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जैन योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [२] १२६ करने से ही श्रमण छह काया के प्रतिपालक होते हैं और अपनी आत्मा का उद्धार करते हैं।
___ आगमों में साधु के सत्ताइस गुण' बताये गये हैं, तथा उनके उत्तरगुण सत्तर हैं।
साधुओं के सत्ताइस (२७) गुण ये हैं
(१-५) पाँच महाव्रतों [(१) सर्व प्राणातिपातविरमण, (२) सर्व मृषावाद-विरमण, (३) सर्व अदत्तादानविरमण, (४) सर्व मैथुनविरमण और (५) सर्व परिग्रहविरमण] का पालन ।
(६-१०) पंचेन्द्रियनिग्रह (श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन)इन पांच इन्द्रियों को विषयाभिमुख न होने देना।
(११-१४) चतुर्विध कषाय-विवेक (क्रोध, मान, माया, लोभ)-इन चार कषायों पर विजय प्राप्त करना।
(१५) भावसत्य, (१६) करणसत्य, (१७) योगसत्य, (१८) क्षमा, (१६) विरागता (२०) मन-समाहरणता, (२१) वाक्-समाहरणता, (२२) कायसमाहरणता, (२३) ज्ञानसम्पन्नता, (२४) दर्शनसम्पन्नता, (२५) चारित्रसम्पन्नता, (२६) वेदना समाध्यासना, (२७) मारणान्तिक समाध्यासना।
कुछ प्रकरण ग्रन्थों में दूसरी अपेक्षा से भी साधु के २७ गुण बताये हैं। वे इस प्रकार हैं
(१-५) पाँच महाव्रत, (६-११) जीवकायसंयम (पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय का संयम) (१२-१६) पंचेन्द्रियनिग्रह, (१७) लोभनिग्रह, (१८) क्षमा, (१६) भावविशुद्धि, (२०) प्रतिलेखना विशुद्धि, (२१-२२) संयम-योगयुक्ति, (२३) कुशलमन-उदीरणा, अकूशलमन-निरोध, (२४) कुशल वचन उदीरणा, अकुशल वचन निरोध, (२५) १ (क) सत्तावीस अणगार गुणा पण्णत्ता । -समवायांग, २७वा समवाय (ख) पंच महव्वय जुत्तो पंचेन्दियसंवरणो,
चउविह कसाय मुक्को तओ समाधारणीया । तिसच्चसम्पन्न तिओ खंति संवेगरओ,
वेयणमच्चुभयगयं साहु गुण सत्तावीसं ॥ २ पिण्डविसोही समिई भावणा पडिमा य इन्दियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥
-ओधनियुक्ति भाष्य, पृ० ६
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