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जन योग : सिवान्त और साधना
इसीलिए गृहस्थ साधकों के लिए धर्मस्थान, उपासना गृह, चेत्य तथा पौषधशालाएँ और उपाश्रय आदि में जाकर धर्मसाधना एवं तपः-साधना की परम्परा रही है। बाह्य तपों से तपोयोगी को लाम
अनशन, अवमौदरिका, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, काय-क्लेश और प्रतिसंलीनता- इन छह बाह्य तपों की आराधना-साधना से तपोयोगी साधक को अनेक लाभ होते हैं
(१) शरीर-सुखता की भावना का विनाश होता है ।
(२) इन्द्रियों का दमन होता है और उन पर नियन्त्रण स्थापित करने की क्षमता-सामर्थ्य प्राप्त होती है।
(३) वीर्य शक्ति का सदुपयोग होता है। (४) तृष्णा का निरोध होता है । (५) कषायों का निग्रह होता है। (६) काम-भोगों के प्रति विरक्ति होती है।
(७) लाभ-अलाभ, सफलता-विफलता, प्राप्ति-अप्राप्ति में हर्ष-शोक की भावना में कमी आती है।
(८) समत्व भाव दृढ़ होता है। (९) प्रमाद और आलस्य में कमी आती है। (१०) शरीर में स्फूर्ति आती है। (११) मानसिक शक्तियाँ और क्षमताएँ विकसित होती हैं। (१२) बुद्धि में नई-नई स्फुरणाएँ उत्पन्न होती हैं । (१३) श्वास क्रिया पर नियन्त्रण होता है। (१४) आसन सिद्धि होती है। (१५) राग-द्वेष का उपशमन होता है। (१६) स्थूल और सूक्ष्म शरीर का शोधन होता है । (१७) तैजस् शरीर बलशाली होता है । उसका प्रभाव बढ़ता है।
(१८) अन्तरंग तपों की साधना के लिए आधार भूमि तैयार होती है।
(१६) चित्त-शुद्धि होती है।
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