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________________ २६०. जैन योग । सिवान्त और साधना . . . . हृदय से अपने दोषों को प्रकट करके, उनकी शुद्धि के लिए प्रार्थना कर सकता है। प्रायश्चित्त तपाराधना के लिए साधक का हृदय सरल होना अनिवार्य है । सरल हुए बिना प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। प्रायश्चित्त के भेद जैन आगमों में प्रायश्चित्त तप के सम्बन्ध में बहुत व्यापक दृष्टि से विचार किया गया है। साधक की सूक्ष्म से सूक्ष्म मनःस्थिति को पकड़कर प्रायश्चित्त के दस भेद व अनेक उपभेद बताये गये हैं। आलोचनाह, प्रतिक्रमणाह, मिच्छामि दुक्कडं आदि प्रायश्चित्त के विविध प्रकार हैं। प्रायश्चित्त का प्रथम भेद आलोचनाह और अन्तिम भेद पारांचिकाह है। आलोचनाह से लेकर पारांचिकाह तक के सभी प्रायश्चित्तों का उद्देश्य साधक को दंड देना नहीं, अपितु उसकी दोष-विशुद्धि का लक्ष्य है। 'मिच्छामि दुक्कड', जैन साधना में प्रयुक्त यह शब्द बहुत ही गुरु गंभीरो रहस्य को लिये हुए है। तपोयोगी साधक के लिए इस शब्द के रहस्य क जानना अति आवश्यक है । श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यकनियुक्ति में इस शब्द का निर्वचन करके इसके रहस्य को इस प्रकार स्पष्ट किया है 'मि' त्ति मिउमद्दवत्त, 'छ' ति दोसाण छादने होइ। "मि' त्ति अ मेराइ ठिओ 'दु' त्ति दुगंछामि अप्पाणं ।। 'क' ति कडं मे पावं 'ड' त्ति डवेमि तं उवसमेणं । एसो मिच्छा दुक्कड पयक्खरत्थो समासेणं ।। अर्थात्-'मि'कार मदुता से साधक अपने अन्तर्मानस को-कोमल तथा अहंकार रहित बनाता है, तथा 'छकार' से साधक दोषों का त्याग करता है, 'मि' कार से वह अपनी संयम मर्यादा को दृढ़ करता है, 'दु'कार से वह अपनी पाप करने वाली आत्मा की निन्दा करता है, 'क'कार द्वारा वह अपने कृत दोषों को स्वीकार करता है और 'ड'कार द्वारा वह उन दोषों का उपशमन करता है, उन्हें नष्ट करता है। . इस प्रकार तपोयोगी साधक 'मिच्छामि दुक्कडं' के उच्चारण के साथ हृदय में दोषों की स्वीकृति, आलोचना, एवं निन्दा करके प्रायश्चित्त तप की साधना करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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