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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
आसनों से साधक को शारीरिक एवं मानसिक लाभ भी होता है, जैसे कायोत्सर्गासन से मानसिक तनावों से मुक्ति मिलती है, साधक का तन-मन तनाव-मुक्त होकर हल्का और तरोताजा हो जाता है, उसके अन्दर उत्फुल्लता और उत्साह उत्पन्न होते हैं।
आसन-जय अथवा आसन-शुद्धि के द्वारा साधक अपने स्थूल (औदारिक) शरीर को स्थिर करने का अभ्यास करता है।
शरीर के स्थिर होने पर, जो प्राण-शक्ति की धारा शरीर की हलनचलन आदि क्रियाओं में खर्च हो जाती थी, वह नहीं हो पाती; परिणामस्वरूप प्राणशक्ति का प्रवाह तैजस् और औदारिक शरीर को अधिक प्रभावी बनाता है। साथ ही औदारिक शरीर के स्थिर होते ही तैजस शरीर भी स्थिर हो जाता है। अतः प्राणधारा का अखण्ड प्रवाह सहज गति से शरीर के अन्दर ही संचारित होता रहता है । इससे भी तेजस् शरीर को बल मिलता है।
इस प्रकार आसन-शुद्धि की फलश्र ति साधक के तेजस् और औदारिक शरीर की स्वस्थता, प्रभावशाली बनना तथा मानसिक स्थिरता है। ये तीनों लाभ साधक आसनशुद्धि से प्राप्त करता है।
नाड़ी-शुद्धि प्राण-शक्ति को तीव्र, ऊर्जस्वी और ऊर्ध्वमुखी बनाने का यह द्वितीय सोपान है। आसन-शुद्धि के बाद साधक नाड़ी-शुद्धि की ओर अभिमुख होता है । नाड़ी-शुद्धि का अभिप्राय है स्वर नियन्त्रण अथवा स्वर-नियमन ।
मनुष्य के दाँए और बाँए नथुने से जो वायु बाहर निकलता रहता है, वह योग की भाषा में 'स्वर' कहलाता है । दाँए नथुने से जब वायु निकलता है तो दाहिना अथवा दाँया स्वर; और बाँए नथुने से निकलते समय के वायु को बाँया स्वर कहते हैं। ये सूर्य स्वर और चन्द्र स्वर भी कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त जब दोनों ही नथुनों से वायु निःसृत होता है तो उसे सुषुम्ना स्वर कहते हैं।
स्वरों के इन नामों का आधार नाड़ियाँ हैं। गुदा मूल से गरदन के पिछले भाग तक जो लम्बी हड्डी होती है, वह मेरुदण्ड कहलाता है और वह मेरुदण्ड अनेक शिराओं तथा धमनियों के माध्यम से मस्तिष्क से जुड़ा होता है। इस मेरुदण्ड में तीन नाड़ियाँ होती हैं-बायीं ईड़ा, दायीं पिंगला और मध्य की सुषुम्ना । इन्हीं को चन्द्र नाड़ी, सूर्य नाड़ी और सुषुम्ना नाड़ी भी कहते हैं । चन्द्र-नाड़ी में होता हुआ वायु बाँए नथुने से निकलता है, सूर्य
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