________________
जयायोग साधना (मातृयोग)
१५७
है ।' दूसरे शब्दों में वाणी- विवेक, वाणी-संयम और वाणी निरोध ही वचन-गुप्त है ।
(३) काय गुप्ति - संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त काययोग का निरोध करना काय गुप्ति है, साथ ही सोते-जागते, उठते-बैठते, खड़े होते तथा लंघन - प्रलंघन करते समय तथा इन्द्रियों के व्यापार में काययोग का निरोध कायगुप्ति है ।
आगमों में मनोगुप्ति के साथ-साथ मनः समिति का वर्णन भी किया गया है । वहाँ समिति शब्द का निर्वचन इस प्रकार किया गया है— 'संसम्यक्, इति – प्रवृत्ति' अर्थात् सम्यक् प्रवृत्ति ही समिति है । मन की सत्प्रवृत्ति को मनःसमिति माना गया है और मनोगुप्ति से मन का निरोध द्योतित किया गया है |
१ वाचन् पृच्छन् प्रश्नव्याकरणादिष्वपि सर्वथा वाङ निरोधरूपत्वं, सर्वथा भाषानिरोधरूपत्वं वा वाग्गुप्तेर्लक्षणं । - आर्हतुदर्शन दीपिका ५ / ६४४ ठाणे निसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे । उल्लंघणपल्लंघणे, इन्दयाण य जुञ्जणे ॥ संरम्भसमारम्भे, आरम्भम्मि तहेव य ।" कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तज्ज जयं जई ॥ ३ (क) मणेण पावएणं पावकं अहम्मियं दारुणं निस्संसं वहबंधपरिकिले सबहुलं मरणभयपरिकिलेससंकिलिट्ठ त कयावि मणेण पावतेणं पावगं किंचिविज्झायव्वं मणसमिति योगेण भावितो णं भवति अन्तरप्पा |
-- उत्तराध्ययन सूत्र २४ / २४-२५
- प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवरद्वार
(ख) मणगुत्तीए णं भते ! किं जणयइ ?
मत्तीए णं जीवे एगग्गं जणयइ । एगग्गं चित्त े णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । — उत्तराध्ययन सूत्र २६ / ५३
( तत्र मनोनिरोधस्य प्रधानत्वाद – व्याख्याकारः । ) तात्पर्य यह है कि मनोगुप्ति से
ग्रता से मन का निरोध होता है ।
मन की एकाग्रता और एका
Jain Education International
तथा मन से किसी भी प्रकार के पाप का चिन्तवन न करना,
मनःसमिति है ।
फलित यह है कि मन का निरोध निवृत्ति है और पाप का चिन्तन न करके शुभ-शुद्ध का चिन्तन प्रवृत्ति है । इन दोनों के ही अवलम्बन से योगमार्ग की पूर्णता होती है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org