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५ जैन योग का स्वरूप
जैन मनीषियों ने योग पर बहुत ही गहराई और विशद दृष्टिकोण से चिन्तन किया है । न उन्होंने योग को वाम - कौल तन्त्र की तरह गुह्य बनाया और न हठयोग के समान देह-दण्ड एवं प्राणायाम को ही अत्यधिक महत्व दिया वरन् योग को एक सहज स्वभाव परिणति की क्रिया के रूप में स्वीकारा है ।
जैन धर्म मूलत: निवृत्तिप्रधान धर्म है, मुक्ति उसका लक्ष्य है और मुक्ति-प्राप्ति के लिए ध्यान को आवश्यक क्रिया मानता है । बिना धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के मुक्ति सम्भव ही नहीं है । और ध्यान में चित्त की एकाग्रता तथा शरीर की स्थिरता आवश्यक ही है । इसीलिए ध्यान की विवेचना करते हुए योग पर भी विचार किया गया। दूसरे शब्दों में योग को ध्यान के अन्तर्गत माना गया है तथा इसे आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक स्वीकार किया गया है ।
जैन धर्म में योग की परम्परा अति प्राचीन है । इसके प्रमाण वेद' और उपनिषदों में भी मिलते हैं । अन्य ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक शोधों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैं ।
योग का लक्षण
योगदर्शनकार पतंजलि ने सिर्फ चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग की संज्ञा दी हैं; जबकि जैन मनीषियों ने योग की विविध दृष्टियों से व्याख्या की हैं | पंचसंग्रह में कहा गया हैं-समाधि, तप, ध्यान आदि
ऋग्वेद १०/१३६/२
बृहदारण्यक उपनिषद् ४ / ३ / २२
(क) Modern Review, August 1932, pp. 155-56
(ख) जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, प्राक्कथन, पृ० १० ४ पातंजल योग सूत्र १/२
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जोगो विरियं यामो उच्छाह परक्कमो तहा चेरठा । सति सामत्थं चिय जोगस्स हवन्ति पज्जाया ॥
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- पंचसंग्रह, भाग २, ४
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