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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
आती है, क्योंकि सामायिक साधना ही आत्मसाधना है और आत्मसाधना ही योग का लक्ष्य है, आदि है और अन्त है ।
यही कारण है कि सामायिक प्रतिमा का महत्त्व गृहस्थयोगी श्रावक के जीवन में अत्यधिक है । इस प्रतिमा का स्वरूप और लक्षण' तथा माहात्म्य अनेक ग्रन्थों में बताया गया है ।
(४) पौषध प्रतिमा
( अहोरात्र की आत्म - साधना )
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जब गृहस्थयोगी में विरक्ति भाव और आत्म-साधना की रुचि विशेष प्रबल हो जाती है तो वह दो घड़ी समय से बढ़ाकर एक रात्रि - दिन (२४ घंटे) तक आत्म-साधना और धर्मध्यान करने लगता है । लेकिन चूँकि गृहस्थ को पारिवारिक और सामाजिक दायित्व भी निभाने पड़ते हैं, इसलिए वह अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या - इन छह पर्व दिनों में अवश्य धर्मस्थान में जाकर, अन्न-पान आदि सभी प्रकार के आहार का त्याग करके तथा समस्त पारिवारिक, सामाजिक गतिविधियों को छोड़, गुरु के सान्निध्य में, यदि वे स्थानक में उपस्थित हों, २४ घण्टे तक धर्म- जागरणा करता है, आत्म-चिन्तन-मनन, स्वाध्याय, धर्मध्यान आदि में समय व्यतीत करता है, यह पौषध प्रतिमा है ।
इस प्रतिमा का धारी गृहस्थयोगी और भी योगनिष्ठ हो जाता है । (५) नियम प्रतिमा
( विविध नियमों की साधना )
इस प्रतिमा को धारण करके गृहस्थयोगी विभिन्न प्रकार के नियमों को ग्रहण करता है, उनकी परिपालना सम्यक् रूप से करता है । इस प्रतिमा के पाँच नियम मुख्य हैं - ( १ ) स्नान नहीं करना (२) रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग अथवा सूर्य के प्रकाश में ही चारों प्रकार का आहार ग्रहण करना, (३) मुकुलीकृत रहना अर्थात् धोती को लांग नहीं लगाना,
१ (क) आयारदसा, छठी दशा, सूत्र १६
1) रत्नकरंड श्रावकाचार, १३६
(क) आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २०
(ख) रत्नकरंड श्रावकाचार १४०
(ग) श्रावकाचार संग्रह, भाग ४, प्रस्तावना, पृ० ८३
(घ) धर्म रत्नाकर, श्लोक ३२-३३, पू० ३३६
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