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३३४ जन योग : सिदान्त और साधना उसकी अभिव्यक्ति औदारिक (स्थूल) शरीर में होती है । मनुष्य का प्राणजगत, मनोजगत और आत्मा भी इससे प्रभावित होता है । इसीलिए ऐसी आत्मा को जैनागमों में कषायात्मा कहा गया है।
लेश्याध्यान द्वारा साधक इस कषाय-अनुरंजित भावधारा को निर्मल और स्वच्छ बनाने की साधना करता है।
आभामंडल जैन दर्शन के अनुसार लेश्या के दो भेद हैं—(१) भाव लेश्या और (२) द्रश्य लेश्या।
योग के अनुसार भावलेश्या तो कषाय-आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन हैं, भावधारा है और द्रव्यलेश्या, आत्मा के उन परिस्पन्दनों से आकर्षित पुद्गल वर्गणाएँ-तेजस् पुद्गल वर्गणाएँ हैं, इन तैजस पुद्गल वर्गणाओं से ही तैजस् अथवा प्राण शरीर की सृष्टि होती है और उसी में द्रव्य लेश्याओं की अवस्थिति होती है। तेजस् अथवा प्राण शरीर पौद्गलिक होने के कारण दृश्य होता है, उसमें रूप होता है, अतः लेश्या (द्रव्य लेश्या) भी रूपगुण युक्त होती है। उसमें विविध वर्ण होते हैं। इन वर्गों के आधार पर लेश्या छह प्रकार की मानी गई है।
आगमों में लेश्या को आणविक आभा, कान्ति, प्रभा और छाया रूप बताया गया है।
आधुनिक विज्ञान ने भी सूक्ष्म (प्राण) शरीर को न्यूट्रिनो पुद्गलों से निर्मित प्रकाश रूप माना है। उन्होंने इसके फोटो भी लिये हैं। वे यह भी मानते हैं कि शुभ विचारों के समय यह प्राण शरीर पीला, लाल और श्वेत रंग का हो जाता है और कुत्सित विचारों के समय हरा, नीला तथा काले रंग का।
__ इस प्राण शरीर से एक प्रकार की विद्युत धारा निकलती है। इस विद्य तधारा का निर्माण तैजस् परमाणुओं (न्यूट्रिनो कणों) की तीव्रतम गति के कारण होता है। वैज्ञानिक इसे मानव विद्य त (Human Electricity) कहते हैं । यह विद्यु त भी प्राणमय शरीररूप होती है।
१ लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जन नयनानीति लेश्या-अतीव चक्षुरापेक्षिका स्निग्धदीप्त रूपा छाया ।
- उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ६५०
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