप हो जाती है । यह मिलन जीवात्मा का परमात्मा के साथ मिलन एवं एकरूप तथा लीन होने का प्रतीक है । इस नाथयोग सम्प्रदाय का ध्येय ही शिव और शक्ति का मिलन है ।
भक्तियोग
भक्तियोग का अभिप्राय ईश्वर के प्रति अनन्य श्रद्धा और विश्वास है । इसमें भक्त अथवा साधक अपने इष्टदेव के प्रति पूर्णतया समर्पित होता है । मध्वाचार्य ने सुदृढ़ स्नेह को भक्ति बताया है । ब्रह्मसूत्रभाष्य' में
१ ज्ञानेश्वरी (मराठी), प्रस्तावना, पृ० ४३
२
(क) एवं विधगुरोः शब्दात् सर्वचिन्ता विवर्जितः ।
स्थित्वा मनोहरे देशे योगमेव समभ्यसेत् ॥
- अमनस्कयोग १५
) Siddha Siddhant Paddhati and other Works of Nath Yogis, PP. 54-80
अमनस्कयोग २५.
४ सन्तमत का सरभंग सम्प्रदाय, पृ० ४६. ५ शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरः शिवः । अन्तरं नैव जानीयाच्चंद्रचन्द्रिकयोरिव ॥ माहात्म्यज्ञानपूर्वस्तु सुदृढः सर्वतोऽधिकः । स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तः तया मुक्तिर्न चान्यथा ॥ ७ महत्त्वबुद्धिर्भक्तिस्तु स्नेहपूर्वाभिधीयते । तथैव व्यज्यते सम्यग् जीवरूपं सुखादिकम् ||
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- सिद्ध सिद्धान्त पद्धति ४ / २६.
- श्रीमन्महाभारत तात्पर्य निर्णय
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-- ब्रह्मसूत्रभाष्य
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