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तपोयोग साधना-२
११ आभ्यन्तर तप : आत्म-शुद्धि की सहज साधना
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जिस प्रकार बाह्य तप आत्म-आवरणों-तैजस और औदारिक (सूक्ष्म एवं स्थूल-Electric and Material Body) शरीर की शुद्धि की प्रक्रिया है, -साधना है। उसी प्रकार आभ्यंतर तप आत्मशोधन, साथ ही साथ आत्मा के साथ संपृक्त, बद्ध कार्मण शरीर के शोधन की, उसे निजीर्ण करने की साधना है। आत्म-शोधन का अभिप्राय ही कार्मण शरीर-कर्मग्रंथियों का क्षय करना (annihilation) है, क्योंकि आत्मा की शुद्धि ही कामण शरीर के विनाश से होती है।
कार्मण शरीर में राग-द्वेष-आभ्यन्तरिक दोष-क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि की अवस्थिति होती है। मोह के कारण ही आत्मा अशुद्ध हो रहा है, उसको ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय स्वाभाविक दशा विभावरूप में परिणत हो रही है शुद्ध ज्ञायक भाव विकृत हो रहा है।
आभ्यंतर तपोयोगी साधक इन आभ्यंतर तपों की साधना, आराधना द्वारा इस कार्मण शरीर-राग-द्वष-मोह का विनाश करके, क्षय करके आत्मा की शुद्ध स्वाभाविक दशा प्राप्त कर लेता है, शुद्ध-बुद्ध-सिद्ध हो जाता है और अनन्त-अक्षय-अव्याबाध सुख में रमण करने लगना है, त्रैलोक्य और त्रिकाल का ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है।
आभ्यंतर तपों की साधना में निरत साधक अपनी साधना-यात्रा प्रायश्चित्त-पापों के शोधन-आन्तरिक पापों के शोधन से शुरू करता है और देह विसर्जन-व्युत्सर्ग पर समाप्त करता है । दूसरे शब्दों में, योग (मन-वचनकाया-तीनों योग) शुद्धि से प्रारम्भ करके योग-निरुन्धन पर समाप्त करता रई,योग की पराकाष्ठा करके योगातीत हो जाता है। (१)प्रायश्चित्त तप : पाप-शोधन की साधना
आभ्यंतर छह तपों में प्रायश्चित्त प्रथम तप है। प्रायश्चित्त है भूलशोधन-पाप शोधन की साधना ।
१ प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् ।
-धर्मसंग्रह ३, अधिकार
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