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________________ प्रथमेवयोग साधना १८१ ली कि मनुष्य वह होता है जिसका सिर नीचे भूमि की ओर तथा पैर आकाश की ओर होते हैं । यह विपरीत ज्ञान की ग्रन्थि उसके मन-मानस में इतनी गहरी बैठ गई कि जब उसने पानी से निकलकर और किनारे पर आकर साक्षात् मनुष्य को अपने सामने खड़े देखा तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि उसकी तो धारणा थी कि मनुष्य वह होता है। जिसका सिर जमीन की और और पैर आसमान की ओर होते हैं । इसी प्रकार जिस मनुष्य का चित्त दोलायमान होता है, दीवाल घड़ी के घंटे के समान एक सेकिंड में इधर जाता है तो दूसरे हो क्षण उधर । ऐसी ही स्थिति संशयशील मनुष्य की होती है, जब यह स्थिति अधिक दिनों तक चलती है तो वह ग्रन्थि बन जाती है । इसी प्रकार अधिक समय तक चलने वाली राग-द्वेष, अभिमान, वैर आदि की धाराएँ मन में इतनी गहरी जम जाती हैं कि ग्रन्थियों का रूप ले लेती | अमोनिया पर यदि जल की धारा बहाई जाय तो वह बर्फ बन जाती है, पानी जमकर बर्फ बन जाता है, बस यही दशा मनोग्रन्थियों की है, विभिन्न प्रकार के आवेगों-संवेगों, धारणाओं का प्रवाह भी ग्रंथियों का रूप ले लेता है, मन में गांठ पड़ जाती हैं । प्रथियों की अवस्थिति ग्रन्थियों की अवस्थिति होती है अवचेतन मन में । मनोविज्ञान के अनुसार मन के तीन स्तर माने गये हैं- ( १ ) अचेतन मन ( unconscious mind), (२) अवचेतन मन ( sub-conscious mind) और (३) चेतन मन ( conscious mind). इसे अगर चेतना की दृष्टि से कहना चाहें तो कह सकते हैं- (१) गुप्त चेतना (२) अप्रकट चेतना और (३) प्रकट चेतना । जिस प्रकार मन के तीन विभाजन हैं, उसी प्रकार मानव शरीर के भी तीन प्रकार हैं । प्रथम औदारिक अथवा स्थूल शरीर; द्वितीय तैजस् या सूक्ष्म शरीर और तीसरा कार्मण शरीर । मन, चेतना और शरीर के ये तीनों स्तर उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हैं । ग्रन्थियों की अवस्थिति होती है तैजस् शरीर में और उनके मूल कारण राग-द्वेष की अवस्थिति होती है कार्मण शरीर में ( कर्म रूप में) । इनमें कारण-कार्य भाव होता है, अर्थात् कार्मण शरीर उत्तेजित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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