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अंश में, कुछ भी प्रयत्न किया जाए, तो वह ऋण-मुक्ति नहीं तो ऋणमुक्ति के रूप में एक अनुकरणीय आदर्श श्रद्धांजलि तो अवश्य है ही। अतः मैं श्री अमरमुनिजी के यशस्वी भविष्य के लिए मंगलमूर्ति प्रभु महावीर के श्रीचरणों में अभ्यर्थना की प्रियमुद्रा में हूँ। साथ ही सम्पादन कला के मर्मज्ञ विश्र त मनीषी श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' का योगदान भी प्रस्तुत संस्करण का स्पृहणीय अलंकरण है । अतः वे भी हृदय से धन्यवादाह हैं।
पुस्तक तीन खण्डों में विभक्त है, और साथ में अन्य अनेक ज्ञानवर्धक परिशिष्ट भी हैं । एक प्रकार से जैन-जनेतर दोनों ही परम्पराओं के योग-सम्बन्धी चिन्तन का यह एक उप देय संकलन है । योग का स्वरूप, योग की पुरातन और नूतन प्रक्रियाएँ एवं विधाएँ, अन्तरंग तथा बहिरंग फलश्र तियाँ-प्रायः योग का सांगोपांग समग्र विवेचन इस एक ही पुस्तक में उपलब्ध है। इसीलिए मैं प्रस्तुत में योग-सम्बन्धी विधि-विधानों के विवेचन में अवतरित नहीं हुआ हूँ । जब पुस्तक में वह सब विवेच्य विषय उपलब्ध है, तब अलग से वही पिष्टपेषण करने से क्या लाभ है ? योग से सम्बन्धित जिज्ञासाओं की पूर्ति प्रस्तुत पुस्तक से सहज ही संभावित है । अतः मैं जिज्ञासु पाठकों को साग्रह निवेदन करूंगा कि वे आचार्यश्री की वाणी का लाभ उठाएँ, और जीवन को आध्यात्मिक एवं सामाजिक सभी पक्षों से परिष्कृत एवं माजित करें। देवत्व का अभाव नहीं है मानव में । अपेक्षा है केवल उस सुप्त देवत्व को जागृत करने की । और वह जागरण आचार्यश्री की प्रस्तुत महनीय कृति के अध्ययन, चिन्तन, मनन और तदनुरूप समाचरण से निश्चितरूपेण साध्य है। वीरायतन, राजगृह
-उपाध्याय अमर मुनि १४ अगस्त १९८३
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