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भयोग सायबर
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(३) विपाकवित्रय, (४) संस्थानविचय । धर्मध्यान के ये चारों भेद आगमोक्त हैं।
(१) आज्ञाविचय धर्मध्यान-आज्ञा का अभिप्राय है-किसी विषय को भली प्रकार जानकर उसका आचरण करना-(आसमान्तात् ज्ञायते आचरति)। योग-मार्ग में इसका अभिप्राय अरिहंत भगवान की आज्ञा, उनके द्वारा प्रणीत धर्म से है, तथा विचय का अर्थ है विचार; उस पर चित्त को एकाग्र करना धर्मध्यान है।
सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकर देव ने वस्तु को प्रत्यक्ष देख-जानकर उसका उपदेश दिया है। उस उपदेश को जान-सुनकर साधक उन शब्दों के अर्थ को समझता है और फिर उन सभी तत्त्वों का आलम्बन लेकर साधक उनका साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है। साधक द्वारा तत्त्व-साक्षात्कार करने का यह प्रयत्न, आज्ञाविचय धर्मध्यान की साधना है। इसी साधना को 'आणाए तवो, माणाए संजमो' तथा 'आणाए मामयं धम्म सूत्र वाक्यों से प्रगट किया गया है ।
(२) अपायविचय धर्मध्यान-अपाय का अर्थ दोष अथवा दुगुण हैं। राग-द्वेष, क्रोधादि कषाय तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद आदि दोष हैं। उन दोषों की विशुद्धि के बारे में एकनिष्ठ होकर चिन्तन करना, अपायविचय धर्मध्यान है। साधक इस ध्यान में दोषों को जानता-समझता व देखता है और उनसे बचने के उपायों का चिन्तन करता है ।
(३) विपाकविचय धर्मध्यान-विपाक का अभिप्राय है कर्मफल । कर्मफल शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है। ध्यानयोगी साधक इन दोनों प्रकार के विपाकों को जानकर कर्मबन्ध की प्रक्रिया से छुटकारा पाने के प्रयासों का चिन्तन करता है। विपाकों को ध्येय बनाकर उन्हें अपने निजस्वभाव से पृथक समझने की साधना करता है। साथ ही साधक गुणस्थानों के आरोह क्रम से इन कर्मों से आत्मा के सम्बन्ध विच्छेद के विषय में चिन्तन करता है।
(४) संस्थानविषय धर्मध्यान-संस्थान का अर्थ आकार है। ध्यानयोगी साधक इस धर्मध्यान में लोक के स्वरूप, छह द्रव्यों के
१ सम्बोधसलरि ३२
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