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प्राण-शक्ति : स्वरूप, साधना, विकास और उपलब्धियाँ
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नाड़ी में घूमता हुआ दायें नथुने से और सुषुम्ना का वायु दोनों नथुनों से निःसृत होता है।
वायु का नथुनों द्वारा अन्दर खींचना (inhaling) और बाहर निकालना (exhaling) तो सामान्य श्वास-प्रश्वास क्रिया है जो जीवन का लक्षण है; किन्तु यह सामान्य क्रिया विज्ञान-स्वर-विज्ञान तब बनती है, जब साधक इन तीनों प्रकार के स्वरों को नियन्त्रित करता है, अपनी इच्छानुसार चलाता है तथा इस प्रकार अपनी नाड़ियों की शुद्धि करता है ।
यह नाडी-शुद्धि योग का अंग और प्राणायाम की आवश्यक पूर्वपीठिका है। बिना नाड़ी-शुद्धि के प्राणायाम की साधना सही ढंग से नहीं सध पाती, उससे किसी प्रकार की बाह्य लब्धि, चमत्कार उत्पन्न करने की शक्ति तथा मानसिक एवं शारीरिक क्षमता तथा स्वस्थता की प्राप्ति नहीं हो पाती।
प्राचीन युग में योगी और साधक ग्राम-नगरों से बाहर, भयानक वनों में साधना करते थे। सर्दी-गर्मी आदि के प्राकृतिक प्रकोपों का शरीर पर प्रभाव पड़ता ही था, शरीर अस्वस्थ भी हो जाता था, मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थता भंग हो जाती थी, उसका उपचार योगी स्वर-विज्ञान से कर लेते थे।
शीत के प्रकोपों, अजीर्ण आदि का उपचार योगी दांया स्वर चलाकर कर लेता है और गर्मी के प्रकोप, दाह ज्वर आदि का उपचार वह अपना बाँया स्वर चलाकर कर लेता है। भोजन करते समय तथा उसके १ घन्टे बाद तक वह अपना दाँया स्वर चलाता है, जिससे भोजन शीघ्र पच जाता है, अजीर्ण नहीं हो पाता और परिणामस्वरूप कब्ज से होने वाली बीमारियाँ भी नहीं हो पातीं। यदि कभी योगी को अपने शरीर के किसी भी अंग में स्नायविक वेदना मालूम होती है तो वह शरीर में जिस ओर-दायीं या बायीं तरफ स्नायविक या किसी भी प्रकार की पीड़ा होती है, उधर का ही स्वर रोक देता है, उसकी पीड़ा शान्त हो जाती है।
साधक जुकाम और यहाँ तक कि श्वास रोग का उपशमन भी स्वर के माध्यम से कर लेता है। जब दमे का दौरा उठता है, उस समय जिस नासिका से स्वर चल रहा हो उसे रोक कर दूसरी नासिका से चला देता है, इससे दो चार मिनट में ही दमे का दौरा शान्त हो जाता है। प्रतिदिन इस क्रिया को करने से थोड़े दिनों में दमे की पीड़ा शान्त हो जाती है।
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