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१५० जन योग : सिद्धान्त और साधना जल में पड़ती थी। परछाई तो जल में उल्टी ही पड़ती है-पैर ऊपर की ओर और सिर नीचे की ओर । उन परछाइयों को देखकर कछुए ने धारणा बना
हठयोग की भाषा में उसका हृदय चक्र जागृत हो जाता है, अनाहत नाद सुनाई देने लगता है और साधक को आनन्द रस की अनुभूति होने लगती है ।
(३) प्रारब्ध कर्मों को ही रुद्रग्रन्थि कहा जाता है । रुद्र का एक अर्थ शिव भी है। शिवजी का निवास मानव के ललाट में माना जाता है, अतः इस ग्रन्थि का स्थान भी ललाट है । हठयोग की भाषा में आज्ञा चक्र है।
इस ग्रन्थि को कारण शरीर-विज्ञानमय कोष में अवस्थित माना गया है। इस ग्रन्थि के भेद के लिए साधक निम्न प्रयास करता है
(१) जीवो ब्रह्म व नापरः (जीव ही ब्रह्म है, ब्रह्म जीव से भिन्न अन्य नहीं) सूत्र पर दृढ़ विश्वास।
(२) बुद्धि तत्त्व में अवस्थान कर स्वयं प्रकाशित चितिशक्ति की ओर बारबार लक्ष्य करने का अभ्यास ।
(३) दृश्य पदार्थों में व्यावहारिक सत्ता है, पारमार्थिक सत्ता नहीं है, युक्ति से इस तथ्य पर दृढ़ विश्वास ।
(४) शास्त्रीय प्रमाणों की सहायता से 'तत्त्वमसि' 'एकमेवाद्वितीयम्' 'नेह मानास्ति किंचन' इत्यादि वाक्यों को प्रमाण मानते हुए अद्वय रूप परिग्रह करने का प्रयास ।
इन प्रयासों से जीव को कारण-शरीर का भी अहंकार समाप्त हो जाता है और रुद्रग्रन्थि का भेदन हो जाता है। इस ग्रन्थि के खुलते ही साधक को विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। और फिर गीता की भाषा में'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है।
संक्षेप में रुद्रग्रन्थि के भेदन से साधक को विशुद्धि बोध स्वरूप (आत्मज्ञान) की प्राप्ति हो जाती है, वह उस ज्ञान ज्योति में रमण करता है और उसके समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं तथा वह मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है।
हठयोग की भाषा में कहें तो कुण्डलिनी शक्ति का मिलाप शिव (शुद्ध ज्योति स्वरूप ज्ञान सत्ता) से हो जाता है। यही वैदिक परम्परा में ग्रन्थिभेदयोग साधना है।
-परमार्थ पथ (गीता प्रेस, चन्डीगढ़) में प्रकाशित 'ग्रन्थि भेद' का संक्षिप्त : सार पृष्ठ २५६-२६७
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