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णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स
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उपोद्घात
योग का महत्त्व योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्ध: स्वयं ग्रहः ॥ ३७॥ कुण्ठीभवन्ति तीक्ष्णानि मन्मथास्त्राणि सर्वथा। योगवर्मावृते चित्त तपश्छिद्रकराण्यपि ॥ ३६॥ अक्षरद्वयमप्येतच्छ्र यमाणं विधानतः । गीतं पापक्षयायोच्चर्योगसिद्ध महात्मभिः ॥ ४०॥
-योगबिन्दु, हरिभद्रसूरि भारत के लब्धप्रतिष्ठ जैन, बौद्ध और वैदिक-इन तीनों प्राचीन धर्मों का समान रूप से यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि मानव-जीवन का अन्तिम साध्य उसके आध्यात्मिक विकास की पूर्णता और उससे प्राप्त होने वाला प्रज्ञाप्रकर्षजन्य पूर्णबोध और स्वरूपप्रतिष्ठा-दूसरे शब्दों में-परमकैवल्य और निर्वाणपद है। उसकी प्राप्ति के जितने भी उपाय उक्त तीनों धर्मों में बतलाये गये हैं उनमें अन्यतम विशिष्ट उपाय 'योग' है । योग, यह प्राचीन आर्यजाति की अनुपम आध्यात्मिक विभूति है। इसके द्वारा अतीतकाल में आर्यजाति ने आध्यात्मिक क्षेत्र में जो प्रकर्ष प्राप्त किया उसका अन्यत्र दृष्टान्त मिलना यदि असम्भव नहीं तो दुर्लभ अवश्य है।
भारत के परम मेधावी ऋषि-मुनियों ने स्वात्मानुभूति के लिये अपेक्षित प्रज्ञाप्रकर्ष अथवा अन्त हूँ ष्टि के सर्वतोभावी उन्मेष के विकास के लिये अपेक्षित बल का इसी योग-साधना के द्वारा उपार्जन किया था । योग का ही दूसरा नाम अध्यात्म-मार्ग या अध्यात्म-विद्या है ।
भगवद्गीता में इस अध्यात्मविद्या को ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया है । अतः योग, यह मोक्ष-प्राप्ति का निकटतम उपाय होने से मुमुक्षु आत्माओं के लिए नितान्त उपादेय है । इसी दृष्टि को सन्मुख रखकर भारतीय धार्मिक महापुरुषों ने इसकी
१. 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्।
-अ० १०, श्लोक ३२
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