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१३० जैन योग : सिद्धान्त और साधना कुशल काय उदीरणा, अकुशल काय निरोध, (२६) शीतादि पीड़ा सहन, (२७) मारणान्तिक उपसर्ग सहन ।
__किन्तु इन २७ गुणों का अन्तर्भाव समवायांगसूत्र कथित २७ गुणों में हो जाता है।
पाँच महावत साधु के सर्वप्रथम और अति आवश्यक व्रत-पाँच महाव्रत हैं । श्रमण सर्वविरत होता है, वह तीन करण (कृत, कारित, अनुमोदना) और तीन योग (मन-वचन-काया) से व्रत लेता है। इसीलिए उसके अहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहलाते हैं । महाव्रत पाँच हैं-(१) अहिसा महाव्रत, (२) सत्य महाव्रत, (३) अदत्तादान व्रत, (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत, (५) अपरिग्रह महाव्रत ।' ये श्रमण के मूलव्रत हैं, और अष्टांगयोग की भाषा में इन्हें 'यम' कहा जाता है।
__ महर्षि पतंजलि के अनुसार महाव्रत जाति-देश, काल (वेष, सम्प्रदाय निमित्त) आदि की सीमाओं से मुक्त एक सार्वभौम साधना है।'
(१) अहिंसा महाव्रत : समत्व साधना इसका आगमोक्त नाम 'सर्वप्राणातिपातविरमण' है । हिंसा का लक्षण देते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहा है
प्रमत्तयोगात् प्राणव्यारोपणं हिंसा -प्रमाद से अपने या दूसरों के प्राणों को घात करना हिंसा है। और श्रमण इस हिंसा का त्याग तीन करण और तीन योग कर देता है, वह अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करता है।
यद्यपि भाषा की दृष्टि से अहिंसा निषेधात्मक शब्द है किन्तु इसका विधेयात्मक रूप भी है और वह है-प्राणि-रक्षा, जीव-दया, अभयदान, सेवा, क्षमा, मैत्री, आत्मौपम्य भाव आदि। श्रमण निषेधात्मक रूप से किसी भी प्राणी की हिंसा किसी भी प्रकार से न करता है, न कराता है और न अनुमोदना करता है-मन से, वचन से काया से । साथ ही वह अहिंसा के विधेयात्मक रूप का भी पालन करता है-जीव-दया, विश्वकल्याण भावना तथा अपने उपदेशों और उज्ज्वल चारित्र से प्रेरणा देकर लोगों को धर्म की ओर उन्मुख करके।
१ उत्तराध्ययन सूत्र २१/१२ २ जाति-देश-काल-समयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।
-योगदर्शन २/३१
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