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________________ योग की आधारभूमि : बद्धा और शील [१] १०६. योग-मार्ग के साधक के लिए जितना सम्यग्दर्शन आवश्यक है, उतना सम्यग्ज्ञान भी है। जब तक वह तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप नहीं जानेगा तब तक उसकी श्रद्धा शुद्ध कैसे हो सकती है। और जब तक श्रद्धा तथा ज्ञान शुद्ध नहीं होंगे तब तक उसका चारित्र (आचरण) भी कैसे शुद्ध हो सकता है । इसीलिए साधक को प्रेरणा दी गई है कि पहले ज्ञान से तत्त्वों को जाने, फिर उन पर श्रद्धा करे और तब आचरण करे और तप से आत्मा को परिशुद्ध-निर्मल करे। सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान के अनन्तर यह (सम्यक्चारित्र) जैन योग का दूसरा आधार है। सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) की उपलब्धि और सम्यग्ज्ञान की आराधना के अनन्तर साधक का चारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है। इसका कारण यह है कि उसकी दृष्टि परिशुद्ध और यथार्थग्राहिणी बन जाती है। उसका ज्ञान यथार्थ वस्तुतत्त्व और उसके वास्तविक स्वरूप को जान लेता है। तब साधक जितनी भी योग-क्रियाएँ करता है, वे सब सम्यग्चारित्र बन जाती हैं। चारित्र का लक्षण बताते हुए कहा गया है असुहादो विणिवित्ति सुहे पावित्ति य जाण चारित्तं । अर्थात्-अशुभ से निवृत्ति और शुभ या शुद्ध में प्रवृत्ति करना, चारित्र है। ज्ञान को आचरण में लाना, यही चारित्रधर्म है तथा इसी का दूसरा नाम सम्यक्चारित्र है। सम्यक्चारित्र के दो भेद आगमों में श्रमण और श्रावक की अपेक्षा चारित्रधर्म अथवा सम्यकचारित्र के दो भेद किये गये हैं-(१) अनगारधर्म और (२) आगारधर्म ।२ अनगारधर्म श्रमण अथवा साधु का चारित्र है और आगारधर्म गृहस्थ का। १ नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥ -उत्तराध्ययन २८/३५ २ चरित्तधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अणगारचरित्तधम्मे, अगारचरित्तधम्मे चेव। -स्थानांग, स्थान २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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