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१४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना काल तक आते-आते शरीर, इन्दिय एवं मन को स्थिर करने की साधना के अर्थ में भी प्रयोग किया जाने लगा।
महाभारत में योग के विभिन्न अंगों का विवेचन प्राप्त होता है। स्कन्दपुराण' में कई स्थानों पर योग की चर्चा है। भागवतपुराण में योग की चर्चा के साथ-साथ अष्टांग योग की व्याख्या, महिमा तथा योग से प्राप्त होने वाली अनेक लब्धियों का वर्णन किया गया है। योगवाशिष्ठ के छह प्रकरणों में योग के विभिन्न सन्दर्भो की व्याख्या आख्यानकों के माध्यम से हुई है और इनसे योग सम्बन्धी विचारों को पुष्टि की गई है।
'योग' शब्द इस समय तक आते-आते इतना व्यापक और प्रचलित हो गया कि गीता के अठारह अध्यायों के नाम ही योग पर रखे गये हैं, प्रत्येक अध्याय के अन्त में 'योग' शब्द आया है, जैसे-"ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवतगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादेऽर्जुनविषादयोगे नाम प्रथमोऽध्यायः।" इसी प्रकार अठारह अध्यायों के नाम दिये गये हैं । गोता में अठारह प्रकार के योगों का वर्णन हुआ है।
यह 'योग' शब्द की लोकप्रियता एवं व्यापक प्रसार का प्रमाण है।
१ महाभारत के शान्तिपर्व, अनुशासन पर्व एवं भीष्म पर्व द्रष्टव्य हैं। २ स्कन्दपुराण, भाग १, अध्याय ५५ ३ भागवतपुराण ३/२८; ११/१५; १६-२०. ४ द्रष्टव्य---योगवाशिष्ठ के वैराग्य, मुमुक्षु व्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और
निर्वाण प्रकरण । ५ (१) ज्ञानयोग ३/३; १३/२४; (२) भक्तियोग १४/२६; (३) आत्मयोग
१०/६८, ११/४७; (४) बुद्धियोग १०/१०, १८/५७; (५) सातत्ययोग १०/६, १२/१; (६) शरणागतियोग ६/३२-३४, १८/६४-६६; (७) नित्ययोग ६/२२; (८) ऐश्वरीययोग ६/५, ११/४, ह; (६) अभ्यासयोग ८/८, १२/६; (१०) ध्यानयोग १२/५२; (११) दुःख संयोग-वियोगयोग ६/२३; (१२) संन्यासयोग ६/२, ६/२८; (१३) ब्रह्मयोग ५/२१; (१४) यज्ञयोग ४/२८; (१५) आत्म-संयमयोग ४/२७; (१६) दैवयोग ४/२५; (१७) कर्मयोग ३/३, ५/२, १३/२४; (१८) समत्वयोग २/४८, ६/२६, ३३-इन अठारह प्रकार के योगों का उल्लेख एवं वर्णन गीता में हुआ है । इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा नाम 'योग शास्त्र' भी है ।
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