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प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ ३१६ (१) पर्यकासन-दोनों जंघाओं के निचले भाग पैरों के ऊपर रखने पर तथा दाहिना और बाँया हाथ नाभि के पास दक्षिण-उत्तर में रखने से पर्यंकासन होता है।
(२) वीरासन-बायां पैर दाहिनी जाँघ पर और दाहिना पैर बायीं जांघ पर जिस आसन में रखा जाता है, वह वीरासन है ।
वीरासन का दूसरा प्रकार यह है-कोई पुरुष सिंहासन पर बैठा हो और उसके पीछे से सिंहासन हटा लिया जाय तब उसकी जो आकृति बनती है, वह वीरासन है।
(३) वज्रासन-वीरासन करने के उपरान्त वज्र की आकृति के समान दोनों हाथ पीछे रखकर, दोनों हाथों से पैर के अंगूठे पकड़ने पर जो आकृति बनती है, वह वज्रासन है । कुछ आचार्य इसे बेतालासन भी कहते हैं ।
(४) पदमासन-एक जाँघ के साथ दूसरी जाँघ को मध्य भाग में मिलाकर रखना पद्मासन है।
(५) भद्रासन-दोनों पैरों के तलभाग वृषण प्रदेश में-अंडकोषों की जगह एकत्र करके, उसके ऊपर दोनों हाथों की अंगुलियाँ एक-दूसरी अंगुली में डालकर रखना, भद्रासन है ।
(६) दण्डासन-भूमि पर बैठकर इस प्रकार पैर फैलाना कि अंगुलियाँ, गुल्फ और जाँघे जमीन से लगी रहें, दण्डासन है।
(७) उत्कटिकासन-भूमि से लगी हुई एड़ियों के साथ जब दोनों नितम्ब मिलते हैं तब उत्कटिकासन होता है।
(८) गोदोहिकासन-जब एड़ियाँ जमीन से लगी हुई नहीं होती और नितंब एड़ियों से मिलते हैं तब गोदोहिकासन होता है।
(६) कायोत्सर्गासन-कायिक ममत्व का त्याग करके, दोनों भुजाओं को लटकाकर शरीर और मन से स्थिर होना, कायोत्सर्ग आसन है ।'
इनमें से किसी एक आसन अथवा एक से अधिक आसन और अन्य भी कोई आसन, यथा सिद्धासन आदि जिस आसन से भी साधक सुखपूर्वक अधिक देर तक स्थिर रह सके, मन को अचंचल दशा में रख सके-उसी आसन का प्रयोग साधक करता है।
१ ये आसन मुक्ति-प्राप्ति में भी सहायक हैं । अधिकांश साधकों को इन्हीं आसनों . में अवस्थित रहकर कैवल्य और मोक्ष की प्राप्ति हुई है।
-संपादक
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