Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OOO ००००० 200920 9 . ०००००० 10. .0000 GGood 0000000000000000 500 आचार्य श्री आनन्द ऋषि B7G-ICON Jain Education riterne Fortscar Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ न न्द प्र व च न [ भाग बारह ] For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन [बारहवां भाग ] [गौतम कुलक पर २० प्रवचन ] प्रवचनकार राष्ट्रसंत आचार्यश्री आनन्द ऋषि सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक श्री रत्न जैन पुस्तकालय अहमदनगर For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आनन्द प्रवचन : बारहवाँ भाग | 0 प्रकाशक श्री रत्न जैन पुस्तकालय बुरुडगांव रोड पो० अहमदनगर (महाराष्ट्र) प्रथम बार : अक्टूबर १९८१ वि० सं० २०३८ आश्विन (विजयादशमी) वीर निर्वाण सं० २५०७ 0 पृष्ठ ३७४ । प्रथम संस्करण २२०० प्रतियाँ 1 मुद्रक श्रीचन्द सुराना के लिए जैन इलैक्ट्रिक प्रेस, आगरा-३ मूल्य-बीस रुपये मात्र - For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय परम श्रद्ध य आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी महाराज श्वे० स्था० जैन श्रमण संघ के द्वितीय आचार्य हैं, यह हम सबके गौरव की बात है। हां, यह और भी अधिक उत्कर्ष का विषय है कि वे भारतीय विद्या (अध्यात्म) के गहन अभ्यासी तथा मर्मस्पर्शी विद्वान हैं । वे न्याय, दर्शन, तत्त्वज्ञान, व्याकरण तथा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता हैं और साथ ही समन्वयशीलप्रज्ञा और व्युत्पन्न प्रतिभा के धनी हैं, उनकी वाणी में अद्भुत ओज और माधुर्य है । शास्त्रों के गहनतम अध्ययनअनुशीलन से जनित अनुभूति जब उनकी वाणी से अभिव्यक्ति पाती है तो श्रोता सुनतेसुनते भाव-विभोर हो उठते हैं । उनके वचन जीवन-निर्माण के मूल्यवान सूत्र हैं। आचार्यप्रवर के प्रवचनों के संकलन की बलवती प्रेरणा विद्यारसिक श्री कुन्दन ऋषिजी महाराज ने हमें प्रदान की। बहुत वर्ष पूर्व जब आचार्यश्री का उत्तर भारत, देहली, पंजाब आदि प्रदेशों में विचरण हुआ, तब वहाँ की जनता ने भी आचार्य श्री के प्रवचन साहित्य की मांग की थी। जन-भावना को विशेष ध्यान में रखकर • श्री कुन्दन ऋषिजी महाराज के मार्गदर्शन में हमने आचार्यप्रवर के प्रवचनों के संकलन, सम्पादन, प्रकाशन की योजना बनायी और कार्य भी प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे अब तक 'आनन्द प्रवचन' नाम से बारह भाग प्रकाश में आ चुके हैं। ___यद्यपि आचार्यप्रवर के सभी प्रवचन महत्त्वपूर्ण तथा प्रेरणाप्रद होते हैं फिर भी सबका संकलन-संपादन नहीं किया जा सका । कुछ तो सम्पादकों की सुविधा व कुछ स्थानीय व्यवस्था के कारण आचार्यप्रवर के लगभग ३००-४०० प्रवचनों का संकलन-संपादन ही अब तक हो सका है। जिनका बारह भागों में प्रकाशन किया जा चुका है । प्रथम सात भागों का संपादन प्रसिद्ध विदुषी धर्मशीला बहन कमला जैन 'जीजी' ने किया है । पाठकों ने सर्वत्र ही इन प्रवचनों को बहुत रुचि व भावनापूर्वक पढ़ा और अगले भागों की मांग की। आठवें भाग में प्रसिद्ध ग्रन्थ 'गौतमकुलक' पर दिए गए २० प्रवचन हैं तथा नवें भाग में प्रवचन संख्या २१ से ४० तक के २० प्रवचन हैं । दसवें भाग में ४१ से For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ तक कुल १६ प्रवचन हैं । ग्यारहवें भाग में ६० से ८० तक २१ प्रवचन है तथा बारहवें भाग में ८१ से १०० तक १० प्रवचन हैं। इस प्रकार ८ से १२ तक के पाँच भागों में १०० प्रवचन दिये गये हैं। 'गौतमकुलक' जैन साहित्य का बहुत ही विचार-चिन्तनपूर्ण सामग्री से भरा सुन्दर ग्रन्थ है । इसका प्रत्येक चरण एक जीवनसूत्र है, अनुभूति और संभूति का भंडार है । ग्रन्थ परिमाण में बहुत ही छोटा है, सिर्फ बीस गाथाओं का, किन्तु प्रत्येक गाथा के प्रत्येक चरण में गहनतम विचार-सामग्री भरी हुई हैं। अगर एक-एक चरण पर चिन्तन-मनन किया जाये तो भी विशाल विचार साहित्य तैयार हो सकता है । श्रद्धेय आचार्य सम्राट ने अपने गहनतम अध्ययन-अनुभव के आधार पर इस ग्रन्थ के एक-एक सूत्र पर विविध दृष्टियों से चिन्तन-मनन-प्रत्यालोचन कर जीवन का नवनीत प्रस्तुत किया है। इन प्रवचनों में जहाँ चिन्तन की गहराई है, वहाँ जीवन जोने की सच्ची कला भी है । गौतम कुलक के इन प्रवचनों को पाँच भागों में प्रकाशित किया गया है । प्रथम खण्ड पाठकों की सेवा में तीन वर्ष पूर्व पहुँचा था। गौतम कुलक पर प्रवचनों का द्वितीय खण्ड, तृतीय खण्ड और चतुर्थ खण्ड भी छप चुका है और यह पाँचवाँ खण्ड की सेवा में प्रस्तुत है। इन प्रवचनों का सम्पादन यशस्वी साहित्यकार श्रीचन्द जी सुराना ने किया है। विद्वान लेखक मुनिश्री नेमीचन्दजी महाराज का मार्गदर्शन एवं उपयोगी सहकार भी समय-समय पर मिलता रहा है। इसके प्रूफ संशोधन में श्रीयुत बृजमोहनजी जैन का स्मरणीय सहयोग रहा है। हम उनके आभारी हैं। आशा है, यह प्रवचन पुस्तक पाठकों को पसन्द आएगी। मन्त्री भी रत्न जैन पुस्तकालय For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदार-सहयोगी दूगड़ परिवार : एक परिचय दानवीर सेठ दुलीचन्दजी दूगड़, चन्द्रपुर [वरोरा] आनन्द प्रवचन, भाग १२ के प्रकाशन में हमारे समाज के प्रसिद्ध श्रीमंत, दानी, तपस्वी व गुरुभक्त श्रीमान प्रकाशचन्दजी दूगड़ ने अपने पूज्य पिताजी व सौ० माताजी की तरफ से उदार अर्थ-सहयोग प्रदान किया है । आपका परिचय इस प्रकार है। ___ महाराष्ट्र के वरौरा (विदर्भ) क्षेत्र में श्रीमान जगन्नाथजी दूगड़ का परिवार रहता है। यह परिवार बड़ा ही धार्मिक, संस्कारी व सम्पन्न है। इस परिवार में श्रीमान जगन्नाथजी की धर्मशाला पत्नी श्रीमती केसरदेवीजी के उदर से श्री दुलीचन्दजी का जन्म हुआ। दुलीचन्दजी बड़े ही सात्त्विक, धर्मप्रेमी व भाग्यशाली पुरुष हैं। पूर्वपुण्यों व पुरुषार्थ के बल पर आपने विपुल सम्पत्ति कमाई व लाखों ही रुपये धर्म व समाज-सेवा के कार्यों में खर्च किये, व कर रहे हैं । आपकी धर्मपत्नी सौ० तीजाँबाई एक अति सात्त्विक, सादगी सम्पन्न, धार्मिक विचारों की तपस्विनी महिला हैं। आप ६ साल से लगातार वर्षीतप कर रही हैं। वर्षीतप के दौरान अनेक अठाइयाँ आदि विविध महान् तपस्याएं भी करती रहती हैं। साधु-सतियों की सेवा, दान, पुण्य आदि सत्कार्यों में सदा जागरूक व आगे रहती हैं। सौ० तीजाबाई को सत्कार्यों में दान करके बड़ी प्रसन्नता अनुभव होती है । यह आपकी. दुलंभ विशेषता है। श्रीमान दुलीचन्दजी के चार सुपुत्र हैं-१. सुभाषकुमारजी २. प्रकाशचन्दजी ३. दिलीपकुमारजी व ४. प्रदीपकुमारजी। चारों ही बन्धु परस्पर प्रेम व विनयशील हैं । धर्म के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा है। सभी सुसंस्कारी हैं। अभी आपका मुख्य निवास चन्द्रपुर में है। अपने पुरुषार्थ, कठिन श्रम, मिलनसारिता और ईमानदारी के कारण आपने व्यापार में बहुत उन्नति की है। चन्द्रपुर, आकोला, औरंगाबाद तथा बीड़ जिला में आपकी बहुत प्रसिद्धि है। चारों ही स्थानों पर आपका व्यापार फैला है। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) श्री प्रकाशचन्दजी दूगड़ जहाँ अनेक धार्मिक संस्थाओं के कर्मठ कार्यकर्ता, ट्रस्टी व संरक्षक हैं वहाँ आप तप एवं दान की आराधना में भी अग्रणी हैं। आपने २८ वर्ष की आयु में ४५ दिन का उपवास तथा १५, १३, ११ उपवास व अठाइयाँ आदि की तपस्या की है । इतनी छोटी आयु में इतनी बड़ी तपस्याएँ व फिर भी अपना सब कारोबार सँभालते रहना एक आश्चर्य की बात है । आप में दान- भावना भी बहुत प्रबल है । मूक जीवों के प्रति दया तथा गरीबों की सहायता में आपको रुचि है । श्री. दिलीपकुमारजी एवं प्रदीपकुमारजी ने भी ६-६ उपवास किये हैं । परिवार के सभी सदस्यों में तपस्या करने की बड़ी लगन है । यहाँ तक कि नन्हे नन्हे बालक भी निर्जल उपवास करके बड़े प्रसन्न होते हैं । श्री दुलीचन्दजी के सात पुत्रियाँ हैं जो अच्छे-अच्छे स्थानों पर घर की शोभा बढ़ा रही हैं । आनन्द प्रवचन के भाग १२ के प्रकाशन में आपकी तरफ से संपूर्ण आर्थिक अनु दान प्राप्त हुआ है । यह आपकी गुरुभक्ति, दानवीरता और धर्म प्रेम का विशिष्ट परिचायक है। आपके उदार सहयोग के प्रति हम हार्दिक आभार प्रकट करके भविष्य में を भी इसी प्रकार आपका सहयोग प्राप्त होता रहेगा, यही कामना करते हैं । आपका परि वार सुख-समृद्धि के साथ चिरकाल तक धर्म-सेवा करता रहे, यही मंगल-भावना है... मंत्री श्री रत्न जैन पुस्तकालय अहमदनगर (महाराष्ट्र) For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ animammymare WWWHAAEESHBAR MANANHARASHTRA MiwaRTHANE SANDESH । धर्मप्रेमी, उदारमना, सद्गृहस्थ श्रीमान दुलीचन्द जी जगन्नाथ जी दूगड़ (वरोरावाले) चन्द्रपुर For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशीला तपस्विनी सुश्राविका सौ० तिजाबाई दुलीचन्द जी दूगड़ ( बरोरावाले) चन्द्रपुर For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैन साहित्य भारतीय साहित्य की एक अनमोल निधि है । जैन मनीषियों का चिन्तन व्यापक और उदार रहा है । उन्होंने भाषावाद, प्रान्तवाद, जातिवाद, पंथवाद की संकीर्णता से ऊपर उठकर जन-जीवन के उत्कर्ष के लिए विविध भाषाओं में विविध विषयों पर साहित्य का सरस सृजन किया है । अध्यात्म, योग, तत्त्वनिरूपण, दर्शन, न्याय, काव्य, नाटक, इतिहास, पुराण, नीति, अर्थशास्त्र, व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, भूगोल-खगोल, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, मन्त्र, तन्त्र, संगीत, रत्न-परीक्षा, प्रभृति विषयों पर साधिकार लिखा है और खूब जमकर लिखा है । यदि भारतीय साहित्य में से जैन साहित्य को पृथक कर दिया जाय तो भारतीय साहित्य प्राणरहित शरीर के सदृश परिज्ञात होगा। जैन साहित्य मनीषियों ने विविध शैलियों में अनेक माध्यमों से अपने चिन्तन को अभिव्यक्ति दी है। उनमें एक शैली कुलक भी है । 'कुलक' साहित्य के नाम से भी जैन चिन्तकों ने बहुत कुछ लिखा है । दान, शील, तप, भाव, ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि अनेक जीवनोपयोगी विषयों पर पृथक-पृथक कुलकों का निर्माण किया है । मैंने अहमदाबाद, बम्बई, पूना, जालोर, खम्भात आदि में अवस्थित प्राचीन साहित्य भण्डारों में विविध विषयों पर 'कुलक' लिखे हुए देखे हैं पर इस समय विहार यात्रा में होने के कारण साधनाभाव से उन सभी कुलकों का ऐतिहासिक पर्यवेक्षण प्रस्तुत नहीं कर पा रहा हूँ। __मैं जब बहुत ही छोटा था तब मुझे परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य ने 'गौतम कुलक' याद कराया था। मैंने उसी समय यह अनुभव किया कि इस ग्रन्थ में लेखक ने बहुत ही संक्षेप में विराट भावों को कम शब्दों में लिखकर न केवल अपनी प्रकृष्ट चिन्तनशील प्रतिभा का परिचय दिया है, बल्कि कुशल अभिव्यंजना का चमत्कार भी प्रदर्शित किया है। ... गौतम कुलक वस्तुतः बहुत ही अद्भुत व अनूठा ग्रन्थ है । यह वामन की तरह बाकार में लघु होने पर भी भावों की विराटता को लिए हुए है । एक-एक लघु For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) सूक्ति और उक्ति को स्पष्ट करने के लिए सैकड़ों पृष्ठ सहज-रूप से लिखे जा सकते हैं । 'गौतम कुलक' के कुछ चिन्तन वाक्य तो बहुत ही मार्मिक और अनुभव से परिपूर्ण हैं । एक प्रकार से प्रत्येक पद स्वतन्त्र सूक्ति है, स्वतन्त्र जीवनसूत्र है और है विजयमन्त्र। परम आल्हाद है कि महामहिम आचार्य सम्राट राष्ट्रसन्त आनन्द ऋषिजी महाराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ-रत्न पर मननीय प्रवचन प्रदान कर जन-जन का ध्यान इस ग्रन्थ-रत्न की ओर केन्द्रित किया है। आचार्य प्रवर ने अपने जीवन की परख' नामक प्रथम प्रवचन में 'गौतम कुलक' ग्रन्थ के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार से विवेचन किया है, जो उनकी बहुश्रुतता का स्पष्ट प्रमाण है । परम श्रद्धेय आचार्य सम्राट को कौन नहीं जानता ? साक्षर और निरक्षर, बुद्धिमान और बुद्ध , बालक और वृद्ध, युवक और युवतियाँ सभी उनके नाम से परिचित हैं । वे उनके अत्युज्ज्वल व्यक्तित्व और कृतित्व की प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं हैं । वे श्रमणसंघ के ही नहीं, अपितु स्थानकवासी जैन समाज के वरिष्ठ आचार्य हैं, उनके कुशल नेतृत्व में एक हजार से भी अधिक श्रमण और श्रमणियां ज्ञान-दर्शनचारित्र की आराधना कर रहे हैं। लाखों श्रावक और श्राविकाएँ श्रावकाचार की साधना कर अपने जीवन को चमका रहे हैं । वे श्रमणसंघ के द्वितीय पट्टधर हैं । उनका नाम ही आनन्द नहीं अपितु उनका सुमधुर व्यवहार भी आनन्द की साक्षात प्रतिमा है । उनका स्वयं का जीवन तो आनन्द स्वरूप है ही । आप जब कभी भी उनके पास जायेंगे तब उनके दार्शनिक चेहरे पर मधुर मुस्कान अठखेलियाँ करती हुई देखेंगे । वृद्धावस्था के कारण भले ही शरीर कुछ शिथिल हो गया हो किन्तु आत्मतेज पहले से भी अधिक दीप्तिमान है । उनके निकट सम्पर्क में जो भी आता है वह आधि, व्याधि, उपाधि को भूलकर समाधि की सहज अनुभूति करने लगता है। यही कारण है कि उनके परिसर में रात-दिन दर्शनार्थियों का सतत जमघट बना रहता है । दर्शक अपने आपको उनके श्रीचरणों में पाकर धन्य-प्रसन्न अनुभव करने लगता है। भारतीय साहित्य के किसी महान चिन्तक ने कहा है कि भगवान यदि कोई है तो आनन्द है । 'आनन्दो ब्रह्म इति व्यजानात्' (उपनिषद्) मैंने जान लिया है, आनन्द ही ब्रह्म है । आनन्द से ही परमात्म-तत्त्व के दर्शन होते हैं। जब आत्मा परभाव से हटकर आत्म-स्वरूप में रमण करता है तो उसे अपार आनन्द प्राप्त होता है । For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) सच्चा आनन्द कहीं बाहर नहीं, हमारे अन्दर ही विद्यमान है । आचार्य सम्राट अपने प्रवचनों में, वार्तालाप में उसी आनन्द को प्राप्त करने की कुञ्जी बताते हैं। भूलेभटके जीवन-राहियों का सच्चा पथ-प्रदर्शन करते हैं । आचार्य सम्राट के प्रवचनों को सुनने का मुझे अनेक बार अवसर प्राप्त हुआ है और उनके प्रवचन साहित्य को पढ़ने का सौभाग्य भी मुझे मिला है। जिसके आधार से मैं यह साधिकार कह सकता हूँ कि आचार्य सम्राट एक सफल प्रवक्ता हैं । यों तो प्रत्येक मानव बोलता है, पर उसकी वाणी का दूसरों के मानस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता; किन्तु आचार्य सम्राट जब भी बोलना प्रारम्भ करते हैं तो श्रोता-गण मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं । श्रोताओं का मन-मस्तिष्क उनकी सुमधुर भावधारा में प्रवाहित होने लगता है। आचार्यप्रवर की वाणी में शान्त-रस, करुण-रस, हास्य-रस, वीररस की सहज अभिव्यक्ति होती है । उसके लिए आपश्री को प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि लोग आपश्री को वाणी का जादूगर मानते हैं। आपश्री की वाणी में मक्खन की तरह मृदुता है, शहद की तरह मधुरता है, और मेघ की तरह गम्भीरता है। भावों की गंगा को धारण करने में भाषा का यह भगीरथ पूर्ण समर्थ है । आपनी की वाणी में ओज है, तेज है, सामर्थ्य है । __ आपश्री के प्रवचनों में जहाँ एक ओर महान आचार्य कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र की तरह गहन आध्यात्मिक चिन्तन है, आत्मा-परमात्मा की विशद चर्चा है तो दूसरी ओर आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और अकलंक की तरह दार्शनिक रहस्यों का तर्कपूर्ण सही-सही समाधान भी है । स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, नय, निक्षेप, सप्तभंगी का गहन किन्तु सुबोध विश्लेषण है । एक ओर आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र की तरह सर्वविचार समन्वय का उदात्त दृष्टिकोण प्राप्त होता है तो दूसरी ओर आनन्दघन व कबीर की तरह फक्कड़पन और सहज निश्छलता दिखाई देती है। एक ओर आचार्य मानतुग की तरह भक्ति की गंगा प्रवाहित हो रही है तो दूसरी ओर ज्ञानवाद की यमुना बह रही है । एक ओर आचार क्रान्ति का सूर्य चमक रहा है तो दूसरी ओर स्नेह की चारुचन्द्रिका छिटक रही है । एक ओर आध्यात्मिक चिन्तन की प्रखरता है तो दूसरी ओर सामाजिक समस्याओं का ज्वलन्त समाधान है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि आचार्यप्रवर के प्रवचनों में दार्शनिकता, आध्यात्मिकता, साहित्यिकता आदि सब कुछ है । मेरे सामने आचार्यप्रवर के प्रवचनों का यह बहुत ही सुन्दर संग्रह है। ‘गौतम कुलक' पर उनके द्वारा दिये गये मननीय प्रवचन हैं। प्रवचन क्या हैं, चिन्तन और अनुभूति का सरस कोष है । विषय को स्पष्ट करने के लिए जहाँ आगम, उपनिषद, गीता, महाभारत, कुरान, पुराण तथा आधुनिक कवियों के अनेक उद्धरण दिये गये हैं वहाँ पाश्चात्य चिन्तक फिलिप्स, जानसन, बेकन, फूले, साउथ, टालस्टाय, ईसामसीह, For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) चेनिंग, बॉबी, पिटरसन, सेनेका, विलियम राल्फ, इन्गे, हॉम, सेण्ट मेथ्यू, जार्ज इलियट, शेली, पोप, सिसिल, कॉस्टन, शेक्सपियर प्रभृति शताधिक व्यक्तियों के चिन्तनसूत्र भी उद्धृत किये गये हैं । जिससे यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि आचार्य सम्राट का अध्ययन कितना गम्भीर व व्यापक है । पौराणिक, ऐतिहासिक रूपकों के अतिरिक्त अद्यतन व्यक्तियों के बोलते जीवन - चित्र भी इसमें दिये हैं जो उनके गम्भीर व गहन विषय को स्फटिक की तरह स्पष्ट करते हैं । यह सत्य है कि जिसकी जितनी गहरी अनुभूति होगी उतनी ही सशक्त अभिव्यक्ति होगी । आचार्यप्रवर की अनुभूति गहरी है तो अभिव्यक्ति भी स्पष्ट, सशक्त और प्रभावशालिनी है । मैंने आचार्यप्रवर के प्रवचनों को पढ़ा है । मुझे ऐसा अनुभव हुआ है कि प्रवचनों का सम्पादन भाव, भाषा और शैली सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट हुआ है । सम्पादन कला - मर्मज्ञ, कलम - कलाधर श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' ने अपनी सम्पादन कला का उत्कृष्ट रूप उपस्थित किया है । गौतम कुलक का स्वाध्याय करने वाले जब इन प्रवचनों को पढ़ेंगे तो उनके समक्ष इसके अनेक नये नये गम्भीर अर्थ स्पष्ट होंगे । इन प्रवचनों में सिर्फ उपदेशक का उपदेश - कौशल ही नहीं, बल्कि एक विचारक का विचारवैभव तथा अनुशीलनात्मक दृष्टि भी है । इससे प्रवचनों का स्तर काफी ऊँचा व विचार-प्रधान बन गया है । इन प्रवचनों को पढ़ते समय प्रबुद्ध पाठकों को ऐसा अनुभव भी होगा कि इन प्रवचनों में उपन्यास और कहानी साहित्य की तरह सरसता है, दार्शनिक ग्रन्थों की तरह गम्भीरता है । यदि एक शब्द में कह दिया जाय तो सरलता, सरसता और गम्भीरता का मधुर समन्वय हुआ है । ऐसे उत्कृष्ट साहित्य के लिए पाठक आचार्य प्रवर का सदा ऋणी रहेगा तो साथ ही ऐसे सम्पादक के श्रम को भी विस्मृत नहीं हो सकेगा । मुझे आशा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि प्रस्तुत आनन्द प्रवचनों के ये सभी भाग सर्वत्र समादूत होंगे। इन्हें अधिक से अधिक जिज्ञासु पढ़कर अपने जीवन को चमकायेंगे | - देवेन्द्र मुनि शास्त्री For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-१८ अनुक्रमणिका ८१. सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि कला और जीवन का सम्बन्ध १, कलात्मक जीवन : यह या वह ? २, मनुष्य में विचारशीलता के कारण कला का उद्भव ३, विचार-शक्ति का जीवन-कला से सम्बन्ध-विच्छेद ३, फैशन के कारण विकृति ४, कलाहीन अस्वस्थ जीवन ५, उदासी : कलात्मक जीवन की पतझड़ ६, कलामय जीवन : जीवन को नैतिक सद्गुणों से सजाना ६, कार्य में जान डाल देना ही कला है ७, ये दुर्गुण कला में आग लगाने वाले हैं ८, एक कार्य : तीन दृष्टियाँ ८, पहली दृष्टि : कला का उपयोग चोरी आदि की दृष्टि से ६, सहस्रमल्ल का दृष्टान्त १०, दूसरी दृष्टि : प्रसिद्धि आदि की लिप्सा १३, तीसरी दृष्टि : धर्मकला से ओत-प्रोत १४, धर्मकला को कौन उपलब्ध करता है ? १६, धर्मकलायुक्त जीवन जीने वाला १७ । ८२. धर्मकथा : सर कथाओं में उत्कृष्ट ___ अन्य कथाएं और धर्मकथा १६, स्त्रीकथा १६, भक्तकथा २०, राजकथा २१, देशकथा २१, आधुनिक विकथाएं २२, धर्मकथा क्या है, क्या नहीं ? २४, धर्मकथाश्रवण-मनन-निदिध्यासन से लाभ २६, लोहखुर चोर का दृष्टान्त २७, धर्म-कथा-श्रवण को प्राथमिकता २८, धर्मकथा से सभी समस्याओं का हल २६, ये (दस प्रकार के व्यक्ति) धर्मकथा से लाभ नहीं उठा सकते ३०, धर्मकथा सुनने के अधिकारी पुरुष के लक्षण ३१, धर्मकथा का जीवन पर प्रभाव और चमत्कार ३१, अनंग-सुन्दरी का दृष्टान्त ३२ । ८३. धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ बल : सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक ३३, निर्बलता पाप और अपराध है ३५, दूसरे बल और धर्मबल ३६, १६-३२ ३३-४७ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) ४८-६३ आत्मबल : धर्मबल की फलश्रुति ३८, भागवत-पुराण में वर्णित गज-ग्राह का दृष्टान्त ४०, आत्मबल या परमात्मबल का मूलस्रोत : धर्मबल ४१, धर्मबल द्वारा सुषुप्त आत्मबल का प्रकटीकरण ४२, धर्मबल कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में ? ४४, त्याग की शक्ति के रूप में धर्मबल ४४, तप के रूप में धर्मबल ४५, धर्मबल : श्रद्धा-विश्वास के रूप में ४५, धर्मबल : श्रद्धा-भक्ति के रूप में ४६, देवयानी और कच का दृष्टान्त ४६ । ८४. सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट धर्मसुख से भिन्न सुख : कौन-कौन से, कैसे और किन में ? ४८, बाह्य वस्तुओं में सुख की खोज : भ्रम है ४६, व्यक्ति-विशेष में सुख को केन्द्रित करना : अज्ञान ४६, स्त्री में सुख नहीं ५०, संतान का सुख : एक मृगतृष्णा ५१, धन की प्रचुरता सुख का कारण नहीं ५२, इन्द्रिय-विषयों की तृप्ति में सुख मानना भ्रम ५३, मानसिक सुखों का भ्रमजाल ५५, सांसारिक सुख और पारमार्थिक सुख ५६, धर्मसुख : सभी सुखों से श्रेष्ठ : क्यों और कैसे ? ५७, धर्मसुख के चार आधार ५६, आत्मशुद्धि : धर्मसुख का प्रमुख आधार ६०, त्यागवृत्ति : धर्मसुख का द्वितीय आधार ६१, अहंकारशून्यता : धर्मसुख का तृतीय आधार ६२, सहिष्णुता : धर्मसुख का चतुर्थ आधार ६२ । ८५. धूत में आसक्ति से धन का नाश सात व्यसनों का क्रम एवं नाम ६४, द्यूतक्रीड़ा क्यों प्रारम्भ हुई ? ६५, जूआ क्या है, क्या नहीं ? ६६, जूए के मूल में मनोवृत्ति ६८, जुआरी में इतनी दूरदर्शिता कहाँ ? ६८, जूए का धन : रहता कितने क्षण ? ६६, जूए के साथ लगे अन्य दुर्गुण ७१, जूआ : धर्म का शत्र ७२, परीक्षित का दृष्टान्त ७२, जूआ : निर्दयता एवं कठोरता का जनक ७३, जूआ : नैतिक धन का विनाशक ७४, सामाजिक जीवन की क्षति ७७, चूत का विशाल परिवार ७६, जूए से आत्मिक धन का नाश ८०। ६४.-८१ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. मांस की आसक्ति से धन का नाश ८७. ( १५ ) आहार : सुख-शांति और प्राणरक्षा के लिए आवश्यक ८२, कौन सा आहार उपयुक्त, कौन-सा अनुपयुक्त ८३, शाकाहार ही क्यों, मांसाहार क्यों नहीं ? ८४, मांसाहार : मनुष्य की आत्मिक प्रवृत्ति के विपरीत ८४, मांसाहार : मनुष्य के धर्म एवं स्वभाव के विरुद्ध ८७, रिचे का दृष्टान्त ८७, मांसाहार : शारीरिक रचना एवं प्रकृति के प्रतिकूल ८, मांसाहार : मानवीय विशेषता की दृष्टि से त्याज्य ६०, मानव सर्वश्रेष्ठ प्राणी क्या मांसाहार के कारण है ? ६०, मांसाहार : हत्या से भी बढ़कर क्रूर कर्म ६१, सीधा मांस खरीदकर खाना भी अपराध है ६२, मांस मनुष्यता से गिराने वाला तमोगुणी भोजन ६३, मांसाहार से शक्ति : भयंकर भ्रम ४, अनेक दृष्टान्त १५, पशुमांसभोजी एक दिन मानवमांसभोजी भी हो सकते हैं ε७, मांसाहार : कोमल भावनाओं का नाशक ९७, मांसाहार : अपवित्र एवं मनुष्य के लिए अयोग्य ८, मांसाहार में न स्वास्थ्य है, न स्वाद ६६, मांसाहार की प्रवृत्ति : आतंकवाद का आधार १०० । मद्य में आसक्ति से यश का नाश मद्य क्या है, क्या नहीं ? १०२, मद्य : बुद्धिनाशक क्यों ? १०३, मद्य से स्मरण शक्ति का ह्रास १०३, मद्यपान : दिमागी गड़बड़ियों का कारण १०४, मद्य : नेत्र संवेदननाशक १०७, मद्य : श्रवणसंवेदन- नाशक १०७, मद्यपान की चार दशाएँ १०८, मद्य का परिचय १०८, मद्य : कई रोगों का जनक ११०, मद्य : सभी व्यसनों का मूल ११०, मद्य : धर्म, ईमान का आदि का ध्यान भुलाने वाला १११, मद्य : पाचन शक्ति नहीं बढ़ाता १११, मद्य शक्तिवर्द्धक एवं स्फूर्तिदायक नहीं १११, मद्य : न पोषक, न अनिवार्य खान-पान १११, मद्य : गर्मी नहीं लाता ११२, मद्य : एक घातक विष ११२, मद्य : भयंकर शत्रु, शैतान का शस्त्र ११२, मद्य : For Personal & Private Use Only ८२ – १०१ १०२ - १२१ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी धर्मों में निषिद्ध ११३, मद्यपान से यश का विनाश : क्यों और कैसे ? ११४, पतित और पापी बनकर जीना ११५, शरीर आदि की दृष्टि से अयोग्य और रुग्ण बनकर जीना ११६, धर्मशास्त्रों द्वारा निषिद्ध निन्द्य वस्तु का सेवन ११७, मद्यपान के सोलह दोष ११७, जान-बूझकर आध्यात्मिक पतन ११७, पारिवारिक जीवन में मद्य से यशोनाश ११८, सामाजिक जीवन में यश का नाश ११६, आध्यात्मिक जीवन में भी यशोनाश १२०, राजकीय जीवन में यशोनाश १२०, मुगलों की शराबपरस्ती-मुहम्मदशाह का दृष्टान्त १२१ । ८८. वेश्या-संग से कुल का नाश १२२-१३६ वेश्या : क्या है, क्या नहीं ? १२२, वेश्या द्वारा ही वेश्यावृत्ति की निन्दा १२३, वेश्यावृत्ति का स्पष्ट चित्रण १२४, वेश्याओं के संसर्ग से बुरा हाल १२५, वेश्यागामी पुरुषों की दशा १२५, वेश्या का स्वरूप १२६, कृतपुण्य का दृष्टान्त १२६, वेश्यावर्ग : आवश्यक या अनावश्यक १२७, वेश्या-आसक्ति से कुलों का सर्वनाश १२६, फ्रांस की राजकान्ति का कारण : वेश्याएँ १२६, स्पार्टा का सरकारी फरमान १३०, प्रबल वेश्यासक्ति से कुल विनाश के कगार पर १३१, जिनदत्त श्रेष्ठी के पुत्र का दृष्टान्त १३१, वेश्या समागम के भयंकर परिणाम १३३, वेश्यासक्ति : सर्वनाश का कारण १३३, वेश्याओं का परिपाश्विक वायुमण्डल १३४, उज्झितकुमार का दृष्टान्त १३५ । ८६. हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश १३७-१५९ हिंसा से यहाँ क्या तात्पर्य है ? १३७, नादिरशाह का दृष्टान्त १३६, हिंसा विविध रूपों में १४०, शिकार के रूप में हिंसा कितनी भयंकर १४१, हिंसा को भयंकर पाप कहने के कारण १४१, क्षत्रियों का धर्म : दुर्बलों का प्राणघात नहीं १४४, महाकवि धनपाल और राजा भोज का दृष्टान्त For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) १६०-१७८ १४४, शिकारी जीवन में सुख कहाँ ? १४५, शिकार भी एक प्रकार का नहीं १४५, हिंसा : मुर्गों, साँड़ों, मानवों आदि को लड़ाकर हत्या कराने में १४६, हिंसा : विविध शृगारिक उपकरणों आदि के रूप में १४७, दवाओं, प्रयोगों, परीक्षणों आदि के नाम पर घोर हिंसा १४८, हिंसा : हत्या या कत्ल कराने के रूप में १५१, मारण आदि मंत्र-प्रयोग भी हिंसा १५२, इतिहास-प्रसिद्ध हिंसक व्यक्तियों के दृष्टान्त १५२, हिंसा : पशु-पक्षी एवं मनुष्य की बलि के रूप में १५४, धर्म के नाम पर होने वाली भयंकर हिंसाएँ १५६, 'पीपल्स टेम्पल' संस्था का दृष्टान्त १५७, हिंसा : लूट, डाका, आगजनी के रूप में १५८, हिंसा : युद्ध द्वारा नर-संहार के रूप में १५८, आधुनिक युद्ध कितने महंगे ? १५६, संसार का शस्त्रास्त्र बजट १५६ । ९० चोरी में आसक्ति से शरीरनाश चोरी क्या है, क्या नहीं है ? १६०, चोरी क्यों पाप है, क्यों कुव्यसन है ? १६१, हेमू युवक का दृष्टान्त १६२, चोर का कोई धर्म नहीं होता १६५, प्रश्नव्याकरण सूत्र में वर्णित चोरी के तीस नाम १६६, चोरी का कुव्यसन कैसे जन्मता, कैसे बढ़ता ? १६६, माधो चोर का दृष्टान्त १६७, प्रस्तुत में किस प्रकार की चोरी त्याज्य ? १६६, आवश्यक सूत्र में वर्णित चोरी के पाँच अंग १७०, चोरी के अन्तरंग एवं बाह्य कारण १७१, प्रथम कारण-दरिद्रता एवं अभाव १७२, दूसरा कारण-बेकारी और बेरोजगारी १७३, तीसरा कारण --फिजूलखर्ची १७४, चौथा कारण -आवश्यकताओं में वृद्धि १७४, पांचवां कारण-यश-कीर्ति या प्रतिष्ठा की भूख १७४, चोरी का मुख्य दुष्परिणाम : शरीरनाश, १७५, हुण्डिक चोर का दृष्टान्त १७७, तक्षशिला के प्रियंवद बढ़ई का दृष्टान्त १७७ । ६१. परस्त्री आसक्ति से सर्वनाश परस्त्री में आसक्त होने के कारण १७६, (१) परस्त्रीगामियों का कुसंसर्ग १८०, (२) क्षणिक कामावेग १८०, (३) १७६-१६६ For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) अज्ञानता १८१, (४) स्वस्त्री में अत्यासक्ति १८२, (५) स्वस्त्री के व्यभिचारिणी हो जाने पर १८२, (६) आर्थिक विवशता १८३, (७) अश्लील साहित्य का प्रचार १८३, (८) गन्दे नाटक-सिनेमा का वातावरण १८३, (६) एकान्तवास १८४, (१०) सहशिक्षण, सहभ्रमण आदि १८५, (११) धार्मिक अन्धविश्वास १८६, अनेक देशों की प्रथाओं के दृष्टान्त १८६, (१२) मादक वस्तुओं का सेवन १८७, (१३) बालविवाह, वृद्धविवाह, अनमेल विवाह १८७, (१४) अत्यधिक धन, सुख-सुविधा और निरंकुशता १८८, परस्त्री में आसक्ति : सर्वनाश का कारण १८६, सर्वनाश का अर्थ १८६, कामान्धों की दुर्दशा का चित्रण १६०, परस्त्रीसेवन से सर्वनाश के विभिन्न पहलू १६०, शरीर का नाश १९१, सामाजिक दृष्टि से सर्वनाश १९२, परस्त्री से संसर्ग करने वालों का बुरी तरह से सफाया १६४, कामांध रानी का दृष्टान्त १९४, पारिवारिक जीवन का विनाश १९८ । ६२. दरिद्र के लिए दान दुष्कर २००-२१३ __ वास्तविक दरिद्र कौन ? किन वस्तुओं के अभाव में ? २००, साधनों का अभाव : दान देने में बाधक नहीं २०१, दिया हुआ निष्काम दान कई गुना अधिक मिलता है २०३, दरिद्र के लिए दान : कितना सुकर, कितना दुष्कर ? २०६, गरीब का दान महत्त्वपूर्ण क्यों ? २०७, सर्वस्वदान : दुष्करतम और महत्तम २१०, सामूहिक रूप से कैदियों द्वारा प्रदत्त दुष्कर दान २१२। ६३. समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर २१४--२२६ प्रभु कौन और कैसे ? २१४, प्रभु शब्द के लौकिक दृष्टि से विभिन्न अर्थ २१४, शक्ति के साथ नम्रता एवं सहिष्णुता कठिन २१५, धन की शक्ति का मद २१५, सत्ता की शक्ति का मद २१५, उच्चत्व शक्ति का मद २१७, पुरुषत्व शक्ति का मद २१७, पद की शक्ति का मद २१८, For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) समर्थ के लिए क्षमा कितनी दुष्कर, कितनी सुकर ? २१८, क्षमा का महत्त्व २१६, चाहिए स्वयं अपने आप पर नियन्त्रण २२०, चित्तौड़ के एक शान्तिप्रिय कवि का दृष्टान्त २२१, दरियापुरी सम्प्रदाय के पूज्य श्री भ्रातृचन्द्रजी महाराज के जीवन की एक घटना २२६, विविध प्रभुत्वसंपन्न समर्थ लोगों की दुष्कर क्षमाएँ २२७, समर्थ मालिक की नौकर के प्रति क्षमा २२७, प्रभुत्वसम्पन्न राजा की क्षमा २२७, समर्थ पति की पत्नी के प्रति क्षमा २२८ । ४. सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर सुखोपभोगी : कौन और कैसे ? २३०, सांसारिक सुखों के मुख्य स्रोत २३०, सुखोपभोगी कितना सुखसम्पन्न कितना नहीं ? २३१, स्वयं ही दुःख में पड़ता है २३२, वास्तविक सुखोपभोगी सम्पदाओं से नहीं, विभूतियों से २३३, सुख के मंदिर के चाबी सद्धर्माचरण २३४, सुखोपभोग में बाधक वस्तुएँ २३६, (१) अवांछनीय अभिवृद्धि २३६, (२) अनुपयुक्त . आकांक्षाएँ २३७, (३) निरंकुश भोगवाद २३६, पुरिमतालनगर के क्षत्रियपुत्र का दृष्टान्त २४०, इच्छाओं का निरोध कितना सुकर, कितना दुष्कर ? २४२, मनुष्य की मनश्चेतना के विभिन्न स्तर २४३, जागृति हो तो इच्छा निरोध सुकर २४६, भील कन्या और राजा का दृष्टान्त २४७ । ६५. यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर , युवक, युवावस्था और कर्तृत्व शक्ति २५० तरुण को सक्रियता के दुरुपयोग से कैसे रोका जाय ? २५१, लाला लाजपतराय की जैनधर्म से अरुचि का कारण - दृष्टान्त २५३, अनुभव और इन्द्रिय-शक्ति का समन्वय अपेक्षित २५४, असन्तोष : कारण और निवारण २५५, उच्छृंखलता : कितनी यथार्थ, कितनी अयथार्थ २५६, चार दैत्य : इन्द्रिय-शक्ति के उच्छृंखल होने में कारण २५७, तारुण्य : इन्द्रियों की अजोड़ शक्ति का केन्द्र २५७, तारुण्य में इन्द्रियनिग्रह : सुकर For Personal & Private Use Only २३०-२४६ २५०-२६७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) या दुष्कर? २५८, विजय सेठ विजया सेठानी का दृष्टान्त २५६, लक्ष्मणजी के इन्द्रियनिग्रह के तीन प्रसंग २६०, इन्द्रियनिग्रह : क्यों दुष्कर, कैसे सुकर ? २६१ इन्द्रियनिग्रह को दुष्करता का प्रथम कारण-जागृति का अभाव २६१, दूसरा कारण-इन्द्रियों में आसक्ति २६३, आदतों पर नियन्त्रण और निरीक्षण के अभाव में २६४, इन्द्रियों का दुरुपयोग भी दुष्करता का कारण २६५, इन्द्रियों में साथ मन का स्पर्श होते रहने पर २६६ । ६६. जीवन अशाश्वत है २६८-२७६ जीवन क्या है, क्या नहीं ? यह शाश्वत है या अशाश्वत ? २६६, अशाश्वत जीवन को भ्रमवश शाश्वत मानते हैं २७२, सेठ सेठानी का दृष्टान्त २७३, जीवन को अशाश्वत मानकर क्या करना ? २७६, प्रत्येकबुद्ध द्विमुख का . दृष्टान्त २७८ । ६७. जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण २६०-२६५ विश्व के अनेक धर्म और जिनोपदिष्ट धर्म २८०, जिनोपदिष्ट धर्म क्या है ? २८१, जिनोपदिष्ट धर्म की विशेषताएं २८४, अनेकान्त २८४, धर्माचरण : सबके लिए २८४, मोक्ष : सबके लिए २८६, पतितों या शूद्रों को भी प्रवेश २८६, धर्मानुरूप समस्त लौकिक विधियों का स्वीकार २८८, समस्त आत्म-साधनाओं में समन्वय २८८, समस्त तत्त्वों का समन्वय २८६, सम्यग्दृष्टि के लिए सभी शास्त्र मान्य २८६, सभी भूमिकाओं के जैनधर्मी : विचारों में समान २८६, धर्म के आचरण पर जोर २६०, चीनी दार्शनिक 'ताओबू' का दृष्टान्त २६१, धर्म का आचरण ही सुफल लाता है २६२, चिलातीपुत्र का दृष्टान्त २६३, धर्म का आचरण करो, परन्तु सम्यकप में २६४, असम्यक् धर्माचरण के स्रोत २६४। For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. धर्म : जीवन का त्राता ६६. धर्म ही शरण और गति है ( २१ ) धर्म : जीवन का रक्षक कैसे ? २६६, धर्म के दो रूप : अन्तरंग और बाह्य २६७, वास्तविक धर्म के अभाव में सुरक्षा कैसे हो ? २६७, जीवन के दोनों रूपों में धर्म से सुरक्षा २६८, धर्म का दूसरा रूप – सामाजिक जीवन का ताण ३००, राजा विक्रमादित्य का दृष्टान्त ३०१, धर्मधारणा भी रक्षण के अर्थ में ३०२, धर्म की रक्षात्मकता ३०३, धर्म : माता-पिता की तरह रक्षक ३०४, धर्म : बन्धु, सखा और नाथ ३०४, धर्म कैसे रक्षा करता है ? ३०५, पुरुषार्थहीन नवाब साहब का दृष्टान्त ३०६, धर्म से रक्षा : किसकी और क्यों ? ३०७ 'धर्मो रक्षति रक्षतः ' सूत्र की सूझ ३०८, जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज का स्वप्न ३०६, धर्म रक्षा क्यों नहीं करता ? एक शिकायत : एक समाधान ३१०, वाल्मीकि का दृष्टान्त ३११, धर्मरक्षा की प्राथमिकता कहाँ ३१२, धर्म को विदाई देकर सुरक्षा की आशा कैसी ? ३१२ । धर्म की ही शरण क्यों ? ३१४, धर्म ही सच्चा मित्र और शरणदाता ३१५, सेठ के तीन मित्रों का दृष्टान्त ३१५, धर्म : एक सार्वभौम व्यापक सत्ता ३१६, धर्म : एक महासागर ३१७, धर्म का उद्देश्य – सभी रुचियों, क्षमताओं आदि का समावेश ३१७, पतिता आम्रपाली धर्म - शरण लेकर पावन बनी ३१८, धर्मशरण : सर्वदुःखहरण ३१६, अनाथी मुनि का दृष्टान्त ३२०, 'धम्मं सरणं पवज्जामि' : क्यों और किस लिए ? ३२२, धर्मशरणविहीन जीवन : कितना लाभकर, कितना हानिकर ? ३२३, धर्मशरण में कितनी दृढ़ता, कितनी श्रद्धा हो ? ३२५, शरण ग्रहण का अर्थ – समर्पण ३२६, अर्जुन का श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण का दृष्टान्त ३२७, धर्म : २६-३१३ For Personal & Private Use Only ३१४–३३२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) गति-प्रगति-दायक ३३०, धर्म-प्रगति में बाधक तत्त्वों को ठुकराकर धर्म में आगे बढ़ो ३३१ । १००. धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति ३३३-३४६ - धर्म-सेवन के लिए धर्मदृष्टि, धर्म-संस्कार आवश्यक ३३३, स्थानांग सूत्र के चार गोलों का दृष्टान्त ३३४, चन्द्रभान और चन्दनबाला (सेठ के पुत्र-पुत्री) का दृष्टान्त ३३५, धर्मसेवन का समग्र रूप : श्रवण, श्रद्धा और आचरण से ३४१, धर्मश्रद्वालु बुढ़िया का दृष्टान्त ३४३, धर्मसेवन से सर्वतोमुखी सुख के तीन मूल माध्यम ३४७, अहिंसा के माध्यम से ३४८, अहिंसा की समग्रता के लिए चार चरण अपेक्षित-(१) सेवा, (२) दया (३) करुणा अथवा सहानुभूति, और (४) परोपकार ३४८, संयम के माध्यम से ३४६, तप के माध्यम से ३४६ । For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलस्रोत सव्वा कला धम्मकला जिणाइ, सव्वा कहा धम्मकहा जिणाइ। सव्वं बलं धम्मबलं जिणाइ, सव्वं सुहं धम्मसुहं जिणाइ ॥१६॥ सभी कला में श्रेष्ठ जगत में धर्मकला । सभी कथा में श्रेष्ठ जगत में धर्मकथा ॥ सभी बलों में उत्तम धर्मबल मानिए। सभी सुखों में श्रेष्ठ धर्म-सुख जानिए । जूए पसत्तस्स धणस्स नासो, मंसं पसत्तस्स दयाइ नासो। मज्जं पसत्तस्स जसस्स नासो, वेसा पसत्तस्स कुलस्स नासो॥१७॥ होता है धन-नाश द्यत खिलाड़ी का । हृदय दया से हीन मांस-आहारी का । मद्यप जन का यश-विवेक मिट जाता है । वेश्यागामो का कुल-गौरव क्षय हो जाता है । For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) हिंसा पसत्तस्स सुधम्मनासो, चोरी पसतस्स सरीरनासो । तहा परत्थीसु पसत्तयस्स, सव्वस्स नासो अहमा गईय ॥ १८ ॥ हिंसक क्रूर मनुज धर्म का करता नाश । तस्कर को भय चिन्ता से है देहविनाश || नाम-धाम सब नष्ट परस्त्रीगामी के । सदा अधम गति होती विषय-कामी के ॥ दाणं दरिद्दस्स पहुस्स खन्ती, इच्छानिरोहो य सुहोइयस्स । तारुन्नए इंदियनिग्गहो य, चत्तारि एयाणि, सुटुक्कराणि ॥ १६ ॥ निर्धन नर का दान, समर्थ की क्षमा प्रशम । सब सुख-साधन प्राप्त करे इच्छा का संयम ॥ इन्द्रिय - निग्रह करे जो भर यौवन में । अति दुष्कर ये चारों काज तीन भुवन में ॥ असासयं जीवियमाहु लोए, धम्मं चरे साहु जिणोवइट्ठ । धम्मो य ताणं सरणं गई य, धम्मं निसेवित्त सुहं लहंति ॥२०॥ क्षणभंगुर है कहा गया जग में जीवन । जिनवर - कथित, शुद्ध धर्म का करे आराधन ।। धर्म सभी का रक्षक वही शरण, गति रूप है । धर्माराधन करके पाते सौख्य अनूप है ॥ 00 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१. सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष मोक्ष-प्राप्ति के मूलाधार धर्म के सम्बन्ध में चर्चा करूंगा। यद्यपि इस गाथा के चारों चरणों में धर्म का विविध पहलुओं से वर्णन किया गया है । धर्म जीवन के हर क्षेत्र में, हर प्रवृत्ति में, हर विचार और आचार में रहना चाहिए, इसी सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर महर्षि ने इस गाथा में और अन्तिम गाथा में भी धर्म के सम्बन्ध में अपने चिन्तनयुक्त जीवन-सूत्र प्रस्तुत किये हैं । इस गाथा के प्रथम चरण में महर्षि ने बताया है 'सव्वा कला धम्मकला जिणाई' -समस्त कलाओं को धर्मकला जीतती है, यानी धर्मकला सर्वश्रेष्ठ कला है, कलाओं में सर्वोपरि है। गौतमकुलक का यह सड़सठवाँ जीवन-सूत्र है। धर्मकला क्या है ? यह जीवन की सर्वश्रेष्ठ कला क्यों है ? अन्य कलाएँ धर्मकला की समता क्यों नहीं कर सकतीं ? इन सब पहलुओं पर मैं गहराई से चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। कला और जीवन का सम्बन्ध किसी भी विषय को व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करने का नाम कला है। मानवजीवन के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। आज से ही नहीं, प्रागऐतिहासिक काल से-भगवान ऋषभदेव के युग से विविध कलाएं मानव-जीवन को सुन्दर ढंग से यापन करने हेतु जीविका का साधन रही हैं। उनमें महिलाओं की ६४ और पुरुषों की ७२ कलाएँ होती हैं। महिलाओं की कलाओं में संगीत, नृत्य, वाद्य, पाक आदि कलाएँ प्रमुख हैं तथा पुरुषों की ७२ कलाओं में युद्ध, वाणिज्य, चित्र, साहित्य आदि कलाएँ प्रमुख हैं। ये सब कलाएँ जीवन को सरस, सरल और सुखपूर्वक व्यतीत करने में सहायक होती थीं। जीवन को मांजने, विशुद्ध और विकसित करने के लिए भी इन कलाओं का होना आवश्यक माना जाता था। भारतीय संस्कृति के उन्नायक महर्षि भर्तृहरि ने कला के अभाव में मनुष्य को पशु की संज्ञा देते हुए कहा है साहित्य-संगीत-कलाविहीनः । साक्षात् पशुः पुच्छ-विषाणहीनः॥ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ ___ --साहित्य और संगीत कला से विहीन पुरुष सींग पूछ से रहित साक्षात् पशु है। वास्तव में कला की आराधना-साधना मानव-जीवन को सुसंस्कृत और सरस बनाने के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। जीवन को सुन्दर, सरल, सरस और मधुर बनाना हो तो कला की आराधना के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है। इस प्रकार कला का मानव-जीवन से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध जाने-अनजाने ही हो गया। आगे चलकर लोग संगीत, नृत्य, वाद्य, चित्र आदि ललित कलाओं को ही कला कहने के आदी हो गये, बाकी की कलाएँ या तो शिल्प में गतार्थ हो गईं, या फिर व्यवसाय के अन्तर्गत हो गईं। पश्चिम के सम्पर्क से ललित कलाओं को छोड़कर सिर्फ कला जीवन यापन की एक पद्धति या शैली बन गई, जीवन-शोधन की एक प्रक्रिया हो गई। इससे भी आगे बढ़कर कला भोग-विलास के साधनों एवं उपकरणों तथा सौन्दर्य प्रसाधन के अर्थ में प्रयुक्त होने लगी । परन्तु यह कला की विकृति है, कला की विसंगति है, जो कला को बदनाम करने के लिए तथा जीवन को विकृत बनाने के लिए है । इस प्रकार कला का मानव-जीवन से सम्बन्ध होने पर भी वह हितावह नहीं, जीवन के लिए श्रेयस्कर नहीं। कलात्मक जीवन : यह या वह ? वास्तव में जिन्दगी जीना भी एक कला है। कई लोगों को यह अजीब-सा लगता है कि जिन्दगी तो हम स्वाभाविक रूप से जी ही रहे हैं, पर वह कला कैसे ? मैं कहता हूँ-- क्या कुत्ते, बिल्ली आदि पशुओं का-सा जीवन जीना अच्छा है ? या शानदार, सरस एवं मधुर जीवन जीना अच्छा है ? सभी मनुष्यों के पास प्रायः हाथ, पैर, आँख, नाक, कान, जीभ आदि अवयव रहते हैं, गँवारों के पास भी, अमीरों के पास भी, और सुसंस्कृत शिक्षितों के पास भी। किन्तु गँवार या फूहड़ व्यक्ति जीवन को कलात्मक ढंग से जीना नहीं जानते, और न ही वे अमीर जानते हैं, जिनके घर में पैसे की कमी नहीं, कार है, बंगला है, ऐशोआराम की सभी वस्तुएँ हैं । पर यह सब होते हुए भी ऐसा लगता है कहीं कोई कमी है। कहीं न कहीं शृंखला की कड़ियाँ टूटी हुई हैं । साधन सम्पन्न होते हुए भी जीवन का सच्चा आनन्द नहीं । किसी तरह से जी रहे हैं। रो-झोंककर जीना उत्कृष्ट रूप से जीना नहीं है । उत्कृष्ट एवं परिष्कृत रूप से जीना ही वास्तव में कलात्मक जीवन है । __बहुत से लोग जिनमें धनिक, शिक्षित आदि भी हैं, उत्कृष्ट और परिष्कृत जीवन जीना नहीं जानते । अधिकांश लोग ऊँचे दर्जे के रहन-सहन, सौन्दर्य प्रसाधन, आमोद-प्रमोद, हास-विलास, इन्द्रिय-सुखभोग के साधन, स्वादिष्ट भोजन, व्यंजन आदि की प्रचुरता के साथ जीने को उत्कृष्ट कोटि का जीवन मानते हैं। बहुत से लोग जिंदगी को विविध उपकरणों से सजाये संवारे रहने को ही कला समझते हैं, परन्तु बाह्य प्रसाधनों द्वारा जीवन की साज-सज्जा या शृंगार किये रहना कला नहीं है । यह तो For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : ३ मनुष्य की लिप्सा है, जिसे पूरा करने में उसे एक झूठे संतोष का आभास होता है। फलतः वह मान बैठता है कि वह ठीक ढंग से जी रहा है। कला तो वास्तव में वह मानसिक वृत्ति है, जिसके आधार पर साधनों की कमी में भी जिंदगी को खूबसूरती से जिया जा सकता है। __ खाने-पीने, चलने, उठने-बैठने, मल-मूत्रत्याग आदि के सभी साधन पशुओं और मनुष्यों को प्रायः एक-से मिले हैं । इसमें क्या विशेषता हुई कि मनुष्य ने खाने-पीने, पहनने, रहने आदि के ढेर सारे साधन इकट्ठे कर लिये हैं, उससे क्या लाभ ? ___ मनुष्य में विचारशीलता के कारण कला का उद्भव परन्तु आप जरा ठहरिए । मनुष्य में कुछ विशेषताएँ इन प्राणियों से भिन्न हैं। उसकी रहन-सहन की रुचि, उचित-अनुचित का भाव, भाषा-भाव आदि कितनी ही विशेषताएँ यह सोचने को विवश करती हैं कि मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, वह विधिवत् विचारशील होता है। साधारण तौर पर शरीर-यात्रा चलाने और मन को प्रसन्न करने की क्रिया पशु भी करते हैं, किन्तु पशुओं में व्यवस्थित विचारशीलता नहीं होती। ये कार्य वे अपनी अन्तःप्रेरणा से करते हैं । उनके जीवन में जो अस्तव्यस्तता दिखाई देती है, उससे प्रकट है कि पशुओं में उचित-अनुचित का विचार नहीं होता। मनुष्य में प्रत्येक कार्य को विचारपूर्वक करने की क्षमता होती है। विशृंखलित, ऊबड़-खाबड़ धरती को क्रमबद्ध व सुसज्जित रूप देने का श्रेय मनुष्य को है। घर, गांव, शहर, देश आदि की रचना, सुविधा और व्यवस्था की दृष्टि से अनुकूल बनाने का गौरव मनुष्य के विचारशील मस्तिष्क को है। अपनी इच्छाएँ, भावनाएँ दूसरों के प्रति प्रकट करने के लिए भाषा, लिपि, साहित्य आदि का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है । आध्यात्मिक अभिव्यक्ति एवं लौकिक आह्लाद प्राप्त करने के लिए विविध विधाओं और कलाओं के प्रशिक्षण, लेखन-प्रकाशन आदि की कितनी सुविधाएँ आज उपलब्ध हैं ! यह सब मनुष्य की विचारशक्ति का ही प्रतिफल है। ये सब विचारशक्ति के प्रतिफल मनुष्य के कला-ज्ञान के प्रतीक हैं। मनुष्य ने विचारपूर्वक जीवन जीने के लिए अनेक कलाओं का आविष्कार किया। विचारशक्ति का जीवनकला से सम्बन्ध विच्छेद परन्तु आज मनुष्य की विचारशक्ति जीवनकला से विच्छिन्न होती जा रही है। विज्ञान के सम्पर्क में आने पर मनुष्य का बौद्धिक वैभव तो बढ़ा, पर वह बुद्धि-वैभव दैवी सम्पदा के अनुरूप न होकर प्रायः आसुरी सम्पदा के अनुरूप ही अधिक है। प्राचीन काल में मनुष्य चाहे जितना धनाढ्य हो जाता तो भी भोजन, वस्त्र आदि की सादगी को नहीं छोड़ता था। पर आज थोड़ा-सा धन अधिक होते ही मनुष्य भोजन और वस्त्र आदि सामग्री में विवेक-विचार को भूलकर बढ़िया से बढ़िया कीमती और अधिक ऊँचे दर्जे का कपड़ा पहनने और अधिकाधिक चटपटी, गरिष्ठ, दुष्पाच्य For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ खाद्य वस्तुएँ खा-पीकर गौरव मानता है। जो लोग सादा भोजन और सादे वस्त्र का उपयोग करते हैं, उन्हें वे हीनदृष्टि से देखते हैं, उन्हें हलके दर्जे के आदमी मानते हैं। यह विचारशक्ति का दिवाला है । कला पर कालिमा है।। वर्तमान युग में अधिकांश व्यक्ति अपनी वास्तविक योग्यता, क्षमता, सद्गुणों आदि में वृद्धि न करके केवल बाहरी दिखावट, सजावट, फैशन, तड़क-भड़क के बल पर अपने को दूसरे से बड़ा-विशिष्ट बतलाना चाहते हैं । इसके लिए वे अपने साधनों और शक्तियों का उचित से अधिक व्यय कर डालते हैं । जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की उपेक्षा करके ऊपरी टाम-टीम या आडम्बर को कायम रखने का ज्यादा ध्यान रखते हैं । वे यह समझते हैं कि इस तरह शान से रहने के कारण हमें अन्य लोगों से अधिक इज्जत मिलेगी, सभी हमें बड़ा आदमी समझेंगे और हमें अधिक सुविधाओं या अधिकारों की प्राप्ति होगी। पर परिणाम प्रायः आशा से विपरीत होता है। अधिकतर लोग उनके नकलीपन को भांप जाते हैं और प्रत्यक्ष में नहीं तो, परोक्ष में उनकी हँसी उड़ाते हैं। अनेक लोग तो उनके मुह पर झूठी प्रशंसा करके उन्हें मूर्ख बनाने की चेष्टा भी करते हैं। कुछ ही समय में ऐसे व्यक्तियों की कलई खुल जाती है और इस अपव्यय के कारण वे निम्न कोटि का अभावग्रस्त जीवन बिताने को बाध्य होते हैं । परन्तु खेद है कि अधिकांश व्यक्तियों ने इस प्रकार विचारहीन, कृत्रिम जीवन-यापन को 'कला' मान लिया है। फिर आजकल जमाने की रफ्तार के साथ-साथ प्रवाह में बहने वाले बहुत-से लोग नाइलोन, टेरीलिन, टेरीकोट के वस्त्र पहनने में अपनी शान समझते हैं, खादी पहनना अपनी शान के खिलाफ मानते हैं, जबकि नाइलोन, टेरोलिन आदि के कपड़े पहनने वालों की चमड़ी खराब हो जाती है, ये वस्त्र पसीने को सोखते नहीं, तथा इनसे रोमकूपों को हवा नहीं मिलती, जबकि खादी पसीने को सोख लेती है, रोमकूपों में खादी के कपड़े से हवा पहुँचती है, चर्मरोग होने का कोई अंदेशा नहीं रहता। फिर ये सब वस्त्र सँकड़े पतलून के रूप में पहने जाते हैं. जिनमें हवा का प्रवेश नहीं होता । क्या यह कला के नाम पर मनुष्य की अविचारशीलता की निशानी नहीं है ? वेस्टरलैण्ड में कुछ वर्षों पहले चिकित्सकों का एक सम्मेलन हुआ था, उसमें हेम्बर्ग के प्रोप्रेसर 'ईफेन बर्जर' ने जो बात कही, वह आप सबके लिए विचारणीय है"हमारा पहनावा यदि अयोग्य होगा तो लम्बे समय बाद उसका बुरा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़े बिना नहीं रहेगा।" । आज फैशन का पागलपन और पोजीशन का भूत लोगों को ऐसा लगा है कि वे इसके आवेश में न अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं, न अपव्यय का और न ही अपने गरीब देशवासियों का । फैशन के पागलपन के कारण कपड़े भी इतने तंग पहनते हैं कि वे कष्टदायक हो जाते हैं । नोकदार बूट, नाइलोन के मोजे, कॉलर आदि सब कष्टदायक हैं । यूरोप में ६५% महिलाओं के पैर के पंजे विकृत हो गये हैं। For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : ५ कहना होगा कि मनुष्य की दिकृत विचारशीलता ने फैशन के प्रवाह में बहकर कला को बदनाम करने की कोशिश की है। इसके विपरीत बाह्य कलाविहीन जीवन का दृश्य भी भौंडा-भद्दा-सा है। . एक धनिक के पास सुन्दर बंगला है, पर आधा खाली है, चारों तरफ खुली जमीन है, पर वहाँ दो-दो फुट घास चढ़ी हुई है। बरामदे में दो-चार गमले रखे हैं, पर उन्हें कभी पानी नहीं दिया गया। ड्राइंगरूम में कीमती सोफासेट पड़ा है, पर परदे मैले टॅगे हैं, विदेशी शेविंग बॉक्स है, पर ब्रश पर बाल नहीं। कपड़ों का ढेर लगा है, पर समय पर एक भी धुला हुआ नहीं मिलता। रसोइघर में बर्तनों का ढेर लगा है, पर ऐसा लगता है, मानों ये सब नीलामी पर जाने वाले हैं। यही कारण है कि घर उखड़ा-उखड़ा है । रहने एवं जीने की कला के अभाव में अच्छा-भला घर खानाबदोशों का-सा लगता है। जीवन जंगल नहीं है, वह छोटा-सा उद्यान है, उसके एक-एक अंग को कलात्मक ढंग से रखा जाता है । कलात्मक जीवन सरस, सरल, मधुर और सहज होता है। उसमें तन-मन-वचन की सभी प्रवृत्तियाँ, सांसारिक साधन-सामग्री, और जीवन के उद्देश्य में एकरूपता या संगति होनी चाहिए। इनमें तालमेल नहीं होगा तो जीवन में रस कहाँ से आयेगा ? परन्तु कई व्यक्तियों को बाह्य कलात्मक ढंग से भी जीना नहीं आता । वे जीवन को जंगल या पशुओं का बाड़ा बना डालते हैं। कलाहीन अस्वस्थ जीवन कुछ व्यक्तियों को सांसारिक सुख-साधन जोड़ने से ही फुरसत नहीं । वे अहर्निश हाय पैसा ! हाय पैसा !! करते रहते हैं । उनकी बातचीत का विषय ही रुपये पैसे होता है। सबेरे सात बजे घर से निकले तो रात के ११ बजे घर में कदम रखेंगे । घर पर कोई मेहमान आ जाये तो वह उसी प्रकार रहता है, जैसे किसी होटल में रहता है । न बन्धु-बान्धवों से मेल-जोल, न मित्रों का आना-जाना, न किसी सात्त्विक मनोरंजन से लगाव, न पुस्तकों से प्रेम, न किसी धर्मस्थान में जाना, न मन्दिर में । अमेरिका का प्रेसिडेंट आये या इंग्लैण्ड की महारानी, प्रधानमंत्री का भाषण हो, किसी प्रसिद्ध धर्माचार्य या साधु-साध्वी का प्रवचन हो, या कोई धर्मोत्सव, या पर्व, चीन का हमला हो या पड़ौसी की पीड़ा की कराह, इन पैसे के पुजारियों की चाल-ढाल में कोई अन्तर नहीं आता, कोई उत्साह की लहर नहीं आती। घर में बच्चे हैं, परन्तु वे स्कूल जाते या पढ़ते हैं या नहीं ? उनकी सेहत गिर रही है या अच्छी हो रही है ? इस वर्ष फेल हुए या पास? इससे उन्हें कोई सम्बन्ध नहीं। जिस घर में संरक्षक सिर्फ धन कमाने की मशीन ही हो, वहाँ यह आशा नहीं करनी चाहिए कि बच्चों का जीवन कलामय एवं स्वस्थ होगा। कुछ व्यक्ति घर में ऐसे प्रवेश करते हैं, जैसे शेर घुस रहा हो। बच्चे देखते हैं और छिप जाते हैं । जिस घर में माँ-बाप की छाया से बच्चे भागते हैं, उसमें कदापि For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ प्यार और खुशी का वातावरण नहीं हो सकता । बच्चों की बिलकुल देख-रेख न करना, बहुत अधिक देखरेख करना अथवा अपने रौब के नीचे बिलकुल दबा देना, ये तीनों अवस्थाएँ कलात्मक जीवन की, स्वस्थ जीवन को नहीं हैं। उदासी : कलात्मक जीवन की पतझड़ जीवन के खुले पृष्ठ पर जब पतझड़ अपना पंख पसारती है तो वह वीरान हो जाता है। उदासी, मायूसी, निराशा या शंका (बहम) कलात्मक जीवव की पतझड़ है । कलात्मक जीवन में उमंग और उल्लास तो होता है, पर उदासी नहीं। जिस चेहरे पर प्रफुल्लता के स्थान पर उदासी होगी, आँखों में आशा के बदले निराशा होगी, विश्वास के बदले संशय होगा, वह ऐसी चित्रशाला के समान है, जिसके सभी चित्र उतार लिये गये हों। जीवन की कला ठूठ की तरह खड़े रहकर सड़ने में नहीं है । जीवन में लहलहाने का तरीका है, जीवन को सरस बनाना । आशा भरा जीवन ही जीवन का सौन्दर्य है। जिसमें आशा नहीं, जिसके मुह से यही निकलता रहे-"भाई ! अब तो हम जीवन की बाजी हार गये । बेकाम हो गये, बूढ़े हो चले । अच्छा हो, जल्दी से इस संसार से कूच कर जाएँ।” इस प्रकार जीवन से ऊब जाने वाला व्यक्ति अपने जीवन को सुन्दर, सरस, मधुर और आशाप्रद नहीं बना पाता । वह अपने जीवन में 'सत्यं शिवं मन्दरम्' की त्रिवेणी को नहीं पा सकता। नीम का फूल कड़वा है, परन्तु कलात्मक जीवन वाला उसकी सुन्दरता को देखता है, उसमें छिपा हुआ मधुरूप सत्य प्राप्त करता है, उसमें रोगहरण की जो शिवत्व-कल्याण-कारित्व है, उसे अपना लेता है। __ 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की कलारूप त्रिपुटी को जो अपने जीवन में ओत-प्रोत कर लेता है, वह गृहस्थाश्रम में होगा तो गृहस्थी के बोझ से दबकर अपनी कमर नहीं झुकायेगा । वह भरसक प्रयत्न करेगा, गृहस्थाश्रम को प्रसन्नता से, स्वस्थता से और आनन्द से ओतप्रोत करने का। कलामय जीवन : जीवन को नैतिक गुणों से सजाना ____जीवन में शिष्टाचार भी एक कला है। स्वर में माधुर्य, वाणी में नम्रता, कार्यों में स्वच्छता, व्यवहार में शालीनता एवं कर्तव्यपरायणता, आचरण में उच्चता आदि मनुष्य के जीवन की एक-एक कला है। इन गुणों से जीवन विविध कलाओं से ओतप्रोत होता है। व्यक्ति का सभ्यता से उठना-बैठना, अदब से बातचीत करना, बड़ों का सम्मान करना, छोटों के प्रति वात्सल्य रखना, मधुर बोलना, गुरुजनों का आदर करना, अपराध होने पर उसे स्वीकार करना, किसी की क्षति या हानि अपने से होने पर उससे क्षमायाचना करके जहाँ तक हो सके क्षतिपूर्ति करना, सच्ची सलाह देना, धीमे बोलना आदि शिष्टाचार के ही अंग हैं । शिष्टाचार जीवन की वह कला है जो असुन्दर को सुन्दर बना देती है । कोयल काली-कलूटी है, पर जब वह पंचम स्वर में कुहुकती है, तब दूसरों के मन हर लेती है। वह सुन्दर बन जाती है। एक काली कुरूप महिला बाजार के एक किनारे बैठ कर शहद बेचती थी। For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : ७ उसकी वाणी में भी शहद का-सा मिठास था, इसलिए दूसरी जगह से न लेकर अधिक लोग उसी के यहाँ शहद लेने आते थे । जीवन की यह कला बाहर से असुन्दर मनुष्य को भी सुन्दर बना देती है। क्या हुआ उस सुन्दरता से, जो बाहर से सुन्दर होकर भी प्रकृति की कठोर हो, कर्कश हो, झगड़ाखोर हो ? बात-बात में झगड़ा करती हो, मामूली सी बात पर तन जाती हो, बच्चों पर थप्पड़ उठा लेती हो, हर बात में अपनी जिद पर अड़ी रहती हो, वह बाहर से चाहे सुन्दर हो, गोरी हो, परन्तु उसका हृदय कठोर, काला और असुन्दर है। जिन व्यक्तियों के पास रहने में ही डर लगता हो, उनमें और आग में क्या अन्तर है ? व्यक्ति चाहे घर में हो, बाजार में हो, दुकान पर हो या दफ्तर में, बस में हो या पैदल चल रहा हो, भाषण दे रहा हो या सुन रहा हो, किसी इन्टरव्यू पर जा रहा हो या भोजन आदि क्रिया कर रहा हो, सर्वत्र शिष्टाचार की कला काम आती है। एक दिन नेपोलियन 'सेंट हेलेना' में अपने साथी के साथ कहीं जा रहा था। सामने से एक मजदूर बोझा लिये आ रहा था। नेपोलियन का साथी अभिमान में आकर रास्ता नहीं छोड़ना चाहता था, यह देख भूतपूर्व सम्राट नेपोलियन ने कहा"बोझ का सम्मान कीजिए, रास्ते से एक ओर हट जाइए।" शिष्टाचार-कला से सम्पन्न व्यक्ति अपनी इस कला के बल पर सर्वत्र सम्मान पाता है ; आकर्षण का केन्द्र बनता है। कार्य में जान डाल देना ही कला है कार्य तो एक मजदूर भी करता है, पर केवल मजदूरी पाने की दृष्टि से; एक नौकर भी करता है, पर बेगार समझकर जैसे-तैसे पूरा करने की दृष्टि से; और घर में माँ भी करती है, पूरी तन्मयता के साथ, अपना समझकर। तीनों की दृष्टि में अन्तर है । कार्य करना और बात है और कार्य में जान डाल देना दूसरी बात है । कार्य छोटा है या बड़ा ? यह प्रश्न नहीं है । प्रश्न यह है कि मनुष्य ने इसमें कितना हृदय निचोड़ा है ? काया कितनी घिसी है ? एडिसन महोदय फोनोग्राफ तैयार कर चुकने पर भी सात महीने तक प्रतिदिन घंटों सुनते थे। 'गिब्बन' ने अपने संस्मरणों को नौ बार लिखा और अपने इतिहास के प्रथम अध्याय को १८ बार । ___ कार्य में जब शक्तियाँ बिखेरी नहीं जातीं, केन्द्रित की जाती हैं, तभी उसमें से कलादेवी झाँकने लगती है । उसमें परिमाण नहीं, परिणाम देखा जाता है, क्वांटिटी नहीं, क्वालिटी देखी जाती है। कार्य ऐसा हो, जो स्वयं बोल उठता हो, तभी वह कलात्मक कहलाता है। For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ __ एक वैज्ञानिक का इंटरव्यू लेने के लिए एक प्रसिद्ध पत्रिका के प्रेस प्रतिनिधियों का एक शिष्टमंडल आया। इस वैज्ञानिक के एक के बाद एक नये-नये आविष्कारों से आकर्षित होकर उसकी कार्य-सफलता का रहस्य जानने के लिए ही यह प्रेस प्रतिनिधि दल आया था। सर्वप्रथम उस वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में वह घुसा और विविध अद्यतन साधनों को देखकर चकित हो गया किन्तु तब तक वैज्ञानिक तो अपनी प्रयोगशाला में प्रयोग में लीन था। इतने मनुष्यों की पदचाप उसकी एकाग्रता भंग न कर सकी । अन्त में प्रेस प्रतिनिधि दल के अग्रगण्य पत्रकार ने उसका ध्यान भंग करने का साहस किया। ध्यान भंग होते ही उसकी दृष्टि प्रयोग सामग्री पर से हटकर पत्रकारों की ओर मुड़ी। आगे आकर बहुत ही प्रेमपूर्वक उसने सभी का स्वागत किया। प्रेस प्रतिनिधि उसके चारों ओर बैठ गये । सब की लेखनी हाथ में उद्यत थी- उस वैज्ञानिक की वाणी को कागज पर अंकित करने हेतु । विज्ञान के क्षेत्र में उसने जो नयी-नयी शोध-खोज की थी, उसके बारे में तलस्पर्शी माहिती प्राप्त करने के बाद एक प्रतिनिधि ने प्रश्न किया-आप तो अपने कार्यों में सतत लीन रहते हैं। इस बीच में कभी आप किसी कार्य को भूल भी जाते होंगे? वैज्ञानिक की विचक्षण दृष्टि प्रश्नकर्ता की ओर मुड़ी । मुस्कराते हुए उसने जवाब दिया-~-मुझे कार्य में अब तक जो कुछ भी सफलता मिली है, उसकी गुरु-चाबी इसी प्रश्न के प्रत्युत्तर में निहित है। दिन का कार्य पूरा निबटाने के बाद मैं जब आराम के लिए अपने शयनखण्ड में प्रविष्ट होता हूँ, तभी सोने से पहले आगामी दिन (कल) के कार्यों की पूरी सूची एक कागज पर अंकित कर लेता हूँ। दूसरे दिन उसी सूची के अनुसार कार्यों को समेट लेने का मैं लगातार प्रयत्न करता हूँ। हाथ में लिये हुए कार्य के प्रति गोंद की तरह चिपके रहना ही मेरी कार्यसफलता की इमारत की सुदृढ़ नींव है। पत्रकारों के संतोषपूर्वक विदा होते ही पुनः वह वैज्ञानिक अपनी प्रयोगसमाधि में लीन हो गया। वह महान् वैज्ञानिक था-'टॉमस आल्वा एडिसन ।' कार्य में सतत रत रहना ही कार्य सफल करने की कला है। ये दुर्गुण कला में आग लगाने वाले हैं अविश्वास, कलह, वैरभाव, स्वार्थ, शत्रता, प्रतिस्पर्धा आदि कला में आग लगाने वाले हैं । बाह्य कलाओं में से मनुष्य चाहे कितनी ही कलाओं में प्रवीण हो, किन्तु अगर वह इन दुर्गुणों से युक्त है तो उसकी कला बदनाम होगी, वह जीवन-कला नहीं होगी। उसका जीवन कलाहीन हो जाता है, अधर्म और पाप से भर जाता है । एक कार्य : तीन दृष्टियाँ ___ मनुष्य किसी काम को लगन, सुरुचि और पूरी दिलचस्पी के साथ करता है, तो निःसन्देह वह उस कार्य में सफलता प्राप्त करता चला जाता है, उसकी सोई हुई शक्तियाँ जागृत हो जाती हैं ; बशर्ते कि प्रत्येक कार्य एक खेल, एक कला मालूम हो, बोझ न लगे । परन्तु इतना होने पर भी उसके पीछे कार्य करने वाले की दृष्टि क्या For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : ६ है ? यह देखना चाहिए । तीन दृष्टियाँ हैं-(१) कार्य के पीछे कोई स्वार्थ है, लोभ है, ठगने की दृष्टि है, या सुघड़ कहलाने की दृष्टि है, प्रशंसा और प्रसिद्धि प्राप्त करने की कामना है। (२) अथवा वह दान, पुण्य या परोपकार का कार्य है, पर उसके पीछे नामनाकामना या स्वर्गादि की लालसा है, सुघड़ या सुसंस्कारी कहलाने की भावना है। (३) अथवा उस सत्कार्य के पीछे किसी प्रकार की कामना, लोभ, भय, स्वार्थ, या प्रसिद्धि की लिप्सा नहीं है । निःस्वार्थ भाव से या तो अपनी आत्म-शुद्धि की भावना है, कर्मनिर्जरा की दृष्टि है या समझ-बूझकर निःस्वार्थ-निष्काम भाव से दूसरों की सेवा, परोपकार या परमार्थ की भावना है । इन तीनों दृष्टियों से कार्य कलात्मक ढंग से लोग करते हैं। कई लोग पहली दृष्टि से कार्य करते है, कई लोग दूसरी दृष्टि से और कई लोग तीसरी दृष्टि से करते हैं । अब हम इन तीनों कार्यों का विश्लेषण करते हैं कला का उपयोग : चोरी आदि की दृष्टि से प्रथम दृष्टि से कार्य करने वाला भी अपने कार्य को कला की संज्ञा देता है, साहित्यकार एवं राजनीतिज्ञ भी उसे कला कहते हैं-चौर्यकला, राजनैतिक-कला, ठगबाजी की कला आदि । वर्तमान राजनीति में तो एक दूसरे को सत्ता से गिराने के लिए अनेक छल-प्रपंच, झूठ-फरेब, तिकड़मबाजी आदि की जाती है, उसे भी कला (Policy-पॉलिसी) कहा जाता है। कई लोग झूठ बोलने को कला में उस्ताद होते हैं, कई बेईमानी करने और धोखा देने की कला में माहिर होते हैं, कई लोग दूसरों का धन हरण करने में, विज्ञापनबाजी को कला द्वारा दूसरों का धन खींचने में उस्ताद होते हैं। कई वाक्छल की कला में निपुण होते हैं । एक बार एक चालाक आदमी ने एक पत्रिका में विज्ञापन दिया कि "भोजन के समय मक्खियाँ नहीं सताएँ, इसके लिए हमारे यहाँ से नुस्खा मिलेगा, सिर्फ दो आने में।" उस समय एक पैसे का पोस्टकार्ड चलता था, इसलिए उसने विज्ञापन में बताया"साथ में जवाबी कार्ड भेजें।" लाखों लोगों ने यह नुस्खा मँगाया, साथ में जवाबी कार्ड था-उस पर छपवा दिया- 'आप जब भोजन करें तब एक हाथ से भोजन करें और दूसरे हाथ से मक्खियाँ उड़ाएँ।" बस, इसी नुस्खे के बल पर जनता के हजारों रुपये हजम ! यह है विज्ञापन-कला के द्वारा दूसरों का धन-हरण करने का उदाहरण ! कई व्यापारी ग्राहक को चकमे में डालने की कला में निपुण होते हैं । एक जगह एक दूकानदार ग्राहक को वस्तु के दाम बताने के बाद, जब ग्राहक कहता कि दाम कुछ ज्यादा हैं; तो दूकानदार कहता-'ज्यादा लेवे सो छोरा-छोरी खाय,' 'अधिक ले सो गो खाय।' इस प्रकार कहता तो ग्राहक समझता कि यह लड़के-लडकी की और गाय की कसम खाता है, इसलिए अधिक नहीं ले रहा है ; और दूकानदार बँध हुए रेट से अधिक लेता, वह पैसे लड़के-लड़कियों के खाते में और गाय के खाते में जमा कर लेता है। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ उस पैसे का उपयोग लड़के-लड़कियों के विवाह में तथा इलाज आदि में एवं गायों के घास-चारे आदि में खर्च करता है । मैं आपसे पूछता हूँ कि झूठ, चोरी, बेईमानी, छल आदि से किये गये कार्य या नरक आदि का डर बताकर या स्वर्ग का प्रलोभन देकर लोगों से रुपये ऐंठने आदि के कार्य कला भले ही कहलाते हों, पर वह कला जीवन को पतित, निकृष्ट और दूषित बनाने की कला है । इस कला से मनुष्य अपनी कला का दुरुपयोग करता है, अपनी बुद्धि और तन-मन को अस्वस्थ बनाता है । एक प्राचीन कथा इस सम्बन्ध में प्रकाश डालती है । कौशाम्बी नगरी का सहस्रमल्ल नामक कुलपुत्र छल-कपट, ठगी, परद्रव्यह्रण, चोरी आदि निम्नकोटि की कलाओं में निपुण एवं अत्यन्त साहसी था । उसका पिता मर चुका था । परन्तु वह पिता के जीते-जी लोगों से ब्याज पर रुपये कर्ज लेता था और जब वे लोग रुपये वापस करने का तकाजा करते तो यह कह देता कि मेरे पास कुछ नहीं है । खाने के ही लाले पड़ रहे हैं, मैं कहाँ से तुम्हारे रुपये चुकाऊँ ? इसके सिवाय वह शराब, जुआ, मांसाहार, वेश्यागमन आदि अनेक दुर्व्यसनों में पैसा ॐ क देता था । जब पैसा बिलकुल खत्म हो जाता, तब वह चोरी करने जाता था । चौर्यकला में वह सब तरह से निपुण हो गया था । बनिया, ब्राह्मण आदि सवर्णों का भद्रवेश बनाने में वह अत्यन्त कुशल था । अनेक देशों की भाषा जानता था । उस नगर में रत्नसागर नामक वणिक् जौहरी रत्नों का व्यवसाय करता था । सहस्र-मल्ल ने उसे देखा और बनिये का वेश बनाकर उसकी दूकान पर जा पहुँचा । रत्न निकलवाकर देखे, और पूछा "इतने ही हैं या और भी ?” रत्नसागर बोला – “दूसरे भी है ।" सहस्रमल्ल ने कहा - " दिखाओ तो ।" रत्नसागर दूकान में घुसा । एक गड्ढा खोदकर रत्नों का डिब्बा खोला, उसमें से रत्न निकालकर उसे दिखाये, मूल्य भी बताया । वह बोला — “अच्छा इन रत्नों को मैं ले जाता हूँ । इनके दाम कल सुबह दे दूँगा ।" बनिया बोला - " मैं किसी को उधार माल नहीं देता ।" यों कहकर रत्न उससे लेकर रख लिये । सहस्रमल्ल चोर भी रत्नों को रखने का स्थान देखकर घर पहुँचा । रात को चोर का वेष बनाकर वह रत्नसागर की दूकान पर आया । वहाँ सेंध लगा कर सर्वप्रथम पैर अन्दर डाले । वे बिछौने पर सोये हुए रत्नसागर के पुत्र को ଷ୍ଟୁ गये । चोर का प्रवेश जानते ही शय्या से उठकर उसने चोर के दोनों पैर कसकर पकड़ लिये । इसी खींचतान में चोर का शरीर घिस गया । तब रत्नसागर के लड़के ने उसे छोड़ दिया । छूटते ही वह दौड़कर घर पहुँचा । उसने सब बातें माता से आकर कहीं । दूसरे दिन पीड़ा से कराह रहा था, तब माता ने कहा - "बेटा ! पराया धन लेने जाय उसे सारण जुआरी की तरह मरणान्त कष्ट भी सहना चाहिए ।" कुछ ही दिनों में वह ठीक हो गया । फिर चोरी करने लगा । पुरोहित के यहाँ सेंध लगाई, बढ़िया माल चुराकर घर लाया । माता को सौंपा। माँ ने पूछा - "बेटा ! यह धन कहाँ से लाया ?” तब उसने For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : ११ कहा - "तू चिन्ता क्यों करती है ? लोगों में कोई अफवाह सुनो तो मुझे कहना ।" सबेरे उठकर चोर की माँ नगर के बाहर पनघट पर गई । वहाँ पुरोहित की लड़की पानी भरने आई । उसे किसी स्त्री ने पूछा - "सुना है, पुरोहितजी के यहाँ चोरी हुई है, बात सच्ची है क्या ?" वह बोली - "हाँ सच्ची है।" फिर उसने पूछा- कुछ पता लगा चोर का ?" वह बोली - " अभी तक नहीं मिला । मेरे पिता ने राजा के स फरियाद की । राजा ने कोतवाल को बुलाया था । उसी समय धनसार सेठ और एक नाई किसी कार्यवश वहाँ आये थे । सेठ ने राजा से कहा -- चोर ने बहुत धन चुराया है, अतः वह बढ़िया वस्त्र लेने मेरे यहाँ आयेगा । नाई ने कहा- मेरे पास भी वह हजामत बनवाने आयेगा, तब पकड़ कर आप को सौंप दूँगा ।" चोर की माँ सारी बात सुनकर घर गई । पुत्र को सारी बात कह सुनायी । चोर बनिये का वेष बनाकर नाई के यहाँ गया । नाई भी देखकर खुश हुआ । उसकी हजामत बनायी । उसे चोर की शंका हुई । चोर ने चलते समय कहा - " मेरे साथ इस लड़के को भेजो, मैं इसे पैसे दिला देता हूँ ।" नाई ने अपने लड़के को भेजा । इधर चोर धनसार सेठ की दूकान पर गया और बढ़िया वस्त्र बताने को कहा । सेठ ने वस्त्र दिखाये। उनमें से बढ़िया वस्त्र लेकर जब सहस्रमल्ल चलने लगा तो सेठ ने कहा - "इनकी कीमत कौन चुकायेगा ?" वह बोला - " मैं अभी इसके रुपये लेकर आता हूँ तब तक इस लड़के को रख जाता हूँ ।" वहाँ से चंपत होकर चोर घर आया । माता को वस्त्र सौंपकर कहा - " इसकी प्रतिक्रिया क्या होती है ? सुन आओ ।" माता ने बातें सुनकर कहा - "बेटा ! सेठ और नापित दोनों ने राजा से फरियाद की है । उस समय वहाँ उपस्थित सौदागर और गणिका दोनों ने तुझे पकड़कर सौंपने का बीड़ा उठाया है ।" सहस्रमल्ल सार्थवाह का वेष बनाकर सौदागर के पास पहुँचा । सौदागर ने उसका सत्कार किया । सहस्रमल्ल ने पूछा - "आप यहाँ नगर के बाहर क्यों ठहरे हैं ? चलिये मेरे घर पर । वहाँ आपके घोड़े भी बिक जायेंगे ।" सौदागर बोलापराये घर जाने को मेरा मन नहीं मानता ।" सहस्रमल्ल ने कहा - "वाह ! मैं तो आपका भाई हूँ । सज्जन के यहाँ सज्जन को किस बात का संकोच है ? आप अपना ही घर समझिए ।" सौदागर उसकी उदारता तथा मधुर विनयभरी बातें सुनकर प्रभावित हो गया । बोला - " अच्छा चलूंगा आपके यहाँ ।" सहस्रमल्ल झटपट वहाँ से उठकर कामपताका वेश्या के यहाँ पहुँचा । उसकी दासी से कहा कि अपनी मालकिन से पूछो कि तुम्हारा विशाल घर जानकर सौदागर तुम्हारे यहाँ ठहरना चाहता है । वेश्या भी लोभ-प्रेरित होकर बोली - "हाँ, खुशी से आएँ उनका घर है ।" सहस्रमल्ल तैयारी कर रहे सौदागर के यहाँ पहुँचा और वेश्या के यहाँ उसे ले आया । वेश्या ने पहले से सारा मकान लीप-पोतकर स्वच्छ कर रखा था । सौदागर के घोड़े वेश्या के आंगन में बँधवाये | फिर वह कामपताका वेश्या के पास संकेत किया । सहस्रमल्ल ने कहा - "अभी मुझे मिला नहीं हूँ । मेरे पास आभूषण नहीं है । अतः थोड़ी देर के लिए तुम्हारे आभूषण गया । उसने आसन दिया। बैठने का बैठना नहीं है । मैं अभी तक राजा से For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ दो तो मैं राजा से मिल आऊँ ।” वेश्या ने सौदागर जानकर आभूषण दे दिये । फिर वह सौदागर के पास आया और बोला- "अभी बहुत अच्छा मुहूर्त है । आप एक उत्तम घोड़ा दे दें, मैं राजा को उसे नमूने के रूप में दिखाकर सारे घोड़े बिकवा दूंगा।" सौदागर ने उसे घर का मालिक व व्यापारी जानकर घोड़ा दे दिया । सहस्रमल्ल घोड़ा और आभूषण लेकर अपने घर पहुँचा । माता से सारी बात कही। इधर काफी देर हो जाने पर वेश्या ने शंकावश सौदागर के आदमी से पूछा-'सौदागर अभी तक क्यों नहीं आये ?" उसने कहा- "बाहर बैठे हैं।" वेश्या ने उसके पास जाकर पूछा कि “सौदागर आप हैं !" उसने कहा-"हाँ मैं ही हूँ।"वेश्या बोली मेरे आभूषण ले गया, वह कौन था? सौदागर-"क्या वह घर का मालिक नहीं था ?" वेश्या बोली-"वह मेरे आभूषण ठग ले गया।" सौदागर ने भी कहा--"वह मुझे ठगकर घोड़ा ले गया है।" फिर दोनों राजा के पास पहुँचे, फरियाद की। राजा ने कुपित होकर कोतवाल को धमकाया और पाँच दिन में उसे खोज निकालने को कहा। __ चोर की माँ ने ये सारी बातें सुनकर अपने बेटे से कहीं। अतः सहस्रमल्ल ब्राह्मण का वेष बनाकर नगर में घूमता-घूमता एक देवालय में पहुंचा, जहाँ कोतवाल जुआ खेल रहा था। विप्रवेशी चोर भी जुआ खेलने बैठ गया। कोतवाल ने जुए में हारकर अपनी नामांकित रत्नजटित अंगूठी दे दी। सहस्रमल्ल ने भी इसके बदले में कुछ दिया। इतने में कोतवाल को बुलाने द्वारपाल आया, बोला--"राजाजी आपको बुलाते हैं।" कोतवाल उठकर द्वारपाल के साथ गया । सहस्रमल्ल सीधा कोतवाल के घर पहुँचा और उसकी पत्नी से कहा-“घर में जो भी अच्छा-अच्छा माल हो, वह दे दो।" उसने पूछा- "आपको किसने भेजा है ?" सहस्रमल्ल बोला—'कोतवालजी को राजपुरुष गिरफ्तार कर ले गये हैं । मुझे उन्होंने कान में कहा-मेरी नामांकित मुद्रा ले जाओ और मेरे घर से अच्छा-अच्छा माल ले आओ। देखो, यह निशानी दी है ।" नामांकित मुद्रा से कोतवाल की पत्नी को पक्का विश्वास हो गया। उसने सहस्रमल्ल को अच्छा-अच्छा माल निकालकर दे दिया। सहस्रमल्ल तो वह माल लेकर सीधा अपने घर पहुँचा। कोतवाल जब घर आया तो उसकी पत्नी ने सारी बातें कहीं। सुनकर कोतवाल के तो होश गुम हो गये । कोतवाल उदास होकर राजा के पास पहुँचा। अपनी कष्टकथा कही कि "हजूर ! मुझे भी वह चोर ठग ले गया।" इसके पश्चात राजा ने स्वयं चोर को पकड़ने का संकल्प किया । पर सहस्रमल्ल राजा के पास भी मालिश करने वाला बनकर पहुँच गया। राजा को जब नींद आ गई तो धीरे से सभी आभूषण लेकर चंपत हो गया। सुबह पता लगा तो राजा भी आश्चर्यचकित हो गया। उदास राजा ने मंत्री से सारी बात कही और मंत्रवादी, तंत्रवादी, ज्योतिषी से पूछकर चोर का पता लगाने का विचार किया। श्रावक जिनरक्षित, विद्वान् विमलकीर्ति, चौदह विद्या में पारंगत नारायण भट्ट, शैवधर्मी आचार्य, बौद्धमती मनुसिरी भिक्षु, परमहंस कपिल, नास्तिकवादी सुरप्रिय आदि सभी ने चोर का पता For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : १३ लगाने की बीड़ा उठाया, मगर धूर्त चोर सबकी आँखों में क्रमशः धूल झौंककर सबके यहाँ चोरी करके चला गया। राजा और मंत्री सभी निराश हो गये। इसी बीच सुविशुद्ध नामक केवली भगवान् पधार गये । राजा और नागरिकों के साथ चोर भी गुटिका-प्रयोग द्वारा वेष बदलकर मुनिवन्दन करने पहुंचा । सहस्रमल्ल ने उनका वैराग्यमय उपदेश सुना । पश्चात्तापपूर्वक अपनी कुकृत्यकथा कही, साथ ही दीक्षा देने की प्रार्थना की। केवली भगवान् बोले- "देवानुप्रिय ! पहले आत्मा को निर्मल करो। मन-वचन-काया के योगों की शुद्धि करो। फिर निःशल्य होकर दीक्षा लो।" सहस्रमल्ल-"भगवन् ! मैंने महादुष्ट कर्म किये हैं। यहाँ का राजा मुझ पर अत्यन्त द्वेष रखता है । अतः अन्यत्र जाकर दीक्षा लूगा ।" केवली मुनि-"भद्र ! डरो मत । प्रातःकाल राजा दर्शन करने आयेगा, तब तू यहीं रहना । सभी कुछ ठीक होगा।" मुनिवन्दन करने जब राजा आया और उसने चोर का पता पूछा तो मुनि ने कहा-“वह चोर तो अब चोरी छोड़कर समस्त आरम्भ-परिग्रह का त्याग करके मुनिदीक्षा लेने को तैयार हो रहा है । वह मोक्ष की साधना के लिए तैयार हो रहा है तो आपको अब उस पर द्वेष न रखकर उसे सहायता करनी चाहिए।" राजा ने कहा- "भगवन् ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।" फिर राजा को अपने साथ लेकर सहस्रमल्ल अपने घर आया । जिस-जिसका धन चुराया था उन सबकी पहचान कराकर वापस लौटा दिया। राजा ने उसका दीक्षामहोत्सव किया। उसने दीक्षा लेते ही यावज्जीवन मासखमण तप करने का अभिग्रह किया । सहस्रमल्ल मुनि ने उग्र तप करते हुए अपने कर्मक्षय किये और क्रमशः केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया। बन्धुओ ! कथा बहुत लम्बी है, मैंने आपके समक्ष बहुत ही संक्षेप में यह रखी है। सारांश यह है कि सहस्रमल्ल में चोर होने के साथ-साथ अनेक कुकृत्य कलाएँ थीं, अगर उसमें धर्मकला न आयी होती तो वह सीधा दुर्गति में जाता, परन्तु धर्मकला के प्रभाव से उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया। दूसरी दृष्टि : प्रसिद्धि आदि की लिप्सा कई लोग कई कलाओं में माहिर होते हैं, तथा जीवन-कला में भी माहिर होते हैं, विविध पहलुओं को लेकर वे जीवन की कलाओं के अभ्यासी भी होते हैं, परन्तु इसके साथ उनकी दृष्टि यश, प्रसिद्धि आदि की लिप्सा से प्रेरित होती है। अथवा किसी न किसी प्रकार की इहलौकिक या पारलौकिक वांछा से प्रेरित होती है तो सुकार्य को लेकर होने पर अपनाई जाने वाली वह कला अधिक से अधिक पुण्यलाभ प्राप्त कर सकती है, अथवा कलाकार की अमुक कामना या स्वार्थ की पूर्ति करा सकती है । इससे अधिक नहीं। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ एक व्यक्ति दान करता है, या परोपकार के कार्य करता है, किन्तु उसके पीछे या तो कोई स्वार्थ या लोभ है, या फिर कोई लौकिक कामना है, तो वहाँ कलामय जीवन होने पर वह कार्य बन्धनमुक्तिकारक नहीं माना जा सकता। आजकल लोग अहिंसा, सत्य आदि व्रतों या तप, जप, नियम का पालन करते हैं, किन्तु उसके पीछे इहलौकिक या पारलौकिक फलाकांक्षा होती है, तो वे जीवन को उत्कृष्ट कलायुक्त नहीं बना पाते । कई लोग जीवन को कलात्मक बनाने का प्रयास करते हैं, परन्तु कला आज व्यवसाय बन गयी है। उनमें वह कला सहजभाव से निःस्वार्थ रूप से समुद्भूत नहीं होती । कला के साथ वे पैसे का सम्बन्ध जोड़ते हैं । वे कम से कम श्रम करके, अधिक से अधिक अर्थलाभ प्राप्त करना चाहते हैं । वे अर्थशास्त्र की दृष्टि से सभी कार्यों को तौलते हैं, जीवन-शास्त्र की दृष्टि से नहीं। परन्तु से भारतीय जनता के संस्कार धर्णपरायण होने से वे युक्तियों के आगे टिक नहीं पाते । उन्हें कोई कहे कि घर में भोजन बनाने में अधिक समय जाता है, अतः सामूहिक भोजनालय में जाकर क्यों नहीं खाते? क्यों नहीं, उतना समय बचाकर अधिक कमाई करते ? इसी प्रकार के और भी प्रश्न हैं। विवाहित की अपेक्षा अविवाहित रहने और चाहे जिस स्त्री से सहवास करके सन्तान आदि के पालनपोषण की खटपट से बचना, अर्थशास्त्र की दृष्टि से भले ही ठीक हो पर नीतिशास्त्र और जीवनशास्त्र की दृष्टि से यह बात कोई भी स्वीकार नहीं करेगा । एक ब्राह्मण से कोई कहे कि तुम्हें चार हजार रुपये देंगे, तुम अपना ब्राह्मणत्व छोड़ दो। क्या वह इसे कबूल करेगा? कदापि नहीं, क्योंकि जीवन-शास्त्र की दृष्टि उसको रग-रग में भरी हुई है। जीवन के यथार्थ मूल्य पैसे से नहीं खरीदे जाते। शान्ति और शुभेच्छा कहीं बिकती नहीं हैं । ये सब निःस्वार्थ निष्काम गुण उत्कृष्ट जीवनकला वाले व्यक्ति में होते हैं। तीसरी दृष्टि : धर्मकला से ओतप्रोत तीसरी और उत्कृष्ट दृष्टि धर्मकला से ओतप्रोत होती है। वह प्रत्येक कार्य में शुद्ध, निष्कांक्ष, निःस्वार्थ धर्म के गज से नापी जाती है। गौतम महर्षि ने इसीलिए पहले बताई हई सभी कलाओं से उत्कृष्ट धर्मकला को बताया है। एक पाश्चात्य विचारक ब्लैकी (Blaikie) ने उत्कृष्ट कला के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रकट करते कहा है "The highest art is always the most religious and the greatest artist is always a devout man.” 'सबसे उत्कृष्ट कला सदैव अत्यधिक धर्मयुक्त होती है और सबसे बड़ा कलाकार सदा परमात्मभक्त होता है ।' कोई पूछ सकता है कि क्या अन्य कलाएँ जीवन को उत्कृष्ट नहीं बना सकतीं ? इसके उत्तर में यही कहना है कि यदि अन्य ललित कलाएँ किसी के जीवन में हैं परन्तु उसके साथ धर्मनिष्ठा नहीं है, मुख्यतया धर्मदृष्टि For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि : १५ नहीं है तो वह कला जीवन को उत्कृष्ट नहीं बना सकती। उन कलाओं से कलाकार का जीवन उन्नत और बन्धन मुक्त नहीं हो सकता । इसीलिए किसी विद्वान् ने कहा है बावत्तरिकलाकुसला पंडियपुरिसा अपंडिया चेव । सव्वकलाणं पवर, जे धम्मकलं न जाणंति ॥ "बहत्तर कलाओं में कुशल पण्डित पुरुष भी अपण्डित ही हैं, अगर वे सभी कलाओं में श्रेष्ठ धर्मकला को नहीं जानते ।" दूसरी सुकलाओं से युक्त जीवन खान में से तुरन्त निकाले हुए हीरे सरीखा होता है । खान में से जब हीरे का पत्थर निकाला जाता है, तब वह चकमक पत्थर से अधिक अच्छा नहीं लगता। वह उस समय बहुत ही कठोर होता है। इस पर से जाना जाता है कि यह हीरा है। परन्तु जब कोई सहृदय कलाकार कारीगर उसे घिस-घिसकर पहलदार बना देता है, तब उसका आकार आकर्षक हो जाता है, उसकी चमक-दमक बढ़ जाती है, उसकी कीमत भी अनेकगुनी बढ़ जाती है । होरे की कीमत उसकी कान्ति के अधिकाधिक निखार पर निर्भर है । यही बात हम मानवजीवन के सम्बन्ध में समझ सकते हैं। __ मानव-जीवन पुण्य प्रकृति की अनुपम देन है, परन्तु वह अन्यान्य कलाओं के जानने-सीखने या जीवन-कलाओं का अभ्यास करने मात्र से ही निखर नहीं जाता, उसमें चमक नहीं आ जाती, जब धर्मकला आती है, तभी वह जीवन को बहुमूल्य बना देती है, उसकी चमक-दमक बढ़ा देती है, उस जीवन की उपयोगिता बढ़ जाती है। जीवन को कृतार्थ करने को कला का नाम ही धर्मकला है। धर्मकला जितनी ऊँची होगी, उतने अंश में जीवन का आन्तरिक सौन्दर्य, मांगल्य, उपयोगिता, सर्वतोभद्रत्व आदि बढ़ेंगे। जो कलाकार कुशल न हो, धर्मकला की समझ और आचरण न हो तो जीवनरत्न का दुरुपयोग भी हो सकता है। धर्म के इतिहास से इस बात का पता लग सकता है । इसलिए एक आचार्य ने कहा है-- सकलाऽपि कलावतां विकला धर्मकलां विना खलु । सकले नयने वृथा यथा, तनुभाजां हि कनीनिकां विना ॥ - कलाओं में कुशल और कार्यदक्ष मनुष्यों के पास धर्मकला न हो तो वे सब कलाएँ विकला हैं, नाममात्र की हैं, चावल के छिलकों जैसी हैं। जैसे आँख की कीकी के बिना आँख व्यर्थ है, धार के बिना तलवार निकम्मी है, वेग-स्फूर्ति के बिना घोड़ा निकम्मा है, सुगन्धरहित फूल व्यर्थ है, वैसे ही धर्मकला से रहित कलाएँ निकम्मी हैं। जीवन में धर्मकला जब आ जाती है तो वह व्यक्ति सारे जीवन को धर्म के रंग से रंग देता है, प्रत्येक विचार, प्रवृत्ति, वचन और कार्य में वह धर्म-अहिंसा-सत्यादि शुद्ध धर्म के स्वरूप की जाँच करता है, धर्म के सिद्धान्तों को यथाशक्ति आचरण में लाता है, धर्मशास्त्रों के वचनों को अनुभव की कसौटी पर कसता है। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ धर्मकला को कौन उपलब्ध करता है ? प्रश्न होता है-धर्मकला को कौन हस्तगत करता है ? हमारे समक्ष इसके पाँच विकल्प उपस्थित होते हैं (१) क्या वे धर्मकला को उपलब्ध कर लेते हैं जो धर्म के प्रति अन्धविश्वासी हैं ? धर्म की हर बात को, हर नियमोपनियम को चाहे आज वह विकासघातक एवं युगबाह्य ही क्यों न हो गया हो, आँखें मूंदकर स्वीकार कर लेते हैं, धर्म के नाम से चल रहे अन्धविश्वास, कुरूढ़ि और कुरीति या परम्परा पर वे विश्वास कर लेते हैं। (२) क्या वे धर्मकला को उपलब्ध कर सकते हैं, जो बिलकुल अविश्वासी हैं। धर्म की अच्छी बात हो, चाहे बुरी. हितकर नियमोपनियम हों चाहे सार्वजनिक कल्याण की बात हो, वे विश्वास नहीं करते । वे धर्म के नाम से ही चिढ़ते हैं। धर्म का नाम भी सुनना नहीं चाहते। ऐसे अविश्वासी लोग धर्म की युगानुकूल मर्यादाओं को बिलकुल ठुकरा देते हैं । अविश्वास ही उनका धर्म है। (३) अथवा तथाकथित वैज्ञानिक धर्मकला को उपलब्ध करेंगे, जो यह कहते हैं कि हमारी प्रयोगशाला में जो सिद्ध होगा उसे ही हम धर्म या सत्य मानेंगे, उस पर ही विश्वास करेंगे, उसके सिवाय बाकी सबको असत्य मानेंगे, उस पर विश्वास नहीं करेंगे। (४) चौथे वे हैं जो तार्किक हैं या दार्शनिक हैं, वे कहते हैं, हम धर्मशास्त्र या ग्रन्थ पढ़ेंगे, धर्म की व्याख्या करेंगे और उसी में से जीवन के सत्य को छान लेंगे । क्या ऐसे तार्किक लोग धर्मकला को उपलब्ध कर सकते हैं ? मेरे नम्र मत से पहले लोग, जो कि अन्धविश्वासी हैं, वे धर्म की, धर्मग्रन्थों की, धर्मगुरुओं की पूजा कर लेंगे, अहिंसा और सत्य के मन्दिर बनाकर उनकी पूजा कर लेंगे । परन्तु धर्म को आम-जनता के आचरण की चीज नहीं होने देंगे । आम-जनता में अहिंसा आदि धर्म आ गया, आम-जनता धर्मग्रन्थों को या धर्म की बातों को युक्ति और तर्क से समझने लगी या धर्मगुरु के उपदेश सुनकर उनके कहे अनुसार चलने लगी तो धर्म, धर्मग्रन्थ और धर्मगुरु भ्रष्ट हो जायेंगे अतः जो अशिक्षित, अपढ़, ग्रामीण या कम समझ के लोग हैं, उनसे धर्म, धर्मग्रन्थ और धर्मगुरु को बचाओ । ऐसे लोग धर्मकला को न तो स्वयं उपलब्ध करते हैं, न दूसरों को करने देते हैं । वे धर्म के लिए लड़ेंगे-मरेंगे, पर शुद्ध धर्म का जीवन में आचरण नहीं करेंगे । इसी प्रकार के दूसरे लोग जो बिलकुल अविश्वासी हैं जो धर्म से सर्प या बिच्छू की तरह दूर भागते हैं, धर्म का जीवन से स्पर्श नहीं होने देते, वे भी धर्मकला से कोसों दूर हैं। ___तीसरे नम्बर में वे वैज्ञानिक हैं जो श्रद्धा और हृदय को तिलजांलि देकर केवल प्रयोगशाला में सिद्ध को ही मानते-जानते हैं, वे भी व्यापक धर्मकला का स्पर्श नहीं कर सकते । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी कलाओं में धर्मकला सर्वोपरि १७ चौथे जो दार्शनिक एवं तार्किक हैं, हर वस्तु को तर्क की कसौटी पर कसे बिना नहीं मानते, वे भी अर्ध-विदग्ध हैं, धर्मकला का प्रकाश नहीं पा सकते । (५) धर्मकला के प्रकाश को वे ही पा सकते हैं, जो बुद्धि और हृदय दोनों का संतुलन रखकर शुद्धधर्म को जीवन में रमाते हैं। धर्म के माहात्म्य का, उसके इहलौकिक फल का प्रत्यक्ष तथा पारलौकिक फल का परोक्ष (अनुमान और आगम) से साक्षात् करते हैं । धर्म के नाम पर चल रहे अन्धविश्वास व अन्धपरम्परा में वे नहीं फँसते, न ही धर्म की स्वपर-हितकर, विश्व-कल्याणकर बातों को ठुकराते हैं, वे अच्छी बातों को अपनाते हैं। धर्म और विज्ञान दोनों का सामंजस्य बिठाकर विज्ञान पर शुद्ध धर्म का अंकुश रखकर वे चलते हैं। इसी प्रकार तर्क या युक्ति के साथ श्रद्धा एवं विश्वास के तत्त्व को नहीं चूकते । जिनके विचार, वाणी और व्यवहार तीनों धर्म के रंग में रंगे रहते हैं, वह शुद्ध धर्म का स्वयं आचरण करके दूसरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करता है । प्रकृति की खुली किताब से वह बहुत कुछ सीखता है और धर्म की कसौटी पर कसकर उसे आचरण में लाता है। धर्मकलायुक्त जीवन जीने वाला जो व्यक्ति धर्मकलायुक्त जीवन जीता है, वह तन, मन, वचन और धन या साधनों का बिलकुल अपव्यय नहीं करता, कम से कम आवश्यकताएँ रखकर उत्कृष्ट जीवन जीता है। उत्कृष्ट धर्मकला से युक्त जीवन के लिए न तो पाउडर, लिपस्टिक आदि सौन्दर्य प्रसाधनों की जरूरत है, और न बढ़िया वस्त्रों की। महात्मा गांधी का जीवन धर्मकलामय था । हमारे साधु-संतों का जीवन भी बहुत ही संयममय होता है इसलिए धर्मकलामय होता है। धर्मकलामय जीवन में अहिंसा, संयम और तप की आवश्यकता होती है। धर्मकलाकार अपना जीवन उद्देश्यपूर्वक जीता है। उसका उद्देश्य खाना-पीना ऐश-आराम करना या जैसे-तैसे ऊबड़-खाबड़ या अव्यवस्थित जीवन बिताना नहीं होता, अपितु ढर्रे की पाशवीय जीवन पद्धति से दूर, परिस्थितियों से समझौता न करता हुआ बन्धन-मुक्ति के व्यापक उद्देश्य पर अविचल रहकर शुद्ध धर्ममय जीवन जीता है । साथ ही वह उद्देश्य-पूर्ति में जुटा रहता है । ऐसा धर्मपरायण व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी जीता है । धर्म प्राणिमात्र के लिए अपने को न्योछावर करना सिखाता है, वह समस्त प्राणियों की शान्ति, अभ्युदय एवं निःश्रेयस के लिए जीता है। सबके हित में अपना हित समझता है। वह अपने तन, मन वचन एवं साधन का उपयोग प्रायः दूसरों के हित के लिए करता है। अपनी विद्या, कला, बुद्धि आदि का उपयोग भी सार्वजनिक हित में करता है। वह स्थितप्रज्ञ की तरह रहता है । कष्ट, कठिनाइयाँ, दुःख या आफतें आने पर वह घबराता नहीं, व शान्ति और समभावपूर्वक सह लेता है। अगर वह गृहस्थ है तो गृहस्थधर्म की मर्यादाओं For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ के अनुरूप प्रत्येक प्रवृत्ति करता है और साधु है तो साधुधर्म के अनुरूप । जिन्दगी को खेल समझकर प्रसन्नतापूर्वक जीता है। कष्ट को धर्म एवं तप समझकर समभावपूर्वक सहता है। इसीलिए तिलोक काव्य संग्रह में स्पष्ट कहा है सीखत वेद पुराण कुराण को, सीखत तान बजावत ताली । जंतर-मंतर-तंतर सीखत, चोट चलाय कुचोट को टाली ॥ खावण पीवण धातु रसायन, लावण्य और कला सब झाली । रीती कोठी नहीं सोहे 'तिलोक' के, त्यों सब कला धर्म बिन ठाली ॥ बन्धुओ ! आप भी धर्मकला के मर्म को समझकर जीवन को धर्मकला से ओत-प्रोत बनाएँ। [] 0 For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. धर्मकथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपको एक विशेष नीति की ओर निर्देश करना चाहता हूँ । मनुष्य अपने जीवन में श्रवण, मनन, निदिध्यासन करता है, किन्तु बहुत से लोगों को यह विवेक नहीं होता कि क्या सुनना, क्या चिन्तन-मनन करना और क्या निदिध्यासन करना चाहिए ? बहुत-से लोग प्राय: श्रृंगार - कथा, या स्त्रियों के हाव-भाव, सौन्दर्य आदि की कथा में अत्यधिक रुचि रखते हैं । कई लोग खाने-पीने आदि के सम्बन्ध में ही गपशप करते हैं । वर्तमान युग के प्रभाव से बहुत-से लोग राजनीति की बातों के सम्बन्ध में ही अधिकांश बात-चीत कहते-सुनते हैं । महर्षि गौतम ने उत्कृष्ट जीवन बनाने के लिये धर्मकथा के श्रवण-मनन आदि की ओर ही इंगित किया है । गौतम कुलक का यह ६८व जीवन-सूत्र है । इसमें महर्षि गौतम ने निर्देश किया है— 'सव्वा कहा धम्मका जिणाइ' समस्त कथाओं को धर्म-कथा जीतती है । अर्थात् धर्म - कथा समस्त कथाओं में उत्कृष्ट है। धर्मकथा क्यों सब कथाओं में श्रेष्ठ है ? दूसरी कथाओं का जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ? और धर्मकथा जीवन को कैसे उच्च पद पर या सर्वोच्च सन्मार्ग पर ले जाती है ? इन सब पहलुओं पर मैं आपके समक्ष विश्लेषण प्रस्तुत करूंगा । अन्य कथाएँ और धर्म - कथा संसार में अनेक प्रकार की कथाएँ चलती हैं । प्रत्येक कथा का व्यक्ति के मन पर अच्छा या बुरा कुछ न कुछ प्रभाव पड़ता ही है। जिसका प्रभाव मनुष्य के मन पर बहुत बुरा पड़ता है, जिससे राग-द्वेष पैदा हो अथवा जिससे काम-वासना पैदा हो, भोग-वृत्ति जागृत हो, जिसके कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान, छल-कपट, मत्सर, ईर्ष्या आदि वैकारिक वृत्ति पैदा हो, उसे जैन शास्त्रों में कुकथा या विकथा कहा गया है । ऐसी विकथाएँ मुख्यतया चार बताई गई हैं - ( १ ) स्त्री - कथा, (२) भक्त-कथा, (३) राज - कथा और (४) देश - कथा । स्त्री कथा - जिस कथा में स्त्रियों के अंगोपांगों का, उनके हाव-भाव, विलास, एवं काम-क्रीड़ाओं का इस ढंग से वर्णन किया जाय, जिससे कामोत्त ेजना पैदा हो, मनुष्य का मन जिसे श्रवण-मनन करके काम-भोगों में आसक्त हो जाये, मनुष्य की वृत्ति सांसारिक विषय - विकारों की ओर, आमोद-प्रमोद, रंग-रेलियों आदि की ओर मुड़ जाये, उसे स्त्री-कथा कहते हैं । स्त्री-कथा को हम काम-कथा भी कह सकते हैं । For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ आजकल के सिनेमाओं में प्रायः अश्लील काम-कथाएँ ही होती हैं, केवल श्रव्य के रूप में ही नहीं दृश्य के रूप में भी, जिनका प्रभाव सीधा वर्तमान युवक-युवतियों पर पड़ता है। अधिकतर चलचित्र ऐसे ही तैयार किये और दिखाये जाते हैं, जिनसे वर्तमान युग का जन-मानस बहुत अधिक विकृति की ओर मुड़ता है, वह अत्यधिक काम-वासना से प्रेरित हो जाता है । मानसिक विकार से प्रत्यक्ष तो नहीं परोक्ष रूप से ब्रह्मचर्य भंग होता है । आप माने या न मानें, सिनेमा के तारक-तारिकाओं की तरह का फैशन, पोशाक या पहनावे का अनुसरण बहुत-से युवक-युवतियां करने लगते हैं। बहुत-से युवकयुवतियाँ तो लज्जा एवं मर्यादा छोड़कर सिनेमा के तारक-तारिका बनने को ललचाते हैं। मगर उससे उनका जीवन उत्कृष्ट नहीं रहता। काम-कथा सुनकर बहुत-से युवकयुवतियां अपने अभिभावकों को सिनेमा के तारक-तारिकएं बनने की अनुमति देने को बाध्य कर देते हैं। वास्तव में काम-कथा श्रवण करके या काम-कथा के चलचित्र देखकर अथवा काम-कथामूलक अश्लील उपन्यास पढ़कर वर्तमान युवक प्रायः अपने जीवन में फैशन, विलास और कामवासना को चरितार्थ करने लगते हैं। आये दिन युवकयुवतियाँ परस्पर काममूलक प्रणय-दाम्पत्य प्रेम में पड़ जाते हैं। माता-पिता के सामने जब वे अपना विवाह प्रस्ताव रखते हैं तो उन्हें आश्चर्य और हदय को धक्का लगता है । वे इसके लिए तैयार नहीं होते कि मेरी लड़की या लड़का अपनी जाति के तथा सह्य आचार-विचार वालों के साथ पाणिग्रहण न करके अन्य के साथ करें पर वे कामान्ध होकर माता-पिता की बात को भी ठुकरा देते हैं। आखिर वह प्रेम-विवाह प्रायः असफल होता है। यह सब काम-कथा श्रवण या प्रेक्षण का ही फल है । भक्तकथा-भक्तकथा का अर्थ होता है--भोजन के सम्बन्ध में विकथा करना। तरह-तरह की खाद्य वस्तुओं के सम्बन्ध में जिक्र करना, रात-दिन खाने-पीने की बातों को चर्चा करना, कौन-सा खाद्य कहाँ मिलता है ? कैसे बनाया जाता है ? कौन-सा पदार्थ घटपटा या स्वादिष्ट होता है ? किस-किस खाद्य का कितना मूल्य बैठता है ? इत्यादि स्वादेन्द्रिय के विषय को पोषण करने की ही बातें करना भक्तकथा है। इस विकथा को उपलक्षण से 'भोगकथा' कह सकते हैं । केवल जिह्वन्द्रिय-विषय का ही नहीं, शेष चारों इन्द्रियों के विषयों का उपभोग भी भक्तकथा के अन्तर्गत सम्भव है। वर्तमान युग का मानव इन्द्रिय-विषयों की ओर शीघ्र आकर्षित होता है । कई लोगों की इन्द्रिय-विषयों का उपभोग करने की लालसा इतनी प्रबल हो जाती है कि वे अपना आपा भूलकर उनकी प्राप्ति के लिए चिन्तन करते रहते हैं। उन्हीं विषयों की चर्चा बार-बार करते-सुनते रहते हैं। कई कर्णेन्द्रिय विषयरसिक लोग जब देखो तब कहते-सुनते हैं-"अहा ! कितना सुन्दर गीत है ! मैं तो इस गीत को सुनकर मुग्ध हो गया ।" नासिका को अत्यन्त प्रिय लगने वाली भीनी-भीनी सुगन्ध की चर्चा करने-सुनने से घ्राणेन्द्रिय विषय का उपभोग करने की लालसा जागृत होती है। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट : २१ सुन्दर रूप, सौन्दर्य एवं सुन्दरियों के अग- विन्यास आदि की चर्चा करने-सुनने से आसक्तिपूर्वक स्पर्शलालसा अथवा प्रेक्षणलिप्सा पैदा होती है । इसी प्रकार बढ़िया, स्वादिष्ट, गरिष्ठ भोज्य पदार्थों की कथा सुनने या कहने से भी रसनेन्द्रिय को तृप्त करने की कामना जगती है । इस प्रकार की भोगकथा जीवन को पतन की ओर ले जाती है, शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों के उपयोग — सुखोपभोग की तीव्र लालसा जाग जाती है रात-दिन उन्हीं भोगोपभोगों को पाने की उधेड़बुन में व्यक्ति लग जाता है । यह सब भक्तकथा या भोगकथा का दुष्परिणाम है । राजकथा -- यह विकथा बड़ी भयानक है । राष्ट्रान्धता के आवेश में अन्य राष्ट्रों को गुलाम बनाने, अपने राष्ट्र के प्रति मोह की, दूसरे राष्ट्रों की राजनीति की चर्चा करना तथा ऐसी ही विकथाएँ पढ़ना या सुनना जीवन को दलदल में फँसाना है । इसी प्रकार रात-दिन सत्ता हथियाने, एम० एल०ए०, एम० पी० आदि बनने के लिए तिकड़मबाजी की बातें कहना - सुनना या पढ़ना भी खतरनाक है । कई लोगों को यह आदत होती है। कि वे सोते-बैठते, जब देखो तब राजनैतिक चर्चा छेड़ते रहते हैं, अखबारों में राजनीति की गर्मागर्म खबरें पढ़कर वे जब तक पाँच-दस व्यक्तियों को नहीं सुना देते तब तक उन्हें चैन नहीं पड़ता । कई लोग तो राजनीति के कीड़े होते हैं । वे रात-दिन नेता बनने और प्रतिपक्षी को पराजित करने की चर्चा अपने मित्रों में करते हैं। राजनीतिकथा की यह चर्चा उनके जीवन को घुन की तरह खा डालती है मगर उन्हें राजनीति के बिना चैन नहीं पड़ता । ऐसी चर्चा सुनने या कहने के फलस्वरूप कुछ मनचले लोग राजनीति के दलदल में बुरी तरह फँस जाते हैं । राजनैतिक कथा की कई लोगों को बहुत खुजली होती है । अन्तः प्राचीन काल में जब राजाओं के राज्य होते थे । तब कई लोग राजा, रानी, तःपुर, युद्ध, राजसी ठाठबाट, राजाओं की महफिल, रंगीन रातें, राजाओं के भोगोपभोग के ( साधन ), युद्ध आदि की कथा कहने-सुनने में बड़ी दिलचस्पी लेते थे । फलतः कर्मबन्धन, राग-द्वेष और या व्यर्थ समय खोने के अतिरिक्त कुछ पल्ले नहीं पड़ता । इसीलिए राजकथा को विकथा कहा गया है । उससे मनुष्य का जीवन बर्बाद हो जाता है । राजनैतिक जीवन का अभ्यस्त व्यक्ति फिर अन्य किसी क्षेत्र के काम का नहीं रहता । वह राजनीतिक उखाड़ - पछाड़ में, दूसरे दलों को बदनाम करके वोट अपने पक्ष में अधिक लेने के चक्कर में राजनैतिक कथा करता रहता है । राजनीति की कथा में सत्य का अंश बहुत ही कम होता है। अधिकतर झूठे वादे, झूठे नारे, कपटपूर्वक झूठ बोलना, तिकड़मबाजी, अनुचित साँठ-गाँठ, जोड़-तोड़ आदि होते हैं। मानो राजनीति से आजकल शुद्ध धर्म को तो विदा ही कर दिया हो । 1 देशकथा - यह विकथा भी अनोखे प्रकार की है । देशकथा में यात्रा - कथा देश-विदेश की विभिन्न देशों की रीति-रिवाजों, संस्कारों, रहन-सहन, खान-पान, बोलचाल 1. आदि की चर्चा ही इस कथा का मुख्य विषय होता है । देशकथा और महात्मा गांधी For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ द्वारा प्रचलित स्वदेशी व्रत में बहुत अन्तर है। देशकथा में अपने देश के विकृत रीति-रिवाजों, संस्कारों या विकृतियों की ही प्राय: चर्चा रहती है । जबकि स्वदेशी व्रत में व्यक्ति अपने देश में बनी हुई वस्तुओं को इस्तेमाल करता है, देश के प्रति वफादारी रखता है, देश पर संकट आने पर वह तन-मन-धन से सहयोग देने में पीछे नहीं हटता । देश की सुरक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार रहता है । स्वदेशी व्रत के पीछे राष्ट्रधर्म है, जबकि देशकथा के पीछे या तो थोड़ा-सा स्वार्थ रहता है, अथवा वहाँ के स्थानीय या बाहर के लोग बैठकर देश की राजनीति, संस्कृति आदि पर विचार चर्चा करते हैं जिनमें तथ्य बहुत थोड़ा होता है, अधिकांश मनोरंजन के लिए देश-विदेश की यात्रा-कथाओं या शिकार की चर्चाएँ करते रहते हैं। जहाँ देश की भलाई के लिए परस्पर विचार-विमर्श किया जाता हो, वहाँ वह देशकथा नहीं कहलाती परन्तु जहाँ देश-हित के विरुद्ध एक देश को दूसरे देश से लड़ाने-भिड़ाने, देश में फूट डालने, देश को लूटने, देश में अराजकता फैलाने, देशद्रोह करने, देश की संस्कृति को चौपट करने एवं देश का पतन करने वाली कथा की जाती हो, विचार विमर्श किया जाता हो, एक-दूसरे को प्रेरणा दी जाती हो, वहाँ अवश्य ही देशकथा है । देश विकथा पाप है, देशहित की कथा पुण्य है। यह अन्तर समझ लेना चाहिए। इन चार विकथाओं को कहने-सुनने का परिणाम बहुत बुरा आता है। इनसे मनुष्य का जीवन पतन एवं पाप की ओर जाता है। विकथाओं से किसी का कल्याण न तो हुआ है, और न ही होगा अपितु उससे कल्याण का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। कई लोग अकर्मण्य, निठल्ले एवं आलसी बनकर जब-तब इन्हीं चारों विकथाओं में से किसी न किसी विकथा को करते रहते हैं। भारत में तो बहुत-से दुर्व्यसनी लोग गपशप में इन्हों विकथाओं का आश्रय लेते हैं। वे अपने समय, शक्ति और बुद्धि का अपव्यय और दुरुपयोग इन्हीं विकथाओं में करते रहते हैं। आधुनिक विकथाएँ-कई लोग वर्तमान में प्रचलित विकथाओं में अपने समय और शक्ति का अपव्यय करते हैं । वे या तो अश्लील साहित्य पढ़ते हैं, जैसे-अश्लील उपन्यास, नाटक या कहानियाँ ऐसी कथाएँ हैं, जिनके पढ़ने से कामवासना पैदा होती है। उपन्यास को नवल-कथा भी कहते हैं। कई उपन्यास ऐसे होते हैं, जिनमें चोरी की या ऐसी तिलस्मी कथाएँ होती हैं, जिनसे तुच्छ मनोरंजन के सिवाय कोई हितशिक्षा नहीं मिलती बल्कि ऐसे उपन्यास पढ़कर अथवा ऐसे उपन्यासों की कथा कहसुनकर चोरी डकैती आदि के दुःसाहसिक कुकर्म करने लग जाते हैं। कुछ वर्षों पहले की एक घटना है। एक नवयुवक ने जो अभी विद्यार्थी ही था, ऐसी एक दुःसाहसिक नवलकथा (उपन्यास) पढ़ी जिससे उसका विचार चोरी एवं डकैती करने का हो गया। एक दिन उसने दुस्साहस किया। वह रात को एक दूकान का दरवाजा तोड़ने लगा, जैसे उस नवल-कथा में लिखा था, ठीक उसी तरह का उसने For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट : २३ वेष बनाया, वैसे ही साधन लिये। वैसे ही दूकान में चोरी करने के लिए दरवाजा तोड़ने का प्रयत्न किया, पर बेचारा नौसिखिया था, अतः दरवाजा टूटा नहीं । खटखट की आवाज से लोगों की नींद उड़ गई और वह रंगे हाथों पकड़ लिया गया। यह है दुःसाहसिक नवल-कथा का दुष्परिणाम । अधिकांश नवल-कथाएँ प्रेमकथाएँ होती हैं। उनमें प्रेमी-प्रेमिका की दुःखान्त कथाएँ होती हैं, असफल प्रेम की कथाएँ पढ़ने-कहने से युवक चरित्रभ्रष्ट हो ही जाता है। किसी कथा के नायक की नकल करके वह भी असफल प्रेमी या प्रेमिका बनकर अपने जीवन का दुःखद अन्त कर डालता है। इसी प्रकार कई रहस्य-कथाएँ होती हैं, जिनका कोई भी शुभ परिणाम जीवन पर नहीं होता, बल्कि घड़ी-दो घड़ी के लिए मनुष्य आश्चर्य में डूब जाता है। कथा का कोई भी सिरा हाथ नहीं आता। __कई भूत-प्रेत की कहानियाँ, झूठे किस्से तथा मनगढंत कथाएँ पढ़ते या कहते-सुनते हैं, उनका मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। भय का भूत उनके मस्तिष्क में इतनी तेजी से तथा सुदृढ़ रूप से घुस जाता है कि वह आजीवन नहीं निकलता। इसीलिए घर में बढ़ी-बूढ़ी, दादी या नानी प्राचीनकाल में बच्चों को ऐसी कहानियाँ नहीं सुनाती थीं जिनसे बच्चे भयभीत हो जाएं, बच्चों के कोमल दिमाग में भय घुस जाये। ___ इसी प्रकार कई लोग शिकार-कथा कहते-सुनते या पढ़ते हैं, उसमें शिकार का साहसिक वर्णन होता है । वर्णन इतना रोचक ढंग से होता है, कि पढ़ने-सुनने वाला उसमें तन्मय हो जाता है, उसके मन-मस्तिष्क पर उस शिकार-कथा के वर्णन की तरह ही शिकार करने की लालसा जागृत होती है, कई लोग शिकार करने का साहस भी कर बैठते हैं। इस प्रकार एक कुकथा के पढ़ने-सुनने से जीवन के हरे-भरे उद्यान में हिंसा की आग प्रज्वलित हो उठती है । जीवन के बे क्षण भयंकर होते हैं, जिनमें वह शिकारी बनकर दिन पर दिन घोर हिंसा-निर्दोष जानवरों की हत्या करने पर उतारू हो जाता है। कई लोग यात्रा-कथाएँ कहने या पढ़ने-सुनने के शौकीन होते हैं। यात्राकथाओं से कुछ जानकारी तो हो जाती है देश-विदेश के रहन-सहन की, संस्कृति की, और चाल-चलन की। उसका प्रभाव कभी-कभी तो मनुष्य के अनुकरणशील मस्तिष्क पर इतना जबर्दस्त पड़ता है कि वह उस यात्रा-कथा में से अच्छाई को ग्रहण करने के बजाय बुराई को ग्रहण करने लग जाता है। वह उस-उस देश के लोगों में व्याप्त दुर्व्यसनों को अपना लेता है, विदेशी संस्कृति के सांचे में अपने जीवन को ढालने लगता है। भारतीय लोगों ने पश्चिम के लोगों में जो गुण-समय की पाबन्दी, स्वदेशप्रेम, काम के समय काम करना, व्यर्थ की गपशप या दुर्व्यसन-पोषण नहीं, काम करने से जी न चुराना, मानव-सेवा करना आदि सद्गुण थे, उन्हें नहीं अपनाया; किन्तु उनमें जो दुर्गुण थे-सिगरेट पीना, स्त्री-पुरुषों का स्वच्छन्द रूप से घूमना, खड़े-खड़े For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ पेशाब करना, कोट-पेंट-नेकटाई, हैट आदि पोशाक पहनना आदि, उन्हें ग्रहण कर लिया। यात्रा-कथा का वर्णन पढ़कर प्रायः अनुकरणशील लोग देश-विदेश के लोगों के दुर्गुणों को अपना लेते हैं, सद्गुणों को नहीं अपनाते । इसी प्रकार कई कथाएँ रोचक तो होती हैं, पर उनमें से ग्रहण करने लायक हितोपदेश बहुत ही अल्प होता है । ___ कई सामाजिक उपन्यास भी होते हैं, समाज-सेवा की प्रेरणा उनसे मिलती है, पर वे इने-गिने ही होते हैं, और इने-गिने बिरले लोग ही उन्हें पढ़-सुनकर समाज-सेवा की प्रेरणा ग्रहण करते हैं। अधिकांश लोग तो अपनी रुचि का पोषण करने के लिये ऐसे उपन्यास पढ़ते हैं, कुछ लोग समय काटने के लिये ऐसा साहित्य पढ़ते हैं। अक्सर देखा गया है कि भारत के लोग ऐसे कथा साहित्य को पढ़कर प्रायः अकर्मण्य, परोपजीवी और आलसी हो गये हैं। उन्हें यह भान ही नहीं होता कि समय कितना अमूल्य है ? इसका कैसे सदुपयोग करना चाहिये ? वे प्रायः अपना समय गपशप, निन्दा-चुगली, लड़ाई-झगड़ा या किसी दुर्व्यसन मे अथवा ऐसे गन्दे साहित्य के पढ़ने में खर्च कर डालते हैं, आरोग्यवृद्धि, मनोरंजन तथा लोकोपकार की दृष्टि से विचार करके उस समय का सदुपयोग करना नहीं जानते। निष्कर्ष यह है कि पूर्वोक्त चारों विकथाओं के अतिरिक्त प्रेम-कथा, साहसिककथा, रहस्य-कथा, भूत-कथा, शिकार-कथा, यात्रा-कथा आदि विभिन्न कथाओं से भी मनुष्य का कल्याण नहीं होता, न ही कोई हितकर प्रेरणा मिल पाती है। धर्मकथा इन सब कथाओं में श्रेष्ठ कथा है। धर्मकथा सरल और रोचक तो होती ही है, साथ ही उससे जीवन-कल्याण की प्रेरणा भी मिलती है। धर्मकथा का श्रवण एवं कथन माता के स्तनपान की तरह हितकारी और जीवन को स्वस्थ, स्फूर्तिमान एवं धर्मरसिक बनाता है। धर्मकथा क्या है, क्या नहीं? ___धर्मकथा वह है, जिस कथा में या जिस वर्णन में धर्म-शुद्धधर्म का पुट हो । जो कथा पढ़ने-सुनने वाले को शुद्धधर्म की प्रेरणा देती हो, जिस कथा को पढ़ने-सुनने से धर्म की मर्यादा में रहकर अर्थ-काम-सेवन का गुर मिल जाता है, जो कथा मनुष्य को दुराचार, दुर्व्यसन एवं दुर्नीति तथा पाप-परायणता के मार्ग से हटाकर अच्छी आदतों, सुनीति एवं धर्मपरायणता के सन्मार्ग पर मनुष्य को चढ़ा देती हो, उसे भी धर्मकथा कहते हैं। जिस कथा के कहने-सुनने या पढ़ने से मनुष्य को जुआ, चोरी, मांसाहार, मद्यपान, शिकार, वेश्यागमन एवं परस्त्रीगमन आदि दुर्व्यसनों को सर्वथा तिलांजलि देने की प्रेरणा मिलती हो, वह भी धर्मकथा की कोटि में है। जिस कथा में धार्मिक महापुरुषों का जीवन चरित्र हो, जिसमें शील और सतीत्व की परम आराधक महासतियों की जीवनी हो, जिसमें धर्मवीर पुरुषों की घटनाओं का आलेखन हो, ऐसे लोगों को जीवन गाथाएँ भी अंकित हों, जो पतित For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट : २५ • से पावन बने हों, पापमूर्ति से धर्ममूर्ति बने हों, वे कथाएँ भी धर्मकथा कही जा सकती हैं । इसके अतिरिक्त ऐसी कथाओं को भी धर्मकथा कहा जा सकता है, जिन कथाओं का प्रारम्भ भोगों के अतिरेक से होकर उनका अन्त भोगों की आसक्ति के सर्वथा त्याग के रूप में प्रतिफलित हुआ हो अथवा जो कथा प्रारम्भ में दुर्व्यसनों में निमग्न पुरुष की हो, लेकिन उसका अन्त दुर्व्यसनों के सर्वथा त्याग में हो । धर्मकथा धर्मोपदेश को भी कहते हैं । इस दृष्टि से केवल धर्मप्रेरणायुक्त कथा-कहानी को ही धर्मकथा नहीं, अपितु धर्मप्रवचन, धर्मदेशना या धर्मप्रेरणा को भी धर्मकथा कहते हैं । भारतीय संस्कृति में संतों, साधु-संन्यासियों एवं ऋषि-मुनियों के प्रवचनों, व्याख्यानों या धर्मोपदेशों को भी धर्मकथा कहने का आम रिवाज है । क्योंकि साधु-सन्तों के धर्मोपदेश में जो भी तात्त्विक वर्णन किया जाता है, कथा-कहानी या दृष्टान्त कहे जाते हैं, अथवा अन्य शास्त्रीय वर्णन किया जाता है, वह सब धर्म से सना, धर्म से ओत-प्रोत होता है एवं उनमें धर्ममार्ग पर चढ़ाने, श्रोताओं को धर्म के रंग में रंगने का प्रयास होता है । पाश्चात्य विचारक John Newton ( जोहन न्यूटन ) ने भी कहा है "My grand point in preaching is to break the hard heart and to heal the broken one. " "धर्मापदेश में मेरा सबसे बड़ा मुद्दा है – कठोर हृदय को पिघलाना और टूटे हुए हृदय को साधकर स्वस्थ करना । " इसके अतिरिक्त जिस उपदेश या साहित्य में संसार एवं सांसारिक पदार्थों, शरीर, यौवन, धन-वैभव आदि की निःसारता, तुच्छता और अनित्यता बताई जाती है । जीवन में जिससे विरक्ति पैदा हो जाती है, इन नाशवान और अनित्य पदार्थों से । मनुष्य संसार से विरक्त होकर त्यागमार्ग, चारित्रपथ को अंगीकार करने को तत्पर हो जाता है । साधुधर्म - उत्कृष्ट महाव्रतरूप धर्म को अंगीकार करने के लिए उद्यत हो जाता है । आत्मा में – विशुद्ध आत्मतत्त्व में आत्मभावों में रमण करने के लिए सुसज्ज हो जाता है, सांसारिक पुद्गलों की आसक्ति का त्याग कर देता है, वह वर्णन, विवेचन, उपदेश या साहित्य भी धर्मकथा के अन्तर्गत है । इसीलिए महात्मा गांधी ने उस शास्त्र को भी धर्मकथा कहा है "जो मोक्ष की ओर बढ़ाने वाला हो, संयम की शिक्षा देने वाला हो ।" और उस साहित्य को भी हम धर्मकथा कह सकते हैं, जिसमें दान, शील, तप, भावना, श्रुतधर्म, चारित्रधर्म, या ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म अथवा क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, इन दस धर्मों का अथवा गृहस्थ-धर्म के अणुव्रतों व साधुधर्म के महाव्रतों का विवेचन हो, इन्हीं पर कथाएँ, दृष्टान्त, सूक्ति-संग्रह, गाथासंचय अथवा प्रवचन या लेख हों। ऐसे धर्मकथात्मक For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ साहित्य को धर्मकथा इसलिए कहा जाता है कि ऐसा साहित्य अंगोपांगों सहित धर्म की प्रेरणा से ओतप्रोत होता है । धर्मकथा-श्रवण-मनन-निदिध्यासन से लाभ प्रश्न होता है-धर्मकथा कहने, सुनने, या मनन करने से क्या लाभ है ? यदि धर्मकथा का श्रवणादि न किया जाये तो क्या हानि है ? आज भारतवर्ष में धर्मकथा-श्रवण के प्रति लोगों की आस्था मन्द होती जा रही है। अगर उन्हें यह पता लग जाये कि अमुक स्थान पर जाने से पांच सौ रुपये का लाभ होने वाला है और इसी नगर में अमुक स्थान पर साधु मुनिराज विराजमान हैं, उनका धर्मोपदेश होने वाला है तो सामान्य मानव का झुकाव अर्थलाभ की ओर होगा, धर्मलाभ की ओर नहीं । कई व्यक्ति, जिन्हें धन और सत्ता के मद ने आ घेरा है, वे भी अपने अहंकारवश धर्मश्रवण से कतराते हैं। उनका तर्क है कि धर्मकथा सुनने या उस पर मनन करने से कोई अर्थलाभ तो होता नहीं, धर्मलाभ किसने देखा है ? इसका समाधान यह है कि मनुष्य-जीवन का उद्देश्य केवल अर्थलाभ ही नहीं है, खाना-पीना, ऐशो-आराम करना भी जीवन का लक्ष्य नहीं है। जीवन का मुख्य लक्ष्य है-जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाना । उसके लिए अर्थलाभ या कामलाभ आवश्यक नहीं हैं, धर्मलाभ ही सर्वप्रथम आवश्यक और अनिवार्य है । धर्मलाभ धर्मकथा सुनने या मनन करने से ही हो सकता है। धर्मकथा धर्मलाभ का मूल स्रोत है। मानव-जीवन के अभ्युदय और निःश्रेयस के लिए अर्थलाभ या कामलाभ उपयोगी नहीं है, धर्मलाभ ही उपयोगी है। अर्थ और काम के लाभ से प्रेय की प्राप्ति हो सकती है, श्रेय की नहीं। प्रेय देखने में लुभावना और आकर्षक लगता है, वह क्षणभंगुर है, नष्ट होने वाला है जबकि श्रेयमार्ग सहज स्वाभाविक है, वह अविनाशी है । धर्मकथा सुनने से मनुष्य को वह मार्ग मिल जाता है, जिससे अर्थ और काम की अपेक्षा ही न रहे, इनकी गुलामी ही न करनी पड़े। आपसे मैं पूछता हूँ-एक व्यक्ति आपको अर्थलाभ या कामलाभ का रास्ता बताता है और दूसरा व्यक्ति ऐसा रास्ता बताता है, जिससे शाश्वत सुख-शान्ति की प्राप्ति हो, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सकें तथा अर्थ और काम से निरपेक्ष एवं निस्पृह रह सकें, उनकी गुलामी न करनी पड़े तो आप कौन-सा रास्ता पसन्द करेंगे । स्पष्ट है कि आप दूसरा मार्ग ही पसन्द करेंगे, पहले मार्ग को नहीं। लौकिक व्यवहार का एक सिद्धान्त है कि ___ 'प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' कपड़े को कीचड़ में डालकर फिर पानी से धोने की अपेक्षा दूर से ही कीचड़ से उसको स्पर्श न कराना ही अच्छा है। इसी प्रकार पहले आत्मा को अर्थ और काम प्राप्ति के चक्कर में डालकर प्रेयमार्ग प्राप्त कराना और फिर उसके फलस्वरूप होने वाले जन्म-मरण के चक्कर से बचाने हेतु धर्मलाभ प्राप्त कराकर श्रेयमार्ग पर For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट : २७ चढ़ाना अच्छा नहीं । अच्छा तो यही है कि पहले से ही धर्मलाभ द्वारा प्राप्त होने वाले श्रेयमार्ग को अपनाया जाए, जिससे अर्थ और काम की गुलामी या अपेक्षा न करनी पड़े, जन्म-मरण के चक्र में न पड़ना पड़े। एक बार मनुष्य धर्मलाभ को छोड़ देता है, और निरपेक्ष निरंकुश अर्थ- काम का सेवन करता है, तो फिर उसे सहसा धर्म की प्राप्ति होना कठिन हो जाता है, क्योंकि एक बार अधर्म और पाप के फलस्वरूप नरक और तिर्यञ्चगति प्राप्त होने पर वहाँ धर्म की प्राप्ति होना कठिन होता है । जहाँ व्यक्ति अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व और दुःख में ही रात-दिन ग्रस्त रहता है, वहाँ धर्म की जिज्ञासा होनी ही कठिन है, धर्म की प्राप्ति तो और भी दुष्कर है । अतः धर्मलाभ ही जीवन में महत्त्वपूर्ण है और वह धर्मकथा के योग से सहज ही हो जाता है । धर्मकथा सुनने से भले ही सीधा अर्थ - कामलाभ न होती हो, लेकिन अर्थ - काम की गुलामी ही न करनी पड़े, इनकी आसक्ति से जन्म-मरण के चक्र में न पड़ना पड़े, इस प्रकार के श्रेयमार्ग का महालाभ - धर्मलाभ धर्मकथा से होता ही है, जिससे आगे चलकर जन्म-मरण का बन्धन कट जाता है । लोहखुर राजगृह नगर का नामी चोर था । उसने मरते समय अपने पुत्र रोहिणेय से कहा था - "बेटा ! एक संकल्प कर ले। किसी भी साधु के वचन नहीं सुनना ।" रोहिणेय ने संकल्प कर लिया । लोहखुर के मरने के बाद राजगृह में रोहिणेय का आतंक बहुत बढ़ गया था । रोहिणेय रूप-परिवर्तन करने में बहुत निपुण था । राजपुरुष, राजा श्रेणिक आदि ने भरसक प्रयत्न कर लिया रोहिणेय को पकड़ने का, लेकिन वह किसी भी तरह पकड़ में नहीं आता था । एक दिन रोहिणेय चोर कानों में उँगलियाँ डाले हुए भगवान् महावीर के समवसरण (धर्मसभा) के आगे से होकर जा रहा था, तभी अकस्मात् उसके पैर में काँटा चुभ गया । संत के वचन न सुनने का संकल्प था; परन्तु काँटा निकालने के लिए कानों में डाली हुई उंगलियाँ निकालनी पड़ीं। इसी दौरान उसने भगवान् महावीर की धर्मकथा के ४ वचन सुने " (१) देवों के पैर जमीन से अधर रहते हैं, (२) उनके गले में पड़ी हुई फूलमालाएँ कुम्हलाती नहीं, (३) उनकी आँखों की पलकें नहीं झपतीं और (४) उनके शरीर में पसीना नहीं आता ।" ये चार वचन सुन कर रोहिणेय वहाँ से सीधा अपनी गुफा में पहुँचा । इधर मंत्री अभयकुमार ने रोहिणेय चोर को पकड़ने का बीड़ा उठाया हुआ था। वे उसकी टोह में घूम रहे थे । एक जगह उन्हें रोहिणेय के होने का शक पड़ा किन्तु पूछने पर उसने अपने को व्यापारी बताया अपना नाम, पता-ठिकाना दूसरा ही बताया। लेकिन अभयकुमार ने उससे मित्रता कर ली । उसे भोजन का न्यौता दिया । भोजन में कुछ मादक द्रव्य खिला दिये, जिससे वह बेहोश हो गया । उसे बेहोशी की हालत में वहाँ ले आया गया, जहाँ अभयकुमार ने पहले से ही स्वर्ग-सी रचना कर रखी थी । वहाँ देव एवं देवांगनाओं का वेष धारण किये हुए कई युवक For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ युवतियाँ सुसज्जित खड़ी थी। रोहिणेय को वहाँ एक पलंग पर सुला दिया गया। जब रोहिणेय होश में आया तो उसे कहा गया--"आप स्वर्ग में आए हैं । हम देव और देवांगनाएँ आपकी सेवा में हाजिर हैं । परन्तु स्वर्ग में आने वाले देव को सर्वप्रथम यह पूछा जाता है कि वह कौन है, कहाँ का है ? उसने क्या-क्या सुकर्म-दुष्कर्म किये हैं ?" रोहिणेय ने ज्यों ही उन नकली देवियों की ओर देखा उसे भगवान महावीर के वे ४ वचन स्मरण हो आये। उसने देखा कि ये अपने आपको देव-देवी कहते हैं, परन्तु भगवान महावीर ने तो कहा था-'देवों के शरीर में पसीना नहीं आता', इनके शरीर में पसीना आ रहा है। 'देवों की फूलमालाएँ कुम्हलाती नहीं', इनकी तो पुष्पमालाएँ कुम्हला रही हैं । 'देवों की पलकें नहीं झपती' पर इनकी तो पलकें झप रही हैं। और 'देवों के पैर जमीन से अधर रहते हैं', इनके पैर तो जमीन पर टिके हुए हैं। इसमें मुझे अभयकुमार की चाल मालूम होती है । अतः उसने अभयकुमार आदि के समक्ष पहले जो अपने को व्यापारी बतलाया था तथा नाम, गाँव का नाम-पता आदि बताया था, वही बताया। फलतः अभयकुमार उसे गिरफ्तार न कर सका। जब अभयकुमार ने उसे मुक्त कर दिया और मित्र के नाते आत्मीयतापूर्वक बात की तो उसने स्वयं स्वीकार कर लिया कि "मैं ही रोहिणेय हूँ। मैं आपके समक्ष विभिन्न रूपों में आता रहा पर आप पकड़ न सके । अब आप मुझे अगर भगवान् महावीर जैसे नि:स्पृह, सर्वदर्शी महापुरुष के समक्ष ले चलें तो मैं उनके समक्ष अपने सारे अपराध खोल कर रख दूंगा।" अभयकुमार उसका हृदय बदला हुआ देखकर भगवान महावीर की सेवा में ले पहुँचा। भगवान महावीर ने उसे तथा परिषद को धर्म देशना दी। फलतः रोहिणेथ को संसार से विरक्ति हो गई। उसने भगवान महावीर के समक्ष अपने सारे अपराध मंजूर कर लिये और शुद्ध सरल हृदय से पश्चात्तापपूर्वक आत्मालोचना की। तत्पश्चात मुनि-दीक्षा ले ली। अब रोहिणेय चोर मिटकर वह रोहिणेय मुनि बन गया । श्रेणिक राजा एवं अभयकुमार जो उसे गिरफ्तार करके भारी दण्ड देना चाहते थे, अब भगवान् महावीर की धर्मकथा के प्रताप से वन्दनीय रोहिणेय मुनि बन गया। अतः दोनों उसके चरणों में वन्दना करने लगे। यह है-धर्मकथा का हृदयस्पर्शी प्रभाव और महत्त्व ! धर्मकथा-श्रवण को प्राथमिकता जो व्यक्ति धनादि के लाभ से धर्मकथा को अधिक लाभपूर्ण समझते हैं, वे धर्मकथा को ही प्राथमिकता देते हैं, वे सांसारिक अन्य लाभों को गौण कर देते हैं । वे समझते हैं कि धर्मकथा से जीवन अमर हो जाता है, जीवन को अमर बनाने की प्रेरणा धर्मकथा से मिलती है। भरत चक्रवर्ती अत्यन्त वैभवशाली था। चक्रवर्ती पद के कारण सत्ता भी उसके हाथ में थी। परन्तु वह वैभव और सत्ता से अलिप्त रहता था। __ एक बार भरत चक्रवर्ती सिंहासन पर बैठे थे, तभी उन्हें एक साथ तीन शुभ For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म कथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट : २६ सन्देश मिले-"(१) आपकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है, उसकी पूजा करिये, (२) आपके पुत्ररत्न पैदा हुआ है, उसका उत्सव मनाइए और (३) भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान हुआ है, उनका समवसरण लगा है, धर्मोपदेश सुनिए।" तीनों सन्देशों के सुनते ही क्षणभर भरत चक्रवर्ती विचार में पड़े । उन्होंने तत्काल निर्णय किया- "मुझे तीर्थंकर भगवान् के समवसरण (धर्मसभा) में उनकी धर्मदेशना (धर्मकथा) सुनने सर्वप्रथम जाना है। शेष दोनों मेरे लिए गौण हैं। चक्ररत्न तत्काल नहीं पूजा जाएगा तो कोई हानि नहीं होगी। चक्ररत्न कहीं जाने वाला नहीं है । उसे बाद में भी पूजा जा सकता है और पुत्ररत्न पैदा हुआ है, इसका सुख तो सांसारिक सुख है। इस सुख को प्रकट करने के लिए उत्सव सम्पन्न किया जाता है, परन्तु धर्मश्रवण का सुख तो इससे कई गुना बढ़कर है । इसलिए पुत्ररत्न का उत्सव बाद में भी मना लिया जाए तो कोई आपत्ति नहीं होगी। धर्मदेशना-श्रवण का अवसर मुझं हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। धर्मकथा-श्रवण का अवसर बाद में नहीं मिलेगा।" बस, भरत चक्रवर्ती ने यथार्थ निर्णय ले लिया और चल पड़े अपने धर्मरथ पर आरूढ़ होकर तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के मुख से निःसृत अमृतवाणीमयी धर्मकथा श्रवण करने के लिए । धर्मकथा श्रवण करके भरत चक्रवर्ती को अपूर्व आनन्द और सन्तोष का अनुभव हुआ। . इसी प्रकार जो लोग धर्मकथा से होने वाले अनुपम धर्मलाभ का महत्त्व जानते हैं, वे अर्थ और काम के लाभ के अवसरों को गौण समझते हैं । धर्मकथा से सभी समस्याओं का हल किसी दीन-दुःखी की तात्कालिक सहायता तो किमी हद तक कुछ समय तक सहारा देकर की जा सकती है, परन्तु किसी की कोई भी समस्या दूसरों के सहयोग से स्थायीरूप से हल नहीं हो सकती। रोगी का रोग दवा से नहीं, संयम से ही दूर हो सकता है। डाक्टर कितनी हो अच्छी औषधि दे, पथ्य-परहेज न रखने वाले मरीज की बीमारी लौट-लौटकर पुन: आती रहेगी। केवल अन्न-वस्त्र वितरण करने मात्र से गरीबी की समस्या हल नहीं हो सकती। किसी भूखे अथवा नंगे को भोजन-वस्त्र देकर उसकी तात्कालिक क्षुधा मिटाई जा सकती है, पर सदा के लिए ऐसे भूखे-नंगे को भोजन-वस्त्र दिया जाना कठिन होता है । उनकी गरीबी तो तभी दूर हो सकती है, जब वे स्वयं श्रम का महत्त्व समझें, अपनी न्यायनीतियुक्त कमाई के उपभोग में गौरव समझें, उनके मन में गरीबी अथवा अल्प आवश्यकताओं से निर्वाह करने का संतोष हो । मनोविकार हो समस्त आपत्तियों और समस्याओं की जड़ हैं । यही बात अन्य समस्याओं, कष्टों, दुःखों, मुसीबतों और विपत्तियों या अभावों के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। समस्याओं का सही समाधान धर्मविचार से युक्त तथा अहिंसा, संयम और तप से अनुप्राणित विचार पद्धति से ही हो सकता है । आज अधिकांश लोगों की विचार-पद्धति गलत है, उसे सुधारना होगा । किसी की विचार-पद्धति को सुधारना सबसे बड़ा पुण्य है । ज्ञानदान या आध्यात्मिक वस्तुतत्त्व की सही समझ देना सबसे बड़ा धर्म है। आज जनता की विचार-पद्धति, चिन्तन-प्रणाली को सुधारने का सबसे बड़ा माध्यम है For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ धर्मकथा । धर्मकथा से वैयक्तिक और सामाजिक विचारणा एवं कार्यपद्धति सही हो सकती है। मनुस्मृति में धर्मकथा द्वारा शुद्ध विचार-प्रदान या शुद्ध चिन्तन-पद्धति की प्रेरणा देने का महत्त्व बताया गया है अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम् । वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता ॥ धर्मलाभ का इच्छुक व्यक्ति अहिंसा द्वारा ही कल्याण करने की शिक्षा दे, इसके लिए मधुर एवं कोमल वाणी का प्रयोग करे । धर्मकथा में केवल व्यक्ति-परिवर्तन की ही नहीं, समाज-परिवर्तन की भी शक्ति है । धर्मकथा के एक ही बार श्रवण करने, कहने या सुनने से हजारों व्यक्तियों का कल्याण हुआ है, होता है और भविष्य में भी होगा। ये धर्मकथा से लाभ नहीं उठा सकते सूर्य, चन्द्रमा, नदी, झरने आदि प्रकृतिदत्त वस्तुओं से सभी लोग लाभ नहीं उठा सकते, क्योंकि सभी की वृत्ति, प्रवृत्ति, प्रकृति, रुचि एक-सी नहीं होती। कोई किसी एक बात में प्रवीण होता है, कोई दूसरी बात में । नदी सब को समान भाव से पानी देती है परन्तु जिसके पास जैसा छोटा-बड़ा बर्तन होता है, उसी के अनुसार वह पानी ग्रहण करता है, वैसे ही धर्मकथा करने वाले तो सबको समान भाव से एक-सरीखी कथा सुनाते हैं, समझाते हैं, यह तो श्रोता पर निर्भर है कि वह कितना और किस रूप में ग्रहण करता है ? इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने बहुत ही सुन्दर निर्णय प्रस्तुत किया है न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यकान्ततो हितश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्त स्त्वेकान्ततो भवति । सभी श्रोताओं को एकान्त हितकारी (धर्मकथा) के श्रवण से धर्मलाभ नहीं हो जाता, किन्तु अनुग्रहबुद्धि से (धर्मकथा) कहने वाले वक्ता को तो एकान्त धर्म-लाभ होता ही है। __इसके अतिरिक्त और भी ऐसे कुछ लोग हैं, जो धर्म को न जानने-समझने के कारण धर्मलाभ नहीं प्राप्त कर पाते । जैसा कि विदुर नीति में कहा है मतः प्रमत्तश्चोन्मत्तः श्रान्तः क्रु द्धो बुभुक्षितः। त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश ।। दश धर्म न जानन्ति धृतराष्ट्र ! निबोध तान् ।' "हे धृतराष्ट्र ! दस व्यक्ति धर्म को नहीं जान पाते, उन्हें समझो-(१) मदिरापान से मत्त, (२) प्रमादी, (३) उन्मत्त (मृगी आदि रोग से मूच्छित या पागल), (४) थका हुआ, (५) क्रोधी, (६) भूखा, (७) जल्दबाज, (८) लोभी, (९) भयभीत और (१०) कामासक्त।" १. विदुर नीति १।१०६-१०७ For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकथा : सब कथाओं में उत्कृष्ट : ३१ वास्तव में धर्मकथा से ऐसे लोग लाभ नहीं उठा सकते, जो इन दसों में से कोई हों। कदाचित् ऐसे लोग शर्माशर्मी, देखा-देखी, दूसरों के दवाब, लिहाज या मुलाहिजे में आकर अथवा समाज में अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए, दिखावे के लिए धर्मकथा-श्रवण करने बैठ भी जाएँ तो भी उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता, क्योंकि उनका दिल-दिमाग कहीं और होता है, भले ही उनका शरीर चाहे वहाँ बैठा हो । धर्मकथा से लाभ न उठा पाने के कारण वे अपने जीवन की उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा नहीं पाते, जीवन की अटपटी घाटियों को सुख-शान्तिपूर्वक पार नहीं कर पाते । पं० आशाधरजी ने धर्मकथा सुनने के अधिकारी का लक्षण बताते हुए कहा है भव्यः, किं कुशलं ममेति विमृशन् दुःखाद् भृशं भीतवान । सौख्यैषी, श्रवणादि बुद्धिविभवः, श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् ॥ धर्म शर्मकर दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितं । गृह्णन् धर्मकथां श्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः॥ धर्मकथा सुनने का अधिकारी वह है, जो भव्य हो, मेरा हित किस में है ? इस प्रकार का विचार करने वाला हो, जन्म-मरण के दुःखों से अत्यन्त भयभीत हो, वास्तविक सुख का अभिलाषी हो, श्रवणादि बुद्धि का वैभव हो, युक्ति और आगम से सिद्ध दयागुणमय, सुखकारक धर्म को सुनता हो, तत्पश्चात् स्पष्ट विचार करता हो, अनाग्रही हो, और अनुशासन-मर्यादा में चलता हो । जो व्यक्ति अभव्य है, रात-दिन महारम्भ और महापरिग्रह में रचा-पचा रहता है, सांसारिक-वैषयिक सुखों को सुख मानता है, जन्म-मरणरूप संसार के दु.खों से भयभीत नहीं है, धर्मश्रवणादि की रुचि न हो, श्रवण-मनन करने की बुद्धि न हो वह व्यक्ति धर्मकथा सुनने का अधिकारी कैसे हो सकता है। स्थानांगसूत्र में धर्म (कथा) श्रवण न कर सकने के दो कारण बताये हैं "दोहि ठाणेहि केवलिपण्णत्त धम्मं न लभेज्ज स्वणयाएमहारंभेण चेव महापरिग्गहेण चेव।" दो कारणों से मनुष्य केवलिप्रज्ञप्त धर्म का श्रवण नहीं कर पाता-(१) महारम्भ के कारण और (२) महापरिग्रह के कारण। अमृत अपने सामने पड़ा हो, लेकिन कोई व्यक्ति अमृत का पान न कर सके तो इसमें अमृत का कोई दोष नहीं है, इससे अमृत का प्रभाव कम नहीं हो जाता । इसी प्रकार कोई व्यक्ति धर्मकथा जैसी पवित्र वस्तु को ग्रहण-श्रवण नहीं कर पाता, इसमें न तो धर्मकथा का कोई दोष है, और न ही उसका प्रभाव कम हो जाता है। धर्मकथा का जीवन पर प्रभाव और चमत्कार स्वाध्याय के ५ अंगों में धर्मकथा पाँचवाँ अंग है। धर्मकथा के द्वारा मनुष्य अपने जीवन का सुन्दर निर्माण कर सकता है। For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ चित्रकार की पुत्री अनंगसुन्दरी का विवाह शत्रु मर्दन राजा के साथ हो गया। अनंगसुन्दरी में एक विशेषता थी कि वह प्रतिदिन रोचक, प्रेरणादायक कथाएँ सुनाती थी। कथा सुनाने की कला में वह अत्यन्त कुशल थी, इस कारण राजा भी प्रभावित होकर उसी के महल में आता था। राजा की अत्यन्त प्रीति अनंगसुन्दरी पर होने के कारण दूसरी रानियाँ उससे ईर्ष्या करने लगीं और छिद्र हूँढने लगी कि किसी तरह से राजा का मन इससे हटाया जाये। अनंगसुन्दरी प्रतिदिन नियमानुसार अपना पूर्व (चित्रकार-पुत्री का) वेष पहनकर एकान्त कमरे में आत्मनिन्दना करती थी-"हे आत्मन् ! तू तो वही चित्रकार की पुत्री है । भले ही आज तू राजा की रानी है, परन्तु तेरा असली वेष तो पिता द्वारा दी हुई यह मोटी साड़ी है। रेशमी वस्त्रादि तो राजा के दिये हए हैं। ये गहने भी राजा के हैं। राजा के तो उच्चकुल की अनेक रानियां हैं। उन्हें छोड़कर राजा तुझे आदर देता है, इस कारण तुझ में अहंकार न आ जाए।' अनंगसुन्दरी की सौतों ने राजा के कान भर दिये । परन्तु राजा ने जब अनंगसुन्दरी को स्वयं अपनी आँखों से आत्मनिन्दना करते देखा तो बहुत ही प्रसन्न हुआ ! राजा ने प्रसन्न होकर अनंगसुन्दरी को पटरानी बना दिया। यह था आत्मनिन्दात्मक धर्मकथा का अद्भुत चमत्कार ! बन्धुओ ! इन सभी दृष्टियों से महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में कह दिया सव्वा कहा धम्मकहा जिणाइ । धर्मकथा सब कथाओं में उत्तम है। 000 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३. धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष जीवन के सर्वश्रेष्ठ बल का चमत्कार बताना चाहता हूँ। वह बल है-धर्मबल ! धर्मबल मनुष्य के पास संचित सभी बलों से श्रेष्ठ है । एक ओर शरीरबल हो, धनबल हो, जन-बल हो, बुद्धिबल हो या अन्य किसी भी प्रकार का बल हो, किन्तु दूसरी ओर अकेला ही धर्मबल हो, तो महर्षि गौतम का कथन है 'सव्वं बलं धम्मबलं जिणाई' समस्त बलों को धर्मबल जीत लेता है। यानी धर्मबल समस्त बलों में श्रेष्ठ है। गौतमकुलक का यह ६९वां जीवन-सूत्र है। दूसरे बलों में और धर्मबल में क्या अन्तर है ? धर्मबल उन सब पर कैसे विजयी हो जाता है ? आइए, इन सब पहलुओं पर गहराई से चिन्तन करें। बल : सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक मानव-जीवन के अथ से इति तक बल की तो आवश्यकता पद-पद पर रहती ही है । जो बच्चा जन्म से निर्बल, रुग्ण या अशक्त होता है, वह माता-पिता के लिए चिन्ता का कारण बन जाता है, पद-पद पर उसकी सँभाल रखनी पड़ती है । उस बालक का शारीरिक विकास ही नहीं रुकता, बौद्धिक और मानसिक विकास भी रुक जाता है। ऐसे बच्चे दीर्घायु भी नहीं होते। इसी प्रकार बचपन, जवानी, प्रौढ़ता या बुढ़ापा किसी भी अवस्था में निर्बलता, चाहे वह किसी भी प्रकार की हो-शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या आत्मिक-उसके कारण हर हालत में उसका विपरीत परिणाम भोगना पड़ता है । निर्बल व्यक्ति अपने प्राकृतिक और जन्मसिद्ध अधिकारों से समुचित लाभ नहीं उठा सकता। निर्बलता में प्रायः स्वास्थ्य खराब हो जाता है और स्वास्थ्य खराब होने पर मन्दाग्नि, अपच आदि रोग खड़े हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को कोई भी मनोरंजन, मधुर गीत-वाद्य, धन-सम्पत्ति, सुख-सुविधाएँ आदि नहीं सुहातीं। बलवानों के लिए सहायक सिद्ध होने वाले तत्त्व निर्बलों के लिए घातक बन जाते है । सर्दी शक्तिशाली के लिए स्वास्थ्य, बल और सक्रियता बढ़ाने वाली है, जबकि निर्बलों के लिए यही सर्दी जुकाम, ज्वर से लेकर निमोनिया और गठिया जैसे रोग For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ उत्पन्न कर देती है। प्रातःकाल की सुहावनी धूप से स्वस्थ एवं बलवान् व्यक्ति जीवनी. शक्ति प्राप्त करता है. जबकि कमजोर लोग धूप और हवा से बचकर घर में बैठकर आग तापते हैं । जल, वायु, उष्मा, खुला आकाश जैसी हितकर स्वास्थ्यदायक प्राकृतिक सम्पदाएं भो निर्बलों के लिए असह्य और घातक बन जाती हैं। जिसमें शारीरिक निर्बलता होती है, वह प्रकृति के मधुर वरदानों से वंचित रहता है । जिसका शरीर निर्बल होता है, उसका मन भी प्रायः निर्बल होता है। अंग्रेजी में कहावत है ___ "Sound mind in a sound body." 'सबल शरीर में सबल मन रहता है।' शरीर की दुर्बलता का जनसाधारण के मन पर भी असर होता है। अकसर उनका मन कमजोर होता है। मानसिक निर्बलता के कारण व्यक्ति जीवन में सहज-प्राप्त अवसरों का लाभ नहीं उठा पाते । कई बार मनुष्य के जीवन में आगे बढ़ने के चांस उपस्थित होते हैं, पर दुर्बल मन वाला व्यक्ति साहस करने से झिझकता है, जबकि मनोबलसम्पन्न व्यक्ति आगे बढ़ जाते हैं। वे प्रतिकूल परिस्थितियों, कष्टों और कठिनाइयों में साहस और उत्साहपूर्वक अपना रास्ता तय करते जाते हैं। मानसिक रूप से निर्बल व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में निराश और किकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। ___ बौद्धिक दृष्टि से निर्बल व्यक्ति भी संसार के अनुभवी और विश्ववंद्य विचारकों, धर्मनायकों एवं उत्तम पुरुषों के विचारों से लाभ नहीं उठा सकते, सम्यक्ज्ञान सम्पदा से वे प्रायः वंचित रहते हैं। बौद्धिक निर्बलता से युक्त मनुष्य प्रायः कार्य-अकार्य, हित-अहित, धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि का विचार नहीं कर सकते। वे प्रायः धर्मान्ध और अन्धविश्वासी बन जाते हैं। धर्म को विवेक और विज्ञान की तराजू पर वे तौल नहीं सकते । वे प्रायः गतानुगतिक होते हैं । वे सत्य की उपलिब्ध नहीं कर पाते। मन्दबुद्धि लोग अध्यात्म ज्ञान की रसमाधुरी से भी प्रायः वंचित रहते हैं। ___ इसी प्रकार आत्मिक दृष्टि से निर्बल व्यक्तियों की कोई प्रगति नहीं होती। दुर्बलात्मा लोगों के लिए शान्ति और आनन्द दुर्लभ हैं, इसीलिए उपनिषद् में कहा है 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' 'बलहीन व्यक्ति आत्मा को उपलब्ध नहीं कर सकता।' बलशाली लोगों को ही संसार में सम्मान और प्रतिष्ठा मिलती है। कमजोर और क्षीणमना लोगों को हर कोई घृणा की दृष्टि से देखता है। छोटे-छोटे कमजोर पौधे जो वर्षा और सर्दी में उग जाते हैं, वसन्त के आते ही सूखकर नष्ट हो जाते हैं, जबकि उसी वसन्त में बड़े और मजबूत वृक्ष लहलहाने लगते हैं । ___ सुदृढ़ और पक्की नींव का मकान वर्षों तक टिका रहता है, जबकि कच्चा, कमजोर और कच्ची नींव का मकान एक-दो आंधियों के झौंकों से ही ढह जाता है। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ३५ अशक्त और निर्बल का अस्तित्व हर हालत में और हर जगह असुरक्षित ही रहता है । जो बीज कमजोर होता है, वह मिट्टी में दबकर सड़ने लगता है, हवा, पानी, धूप आदि कोई भी उसके विकास में सहयोग नहीं देते और अन्त में वह नष्ट हो जाता है । कोई भी प्रयोजन संकल्प या इच्छा मात्र से सिद्ध नहीं हो जाता । किसी भी व्यक्तिगत या सार्वजनिक उद्देश्य में सफलता भी अनायास ही नहीं मिल जाती । उसके लिए शक्ति लगानी पड़ती है । आद्य शंकराचार्य ने 'सौन्दर्य लहरी' में बहुत ही सुन्दर उक्ति कही है शिवः शक्त्या युक्तो, यदि भवति शक्तः प्रभवितुम् । न चे देवं देवो, न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ॥ "शिव यदि शक्ति से युक्त हों, तभी समर्थ होते हैं । ऐसा न हो तो वे जरा भी हिलने-डुलने में समर्थ नहीं होंगे ।" बन्धुओ ! यहाँ 'शिव' हमारे मन का संकल्प है, वह शक्ति - क्रियाबल के सहित हो तभी कृतकार्य हो सकता है । सशक्त होकर मनुष्य अपने संकल्प को पूर्ण कर सकता है । संसार में सभी उत्तम गुण और विकास के अवसर हैं, उनकी उपलब्धि के लिए सुयोग्य और सुपात्र बनने हेतु शक्ति का प्रकटीकरण करना पड़ता है । एक अंग्रेजी कहावत है -- " किसी वस्तु की कामना करने से पूर्व उसके लिए उपयुक्त, सुयोग्य . और सुपात्र बनो ।" हर प्रकार की योग्यता शक्ति से ही प्राप्त होती है । लोहे का औजार बनने पर उसके द्वारा पत्थर तक तोड़ा जा सकता है । किन्तु लोहमात्र में तो यह गुण नहीं होता, लोहे को अनेक प्रकार की सामग्रियों से प्रस्तुत, गठित और तेज करना पड़ता है; तब वह लोहा इस्पात होकर काटता है, इसी प्रकार मनुष्य भी जब अनेक शक्तियों से प्रस्तुत, एकाग्र और प्रशिक्षित होता है, तभी वह भगीरथ कार्यों को सम्पन्न कर पाता है । निर्बलता एक ऐसा अपराध है, पाप भी है, जो लोगों को पथभ्रष्ट कर देता है, विपदा के गर्त में धकेल देता है । प्रकृति के विधान में निर्बल और अशक्त लोगों को दण्डस्वरूप अनेक खतरे और हानियाँ उठानी पड़ती हैं। अतः सबलता ही सजीवता है, और निर्बलता निर्जीवता है । जीवन का एक भी अंग शक्तिहीन होने से निर्बल हो जाता है । सर्वांगीण उन्नति के लिए आवश्यकतानुसार सब प्रकार के बलों का संग्रह करना चाहिए । हाँ, बल-संग्रह के साथ उसका सदुपयोग होना आवश्यक है । व्यावहारिक जीवन को सफल, सुखी और सुरक्षित बनाने के लिए भी बल-संवर्द्धन की आवश्यकता है । जैन सिद्धान्त में पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, शरीर, श्वासोच्छ्वास और आयु इन १० प्राणों को 'बल' कहा गया है । अतः व्यावहारिक जीवन में सफलता के इच्छुक व्यक्तियों को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक दुर्बलता को दूर करना चाहिए । स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय युवकों की निर्बलता देखकर उसे निवारण For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ करने हेतु आह्वान किया था-'बलमुपासस्व' बल की उपासना करो। युवको ! सर्वप्रथम आपको बलवान बनना पड़ेगा। बल ही आपके लिए उन्नति का एकमात्र मार्ग है। इसी से आत्मा और परमात्मा के अधिक निकट पहुँचा जा सकता है । अब देखना यह है कि कौन-सा बल, किस समय, कैसे और कितना उपयोगी हो सकता है ? दूसरे बल और धर्मबल आपने देखा होगा कि जब भी कोई व्यक्ति किसी को कष्ट पहुँचाता है, दुःख देता है, हैरान करता है, या उसके मन के प्रतिकूल चलता है, उसे नुकसान या चोट पहुंचाता है तो वह क्या करता है ? वह भी अपना शरीर-बल अजमाता है । उस समय वह सोचता है-मुझ में शरीरबल क्या कम है ? वह भिड़ जाता है, कष्ट आदि देने वाले से । वह भी चोट पहुंचाता है। बहुत-सी बार जब वह देखता है कि प्रतिपक्षी मेरे से शरीरबल में बढ़कर है, तब वह शरीरबल को छोड़कर धनबल या बुद्धिबल का उपयोग करता है। धन के द्वारा किसी गुडे या बलिष्ठ व्यक्ति को खरीदकर वह उस पर अपना जोर अजमाता है। कई लोग जब भूकम्प, बाढ़ आदि प्राकृतिक प्रकोपों के शिकार हो जाते हैं, तब शरीरबल या धनबल इतना काम नहीं आता, न ही बुद्धिबल काम आता है, उस समय धर्मबल ही काम आता है। कई बार अकेले एक व्यक्ति का तन-बल काम नहीं करता, उस समय जन-बल ही काम आता है। लड़ाई में एक व्यक्ति के बल से काम नहीं होता वहाँ जनबल ही काम आता है । परन्तु अकेला जनबल भी युद्ध में काम नहीं आता, वहाँ सैनिकों का मनोबल ऊँचे दर्जे का न हो तो अकेला जनबल कुछ नहीं कर सकेगा। उस जनबल की पराजय होते क्या देर लगेगी? मनुष्य के पास शरीर-बल ही अधिक हो, परन्तु उस पर कोई नियन्त्रण न हो, तो वह बल राक्षसी बल कहलाता है । देखा गया है कि जिनमें केवल शरीरबल ही होता है, बुद्धिबल आदि न हो तो उस शरीर-बल के अहंकार के कारण वह व्यक्ति दुनिया में दूसरों को पीड़ित करता है, सताता है, दुःखित करता है। कहते हैं, नारकी जीवों में शरीरबल बहुत होता है, पर अन्य बल उनमें नहीं होता । दैत्यों और राक्षसों में शरीर-बल बहुत होता है, पर वह दूसरों को दुःखी करने के लिए होता है। पाश्चात्य साहित्यकार शेक्सपीयर (Shakespeare) ने इस सम्बन्ध में सुन्दर चिन्तन प्रस्तुत किया है-- "Oh ! it is excellent to have a giant's strength but it is tyrannous to use it like a giant." "ओह ! किसी व्यक्ति में दैत्य का-सा बल हो, यह तो बहुत अच्छा है, लेकिन उसका उपयोग एक दैत्य की तरह करना अत्याचारयुक्त होगा।" For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ३७ इसी तरह शारीरिक बल मनुष्य की अपेक्षा पशुओं में अधिक होता है, पर वे अपने उस बल का उपयोग दूसरे की भलाई में नहीं कर सकते, या तो वे उस बल का उपयोग दूसरों से लड़ने-भिड़ने में करते हैं, या फिर दूसरों को मारने और सताने में करते हैं। अथवा बोझा ढोने वाले या सवारी के काम में आने वाले पशुओं के नकेल, लगाम या अंकुश डालकर उनके बल से मनुष्य जबरन काम लेकर लाभ उठाता है । पशुओं में शरीर-बल के सिवाय अन्य कोई बल नहीं होतो । बौद्धिक बल उनका बहुत ही अल्प होता है। वे अपने शरीर-बल पर कोई नियन्त्रण नहीं रख सकते। इसीलिए अनर्थ ही पैदा होते हैं। इसी प्रकार बुद्धिबल और हृदयबल इन दोनों में अकेला बुद्धिबल हो तो वह दूसरों को ठगने, धोखा देने, षड्यन्त्र करने आदि में लगता है। कोरा हृदयबल हो तो अन्धविश्वास की ओर झुक जाता है, अतिभावुकतावश कई भ्रान्तियों का शिकार हो जाता है, बहकावे में आ जाता है । निष्कर्ष यह है कि शरीर-बल को मनुष्य का मुख्य बल नहीं कहा जा सकता। आखिर मनुष्य अपने शरीर से बड़ा होकर कितना बड़ा होगा? पद्मपुराण में ठीक ही कहा है 'सार्वभौमोऽपि भवति खट्वामात्र परिग्रहः' __'कोई मनुष्य समस्त भूमण्डल का राजा ही क्यों न हो, आखिर तो एक खाटभर भूमि ही वह रोक सकेगा ?' शारीरिक बल से मनुष्य कितना काम करेगा? आधुनिक वैज्ञानिकों के मत से मनुष्य की शारीरिक क्रिया-शक्ति केवल अश्वशक्ति (हॉर्सपावर) के जितनी है। वह दो हॉर्स पावर के इंजन के जितना भी तो काम नहीं कर सकता। शरीर से वह कौन-सा अधिक पुरुषार्थ सिद्ध कर लेगा? संसार में बाहुबल की अपेक्षा बुद्धिबल की श्रेष्ठता सर्वविदित है। युक्ति से जो कार्य हो सकता है वह शरीर-बल से नहीं हो सकता। अंग्रेजी में एक लोकोक्ति है 'एक अच्छे मस्तिष्क से सौ हाथों का काम हो सकता है।' अर्थात् एक बुद्धिबल वाला सौ आदमियों का काम अकेला अपनी बुद्धि से कर लेता है अथवा सौ आदमियों से काम ले सकता है । एक पाश्चात्य विचारक का कथन है "बाहुबल की अपेक्षा विचारबल अधिक प्रभावशाली होता है।" इन सब बातों पर विचार करने से यह मानना पड़ेगा कि शरीर-बल ही मनुष्य का सर्वस्व नहीं है । उससे जीवन का सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता। मानवीय शक्तियों का विकास बाहर से नहीं, भीतर से होता है । उसकी बाहर की आँखें उतना नहीं देखती, जितना भीतर की देखती हैं। For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ यह एक भ्रान्त धारणा है कि किसी को नुकसान पहुंचाने का नाम ही बल है। ऐसे कार्य प्रायः लुक-छिपकर या परोक्ष में किये जाते हैं। बेखबर आदमी पर छिपकर हमला करके तो कोई सशक्त आदमी के भी प्राण हरण कर सकता है। बगल में छुरी भौंक देना, विश्वासघात करके हमला बोल देना-कोई शक्ति का प्रतीक नहीं है। ऐसे नकली बल अजमाने से तो प्रतिपक्षी के मन में द्वेष, घृणा, ईर्ष्या आदि की भावना पैदा होती है। ऐसे धोखेबाज का बल समय आने पर किसी के साथ कड़ा मुकाबला करना हो तो, स्वयं को धोखा दे देता है। इसलिए इस बल पर कोई भरोसा नहीं करना चाहिए। कई लोग अपने पर आये हुए आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दुःखों को मिटाने के लिए अथवा इहलौकिक या पारलौकिक सुखों की लिप्सा से प्रेरित होकर जप-तप करके अपना जपबल या तपोबल बढ़ाते हैं। मगर उनके साथ निष्कांक्ष, निःस्वार्थ धर्मबल न होने से ये बल लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए भले ही उपयुक्त हों, उनसे बन्धन-मुक्ति नहीं होती। धन का बल भी भौतिक है। इस बल का उपयोग भी मानव प्रायः अपनी स्वास्थ्य-रक्षा, शरीर-रक्षा या अन्य वैषयिक सुखों की वृद्धि के लिए करता है। जब धनबल के साथ धर्मबल नहीं होता तब वह अपने धन का उपयोग ऐशो-आराम, मौजशौक आदि में प्रायः करता है। अगर धनबल या तनबल के साथ धर्मबल हो तो उस धन का उपयोग दूसरों के हित के लिए, परोपकार सेवा आदि में होता है। ये और इस प्रकार के अनेक बल हैं, मनुष्य जिनका उपयोग निरंकुश होकर करता है तो वे अनर्थकर सिद्ध होते हैं, और धर्म का अंकुश रखकर करता है तो वह बल सार्थक होता है। आत्मबल : धर्मबल की फलश्रुति जिसके जीवन का भौतिक या व्यावहारिक पक्ष प्रबल होता है, उसका आध्यात्मिक पक्ष निर्बल होता है । आध्यात्मिक पक्ष की प्रबलता हो तभी जीवन के सभी अन्य बल प्रबल होते हैं। उसका जीवन भी सुदृढ़, सिद्धान्तों पर अविचल एवं परीषहों के समय अडिग रहता है। आत्मा सभी शक्तियों का केन्द्र है, वही समस्त शक्तियों का पावर-हाउस है, जन्मभूमि है। उसी को व्यावहारिक भाषा में ब्रह्मबल, आत्मबल, मनोबल, हृदयबल अथवा प्राणबल कहा जाता है। यही धर्मबल का फल है। जिसका प्राणबल या आत्मबल जागृत हो, उसे कोई भी शक्ति परास्त नहीं कर सकती। एक आत्मवीर सहस्रों विरोधियों का सामना कर सकता है। ब्रिटिश सरकार जैसी प्रबल शक्ति महात्मा गांधी की आत्मशक्ति के सामने टिक नहीं सकी । इसीलिए आज से हजारों वर्ष पहले ऋषि विश्वामित्र ने तपस्वी वशिष्ठ से पराजित होकर कहा था "धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम् ।" For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ३६ 'क्षत्रिय बल को धिक्कार है, ब्रह्मतेज का बल ही वास्तव में बल है । 'यह ब्रह्मतेज का बल ही आत्मबल है, इसकी सहायता से वह जो कर सकता है, वह एटमबम से भी सम्भव नहीं है । आत्मबल के प्रभाव से मनुष्य असाधारण कार्य-स्वपरकल्याण का असीम कार्य भी कर सकता है । मुक्तात्माओं में अनन्त आत्मबल होता है । कवि की अन्तरात्मा भी स्पष्ट बोल उठती है आतमबल ही है सब बल का सरदार ॥ ध्रुव ॥ आतमबल वाला अलबेला, निर्भय होकर देता हेला। लड़कर सारे जग से अकेला, लेता बाजी मार ॥ आतम० ॥१॥ कैसी ही हो फौज भयंकर, तोप मशीनें हों प्रलयंकर । आतमबली रहता है बेडर, देता सबको हार ॥ आतम० ॥२॥ सचमुच, आत्मबल असीम शक्ति से सम्पन्न होता है। शारीरिक बल वाले हजारों आदमी एक तरफ हों, एक तरफ सिर्फ एक आत्म-बली हो, तो आत्मबली सबको मात कर देता है। शरीर-बल, सत्ता-बल अथवा धन-बल वाले कदाचित् आत्मबली पर आतंक ढहाएँ, जुल्म करें, चाहे भयंकर से भयंकर अत्याचार करें तब भी वह समभाव से सबको सहन कर लेता है। उसके आत्म-बल का लोहा उन्हें मानना पड़ता है। जिस प्रकार लोहे के ठोस धन पर हजारों चोट पड़े तो भी उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता, उसी प्रकार आत्मबली पर राक्षसी बल वाले हजारों चोटें करें, तब भी वे उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाते । शरीर से अत्यन्त दुर्बल व्यक्ति भी आत्मबल के सहारे महान बन जाता है । कई व्यक्तियों के पास धन-बल, जन-बल नहीं होता, जप-तप का बल भी कम होता है, विद्या-बल एवं बाहु-बल भी नाममात्र का होता है। किन्तु उनका आत्मबल असाधारण होता है । जब कोई भी बल काम नहीं देता तो आत्मबल या परमात्म-बल ही उसका रक्षक होता है । महाकवि सूरदास ने अपनी अनुभूति के बल पर कहा है-- सुने री मैंने निर्बल के बल राम ॥ध्रव ॥ द्र पद सुता निर्बल भई ता दिन, गह लाए निज धाम । दुःशासन की भुजा थकित भई, वसन रूप भए श्याम ॥ सुने री""। जब लग गजबल अपनो राख्यौ, नैक सर्यो नहिं काम । निर्बल ह, बल राम पुकार्यो, आए आधे नाम ॥ सुने री"। अपबल, तपबल और बाहुबल, चौथो बल है दाम । 'सूर' किशोर कृपा ते सब बल, हारे को हरि नाम ॥ सुने री। आत्म-बल कहें, परमात्म-बल कहें, राम-बल कहें या ब्रह्म-बल कहें बात एक ही है । यह बल निर्बलों के लिए सर्वोत्तम वरदानरूप है। जिस समय द्रौपदी पर For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ दुःशासन आदि कौरवों द्वारा अत्याचार हो रहा था, उसके वस्त्र खींचे जा रहे थे, उस समय सब ओर से निर्बल, निराश द्रौपदी ने परमात्म-बल की शरण ली, तो एक महान् चमत्कार हुआ। द्रौपदी के वस्त्र ज्यों-ज्यों खींचे जा रहे थे, त्यों-त्यों बढ़ते जा रहे थे। उन्हें खींचते-खींचते दुःशासन की भुजा थक गई, आखिर दुःशासन आदि कौरवों का दैत्यबल पराजित हो गया। इसी प्रकार राजगृहनगर के श्रमणोपासक सुदर्शन पर जब यक्षाविष्ट अर्जुनमाली मुद्गर घुमाता हुआ प्रहार करने आया तब सुदर्शन के पास कौन-सा बल था जिसने अर्जुनमाली के मुद्गर लिए,हुए हाथ को वहीं रोक दिया? वह ऊपर क्यों नहीं उठ सका? यही आत्मबल या परमात्मबल सुदर्शन के पास था, जिसने यक्षबल को परास्त कर दिया। भागवत्पुराण में एक भगवद्भक्त हाथी का वर्णन आता है। उसमें इतनी गहरी समझ तो नहीं थी कि वह भक्ति के गूढ़ रहस्य को समझ सके । वह इतना ही समझता था, भगवान् का नाम लेने से वे प्रसन्न हो जाते हैं, और विपत्ति आ पड़ने पर वे सहायता करते हैं । जैसे लोक-व्यवहार में आम आदमी अपना मतलब सिद्ध करने के लिये दूसरों को प्रसन्न रखता है, उनकी खुशामद करता है, वैसे ही यह हाथी भगवान् को खुश रखने लगा। यह धर्म और भक्ति को दिखावा समझता था। एक दिन वह हाथी एक जलाशय में पानी पीने गया । वहाँ एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। पानी में हाथी का जोर नहीं चल सकता था। हाथी यद्यपि बलवान् था। उसने अपना पैर छुड़ाने के लिए पूरा शरीर-बल लगा भी दिया। मगर पानी में मगरमच्छ का जोर । था वह हाथी को गहरे पानी तक खींचे ले गया। दोनों की खींचातानी हुई, लेकिन मगरमच्छ जल का जीव था, उसका बल मफल हो रहा था। उसके आगे हाथी की एक न चली। वह अपनी पूरी ताकत लगाकर निराश हो गया तब पुकारने लगा-"भगवान् ! मुझे बचाओ। मगरमच्छ मुझे ले जा रहा है । वह मुझे मार डालेगा।" हाथी ने आर्तनाद करके भगवान् को बहुत पुकारा, मगर किसी भी कारणवश भगवान् ने उसकी पुकार पर कोई ध्यान नहीं दिया। हाथी का धैर्य जवाब देने लगा। वह श्रद्धाहीन होकर सोचने लगा-'मालूम होता है कि मैंने भगवान् पर भरोसा करके नाहक उनकी इतनी खुशामद की। मैं धोखे में रहा । यहाँ तो भगवान् के आने या सहायता देने के कोई आसार नजर नहीं आते । मैं भगवान् को बराबर पुकारता चला जा रहा हूँ फिर भी यह मगरमच्छ मुझे खींचे ही चला जा रहा है।' हाथी की भक्ति दिखावटी थी, वह कामनामूलक थी, उसकी नींव मजबूत नहीं थी। इसलिए वह उड़ने लगी। किन्तु हाथी ने अन्त में सोचा-'अरे ! मैं तो केवल जीभ से भगवान् को रट रहा हूँ, पर मेरे अन्तःकरण में कहाँ स्थान है भगवान् को ? अन्तर में भगवान होते तो मैं अपने शरीरबल का अहंकार करके मगरमच्छ के साथ For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ४१ द्वन्द्वयुद्ध में क्यों उतरता? एक ओर मैं अपने शरीरबल को भी महत्त्व दे रहा हूँ, दूसरी ओर भगवान् को भी पुकार रहा हूँ। मुझे परमात्मबल पर इतना भरोसा नहीं है, जितना अपने शरीरबल पर है । अगर मैं अपनी समस्त शक्तियों को भगवान के चरणों में समर्पित कर देता तो अवश्य ही मुझे परमात्मबल प्राप्त होता। परन्तु मैंने मल-मूत्रादि से भरे इस शरीर के बल पर अत्यधिक विश्वास किया, इसी कारण शरीर पर ममत्व करके मैंने परमात्मबल को भुला दिया।' हाथी की विचारधारा बदली, वह मन ही मन भगवान् को लक्ष्य करके विनयपूर्वक कहने लगा-"प्रभो ! अब तक मैं भ्रम में था । मैं आपकी दिखावटी भक्ति करता था। मझे अपने शरीरबल का अहंकार था। मैं आपके बल को भूला बैठा था। इसी बहाने कदाचित् आप मेरी भक्ति की परीक्षा कर रहे थे। प्रभो ! मेरे में कुछ भी बल नहीं है । यह शरीर भी मेरा नहीं है, चाहे मगरमच्छ इसे ले जाए और खा जाए, मैं अपना शरीरबल कुछ भी नहीं लगाऊँगा। शरीर चला जाएगा तो मेरा क्या चला जाएगा ? प्रभो ! शरीर चाहे चला जाए, परन्तु आप न जाने पाएँ । आप मेरे हृदय में रहें, मैं शरीर देकर भी बदले में आपको लेकर घाटे में नहीं रहूँगा।" ___ इस प्रकार विचार करके हाथी ने भगवान् के नाम का उच्चारण प्रारम्भ किया । अभी आधे नाम का उच्चारण किया था कि हाथी में एक प्रकार का अनिर्वचनीय बल प्रकट हुआ । उस बल के प्रभाव से हाथी अनायास ही छूट गया । वह विपत्ति से मुक्त होकर आनन्दमग्न हो गया । जैन-सिद्धान्त भी कहता है-पाँच ह्रस्व अक्षरों (अ इ उ ऋ लु) के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय में क्षीणमोही अयोगीकेवली आत्मा अनन्तवीर्य सम्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। बन्धुओ ! हाथी ने जब अपने शरीरबल का मोह और अहंकार छोड़कर भगवद्बल का सहारा लिया तभी वह बन्धनमुक्त हो सका, इसी प्रकार आप भी जब शरीरबल का मोह-ममत्व और अहंकार छोड़कर एकमात्र आत्मभाव में रमण करेंगे, तभी वह आत्मबल या परमात्मबल आयेगा । थोड़ा-सा भी परमात्मबल आ जाता है तो कितना चमत्कार हो जाता है, पूर्ण परमात्मबल प्राप्त हो जाए तब तो कहना ही क्या ? आत्मबल या परमात्मबल का मूलस्रोत : धर्मबल परन्तु एक बात यहां स्पष्ट कर दूं, जिस आत्मबल या परमात्मबल की महिमा का वर्णन मैं अभी कर गया हूँ, उसका मूलस्रोत-धर्मबल ही है। धर्मबल के बिना परमात्मबल या शुद्ध आत्मबल तक पहुँचा ही नहीं जा सकता। धर्मबल के बिना आत्मबल या परमात्मबल आ नहीं सकता। डॉ० राधाकृष्णन् ने बताया है—"धर्म की शक्ति ही जीवन-शक्ति है। धर्म उस आध्यात्मिक अग्नि की ज्वाला को, जो प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर जलती है, प्रज्वलित करने में सहायता करता है ।" अहिंसा, सत्य आदि शुद्धधर्म आत्मा से ही प्रकट होता है; यही कारण है कि मुनि गजसुकुमार, स्कन्दक आदि को जब यातनाएँ दी गईं तो उनकी आत्मा में अपूर्व शक्ति आ गई, जिसके कारण वे समभाव से परीषहों और उपसर्गों को सहन कर सके । For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ स्वामी रामकृष्ण परमहंस के जीवन का एक प्रसंग है। स्वामीजी को कैंसर हो गया था। उसकी असह्य पीड़ा थी। भक्तों से उनकी पीड़ा देखी नहीं जाती थी। किसी भक्त ने स्वामीजी से प्रार्थना की-"स्वामिन् ! अगर आप अपनी बीमारी को मिटाने के लिए माँ काली से प्रार्थना करें तो आपकी बीमारी शीघ्र ही दूर हो जाएगी। आप स्वस्थ हो जायेंगे। आपको इतनी असह्य पीड़ा नहीं भोगनी पड़ेगी।" स्वामी रामकृष्ण ने कहा- "मैं इस रोग-निवारण के लिए माता से प्रार्थना करके उन्हें तकलीफ देना नहीं चाहता। क्योंकि मैंने ही दुष्कर्म किये हैं, उनका अशुभफल भोगने से बचने के लिए मैं काली माता को तकलीफ हूँ, यह अच्छा नहीं। अगर मेरे कर्म अशुभ हैं तो उनका फल मुझे ही भोगना चाहिए। फिर हड्डी-मांस और रक्तादि से भरे घिनौने गंदे शरीर को बचाने के लिए मैं भगवान् या भगवती से प्रार्थना करूं? यह कदापि नहीं हो सकता। मुझे कोई कष्ट नहीं है, बल्कि यह प्रसन्नता की बात है कि प्रभु ने मुझे पूर्वकृत दुष्कर्म का फल भोगने का अवसर दिया है ।" स्वामी रामकृष्ण को अनेक लोगों ने इसके लिए कहा ; मगर उन्होंने किसी की न मानी और समझ-बूझपूर्वक शान्ति और समता के साथ केंसर रोग की असह्य पीड़ा सहन की। बन्धुओ ! रामकृष्ण परमहंस ऐसी कौन-सी विद्या या मंत्र जानते थे, जिसके बल पर उन्होंने इतनी पीड़ा सहन की? वह और कुछ नहीं था, अन्तर् से उत्पन्न हुई आत्मबल की ज्योति थी, जिसके आधार पर इतनी असह्य पीड़ा उन्होंने सहन की। धर्मबल द्वारा सुषुप्त आत्मबल का प्रकटीकरण मैं कह रहा था कि आप सबका यह अनुभव है कि शक्ति (पावर) सदैव अन्तर से पैदा होती है, वह किसी से माँगने पर नहीं मिलती। शक्ति अपने अन्दर ही सोई हुई है, जरूरत है उसे जागृत करने की। दियासलाई में आग की सत्ता पड़ी हुई है, जरूरत होने पर व्यक्ति को रगड़कर आग प्रकट करनी पड़ती है, वैसे ही मनुष्य की अन्तरात्मा में असीम बल है, पर वह सुषुप्त है, उसे कठोर क्रिया के द्वारा प्रकट करना है। __ अन्तरात्मा में सुषुप्त आत्मबल धर्मबल द्वारा कैसे प्रकट होता है, इसके लिए अमृतसर की एक सच्ची घटना लीजिए अमृतसर के कटरा जैमलसिंह में अस्त-व्यस्त वस्त्र और खुले सिर वालो एक महिला कातरभाव से इधर-उधर भागती यह कहती फिर रही थी—"है कोई माई का लाल ? जो मेरी बच्ची को इन दुष्टों के चंगुल से बचा ले । हाय, मैं तो लुट गई।" जब वह निराश होकर खंभे से सिर टकराती और चीख उठती तो लोग कहते“आह ! बेचारी पगला गई है। शायद किसी मनचले ने इसकी इज्जत पर हमला कर दिया है।" कुछ लोग दूर से ही अपनी दूकानों पर बैठे सहानुभूति व्यक्त करते रहे, लेकिन For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ४३ कोई उसके पास न गया । औरत चिल्लाये जा रही थी। तभी एक सहृदय, हृष्टपुष्ट शरीर और सौम्य मुखमण्डल वाला ऊँचा नौजवान उसके पास आकर पूछने लगा"मांजी ! मैं तुम्हारा बेटा हूँ। तुम क्यों इस तरह रो रही हो? क्या घटना तुम्हारे साथ घटी है ? मुझे सेवा बताओ।" __ सान्त्वना के ये बोल सुनकर महिला को तनिक ढाढस बंधा। एक करुण कराह के साथ वह बोली--"पुत्तर ! कुछ दुष्ट मेरी जवान बेटी को भरे-बाजार से उठा ले गए । वे कह रहे थे-हम उससे ब्याह करेंगे। है कोई माई का लाल, जो मेरी बेटी को उन गुडों के चंगुल से छुड़ा लाए।" भीड़ जुटती जा रही थी। कोई उस महिला को पुलिस के पास जाने की सलाह दे रहा था। कोई कह रहा था--"गम खाकर बैठ जाओ, माई ! अब कुछ नहीं हो सकेगा। भला कौन इसके लिए हथियारबंद गुडों से लड़ाई मोल लेगा।" महिला चारों ओर असहाय भाव से देखकर रो पड़ी-"क्या तुम सब के जीते-जी भले घरों की बहू-बेटियों के साथ ऐसा ही होगा ?" तभी वह युवक जो अभी-अभी महिला के साथ बातें कर रहा था, बिजली की सी गति से आकर वहाँ खड़ा हो गया और एक गोरी सलौनी युवती को अपने कंधे पर से उतार कर उस महिला के आगे खड़ा करते हुए बोला-'यही है न माँ ! तुम्हारी बेटी ?" महिला अचानक यह अनहोना दृश्य देखकर क्षणभर स्तब्ध रह गई। फिर एकदम अपनी बेटी से लिपट गई। उसके हृदय से आशीर्वाद बरस पड़े-"बेटा ! हजारों वर्ष जीते रहो।" उसने कहा- "मांजी ! बहन को छुड़ाना तो मेरा कर्तव्य था।" और हाल बाजार की जामा मस्जिद से हजारों की सशस्त्र भीड़ में से तरुणी को बचा लाने वाला वह युवक खड़ा मुस्करा रहा था। उसी दिन से उस लम्बे, सुदृढ़ शरीर एवं अपूर्व साहस के धनी युवक सांईदास का नाम 'बिजली पहलवान' पड़ गया । आगे चलकर वही 'दानवीर लाला सांईदास बिजली पहलवान' कहलाया। 'अमृतसर ट्रांसपोर्ट कम्पनी' की नींव इसी धर्मिष्ठ युवक ने डाली। गरीबों व दीन-दुखियों को वह हर तरह से सहायता देता था। पौरुष, सच्चरित्र, दया, औदार्य और धर्मबल का अपूर्व संगम लाला सांईदास बिजली पहलवान में हुआ था। लाला सांईदास में धर्मबल इसलिए था, कि धर्म का प्रथम मूलतत्त्व त्याग उसमें कूट-कूटकर भरा था। पाश्चात्य विचारक Froude (फाउडे) ने ठीक ही कहा है Sacrifice is the first element of religion' 'त्याग धर्म का प्रथम मूल तत्त्व है।' लाला सांईदास में सहसा इतना आत्मबल कहाँ से आया ? इस धर्मबल के कारण ही तो आया था। For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ जिस व्यक्ति में धर्मबल होता है, उसका शारीरिक बल इतना न होते हुए भी आत्मबल बढ़ जाता है। उस आत्मबल के आगे शरीरबल या दानवबल के धनी बड़ेबड़े लोग पराजित हो जाते हैं, झुक जाते हैं । धर्मबल कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में ? जीवन में धर्मबल की महिमा सर्वोपरि है। कभी यह अनुपम बल त्याग के रूप में अपना चमत्कार दिखाता है, कभी तप के रूप में, कभी चारित्र के रूप में, कभी अटूट श्रद्धा और विश्वास के रूप में, तो कभी भक्ति के रूप में, कभी परमार्थ के रूप में यह अपूर्व शक्ति आत्मा में प्रकट कर देता है। आशय यह है कि त्याग, तप, चारित्र, सम्यग्ज्ञान, श्रद्धा-विश्वास, भक्ति और परमार्थ, इन सात बलों से युक्त होकर धर्मबल आत्मा में अपूर्व शक्ति प्रगट कर देता है। इन सातों की वृद्धि करना ही धर्मबल की साधना है। आत्मरक्षा के लिए धर्मबल इन सातों हथियारों का उपयोग करता है । इन सात शक्तियों का संचय ही सुखदायक धर्मबल है। जैसाकि पंचाध्यायी में कहा गया है शक्तिः पुण्यं, पुण्यफलं सम्पच्च सम्पदः सुखम् । अतो हि चयनं शक्त येतो धर्मः सुखावहः ॥ "शक्ति पुण्य है । पुण्य का फल सम्पदा है । सम्पदा से सुख प्राप्त होता है। इसीलिए शक्तियों का संचय करना सुखकारक धर्म (बल) है।" त्याग की शक्ति के रूप में धर्मबल-त्याग में अमित सामर्थ्य है। जहाँ संसार के समस्त बल बेकार हो जाते हैं, अस्त्र-शस्त्र निकम्मे हो जाते हैं, वहाँ त्याग की अमोघ और अद्भुत शक्ति कारगर होती है। ___ भरत चक्रवर्ती ने जब अपने चक्रवर्ती पद की सम्पूर्णता के लिए अपने ६८ भाइयों को अधीनस्थ होकर रहने का सन्देश दिया तो वे अपने पिता तीर्थंकर भ० ऋषभदेव के पास निर्णय के लिए पहुंचे। उन्होंने कहा- "भरत के द्वारा सताये हुए तुम मेरे पास आये हो। उसे अपने भौतिक राज्य के टुकड़े पर अहंकार आ गया है। तुम अनेक दुर्गुण पैदा करने वाले इस भौतिक राज्य को तुच्छ समझकर इससे बचो। मैं तुम्हें आध्यात्मिक राज्य दिला देता हूँ जिसमें पूर्ण और सच्ची स्वाधीनता है, सब प्रकार की परतन्त्रताओं से मुक्ति है, आत्मनिर्भरता है। उसमें न युद्ध करना है, न किसी की अधीनता स्वीकार करना है।" भ० ऋषभदेव का उपदेश सुनकर ६८ भाई मुनि बन गए । भरत चक्रवर्ती को जब अपने ६८ भाइयों के मुनि बन जाने का समाचार मिला तो वह पश्चात्ताप करता हुआ भगवान ऋषभदेव के पास पहुंचा। आँखों से अश्रु धारा बहाते हुए भरत ने अपने मुनिवेषी भाइयों से हाथ जोड़कर कहा-"भाइयो ! मैं अपराधी हूँ। मैंने साम्राज्य के मद में मत्त होकर आप को बहुत कष्ट दिया है। आपने मेरे द्वारा दिये गये कष्टों को विचित्र तरीके से सहन किया है। चक्रवर्ती के १४ रत्नों के चक्कर में आकर ६८ भाइयों को मैं भूल गया। मुझे क्षमा कर दें।" For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ४५ इस प्रकार त्याग की शक्ति के समक्ष चक्रवर्तित्व की भौतिक शक्ति झुक गई। १८ भाइयों की त्याग-शक्ति ने भरत के गर्व को चूर-चूर कर दिया। वास्तव में त्याग की शक्ति धर्मबल का मुख्य अंग है। तप के रूप में धर्मबल-धर्मबल कभी-कभी तप की शक्ति के रूप में प्रकट होता है। वासुदेव श्रीकृष्ण के पुत्र ढंढणकुमार युवावस्था में विरक्त होकर भगवान् नेमिनाथ के चरणों में दीक्षित हो गये थे। विशाल द्वारिका नगरी में भिक्षाटन करते, परन्तु अन्तराय कर्मों के उदय से कहीं उन्हें मुनि-कल्प के योग्य शुद्ध आहार नहीं मिलता था। शरीर सूख गया। मन में व्यथा होने लगी। भगवान नेमिनाथ के चरणों में मनोव्यथा निवेदित की तो प्रभु ने कहा- "वत्स! शुद्ध भिक्षा नहीं मिली, इससे मन को खिन्न न करो। मन की प्रसन्नता ही सबसे बड़ी समाधि है। यह लाभान्तराय तुम्हारे पूर्वकृत कर्म का फल है ।" फिर उन्होंने लाभान्तराय-कर्मबन्धन की कारणभूत पूर्वजन्म-कथा सुनाई। उसे सुनकर ढंढण मुनि ने अभिग्रह किया-"भगवन् ! आज से जीवनभर मैं स्वलाभ से प्राप्त आहार ही ग्रहण करूँगा, पर-लाभ से प्राप्त आहार मेरे लिए अग्राह्य होगा।" इस अभिग्रह के बाद भी प्रतिदिन ढंढण ऋषि भिक्षा के लिये जाते, परन्तु कहीं भी स्वलाभयुक्त शुद्ध भिक्षा न मिलती, फलतः वे खाली पात्र लौट आते । उनके मन में अब अधीरता नहीं थी। दुःख, उद्विग्नता और खिन्नता भी नहीं । प्रसन्नता लबालब थी। न जनता पर गुस्सा, न भाग्य पर दोष । समता और समाधि में लीन ढंढण ऋषि अपूर्व तप-शक्ति के पुज बन गये ।। श्रीकृष्ण वासुदेव ने प्रभु-मुख से उनकी प्रशंसा सुनी तो श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया। एक परदेशी सेठ ने श्रीकृष्ण की भक्ति से प्रभावित होकर इन्हें भिक्षा दी। ढंढण ऋषि ने जब सर्वज्ञ प्रभु से समाधान पाया कि “यह भिक्षा भी तुम्हें श्रीकृष्ण द्वारा किये गये वन्दना-स्तुति के प्रभाव से मिली है अत: स्वलाभ-प्राप्त नहीं है।" सुनते ही वे धीर-गम्भीर होकर स्वस्थता से विचार करने लगे। उस आहार को ग्रहण नहीं किया । इस प्रकार तप को अपूर्व शक्ति के प्रभाव से उन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हुआ । यह धर्मबल उनमें तपःशक्ति के संचय के रूप में था। धर्मबल : श्रद्धा-विश्वास के रूप में आत्मा या परमात्मा पर अथवा धर्म की शक्ति पर अखण्ड विश्वास या श्रद्धा भी धर्मबल बढ़ाती है । पाण्डवों को कौरवों की ओर से बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास दिया गया था। कौरवों का यह कार्य किसे अच्छा लगता ? पाण्डवों में भी युधिष्ठिर ही ऐसे थे, जिन्हें धर्म की शक्ति पर पूरा विश्वास था, इस कारण वे वनवास से घबराये नहीं। उनके चारों भाई और द्रौपदी घबरा उठी थी। इनका कहना था, "हममें शक्ति मौजूद है, । फिर दुर्योधन आदि से डरने और वनवास के कष्ट भोगने की क्या आवश्यकता है ?" शक्तिशाली होते हुए भी वनवास का कष्ट भोगना उनकी दृष्टि में उचित नहीं था। For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ ___ श्रीकृष्ण उस समय बाहर गये थे। द्वारिका लौटे और पाण्डवों के वनवास का समाचार सुना तो वे रथारूढ़ होकर खाण्डव वन गये, जहाँ द्रौपदी सहित पांचों पाण्डव पर्णकुटी बनाकर रहते थे। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी, भीम, अर्जुन, आदि सबके मुंह से दारुण कष्ट-कथा सुनकर समाधान किया-"धर्म-पालन के लिये समभाव और धैर्य से सहे हुए कष्ट के पीछे तुम्हारा और जगत् का कल्याण छिया है। उसे समझो। इससे तुम्हारे धर्म पर श्रद्धा-विश्वास की शक्ति में वृद्धि हुई है, दुर्योधन के पाप का घड़ा भर गया है, वह फूटना अनिवार्य है । अब तक वह गुप्त था, उस दिन वह प्रकट हो गया। सभी जान गये कि दुर्योधन कितना अन्यायी और पापी है । अब वह तुम्हारी निन्दा फैलाने में असमर्थ हो गया। धर्म पर विश्वास के कारण तुम्हें प्रसन्न रहना चाहिए।" इस वक्तव्य ने पांचों पांडवों का मनःसमाधान कर दिया कि-दुर्योधन राजमहल की रगड़ से क्षीण हो रहा है, जबकि पाण्डव वन में विकसित और बलवान हो रहे हैं। वन में धैर्यपूर्वक धर्मशक्ति पर विश्वास रखकर तप करने से अवश्य ही शुभ परिणाम आयेगा। यह है-धर्मशक्ति पर अखण्ड विश्वास का ज्वलन्त उदाहरण ! धर्मबल : श्रद्धा-भक्ति के रूप में-धर्म में महान शक्ति है। उसकी उपलब्धि सबको नहीं हो पाती, कोई विरला ही उसे पाता है। जिसमें धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धाभाव और हिमाचल-सी अचलता है, वही उस गूढ़तर तत्त्व को पाता है । हिरण्यकश्यप ने जब धर्म पर और परमात्मा पर दृढ़ श्रद्धा-भक्तिशील प्रह्लाद को अपना शत्रु मानकर उसे तरह-तरह से यातना देकर नष्ट करना चाहा था, तब कौन-सी शक्ति प्रह्लाद में थी, जिसने हिरण्यकश्यप को परास्त कर दिया था ? । वही धर्म की महाशक्ति थी, जिसके प्रताप से प्रह्लाद का बाल भी बांका न हुआ और हिरण्यकश्यप का सत्ताबल प्रह्लाद के धर्मबल के आगे झुक गया। हिरण्यकश्यप ने अपनी प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए प्रह्लाद को उखाड़ना चाहा, मगर उसका धर्मबल इतना प्रबल था कि उसके सामने अन्य सभी बल परास्त हो गये ! बन्धुओ ! इसी तरह धर्मबल चारित्रनिष्ठा के रूप में भी आता है । जैनग्रन्थों में विजय सेठ और विजया सेठानी के पति-पत्नी होते हुए भी अखण्ड ब्रह्मचर्य के आजीवन पालन का उदाहरण चारित्रनिष्ठा का ज्वलन्त उदाहरण है। बिना धर्मबल के चारित्रनिष्ठा कैसे आ सकती थी? दोनों में धर्मबल कूट-कूटकर भरा था, तभी तो एक के कृष्णपक्ष में ब्रह्मचर्यपालन की प्रतिज्ञा थी, जबकि दूसरे के शुक्लपक्ष में थी। पत्नी ने पति से साग्रह अनुरोध भी किया कि "आप दूसरा विवाह कर लें, ताकि सांसारिक सुखोपभोग कर सकें।" परन्तु धर्मबल से ओतप्रोत विजय सेठ ने स्पष्ट इन्कार कर दिया। ___ मैंने एक पौराणिक उदाहरण में बताया था-कच ने अपने गुरुदेव की कन्या देवयानी के द्वारा विवाहसूत्र में बंध जाने के प्रस्ताव को इस कारण ठुकरा दिया कि For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मबल : समस्त बलों में श्रेष्ठ : ४७ देवयानी को वह सहोदर भगिनी के समान मानता आया था। इतनी अखण्ड चारित्रनिष्ठा कच में थी कि उसने अपनी सीखी हुई विद्या का लुप्त हो जाना स्वीकार किया मगर देवयानी के साथ प्रणय-सूत्र में बँधना नहीं । यह धर्मबल का ही प्रभाव था। भारतीय इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण विद्यमान हैं, जिन्होंने अन्य सब बलों को गौण करके एकमात्र धर्मबल को सुरक्षित रखा। अर्जुन जब ब्रह्मचर्यपालन करता हुआ तपस्या कर रहा था। इन्द्र उसका ब्रह्मचर्यपूर्वक तप देख भयभीत हुआ कि अर्जुन मेरा राज्य न छीन ले । इसलिए रम्भा नामक अप्सरा को छल-बल से अर्जुन का ब्रह्मचर्य खण्डित करके उसे तपोभ्रष्ट करने भेजा। रम्भा ने सभी तरह के प्रयत्न किए उसे डिगाने के किन्तु वह अर्जुन को ब्रह्मचर्य भ्रष्ट एवं तपोभ्रष्ट न कर सकी। रम्भा का आसुरी बल अर्जुन के चारित्रनिष्ठा रूप धर्मबल के आगे परास्त हो गया। इसीलिए महर्षि गौतम ने अनुभूतिपूर्ण जीवनसूत्र में कह दिया सव्वं बलं धम्मबलं जिणाइ।' धर्मबल सभी बलों में श्रेष्ठ है। For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट धमप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष ऐसे जीवनसूत्र पर विवेचन करना चाहता हूँ, जिसका सम्बन्ध मानव मात्र से ही नहीं, प्राणिमात्र से है। परन्तु मानवेतर प्राणी के लिए उसे प्राप्त कर सकना अत्यन्त दुष्कर है। मानव ही विचारशील होने के नाते उसे प्राप्त कर सकता है, वह है धर्म-सुख । महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया है-- सव्वं सुहं धम्मसुहं जिणाइ समस्त सुखों को धर्मसुख जीत लेता है, अर्थात् धर्मसुख सभी सुखों में उत्कृष्ट एवं सर्वोपरि है। गौतमकुलक का यह ७०वाँ जीवनसूत्र है । धर्मसुख क्या है ? दूसरे सुखों से ग्रन्थकार का क्या तात्पर्य है ? धर्मसुख ही सबसे उत्कृष्ट और सर्वोपरि क्यों है ? इन सब सम्बन्धित प्रश्नों पर आज आपके समक्ष चर्चा करना चाहता हूँ। धर्मसुख से भिन्न सुख : कौन-कौन से, कैसे और किन में ? मनुष्य में ही नहीं, प्राणिमात्र में सुख की आकांक्षा एक या दूसरे रूप में होती है । यह बात दूसरी है कि दूसरे प्राणियों की सुखेच्छा मनुष्यों की सुखाकांक्षा से भिन्न प्रकार की होती है। बहुत बार मनुष्य अज्ञानवश किसी चीज को भ्रमवश वहीं खोजते-खोजते अपने को थका डालता है, जहाँ वह नहीं होती, तब वह निराश होकर भाग्य को दोष देने लगता है। यही बात सुख-शान्ति के सम्बन्ध में समझ लेनी चाहिए। सुख की खोज प्रायः लोग अज्ञानवश पर-पदार्थों में करते रहते हैं, जहाँ वह है नहीं। वह उन्हें मिलता ही कैसे ? सुख का निवास न तो किसी पदार्थ में है, और न किसी व्यक्ति में । वह अपने मन से सम्बन्धित है। किसी के पास एक सुन्दर भवन है। वह उसे देखकर बहुत प्रसन्न होता है । प्रसंग चलने पर उसकी बात करता है, उसकी सुविधाओं के विषय में बतलाता है । जब कोई उसके मालिक के परिचय के लिए कहता है, तब शिष्टाचारपूर्वक नम्रभाषा में प्रसन्न होकर वह अपना अधिकार व्यक्त करता है और सुख पाता है । कुछ ही दिनों के बाद कर्ज चुकाने के लिए उस भवन को बेच देना पड़ा, तब वही भवन अब मन में दुःख का कारण बन गया । क्योंकि अब उस भवन पर उसका अपनापन नहीं रहा । इसी प्रकार जहाँ भी उसने अपनेपन की छाप लगाई, उसे देख For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ४६ देखकर प्रसन्न होता था, मन में सुख-शान्ति पाता था, वहीं वह उसका वियोग होते, नष्ट होते देखकर दुःख और क्लेश पाता है। उसे देखकर वह किसी प्रकार आनन्द नहीं पाता और न ही उस पदार्थ की टूट-फूट से उसे कोई कष्ट होता है, न चिन्ता । क्योंकि वह पदार्थ अब पराया हो चुका है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने सुख को सांसारिक वस्तुओं में मानता है, वस्त्र में, भोजन में, उत्तम मकान में, वासनापूर्ति में, तो उसे इन वस्तुओं के न मिलने पर घोर निराशा होगी। आज उसके पास सुन्दर और उत्तम वस्त्र हैं। वह रेशमी कपड़े पहनता है तो सुख का अनुभव करता है, किन्तु निर्धन होते ही उत्तम वस्त्रों का न होना उसके लिए दुःख का प्रधान कारण बन जाएगा । आज एक व्यक्ति चटपटे और सुस्वादु भोजन में आनन्द मानता है, कल को मँहगाई और निर्धनता के कारण उस स्तर का भोजन न पा सकने के कारण वह उसके लिए दुःख और क्लेश करेगा । आज एक व्यक्ति उत्तम मकान में रहता है, वह अपने आपको सुखी समझता है, एक दिन उसके छिन जाने से मन में दारुण दुःख का अनुभव करता है । वे ही वस्त्र जो सर्दियों में सुख के कारण हैं, गर्मियों में दुःखदायक लगेंगे, वे ही मिठाइयाँ जो स्वस्थ और निश्चिन्त अवस्था में मधुर और सुखकारक लगती हैं, बीमारी की हालत में दुःखदायक लगेंगी। सुख का केन्द्र जितना ही बाह्य वस्तुओं को माना जाएगा, उतना ही मन को दुःख और क्लेश होगा। बाह्य वस्तुएँ सतत परिवर्तनशील हैं, परिवर्तन आते ही वस्तुनिष्ठ सुख मानने वाले का सुख-स्वप्न भंग हो जाएगा। मकान, वस्त्र, भोजन, उपभोग की नाना वस्तुएँ, वासनातृप्ति के उपकरण आदि निरन्तर परिवर्तन को प्राप्त हो रहे हैं। उनमें अपनापन स्थापित करके या भ्रान्तिवश सुख की कल्पना करके उनमें अपने सुख को केन्द्रित कर लेना अथवा यह मान लेना कि हमारा सुख इन्हीं वस्तुओं की उपस्थिति पर निर्भर है, मनुष्य का अज्ञान और अन्धकारमय-भ्रान्तिमय दृष्टिकोण है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति विशेष में सुख को केन्द्रित करना भी मनुष्य का अज्ञान है । व्यक्ति हाड़-मांस का पुतला है, क्षण-क्षण परिवर्तनशील है, किसी क्षण प्रसन्न और किसी क्षण नाराज हो जाता है, वह हवा के झोंके के समान अस्थायी है । जब तक आप उन लोगों के स्वार्थ की पूर्ति करते हैं, उनको अर्थ-लाभ देते हो, उन्हें आपसे चार पैसे मिलने की आशा रहती है, तब तक वे आपको पूछते हैं, हँसते-बोलते हैं, आपकी प्रशंसा करते हैं, आपसे मधुर सम्बन्ध रखते हैं, जिस दिन उन्हें अपने स्वार्थ में धक्का लगेगा, उसी दिन वे आपसे रुष्ट हो जाएंगे, आपका सुख-स्वप्न भी पूर-चूर हो जाएगा। - , मान लीजिए, किसी व्यक्ति ने अपना सुख अपने पिता, भाई, माता, पत्नी या बाल-बच्चों में अथवा किसी अन्य सम्बन्धी में केन्द्रित कर रखा है, वह मानता है कि For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : आनन्द प्रवचन : भाग १२. इनसे मुझे सुख मिलता है । आज उसके पिता उससे प्रसन्न हैं, वह सुखी मानता है अपने को। कल वे उससे अप्रसन्न या रुष्ट हो गये तो उसके सुख के महल ढह जाएँगे। मानलो, एक व्यक्ति की पत्नी सुन्दर है, आकर्षक है, प्रसन्नमुखी है, उसकी सेवा करती है, वह उसे जब भी देखता है, प्रसन्नता से सराबोर हो जाता है, प्राणों की तरह उससे प्यार करता है, उसका हृदय उससे बात करते हुए प्रसन्नता से खिल उठता है। सामान्यतः उस व्यक्ति के सुख का कारण उसकी पत्नी का रूपवती, प्रसन्नमुखी, सेवाभावी होना समझा जाता है, लेकिन वास्तविकता यह नहीं है, एक दिन ऐसा आ सकता है, जब उसका रूप किसी रोग, वृद्धावस्था या अन्य किसी कारण से बिगड़ गया, वह विद्रूप हो गयी तो उस व्यक्ति की प्रसन्नता समाप्त हो जाएगी, सुख का स्वप्न भंग हो जाएगा। मानलो, वह स्त्री किसी बात पर पति से नाराज होकर बिगड़ जाये, या बात-बात में लड़ाई-झगड़ा करने लग जाये तो क्या उसके प्रति पति की वही आकर्षण-दृष्टि या सुख की मान्यता बनी रहेगी ? या वही सुन्दर तथा सुस्वभाववाली पत्नी धृष्ट और अनाचारी बन जाए, अपना स्वभाव बिगाड़ ले तो भी क्या वह अपने पति के लिए सुख का कारण बनी रहेगी ? अवश्य ही सारा रूप-रंग यथावत् रहने पर भी अब उसे देखकर या उससे बोलकर पति को वह आनन्द नहीं आएगा। उसकी प्रसन्नता और सुख की मान्यता खत्म हो जाएगी जो पहले उसके सम्पर्क में मान रखी थी। इस विकर्षण का कारण है-पति-पत्नी के बीच आत्मीय भाव की कमी। नारी का स्वभाव-परिवर्तन ही पुरुष के अपनेपन को समाप्त कर देता है। इसी प्रकार बच्चों के प्रति भी सुख और दुःख या प्रसन्नता-अप्रसन्नता की बात समझी जा सकती है । दूसरों के बच्चे चाहे जितने सुन्दर, शिष्ट और शालीन क्यों न हों, उन्हें देखकर वह आनन्द और उल्लास नहीं प्राप्त होता, जो आनन्द और सुख अपने बच्चे को देखकर मिलता है, चाहे फिर अपने बच्चे कुरूप और शरारती ही क्यों न हों । यह अन्तर इसलिए होता है कि अपने बच्चों के साथ अपनापन जुड़ा रहता है दूसरे बच्चों के साथ नहीं। निष्कर्ष यह है कि अपनेपन में मनुष्य का सुख टिका हुआ है, किसी व्यक्ति-विशेष या वस्तु-विशेष में नहीं। जो लड़का सुन्दर सलौना और शिष्ट लगता था, वही बड़ा होने पर उद्दण्ड, शरारती, दुष्ट, जुआरी, व्यभिचारी या अविनीत हो जाता है तो सुख के बदले दुःख का कारण बन जाता है। इसी प्रकार आज किसी के स्त्री-बच्चे स्वस्थ और प्रसन्न हैं तो वह अपने घर में स्वर्ग का सुख समझता है किन्तु उनके बीमार हो जाने पर नारकीय दुःख मानने लगेगा । उसकी आत्मा चीत्कार कर उठेगी कि इन वस्तुओं में सुख नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५१ आज एक व्यक्ति का ऑफिसर उस पर खुश है, तो वह अपने आपको भाग्यशाली और सुखी मानता है, कल वही किसी बात पर नाराज हो जाएगा तो वह तिलमिला उठेगा, दुःखी मानने लगेगा। नौकरी छोड़ देने की बात सोचेगा। सन्तान का सुख : एक मृगतृष्णा-इसी प्रकार सन्तान का सुख भी एक मृगमरीचिका है । परन्तु सन्तान के माता-पिता बनने वालों का सन्तान-सुख के पीछे दृष्टिकोण यह है कि-(१) वे गौरव का अनुभव करते हैं, बड़प्पन की गुप्त इच्छा सृप्त होती है, हमारा नाम चलेगा, रिक्तस्थान की पूर्ति करेगा, हमारी सेवा करेगा, बुढ़ापा, बीमारी आदि में सहारा देगा, घर को सुख-सम्पन्न बनाएगा । (२) बालक के माध्यम से मनुष्य अपनी गुप्त अतृप्त इच्छाएँ पूर्ण करना चाहता है। जो व्यक्ति जिंदगीभर निर्धन रहे, वे अपने पुत्र से यह आशा रखते हैं कि वह पर्याप्त धनसंचय करके उनके लिए ऐश-आराम के साधन प्रदान करेगा। जो कुरूप पत्नी वाले हैं, वे सुन्दर पुत्रवधू की कामना करते हैं, जो स्वयं दुर्बल हैं, वे अपने पुत्र को बलवान देखना चाहते हैं। विगत बाल्यावस्था का आनन्द बच्चों के द्वारा प्राप्त करना चाहते हैं । जीवन में प्राप्त असफलताओं को पुत्र द्वारा सफलता में परिणत हुई देखना चाहते हैं । अपने अधूरे कार्यों, इच्छाओं तथा आशाओं को सन्तान द्वारा पूरे होते देखना चाहते हैं । पुत्र यश, प्रतिष्ठा और सौभाग्य का चिह्न भी समझा जाता है। परन्तु यह गलत धारणा है कि अपने ही बच्चों द्वारा ये इच्छाएं पूर्ण हो सकती हैं । मोहवश सन्तान-प्राप्ति को मनुष्य सुख का आधार मानता है। आजकल के अधिकांश पुत्र सपूत शब्द के अधिकारी नहीं होते। किसी भी स्कूल-कॉलेज के लड़कों के विषय में आप उनके अध्यापकों से पता लगाएंगे तो वे आपको उनकी अनेक शरारतों एवं कुटेवों के विषय में बताएँगे । आजकल का युवक प्रायः उत्तरदायित्वहीन, उद्दण्ड, अनुशासनहीन, अशिष्ट एवं मिथ्या दम्भ से भरा रहता है। आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनने, जीवन की अड़चनों से युद्ध करने की उसे चिन्ता नहीं । यौवन के उन्माद में आजकल के उद्दण्ड लड़के वृद्ध माता-पिता की मुसीबतों को समझने का प्रायः प्रयत्न नहीं करते। अनेक अशिष्ट पुत्र माता-पिता की अवज्ञा करते देखे जाते हैं। कई जगह पिता-पुत्र में वैचारिक संघर्ष, तनातनी और मनोमालिन्य भी बढ़ता जाता है । बेचारे पिता को मुंह की खानी पड़ती है। वर्तमान युवकों की टीपटाप, फैशन, बाहरी दिखावा, शृंगार और खर्चा इतना अधिक बढ़ गया है कि बेचारे पिता को पढ़ाते-पढ़ाते अपना घरबार और बहुमूल्य पदार्थ बेच देने पड़ते हैं। अतः कमाऊ पूत की आशा रखना मृगतृष्णा ही है। बुढ़ापे का सहारा बनने के बदले वह सिर पर सवारी करने वाला शत्रु बन जाता है । प्रायः देखने में आता है कि जो पिता पुत्र के लिए संचित पूंजी या जमीनजायदाद छोड़ जाते हैं, उनके पुत्र प्रायः फिजूलखर्च, निकम्मे, दुश्चरित्र और आलसी निकलते हैं । वे पिता को एवं कुल को बदनाम करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ पहले सन्तान की इच्छा, सन्तान प्राप्त होने पर पालन-पोषण की चिन्ता, फिर उसके विनीत, सच्चरित्र, सुशील निकलने की कामना, उसके विवाह की चिन्ता, फिर धन कमाने की आशा, पुरानी प्रतिष्ठा को कायम रखने की कल्पना आदि अनेक प्रकार की चिन्ताएँ मन को विक्षुब्ध किये रहती हैं। भला बताइए, सन्तान प्राप्ति में कहीं सुख है ? धन की प्रचुरता सुख का कारण नहीं - बहुत से लोग कहते हैं, हमारे पास धन नहीं है, अगर धन होता तो हम सुखी हो जाते । परन्तु बन्धुओ ! मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या धन से सुख प्राप्त हो सकता है ? धन से सुख का कोई सीधा सम्बन्ध है ? धन या वैभव अपने आप में कोई सुख का साधन नहीं है । अधिकांश व्यक्तियों के पास धन और वैभव की कोई कमी नहीं, फिर भी वे दुःखी और अशान्त रहते हैं । धन की सुरक्षा की चिन्ता रात-दिन उन्हें सताती रहती है । फिर धनिक परिवार अधिक खर्चीला और मौज-शौक का जीवन बिताने का आदी बन जाता है, और आप जानते हैं लक्ष्मी चंचल है, वह सदैव एक व्यक्ति के पास, एक सी नहीं रहती । इस दृष्टि से जब धनिक के पास धन कम हो जाता है, तब उसे अधिकाधिक धन कमाने की चिन्ता होती है, इस चिन्ता में न तो वह सुख से खा-पी सकता है, और न ही निश्चिन्त होकर सो सकता है । अधिक धन पर चोर, सरकार, डाकू, भाई-बन्धु आदि सबकी दृष्टि लगी रहती है। सरकार के कर-भार की चिन्ता धनिक को चैन नहीं लेने देती । चोरडाकुओं ने अगर कभी धन का सफाया कर दिया, तब तो उस धन के वियोग में मनुष्य के प्राण ही सूख जाते हैं । धन आर्तध्यान और रौद्रध्यान का कारण बनता है । प्रचुर धन हो जाने से मनुष्य धर्माचरण से विमुख होकर नाना दुर्व्यसनों में फँस जाता है; विलासिता और कामवासनाओं का शिकार बन जाता है। धनान्ध मनुष्य कर्तव्याकर्तव्य, हिताहित, कल्याण - अकल्याण, पाप-पुण्य को भूल जाता है । कई बार अविवेकी बनकर पशुओं या दानवों-सा जीवन बिताने लगता है। धन को लेकर भाई- भाइयों में आपस में इतना मनमुटाव बढ़ जाता है कि अदालतों की सीढ़ियों पर चढ़कर वे हजारों रुपये फूँक देते हैं, वैमनस्य और दंष बढ़ता है सो अलग। fron यह है कि धन मनुष्य को सुखी नहीं रख सकता, क्योंकि वह जहाँ भी रहेगा वहाँ प्रायः ईर्ष्या, द्व ेष, छल-कपट, भय, असन्तोष, विषय-वासनाएँ आदि कई दुर्गुणों के कीड़े पनपेंगे । इससे मनुष्य के अन्तःकरण में सदैव खिन्नता बनी रहेगी । कई लोग यह कहते हैं कि "धन होगा तो हम सुन्दर स्वादिष्ट पकवान, मिठाइयाँ, बढ़िया भोजन खरीद सकेंगे; सुख के प्रचुर साधन पा सकेंगे, नौकर-चाकर रख सकेंगे, बाग-बंगला, कार, दवाइयाँ आदि प्राप्त कर लेंगे ।" परन्तु यह भी एक प्रकार का भ्रम है । धन से कदाचित् स्वादिष्ट पक्वान्न मिठाइयाँ और चटपटे खाद्य पदार्थ खरीदे जा सकते हैं, परन्तु विवेक, स्वस्थ रहने की कला, सद्गुण और धर्म नहीं खरोदा जा सकेगा । विवेक आदि पदार्थ तो प्रचुर धन देने पर भी बाजार में नहीं For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५३ मिलेंगे । रुपयों से अनेक शक्तिवर्द्धक पदार्थ तथा टॉनिक आदि मिल सकेंगे, परन्तु शक्ति नहीं। शक्ति-आत्मिक शक्ति के लिए धर्मभावना या उच्चभावना का आश्रय लेना होगा । धन से कदाचित् मनुष्य वैभवशाली और ऐश्वर्यशाली भले ही कहलाने लगे, परन्तु सच्चा आनन्द और स्थायी सुख-शान्ति नहीं पा सकता। रुपये से चश्मा खरीदा जा सकता है, 'दृष्टि' नहीं, विवेकदृष्टि, दिव्यदृष्टि तो प्रायः धन से लुप्त हो जाती है। रुपयों से कोमल गुदगुदी शय्या मिल सकती है, परन्तु चिन्ता-निवारण, निद्रा या निश्चिन्ततापूर्वक शयन का सुख नहीं। रुपयों से आभूषण मिल सकते हैं, परन्तु सौन्दर्य-आन्तरिक सौन्दर्य नहीं; विद्या मिल सकती है, विवेक दृष्टि नहीं; नौकर मिल सकते हैं, सच्ची सेवा नहीं, सच्चा हमदर्दो साथी नहीं; रुपये से जीहजूरिये मिल जाएंगे, सच्चे हितैषी सज्जन नहीं, सच्चे वफादार मित्र भी नहीं। । दूसरी ओर संसार की उत्तम वस्तुएँ प्रायः बिना रुपये-पैसे के ही मिला करती हैं, त्यागमय, सादे, सात्त्विक जीवन जीने से ही ये मिल सकती हैं ; जो सुख और शान्ति दे सकती हैं। जीवन का सुख रुपये-पैसे में नहीं है । यदि ऐसा होता तो धनी पुरुष ही सुखी होते । पर हम देखते है कि उनका जीवन सबसे अधिक असंतोष से परिपूर्ण है। सबसे अधिक धनी प्रायः सबसे अधिक रोगी, अतृप्त, अस्वस्थ एवं आन्तरिक दृष्टिकोण से विक्षुब्ध पाया जाता है। उसे अपने धन की ही चिन्ता सदा-सर्वदा लगी रहती है। बड़े-बड़े व्यापारी अपनी साख बनाये रखने के लिए लाखों रुपये ऋण ले लेते हैं। उनकी आन्तरिक मनःस्थिति सदैव अस्थिर बनी रहती है। इन्द्रिय-विषयों की तृप्ति में सुख मानना भ्रम बहुत-से लोग पाँचों इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति या तृप्ति हो जाने में सुख मानते हैं । परन्तु इन्द्रिय-विषयों के सम्मुख होने पर भी अगर ग्रहण करने वाली इन्द्रिय खराब हो, अकस्मात् कोई शोकजनक समाचार प्राप्त हो जाए तो वह इन्द्रिय-विषय धरा रह जाएगा, उसका लाभ या उसकी प्राप्ति उसे नहीं हो सकेगी। इन्द्रियविषय का उपभोग वह नहीं कर सकेगा। इन्द्रिय-विषय इस विराट विश्व में यत्र-तत्र व्याप्त हैं। परन्तु उनका उपभोग करना अपने अधीन नहीं है, पराधीन है। अतः विषयों में अपने आप में कोई सुख नहीं होता । मनुष्य अपने मन से विषयों में सुख की कल्पना कर लेता है, इसलिए उनके पीछे पड़कर अपनी नींद हराम करता है । जैसे कुत्ता हड्डी चबाने में सुख मानता है, हड्डी चबाने से उसके मुंह में खून निकल आता है, अतः वह अपने ही खून को हड्डी का स्वाद मानकर चाटता है । वास्तव में हड्डी चबाने से उसे सुख नहीं होता। इसी प्रकार सांसारिक विषय-वासनाओं और भोग-विलासों में मनुष्य सुख ढूँढ़ता है । मगर विषयों में सुख खोजना बालू में से तेल निकालने की तरह है। विषय-वासनाओं की पूर्ति के पीछे पड़कर मनुष्य अपने सारे सुखों को नष्ट कर डालता है । धन, स्वास्थ्य, क्षमता, शक्ति, समय, स्फूर्ति, आत्मीयता आदि सब विशेषताएँ For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ विषयों और वासनाओं की आग में जलकर भस्म हो जाती हैं । जीवन का हरा-भरा वृक्ष सूखकर ठूंठ-सा हो जाता है । इसलिए पंचेन्द्रिय-विषयों और विलासों में सुख खोजना या पाने की आशा करना दुराशा मात्र है । पाश्चात्य विचारक कॉल्टन (Colton) ने ठीक ही कहा है— "The seeds of repentance are sown in youth by pleasure, but the harvest is reaped in age by suffering." " इन्द्रिय-सुख के द्वारा जवानी में पश्चात्ताप के बीज बोए जाते हैं, किन्तु बुढ़ापे में उसकी फसल कटाई होकर पीड़ा भोगते हुए इकट्ठी की जाती है ।" उदाहरण के लिए — जीभ को ले लें । वह वश में नहीं रहती । उसके कल्पित सुख के लिए सुबह से लेकर रात्रि तक बीसों तरह की सुस्वादु वस्तुएँ चाहिए । आइसक्रीम, चाय, शराब, सिगरेट, मांस, बढ़िया मिठाइयाँ, नमकीन, सोडावाटर या लेमन, चुस्की, कीमती अचार -मुरब्बे चाहिए । नेत्र सुख के लिए उन्हें बढ़िया मकान, सुन्दर वेशभूषा, गद्दे, कोच, सोफासेट, चमचमाती कार चाहिए । कल्पित घ्राण- सुख के लिए इत्र, तेल, सुगन्धित फुलेल आदि चाहिए । एक सूअर गर्मी से घबराकर एक गन्दे, कीचड़ से भरे पानी के गड्ढे में लोट रहा है । वह उस गड्ढे में पड़ा पड़ा सोचता है - " मैं कितना सुखी हूँ । पेट भर विष्ठा मिलती है तथा आलस्यमय जीवन का आनन्द लेने के लिए यह गंदगी का गड्ढा ! अहा ! बड़ा आनन्द है ।" पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक ने ठीक ही कहा है "Worldly and sensual pleasures for the most part, are short, false, and deceitful. Like drunkenness, they revenge the jolly madness of one hour with the sad repentance of many." “सांसारिक और ऐन्द्रियक सुख प्रायः क्षणिक, मिथ्या और छलपूर्ण होते हैं, मद्यपान की तरह एक घंटे की खुशी के पागलपन का बदला वे अनेक घंटों के उदास पश्चात्ताप के रूप में देते हैं । " कुछ व्यक्ति सूअर की भांति निम्नतम घृणित जीवन व्यतीत कर रहे हैं । सूअर की मनःस्थिति के अनुसार गंदगी, कीचड़ और दुर्गन्ध सुखदायक है । मनुष्यों की मनःस्थिति कुछ भिन्न प्रकार की है, वे इन्हें तो दुःखदायक समझते हैं; किन्तु मांस, मदिरा, भांग, तम्बाकू आदि अभक्ष्य और गंदे पदार्थों का खूब उपभोग करते हैं । नशे में चूर होकर वे इन्द्रिय-सुख के पीछे पागल होकर दौड़ते हैं । वासनापूर्ति में उन्हें जीवन का अधिकाधिक रस आता है । उनका जीवन सिर्फ एक छोटे-से दायरे में बँधा रहता है । उदर के लिए उचित-अनुचित खाद्य की प्राप्ति तथा वासना (मैथुन) सुख के लिए विपरीत लिंग वाले साथी की प्राप्ति । उनका इस प्रकार पशुवत् जीवन ज्यों का त्यों व्यतीत होता जाता है । इन्हें इसी प्रकार का सुख सर्वोत्कृष्ट For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५५ लगता है, भले ही इसके लिए उन्हें अनेक कष्ट उठाने पड़ें। वे अपने ही स्वार्थ और अहंकार में डूबते-उतराते जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर देते हैं । संसार के थपेड़े खाते हुए वे अनेक बच्चों को जन्म देकर इस लोक से विदा हो जाते हैं । निष्कर्ष यह है कि सुख वासनापूर्ति में नहीं, क्योंकि क्षणभर में उसके प्रति अनिच्छा व अरूचि उत्पन्न हो जाती है । एक बार सम्भोग के पश्चात् मन में जो ग्लानि और पश्चात्ताप होता है, उसे आत्मा बुरी तरह धिक्कारती है; फिर भी दुःख की कड़वी घूंट को सुख मानकर विषयी मनुष्य इस विष का पान करता रहता है । बच्चों का बोझ आयुपर्यन्त कम नहीं होता । यदि कोई बच्चा दुश्चरित्र, पागल या किसी दुर्बलता को लेकर जन्मा तो सदा के लिए सुख की इतिश्री हो जाती है । फिर अनेक प्रकार की कृत्रिम आवश्यकताओं तथा पत्नी, बच्चों की फरमाइशों की पूर्ति करते-करते जीवन का सच्चा आनन्द, रस एवं सत्त्व नष्ट हो जाता है । आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन जुटाने में वे झूठ, कपट, मिथ्याचार आदि अनेक तिकड़मों का आश्रय लेते हैं । इस मनःस्थिति के लोगों से आप पूछ देखें- - "क्यों भाई ! आपके पास तो रुपये, मकान, अच्छा परिवार आदि सब कुछ है, अब तो आप सुखी होंगे ?" तब तपाक से वे कहेंगे — "कहाँ सुखी हैं, हम ! हमें कमाने की चिन्ता, लड़के-लड़की के विवाह की चिन्ता, कर्ज चुकाने की चिन्ता, व्यापार की चिन्ता, शरीर की चिन्ता, परिवार की चिन्ता, मुकद्दमेबाजी की चिन्ता आदि कई दुश्चिन्ताएँ हैं, हम कहाँ सुखी हैं ? " मानसिक सुखों का भ्रमजाल कई लोग बाह्य प्रतिष्ठा, सम्मान, समाज में इज्जत, प्रसिद्धि एवं कीर्ति पाने में सुख मानते हैं, परन्तु यह मन का भ्रमजाल है । याद रखिये, आज लोग आपसे मीठीमीठी बातें करते हैं, प्रशंसा के पुल बाँधते हैं, कल आपसे तनिक सी गलती होते ही या उनका तनिक-सा स्वार्थ भंग होते ही वे दूध में से मक्खी की भांति निकाल फेंकते हैं । यही कारण है कि बड़े-बड़े नेताओं, समाज-सुधारकों, उपदेशकों या धर्म-प्रचारकों के अनेक शत्रु बन जाते है, वे उन्हीं तथाकथित निहित स्वार्थी शत्रुओं द्वारा मार डाले जाते हैं । ईसामसीह को क्रूस पर लटका दिया गया, भगवान् महावीर के कानों में कीले ठोके गये, ऋषि दयानन्दजी को काँच खिला दिया गया, महात्मा गांधी को गोली मार दी गई । क्या इन महान् आत्माओं की सेवाएँ कम थीं ? किन्तु जनता की मनोवृत्ति सदैव बदलती रहती है । अतः प्रशंसा, प्रसिद्धि, कीर्ति और प्रतिष्ठा में सुख मानना भ्रम है । कई लोग अपनी स्त्री, बच्चों के प्रति प्रेम करने में सुख मानते हैं, किन्तु उनका वह प्रेम स्वार्थ, मोह और आसक्तिमूलक होने से परिणाम में दुःखजनक है । इसलिए राग या मोह पैदा करने वाला कोई भी प्रेम दुःखदायक ही होता है । कई लोग इष्ट वस्तु की प्राप्ति और अनिष्ट के वियोग में सुख मानते हैं, परन्तु For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ यह भी क्षणिक सुख है, स्थायी सुख नहीं । जिस इष्ट वस्तु की प्राप्ति में वह आज सुख मानता है, उसके वियोग या विकृत होते ही वह दुःख मानने लगेगा । जिस अनिष्ट के वियोग में आज वह सुख के स्वप्न देख रहा है, उसी अनिष्ट का संयोग उपस्थित होते ही वह तिलमिला उठेगा । सामान्यतया लोग सुख को भविष्य की किसी उपलब्धि, परिस्थिति अथवा अवसर में निहित देखते हैं । वे यों सोचा करते हैं कि यदि आज कष्ट है, तो कोई बात नहीं, जैसे-तैसे रो-धोकर काट लेंगे, किन्तु निकट भविष्य में हमारा वेतन अथवा आय बढ़ जाएगी, तब फिर सुख बरसेगा । कई लोग सोचते हैं - बच्चे पढ़ रहे हैं, अभी तो कुछ कष्ट रहेगा, लेकिन जब पढ़-लिखकर काम-धंधे में लग जाएँगे, तो फिर आनन्द की कमी न रहेगी। कभी सोचते हैं - लड़के-लड़कियों का विवाह हो जाएगा, तब निश्चिन्त हो जाएँगे और सुख की जिंदगी बिताएँगे। इसी प्रकार कई सोचते हैंपेंशन मिलने पर या बंगला, मोटर एवं मकान मिल जाने पर सुख ही सुख हो जाएगा । तात्पर्य यह है कि अधिकांश लोग अपने सुख को सुदूर भविष्य के किसी उद्देश्य, गन्तव्य अथवा कामनापूर्ति में देखते हैं । परन्तु यह धारणा गलत है कि मनुष्य का सुख भविष्य के किसी गन्तव्य में है; वस्तुतः वह वर्तमान में ही है, और वहीं प्राप्त किया जा सकता है । जो वर्तमान में आनन्द नहीं पा सकता, वह भविष्य में भी नहीं पा सकता । मान लो, भविष्य में उनकी कामना पूर्ति हो भी जाए तो भी एक स्थिति पा लेने के बाद दूसरी स्थिति और दूसरी के बाद तीसरी स्थिति की आवश्यकता सता सकती है । मनुष्य की कामनाओं और इच्छाओं का कोई अन्त भी नहीं । इसलिए सुख लिए भविष्य की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है । मनोरंजन और हास - विलास के नाम पर विषयों और व्यसनों के बंदी बन जाने वाले लोग सुख की मृगतृष्णा में भूलते-भटकते हुए जीवन की बाजी हार जाते हैं । इसी प्रकार व्यर्थ की आवश्यकताओं को गले में डालकर सुख की आशा करना व्यर्थ है । जो व्यक्ति यह सोचता है कि अमुक व्यक्ति ने उसका अपमान, अनादर किया, या किसी प्रकार का कष्ट दिया अतः मुझे उससे बदला लेने पर ही सुखशान्ति होगी, वह व्यक्ति स्वप्न में भी मानसिक सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता, ही आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर हो सकता है । जहाँ प्रतिहिंसा की भावना है, वहाँ सुख-शान्ति कैसे हो सकती है ? सांसारिक सुख और पारमार्थिक सुख इस प्रकार संसार में सुख तो अनेक प्रकार के हैं, किन्तु वे क्षणिक हैं, सुखाभास हैं, दुःखजनक हैं । ऐसे सुख का आधार ही गलत है । वस्तुनिष्ठ, व्यक्तिनिष्ठ, इन्द्रिय For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५७ विषयनिष्ठ या मनः कल्पनानिष्ठ सुख सांसारिक है, स्वार्थजन्य है । फिर कई लोग तो चोरी करने में, शराब - मांस का सेवन करने में, येन-केन-प्रकारेण धन इकट्ठा करने में सुख मानते हैं, परन्तु सुख की यह कल्पना भ्रामक है । फिर भी लोग इन सब सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए अपनी बुद्धि, शक्ति, विवेक, विश्वास और योग्यता के अनुसार प्रयत्न भी करते हैं । एक वस्तु में यदि सुख की कमी दिखाई देती है तो दूसरी ओर भागते हैं । सांसारिक सुखों की अपेक्षा पारमार्थिक सुख की ओर आकृष्ट होने के पीछे भी यही भावना होती है कि मनुष्य को इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक और व्याधि-उत्पादक लगते हैं । इसलिए वह ऐसे सुख की कल्पना करता है, जिसमें टिकाऊपन हो, स्थिरता हो और दुःख मिश्रित न हो । जब कभी इन सांसारिक सुखों नाश होता है तो मनुष्य घबरा उठता है, सांसारिक सुखों के प्रति मोह नहीं छूटता, किन्तु मनुष्य का चित्त जब स्थूल सुखों से तृप्त नहीं हुआ, स्थूल सुखों को अपनाने का परिणाम उल्टा आया, तब उसने पारमार्थिक सुख को अपनाना चाहा । यथार्थ सुख प्राप्ति का मूलाधार धर्म है इसी बात का समर्थन एक आचार्य करते हैं— सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्व प्रवृत्तयः । सुखं च न बिना धर्मात् तस्माद्धर्म परो भवेत् ॥ सभी प्राणियों की सर्व प्रवृत्तियाँ सुख के लिए होती हैं । परन्तु धर्म के बिना सुख प्राप्त करना असम्भव है । इसलिए मनुष्य को धर्मपरायण होना चाहिए । तीर्थंकर भगवन्तों ने एवं साधु-साध्वियों को प्रेरणा दी - 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो ।' धर्म उत्कृष्ट मंगल (सुखरूप ) है । वह अहिंसा, संयम और तपरूप है । धर्म सुख : सभी सुखों से श्रेष्ठ : क्यों, कैसे ? अन्य सभी सुख एक ओर हों और दूसरी ओर केवल एक धर्मसुख हो, तो धर्मसुख श्रेष्ठ होता है । धर्मसुख का स्पष्ट अर्थ हुआ - आत्मिक सुख । जो आत्मा से सम्बन्धित सुख हो, जो स्वाधीन सुख हो, वहो धर्मसुख है । कहा भी है- 'सर्वमात्मवशं सुखम्' जो आत्माधीन है, वह सब वास्तविक सुख है । धर्मसुख का मूल स्रोत कोई पदार्थ, साधन, व्यक्ति या परिस्थिति नहीं, अपितु आत्मा है । सुख का वह निर्झर अपने भीतर से फूटता है । धर्मसुख आत्मसन्तोष, आत्मतृप्ति, आत्मानन्द, आत्मविकास और आत्मकल्याण ही माना गया है । आध्यात्मिकता के आधार पर प्राप्त यह सुख ही सच्चा और श्रेष्ठ है । कई लोग कहते हैं, संसार में रहकर सांसारिक गतिविधियों से बचा नहीं रहा जा सकता, उनमें चाहे – अनचाहे पड़ना ही पड़ता है किन्तु ज्ञानी पुरुष कहते हैं- संसार में रहते हुए भी संसार से - सांसारिक मोहमाया से बहुत अंशों में For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ अलिप्त रहा जा सकता है, जो सांसारिक राग-द्व ेष, काम-क्रोध आदि विकारों से जितना अलिप्त रहता है, पदार्थों की, व्यक्ति की, परिस्थितियों की या अमुक संयोगों की प्राप्ति - अप्राप्ति में सुख-दुःख की कल्पना नहीं करता वह उतने अंशों में धर्मसुख प्राप्त करता है । इसीलिए कहा है 'एतसुही साहू वीयरागी' देवलोकों के देव भी उतने सुखी नहीं हैं, न राजा-महाराजा या चक्रवर्ती भी सुखी हैं, न कोई धनिक या साधनसम्पन्न इतना सुखी है, जितना सर्वांगसुखी सर्वथा सुखसम्पन्न वीतराग पुरुष है । इससे सिद्धान्त यह निकला कि जो जितना अधिक राग-द्वेष-मोह से मुक्त होगा, वह उतना ही धर्मसुख से ओत-प्रोत होगा । जो सांसारिक सुखों में सांसारिक भाव से पड़ा रहता है, उनमें आसक्ति करता है. उन्हीं को सर्वस्व मान कर चलता है, वह उसके दुःखों से कभी ऊपर नहीं उठ पाता । आध्यात्मिक विचार वाला व्यक्ति संसार में रहता हुआ भी सांसारिक प्रपंचों या मोह-माया से ऊपर उठा हुआ रहता है । वह उसके अशुभ प्रभाव से अपने व्यक्तित्व की रक्षा करने में प्रमाद नहीं करता । संयोगवश या पूर्वकर्मवश यदि उसके सामने दुःख की परिस्थिति आ भी जाती है तो भी वह सुख की भाँति निर्लिप्त भाव से उसे भोग ता है और जल में कमलवत् उससे अलग ही रहता है । ऐसे उन्नत व्यक्तित्व वाले व्यक्ति को वैसी उच्च मनःस्थिति में कितना सुख होता होगा, इसे तो एक आध्यात्मिक व्यक्ति ही जान सकता है । अतः अन्तर्मुखी वृत्ति का सहारा लेने वाला व्यक्ति इस दुःखपूर्ण संसार में भी सुखी रह सकता है । I धर्मसुख के महत्त्व को समझने वाले व्यक्ति परिष्कृत और आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाले होते हैं । वे सांसारिक सुख-दुःखों को चलती-फिरती छाया से अधिक महत्त्व नहीं देते । वे उसकी उसी प्रकार उपेक्षा कर देते हैं, जिस प्रकार खेत के काम में तल्लीन किसान आकाश में होते हुए धूप-छाँह के खेल की ओर ध्यान नहीं देते । वे इस वास्तविकता से अनभिज्ञ नहीं होते कि सुख-दुःख, अनुकूलता - प्रतिकूलता की धनात्मक एवं ऋणात्मक परिस्थितियों में तपकर ही मानव-जीवन पुष्ट होता है । जीवन में जो जैसी परिस्थिति जब-जब आती है, वे उसका हँसी-खुशी के साथ सामना करते हैं, वे समझते हैं कि धर्मपालन में कष्ट तो होता है, किन्तु वह कष्ट जीवन को उन्नत एवं विकसित बनाने के लिए सुखरूप होता है । जैसे माता को बच्चे के पालन-पोषण में कष्ट तो होता है, किन्तु वह उस कष्ट को कष्ट नहीं मानती, बल्कि बच्चे का पालन-पोषण सन्तुष्ट और हर्षित होकर करती है । उसे बच्चे का पालन-पोषण सुखरूप प्रतीत होता है । उसी तरह धर्मसुख की निष्ठा वाले व्यक्ति सांसारिक सुख में प्रसन्न और दुःख में रोने की बालवृत्ति से ऊपर उठकर अहिंसा, सत्य, सेवा, सहिष्णुता, तितिक्षा, क्षमा आदि धर्मों का पालन करने के लिए सांसारिक सुखों को महत्त्व नहीं देते और न ही सांसारिक दुःखों से घबराते हैं । For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५६ संसार की इस परिवर्तनशीलता के बीच वे अपनी एक-सी दुनिया बसाने की आकांक्षा और केवल सांसारिक सुखों की कामना करते रहने की भूल कदापि नहीं करते। वे इस सांसारिकता से ऊपर उठकर आत्मिक जीवन में जीते हैं और हर परिस्थिति को धर्मपालन के लिए उपयुक्त अवसर समझकर सदैव प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रहते हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति इस आत्मसुख (धर्मसुख) के अतिरिक्त भौतिक सुखों में विश्वास नहीं करते । वे कभी यह मानने को तैयार नहीं होते कि शारीरिक एवं सांसारिक भोगों में भी सुख की उपलब्धि हो सकती है । प्रमादी, विलासी, भोगी और आलसी जीवन, जिसे सामान्य लोग सुखी जीवन कहते हैं, आध्यात्मिक दृष्टि वाला, धर्मसुख से ओत-प्रोत बुद्धिमान व्यक्ति उसे विषाक्त और विषम जीवन मानता है । भौतिक पदार्थों, इन्द्रिय-विषयों और इच्छाओं से सम्बन्धित सारे सुखों को वह दुःखान्त समझता है, क्योंकि ये सभी नाशवान्, परिवर्तनशील एवं क्षणभंगुर होते हैं। सच्चे धर्मसुख का उपासक व्यक्ति इनसे असम्बद्ध रहकर ही संसार में रहता है, सांसारिक पदार्थों का उपभोग भी इसी दृष्टिकोण से करता है। __ आज लोगों को धर्म से प्राप्त होने वाले शाश्वत एवं स्वाधीन सुख पर अश्रद्धा क्यों है ? इसका कारण यदि आप जानना चाहते हैं तो यही है कि अधिकांश लोग सांसारिक भोगजन्य पदार्थनिष्ठ सुखों में ही फंस जाते हैं, उनके पीछे रहे हए विकारों या दुःखों को देख नहीं पाते और मोहान्ध होकर उन्हीं क्षणिक सुखों के पीछे पागल बने रहते हैं, दुःख पाते रहते हैं। इसी कारण धर्मसुख के प्रति उनकी श्रद्धा नहीं जमती । धर्म (अहिंसा, संयम, तप, तितिक्षा, क्षमा, सेवा आदि) के आचरण के पीछे जो आत्म-सन्तोष, आत्मतृप्ति, आत्मविकास एवं आत्म-रमण का सुख रहा हुआ है, उसे सांसारिक सुखों में मुग्ध और लुब्ध व्यक्ति देख नहीं पाता, जबकि धर्मसुख के प्रति अखण्ड श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति सांसारिक सुखों के पीछे रहे हुए एकान्त दुःखों को देख पाता है। धर्मसुख के चार आधार धर्मसुख क्या है ? वह समस्त सुखों में सर्वोपरि है, यह बात जान लेने के बाद प्रश्न उठता है कि उस धर्मसुख के आधारभूत तत्त्व कौन-कौन से हैं ? किन-किन आलम्बनों के सहारे धर्मसुख प्राप्त हो सकता है ? धर्मसुख के मुख्यतया चार आधार हैं, जिनके सहारे से मनुष्य सांसारिक सुखों की अपेक्षा कई गुना अधिक सुख प्राप्त कर सकता है, और वह स्थायी, जीवनपर्यन्त रहने वाला, स्वाधीन और बन्धनों को काटने वाला होता है। वे चार आधार ये हैं--(१) आत्मशुद्धि (२) त्यागवृत्ति (३) अहंकारशून्यता और (४) सहिष्णुता । क्रमशः चारों पर कुछ विश्लेषण करना आवश्यक है। For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ आत्मशुद्धि : धर्मसुख का प्रमुख आधार __ आप सब का यह प्रतिदिन का अनुभव है कि पेट में मल पड़ा हो, तब तक चैन नहीं पड़ता; जब पेट साफ हो जाता है, तभी शरीर स्वस्थ होता है, भूख लगती है, प्रत्येक कार्य में रुचि और उत्साह की वृद्धि होती है । इसी प्रकार शरीर में पड़े हुए अन्य मलादि विकार भी जब तक साफ न हों, तब तक शरीर रोगी रहेगा। शरीर में डाली हुई कोई भी खाद्य वस्तु ठीक से हजम नहीं होगी। गैस, रक्तचापः सिरदर्द, कोष्ठबद्धता आदि अनेक रोग घेर लेंगे । निष्कर्ष यह है कि शरीर की सर्वथा शुद्धि के बिना शारीरिक सुख नहीं प्राप्त हो सकता। इसीलिए कहावत है'पहला सुख निरोगी काया। इसी प्रकार आत्मा में भी जब तक क्रोध, अभिमान, माया, लोभ, राग-द्वेष, मोह, काम, मद, मत्सर, तृष्णा, असन्तोष, असहिष्णुता, कीर्ति आदि की लालसा इत्यादि विकार मल जमे रहेंगे, वे बाहर नहीं निकलेंगे, उन्हें आत्मा से खदेड़ा नहीं जायेगा, इन पापों एवं विकारों को इकट्ठे करते रहा जाएगा; तब तक बाहर से-ऊपर-ऊपर से पालन किये हुए क्रियाकाण्डों से, बाह्य तपों से, कष्ट सहने से, यहाँ तक कि सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास सहने से भी कुछ नहीं होगा; वह एक प्रकार से खोखली, घुन लगी हुई लकड़ी पर रंग-रोगन करने के समान है । इसीलिए एक आचार्य ने धर्म का लक्षण किया है-आत्मशुद्धिः साधनं धर्मः'-धर्म आत्मशुद्धि का साधन है। जीवन में जितनी पवित्रता, शुद्धता आएगी, उतना ही आत्मविकास होगा, आत्मशक्ति बढ़ेगी, आत्मसुख बढ़ेगा। परन्तु उस पवित्रता और शुद्धता के लिए पूर्वकृत पापों, अशुभकर्मों अथवा इस जन्म में आत्मा में जमा हुए क्रोधादि कषाय, काम, मद, मोह, रागद्वेष आदि विकार-मलों का प्रक्षालन करना होगा। यह कार्य किसी शास्त्र या ग्रन्थ को सुन लेने या तिलक-छापे लगा लेने, मुह पर केवल मुखवस्त्रिका बाँध लेने, प्रमाणनिका ले लेने या अन्य कोई वेष बना लेने मात्र से नहीं होगा। सरलतापूर्वक अपने अन्तर्-बाह्य दोनों को पवित्र और उज्ज्वल बनाने से ही यह कार्य होगा। __ मानव-मन में न जाने कितने दोष एवं पातक चोर की तरह बैठे रहते हैं। बहुत बार कई साधक अपने उच्च पद एवं ज्ञान के अभिमान में होते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता कि किस प्रकार उनके अन्तर् में मद, मोह, अहंकार एवं मत्सर दुबके हुए बैठे हैं ? यही निर्बलताएँ आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने में रोड़ा अटकाती हैं। भ्रमवश मनुष्य इन अवरोधों का कारण बाहरी शक्ति को समझता है। परन्तु वास्तव में उसके अपने मानसिक दोष ही प्रगति पथ में रोड़े बनते हैं। अतः धर्मसुख की उपलब्धि के लिए मानसिक परिष्कार बहुत आवश्यक है । असद्भावनाओं, मलिन विचारों, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, मत्सर, क्रोध आदि आवेगों को खोज-खोजकर For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ६१ अपने अन्तःकरण से निकालकर बाहर फेंकते रहना चाहिए । स्वार्थ, विडम्बना, प्रवञ्चन। और तृष्णापूर्ण प्रवृत्ति धर्मसुख को नष्ट कर देती हैं । 1 आत्मशुद्धि के लिए जैन शास्त्रों में चार प्रक्रियाएँ बताई गई हैं१. आलोचना, २ . निन्दना ३. गर्हणा और ४ प्रायश्चित्त । मैत्री आदि भावना, क्षमापना और वन्दना ये तीन प्रक्रियाएँ इनकी सहायक हैं । दोष- पाप का लेशमात्र भी न रहना चाहिए, यही इन चारों प्रक्रियाओं का उद्देश्य है । संक्षेप में इतना ही कहना है कि सच्चे हृदय से आलोचना करने से पाप नहीं रहता । आत्मा शुद्ध हो जाती है । शुद्धि जहाँ तक नहीं होती, वहाँ तक वह पाप मन में खटकता रहता है, दुःखित करता रहता है, इसलिए निःशल्य होकर विशुद्ध हो जाने से धर्मसुख प्राप्त होता है । आन्तरिक सुख की प्राप्ति के लिए भी मनुष्य को अपना व्यक्तित्व पूर्ण उज्ज्वल, निर्दोष और निर्मल बनाना चाहिए । दोष, पाप और मल की विद्यमानता ही व्यक्तित्व को मलिन, अपवित्र एवं निकृष्ट बना देती है । जो वासनाएँ, अभीप्साएँ एवं भावनाएँ अपने व्यक्तित्व के अनुरूप न हों, उन्हें तुरंत ही निकाल फेंकना चाहिए । जिस दिन इन विकारों को फेंक दिया जाएगा, उसी दिन व्यक्तित्व दूध के समान उज्ज्वल तथा निर्विकार हो उठेगा । उसके साथ ही अन्तर्ज्योति दीप्त हो उठेगी, व्यक्तित्व तुच्छ स्वार्थ से ऊपर उठ जाएगा। तभी आत्मा में सुख-शान्ति सन्तोष और श्रेय की स्थापना होती जाएगी । अतः यह धर्मसुख का मूलाधार है । त्यागवृत्ति धर्मसुख का द्वितीय आधार वास्तविक सुख भोग में नहीं, त्याग में है । 'भोगे रोग भयं' इस कहावत के अनुसार भोगों से रोगों की विशेषतः कर्मरोगों की वृद्धि होती है । पाँचों इन्द्रियविषयों के उपभोग से मनुष्य प्रायः पराधीन, इन्द्रियों का गुलाम और इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग में चिन्तातुर, ईर्ष्या-द्वेष आदि का शिकार हो जाता है, इसलिए भोगों का एवं भोगासक्ति का त्याग ही सुख का कारण हो सकता है । विज्ञान विलास की सामग्री बढ़ा रहा है, और वर्तमान मानव प्रायः उसमें सुख की कल्पना करके अन्धाधुन्ध संग्रह करता है । अगर उस संग्रह में से जरूरतमंद, गरीब, पीड़ित और दुःखी के लिए निःस्वार्थ त्याग किया जाए तो उससे मन में संतोष होगा, सुख-शान्ति बढ़ेगी । धर्मसुख संग्रह में नहीं, त्यागवृत्ति में है । जिम्मेदारियों और सांसारिकता को कम करने में है । सांसारिक भोगों या सांसारिकता से जो जितना दूर हटता है, उतना ही वह सन्तुष्ट, सुखी और स्थिर बनता है । जितना ही मनुष्य अपने सिर पर परिवार - वृद्धि द्वारा जिम्मेदारियाँ, झंझट और विलास को लेता है उतना ही दुःख तथा अशान्ति बढ़ती है। त्याग ही इन जिम्मेदारियों, झंझटों और भोगों के प्रति मक्ति को कम करता है तथा सांसारिकता से मक्त करता है । अगर भोगों में ही सुख For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ होता तो बड़े-बड़े राजा, श्रेष्ठी एवं चक्रवर्ती आदि अपने सब कुछ — वैभव आदि का त्याग करके क्यों महाव्रतधारी मुनि बनते ? कांपिल्यपुर का राजा संयंती चतुरंगिणी सेना सहित शिकार खेलने निकला । एक मृग को मारा । ' किन्तु भयभ्रान्त एवं मृत मृग मुनि गर्दभाली के पास जाकर पड़ा था । राजा भी मुनि का मृग समझकर भयभीत होकर मुनि के चरणों में पहुँचा । मुनि ध्यानस्थ थे । ध्यान खुलते ही राजा ने पश्चात्ताप करते हुए मुनि अभयदान देने की प्रार्थना की। इस पर मुनि ने उसे अभयदान देकर समझाया कि " राजन् ! तू भी अभयदाता बन । तू क्यों इस क्षणिक जीवन के लिए हिंसा आदि पापकर्म में पड़ता है ? क्यों इन्द्रिय-विषयों का उपभोग करता है ? अनित्य वैभव सामग्री किसलिए इकट्ठी करता है ? एक दिन तो सब कुछ छोड़कर अशुभकर्मवश दुर्गति में जाना पड़ेगा । अतः तेरे पास जो भी शरीर सम्पदा आदि है, उससे तपत्याग कर । उसी से सुख - शान्ति मिलेगी ।" मुनि का धर्मोपदेश सुन संयती राजा संसार से विरक्त हो गया । अपना राज्य, वैभव, परिवार आदि सबका त्याग करके परमसुखरूप त्यागवृत्ति अंगीकार की । संयती राजर्षि विहार करते हुए एक बार किसी गाँव में पधारे। वहाँ अनिर्दिष्ट नामक कोई क्षत्रिय जातीय राजा दीक्षित होकर मुनिवेष में आए । संयती राजर्षि को संयम में स्थिर करने के लिए उसने क्रियावादी आदि के विवाद की चर्चा की । फिर उन मुनि ने उदाहरण देकर बताया- भरत, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, महापद्म, हरिषेण, जय आदि चक्रवर्ती अपना राज्य, वैभव, पद, परिवार तथा समस्त उत्तम भोगसुख छोड़कर दीक्षा लेकर शाश्वत धर्मसुख सम्पन्न बने और भी दशार्णभद्र, नमिराज, दुर्मुखराज, नग्गइ राजा, उदायी राजा आदि राजाओं ने भी सर्वस्व सांसारिक भोग आदि छोड़कर पूर्ण त्यागमार्ग अपनाया और धर्मसुखसम्पन्न हुए । अत: त्यागवृत्ति भी धर्मसुख का श्रेष्ठ आधार है । अहंकारशून्यता : धर्मसुख का तृतीय आधार तप, मनुष्य भोगों का त्याग करके उच्च साधना-पथ अंगीकार करके भी अहंकारवश पद, प्रतिष्ठा, कीर्ति, प्रशंसा आदि की लालसा से पीड़ित रहता है । अगर त्याग, संयम, चारित्र, ज्ञान आदि का अहंकार रहता है तो उसके मन में रात-दिन दूसरे साधकों को नीचे गिराने, स्वयं को प्रसिद्ध करने तथा अपना सिक्का दूसरों पर जमाने की ईर्ष्यावश प्रतिस्पर्द्धा, असन्तोष, चिन्ता, व्यग्रता आदि की आग लगी रहती है । त्याग और चारित्र का सुख उसे अहंकारजनित इन प्रपंचों को छोड़े बिना नहीं मिल पाता । इसलिए अहंकारशून्यता धर्मसुख का महत्त्वपूर्ण आधार है । सहिष्णुता : धर्मसुख का चतुर्थ आधार . जिसके जीवन में सहिष्णुता, धैर्य, फल की अनाकांक्षा आदि विशेषताएँ होती हैं, वही सच्चा धर्मसुख पा सकता है । जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं, विपरीत परि For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ६३ स्थितियां आती हैं, प्रतिकूल व्यक्तियों से वास्ता पड़ता है, उनके आचार-विचार, स्वभाव, रुचि आदि में अन्तर हुआ करता है, परन्तु धर्मसुख के इच्छुक को इन सब स्थितियों और व्यक्तियों में न तो घबराना चाहिए, न टकराना चाहिए, सहनशील बनकर सबको शान्ति और धैर्यपूर्वक समभाव से सहन करना चाहिए । आचार-विचारों आदि में मतभेद होते हुए भी द्वेषभाव नहीं रखना चाहिए, न ही अहंकार प्रकट करना चाहिए । दुराचारी, अनाचारी आदि से घृणा न करके उनके प्रति चिकित्सक की भावना रखना चाहिए । 'रोग मिटाना है, रोगी को नहीं' यही धैर्यधर सुधारक की भावना होनी चाहिए । इस प्रकार की सहिष्णुता से जीवन में स्थायी सुख-शान्ति प्राप्त हो सकेगी । धर्मसुख के ये ही चार प्रमुख आधार हैं, जो सर्वश्रेष्ठ सुखलाभ कराते हैं । इसीलिए गौतम महर्षि ने कहा है- " सव्वं सुहं धम्मसुहं जिणाइ ।" धर्मसुख सब सुखों में श्रेष्ठ है । For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५. ध त में आसक्ति से धन का नाश धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज से मैं आपका ध्यान नैतिक जीवन के लिए परम आवश्यक व्यसनों से मुक्ति की ओर खींचूँगा । श्रावक बनने से पूर्व जैनाचार्यों ने सद्गृहस्थ के लिए सप्त कुव्यसन-त्याग बताया है । प्रत्येक धार्मिक व्यकि का जीवन सर्वप्रथम सात कुव्यसनों से मुक्त होना अनिवार्य है। जैसे देवालय में प्रवेश करने से पहले मनुष्य को स्नानादि से शुद्ध एवं मन से पवित्र होना तथा स्वच्छ वस्त्र-परिधान धारण करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार धर्म के पवित्र मन्दिर में प्रवेश करने से पूर्व दुर्व्यसनों की गंदगी को दूर हटाकर जीवन को स्वच्छ, पवित्र, व्यसनमुक्त एवं सात्त्विक बनाना बहुत ही आवश्यक है। __ व्यसनमुक्ति धार्मिक जीवन का प्रथम सोपान है । जो व्यफ़ि इन सप्त कुव्यसनों को छोड़ नहीं सकता, उसके जीवन में नीति, धर्म और अध्यात्म का निवास नहीं हो सकता। जिसके जीवन में नीति नहीं है, धर्म नहीं है, आध्यात्मिकता नहीं है, उसके जीवन में सुख-शान्ति की बहार नहीं आ सकती । सात कुव्यसनों का क्रम एक प्राचीन श्लोक में इस प्रकार बताया है "द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पाद्धि चौयं परदारसेवा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके, घोरातिघोरं नरकं नयन्ति ॥" अर्थात्-(१) जूआ, (२) मांसाहार, (३) मद्यपान, (४) वेश्यागमन, (५) शिकार, (६) चोरी, और (७) परस्त्रीगमन, लोक में ये सात कुव्यसन हैं, जो मनुष्य को घोरातिघोर नरक में गिराते हैं। वसुनन्दि पंचविंशतिका में जैनाचार्य वसुनन्दि ने इन सातों व्यसनों को पाप बताया है । पाप धर्म का शत्रु है। अतः पापरूपी शत्रु के विनाश तथा धर्मरूपी मित्र की सुरक्षा के लिए सप्त व्यसन-त्याग आवश्यक है। अन्यथा, पापरूपी राजा सप्त व्यसनरूपी सप्तांगसेना द्वारा धर्म का नाश करेगा । अतः इन्हीं सात व्यसनों पर क्रमशः ७ प्रवचन देने का विचार है। आज सर्वप्रथम व्यसन-धूत--जूआ पर प्रवचन दिया जा रहा है। महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में चूत के व्यसन से मुक्त होने की For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ६५ 'प्रेरणा दी है। गौतमकुलक का यह ७१वां जीवनसूत्र है। इस जीवनसूत्र का शब्दात्मक रूप इस प्रकार है जूए पसत्तस्स धणस्स नासो अर्थात्-द्यूतक्रीड़ा में आसक्त पुरुष के धन का नाश हो जाता है। द्यूत क्यों प्रारम्भ हुआ? यह पापकारी क्यों है ? चूत से कौन-कौन से धन का नाश होता है ? द्यूत से मानव-जीवनरूपी धन कैसे नष्ट हो जाता है ? छ त क्या है ? इसके प्राचीन और वर्तमान कौन-कौन से प्रकार हैं, जिनसे बचना आवश्यक है ? इन सब पहलुओं पर मैं गहन चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। द्यूतक्रीड़ा क्यों प्रारम्भ हुई ? प्राचीनकाल में यह आम मान्यता थी कि मनुष्य को अपनी उदरपूर्ति केवल अपने नैतिक पुरुषार्थ द्वारा उपार्जित धन से ही करनी चाहिए। मुफ्त के टुकड़े तोड़ना पापवृत्ति के अन्तर्गत समझा जाता था। प्रत्येक व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में यह बात भली-भाँति बैठ गई थी कि बिना श्रम से प्राप्त धन का उपयोग मनुष्य को चरित्र एवं व्यवहार; दोनों ही दृष्टियों से निम्नकोटि का बना देता है। किसी भी मनुष्य लिए प्रयुक्त 'हरामखोर' या 'हरामजादा' शब्द एक प्रकार की गाली के समान माना जाता था। माताएँ अपने बच्चों को कहीं भी मुफ्त में खाने का कठोर निषेध करती थीं। बिना परिश्रम से प्राप्त धन अनैतिक, निन्दनीय और समाज-व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने वाला समझा जाता था। यद्यपि सिर्फ साधु-संन्यासी, ऋषि-मुनि आदि त्यागीवर्ग को भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने का अधिकार है, किन्तु वे भी समाज से जितना उपकृत भाव से लेते हैं, उसके बदले में प्रकारान्तर से समाज को नीति व धर्म के सन्मार्ग में प्रेरित एवं स्थिर करने का तथा तप-संयम में सतत पुरुषार्थ करके उसे अधिक देने का प्रयत्न करते हैं । प्राचीन काल में राजा-महाराजा अधिकारीवर्ग या धनिकवर्ग अपने पास संचित धन को समाज की अमानत समझते थे और उसे केवल समाज-सेवा या समाज-कल्याण के पुण्य कार्यों में लगाते थे। स्वयं राजा जनक, चक्ववेण आदि अपने व्यक्तिगत खर्च के लिए खेती करते थे । कई मुस्लिम शासकों ने भी इस परम्परा को अपनाया था। 'यथाराजा तथाप्रजा' वाली उक्ति के अनुसार आमजनता की मनोवृत्ति भी ऐसी होती थी। जब लोगों ने अपने नीतिमय पुरुषार्थ की कमाई पर रहना स्वीकार किया था, तब अपनी सीमित और सही आमदनी को वे केवल उचित और आवश्यक कार्यों में ही खर्च करते थे। उनका जीवन सादा, संयमनिष्ठ और एवं कमखर्चीला था। परन्तु धीरे-धीरे मनुष्य में सुख-सुविधाएँ बढ़ाने की, आमोद-प्रमोद की वृत्ति जागृत हुई एवं श्रम से उपार्जित करने की वृत्ति कम होती चली गई। फलतः उसके लिए मनुष्य को अनाप-शनाप धन खर्च करने की धुन सवार हुई। भोग-विलास For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ में हर कोई एक दूसरे से बाजी मार लेने का प्रयत्न करने लगा । परन्तु यह सब ईमानदारी की सीमित कमाई में कहाँ सम्भव थे ? 'सुख-शान्ति का मूल धर्म है' इस जीवनसूत्र को वह भूलता गया और 'धन ही एकमात्र सुख-सुविधाओं और सुखोपभोगों का साधन है,' इस विपरीत चिन्तन में प्रवृत्त हुआ । इसके फलस्वरूप उपर्युक्त सुख-सुविधाओं एवं भोग-विलासों की पूर्ति के लिए अल्प समय में, अधिकाधिक धन बिना किसी नैतिक श्रम के प्राप्त करने की चिन्ता सवार हुई । खेती, कारखाना, व्यापार, नौकरी, दूकानदारी आदि धन कमाने के विभिन्न नैतिक उपायों से श्रम करके अधिकाधिक धनोपार्जन करना हरएक के वश की बात नहीं । व्यापार आदि से लक्ष्मी बढ़ती है, पर सुसंयोग हो तभी । अगर भाग्य साथ न दे तो व्यापार में घाटा भी उठाना पड़ता है । फिर व्यापार आदि में पर्याप्त धन लगाना पड़ता है । इतना धन हरएक के पास होता नहीं । पैसा लगा दिया जाने पर भी कमाई अनिश्चित रहती है । कभी-कभी अपने व्यापार-धंधे में सहायक के रूप में रखे हुए मुनीम, गुमाश्तों, या कर्मचारियों पर बराबर ध्यान न दिया जाय तो वे किसी न किसी तरह से व्यापार-धंधा चौपट कर देते हैं या समय पर ठीक तरह से काम न करने के कारण दूकानदारी का भट्टा बिठा देते हैं । ऐसी परिस्थिति में सुखोपभोग या सुख-सुविधाओं की इच्छा हवा हो जाती है, दुश्चिन्ताएँ आकर घेरा डाल देती हैं । फलतः मनुष्य न तो सुख-शान्ति से सो सकता है, न खा-पी सकता है और न ही निश्चिन्तता से बैठ सकता है । ऐसी स्थिति में मनुष्य की दृष्टि चोरी, ठगी, झूठ - फरेब, बेईमानी, रिश्वतखोरी आदि अनैतिक धंधों पर पड़ी । परन्तु इन अनैतिक तरीकों को अपनाना कानूनीतौर पर अपराध गिना जाता है। कानूनी रूप से निषिद्ध होने से इन्हें सरेआम नहीं किया जा सकता था, क्योंकि इनके करने में हमेशा ही राजदण्ड और अपयश का भय बना रहता है । इन सब खतरे के मार्गों से छुटकारा पाने और अपनी सुखोपभोग - लालसा की पूर्ति करने हेतु मनुष्य की कल्पनाशक्ति ने दौड़ लगाई और जूए को बिना किसी खतरे के एवं बिना श्रम के धन कमाने का आसान तरीका समझा और इसे अपनाया । यही वर्तमान में जूए के आविष्कार की कहानी है । किसी भी प्रकार की चिन्ता या खतरे के कुछ भी धन लगाये बगैर, बिना मेहनत के तथा किसी की सहायता लिए बिना आसानी से धन कमाने हेतु मनुष्य की स्थूल बुद्धि ने जुए को उपयुक्त व्यवसाय समझा । जुआ क्या है, क्या नहीं ? इस दृष्टि से जूआ धन कमाने का वह आसान एवं अनैतिक तरीका है, जिससे मनुष्य मुफ्त में, बिना श्रम के शीघ्र ही मालामाल हो जाये । परन्तु जूए में सदा जीत हो हो, ऐसी बात नहीं; बहुत बार हार भी होती है, कभी जरा-सा कमाता है, अधि For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ६७ कांशतः खोता है । अतः जिस कार्य को करने में लाभ-हानि की गारन्टी न हो, केवल कथित भाग्य ही जिसका आधार हो, उसे जूए की संज्ञा दी जाती है । अमरीका के विख्यात लेखक रॉबर्ट डी० हरमेन (Robert D. Herman) ने अपनी पुस्तक Gambling में जूए की कई व्याख्यायें दी हैं। उनमें से एक-दो व्याख्याएँ यहाँ दे दूं तो ठीक रहेगा "Gambling is to be a form of deviation, a cultural aberration, reactive to a context of deprivation." -जूआ एक पथभ्रष्टता का रूप है, या सांस्कृतिक पथ से विचलित होना है, अथवा धन-अपहरण का एक प्रतिक्रियात्मक द्वन्द्व है। जूए से पथभ्रष्टता इसलिये होती है कि धन कमाने के जो नैतिक तरीके हैं या जो अभिनव औद्योगिक जीवन है, उस पथ से मनुष्य भटक जाता है। धन कमाने की धुन में वह अपनी संस्कृति और धर्म के मार्ग से विचलित हो जाता है तथा धन को बिना श्रम से खींचने वाले एक मनोरंजक एवं प्रतिक्रियाजनक अनैतिक व्यवसाय में प्रवृत्त हो जाता है । सभी धर्म एक स्वर से जूए को अनैतिकता और मुफ्तखोरी बढ़ाने वाला व्यवसाय कहते हैं । यह विपत्तियों की जड़ है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है-'अट्ठावयं न सिक्खेज्जा ।' जूआ खेलना मत सीखो! जैनधर्म में इसे खेलना तो दूर रहा, इसका प्रशिक्षण लेना भी मना है । ऋग्वेद में भी इसका स्पष्ट निषेध हैअक्षर्मा दीव्यः-पासों से मत खेलो। 'Gambling' में ईसाईधर्म का मत दिया है-"According to the church, Gambling is immoral only." ईसाई चर्च के अनुसार जूआ केवल अनैतिक है।' जूआ कितना घातक है, मानव-जीवन के लिए ? इसके लिए सत्येश्वर गीता का परामर्श देखिए जूआ बुरी बलाय है, मन, तन, धन की घात । मुफ्तखोर जीवन बने, चिन्तामय दिनरात ॥१५२२॥ आई तब शैतानियत, मिला मुफ्त का माल । आई तब हैवानियत, जबकि हुए कंगाल ॥१५२३॥ हुई मुफ्तखोरी बना, जूआ का संसार । जग की कुछ सेवा नहीं, धन की मारामार ॥१५२४॥ - भावार्थ स्पष्ट है । वास्तव में जूआ तन, मन और धन का नाश कर देता है। For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ जूए के मूल में मनोवृत्ति यद्यपि आज जूए (Gambling) पर सरकारी प्रतिबन्ध है। जुआ खेलना कानूनन अपराध है, पकड़े जाने पर इसमें भी राजदण्ड मिलता है । इसमें सभी खेलने वालों का स्वार्थ निहित होता है । इसलिए परस्पर विरोध न होने से झटपट कानून की पकड़ में आना मुश्किल होता । यदि पकड़े भी गये तो थोड़ी-बहुत रिश्वत से या थोड़े-से जुर्माने से पिण्ड छूट जाता है । इस प्रकार चोरी-छिपे प्रायः हर जगह एक या दूसरे रूप में यह बुराई समाज में दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। मुफ्त में, बहुत जल्दी, ढेरों रुपये मिलने की हवस के शिकार लोग एक या दूसरे प्रकार से जूए पर दाँव लगाते देखे जा सकते हैं । सभी प्रकार के जूओं के मूल में एक ही मनोवृत्ति काम करती है और वह हैअल्प अवधि में, बिना परिश्रम के अधिक से अधिक धन प्राप्त करना । आज इस मनोवृत्ति के लोग यह भी कहते देखे जाते हैं कि "नौकरी या छोटेमोटे धंधे में सीमित आय के कारण घर खर्च चलना भी कठिन हो जाता है, फिर आज नौकरी - उच्च वेतनमान की स्थायी नौकरी हर किसी को कहाँ मिलती है । जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ शिक्षित बेरोजगार इतने बढ़ते जा रहे हैं कि सबको आजीविका के पर्याप्त साधन नहीं मिलते। मेहनत मजदूरी करके सीमित आय से अपना गुजारा चलाना बिना परिश्रम के बैठे-बैठे खाने वालों के लिए कठिन है । निर्धनता एव अयोग्यता के कारण सभी लोग व्यापार-धंधा कर नहीं सकते । ऐसी स्थिति में जूआ ही हमारे लिए वरदान -रूप व्यवसाय है, इनमें न तो अधिक पूँजी चाहिए, और न ही व्यावसायिक अनुभव एवं बौद्धिक क्षमता अपेक्षित है । इसलिए बहुसंख्यक लोगों की बेकारी और बेरोजगारी मिटाने का काम जुआ ही तो कर सकता है । ऐसी स्थिति में हम धनोपार्जन के इस सदाबहार स्रोत को क्यों नहीं अपनाएँ ?” जुआरी में इतनी दूरदर्शिता कहाँ ? परन्तु जूआ खेलने या दाँव लगाने वाले लोगों में दूरदर्शिता से सोचने की बुद्धि नहीं होती कि क्या इस मुफ्तखोरी बढ़ाने वाले व्यवसाय से मेरा, मेरे परिवार का, मेरे राष्ट्र और समाज के जीवनधन का विनाश नहीं होगा ? क्या जूए से बिना श्रम किये मुफ्त में मिलने वाले धन से मेरी, मेरे परिवार एवं जाति के लोगों की बुद्धि भ्रष्ट नहीं होगी ? संतान पर मुफ्तखोरी के कुसंस्कार एक बार पड़ने पर फिर उनसे श्रम करके जीवन निर्वाह करना क्या कठिन नहीं हो जाएगा। क्या यह अनैतिक व्यवसाय मेरे और मेरे परिवार के पूर्वजों से प्राप्त धर्म और नीति के सुसंस्कारों को मटियामेट नहीं कर देगा ? अथवा क्या यह धंधा मेरी एवं पूर्वजों की कमाई हुई सम्पत्तिको स्वाहा तो नहीं कर बैठेगा ? जूए के व्यवसाय से लोग भले ही थोड़ा-सा लाभ प्राप्त कर लें, परन्तु अधिकतर ऐसे परिवार बर्बाद होते देखे गये हैं, और यह भी देखा गया है कि जुआरी में दूरदर्शिता से अपने हानि-लाभ को-आर्थिक हानि-लाभ ही नहीं, धार्मिक, नैतिक For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूत में आसक्ति से धन का नाश : ६९ एवं सांस्कृतिक हानि-लाभ को सोचने की बुद्धि प्रायः नहीं होती । यही कारण है कि अधिकांश जुआरी एक बार जूए में बर्बाद हो जाने पर भी नहीं संभलते, वे अमीर होने के चक्कर में पुनः-पुनः दाँव लगाते रहते हैं, किन्तु दुर्भाग्य के शिकार होकर वे अन्त में गाँठ की समस्त पूँजी गंवा बैठते हैं, यहाँ तक कि घर के बर्तन, कपड़े तथा अन्य जरूरी सामान भी जूए में लगा देने से उनके पास कुछ भी शेष नहीं रहता। अतः वे हाथ मल-मलकर पछताते हैं, रोते-झींकते हैं। किन्तु फिर रोने-पीटने से क्या होता, जब चिड़िया चुग गई खेत ? जूआ खेलने से पहले वे नहीं सोचते, बीच में जब दाँव हार जाते हैं, तब भी नहीं संभलते और अन्त में जब सर्वस्व खो बैठते हैं, तब उनकी बुद्धि थोड़ी-सी काम करती है, किन्तु पश्चात्ताप के सिवा तब क्या करने को रह जाता है ? जूए का धन : रहता कितने क्षण ? मृच्छकटिक नाटक में जुआरी की मनोवृत्ति का परिचय देते हुए कहा गया है न गणयति पराभवं कुतश्चित्, हरति ददाति च नित्यमर्थजातम् । नृपतिरिव निकाममायदर्शी, विभववता समुपास्यते जनेन ॥ अर्थात्-जुआरी अपनी हार या तिरस्कार की कोई परवाह नहीं करता। वह प्रतिदिन जुए में धन हार जाता है, और थोड़ा-बहुत जीतता है तब पैसा पानी की तरह बहाता है, दूसरों को धन देता रहता है । वह हमेशा राजा की तरह अपनी आय बहुत अधिक मानने का आदी हो जाता है, इसलिए उसके चारों ओर वैभवशाली या वैभवाकांक्षी लोग मँडराते रहते हैं । हारे हुए जुआरी की अपेक्षा जीता हुआ जुआरी और अधिक खतरनाक साबित होता है । अनायास ही बिना परिश्रम के बहुत-सा धन मिल जाने से वह बिना सोचे-विचारे खर्च करने के लिए उतावला हो जाता है । वह प्रायः समाज में प्रतिष्ठा बरकरार रखने हेतु जीतते ही अनाप-शनाप खर्च कर डालता है। पाश्चात्य विचारक कॉल्टन (Colton) के शब्दों में कहूँ तो "Gambling is the child of avarice but the parent of prodigality." "जूआ लोभवृत्ति का बच्चा है, जबकि फिजूल-खर्ची का मां-बाप है।" शुभकार्यों में पैसा लगाने या सुरक्षित रखने की बात उसके मस्तिष्क में आती ही नहीं। ढूढ़ने पर ऐसे हजारों उदाहरण मिल जाएँगे, जहाँ जूए की कमाई ने मनुष्य को पृथभ्रष्ट किया है; विलासिता और अन्य दुर्व्यसनों में जूए में जीती For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ सम्पत्ति बर्बाद कर दी । प्रायः जीता हुआ जुआरी अपने आपको समाज की नजरों में समृद्ध और सम्पन्न दिखाने के लिये इस प्रकार से फिजूलखर्ची करता है । वसुनन्दि श्रावकाचार में ठीक ही कहा है अक्खेहि णरो रहिओ ण मुणइ सेसिंदिएहिं वेएइ । जूयंधो ण य केणवि जाणइ संपुण्णकरणो वि ॥ अर्थात् — आँखों से रहित मनुष्य यद्यपि देख नहीं सकता, तथापि शेष इन्द्रियों से तो जानता है । मगर जुआरी नेवादि समग्र इन्द्रियाँ होने पर भी द्यूत - क्रीडा में सर्वांशत: अन्धा हो जाता है । अनैतिक तरीकों से कमाया हुआ धन धार्मिक विधान के विपरीत है, इसलिए वह फिजूलखर्ची में तो जाता ही है, साथ ही दुष्कर्मोदय से या आधिदैविक प्रकोप की वजह से बीमारी, मुकदमा, शत्रुता, किसी आकस्मिक हानि, कुटुम्बीजनों द्वारा हड़पे जाने, या बैंक, आसामी आदि के फेल हो जाने या किसी चोर - डाकू या जबर्दस्त आदमी द्वारा छीन लेने, लूट लेने या कर्ज लेकर खा जाने से अन्त में वह धन ठिकाने लग जाता है । यह तो निश्चित है कि जूए या सट्टे जैसे अनैतिक तरीके से कमाया हुआ धन बाढ़ के पानी की तरह अधिक दिन टिकता नहीं, और न वह फलदायी ही होता है । अगर ऐसा हुआ होता तो चोर, उठाईगीरे, जेबकतरे, जुआरी आदि ये सब कभी के लखपती - करोड़पती बन गये होते । पर वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है । ये लोग हमेशा ही तंगी एवं अभाव की स्थिति महसूस करते हैं । और तो और, कई बार फाके करने तक की नौबत आ जाती है । सारांश यह है कि अनैतिक तरीकों से कमाया हुआ पैसा कभी फलदायी नहीं होता । वह सदा इसी प्रकार बर्बाद होता रहा है, आगे भी होता रहेगा । मैं एक ऐसे परिवार को जानता हूँ जिसके यहाँ पहले लक्ष्मी अठखेलियाँ करती थी, परन्तु जब से उसे जूए या सट्टे का चस्का लगा, तब से बर्बाद होना शुरू हो गया और अन्त में वह दर-दर का मोहताज हो गया । रोटी के भी लाले पड़ गये । फिर भी अपनी पुरानी द्यूत-क्रीड़ा की मनोवृत्ति उसने नहीं छोड़ी। किसी को भी जरा- से प्रलोभन का सब्जबाग दिखाकर वह रुपये उधार ले लेता, फिर जूआ खेलता, हारता और अन्त में वह ऋण नहीं चुकाया जाता था । इस प्रकार जूए से अर्थनाश और मनस्ताप दोनों ही होते हैं । अतः बेकारी और बेरोजगारी की समस्या का हल जूआ कतई नहीं है, बल्कि जूए से बेकारी निवारण तो क्या होगी, मनुष्य ही बेकार, निकम्मा, निठल्ला, और हरामखोर बन जाता है । जूआ खेलने वाला आलसी बनकर पड़ा रहता है । उसे हाथ-पैर से श्रम करके खाने में लज्जा महसूस होती है । वह बाबू बनकर For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ७१ बन-ठनकर जीना चाहता है। किन्तु न तो वह सच्चे माने में बाबू बन पाता है, न ही सुखी जीवन जी सकता है । शेखचिल्ली की तरह वह झूठा सुख-स्वप्न देखता है । जिसे एक बार जूए की लत लग जाती है, फिर किसी के रोके वह रुकता नहीं। जूए या सट्टे की लत उसे मृगतृष्णा की तरह अर्थप्राप्ति की आशा जगाती रहती है, और जूए के व्यसन में मूढ़ बनकर अंधी दौड़ लगाता रहता है। जूए से एकाध बार कुछ धन प्राप्त हो जाता है, लेकिन उतना या उससे भी ज्यादा धन चला जाता है। जिसे एक बार जूए की आदत पड़ गयी वह राक्षसी की तरह उसके ऐसी चिपकती है कि जीवन का सारा सत्त्व चूसकर ही दम लेती है। इसलिये जूए से बेकारी निवारण का दावा करना व्यर्थ है। जूए में अधिकतर धन नष्ट होने पर मनुष्य बेकार ही नहीं, बेइज्जतदार, बेकरार और बेरोजगार भी हो जाता है। कोई भी उस पर विश्वास नहीं करता, न कोई उसे अपना धन देकर रोजगार-धंधा दिलाता है, न ही कोई उसे अपने यहाँ नौकर रखना पसंद करता है। समाज में वह अप्रतिष्ठित, अविश्वस्त हो जाता है। इस प्रकार जए से भौतिक धन के अतिरिक्त जीवन-धन, सम्मानधन एवं चरित्रधन आदि सभी धन नष्ट हो जाते हैं । एक आचार्य ने कहा है श्रियस्तत्र न तिष्ठन्ति, यत्र द्यूतं प्रवर्तते। न वृक्षजातयस्तत्र, विद्यते यत्र पावकाः ।। -जहां चारों ओर आग लग जाती है, वहाँ वृक्षों के झुंड नहीं टिकते; वैसे ही जहाँ द्य त की प्रवृत्ति होती है, वहां किसी भी प्रकार की 'श्री' नहीं टिक सकती। जूए के साथ लगे अन्य दुर्गण जूए में बराबर हारने पर भी जुआरी चेतता नहीं, वह जूए या सट्टे में बराबर प्रवृत्त होता है। कहावत है-'हारा जुआरी दुगुना खेले' यद्यपि हार जाने पर वह मुंह दिखाने लायक नहीं रहता, फिर भी वह ढीठ और निर्लज्ज बनकर बेहिचक जूए का दांव लगाता है । उसके परिवार वाले, समाज के हितैषी लोग उसे जूआ न खेलने के लिए बार-बार समझाते हैं, झिड़कते हैं, फटकारते हैं, फिर भी वह किसी की नहीं मानता, न किसी को कुछ गिनता है । वसुनन्दि श्रावकाचार में ठीक ही कहा है ण गणेइ इट्ठमित्तं, ण गुरु, ण य मायरं पियरं वा। जुवंधो वुज्जाइं कुणइ अकज्जाई बहुयाइं ॥ सजणे य परजणे वा देसे सव्वत्थ होइ णिल्लज्जो। माया वि ण विस्सासं वच्चइ जुयं रमंतस्स ॥ जुआ खेलने में अंधा मनुष्य अपने इष्टमित्र को कुछ नहीं गिनता, न गुरु को और न ही माता-पिता को कुछ समझता है । द्यू तासक्त मनुष्य स्वच्छन्द होकर पापमय For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ अनेक अकार्य करता रहता है । जूआ खेलने वाला स्वजन में, परजन में, या स्वदेश में या परदेश में सर्वत्र निर्लज्ज हो जाता है और बेखटके जुआ खेलता है। जूआ खेलने वाले का विश्वास उसकी माता तक नहीं करती दूसरे लोग तो उसका विश्वास करते भी क्या ? जूआ : धर्म का शत्र जहाँ जीवन में चूत का शौक लगा, वहाँ मनुष्य नीति-अनीति, हिंसा-अहिंसा, धर्म-अधर्म का विवेक भूल जाता है। जूए के कारण बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। हराम की कमाई खाने की आदत पड़ जाने से जुआरी अपने धन कमाने के क्रियाकलापों को केवल जूए तक ही सीमित नहीं रखता, अपितु अन्य अनैतिक साधनों को जूए के समकक्ष मानकर उन्हें भी अपनाने लगता है। एक बार दिल खुल जाने पर वह बड़े से बड़ा अपराध करने में भी नहीं चूकता। जूए के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ने पर पहले-पहल वह अपने घर की चीजें, स्त्री के जेवर आदि चुराकर बाजार में बेचकर अपना काम चलाता है । घर बर्बाद करने के बाद अड़ौसी-पड़ौसियों पर हाथ फेरना आरम्भ कर देता है । अनेकों बार बीसियों लोगों से तरह-तरह के ढोंग रचकर ऋण के रूप में रुपये ऐंठ लेता है और फिर लौटाने का नाम ही नहीं लेता। काफी अर्से तक छुटपुट धोखा-धड़ी करते रहने के बाद तो ऐसी स्थिति हो जाती है कि ये लोग बड़े पैमाने पर ठगी, चोरी, डकैती आदि सब कुछ करने लगते हैं। जूए के इन दूरगामी परिणामों को देखते हुए इसे बुराइयों का विषबीज कहा जाए या धर्म का शत्र, कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। जूए की लत से होने वाली हराम की कमाई की ललक ही समस्त पापों की जननी है। जिस अनुपात में यह मनोवृत्ति विकसित होगी, उसी अनुपात में जुआरी का सत्यानाश निश्चित है। वैदिक महाभारत का एक प्रसंग है-पाण्डवों के बाद युवराज परीक्षित राजसिंहासन के अधिकारी बने। वे धर्मपूर्वक शासन करने लगे। परीक्षित राजा ने सुना कि उनके राज्य में कलियुग का प्रवेश हो गया है। इससे वे क्षुब्ध हुए क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि कलि का प्रभाव मनुष्य को धर्म और नीति के मार्ग से पदच्युत कर पतित बना देता है, लेकिन तत्क्षण ही उन्हें आशा भी बंधी कि उन्हें अपने शौर्य-पराक्रम को परखने का अवसर मिला है। __परीक्षित नप हाथ में धनुष-बाण लेकर अपने चुने हुए सैन्याधिकारियों के साथ कलियुग को खोजने और उससे युद्ध कर उसे परास्त करने के लिए निकल पड़े । जहाँ भी वे गये वहाँ उन्हें अपने पूर्वजों तथा श्रीकृष्ण का यशोगान सुनने को मिला । उनकी अचिन्त्य शक्ति के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा से उनका हृदय नत हो उठता था। परीक्षित राजा गाँव-गाँव, नगर-नगर और वन-वन में घूमते फिरे लेकिन कहीं भी उन्हें कलि न मिला। एक जगह गाय और बैल कुछ बातें कर रहे थे। बैल के For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ त में आसक्ति से धन का नाश : ७३ चारों पैरों में सिर्फ एक ही पैर ठीक था, बाकी तीन पैर टूटे हुए थे। गाय बैल से पूछ रही थी-"आपके तीन पैरों का क्या हुआ ?" बैल ने कहा- "कल्याणि ! कलियुग का आगमन हुआ था। उसने आते ही मेरे तीन पैर काट डाले। और मुझे लगता है कि अब चौथा भी अधिक समय तक नहीं रह पायेगा।" गाय- "क्यों आर्य?" बैल-"आखिर कलि ही तो ठहरा ! और आप भी तो अब कृश हो गई हैं।" इन दोनों को देख परीक्षित ने सम्मानपूर्वक परिचय पूछा तो जाना कि पृथ्वी गाय के रूप में है, और धर्म वृषभ के रूप में है। धर्म के सत्य, शौच, करुणा और सेवा, इन चार चरणों में से तीन पैर विक्षत हो गए हैं । पृथ्वी भी कृश और क्षीण है। परीक्षित ने उनसे पूछा- "कलियुग कहाँ रहता है ?" धर्म ने बताया- "कलि मन में रहता है। और यहीं से मनुष्य को भ्रान्त करता है, जिससे उसे धारण करने वाले धर्म की यह दशा हुई।" परीक्षित ने कलि को खोजा और जब वह शिशु के रूप में मिला तो उसे मारने को उद्यत हुए, मगर कलि ने चीत्कार कर कहा-"क्षमा करें, आर्य ! मैं आपकी शरण हूँ।" ___ शरणागत प्रतिपाल के आदर्श से प्रेरित परीक्षित के हाथ वहीं रुक गये । परन्तु उन्होंने कहा-“मैं तुम्हें इसी शर्त पर क्षमा कर सकता हूँ कि तुम पृथ्वी पर से चले जाओ।" कलि बोला-"कहाँ चला जाऊँ ? नियति ने मुझे पृथ्वी पर रहने का आदेश दिया है। हाँ, आप जो स्थान बतायें, वहीं रहने लगूगा, वहाँ से रंचमात्र भी इधर-उधर नहीं होऊँगा।" इस पर राजा परीक्षित ने कहा-"ठीक है, तुम्हारे रहने के लिए मैं ५ स्थान नियत कर देता हूँ-(१) धूत (छल), (२) मद्यपान (व्यसन), (३) परस्त्री-संग (व्यभिचार), (४) हिंसा और (५) सुवर्ण (लोभ) जहाँ हों, वहीं तुम रहो।" कहते हैं, तब से कलि इन पाँचों स्थानों पर निवास करने लगा। इस पौराणिक कथा का आशय यह है कि कलि (पाप) धर्म का शत्र है। उस कलि का निवास सर्वप्रथम चूत में है । जहाँ द्यूत होता है, वहाँ स्वर्ण का लोभ मनुष्य में आ ही जाता है । स्वर्ण आता है, वहाँ मद्यपान, व्यभिचार और हिंसा; इन तीनों दोषों के आते देर नहीं लगती। इसलिए द्यूत धर्म का शत्रु है, क्योंकि वह धर्म के शत्र ओं-छल, व्यभिचार, लोभ, हिंसा, एवं व्यसनों आदि को ले आता है। जूआ : निर्दयता एवं कठोरता का जनक जूआ खेलने का जो मनुष्य आदी हो जाता है, उसे यदि कोई मना करता है तो वह उससे लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जाता है । उस समय वह यह नहीं सोचता कि यह मेरा हितैषी है, माता-पिता आदि आप्त पुरुष हैं, गृहिणी या पुत्र-पुत्री आदि For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ मेरे शुभचिन्तक हैं । वह उस समय आवेश में आकर निर्दयतापूर्वक दुष्कृत्य तक कर डालता है । प्रेम, क्षमा, दया, सेवा, सहानुभूति, बन्धुता आदि सद्गुणों, इतना ही नहीं, मनुष्यता तक को तिलांजलि दे बैठता है । निषेध राज्य का स्वामी नल राजा सुखपूर्वक राज्य करता था । उसके भाई कुबेर को राज्यलोभ ने आ घेरा । नल राजा को फुसलाकर जुआ खेलने के लिए तैयार कर लिया । उस समय नल राजा को उसकी रानी दमयन्ती, प्रजा एवं हितैषी जनों ने जुआ न खेलने के लिए बहुत समझाया; परन्तु भाई के प्रति मोहवश नल ने किसी की भी न मानी । बुद्धि में विकार आ जाने पर हितकर बात भी उलटी लगती है । कुबेर ने चालाकी से इस प्रकार पासें फेंके कि नल बाजी पर बाजी हारता ही गया । उसने क्रमश: अपना धन, बहुमूल्य सामग्री और राज्य तक सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। अब क्या था ? कुबेर ने अपना अभीष्ट मनोरथ पूर्ण होते ही नल से निष्ठुरतापूर्वक साफ-साफ कह दिया- -" अब राज्य मुझे सौंप दो और तुम यहाँ से रवाना होकर अन्यत्र चले जाओ ।" - यह है—द्यूत के कारण निर्दयता और कठोरता का आगमन ! नल राजा भी बुद्धिभ्रष्ट होकर अपनी चिरसंगिनी गृहिणी दमयन्ती को भी निष्ठुरतापूर्वक वन में अकेली छोड़कर चला गया । नल राजा को जूए के फलस्वरूप कितने कष्ट उठाने पड़े ! सुना है, एक जगह दो भाई ताश के पत्तों से जुआ खेल रहे थे । उनमें से एक जानबूझकर चालाकी करने लगा । दूसरे भाई ने उसे टोका । इस पर कहासुनी हो गई और पहले दूसरे भाई के पेट में छुरा भौंक दिया । फलतः उसने वहीं दम तोड़ दिया । कहना न होगा कि जूआ क्रूरता पैदा करने वाला एक भयंकर दुर्गुण है । जुए में हारने पर जब परिवार वाले उसे कोसते हैं, तो वह एकदम कुपित होकर सर्प की तरह उन पर टूट पड़ता है, क्रोध में आग-बबूला होकर पास में खड़ी माँ, बहन, पुत्री या स्त्री तक को पीट देता है । जुआरी पर जब कर्ज चढ़ जाता है और साहूकार उससे तकाजा करने आता है तो वह झूठी कसमें खाता है, झूठे वचन देता है, धोखाधड़ी करता है, अपशब्द बोलता है । वसुनन्दि श्रावकाचार में जुआरी की इस क्रूरता और असत्यता की मनोवृत्ति का स्पष्ट चित्रण किया गया है । ' जूआ : नैतिक धन का विनाशक जूआ वैसे तो आसान धंधा लगता है, परन्तु इसके कारण मनुष्य की स्वार्थवृत्ति और लोभवृत्ति भयंकर रूप से बढ़ जाती है, तब यह नैतिक धन को स्वाहा कर देता १. अलियं करेइ, सबहं जंपइ मोसं भणेइ अइदुट्ठं । पासम्म बहिणि मायं सिसु पि हणे कोहंधा ॥६७॥ For Personal & Private Use Only - वसुनन्दि श्रावकाचार Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ७५ है । मनुष्य का नैतिक धन तो तभी समाप्त होने लगता है, जब जुआरी झूठ बोलता है, झूठे वादे करता है, बोलकर बदल जाता है, धोखा-धड़ी करता है, हराम की कमाई खाता है । इस प्रकार जूए में हार और जीत दोनों के कारण उसका नैतिक धन नष्ट होता है । हार जाने पर चोरी, डाका, लूट, बेईमानी, जेबकटी, तस्कर व्यापार आदि को अपनाकर नैतिक पथ से भ्रष्ट हो जाता है । तिलोक काव्य संग्रह में भी जूए के कारण मनुष्य के नैतिक पतन का स्पष्ट चित्रण किया गया है--- " जूवा रचे नर नीच अपावन हिरि, सिरि, लक्ष्मी मूल मावे | लोक मांही अपवाद वदे बहु लहेणायत माँगन को धावे ॥ गाले देवे कायदो नहीं राखत, मित्र सनेही कदेय न आवे । जूवा के खेल को मेल दे चातुर, कहत तिलोक तो लोक सरावे ॥' जूए में सर्वस्व हार जाने के बाद जुआरी की हालत भिखारी की सी दयनीय हो जाती है । अनेक चिन्ता, दुःख और उपाधियों से वह घिर जाता है । वह धन और सुबुद्धि दोनों खोकर कभी-कभी आत्महत्या तक कर बैठता है । वह घर में से पत्नी के गहनों तथा कीमती सामग्री को चोरी-छिपे उठाकर ले जाता है और जूए में हुई हा की पूर्ति करता है। जुआरी की साख उठ जाती है, उस पर कोई विश्वास नहीं करता । समाज में किसी से कर्ज के रूप में उसे धन नहीं मिलता । जूए जैसे अनैतिक धंधे के लिए सरकार भी कर्ज नहीं देती । अन्ततोगत्वा, वह पत्नी से गहनों आदि की माँग करता है । इन्कार करने पर गृह कलह का सूत्रपात होता है, छीना-झपटी, मारपीट, हत्या, आदि अपराध जूए की बदौलत होते हैं । यहाँ तक कि सब तरह से निराश होने पर जुआरी गला घोंटकर, ट्रेन के नीचे आकर, पानी में डूबकर या जहर खाकर आत्महत्या कर बैठता है, जो स्पष्टत: नैतिकता का दिवाला है । मैंने समाचारपत्र में पढ़ा था- एक सटोरिये ने मालामाल हो जाने की धुन में अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। मगर जब वह सब कुछ हार गया तो सट्ट हुई क्षति की पूर्ति के लिए उसने पत्नी से गहने माँगे । पत्नी ने उस पर अविश्वास प्रगट करते हुए गहने बिलकुल नहीं दिये । फलतः वह निराश होकर स्थानीय तालाब में डूबकर मर गया । 1 जुआरी जब जीत जाता है, तब भी नैतिक धन का नाश करने से नहीं चुकता । वह अपनी झूठी शान बघारता है, अपनी बढ़-चढ़कर प्रशंसा करता है, दूसरों का अपमान कर बैठता है, मान कषाय से घिर जाता है । विजय के नशे में वह लोगों को शराब - मांस की दावत देता है । वेश्या की महफिल लगवाता है, सुन्दरियों १. तिलोक काव्य संग्रह, प्रकीर्णक काव्य ४२ For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ के साथ व्यभिचार में भी प्रवृत्त हो जाता है। कई बार जीत जाने पर उसका लोभ अत्यधिक बढ़ता जाता है। इसी प्रकार जूए में हुई हार और जीत दोनों ही उसके नैतिक धन का सर्वनाश करने के कारण बनते हैं। जूए के व्यसन से नैतिक अधःपतन का सुन्दर चित्रण श्री अमृतकाव्य संग्रह में किया गया हैजूवा का व्यसन कुजस करन, सुखसम्पति हरन शिर पातक चढ़ावे है। कलह-दारिद्र्य को निकेत दुःखहेत, भय-आपदा को खेत शुभक्रिया को नसावे है । स्वजन कुटुम्ब नहीं प्रीति और प्रतीत करे, भीति ना करम की, अनीति ही सुहावे है। कहे अमोरिख सीख या हमारी मान, तजि दे जूवा का खेल, जाते सुख पावे है ॥ भावार्थ स्पष्ट है। वस्तुतः जूआ नैतिक धन्धों या आजीविका के नैतिक उपायों को छुड़ाकर अनीतिमय धंधों में प्रवृत्त करने वाला है। जब मनुष्य जूआ, सट्टा, वादा, गैर-हाजिर माल का सौदा आदि में से किसी भी अनैतिक धंधे को अपनाता है तो अपने पैतृक व्यवसाय या प्रचलित व्यवसाय, दूकान या अन्य आजीविका के नैतिक उपायों से किनाराकशी कर लेता है, अपने व्यावसायिक कार्यों में मन नहीं लगाता, विलम्ब से दूकान या फर्म में जाता है, लापरवाही करता है। परिवार वाले यदि उससे धूत का अनैतिक धंधा छुड़ाकर किसी नैतिक धंधे में लगा भी दें तो वह उससे ऊबकर भाग खड़ा होता है । निष्कर्ष यह है कि जूआ मनुष्य का मन नैतिक व्यवसाय से भटका देता है। ___ अतः जूआ मनोविनोद नहीं, अपितु मन को अनैतिक मार्ग में भटकाने वाला मनोविकार है। इसीलिए साधु-संत सब प्रकार के द्यूत का त्याग करने के लिए कहते हैंजुआ का खेल मत खेले, यू संत कहे समझाय के ॥ध्र व॥ जुआ और सट्टा यह दोई, इन कामों में लगा जो कोई, वह निज सम्पत् बैठा खोई। कुछ लंबी नजर लगाय के, तू सोच हिताहित पहले ॥१॥ करते रंज दाव जब हारे, मन में खोटी नीति विचारे, निर्दय होय मनुष्य को मारे, कोई मरते शस्तर खाय के, कोई डोलत फिरत अकेले ॥२॥ १. श्री अमृत काव्य संग्रह, सुबोध शतक । For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूत में आसक्ति से धन का नाश : ७७ सब दिनरात सरीखे जाते, परमुख देख-देख पछिताते, कुआचरण जिनके हो जाते। कहें अंगुली लोग बताय के, यह कुल कपूत शठ ठेले ॥३॥ सामाजिक जीवन-धन की क्षति जुआ-सट्टा खेलने वाले लोगों का पारिवारिक जीवन भी अशान्त, क्लेशयुक्त एवं दुःख-दैन्य से परिपूर्ण हो जाता है । पारिवारिक जीवन का धर्मध्यान से रहित होना जीवन की बहुत बड़ी क्षति है । जो परिवार आज तक पूर्वजों की धर्ममय परम्पराओं, मर्यादाओं और सुसंस्कारों से युक्त रहा है, जूआ खेलने वाला व्यक्ति उन सब परम्पराओं, मर्यादाओं और सुसंस्कारों को धीरे-धीरे छोड़ बैठता है। इससे परिवार में, नई पीढ़ी में जो धर्मयुक्त परम्परा एवं मर्यादा के पालन के संस्कार सुदृढ़ होने चाहिए, वे द्यूतकार पिता या भाई की देखादेखी लुप्त हो जाते हैं । पारिवारिक क्लेश तो होता ही है, यह तो अनुभवसिद्ध बात है। समाज में जुआरी का अविश्वास हो जाने से उसकी कई आवश्यक जरूरतें, जिन्हें दूसरों की सहायता से ही पूरा किया जा सकता था, अधूरी रह जाती हैं। प्रायः कोई भी उसकी सहायता करने को तैयार नहीं होता। उसका कारण यह है कि एक तो सहायता करने वाले को बदनामी का भय रहता है, दूसरे रुपये वापिस मिलने की भी गारंटी नहीं रहती। इस प्रकार संकट की विषम घड़ियों में अकेले असहाय पड़ जाने से जूए के व्यसनी भारी कष्ट भोगते हैं। सामाजिक जीवन में यश-प्राप्ति, अर्थसम्पन्नता, कुलाचार, कला, सौन्दर्य, तेजस्विता, मित्र आदि का सहयोग, साधु-साध्वियों की सेवा का लाभ, धार्मिकता, नैतिकता आदि गुणों की आवश्यकता कदम-कदम पर रहती है। इन गुणों से मनुष्य का सामाजिक जीवन उन्नत, यशस्वी, विकसित और सुख-शान्तिसम्पन्न होता है, परन्तु द्यूतव्यसनी व्यक्तियों के जीवन में विकसित सामाजिक जीवन के लिए इन गुणों का लोप हो जाता है । इसीलिए कर्पूरप्रकरण में कहा है "धू तेनाऽर्थ-यशः-कुलक्रम-कला-सौन्दर्य-तेजः-सुहृत्साधूपासन-धर्मचिन्तनगुणाः नश्यन्ति सन्तोऽपि हि । यद्वत् पाण्डुसुतेषु तच्च्युतसुधीष्वादित्यभा-जिते विश्वे किं तमसा स्फुटं घट-पट-स्तम्भादि वा लक्ष्यते ॥ अर्थात्-जूए से मानव में अर्थ, यश, कुलाचार, कला, सौन्दर्य, तेज, मित्र, साधुओं की सेवा, धर्मचिन्तन आदि विद्यमान गुण भी नष्ट हो जाते हैं । अहह ! पाँचों पाण्डव जो सूर्य के समान तेजस्वी और बुद्धिमान थे, जुआ खेलने के कारण तेजोहीन और बुद्धिभ्रष्ट हो गए । संसार में जब सूर्य का प्रकाश नहीं रहता, तब घोर अन्धकार में क्या घट, पट, स्तम्भ आदि दिखाई दे सकते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ सामाजिक जीवन में जीवन-निर्वाहयोग्य धर्मयुक्त अर्थसम्पन्नता गुण है, किन्तु जुआरी धन से खाली हो जाता है, उसके यश पर भी कालिमा छा जाती है, वह अपने कुलपरम्परागत आचार को भी छोड़ देता है, जूए के कारण सीखी हुई कलाओं को भी वह भूल जाता है। अहर्निश चिन्ता के कारण उसका शारीरिक सौन्दर्य और तेज भी फीका पड़ जाता है, उसके मित्र, स्वजन, हितैषी सभी उससे किनाराकशी कर जाते हैं, विपत्ति में पड़ा होने से साधु-संतों की सेवा, धर्मध्यान आदि से वह कोसों दूर हो जाता है। जूए के कारण जहाँ रात-दिन आर्तध्यान-रौद्रध्यान चलता हो, वहाँ धर्मध्यान कहाँ टिक सकता है ? धर्माचरण करना तो और भी दूर की बात है। क्या आप कह सकते हैं पाण्डवों का पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन क्यों छिन्न-भिन्न हो गया था ? क्यों उन्हें भरी सभा में अपमान की कड़वी घूट पीनी पड़ी? अपने सामने देखते ही देखते सती द्रौपदी का चीरहरण हुआ, कोई भी उनके पक्ष में न बोल सका, स्वयं पाण्डव भी बुत की तरह लाचार बैठे रहे, और फिर १२ वर्ष वनवास और १ वर्ष अज्ञातवास का कठोर कष्टकर दण्ड भोगना पड़ा। इन सब विडम्बनाओं से सामाजिक जीवन-धन के विनष्ट होने का क्या कारण था ? एकमात्र छु तक्रीड़ा ही पाण्डवों पर आई हुई विपत्तियों की जड़ थी, जिससे पूर्वोक्त सामाजिक गुणों का विनाश हो गया था। पाण्डवों के जूआ खेलने की कहानी तो आप सब जानते ही हैं। संक्षेप कह द् तो ठीक रहेगा। कहते हैं, द्रौपदी के एक तीखे व्यंग्यवाक्य-'अंधे के पुत्र अंधे ही तो होते हैं। ने दुर्योधन के मन में आग लगा दी और इसका बदला लेने की दृष्टि से दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि से मिलकर पाण्डवों का राज्य हस्तगत करने का एक षड्यंत्र रचा, वह था--पाण्डवों को जूआ खेलने के लिए प्रोत्साहित करना और जूए में हराकर उनसे राज्य, खजाना, तथा अन्य सर्वस्व हस्तगत कर लेना। पाण्डवों की पहली गलती तो तब हुई, जब शकुनि मनोविनोद के लिये जूभा खेलने के लिये उन्हें तैयार करने और प्रोत्साहित करने लगा तभी उस प्रस्ताव को ठुकराया नहीं, उसके लिये स्पष्ट निषेध नहीं किया । लज्जा, बुद्धिभ्रष्टता और लिहाज के कारण पाण्डवों ने उस धूत-क्रीड़ा के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, यह बहुत भयंकर गलती थी। उस समय विदुरजी आदि कई हितैषियों के मना करने और सावधान करने पर भी बुद्धिभ्रष्टतावश उनकी बात न मानी, यह दूसरी गलती हुई। और तीसरी गलती पाण्डवों की यह हुई कि जब पाण्डवों ने राज्य आदि सर्वस्व दाँव पर लगा दिया, तब तो उन्हें जमा बन्द कर देना चाहिए था मगर विपरीत बुद्धिवश अपनी धर्मपत्नी सती द्रौपदी को भी उसकी इच्छा के बिना जूए में दांव पर लगा दिया । इसका मूल्य उन्हें भरी सभा में भयंकर अपमान के रूप में चुकाना पड़ा । जूए For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ७६ के खेल से सम्बन्धित इन भयंकर भूलों के फलस्वरूप पाण्डवों का तेज और सत्त्व नष्ट हो गया । वे यश और श्री से वंचित हो गये, अन्य कलाएँ भी भूल गये, शरीर - सौन्दर्य और सौष्ठव भी लुप्त हो गया, साधु-सन्तों की सेवा एवं धर्माचरण का सुयोग भी कठिन हो गया । १३ वर्ष तक घरबार छोड़कर परिवार और समाज से अलग-थलग होकर कठोर कष्टमय वनवास के रूप में दर-दर की खाक छाननी पड़ी । क्या द्यूत व्यसनासक्त लोग इससे प्रेरणा-पाठ नहीं ले सकते ? द्यूत का विशाल परिवार परन्तु आज कई द्यूतक्रीडा के शौकीन तथा बिना श्रम के धन प्राप्ति के लोलुप यह कहते हैं कि हम क्या पांडवों की तरह अपनी पत्नी, वैभव या सत्ता को दाँव पर लगा सकते हैं ? हम इतने बुद्ध नहीं हैं कि नल की तरह राज्य से हाथ धोकर अपनी प्रिया दमयन्ती को छोड़ने जैसी मूर्खता करेंगे ? और फिर हम तो पांडवों और नल राजा जैसा जुआ थोड़े ही खेलते हैं । महाभारतकाल में चौपड़ या पासे के रूप में जुआ खेला जाता था, यह बात हम मानते हैं, लेकिन आज भी तो शतरंज के रूप में मोहरा या पासा फेंककर हारजीत का निर्णय होता है और खेल के प्रारम्भ में ही नकद रुपये या कोई न कोई चीज हार जाने पर देनी पड़ेगी, यह शर्त खोल ली जाती है। मुगलकाल में शतरंज के रूप में आ प्रचलित हुआ । इसमें भी पहले से जीत की अमुक धनराशि निश्चित की जाती है, हारने वाले को जीतने वाले को उतनी राशि तुरन्त चुकाना या चुकाने का प्रबन्ध करना पड़ता है । ब्रिटिश शासनकाल में ताश के पत्तों के रूप में जूए का नया रूप सामने आया । इसमें भी पत्तों से खेलकर हार-जीत का निर्णय किया जाता है और बाजी पर बाजी खेली जाती है । हजारों रुपये की हार-जीत इसमें भी हो जाती है । आजकल के तथाकथित बुद्धिमान जुआरी इनमें से किसी भी रूप में जुआ खेलते हों पर बुद्धि का दिवाला तो तब निकल जाता है, जब अपनी गृहिणी को तो दाँव पर नहीं लगाते, लेकिन पैतृक गृह को, गृह की बहुमूल्य चीजों को, गृहिणी के प्रिय वस्त्राभूषणों को दाँव पर लगा देते हैं । कई लोग तो और कोई चारा न देखकर अपनी पत्नी को भी दाँव पर लगा देते हैं । सट्टा भी जूए का ही रूप है । रुई, जूट, सोना, चाँदी, एरंड, आदि वस्तुओं हाजिर न होने पर भी केवल लेने-बेचने का सौदा हो या वादा हो, अथवा एक तक के अंकों का फीचर हो, अथवा दो अंकों का दड़ा या आंक लगाना हो, ये सब जुए के ही विभिन्न रूप हैं । इसके अतिरिक्त वर्षा का जुआ भी होता है । वर्षा के पानी के अमुक निश्चित For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ की हुई नाली से बहकर नीचे गिर जाने या न गिरने पर से जीत-हार का सौदा होता है । इसके पश्चात् अंग्रेजों ने जूए का एक विचित्र प्रकार चलाया जो आज लॉटरी के नाम से प्रसिद्ध है । नंबर छपी हुई टिकटों में से जिसकी प्रथम टिकट निकल जाये उसे पहला इनाम मिलता है, उसके बाद दूसरे, तीसरे, चौथे टिकट नंबर वालों को द्वितीय-तृतीय- चतुर्थ इनाम मिलते हैं । यह भी बिना परिश्रम की कमाई होने से जूआ है । पहले लॉटरी चलाने वाली प्राइवेट कम्पनियाँ होती थीं, अब भारत के प्रत्येक प्रान्त की राज्य सरकार लॉटरी व्यवसाय चलाती है । चाहे कोई भी चलाये, है यह जू का ही प्रकार । प्राचीनकाल में एक और किस्म का जुआ प्रचलित था, जिसे 'समाह्वय' कहते थे । इसका रूप ऐसा था कि मुर्गी, तीतर, बटेर, साँड़ आदि को लड़ाकर इन पर जुआरी लोग हार-जीत की बाजी लगाते थे । इसमें भी हजारों-लाखों रुपये की हारजीत होती थी । अंग्रेजों ने घुड़-दौड़ के रूप में जुए का एक नया प्रकार चलाया, जितने घोड़े दौड़ के लिये उद्यत होते, उन पर नम्बर लगा दिये जाते और लोग अपनेअपने मनोनीत घोड़े पर निर्धारित रकम लगाते । अगर उस नम्बर का घोड़ा घुड़दौड़ (Race) में सबसे आगे रहता तो उस पर दाँव लगाने वाले को पहला इनाम मिलता । इस प्रकार दौड़ में घोड़े की जीत पर निर्धारित इनाम दिया जाता है । यह भी जूए का प्रकार है । आजकल समाचार-पत्रों या साप्ताहिक पत्रों में छपने वाली क्रॉसवर्ड स पहेलियाँ भी जू का ही रूप है । व्यापारिक क्षेत्र में भी भावों में तेजी - मन्दी की कल्पना के आधार पर लोग दाँव लगाते हैं । हानि-लाभ के साथ अनिश्चितता जुड़ी होने से इसे भी आ ही माना जायेगा । और इस प्रकार के अनेक रूप हैं जूए के । जूए के विशाल परिवार में किसी भी रूप के जूए को छोटी बुराई समझकर उसकी उपेक्षा करना बड़ी भारी भूल होगी । इनमें से कुछ तो कानूनी तौर पर अपराध भी हैं । जूए से आत्मिक धन का नाश 1 जू से भौतिक, नैतिक और सामाजिक धन का नाश होकर ही बस नहीं होती, आगे चलकर आत्मिक धन का भी नाश हो जाता है । आत्मा के निजी गुण या परम्परागत गुण एक प्रकार से आध्यात्मिक धन के रूप हैं । वे इस प्रकार हैं- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख, वीर्य आदि तथा अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, न्याय-नीति, अलोभवृत्ति, धर्मध्यान आदि । जब भी मनुष्य किसी भी रूप में जुआ खेलने का आदी बन जाता है, तब धर्मध्यान, न्याय, नीति, ईमानदारी, सत्य, अहिंसा, अलोभवृत्ति आदि आत्मिक गुणों का लोप होने लगता है अथवा हो जाता है । क्योंकि क्रोध, अभिमान, छल-कपट और लोभ इन चारों से जुआरी घिर जाता है, इनके कारण तीव्र अशुभ पापकर्मों का बन्धन होता है, जो आत्मा पर आवरण डालकर नाना दुर्गतियों और For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धू त में आसक्ति से धन का नाश : ८१ दुर्योनियों में उसे भटकाते हैं, जहाँ उसे न तो सम्यक्बोधि का लाभ होता है, न ज्ञान और चारित्र का अवसर ही मिलता है। धर्मपालन की तो रुचि ही सम्यक्बुद्धि पर पर्दा पड़ जाने से कैसे होती ? यही बड़ी भारी आत्मिक हानि है। वसुनन्दि श्रावकाचार में इसे स्पष्ट किया गया है जूयं खेलंतस्स हु कोहो माया माण लोहा य। एए हवंति तिव्वा पावइ पावं तदो बहुगं ॥६॥ पावेग तेण जर-मरण-वीचिपउरम्मि दुक्ख सलिलम्मि । चउगइ गमणावत्तम्मि हिंडइ भवसमुद्दम्मि ॥६१॥ तत्यवि दुक्खमणंतं छेयण-मेयण-विकत्तणाईणं । पावइ सरणविरहिओ जूयस्स फलेण सो जीवो ॥६२॥ जूए के व्यसनी में क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय तीव्र हो जाते हैं, जिनसे वह अधिकाधिक पापकर्म का बन्ध कर लेता है। उस पापकर्म के फलस्वरूप जीव जन्म, जरा, मरण रूपी तरंगों वाले दुःखरूप जल से पूर्ण, चतुर्गतिगमनरूप भँवरों से युक्त संसार-समुद्र में परिभ्रमण करता है। इस प्रकार जन्म-मरणरूप संसार में छू तक्रीड़ा के फलस्वरूप जीव शरणरहित होकर छेदन, भेदन, कर्तन आदि के अनन्त दुःख पाता है। यही तो आत्मिक धन की-आत्मविकास एवं आत्मशुद्धि की बहुत बड़ी क्षति है। इसी कारण महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र के द्वारा सावधान किया है ___'जूए पसत्तस्स धणस्स नासो' जूए की आसक्ति से धन का नाश हो जाता है । 000 For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : मांस में आसक्ति से दया का नाश प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष नैतिक जीवन के सन्दर्भ में द्वितीय व्यसन के सम्बन्ध में कहूँगा । द्वितीय व्यसन है— मांसाहार । महर्षि गौतम ने नैतिक जीवन के लिए मांसाहार - त्याग अनिवार्य बताया है । इस सन्दर्भ में उन्होंने चेतावनी के रूप में जीवनसूत्र प्रस्तुत किया है; जिसका रूप इस प्रकार है 'मंसं पसत्तस्स दयाइ नासो' - जो व्यक्ति मांसाहार में रत होता है, उसमें दया विनष्ट हो जाती है । गौतमकुलक का यह ७२वाँ जीवनसूत्र है । मांसाहार नैतिक जीवन के लिए क्यों त्याज्य है ? उससे क्या-क्या हानियाँ हैं ? मांसाहार - त्याग से क्या-क्या लाभ हैं ? ये और इस प्रकार के विविध पहलुओं पर विचार कर लेना आवश्यक है, तभी मांसाहार - त्याग की महत्ता आपकी समझ में आयेगी । आहार : सुख-शान्ति और प्राणरक्षा के लिए आवश्यक इस विश्व में जितने भी देहधारी प्राणी हैं, चाहे वे मनुष्य हों, या पशु-पक्षी अथवा कीट-पतंग, सभी सुख-शान्ति चाहते हैं, अपनी प्राणरक्षा या जीवन- सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । इसके लिए वे - १. आहार, २. भय, ३. मैथुन और ४. परिग्रह - इन चार सहज संज्ञाओं से प्रेरित रहते हैं । इन चारों में सर्वप्रथम और प्रमुख संज्ञा आहार है, जो भूख और प्यास की बाधाओं को दूर करने के लिए किया जाता है । प्राणी और सब कुछ सहन कर सकता है, बड़े से बड़ा कष्ट, विपत्ति, अभाव और संकट का सामना वह कर सकता है, किन्तु लम्बे समय तक भूखा और प्यासा जीवित नहीं रह सकता । हाँ, भूखा और प्यासा रहने की सीमाएँ, कालावधियाँ प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक प्राणी की भिन्न-भिन्न एवं न्यूनाधिक हो सकती हैं । साथ ही इस संज्ञा को शान्त करने के लिए ग्रहण की जाने वाली खाद्य-पेय-सामग्री की मात्रा, रूप और प्रकार में भिन्नता भी हो सकती है । परन्तु ऐसा कोई प्राणी नहीं, जो भूखाप्यासा रहकर सारी जिन्दगी काट सके । जन-सामान्य की तो बात ही क्या, गृहत्यागी एवं आरम्भ - परिग्रहत्यागी, घोर तपस्वी, साधु- मुनिवर भी, जिनका एकमात्र उद्देश्य धर्मसाधना है, शरीर का संरक्षण करते ही हैं क्योंकि धर्मपालन का मूलाधार शरीर ही है और शरीर को सक्षम बनाए रखने के लिए उपयुक्त आहार का ग्रहण करना अत्यावश्यक है । For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ८३ कौन-सा आहार उपयुक्त, कौन-सा अनुपयुक्त ? आहार का प्रभाव मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा पर पड़ता है । अतः हमें देखना होगा कि जिस आहार से मनुष्य को सुख-शान्ति, शक्ति, सामर्थ्य, पवित्रता, सात्त्विकता, दीर्घ आयु, स्वास्थ्य, स्फूर्ति मिले, जिससे उत्साह, तेज, सत्त्व और स्मृति बढ़े, जो आहार शुद्धधर्म, स्वभाव, सद्गुण ( मानवता आदि ) प्रकृति, रुचि और आदत के अनुकूल हो; विश्व में मनुष्य की श्रेष्ठता के अनुरूप हो, वही आहार मनुष्य के लिए ग्राह्य एवं उपयुक्त है । जो आहार मनुष्य के तन, मन, बुद्धि और आत्मा को विकृत, अपवित्र, अस्वस्थ बनाता हो, जो आहार मनुष्य की मानसिक, शारीरिक, बैद्धिक और आत्मिक शक्तियों को नष्ट करता हो, जिस आहार से तामसिकता, अप्रसन्नता, अपवित्रता, अस्वस्थता एवं अल्पायुष्कता प्राप्त होती हो, मानवजीवन की सुख-शान्ति का ह्रास करता हो, जिस आहार से उत्साह, तेज, सत्त्व और स्मृति का कोई विकास न होता हो, जो आहार मनुष्य के स्वाभाविक धर्म, रुचि, स्वभाव, गुण, प्रकृति और आदत के प्रतिकूल हो तथा मनुष्य की श्रेष्ठता के अनुरूप न हो, वह आहार मनुष्य के लिए ग्राह्य एवं उपयुक्त नहीं हो सकता । मनुष्य जीवन की सुख-शान्ति और सुरक्षा केवल शरीर पर उतनी अवलम्बित नहीं, जितना इनका सम्बन्ध मन, बुद्धि और आत्मा की शुद्धता से है । जो आहार शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा को शुद्ध नहीं रख सकता, वह भले ही पौष्टिक एवं गरिष्ठ हो, मनुष्य का स्वाभाविक आहार कभी नहीं हो सकता । उपनिषद् में कहा भी है "आहारशुद्ध सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः ।" - आहार-शुद्धि होने पर सत्त्व (अन्तःकरण की ) शुद्धि होती है, और सत्त्वशुद्धि होने पर ही स्मृति स्थायी होती है । मनुष्य इस संसार में सुख-शान्ति और निर्द्वन्द्वता का जीवन जीने लिए आया है, जो आहार किसी के प्राण छीनकर तैयार होता हो, जिससे मनुष्य के मानवता, दया, करुणा, सहानुभूति आदि स्वाभाविक गुण नष्ट होते हों, वह आहार मनुष्य के लिए कथमपि उपयुक्त नहीं हो सकता । आप इस कहावत से तो भलीभाँति परिचित होंगे कि 'जैसा अन्न वैसा मन ।' आन्तरिक उन्नति के । । अर्थात् अक्ष (आहार) के अनुसार मनुष्य का मन बनता है लिए मनुष्य के तन, मन और बुद्धि निर्विकार होने चाहिए मनुष्य के इन तीनों साधनों का निर्माण उस अन्न - भोजन से होता है, जो मनुष्य खाता है । भोजन से रस, रक्त, वीर्य, मज्जा आदि सारे शारीरिक तत्त्व बनते हैं, और अपने में वे सारे गुण-अवगुण समाहित कर लेते हैं, जो उस भोजन या अन्न में होते हैं । यही For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ कारण है कि तत्त्वदर्शी ऋषि-मुनियों ने आहार की शुद्धता, स्वच्छता, उपयुक्तता, तथा सात्त्विकता पर बहुत जोर दिया है। यदि मानव के जीवन-निर्माण में, उसके आत्मविकास और धर्मपालन में आहार का कोई विशेष प्रभाव न होता तो मनीषीजन उसकी खोज तथा गुण-अवगुण, उपयुक्तता-अनुपयुक्तता आदि पर कोई चिन्तन न करते । वे अनावश्यक बातों में बुद्धि को क्यों उलझाते और क्यों आयुर्वेद के विद्वान् रचयिता पथ्यापथ्य पर इतना विवेचन करते। ___ इन सब दृष्टियों से शाकाहार ही मनुष्य के लिए प्राकृतिक और उपयुक्त भोजन सिद्ध होता है, मांसाहार नहीं। शाकाहार ही क्यों, मांसाहार क्यों नहीं ? किसी भी दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाए तो मांसाहार का औचित्य सिद्ध नहीं होता और न ही यह विश्वास किया जा सकता है कि मांस मनुष्य का स्वाभाविक आहार है। मांसाहार : मनुष्य को आत्मिक प्रकृति के विपरीत मानवीय अन्तरात्मा दया, करुणा, क्षमा, सहानुभूति, सौहार्द, संवेदना आदि तत्त्वों से बनी हुई है। वस्तुतः देखा जाए तो दया के ही ये अनेक रूप हैं। उसकी ही ये शाखा-प्रशाखाएँ हैं। जिस मनुष्य में दया नहीं वह मनुष्यता के पूर्ण लक्षणों से युक्त नहीं कहा जा सकता। मनुष्य का यह सहज स्वाभाविक गुण है कि किसी कष्टपीड़ित को देखकर उसमें सहज करुणा उत्पन्न होती है । दूसरे के दुःख में दुःखी और दूसरों के सुख में सुखी होना, उसकी आन्तरिक विशेषता है । इसे वह हटा या मिटा नहीं सकता। मांसाहार से निरीह प्राणियों का अकारण विनाश होता है और उसके साधन जुटाने में मनुष्य की सर्वोपरि गरिमा-संवेदना और सहानुभूति को भारी आघात लगता है । अगर किसी मांसाहारी मानव को भी ४ दिन तक लगातार कसाईखाने में रखा जाए तो उसमें मांसाहार के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाएगी । वहाँ जिस निर्दयता के साथ पशुओं को काटा जाता है, जैसे उनकी चमड़ी को गर्म-गर्म पानी से उबालकर फुलाया जाता है, पीटा जाता है। पशुओं की जैसे करुण चीखें निकलती हैं, उनकी आँखें जिस करुणता से मानव से याचना करती हैं, उन सब प्रक्रियाओं को देखकर थोड़ी बहुत भी मनुष्यता होगी, दया होगी तो उसे मांसाहार से कतई घृणा हो जाएगी। अधिकांश मांसाहारी व्यक्तियों ने प्राणिवध को देखा नहीं है, प्राणियों को मांस निकालते समय जैसी भयंकर यातनाएँ दी जाती हैं, उन पर जो आत्याचार होते हैं, उन्हें नजरों से नहीं देखा, बहती हुई रक्त की नदियाँ नहीं देखीं, इतना घणात्मक अनुभव कर लेने के बाद तो उनकी आँखें स्वतः खुल जाएँगीं। उनका करुणाशील अन्तःकरण स्वयं कह उठेगा-"ओह, मांसाहार करना राक्षसों का काम है, For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ८५ मनुष्य का नहीं।" कसाईखाने की बेहद गंदगी, मल-मूत्र एवं रक्त से होने वाला कीचड़, हड्डी एवं मांस के बिखरे हुए लोथड़े आदि देखकर किस मांसाहारी का हृदय नहीं कांप उठेगा ? टाल्स्टाय अपनी पुस्तक 'संस्मरण और निबन्ध' में लिखते हैं- "कुछ समय पूर्व मैंने तुला के एक कसाईखाने को देखने और अपने एक विनम्र और दयालु मित्र से मिलने का निर्णय किया। मैंने उन्हें अपने साथ चलने का आमंत्रण दिया। मेरे मित्र ने अस्वीकार करते हुए कहा वह पशुओं का कत्ल होते हुए देखना सहन नहीं कर सकता।' विशेष ध्यान देने की बात यह है कि वह खिलाड़ी है और स्वयं पशुओं और पक्षियों को मारता है।" ___ कसाईखाने का दृश्य ही क्यों, अगर कोई विचारशील मानव किसी निर्दोष प्राणी को मारते-काटते. छटपटाते और वध करते देख ले और संवेदनशील होकर विचार करे तो उसकी आत्मा मांसाहार करने से इन्कार कर देगी, उसका हृदय कांप उठेगा, उस निरीह प्राणी की हत्या देखकर । बौद्धधर्म के प्रसिद्ध दलाई लामा वर्षों से मांसाहार करते थे, जबकि तथागत बुद्ध की शिक्षा है-किसी भी जीवित प्राणी की हिंसा न करो, न कराओ। किन्तु सन् १९६५ के भारत-पाक युद्ध के समय जब वे वसन्त ऋतु में भारत के दक्षिणी राज्यों का दौरा कर रहे थे, उस समय मोटर से शहर और कस्बों को पार करते हुए उन्होंने शक्तिभर भागते हुए मुर्गों, बिल्लियों और कुत्तों को देखा, मानो वे मृत्यु के भय से आशंकित हों। उसी समय उनके मन में एक विचार आया कि मृत्यु एक पीड़ा है; जो हरएक प्राणी को होती है। इन्हीं दृश्यों से उनके मन में दया और सहानुभूति भी भावना उमड़ी। आगे जब वे केरल पहुँचे और वहाँ पड़ाव किया तब उन्हें किसी के भोजन के शिष्टाचार के लिए मुर्गे की हत्या अपनी आँखों से देखनी पड़ी। उस समय अपने हृदय की हलचल को व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं-"निर्दोष मुर्गे द्वारा अनुभूत भयंकर भय, पीड़ा और अत्याचार को भयंकर रूप में महसूस करना भी कठिन था। जीवन सभी को प्रिय होता है । उस गरीब और असहाय पक्षी ने कैसा भय और संताप सहा, जब उसका जीवन नष्ट किया जा रहा था। मैं यह सोचकर ही कॉप जाता हूँ। उसी समय मैंने किसी का जीवन न लेने की नैतिक महत्ता की सम्पूर्ण क्षमता को कठोर वास्तविकता और सर्वांगीण गंभीरता के साथ महसूस किया। मैं मार दिये गए मुर्गे के प्रति करुणा और दया से व्याकुल था । दूसरी बात-जिसके कारण मैं मांसभोजन से दूर हुआ, इस तथ्य की जानकारी से कि जहाँ-जहाँ भी हम जाते हैं, उस स्थान विशेष के मेजवान विशेष रूप से मेरे दल के सदस्यों के भोजन के लिए ही मुर्गों और भेड़ों का वध करते हैं। निःसंदेह यह मेरे सन्तोष के लिए शुभेच्छा से ही किया जाता था, मगर मैं मुर्गा खाना सहन न कर सका, जिसे विशेष रूप से मेरे ही For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ लिए वध किया गया था । इन्हीं सब कारणों ने मुझे सभी प्रकार का मांस निषेध कर वनस्पति खाद्य को अपने भोजन का एकमात्र अथवा मुख्य भाग बनाने का निश्चय करने को निर्देशित किया । " इस पर से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मनुष्य की दया, करुणा, सहानुभूति, क्षमा आदि मानवीय गुणों की स्वाभाविक प्रकृति के कारण मांसाहार मनुष्य के लिए अनुकूल नहीं है । मांस मनुष्य का आहार नहीं है । क्रूरता मनुष्य का नहीं, पाशविकता का लक्षण है । मांसाहार मनुष्यता की सार्थकता, स्थिरता और हृदय में स्थापना के विरुद्ध है । किसी भी मनुष्य के बच्चे को अगर मांसाहार की ओर प्रेरित करके मांस खाना सिखाया न जाए तो उसकी रुचि मांसाहार की ओर नहीं होगी । उसकी स्वाभाविक रुचि शाकाहारी खाद्यों की ओर होगी । महात्मा गांधी के जीवन की एक घटना है, जब वे २५ वर्ष के थे और बैरिस्टरी पास करने के लिए मांसाहार - त्याग की प्रतिज्ञा लेकर विलायत गये थे । विदेश में उन्हें कुछ शाकाहारी साथी मिल गये थे । वेलिंगटन में एक ईसाई पादरी एण्ड्रयू भूरे के सभापतित्व में शाकाहारियों के एक सम्मेलन में गांधीजी भी अपने साथियों के साथ शामिल हुए थे । वहाँ ७ वर्ष का एक बच्चा उन्हें मिला जो उनके साथ घूमने जाता था । गांधीजी ने उसे शाकाहार का महत्त्व और मांसा - हार से मनुष्य के स्वाभाविक करुणा, दया, सहानुभूति आदि मानवीय गुणों का नाश भी समझाया । फिर उसने जब भोजन की मेज पर गांधीजी को शाकाहारी भोजन करते देखा तो जिज्ञासावश पूछा- आप मांसाहार क्यों नहीं करते ? गांधीजी ने स्नेहवश उसे मांसाहार न करने के सभी कारण बताए । बालक अत्यन्त प्रभावित हुआ और तब से अपने मांसाहारी माता-पिता के साथ रहते हुए भी उसने मांस-भोजन कभी नहीं किया। उसके माता-पिता को भी शाकाहार के गुणों के प्रति श्रद्धा थी, इसलिए कोई आपत्ति न उठाई। गांधीजी ने वहाँ से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका में इस विचार को प्रकाशित भी कराया था कि "अगर बालकों के माता-पिता मांसाहार से शाकाहार की ओर लौटने के विरोधी न हों तो बच्चों को मानव-प्रकृति के विरुद्ध मांसाहार के त्याग की बात समझाना अत्यन्त आसान है ।" इसी दौरान गांधीजी को एक लड़का और मिला था, जो स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहा था कि "मुझ से मुर्गा आदि कोई भी जीव मारे नहीं जा सकते और नही मारते हुए देखे जा सकते हैं इससे स्पष्टतः कहा जा सकता है कि यह मानव-पुत्र मांसाहार के प्रति अरुचि का परिचायक है । For Personal & Private Use Only हृदय में सहजरूप से Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ८७ मांसाहार : मनुष्य के धर्म एवं स्वभाव के विरुद्ध मनुष्य का वास्तविक स्वभाव एवं धर्म दयालु होने तथा धर्मात्मा बनने में है न कि मुर्दा पशुओं का मांस खाने में । एक बार भी मनुष्य अगर अपनी उस तस्वीर की कल्पना करके देखे और बताए कि जब वह कसाई की दुकान पर लोथड़ों के बीच बैठा हुआ, अपने ही अंगप्रत्यंगों को निर्दयतापूर्वक कटवा रहा है, तब कैसा लगता है ? और यह भी बताए कि उनमें और कौओं में क्या अन्तर है, जो मांस की दूकान के आसपास एक टुकड़े के लालच से मंडराते हैं और बैठे रहते हैं ? और जरा उस कसाई को भी ध्यान से देखे, जो उस कटे हुए पशु को लगातार खण्ड-खण्ड कर रहा है, जिसके हाथों, पैरों, मुँह और वस्त्रों पर रक्त के छींटे और छिछड़े पड़े हैं। क्या उसमें और किसी पिशाच प्रतिमा में कोई अन्तर मालूम होता है ? कितनी भयंकरता और वीभत्सता है, इस दृश्य में ! इसका अनुभव और संवेदन निरामिषभोजियों को ही होता हो, ऐसा नहीं, मांसभोजी भी इससे प्रभावित होते हैं । किन्तु अपनी आत्मा की आवाज को स्वाद और संस्कारवश दबा देते हैं, महसूस करते हुए भी उपेक्षा कर देते हैं, देखकर अनदेखी का और समझते हुए भी नासमझी का स्वांग करते हैं । छोटे बालक को हर प्राणी के साथ दया का व्यवहार करने का उपदेश दिया जाए तो उसका हृदय मांसाहार के लिए या मांस के लिए पशु-पक्षियों का वध होते देखकर विद्रोह कर उठेगा । वह सह नहीं सकेगा – मांसाहार को या प्राणिवध को । नावेल्ड अलवानिया का एक छोटा-सा गाँव है, जहाँ अधिकांश कृषक रहते हैं। वहाँ के अधिकांश निवासी परम्परा से मांसाहार को स्वाभाविक भोजन मानते और करते हैं । ऐसे ही एक कृषक परिवार का छोटा-सा बालक 'न्यूनर रिचे' निकटवर्ती मिशन स्कूल में भर्ती हुआ । स्कूल में सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त एक घंटा धार्मिक शिक्षा भी दी जाती थी जिसमें पादरी बाइबिल पढ़ाते, ऊँचे आदर्शों की चर्चा करते और ईसाईधर्म का गौरव बताते लेकिन यह सब एक ढर्रे के अनुसार केवल धर्मशिक्षा की खानापूर्ति करने तक ही सीमित था । कोई भी इन आदर्शों के अनुसार चलता । न था । एक दिन धर्मशिक्षा देते हुए पादरी ईसामसीह की सहृदयता और करुणा का विवेचन कर रहे थे कि - ईसा ने दया और करुणा की सरिता बहाई और अपने अनुयायियों को हर प्राणी के साथ दया का सहृदय व्यवहार करने का उपदेश दिया । सच्चा ईसाई वही है, जो दयालु हो । For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ यद्यपि यह सब लकीर पीटने लिए पढ़ा-पढ़ाया जाता था। परन्तु बालक 'रिचे ने इसे गम्भीर रूप में लिया । वह कई दिन तक लगातार यही सोचता रहाक्या हम सच्चे ईसाई नहीं हैं, क्या हम यीशू के उपदेशों को कहते-सुनते भर हैं, उन पर अमल क्यों नहीं करते? बालक रिचे ने कई दिन तक अपने घर में मांस के लिए छोटे जानवरों और पक्षियों का वध होते देखा तो उसके हृदय में भूचाल मच गया-उफ ! कितना कष्ट ! कितना उत्पीड़न ! उसकी आँखों में उस क्रूर दृश्य को देखकर आँसू भर आए। कोमल-हृदय बालक ने एक दिन इस दृश्य को देख कर तड़फते हुए प्राणी के साथ आत्मीयता जोड़ी तो उसे लगा-मानो उसी को काटा जा रहा हो । बेचारा बालक घर से बाहर चला गया और सुबक-सुबक कर घंटों रोता रहा। तब तो वह इतना छोटा था कि अपने मनोभाव घर के लोगों के सामने ठीक से प्रकट नहीं कर कर सकता था, लेकिन अब वह दस वर्ष का हो चला था। अपनी संवेदनाओं को प्रकट करने लायक शब्द उसने हस्तगत कर लिये थे। दूसरे ही दिन उसने धर्मशिक्षक पादरी के सामने अपनी वेदना रखी-"फादर ! क्या मांस के लिए पशु-पक्षियों की हत्या करना ईसाईधर्म और ईसामसीह की शिक्षा के अनुरूप है ?" पादरी स्वयं मांस खाते थे । वहाँ घर-घर में लोग मांस खाते थे। इसलिये वे स्पष्ट समाधान न कर सके । अगर-मगर के साथ दया और मांसाहार दोनों के समर्थन की बात कहने लगे किन्तु आत्मानुभव से शिक्षित बालक रिचे के गले सुशिक्षित पादरी की लम्बी-चौड़ी व्याख्या तनिक भी न उतरी। उसे लगा कि वह बहकाया जा रहा है। यदि दया धर्म का अंग है तो धर्मात्मा लोग हर प्राणी के प्रति उसका प्रयोग क्यों नहीं करते ? यदि ईसाईधर्म की यही शिक्षा है तो उसे व्यवहार में क्यों नहीं उतारा जाता? बालक रिचे ने निश्चय किया कि वह सच्चा ईसाई बनेगा, ईसामसीह का सच्चा अनुयायी। उसने मांसाहार को ईसाईधर्म-प्ररूपित प्राणि-दया के तथा मानवीय गुणों के विरुद्ध जानकर मांस न खाने का निश्चय किया। जब उसके सामने भोजन आया तो उसने मांस की कटोरी दूर हटा दी। कारण पूछा गया तो उसने स्पष्ट कहा-"यदि हम धर्म पर आस्था रखते हैं तो हमें उसकी शिक्षाओं को भी व्यवहार में लाना चाहिए। हत्यारे और रक्त-पिपासु लोग धर्मात्मा नहीं हो सकते।' परिवार के लोगों ने मांस न खाने से शरीर कमजोर हो जाने की युक्ति प्रस्तुत की तो उसने पूछा-"क्या शारीरिक कमजोरी आत्मिक पतन से अधिक घृणित है ?" घर वालों का समझाना-बुझाना बेकार चला गया । रिचे ने मांस खाना छोड़ा सो छोड़ ही दिया। जो लोग ईसाईधर्म और ईसामसीह की दया एवं शिक्षा की बातें करते हैं, उनसे रिचे रूखे कंठ और डबडबाई आँखों से यही पूछता-"क्या पेट को बूचड़खाना बनाये रखने वाले लोग धर्म और ईसामसीह की बढ़-चढ़कर प्रशंसा करने के अधि For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ८६ कारी हैं ?" लोगों के तर्क रिचे के समक्ष कुण्ठित हो जाते, सत्य के आगे वे नतमस्तक हो जाते। बालक रिचे जब भी मांस-प्राप्ति के लिए होने वाले प्राणि-उत्पीड़न पर विचार करता, उसकी आत्मा रो पड़ती । इस मनोदशा से उसकी माँ प्रभावित हुई, फिर दोनों बड़ी बहनें। तीनों ने मांस छोड़ा। भावनाओं का मोड़ शुभ दिशा में बढ़ता चला गया। क्रमशः सारे परिवार ने मांस खाना छोड़ दिया । यह हवा आगे बढ़ी । पड़ोस और परिचय क्षेत्र में यह विचार जड़ जमाने लगा कि "सच्चे धर्मात्मा को दयालु होना ही चाहिए । जो दयालु हो, वह मांसाहार कैसे कर सकता है ?" यही बालक 'रिचे' आगे चलकर पादरी बने । उन्होंने घर-घर घूमकर सच्ची धार्मिकता का प्रचार किया और मांसहार से लोगों को विरक्त किया। उन्होंने श्रद्धालु धर्मप्रेमियों की संस्था स्थापित की, जिसने 'अलवानिया' में अनेकों धर्म-प्रचारकों तथा प्रचार-सामग्री के माध्यम से जो लोक-शिक्षण किया, उससे प्रभावित होकर लाखों व्यक्तियों ने मांसाहार छोड़ा और सच्ची धार्मिकता अपनाई । २. इस सबको देखते हुए क्या कोई कह सकता है कि मांसाहार मनुष्य के धर्म और स्वभाव के अनुकूल है ? मांसाहार : शारीरिक रचना एवं प्रकृति के प्रतिकूल मनुष्य की प्रकृति शाकाहारी है या मांसाहारी ? इसका पता लगाना हो तो सर्वप्रथम उसकी शरीर रचना पर ध्यान देना होगा। शाकाहारी प्राणियों की आँतें अपने-अपने शरीर के अनुपात में लम्बी होती हैं और मांसाहारियों की अपेक्षाकृत छोटी। मनुष्य की आँतें बंदर जैसे शाकाहारियों के स्तर की होती हैं। माँसाहारियों के दाँत तेज, नुकीले, अधिक मजबूत, ऊँचे-नीचे, लम्बे और पैने तथा कुछ पीछे की ओर मुड़े होते हैं, जबकि शाकाहारी प्राणियों के दाँत कुछ छोटे, एक-दूसरे निकट सटे हुए और समतल होते हैं। मनुष्य की दन्त-रचना शाकाहारी गाय, बैल, बकरे, घोड़े आदि के समान होती है। मांसाहारी प्राणी जीभ से चाट-चाटकर लप-लपाकर पानी पीते हैं जबकि शाकाहारी दोनों होठ मिलाकर जीभ से खींचकर घूट लेकर पीते हैं । मांसाहारी प्राणियों के बच्चे आँखें मूदे पैदा होते हैं, इसलिए वे अँधेरे में भली-भाँति देख पाते हैं, जबकि शाकाहारी प्राणियों की आँखें खुली होती हैं, उनकी आँखें जैसा दिन में देख पाती हैं, वैसा रात्रि में नहीं देख सकतीं। मांसाहारियों की आँखें अँधेरे में चमकती हैं, शाकाहारियों की नहीं। मांसाहारी के शरीर से पसीना नहीं निकलता, उससे तेज गंध आती रहती है । जबकि शाकाहारी के पैरों के तलवों तथा शरीर से पसीना निकलता है। शाकाहारी रात में सोते और दिन में जागते हैं, इसके विपरीत मांसाहारी सोते हुए For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ बेखबर प्राणियों को पकड़ने के लिए रात में विचरते हैं। मांसाहारी शिकार के शरीर को अपने दांतों और पंजों से दबोच सकते हैं, वे चीर-फाड़ करके खा सकते हैं और कच्चा मांस पचा सकते हैं, ऊपर से चमड़ी, बाल आदि उतारने की उन्हें जरूरत नहीं होती। भेड़िये तो हड्डी तक पचा जाते हैं । शाकाहारी वैसा नहीं कर सकते । मनुष्य के लिए बिना पका मांस पचाना सम्भव नहीं। हड्डी, आँत, बाल, चमड़ी आदि अनेक भाग हटाकर वह केवल माँसपेशियाँ ही पकाकर खा पाता है। इन सब कसौटियों पर कसने पर मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी ही सिद्ध होता है, उसकी शरीर-रचना और आदत में एक भी ऐसी विशेषता नहीं है, जो मांसाहारियों में पायी जाती हैं। निष्कर्ष यह है कि मांसाहारी और शाकाहारी प्राणियों की स्थिति में भिन्नता स्पष्ट है। इसीलिए कवि कहता है मनुज प्रकृति से शाकाहारी, मांस उसे अनुकूल नहीं है । पशु भी मानव जैसे प्राणी, वे मेवा फल-फूल नहीं हैं । मांसाहार : मानवीय विशेषता की दृष्टि से त्याज्य मैत्री एवं मर्यादा ये दो आधारभूत गुण हैं, जिनके आधार पर मनुष्य को पशु-पक्षियों से अलग माना जाता है। जिसमें ये दो गुण न हों, उसे मनुष्य कहना कठिन होगा। मैत्री के अन्तर्गत दया, क्षमा, करुणा, अहिंसा, संवेदना, सहानुभूति और सौहार्द आदि गुण आ जाते हैं। जिसके हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव होगा, वह किसी को भी पीड़ा पहुंचाने में हिचकिचायेगा। इसी प्रकार संयमनियम, विधि-विधान आदि व्यवस्थाएँ मर्यादा के अन्तर्गत आती हैं। यह गुण भी मनुष्य में ही होता है । जिससे समाज में अशान्ति हो, किसी भी प्राणी को दुःख और पीड़ा हो, वैसा कार्य मनुष्य नहीं कर सकता। यदि वैसा कार्य करता है तो वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन करता है, वह मानव नहीं रह जाता। इन्हीं दो मानवीय विशेषताओं के कारण यह कहा जा सकता है कि मांसाहार मानव के लिए त्याज्य है। मानव सर्वश्रेष्ठ प्राणी क्या मांसाहार के कारण है ? __ मनुष्य विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। वह इस कारण नहीं है कि दूसरे प्राणियों को सताये, मारे-पीटे, उनके प्राण हरण कर ले, उनके प्रति निर्दयता का व्यवहार करे, अपने स्वाद और कल्पित स्वार्थ के लिए मूक निर्दोष पशुओं को मारकर खा जाये । उसको सर्वश्रेष्ठता इसी में है कि वह दूसरे प्राणियों के प्रति दया, करुणा, सहृदयता एवं स्नेह भरी सद्भावना रखे, उन्हें सुख-शान्तिपूर्वक जीने दे, उनके प्रति मैत्री एवं आत्मीयता का व्यवहार रखे। ___ मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता इसी में है कि वह पशू-पक्षी आदि प्राणियों को अपने कुटुम्बीजन माने। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ६१ विश्वविख्यात नाटककार 'जार्ज बर्नार्ड शॉ' को एक बार डॉक्टरों ने सलाह दी कि "आप मांसाहार न करेंगे तो जल्दी ही मर जाएँगे।" शॉ ने जवाब दिया-"यदि मैं दूसरों का प्राणघात किये बिना जिन्दा नहीं रह सकता तो मेरा मर जाना ही अच्छा है।" वे कहा करते थे-"अपने-अपने कुटुम्बियों को मारकर खा जाना और पशु-पक्षियों का मांस खाना बराबर है । समान स्तर का अपराध है।" वास्तव में पशु-पक्षी आदि अन्य प्राणी मनुष्य के छोटे भाई के समान हैं, उनमें भी उसके समान ही आत्मा है। दूसरे प्राणी समझें या न समझें, मानव को तो मानना व समझना ही चाहिए कि उसकी महत्ता और बुद्धिमत्ता दूसरे प्राणियों को मारकर खाने में नहीं, उसकी सहृदयता और आत्मीयता पर निर्भर है। वह आत्मौपम्य दृष्टि से अपने समान दूसरे के सुखदुःखों को भी तोले। स्वयं को जैसे सुख प्रिय है, दु:ख अप्रिय है, वैसे ही दूसरे प्राणियों को भी उतना ही सुख-दुःख प्रिय तथा अप्रिय होता है। अपने प्राण सभी को समान रूप से प्रिय हैं, सबको पीड़ा समान होती है। जैनशास्त्र आचारांगसूत्र में तो स्पष्ट कहा है-- 'तुम सि नाम तं चेव, जं चेव हंतव्वं त्ति मन्नसि' “तुम वही हो, जिसे तुम मारने का विचार कर रहे हो ।” तथागत बुद्ध ने भी प्राणियों के प्रति मैत्री और करुणा को मनुष्य की विशेषता माना है। आत्मौपम्य की दृष्टि ही मानव की सर्वश्रेष्ठता की प्रतीक है। अपनी चमड़ी मे कील चुभोकर या कोई अंग काटकर व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि शरीर को कितनी पीड़ा होती है ? अपने बच्चों और प्रियजनों को अपनी आँखों के सामने काटा जाए तब उनकी करुण चीत्कार सुनकर मांसाहारी कल्पना कर सकता है कि मांस कैसे प्राप्त होता है ? इसीलिए महाभारत में कहा है न हि मांसं तृणात् काष्ठादुपलाद् वाऽपि जायते । हत्वा जन्तु ततो मांसं, तस्माद् दोषस्तु भक्षणे ॥ -मांस तृण से, काष्ठ से या पत्थर से नहीं पैदा होता, वह जीव की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है, इसीलिए उसके खाने में महादोष है। पशु-पक्षी भी सिर कटते और पेट फटते समय उतना ही चीत्कार करता है। जितना मनुष्य करता है। दोनों के हाहाकार और चीत्कार में, तड़फन और पीड़ा में कोई अन्तर नहीं। मनुष्य को मारकर खाने वाला और अन्य जीवों को मारकर खाने वाला कानून की दृष्टि से भले ही कम अपराधी हो, मगर कर्मों के कानून की दृष्टि में दोनों भयंकर पापकर्म हैं, अपराध हैं, जिसका दण्ड उसे देर-सबेर भोगना ही पड़ता है। मांसाहार : हत्या से भी बढ़कर ऋ र कर्म क्रूर कर्मों में हत्या सबसे बढ़कर है, किन्तु मांस-भोजन तो उससे भी घोर कर For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ कर्म है । एक तो, मांस के लिए मूक, निरपराध एवं निरीह पशु-पक्षियों की गर्दन पर छुरी फेरकर उनकी हत्या की जाती है। फिर उनके शव के टुकड़े-टुकड़े करके रसोई में पकाया जाता है, फिर दाँतों से चबाकर उदरस्थ किया जाता है, इतना सब करने के बाद स्वादपूर्ण संतोष की सांस ली जाती है । उफ ! कितनी भयंकर क्रूरता है ! कितना पैशाचिक कृत्य है ! कोई हत्यारा भी अपने शत्रु को अधिक से अधिक मार कर ही छोड़ देता है, किन्तु मांसभोजी तो कोई अपराध न करने पर भी अकारण ही उस पशु या पक्षी को, जो न तो उसका इरादा समझ सकता है, न कोई शिकायत या विरोध कर सकता है और न ही अपनी पीड़ा कह सकता है, जबर्दस्ती पकड़ कर मारता है, उसकी गर्दन काटता है, उसकी बोटी-बोटी काटता है, फिर हर्षपूर्वक पकाकर परिवार के साथ बैठकर भोग लगाता है, उसे खाता है, स्वाद लेता है, संतोष प्रकट करता है, तारीफ किया करता है। __ सर्वश्रेष्ठता का दम्भ भरने वाले मानव से पूछा जाए कि क्या तुम्हारी सभ्यता और मनुष्यता की यही पहचान है ? यही सर्वश्रेष्ठता का लक्षण है ? उस निरीह, मूक एवं निरपराध पशु का क्या अपराध था? उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था? जिसे अपने स्वजनों और साथियों के बीच से पकड़कर तुमने काट डाला और पकाकर खा लिया ? यदि वह निर्बल है, बोल नहीं सकता, अपनी पीड़ा को कह नहीं सकता, खुशी से तुम्हारे आश्रित था, विश्वास करता था कि ये मेरी रक्षा करेंगे, किन्तु तुमने बिना किसी झिझक के उसे ऐसे मार डाला, मानो उसकी जिंदगी का कोई मूल्य न हो। यदि मांसाहारी के बच्चे को कोई किसी अपराध के कारण भी मार बैठता है, या कोई कठोर व्यवहार कर देता है, तो वह झट आपे से बाहर होकर उसे भलाबुरा कहने लगता है, किन्तु किसी पशु-पक्षी के सुकुमार छौने को मारकर उसका मृतमांस खाने में न तो अपनी निन्दा करते हैं, न अपने पर क्रोध करते हैं और न ही अपने को कोई दण्ड देते हैं । बल्कि उसे उलटा अपना अधिकार समझ लेते हैं । यह इसीलिए कि उन निरीह पशुओं का कोई साथी नहीं, और न वे संगठित होकर एक-दूसरे की सहायता कर सकते हैं। यदि ये दीन पशु बोलते नहीं, आपका विरोध नहीं करते तो यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इनको पीड़ा नहीं होती। निरीह प्राणियों को मारने का अधिकार कोई भी धर्मग्रन्थ या धर्मगुरु नहीं देता। सभी धर्मों ने मांसाहार को प्राणियों के प्रति दया एवं प्रेम में बाधक मानकर इसे त्याज्य बताया है। सीधा मांस खरीदकर खाना भी अपराध है मांसभोजी व्यक्ति अपने समर्थन में बहुधा यह कहा करते हैं कि वे तो कसाई से सीधा ही मांस खरीदकर लाते हैं, स्वयं अपने हाथ से किसी पशु का वध नहीं करते । यह दलील इसलिए ठीक नही है कि यदि उस कसाई से पूछा जाए तो वह For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ९३ यही कहता है कि लोग मांस खाना पसंद करते हैं, उसकी मांग करते हैं, इसलिए वह पशुओं को मारकर मांस तैयार करता है । यदि लोग मांस न खाएँ तो वह पशुओं को क्यों मारेगा? दूसरी बात यह है कि मांसभोजी लोग दीर्घदृष्टि से सोचें कि उनकी थाली में मांस आने से पहले कितने निर्दोष जानवरों की हत्या हुई है ? कितनी यातनाएँ उठानी पड़ी हैं ? पहले तो पशुओं को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में भूख, सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि की कठोर पीड़ा होती है, रास्ते में उन्हें लेटने और विश्राम करने की जगह भी कठिनाई से मिलती है, फिर बूचड़खाने में लोग शराब पीकर उन्हें कुल्हाड़ी, भाले या मुद्गर आदि से निर्दयतापूर्वक पीटकर क्रूरतापूर्ण ढंग से कत्ल करते हैं। क्या कोई भी सभ्यता का अभिमानी मानव इस प्रकार की नृशंस पशुहत्या से प्राप्त मांस का भोजन कर सकता है ? क्या पशु-हत्या से निष्पन्न मांस खाने वाले को उसके फलस्वरूप भयंकर अधोगति में नहीं जाना पड़ेगा ? क्या इस घोर अपराध के फल से वह छूट जायेगा? श्री तिलोक काव्य-संग्रह में स्पष्ट कहा गया है मांस के कारण नाश पंचेन्द्री को, करे है दुष्ट दया नहीं लावे। देह को पुष्ट करे, न करे धिन, आमिष भक्षे रु दक्ष कहावे॥ नीच अधर्मी प्रशंस करे शठ, नीच अधोगति सो मर जावे। झड़ाझड़ झूमर मार पड़े नित्य, कहत तिलोक सो कौन छुड़ावे ॥ मांस : मनुष्यता से गिराने वाला तमोगुणी भोजन सभी धर्मग्रन्थों में उस भोजन को सर्वथा त्याज्य एवं आत्मविकास के लिए सर्वथा अयोग्य बतलाया है, जिससे मनुष्य के स्वभाव में क्रोध, उत्तेजना, आवेश, क्रूरता, कठोरता, प्रतिक्षण उग्रता, निर्दयता एवं लोलुपता आदि तामसिक गुण पैदा हों; मनुष्य का स्वभाव क्रूर और निर्दय बन जाता हो। मांस तमोगुणप्रधान आहार है। मांस के अन्तर्गत मछली, अण्डे, रक्त आदि सभी आ जाते हैं । मांसाहार से मनुष्य की अन्तवृत्तियाँ राक्षसी हो जाती हैं । प्राचीन धर्मग्रन्थों में राक्षसों और दैत्यों आदि को मांसाहारी बताया है। भारत की यात्रा करने वाले विदेशी यात्री फाहियान, मार्कोपोलो, जे. टी. हीलर, हान फ्लायर आदि ने अपनी भारत यात्रा के वर्णनों में यही लिखा है 'भारत में चाण्डालों के अतिरिक्त कोई सभ्य व्यक्ति मांस नहीं खाता था।' मांसाहारी मांसासक्त होकर मानवता की सौम्य प्रकृति से दूर हट जाता है। मांसाहारी मनुष्य से दया और अहिंसा की आशा करना व्यर्थ है। इसीलिए निषिद्ध भोजनों में मांसाहार का प्रथम नंबर है, क्योंकि यह मानवता से भी गिरा देता है । मन की असुरता को बढ़ाता है। भारत के आध्यात्मिक मनीषियों ने मनन और अनुभव के आधार पर मांसाहार को अभक्ष्य और निषिद्ध भोजन बताया है। अतः मनुष्य के स्वाभाविक और प्राकृतिक भोजन में मांसाहार के लिए कोई स्थान नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ मनुष्य जिन पशुओं का मांस खाता है, उसके पाशविक दोष भी उसमें आ जाते हैं। वह काम-क्रोध की वृद्धि हो जाने के कारण बहुत हद तक मानवीय मर्यादाओं का उल्लंघन कर बैठता है । पशुओं की-सी जड़ता और दुर्बद्धिता उसमें भी आ जाती है । मनुष्य जैसा भी भोजन करता है, उसके विचार भी वैसे ही बनते हैं । मांस, मछली और अंडों जैसा तामसिक आहार करके मन के विचारों को सात्त्विक, दयापूर्ण एवं संयमी रखना असंभव है। मांसाहार से मनुष्य का मन क्रूर, जनूनी, उन्मत्त, कामोत्तेजना से व्याप्त, हत्या, डाका, लूट, चोरी आदि करने में साहसी, क्रोधी, कामी और मोही बन जाता है । इससे मन में विक्षोभ पैदा होता है, मनोवृत्तियाँ चंचल हो जाती हैं, मनोयोग का ह्रास हो जाता है । वह कोई भी कार्य मनोयोगपूर्वक नहीं, कर सकता, उसमें धैर्य की कमी हो जाती है । जरा-जरा-सी बात पर लड़ना, मारपीट कर बठना, हत्या कर देना उसका स्वभाव बन जाता है । हत्या, चोरी, डकैती, बलात्कार आदि के अपराधी प्रायः मांसभोजी ही होते हैं । एक नगण्य - सा कारण उपस्थित होते ही वह बारूद की तरह भड़क उठता है । उसकी निर्बल तामसिक बुद्धि उसे कोई भी अपराध करने से रोक नहीं पाती । आज विश्व पर दृष्टि डालकर देखा जाए तो युद्ध भड़काने और बात-बात में युद्ध की धमकी देने वाले राष्ट्रों में अधिकतर मांसभोजी राष्ट्र हैं । यदि संसार से मांसाहार का बहिष्कार कर दिया जाए तो युद्ध की प्रवृत्तियाँ ७५ प्रतिशत कम हो सकती हैं । विविध डॉक्टरों का मत है कि मांसाहार से बौद्धिक शक्तियाँ मन्द हो जाती हैं। अंडे, मांस आदि गर्म एवं उत्तेजनात्मक पदार्थ हैं, इनके सेवन से काम और क्रोध दोनों की उत्तेजना बढ़ जाती है । इस सब दृष्टियों से मांसाहार जैसा तामसिक भोजन मनुष्य के लिए उपयुक्त नहीं है । मांसाहार से शक्ति : भयंकर भ्रम मांसाहार के पक्षपाती कहते हैं मांसाहार चाहे तामसिक भोजन हो, उससे शक्ति आती है, परन्तु यह बात बिलकुल गलत है । शरीर का केवल मोटा हो जाना ही शक्ति का लक्षण नहीं है । वातरोग के कारण जैसे शरीर फूल जाता है, वैसे ही मांसाहार से कदाचित् शरीर फूल जाए, मगर उसमें स्फूर्ति, मजबूती, लचीलापन, ताकत, दीर्घायुष्कता, स्वस्थता, बहादुरी एवं वीरता उतनी नहीं होती, जितनी शाकाहारी के शरीर में पाई जाती है । इस कारण शाकाहारी ही शरीर में हृष्ट-पुष्ट एवं बलिष्ठ होते हैं । शाकाहार से शरीर की मांसपेशियाँ स्वस्थ एवं सशक्त बनती हैं जबकि मांसाहारी का शरीर अस्वस्थ होता है, मांसपेशियाँ भी अशक्त होती हैं । कुछ ही महीनों पूर्व कानपुर के दो अखाड़ों के पहलवानों में कुश्तियां हुईं, जिसमें एक अखाड़े के पहलवान अधिकांश मुसलमान थे और वे मांसाहारी थे तथा दूसरे अखाड़े के सभी हिन्दू थे, जो शुद्ध दूध, फल, घी और मेवों का इस्तेमाल करते थे । इस प्रतियोगिता में उस समय लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ६५ मुसलमान पहलवानों में से एक भी विजयी नहीं हुआ, जबकि देखने में वे अधिक मोटेताजे थे। इस घटना से अखाड़े का उस्ताद इतना प्रभावित हुआ कि उसने तमाम मुसलमान पहलवानों का मांसाहार बन्द कर दिया। सन् १८६८ में जर्मनी में ६ शाकाहारी और २० मांसाहारी व्यक्तियों में ७० मील पैदल चलने की प्रतियोगिता हुई थी। इस प्रतियोगिता में भी जीत शाकाहारियों के हाथ में रही । शाकाहारी मांसाहारियों से बहुत पहले गन्तव्य स्थान पर पहुँच गये थे। शाकाहारियों को ७० मील दूरी तय करने में १४ घण्टे लगे थे, जबकि मांसाहारियों में से १ को छोड़कर बाकी १६ केवल पैंतीस मील चलकर शिथिल हो गये थे। एक मांसाहारी भी अन्तिम शाकाहारी से एक घण्टे बाद पहुंचा था, वह भी थका मांदा; जबकि सभी शाकाहारी पूर्ण स्वस्थ एवं प्रसन्न थे। सन् १८६६ में क्वेटा नामक स्थान में ऐसी ही दिलचस्प रस्साकस्सी प्रतियोगिता रखी गई। इसमें एक ओर मांसाहारी अंग्रेज थे, दूसरी ओर सिक्ख रेजीमेंट के निरामिष भोजी जवान । कुछ देर की खींचतान के बाद अंग्रेज जवानों के हाथ छिल गए और उन्हें रस्सा छोड़ना पड़ा । शाकाहारी जवानों की जीत हुई। विशुद्ध शाकाहारी ७० वर्षीय जे. ब्रसन ने इंग्लैण्ड के सम्मेलन में अपना अनुभव बताते हुए कहा- “सरकार के आदेशानुसार सैनिकों को शाकाहार की शिक्षा देने के लिए मैं साइकिल पर स्कॉटलैंण्ड गया। इन ८ दिनों की यात्रा में मैं बराबर शाकाहार करता रहा। इससे मेरा स्वास्थ भी ठीक रहा और ८ दिन साइकिल से चलकर भी जब मैं गन्तव्य स्थान पर पहुँचा, तब मुझमें इतनी शक्ति थी कि मैं बड़े से बड़े लट्ठे उठा सकता था, कठिन से कठिन काम कर सकता था।" इसके अतिरिक्त माल्टा, ब्राजील एवं अरब के मजदूर, जापानी सिपाही आदि जिन-जिन देशों के जो लोग शाकाहारी थे, वे हृष्ट-पुष्ट, बलवान एवं स्वस्थ पाये गये । इन सब उदाहरणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शाकाहारी ही अधिक शक्तिशाली होते हैं। कई लोग कहते हैं कि मांसभोजी बहादुर होता है और इसके लिए वे अनेक आक्रान्ताओं तथा युद्धकर्ताओं का उदाहरण देते हैं, मगर यह धारणा मिथ्या है। मांसाहारी बर्बर हो सकते हैं, वीर नहीं। बर्बरता वीरता नहीं, कायरता है और बलवान् से भीति है। वीर वह है, जो किसी सदुद्देश्य से तलवार उठाए, कष्ट उठाकर भी किसी दूसरे को अपने स्वार्थ के लिए कष्ट न दे, रणक्षेत्र में जाकर भागे नहीं, जो अपने बल का प्रदर्शन निर्बलों पर न करके आततायियों के विरुद्ध करे, जो सताने के बजाय निर्बलों एवं असहायों की रक्षा करे । इनमें से एक भी गुण किसी बर्बर में नहीं पाया जाता। निर्बलों को सताना और सबल के सामने गिड़गिड़ाना, यही बर्बर का सहज स्वभाव होता है। संसार के जितने For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ भी आततायी और आक्रान्ता हुए हैं, उन्होंने वीर से टक्कर लेने की अपेक्षा निर्बलों को ही अधिक सताया है । जो वीर है, वह वीरगति प्राप्त करता है, जबकि बर्बर कुत्ते की मौत मारा जाता है । मांसाहार के समर्थन में किसी बर्बर आक्रान्ता को बहादुर कहना मानवता के उदात्तगुण - वीरता का अपमान करना है । जंगल के शेर, चीते, भेड़िये, भालू एवं लक्कडबग्घे आदि मांसाहार करते हैं, ये आक्रान्ता और बर्बर होते हैं । इन्हें देखकर कई लोग कह देते हैं, शक्तिशाली होने के लिए मांसाहार आवश्यक है। शेर, चीते आदि मांसाहारी होने के साथ शक्तिशाली होते हैं, पर उनकी शक्ति आक्रामक एवं बर्बर होती है, वह किसी निर्बल की रक्षा या सहायता के काम नहीं आती । यही कारण है कि शेर, चीता आदि आक्रान्ता एवं बर्बर जीवों में दुष्टता और कायरता भी होती है, संशयशीलता एवं मानसिक अशान्ति सदा बनी रहती है। शेर दिनभर भयग्रस्त रहता है । चीते और भेड़िये खूंख्वार होने के साथ-साथ सदा इसी प्रयत्न में रहते हैं कि कहाँ छिपे रहें, जिससे कोई उन्हें देख न ले, मार न डाले । साँप, चलते हुए इतना भयग्रस्त होता है कि सामान्य -सी खुटक से वह बुरी तरह घबड़ा जाता है । मनुष्य भी यदि मांसाहार करता है तो उसमें स्वभावतः भयग्रस्तता, संशयशीलता, अविश्वास दुष्टता, आक्रमण की भावना निर्बल को सताने की वृत्ति रहती है जो उसे सदैव मानवीय गुणों से दूर रखती है । इसके साथ ही मांसाहारियों में दुर्बुद्धि. स्थूलता, असहिष्णुता, आलस्य, कोष्ठबद्धता क्रोधी स्वभाव, अमानुषिकता आदि दुर्गुण भी होते हैं । मानव अन्तःकरण के अनुकुल गुण शाकाहार से ही उपलब्ध हो सकते हैं । बैल और घोड़े शाकाहारी जीव हैं उनमें बोझा ढोने और दौड़ने की शक्ति सर्वाधिक होती है । घोड़े की शक्ति तो मशीन से भी बढ़कर मानी जाती है । शक्ति के साथ-साथ मानवीय गुणों का महत्त्व अधिक है । गुणों पर ही व्यक्ति, परिवार, समाज, और विश्व की सुख-शान्ति निर्भर है । जहाँ मांसाहार दुर्गुणों का पोषण करता है, वहाँ शाकाहार सद्गुणों की रक्षा और विकास । इसलिए मांसाहार मानवता के लिए अभिशाप है, वहाँ शाकाहार मानवता की वृद्धि करने वाला पुण्य है । ऊँट शाकाहारी जीव है. इसलिए वह सर्वाधिक सहिष्णु होता है, जबकि सांप मांसाहारी है, इसलिए क्रोधी, आलसी, असहिष्णु और चिड़चिड़े स्वभाव का होता है, जबकि फुदकती रहने वाली क्रियाशील गिलहरी शाकाहारी होती है । हिरण के शरीर जैसी लचक, खरगोश जैसे जीव की उछाल और मेंढे की-सी प्रतिद्वन्द्विता की शक्ति मांसाहारी जीवों में नहीं होती। इससे यह सिद्ध होता है कि मानवता की रक्षा करने वाले सभी गुण शाकाहार में है, मांसाहार में नहीं । की लत लग जाती है और ये दोनों चीजें जाता है । उसमें निराशा और विषाद के भाव घर कर जाते हैं । इसलिए मांसाहारी तनिक-सी भी प्रतिकूलता सहन करने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है, शीघ्र ही आत्महत्या के लिए उतारु हो जाता है । मांसाहार से मनुष्य को शराब पीने मिलने से मनुष्य का स्नायुमण्डल निर्बल पड़ For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ६७ पशुमांसभोजी एक दिन मानवमांसभोजी भी हो सकते हैं मांसाहार अमानवीय भोजन है । उसके खाने से पाशविक विकार पैदा होते हैं । यदि मांस-भोजन की प्रथा संसार से न उठी और इसी प्रकार बढ़ती रही तो एक दिन वह भी आ सकता है, जब पशुओं की कमी अथवा अभाव में तुमसे सबल मनुष्य तुमको भी इसी प्रकार काटकर खा जाएँ और वास्तव में कोई पता नहीं, कि विविध पशुओं को खाता हुआ आज जिस प्रकार मनुष्य भेड़, बकरी, गाय, भैंस, सूअर आदि से बढ़ता-बढ़ता मछली, झींगा, झींगुर, मुर्गा, कबूतर तथा अनेक दूरस्थ विदेशों में तो चूहा, साँप, छिपकली, मेंढक तक आ गया है, वैसे ही वह मनुष्य तक आ जाए और तब मांस को तलब बढ़ने, अन्न का अभाव होने, कोई आड़ा वक्त आ जाने पर मनुष्य अपने बच्चों को भी मारकर खाने लगे। जिस प्रकार काम की पाशविक वासना बढ़ती-बढ़ती मर्यादा का उल्लंघन करते. बहन-भतीजी को भी लांघ जाती है, उसी प्रकार मांसभोजन की पैशाचिक वृत्ति बढ़कर बच्चों तक पहुंच सकती है। यदि मनुष्य ने मांसाहार की लत को नहीं रोका तो उसकी निष्ठुरता इस सीमा तक भी बढ़ सकती है । दार्शनिक पैथागोरस ने एक बार कहा था-"ऐ मौत के फन्दे में उलझे हुए इन्सान ! अपनी तश्तरियों को मांस से सजाने के लिए जीवों की हत्या करना छोड़ दे । जो भोले-भाले पशुओं की गर्दन पर छुरी चलवाता है, उनका करुण क्रन्दन सुनता है, जो अपने हाथों पाले हुए पशु-पक्षियों की हत्या करके अपनी मौज मनाता है, उसे अत्यन्त तुच्छ स्तर का व्यक्ति समझना चाहिए। जो पशुओं का मांस खा सकता है, वह किसी दिन मनुष्यों का भी खून पी सकता है।" ___ मांसाहार : कोमल भावनाओं का नाशक मनुष्य जाति की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और समग्र राष्ट्रों की सुखशान्ति एवं सुरक्षा पारस्परिक दया, करुणा और उदारता के सहारे जीवित और व्यवस्थित है । भले ही जानवरों पर सही, जब मनुष्य मांसाहार के लिए वध और उत्पीड़न की बर्बरता बरतेगा तो उसकी भावनाओं में कठोरता, अनुदारता एवं नृशंसता के बीज पड़ेंगे और वे फलते-फूलते हुए पशु-पक्षियों तक ही सीमित न रहकर मनुष्यों पर भी कहर बरसाने लगेंगे। मानवीय भावना का लोप ही आज पश्चिम को दुःखग्रस्त, पीड़ित और अशान्तिग्रस्त कर रहा है । वहाँ की तरह यहाँ भी हत्या, दंगा, लूटमार, आगजनी, तोड़फोड़, व्यभिचार, दुष्टता, बेईमानी, छल-कपट, हत्या आदि का तांता बढ़ रहा है, संभव है, परिस्थितियों का दोष हो, परन्तु मांसाहार का पाप भी इसमें कम उत्तरदायी नहीं है। मांसाहार मनुष्य की कोमल भावनाओं को नष्ट करता और समाज-जीवन को दुःखान्त बनाता चला जा रहा है । मांस के लिए जीवात्माओं के वध का अपराध मनुष्य जाति को दण्ड दिये बिना छोड़ दे, ऐसा सम्भव नहीं। मांसभोजियों के कारण मनुष्यों का एक बड़ा वर्ग पशुहत्या से लेकर मांस For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ बेचने तक में लगा रहता है। हत्या-कर्म करते-करते या देखते-देखते इस वर्ग के स्वभाव से दया, क्षमा, संवेदना, सहानुभूति, सहृदयता आदि की कोमल भावनाएँ नष्ट हो जाती हैं, उनका स्थान निर्दयता, क्रूरता, कठोरता, असहनशीलता आदि वृत्तियाँ ले लेती हैं; जिससे वे समाज के लिए अहितकर, अकरणीय एवं अनुचित काम करने में संकोच नहीं करते ।। शिकागो के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अनेक वर्षों तक अपराधों की जांच करने के बाद अपनी रिपोर्ट में लिखा है-'अधिकतर अपराध कसाईघरों के कार्य में लगे व्यक्तियों द्वारा ही किये जाते हैं । इस घृणित पेशे को करते-करते इन लोगों की समस्त सवृत्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं, तब वे अक्सर अवसर आने पर मनुष्यों पर छुरी फेरने में नहीं हिचकिचाते ।" __इस प्रकार मांसाहार के कारण समाज का बड़ा वर्ग हृदय-हीन होकर अकरुण एवं निर्दय स्वभाव का हो जाए, इसमें कोई अत्युक्ति नहीं । हृदयहीनता के कारण जिसका स्वभाव दारुण हो गया हो, वह समाज में अशान्ति, अपराध अथवा अपकार न करे, ऐसी आशा करना दुराशामात्र है। फिर ये अपराध अनेक शाखा-प्रशाखाओं में फूटकर अनेक प्रकार के अपराधों में वृद्धि करते हैं । इस प्रकार समाज की शान्ति और व्यवस्था को हानि पहुँचाने के लिए उत्तरदायी मांसाहार ही ठहरता है । मांसाहार : अपवित्र एवं मनुष्य के लिए अयोग्य मांस पेशाब की बूंदों से बना होता है । पेशाब को नापाक और गन्दा पदार्थ माना जाता है । उसे मनुष्य अपवित्र और अस्पृश्य मानता है । लेकिन आश्चर्य है उन्हीं पेशाब और रक्त की बूंदों से बने हुए अपवित्र, घृणित और अस्पृश्य मांस को मनुष्य अपने पेट में डालता है । सिक्ख सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरु नानक ने मांसाहार को बहुत ही अपवित्र और गंदा बताते हुए कहा है जो रत्त लागे कापड़े, जामा होय पलीत । जो रत्त पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चित्त॥१ यों तो मनुष्य मुर्दे को अपवित्र, अस्पृश्य और घृणित मानता है । मुर्दा जलाने या दफनाने के बाद लोग नहाते और कपड़े बदलते हैं । मुर्दा जहाँ रखा हो, उस जगह को धोते हैं, परन्तु मृत-पशुओं का मांस खाने वाले, अपने पेट को कब्रिस्तानमरघट बना डालते हैं, वहाँ अपवित्रता और गंदगी का कोई विचार नहीं करते । वसुनन्दी श्रावकाचार में मांस को बीभत्स एवं घृणित बताया है मंसं अमज्झसरिसं किमिकुलभरियं दुग्गंध बीभच्छं । पाएण छिबेउं जं ण तीरए, तं कहं भोत्तुं ॥ १ बाबा नानक, बारमास मांझ महल्ला १, पृष्ठ १४० For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ६९ मांस बिष्ठा (अमेध्य) के समान गंदा है, छोटे-बड़े कीड़ों (कृमियों) से भरा है, दुर्गन्धियुक्त, बीभत्स है, तथा पैर से छूने योग्य भी नहीं होता, फिर भला वह (मांस) खाने योग्य कैसे हो सकता है । इसीलिए श्री अमृतकाव्य संग्रह में मांसाहार को त्याज्य बताया हैमांस ही के काज जीव जंगम विनासे नीच, रस वश होय नेक दया न धरत है। कृमिकूलराशि कृति नाम रूप-रस-गंध, परम अशुचि छिये शुद्धता हरत है॥ माखी भिनकारे उत देखत ही आवे घिन, __अंध अकुलीन नर ताको आचरत है। कहे अमीरिख दुःखमूल लखी त्यागि देहु, आमिष आहारी मरी नरक परत है ॥८॥ जो लोग मांस नहीं खाते या मांस खाना प्रारम्भ करते हैं, वे देखने एवं सूघने में अप्रिय मांस को देखना भी नहीं चाहते, उन्हें देखते ही वमन हो जाता है । एक तरफ कच्चा मांस पड़ा हो और दूसरी ओर फलों का टोकरा, तब मनुष्य स्वाभाविक रूप से फलों की ओर आकर्षित होगा; क्योंकि मनुष्य सौन्दर्य प्रिय है। मांस के प्रति स्वाभाविक रूप से उसके हृदय में घृणा और अरुचि होगी। अपने कमरे को वह फल-फूलपत्तियों से ही सजाएगा, मृत-पशुओं की हड्डियों, आंतों, टांगों या नरमुंडों से नहीं । सभ्य देशों में मांस के लिए पशुवध एकान्त में घिरे स्थान में किया जाता है, दूकानें भी अलग होती हैं, मांस को भी दूकान के द्वार पर पर्दा लगाकर रखा जाता है । मृतपशु का छिन्न एवं कच्चा मांस देखने से भी घृणा हो जाती है। मांसाहारी होते हुए यह सब मनुष्य की सौन्दर्य रुचि का परिचायक है । मन्दिर, मस्जिद आदि पवित्र धर्मस्थानों में मांसाहार करने वाले लोग मांस का एक कतरा भी सहन नहीं करते । इतनी घृणित, दुर्गन्धयुक्त, गन्दी, बदबूदार चीज को सौन्दर्यप्रिय मनुष्य अपना आहार कैसे बना सका, यही आश्चर्य है। . मांसाहार में न स्वास्थ्य है न स्वाद मांसाहार से स्वस्थ रहने की बात दिवास्वप्न जैसी है। मांसाहार से शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य तक बिगड़ता है। शरीरविज्ञान-विशेषज्ञों का कहना है कि शरीर को शक्ति और स्फूर्ति उसी खाद्य से मिलती है, जिसे पाचनसंस्थान ठीक से पचा लेता है । मांस का ७५ प्रतिशत भाग गन्दा एवं हानिकारक पानी होता है; जो शरीर को दूषित करता है । मांस गरिष्ठ पदार्थ होने से देर से ही नहीं पचता अपितु इसका कुछ भाग बिना पचा ही रह जाता है, जो आँतों में चिपककर सड़ने लगता है । जिससे गैस, संग्रहणी, कब्ज, गठिया, पेचिश, कंठमाला आदि भयानक रोग हो जाते हैं। कैंसर व नासूर का रोग भी इंग्लैण्ड में ८५ प्रतिशत तक बढ़ता जा रहा For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ है। इसके अतिरिक्त मांस ठीक तरह से चबाया न जाने के कारण दांत, गले और आँत तथा नाक के रोग पैदा होते हैं; हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। मांस तपेदिक तथा मृत-पशु की अन्य कई बीमारियों से युक्त होता है, जिसके वे सब रोग मांसभोक्ता को लग जाते हैं । जानवरों को मारते समय अत्यधिक भय से उनके शरीर में विष पैदा हो जाता है, जो उस मांस को खाने वालों के शरीर में व्याप्त हो जाता है। शरीर में विजातीय द्रव्य इकट्ठा हो जाने से मधुमेह, रक्तहीनता आदि रोग पैदा हो जाते हैं। मांसाहार शरीर में अत्यधिक ताप और अम्लता उत्पन्न करता है, जिससे मनुष्य सुस्त, आलसी और तमोगुणी हो जाता है, उसकी बौद्धिक प्रखरता समाप्त हो जाती है। मांसाहार अशुद्ध भोजन है, इससे बना हुआ वीर्य दूषित होता है; जिससे अधिकतर मांसभोजियों की संतानें रोगी, आवेश ग्रस्त और अनैतिक आचरण वाली हो जाती हैं । मांस को पकाने व स्वादिष्ट बनाने के लिए अनेक तरह के मसाले तथा अन्य रासायनिक वस्तुएँ डाली जाती हैं, जो शरीर में कई रोग पैदा कर देती हैं। शाकाहार में सभी पोषक तत्त्व पाये जाते हैं, जो मांसाहार में नहीं होते। इसलिए शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से मांसाहार कथमपि उचित नहीं हो सकता । मांसभोजन बहुत ही अस्वास्थ्यकर है, तथापि मानले कि यह स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हो तो भी मानवता के आधार पर यह उचित नहीं कहा जा सकता । कौन बीमार व्यक्ति आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से अपने भाई बहन के समान नर-मादा पशुओं को दुःख देकर तथा मारकर स्वास्थ्य-लाभ करना चाहेगा? किसी प्राणी को मारकर तथा उसका मांस खाकर स्वास्थ्य बढ़ाना क्या मनुष्य को शोभा देता है ? मांस में स्वाद भी तो नहीं है । फल, मेवा, दूध घी आदि के स्वाद की तुलना में मांस में कुछ भी स्वाद नहीं है । गन्ध तो और भी घिनौनी है। मांस दुष्पाच्य है, महँगा है फिर भी पाशविक स्वादवृत्ति को सन्तुष्ट करने हेतु मांसभोजी प्राणिहत्या करते हैं तथा अपनी बुराइयाँ छिपाने के लिए स्वास्थ्य, शक्ति आदि के लाभ का बहाना करते हैं । वास्तव में मांस में न तो स्वास्थ्य के गुण हैं, और न ही कोई स्वाद । मांसाहार की प्रवृत्ति : आतंकवात का आधार इतने दुर्गुण होते हुए तथा मांस से भी बलवर्धक एवं स्वादिष्ट पदार्थ संसार मे प्रचुर एवं सस्ते होते हुए भी मांस की ओर लपकना केवल आसुरी वृत्ति को तुष्ट करना है । ऐसे आत्महनन करने वाले लोग अनेक प्रकार के रोगों, दुःखों, आधि-व्याधियों से यहाँ ग्रस्त रहते हैं, और परलोक में भी अपने कुकर्मों का समुचित दण्ड भोगते हैं। For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौस में आसक्ति से दयी को नाश : ११ मांसाहार के प्रति बढ़ते हुए लोक-उत्साह का मनोवैज्ञानिक कारण लोगों में हिसो के प्रति उत्साह तथा दूसरों को कष्ट देने, निर्बलों को सताने में अपना पराक्रम दिखाने की प्रबल इच्छा ही है । गुण्डागर्दी, दुष्टताएँ इसी आतंकवाद के आधार पर पनपती हैं। किसी को उजाड़ने, बर्बाद करने, पीड़ा देने में अपने आपको साहसी, शूरवीर, पराक्रमी, विजेता, प्रगतिशील आदि कहलाने की हवस मांसाहार से ही होती है । परन्तु इस प्रकार प्राणियों का प्राणहरण करके अपने लिए मांसभोजन जुटाने में मनुष्य की आत्मसत्ता व्यथित एवं उद्विग्न ही हो सकती है। स्वाद आदि का बहाना भले ही बनाया जाए, आत्मग्लानि और आत्मप्रताड़ना को इससे शान्त नहीं किया जा सकता । मनुष्यजाति का कल्याण इसी में है कि दया आदि मानवता का विनाश करके आतंकवाद फैलाने वाले मांसाहार का अविलम्ब त्याग करें। महर्षि गौतम ने इसीलिए चेतावनी देकर इसके त्याग का संकेत किया है-- ___ 'मंसं पसत्तस्स दयाइ नासो।' मांस में आसक्ति से दया का विनाश हो जाता है । 000 For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७. मद्य में आसक्ति से यश का नाश धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं नैतिक जीवन के लिए घातक तृतीय व्यसन के विषय में प्रकाश डालगा। तीसरा व्यसन है-मद्यपान । मद्यपान नैतिक जीवन के लिए घुन है। इसका त्याग नैतिक जीवन-निर्माण के लिए अनिवार्य है। अतः महर्षि गौतम ने निषेधात्मक स्वर में मद्यपान का दुष्परिणाम बताया है । इस जीवनसूत्र का रूप इस प्रकार है मज्जं पसत्तस्स जसस्स नासो -मद्यासक्त व्यक्ति के यश का नाश हो जाता है। गौतमकुलक का यह ७३वाँ जीवनसूत्र है। मद्य क्या है ? मद्यपान नैतिक जीवन के लिए अनिष्टकारक क्यों है ? इससे क्या-क्या हानियाँ हैं ? इत्यादि प्रश्नों पर विचार कर लेना आवश्यक है। मद्य क्या है, क्या नहीं ? किसी भी वस्तु का यथार्थ स्वरूप उसके परिणामों पर से ही भली-भाँति जाना जा सकता है । मद्य का स्वरूप भली-भाँति जानने के लिए उसके परिणामों को जान लेना आवश्यक है। साथ ही मद्यपान से पूर्व इस सन्दर्भ में यह भी जान लेना आवश्यक है कि मद्य कैसे बनता है और क्यों तैयार किया जाता है ? इसके पश्चात् मद्यपान के नतीजों पर भी विचार किया जाना चाहिए कि उसका शरीर, शरीर के अवयवों, मन, इन्द्रियों और विभिन्न अंगोपांगों पर क्या प्रभाव पड़ता है ? साथ ही मद्य पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं नैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक जीवन पर क्या प्रभाव डालता है ? इन सब प्रश्नों पर गहराई से जब तक विचार नहीं कर लिया जाता, तब तक मद्य के यथार्थ स्वरूप की झाँकी नहीं मिल सकती। एक विद्वान् ने मद्य की परिभाषा करते हुए कहा है-- 'बुद्धि लुम्पति यद्रव्यं, मदकारि तदुच्यते ।' -जो द्रव्य बुद्धि को लुप्त कर देता है, और मादक (नशीला) है, वह मद्य कहलाता है। इस दृष्टि से मद्य में शराब (वाइन), बीयर, ब्रांडी, ह्विस्की, रम आदि सब तो आते ही हैं, इनके अतिरिक्त अफीम, गांजा, भंग, चरस, बीड़ी-सिगरेट, तम्बाकू आदि नशीले पदार्थ भी मद्य में समाविष्ट हो जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : १०३ __ मद्य : बुद्धिनाशक क्यों ? मद्यपान से विवेकबुद्धि और स्मृति नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार किसी हद तक भांग, गांजा, अफीम आदि से भी हो जाती है। किन्तु मद्य सबसे तीव्र नशा पैदा करता है, वह उत्तेजक एवं तीक्ष्ण पेय पदार्थ है । मद्य ज्यों ही शरीर में पहुँचती है, तीव्र हलचल पैदा होने लगती है। सारे शरीर की नसें भी तीव्रता से काम करने लगती हैं, रक्त के साथ मिलते ही उत्तेजना बढ़ती है, मस्तिष्क में भी उत्तेजना होती है। जिससे सीधे-सादे दिखाई देने वाले व्यक्ति में भी मार-पीट, तोड़-फोड़, उखाड़-पछाड़ का तूफान-सा आ जाता है । यही कारण है कि मद्य से सोचनेसमझने की शक्ति चली जाती है । एक पाश्चात्य विद्वान् कहता है 'When drink enters, wisdom departs.' -जब मद्य का प्रवेश होता है, तब सोचने-समझने की शक्ति चली जाती है। कुछ वर्षों पहले समाचारपत्र में पढ़ा था-एक व्यक्ति शराब के नशे में चूर था। उसकी पत्नी ने देगची में पानी डालकर चूल्हे पर चढ़ा दी। चूल्हे में आग सुलगाई और कुएँ से पानी भरने के लिए चल दी। जाते समय उसने अपने पति से कहा- "इस पानी में अच्छा उबाल आ जाए तो आप उसमें एक कटोरी दाल डाल देना, मैं कुएँ से पानी भरने जा रही हूँ।" पति मद्य के नशे में चूर था । वह चूल्हे के पास बैठा रहा । कुछ समय बाद उसे पेशाब की हाजत हुई, वह पास वाली गटर में पेशाब करने गया। पेशाब के बाद उसने समझा कि पानी में उबाल आ गया है। अतः उसी पर कटोरी भरकर दाल डाल दी। थोड़ी देर बाद जब पत्नी आई और चूल्हे पर रखी हई तपेली के उबलते पानी में दाल डाली हुई न देखकर उसने पतिदेव से पूछा तो ज्ञात हुआ कि उन्होंने जहाँ मद्य के नशे में पेशाब किया था, वहीं दाल डाल दी है। यह देख पत्नी बहुत क्षुब्ध हुई। उसने पतिदेव को समझाया कि मद्य पीने से किस प्रकार बुद्धि भ्रष्ट और लुप्त हो जाती है ? सचमुच मद्यपान से सोचने-समझने की शक्ति लुप्त हो जाती है। मद्य से स्मरण-शक्ति का ह्रास एक व्यावसायिक फर्म का पार्टनर वकील के पास गया और उसे बताया कि दूसरे पार्टनर ने किसी अन्य फर्म से एक ऐसा सौदा कर लिया है, जिसके फलस्वरूप फर्म को बहुत बड़ी हानि हो जाएगी। इस पर उसने आश्चर्य व्यक्त किया। उसने वकील से यह भी कहा कि 'उसका पार्टनर किसी भी प्रकार का सौदा करने तथा हस्ताक्षर करने से स्पष्ट इन्कार करता है, जबकि हस्ताक्षर उसी के हैं।' शुभचिन्तक वकील दूसरे पार्टनर को डॉक्टर के पास जाँच के लिए ले गया। डॉक्टर ने उससे हस्ताक्षर होने के समय, स्थान तथा अन्य परिस्थितियों के बारे में बारीकी से पूछताछ की तो पता चला कि मित्रों और सहयोगियों के आग्रह पर वह कभी-कभी अधिक मद्यपान भी कर लेता था । उस दिन भी शराब का दौर चला और वह अधिक पी गया। For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ नशा हो गया तो वह खिलखिलाकर हँसता था, निःसंकोच होकर बोलता था । अपनी उदारता के गुणगान कर रहा था । निष्कर्ष यह कि नशे की हालत में उसने हस्ताक्षर किये थे, जिसे नशा उतर जाने के बाद वह बिलकुल भूल गया था; क्योंकि नशे की हालत में स्मरण शक्ति को ह्रास हो जाता है । अमेरिका में किये गये एक अध्ययन से पता चला है कि मद्यपान के पश्चात् १५ प्रतिशत छात्रों तथा ५ प्रतिशत छात्राओं की स्मरण शक्ति जाती रहती है । कुछ लोगों की स्मरण शक्ति साधारण मद्यपान से भी लुप्त हो जाती है । उन्हें नशे की हालत में होने वाली घटनाओं एवं कार्यों का तनिक भी स्मरण नहीं रहता । मद्यपान : दिमागी गड़बड़ियों का कारण नित्य मद्यपान करने वाले शराबियों को दिमागी गड़बड़ियों के शिकार देखा गया है । बहुधा उन्हें हाल ही में बीती हुई घटनाएँ, उनका समय तथा स्थान याद नहीं रहते। उसकी स्मरण शक्ति पर आघात होता है, जिससे कुछ विचित्र लक्षण प्रकट होते हैं । हाल की घटनाएँ याद नहीं रहतीं, किन्तु बहुत पुरानी घटनाएँ ज्यों की त्यों याद रहती हैं । इस रोग के दौरान डॉक्टर व नर्स प्रतिदिन उससे मिलते हैं, लेकिन वह उन्हें पहचान नहीं पाता । यहाँ तक कि कई सप्ताह तक अस्पताल में रहने के बाद भी वह शौचालय से लौटने के बाद अपनी चारपाई भूल जाता है । उसकी स्मरण शक्ति गायब हो जाती है । बुद्धि का ह्रास भी मद्यपान का ही परिणाम है । उसका कारण है— मस्तिष्क की कोशिकाओं का नष्ट होना । इस रोग के फलस्वरूप मद्यपान करने वाले की बुद्धि सदा के लिए समाप्त भी हो सकती है । जीवन के अन्तिम दिन या तो वह किसी पागलखाने में बितायेगा या पेड़-पौधों की तरह नाममात्र के लिए ही जीवित रहेगा । उसकी मानसिक शक्ति समाप्त हो जाती है । आदतन शराबी अपनी पत्नी को सन्देह व ईर्ष्या की दृष्टि से देखता है । अपनी पत्नी की प्रत्येक बात में अपनी शंका का आधार ढूंढने का वह प्रयत्न करता है, तथा रेत का महल खड़ा कर लेता है । पत्नी के लाख कसम खाने व वफादारी प्रकट करने की वह उपेक्षा कर देता है और उसे समय-समय पर पीटता रहता है। अन्य लोगों के प्रति प्रायः वह क्रूर बन जाता है, क्रोध से काँपने लगता है । कुछ क्षणों बाद ही रोने और हँसने लगेगा। न तो वह अपने व्यवहार पर लज्जित होता है, न उसे इस बात की ग्लानि होती है कि उसके परिवार के लोग उसके कारण कितने दुःखी हैं । कई शराबी तो इतने अविश्वसनीय बन जाते हैं कि कोई उन पर विश्वास नहीं करता, वे झूठ बोलने लगते हैं, चिड़चिड़े स्वभाव के हो जाते हैं । For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : १०५ कभी-कभी तो शराबी का दिमाग इतना बिगड़ जाता है वह हँसी का पात्र बन जाता है। । एक जगह कवि सम्मेलन का आयोजन था। मंच से सूचना प्रसारित की गई कि दूर स्थान से आमंत्रित एक प्रतिष्ठित कवि-महोदय यात्रा के कारण थके हुए हैं, अतः आराम करने के बाद कुछ देरी से आ सकेंगे । कवि महोदय ने शराब पी ली थी। आधी रात तक प्रतीक्षा करने के बाद उन्हें मंच पर लाया गया किन्तु दर्शकगण चकित थे कि आराम करने के बाद भी उनके पैर लड़खड़ा रहे हैं। अध्यक्ष द्वारा उस कवि की प्रशंसा के पुल बाँधे जाने व प्रार्थना किये जाने पर कविजी उठे तो सही, किन्तु माइक्रोफोन के डंडे को लाठी की तरह पकड़ने पर ही वे खड़े रह सके। फिर उन्होंने मंच के सामने बैठे हजारों श्रोतागणों की ओर तो पीठ कर ली और दूसरी ओर बैठे महिला श्रोताओं की ओर मुंह करके कविता पाठ करने लगे। पुरुष श्रोता चुप न रह सके, मुह-मुह पर आलोचना होने लगी। एक ने तो उन्हें बैठाते हुए कह दिया"किसे सुना रहे हो भाई ? ऐसे लोगों से आशा ही क्या की जा सकती है ? ऐसे दिमाग से तो कविता नहीं, शराब के बुलबुले ही बोलेंगे।" जैसे-तैसे कवि सम्मेलन समाप्त हुआ। शराबी कवि की कविता पर शराब का तीक्ष्णतम मुलम्मा चढ़ गया था। हाँ तो, मैं कह रहा था, शराब की सबसे पहली प्रक्रिया यह है कि वह सर्वप्रथम मस्तिष्क पर प्रभाव डालती है । जैसे चुम्बक की ओर लोहा बरबस खिंचा चला आता है, वैसे ही शराब भी रक्त की शिराओं के माध्यम से मस्तिष्क की ओर एकदम खिंचती चली आती है । कुछ ही समय में शराब मस्तिष्क के कोमल व पेचीदा कोषों पर आघात करने लगती है। फिर भला ऐसे त्रस्त मस्तिष्क में बाहरी प्रभावों का उचित सामयिक संवेदनात्मक अंकन कैसे सम्भव हो सकता है ? फलतः न तो ज्ञानेन्द्रियों एवं ज्ञानतन्तुओं के मार्गों द्वारा बाहर से मस्तिष्क को सूचनाएँ प्राप्त हो सकती हैं और न ही ऐसा मस्तिष्क शरीर के विभिन्न अंगों को आदेश पहुंचा सकता है। ऐसे मस्तिष्क वाला आदमी शराब पीने के बाद तो न भली-भांति देख सकता है, न सूघ या स्वाद चख सकता . है और न किसी भी स्पर्श का अनुभव कर सकता है। क्योंकि उसके मस्तिष्क का नियंत्रण अस्थायी रूप से समाप्तप्राय होने लगता है। इस नियंत्रणहीनता के कारण शराबी के पैर लड़खड़ाने लगते हैं, जबान गड़बड़ाने लगती है, और कभी-कभी तो उसे लकवा तक मार जाता है। एब्रडीन शहर में एक व्यक्ति ने शराब पी । उससे उसकी हालत बिगड़ी और कुछ छंटों तक बहकी-बहकी बातें करने, मरे हुए लोगों को देखने और उनसे बातें करने, अकारण जोर-जोर से रोने-चिल्लाने के बाद उसकी मृत्यु हो गई। ___ डॉ. जेम्स किर्क ने उसका शव परीक्षण किया और सिरिंज द्वारा मस्तिष्कीय भाग से शराब खींचकर निकाली । For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ यही हाल एक अन्य शराबी का हुआ जो शराब पीने ने बाद बहकी हुई अवस्था में आगे बढ़ा और रेलगाड़ी से कट मरा । उसकी खोपड़ी की हड्डी टूट गई पूरा का पूरा भेजा बाहर निकल आया । डॉक्टर ने बता दिया कि उसके दिमाग में काफी शराब पड़ी थी । स्मृतिविभ्रम पैदा करना तो शराब का काम ही है । शराब के कारण याददाश्त मारी जाती है । भगवद्गीता में ठीक ही कहा है स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति । - स्मृति के गड़बड़ाने से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश से व्यक्ति का सर्वनाश होता है । एक धनिक सज्जन शराब के बुरी तरह आदी हो गये, तब उन्हें कुछ भी याद नहीं रहने लगा । एक दिन जब उसने शराब नहीं पी रखी थी तब वह अपने दो- तीन मित्रों सहित भोजन करने बैठे । उनकी पत्नी उन्हें परोस रही थी किन्तु कई बार उनका हाथ रुक जाता, तब वह उन्हें संकेत देकर पुनः खाने के लिये प्रेरित करती । किन्तु वे पूरियाँ ही पूरियां बिना सब्जी के खाने लगे । जब पत्नी ने कहा"यह सब्जी है, इसे भी तो लीजिए" किन्तु फिर वही हाल । केवल सब्जी खाने लगे । स्मृति की ऐसी हालत तो शराब न पीया हुआ हो तब हो जाती है, शराब पी लेने पर तो स्मृति की हालत का कहना ही क्या ? शराब के कारण मनुष्य यहाँ तक होश भुला बैठता है कि उसे पता ही नहीं चलता कि मैं क्या कर रहा हूँ, किसके साथ क्या व्यवहार कर रहा हूँ । एक गाँव में बारात आई । अधिकतर बराती नशे में धुत थे । फिर भी शराब के दौर चल रहे थे । वेश्या का नाच भी हो रहा था । एक बराती ने पाँच रुपये का नोट दूल्हे पर न्यौछावर करके वेश्या को दिया तो दूसरे ने दस रुपये का, तीसरे ने उसी होड़ से दस-दस के दो नोट न्यौछावर करके अपनी शान प्रदर्शित की, चौथा कब पीछे रहने वाला था, उसने पाँच-पाँच रुपये के ६ नोट न्यौछावर करके उसे दे दिये । एक महाशय, जो अधिक मद्य पीये हुए थे, लुटा रहे थे। लोगों ने उन्हें महफिल वाले स्थान से नीचे उतार दिया, तब भी उन्होंने वहीं से एक बांस में सौ रुपये का नोट बांधकर ऊपर उठा उस वेश्या तक पहुँचाया । यह सब नोट कौन न्यौछावर करवा रही थी ? शराब ही तो थी । उन लोगों में उस समय विवेक, विचार था ही कहाँ ? शराब ही उनके दिमाग में आधिपत्य जमाये हुए थी । अंधाधुंध नोट पर नोट इधर रुपयों के लोभ से वह वेश्या नाचते-नाचते अनेक हाव-भाव दिखाती, आंखें मटकाती, कभी एक के और कभी दूसरे के सामने तनिक मुस्कराकर दो उंगलियों में नोट झपटकर पुनः अपने स्थान पर लौट जाती । For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : १०७ सहसा इस महफिल में एक शराबी महोदय को ऐसा लगा कि वेश्या उसकी ओर आना तो दूर, नजर भी डालना पसंद नहीं करती। अतः उसने ईर्ष्यावश क्रोधित होकर अपने पास वाले व्यक्ति को, जिसकी ओर वह वेश्या अनेक बार आ चुकी थी, एक धक्का दिया, फिर क्या था, उस व्यक्ति ने उसी सिक्के में जवाब दिया। दोनों व्यक्तियों के रिश्तेदार और तथाकथित मित्र वहाँ उपस्थित थे ही। तुरंत वे दो दलों में विभक्त हो गये । फ्रीस्टाइल (स्वतंत्र प्रणाली की) अनेक कुश्तियाँ शुरू हो गई। द्वन्द्वयुद्ध से प्रारम्भ होकर वह सामूहिक कुश्तियों में परिवर्तित हो गई। फिर तो कौन अपना है, कौन पराया, इसका विचार न कर अन्धाधुन्ध एक-दूसरे पर वार करने लगे। यह मद्य ही था, जिसने उनकी विवेक-बुद्धि का नाश कर दिया था। यह हो-हल्ला सुनकर विवाह के कार्य की व्यवस्था में लगे हुए कुछ लोग दौड़े आए, परन्तु वे बीच-बिचाव करें उससे पहले ही सभी बाराती आपस में लड़-झगड़ कर औंधे-सीधे गिरकर बेसुध हो चुके थे। ___ मद्य : नेत्र-संवेदननाशक शराब मनुष्य को हिये का अंधा तो बनाती ही है, आँखों से अन्धा भी बना देती है । वास्तव में आँखों का सम्बन्ध मस्तिष्क से ही है। जब मस्तिष्क की संवेदनशक्ति का ह्रास या लोप हो जाता है तब आँखें भी सही काम करना बन्द कर देती हैं, कान भी भली-भाँति श्रवण से जवाब दे देते हैं । एक मोटर ड्राइवर ने बहुत शराब पी रखी थी। कुछ मीलों की दूरी तक तो वह ठीक तरह से मोटर चलाता रहा, किन्तु २०-२५ मिनट बाद ही वह एक वृक्ष से जा टकराया, भयंकर एक्सीडेंट हुआ । होश में आने के बाद जब डॉक्टर ने उससे पूछा, तो उसने उत्तर दिया- "मुझे उस समय सामने एक नहीं, दो पेड़ दिखाई दे रहे थे, इसलिये मैंने अपनी मोटर को दोनों पेड़ों के बीच में से निकालने का प्रयास किया था।" यह है-शराब पीने पर दिमाग में गड़बड़ हो जाने के कारण एक वस्तु को दो-दो देखने की दुर्दशा ! मद्य : श्रवण-संवेदननाशक इसी प्रकार शराब के प्रभाव से जब मस्तिष्क गड़बड़ा जाता है तब कान का श्रवण-संवेदन भी कम पड़ जाता है । उसे जो कुछ भी कहा जाता है, वह पहले तो सुनता ही नहीं, सुन भो ले तो उस पर विचार नहीं करता। एक मोटर बस यात्रियों को लेकर लगभग ३०० मील दूर के एक शहर की और रात को ८ बजे चल दी । मोटर तेज रफ्तार से भागी जा रही थी। लगभग डेढ़ बजे एक बस स्टेण्ड पर मोटर रुकी। ड्राइवर और कुछ सवारियां चाय-पानी के लिये नीचे उतरीं। ड्राइवर एक शराब की दुकान में घुसा और शराब पीकर व एक बोतल में कुछ और शराब लेकर लौटा । मोटर स्टार्ट करके पाँच-दस मील पार हुई होंगी कि असाधारण तीव्रगति से दौड़ने लगी। सड़क का कभी एक तो कभी दूसरा किनारा For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : अनिन्द प्रवचन : भाग १२ छूती हुई मोटर डोलती जा रही थी । ड्राइवर का हाथ स्टेरिंग पर तो थी, लेकिन वह अस्वाभाविक घुमाव देता जा रहा था । जो यात्री जाग रहे थे, उन्हें सन्देह हुआ। दो यात्रियों ने ड्राइवर को सचेत किया - "ड्राइवर साहब ! ड्राइवर साहब ! गाड़ी धीरे करो, रोको गाड़ी ।" पर वहाँ सुनने वाला अपने होश में न था । एक शक्तिशाली आदमी ने सवारियों की जान खतरे में समझकर ड्राइवर के निकट जाकर कड़कती हुई आवाज में कहा - " ड्राइवर ! गाड़ी रोको । सामने देखो, सबके प्राण खतरे में डालोगे क्या ?" इस आवाज से ड्राइवर चौंका । बड़ी तेजी से उसने मोटर के ब्र ेक लगाया, जिससे मोटर चींचीं करती हुई घिसटने लगी, सवारियों के सिर आपस में टकराए। साथ ही आक्ट्राय नाके पर गाड़ा हुआ लोहे का डंडा एकदम उखड़ गया । वहाँ खड़े बैलों और गाड़ीवानों को जख्मी कर दिया, दो तो खत्म ही हो गये । ड्राइवर शराब की बोतल में उतर चुका था । उसके सुनने वाले कान कुछ भी संवेदन करने से जवाब दे चुके थे। शराब के नशे ने उसकी समझने की शक्ति ही खो दी थी । मद्यपान की चार दशाएँ शराब पीने के बाद मनुष्य की कैसी-कैसी दशाएँ हो जाती हैं, इसे शरीर - विज्ञान की भाषा में सुनेंगे तो आपको आश्चर्य होगा ( १ ) शराब पीते ही व्यक्ति खुद को अत्यन्त प्रसन्न महसूस करता है । उसे ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह धरती से ऊपर उठा जा रहा है । उसकी सामान्य बुद्धि का ह्रास हो जाता है । वह मन पर नियंत्रण खो बैठता है । जननेन्द्रिय में विकार आ जाता है । वह बिना सोचे- विचारे काम दुर्दशा हो जाती है कि दियासलाई जलाना और हो जाता है । करने लगता है । उसकी इतनी स्थिर खड़ा रहना भी कठिन (२) नशे की दूसरी अवस्था में आदमी को चलने या कपड़े बदलने आदि में दूसरे की सहायता की जरूरत पड़ती है । वह बात-बात में क्रोधी एवं चिड़चिड़ा हो जाता है । कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है, कभी बड़बड़ाता है । उसे ध्यान नहीं रहता कि वह किससे क्या बात कर रहा है ? (३) नशे की तीसरी अवस्था में शराबी बेहोशी की-सी हालत में रहने लगता है, उसकी साँस तेज चलने लगती है, उससे ठीक प्रकार से बोला भी नहीं जाता । जो उसे सहारा देकर खड़ा करता है, वह उसी पर औंधा गिर जाता है । (४) और फिर अन्तिम स्थिति आ जाती है, जबकि पुंज हो जाता है, बेभान - सी हालत में रहने लगता है । उसे महसूस होता है । उसे अपनी परलोक यात्रा का अंदेशा होने लगता है । मद्य का परिचय - शराबी का शरीर लुंज श्वास लेने में भी कष्ट मद्य का वास्तविक परिचय देते हुए एक विद्वान कहते हैं For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : १०६ यत्पीत्वा गुरवेऽपि कुप्यति विना हेतोस्तथा रोदिति, भ्रान्ति याति करोति साहसमपि व्याधेर्भवत्यास्पदम् । कोपीनं च जहाति लोकपुरतो उन्मत्तवच्चेष्टते, तल्लज्जापरिपन्थि मोहजनकं मह्यं न पेयं नरैः ॥ -जिसे पीकर मनुष्य गुरुजनों पर भी अकारण क्रोध करता है, रोता है, चित्तभ्रम हो जाता है, कभी साहस भी कर बैठता है, रोग का घर बन जाता है, कभी लंगोटी भी खोलकर नंगा हो जाता है, और लोगों के सामने पागल की तरह चेष्टा करता है, ऐसा मोहजनक एवं लज्जाविरोधी मद्य है, जिसे मनुष्यों को कदापि नहीं चाहिए। ___ सचमुच मद्य के नशे में चूर होकर मनुष्य इन सब मूर्खतापूर्ण चेष्टाओं को करता है । शराबी व्यक्ति नशे में चूर होकर गाली-गलौज और मार-पीट भी करने लगता है । वह सड़क पर या नालियों में लड़खड़ाकर औंधे मुंह गिर जाता है । उसके मुंह में कुत्ते पेशाब कर देते हैं। वह पशु-सा विवेकहीन व्यवहार करने लगता एक सम्पन्न घर का व्यक्ति एक बारात में गया था। वहाँ शराब का खूब दौर चला, वेश्या की भी महफिल थी। वेश्या को लेकर बरातियों में आपस में गुत्थमगुत्था होने लगी। कुछ होश में आया तो उसे क्या सनक सूझी कि वह आधी रात को ही अपने गाँव की ओर पैदल चल दिया । रात अधिक बीत ही चुकी थी, उस पर वह खूब पिये हुए भी था । लड़खड़ाते जाते देखकर कई लड़के उसके पीछे हो लिए और हल्ला मचाते, तालियाँ पीटते और उसका मखौल उड़ाते चलने लगे । वह व्यक्ति शराब के नशे में पगडंडी पर लड़खड़ाते हुए अपनी धुन में चल ही रहा था, अचानक पगडंडी चूक गया, जिससे पगडंडी के किनारे पोखर में जा गिरा और लगा छटपटाने । ___ लड़के उद्दण्ड स्वभाव के होते ही हैं। लगे जोर-जोर से तालियां बजाने और चिल्ला-चिल्ला कर लगे चिड़ाने-"और पियेगा शराब ?" वह आदमी भी तुनुकमिजाज था। छटपटाता हुआ हाथ-पैर मारता तुरंत उत्तर देता जा रहा था--"हाँ, पियूँगा और पियूगा।" आखिर एक परिचित सज्जन उधर से गुजरे तो उन्हें उस पर दया आ गई। उन्होंने उसे पोखर से निकाल कर गाँव में पहुँचवाया, उसके हाथ-पैर धुलवाए। १. देखिये, वसुनन्दि श्रावकाचार में मद्य के प्रभाव का वर्णन "अइलंघिओ विचिठ्ठो पडेइ रत्थापयंगणे मत्तो। पडियस्स सारमेया वयणं विलिहंति जिब्भाए ॥ उच्चारं पासवणं तत्थेव कुणंति तो समुल्लवइ । पडिओ विसुरा मिटठो पुणो वि मेदेइ मूढमई ॥" For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ पानी के प्रभाव से उसका नशा उतरा, अपनी स्थिति को समझा । इज्जतदार आदमी था, लज्जा आना स्वाभाविक था । इसलिए उसने शपथ ले ली कि वह भविष्य में कभी महफिल में सम्मिलित नहीं होगा और न ही शराब पियेगा । यह है, शराब का असली स्वरूप और प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए त्याज्य ! मद्य : कई रोगों का जनक इसके अतिरिक्त मद्य अनेक बीमारियों को पैदा करता है । मानसिक रोग, पागलपन, हिस्टीरिया, आदि तो होते ही हैं, शारीरिक रोग भी कम नहीं होते । शराब से फेफड़े, हृदय, मस्तिष्क की नसें कमजोर हो जाती हैं। शराब में विद्यमान अल्कोहल आमाशय के भीतरी भाग में जलन पैदा कर देती है । कुछ दिनों तक मद्यपान करने से भोजन की नली तथा आमाशय की भीतरी त्वचा में सूजन आ जाती है, इस रोग 'को गैस्ट्रोटीज कहते हैं । मद्य पीने वालों के पेट की भीतरी दीवारों में आमाशयिक व्रण (गैस्ट्रिक अल्सर्स) तक हो जाते हैं । यह पेट में गये भोजन को अधिक सरल बनाकर हजम होने में रुकावट पैदा कर देता है । इस रोग से दर्द के साथ भूख खो जाती है, प्यास बहुत अधिक लगती है । यकृत की कठोरता ( सिरोसिस) हो जाने से यकृत में सूजन आ जाती है, पीलिया भी हो जाता है । भूखे पेट शराब पीते ही पाँच मिनिट में रक्तचाप बढ़ जाता है । भोजन के बाद पीने से कार्बोनिक एसिड गैस पैदा हो जाती है, कमजोर रक्त इस दूषित गैस को बाहर नहीं निकाल पाता । लीवर पत्थर जैसा हो जाता है। शराब से दोनों गुर्दे खराब हो जाते हैं जिससे अतिमूत्र रोग हो जाता है। शराब से मुटापा बढ़ जाता है । हाथ-पैरों में कंपकपी, गठिया, फालिज (लकवा), चमड़ी का रोग, आँखों की खराबी, खांसी, दमा, ब्लडप्रेशर, मन्दाग्नि, टी. बी., श्वास रोग आदि अनेकों रोग शराब से लग जाते हैं । तिल्ली बढ़ जाती है, पेट सूज जाता है, पेट में फोड़ा व जख्म हो जाने से कभी - कभी खून की उल्टी आकर मौत तक हो जाती है । पागलपन का मुख्य कारण शराब है । जीभ का कैंसर भी इससे हो जाता है । लगातार मद्यपान करने से शरीर में रोगों से लड़ने और उन्हें रोकने की शक्ति नहीं रहती । कोई भी दवा असर नहीं करती । मद्य : सभी व्यसनों का मूल मद्य सेवन करने वाले व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता, सोचने-समझने की शक्ति प्रायः नष्ट हो जाती है, जिससे वह कोई भी दुष्कृत्य करने से नहीं चूकता। मद्य पीने वाला व्यभिचार में प्रवृत्त हो जाता है, वेश्यागमन और परस्त्रीगमन के अलावा मद्य के साथ मांसाहार, शिकार आदि कुव्यसन भो लग जाते हैं । शराब पीने वाले के पास जब शराब के लिए पैसा नहीं होता तो वह चोरी, जूआ, डकैती, बेईमानी, ठगी आदि अनैतिक धंधे करता है । इसलिए सुरापान सभी व्यसनों का मूल है, अनर्थों की जड़ है । For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : १११ मद्य : धर्म, ईमान आदि का ध्यान भुलाने वाला मद्य पीने वाले का कोई धर्म-कर्म नहीं रहता। वह गंदी जगह में, टट्टी और पेशाब के स्थानों में बेसुध होकर पड़ जाता है । अहिंसा, सत्य आदि धर्म तो उसके जीवन से कभी के विदा हो चुकते हैं । शराब के नशे में वह नीति, न्याय, ईमानदारी आदि को भी भूल जाता है । अपने धर्म के नियमों एवं मर्यादाओं को भी शराबी ताक में रख देता है । आत्मा का विकास करना तो दूर रहा, आत्मिक शक्तियों के अवरोधक क्रोध आदि कषाय एवं विषयासक्ति शराबी में अत्यधिक मात्रा में बढ़ जाती है। मद्य : पाचन-शक्ति नहीं बढ़ाता कई लोग कहते हैं भोजन के बाद शराब पीने से वह पाचन-शक्ति बढ़ाती है। परन्तु शराब भोजन को ज्यों का त्यों रखती है, पचाती नहीं । वह पाचक-रस बनने नहीं देती । शराब में पड़ने वाले व सड़ने वाले कोई भी पदार्थ भोजन को पचा नहीं सकते। मद्य : शक्तिवर्द्धक एवं स्फूर्तिदायक नहीं बहुत से लोग कहते हैं कि मद्य एक टॉनिक है, इससे शरीर में शक्ति एवं स्फूर्ति आती है, थकान दूर हो जाती है, यह ताजगी लाती और भूख बढ़ाती है। किन्तु यह मिथ्या धारणा है । शराब पीकर जो पर्वतारोही, या सैनिक दल चढ़ाई करते हैं, वे थोड़ी-सी दूर चल कर थक जाते हैं । शराब निरन्तर और देर तक श्रम करने की शक्ति को घटा देती है । मद्य ही क्यों, जितनी भी नशीली वस्तुएँ हैं-जैसे अफीम, भंग, तम्बाकू, गांजा आदि वे सब न तो स्वादिष्ट हैं, न पौष्टिक हैं और न उपयोगी। शरीर उन्हें नहीं चाहता, चीजें महँगी भी हैं, फिर भी मनुष्य अविवेकवश तन, मन, धन और बल की अपार क्षति उठाता है। शराब से एक बार उत्तेजना जरूर बढ़ती है, परन्तु इसे शक्ति अथवा गर्मी समझना भ्रम है । - मद्य : न पोषक, न अनिवार्य खान-पान शराब में ऐसा कोई विटामिन या पोषक तत्त्व नहीं है कि उसके बिना काम ही न चल सके । भोजन का अर्थ होता है-रक्तोत्पादक पदार्थ । किसी भी प्रकार के मद्य में रक्तोत्पादक तत्त्व या पोषणदायक तत्त्व मिलना कठिन है। इसी प्रकार शराब भोजन को पचा नहीं पाती, फिर भूख कैसे लगेगी ? जठराग्नि कैसे तेज होगी ? भूख को सूचित करने वाले पेट के ज्ञानतन्तु तो चेतना शून्य हो जाते हैं, फिर कसे कहा जा सकता है कि शराब भूख बढ़ाती है या लगाती है। शराब बैल को आरा भौंककर चलाये जाने के समान क्षणिक उत्तेजक है। आरा भौंकने से बैल दौड़ता है, उतावला चलने लगता है, किन्तु आगे चलकर वह थककर लोथ-पोथ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ हो जाता है, वैसे ही शराब से मनुष्य क्षणिक उत्तेजनावश भागने-दौड़ते लगता है, तूफान, या उपद्रव मचाता है, तोड़-फोड़, मार-काट मचाता है मगर इसके बाद वह लुजपुंज होकर पड़ जाता है। मद्य : गर्मी नहीं लाता कई लोग कहते हैं, ठंडे मुल्कों में मद्य पीना अनिवार्य होता है, क्योंकि यह गर्मी लाता है परन्तु भी एक भ्रान्ति है। शराब पीते ही रक्तनलिकाओं में एक सनसनी पैदा होती है, पेट और छाती में जलन पैदा होती है, क्षणिक गर्मी का आभास होता है; मगर आगे चलकर वह अत्यधिक ताप परोक्ष रूप से बाहर निकलने लगता है, इससे शरीर की गर्मी कम होती है। शराबी नशे में शरीर की गर्मी का ठीक ज्ञान नहीं कर पाता। सन् १७८६ की बात है । रूस की रानी कैथरिना के कहने से तत्कालीन मुख्यमन्त्री शहजादे वाटुसकिन ने किसानों को एक बृहृद् राजभोज दिया था । उस अवसर पर किसानों को मनमानी शराब पिलाई । मादकता में बेभान किसान रातभर खेतों में पड़े रहे। उस रात इतनी अधिक ठंड पड़ी कि प्रातःकाल होने तक १६ हजार किसान मौत की गोद में सो गए । इससे स्पष्ट है कि शराब पीने से सर्दी सहन करने की शक्ति घट जाती है । मद्य : एक घातक विष मद्य बनाने की जो प्रक्रिया है, उसे देख-सुनकर कोई भी व्यक्ति नहीं कह सकता कि मद्य अमृत है, संजीवन है । वह सड़ाकर बनाया जाता है, उसमें अनेक कीटाणु पैदा हो जाते हैं । मद्य एक तरह से उन कीटाणुओं को भट्टी में उबालकर अर्क निकालना है । डा० टेल वेवस्टर कहते हैं-"जो पदार्थ खून के साथ मिलने से स्वास्थ्य को बिगाड़ देता है, मनुष्य को मौत का उपहार देता है उसे विष समझो, जो पदार्थ प्राणिमात्र पर अत्यन्त हानिकारक प्रभाव डालता है, उसे भी विष समझो, जो वस्तु प्राणिमात्र के तन-मन के लिए घातक है, मारक है उसे भी विष समझो।" शराब में जो अलकोहल होता है वह बहुत घातक विष है। यदि सौ बूंद पानी में एक बूंद अलकोहल मिला है और उसमें एक छोटा-सा कीड़ा पड़ जाए तो तुरन्त मर जाएगा। इसी तरह अलकोहल यदि अंडे पर पड़ जाए तो उसका जीव तुरन्त नष्ट हो जायगा। यदि हजार बूद रक्त में ६ बूद अलकोहल मिल जाए तो आदमी मर जाता है । डॉ० रिचर्डसन का कहना है-"अलकोहल शरीरस्थ लवण जीवाणुओं को मारकर शरीर को शून्य बना देने वाला एक विष है । यदि उसका प्रयोग मद्य के रूप में किया जाए तो उसका प्रभाव भी विष जैसा घातक सिद्ध होगा।" अतः मद्य स्वास्थ्य विज्ञान की दृष्टि से विजातीय तत्त्व है, घातक विष है। मद्य : भयंकर शत्र, शैतान का शस्त्र __ शत्र प्रतिपक्षी की शक्ति को नष्ट कर देता है, हानि पहुँचाता है, उसका For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : ११३ धन छीन लेता है, उसे यातनाएं देता है । मद्य भी मानव का भयंकर शत्र है। यह मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी शक्तियों का नाश कर देता है, मनुष्य को अनेक रोगों से ग्रस्त बनाकर धन, धर्म और बल की हानि पहुंचाता है, अनेक प्रकार की शारीरिक-मानसिक पीड़ा देता है। इस्लामधर्म में शराब को नापाक और शैतान का कुकृत्य एवं खुदा तथा नमाज से दूर रखने वाला शैतान का हथियार माना है। शैतान मद्य का रूप धारण करके मनुष्य की विवेक-बुद्धि पर पर्दा डाल देता है । जिससे मनुष्य अनेक पापकर्मों में प्रवृत्त हो जाता है । इसीलिए महात्मा गांधी ने तमाम नशों को 'शैतान के हथियार' कहा था । पाश्चात्य विचारक 'आदम क्लार्क' ने भी इसी बात का समर्थन किया है Strong drink is not only the devil's way into a man, but man's way to the devil. "मद्यपान मनुष्य में सिर्फ दैत्य के प्रवेश करने का मार्ग ही नहीं है, अपितु मनुष्य का दैत्य (शैतान) की ओर जाने का मार्ग भी है।" ___ मद्य : सभी धर्मों में निषिद्ध महात्मा बुद्ध ने पंचशील में मद्य-निषेध को पंचम शील (व्रत) के रूप में स्थापित किया। तथागत बुद्ध के जीवन की जातक-कथा में वर्णित घटना इस प्रकार है एक बार सुरामहोत्सव पर ५०० स्त्रियों ने सुरापान किया। विशाखा ने सुरापान नहीं किया। उन ५०० स्त्रियों ने बुद्ध की धर्मसभा में आकर बहुत ही अभद्रता का प्रदर्शन प्रारम्भ कर दिया। बुद्ध ने अपने योग-बल से उनका मद उतारा और अशीलता का निवारण किया । मद्य की भयंकर अनिष्टकारकता को देखकर तथागत बुद्ध ने कहा था- वेश्या और सुरापान दोनों ही अप्रिय हैं, त्याज्य हैं। वेश्या धन का और सुरा परिवार का हरण करके मनुष्य को ऐसा बना देती है कि उसका मूल्य शून्य जितना भी नहीं रह जाता । मनुष्य-समाज के कल्याण के लिए नैतिक एवं सामाजिक दृष्टि से इस अभिशाप का अन्त करना ही चाहिए । संसार में मदिरा मनुष्य मात्र की प्रसिद्ध शत्रु है । ...... पर सुरादेवी से सदैव भयभीत रहना, क्योंकि यह पाप और अनाचारों की जननी है। ईसाईधर्म में भी मद्य का सख्त निषेध बाइबिल में किया गया है। वहां सेम्युअल को उपदेश देते हुए स्वयं ईसामसीह ने राजा, राजकुमार, न्यायाधीश तथा सुखपूर्वक जीवन जीने वालों के लिए मद्यपान का सख्त निषेध किया है। 'Jesus Christ' (ईसामसीह) सेम्सन की माँ और एरोन को उपदेश देते हुए कहते हैं "Drink ni) wine, nor strong drink thou, nor thy children, lest ye die." -किसी भी प्रकार की शराब मत पीओ, कोई भी नशीला तीव्र पेय तुम मत पीओ, और न ही तुम अपने बच्चों को पिलाओ, अन्यथा तुम लोग (सब प्रकार से) नष्ट हो जाओगे। For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ : :आनन्द प्रवचन : भाग १२ इस्लामधर्म में तो शराब का सख्त निषेध है । हजरत मुहम्मद की शिक्षा थी—"मदिरापान और जुआ दोनों पाप हैं । इसलिए जो कुरान के वचनों पर विश्वास रखते हैं, उन्हें दोनों चीजों से बचना चाहिए।" एक बार हजरत मुहम्मद धर्म-प्रचार के लिए कहीं जा रहे थे । रास्ते में उन्होंने कई मनुष्यों को लहूलुहान और अस्त-व्यस्त दशा में निर्वस्त्र पड़े देखा । पूछने पर पता चला कि इन सब ने शराब पी ली थी, जिस कारण नशे में धुत होकर आपस में खूब लड़े और लहूलुहान होकर बेभान दशा में गिर पड़े। तब से हजरत मुहम्मद ने दृढ़ निश्चय करके फरमान निकाला कि 'इस्लाम में शराब पीना सख्त मना है।' वैदिकधर्म में तो मद्यपान सर्वथा वर्जित है । वैदिकधर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति (११/६३) में इसका स्पष्ट निषेध है सुरा वै मलमन्नानां पाप्मानां मूलमुच्यते । तस्माद् ब्राह्मणराजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत् ॥ -सुरा (मदिरा) अन्न का मैल (खाद-पद्यार्थों की सड़ान) ही तो है । यह पापों का मूल कहलाता है। इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को शराब नहीं पीनी चाहिए। और जैनधर्म तो मदिरा का सख्त विरोधी है हो । जैनधर्म की श्रावक बनने से पहले शर्त है-सप्त कुव्यसन का त्याग करो । सप्त कुव्यसन में तीसरा व्यसन मदिरा है । अतः जैनधर्म में तो मद्यपान सर्वथा निषिद्ध है। इसी प्रकार विश्व के सभी विचारकों, महापुरुषों, साधु, संन्यासियों, कवियों और साहित्यकारों ने, सभी प्रजाहितैषी राजाओं ने मद्यपान को सर्वथा निन्दनीय, अपयशकर, अहितकर, घातक एवं निषिद्ध बताया है। मद्यपान से यश का विनाश : क्यों और कैसे? जगत् में यश के नाश और अपयश के कई कारण होते हैं। उनमें से मुख्य कारण ये हो सकते हैं (१) पतित और पापी बनकर जीना। (२) शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक दृष्टि से जान-बूझकर अयोग्य, रुग्ण, पागल बनकर जीना। (३) धर्मशास्त्रों द्वारा निन्द्य और निषिद्ध, दोषोत्पादक एवं आत्मविकासघातक वस्तु का सेवन करना। (४) परिवार, समाज, धर्म, राज्य, राष्ट्र: या संस्कृति की मर्यादाओं या श्रेष्ठ For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : ११५ परम्पराओं, शिष्ट आचारों का त्याग और अनिष्ट, निन्द्य आचार का धृष्टतापूर्वक सेवन करना । (५) बुद्धिभ्रष्ट, विवेकच्युत होकर हास्यास्पद प्रवृत्तियाँ करना । (६) जान-बूझकर आध्यात्मिक पतन कर लेना । अब इन पर क्रमशः विचार कर लें । पतित और पापी बनकर जीना मद्यपान से व्यक्ति अपने धर्म और नीति से पतित हो जाता है । जब मद्यपान के कारण व्यक्ति परवश हो जाता है, तब उसके मन और बुद्धि का संतुलन समाप्त हो जाता है, मस्तिष्क पर कोई नियन्त्रण नहीं रहता । इस कारण मद्यपान करने वाले हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीगमन, जुआ, व्यभिचार आदि पापों की ओर सहसा प्रवृत्त हो जाते हैं। समाज में किसी भी पापी को प्रशंसनीय नहीं माना जाता । उसका पाप ही उसके अपयश के ढोल पीटता रहता है । इस प्रकार मद्यपान से यश का नाश और अपयश की वृद्धि स्वतः हो जाती है । बीरबल ने देखा कि बादशाह अकबर को शराब पीने की आदत के कारण राज्य में बदनामी होती है । सभ्य और धार्मिक लोग इस आदत को निन्दनीय मानते हैं । यह आदत न छुड़ाई तो राज्य कार्य ठीक से नहीं चला पाएँगे । परन्तु बादशाह की शराब की आदत छुड़ाना मामूली काम न था । वह युक्ति के बल पर ही छुड़ाई जा सकती थी । बीरबल इसी अवसर की ताक में था । इसी दौरान एक दिन अकबर को शराब पीने की इच्छा हुई। उन्होंने बीरबल से शराब की बोतल लाने को कहा । बीरबल ने युक्तिपूर्वक सोचा - बादशाह शराब पियेंगे तो मांस खाने की इच्छा होगी, अत मांस खरीदा । फिर सोचा - शराब पीने पर बुद्धि पर नियन्त्रण न होने से स्त्रीसंगम की इच्छा होगी, अतः एक वेश्या को तय करके साथ में लिया । फिर सोचाशराब पीने के बाद फेफड़े, हृदय, गुर्दे, लीवर आदि के रोग भी हो सकते हैं, इसलिए एक हकीम को भी साथ लिया। फिर सोचा - शराब पीने से बादशाह की मृत्यु भी हो सकती है । इसलिए साथ में कफन के लिये एक कपड़ा भी ले लिया । इन सबको एक बैलगाड़ी में रखकर व बिठाकर शाही महल की ओर बैलगाड़ी हँकवाकर ला रहा था । बादशाह ने यह सब देखा तो आश्चर्य से पूछने लगा - " बीरबल ! मैंने तो तुमसे शराब मँगवायी थी, तुम इन सबको और इन चीजों को क्यों और किसलिये साथ में लाए हो ?" बीरबल - " हजूर ! मांस, वेश्या, हकीम और कफन, इन चारों की जरूरत शराब पीने के बाद पड़ेगी ही । इसलिए इन्हें भी साथ ही ले आया हूँ, ताकि फिर भाग-दौड़ न करनी पड़े । " अकबर बादशाह - " क्या मतलब है इनका ?" बीरबल ने चारों को लाने का पृथक-पृथक कारण समझाया । अब तो बादशाह की समझ में आ गया था कि शराब किस प्रकार से मनुष्य को पतित बनाकर अपयश For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ का लांछन लगा देती है ? अतः उन्होंने बीरबल से कहा- "मुझे आज समझ में आई, तोबा ! तोबा ! शराब इतने अनर्थ पैदा करती है । ऐसी शराब मुझे नहीं चाहिए । आज से मैं शराब न पीने की प्रतिज्ञा करता हूँ । इन्हें वापस लौटा दो । बोतल लाये हो तो फोड़ दो ।" अगर बीरबल युक्ति से समझाकर बादशाह की शराब न छुड़वाता तो मुस्लिमधर्म के अनुसार धार्मिक लोगों में अकबर को नापाक और निन्दनीय समझा जाता । अपने राज्य में, अपने मुस्लिम समाज में और अपने शाही परिवार में सर्वत्र उसका यश नष्ट हो जाता, वह अपयश का भागी बनता, इसी एक शराब की बदौलत शरीर आदि की दृष्टि से अयोग्य व रुग्ण बनकर जीना मद्यसेवन से यश नष्ट होने का यह दूसरा कारण है । मद्यपान से शरीर जीर्ण-शीर्ण. जर्जर, अशक्त और मोटा हो जाता है, शरीर में अनेक रोग हो जाते हैं, इन्द्रियाँ अपने विषयों का संवेदन करने या ठीक निर्णय करने में असमर्थ हो जाती हैं, व्यक्ति कुरूप, दृष्टिविकल एवं अंगविकल भी हो जाता है । इस कारण से मद्यपान करने वाले की लोगों में निन्दा होती रहती है- "देखो, उस पियक्कड़ का हाल !" इसीलिए श्री अमृतकाव्य संग्रह में मद्य को सर्वथा निषिद्ध बताते हुए कहा है वासित दुर्गन्ध रहे, दहे कीट वृन्द याते, परम अशुचि प्रिय लागत अजान को । शुद्ध बुद्धि खोय के, विकल भूमिपात करे, वसन विहीन तजे है कुल कान को । हे मुख लाल माखीवृन्दना वचन सुधी, माता बहन देखि बिसारी देत भान को । कहे अमीरख धिक् धिक् है जनम तासु, ऐसी दुःख जानि के तजौ रे मद्यपान को || भावार्थ स्पष्ट है | भला, मद्यपान से इस प्रकार की दुर्दशा में पड़े हुए व्यक्ति की कोई प्रशंसा करेगा या निन्दा ? उसके यशोगान गाएगा या अपयश के गीत ? इसी प्रकार मद्यपान के पहले बताये गये परिणामों के अनुसार जब मनुष्य जान-बूझकर मानसिक एवं बौद्धिक दृष्टि से अयोग्य, रुग्ण या पागल हो जाता है, तब क्या कोई उसे प्रशंसा पत्र देगा या उसकी सर्वत्र आलोचना होगी ? उसका कोई सत्कार तो करने से रहा, सर्वत्र धिक्कार की ध्वनि ही उसके कानों में पड़ेगी । अगर वह मद्यपान की आदत के कारण किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो चुका है, तो भी लोग उसको घृणा की दृष्टि से ही देखते हैं, कोई उसके यशोगान नहीं For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : ११७ गाता । अगर मदिरापान से उसकी मृत्यु हो गयी तो भी उसकी अपकीति का डिडिमघोष होगा कि “देखो उस पियक्कड़ को, हमने कितना मना किया था, पर नहीं माना; आखिर शराब उसे ले ही डूबी !" धर्मशास्त्रों द्वारा निषिद्ध निन्द्य वस्तु का सेवन यह तो हम पहले बता चुके हैं कि मद्य सभी धर्मशास्त्रों एवं धर्मों द्वारा निषिद्ध और निन्द्य है। इससे जीवन में अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है। देखिये हारिभद्रीय अष्टकटीका में मद्यपान के १६ दोषों का उल्लेख वैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो, विद्वषो ज्ञाननाशः स्मृतिमतिहरणं, विप्रयोगश्च सद्भिः । पारुष्यं नीचसेवा कुलबलविलयो धर्मकामार्थहानिः, कष्टं वै षोडशेते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ॥ आत्मा को पतित करने वाले कष्टदायक ये १६ मद्यपान के दोष हैं (१) वरूप्य (शरीर का बेडोल और कुरूप होना), (२) व्याधिपिण्ड (रोगों का घर), (३) स्वजन-परिभव (परिवार में तिरस्कार), (४) कार्य करने में विलम्ब करना, (५) विद्वेष पैदा होना, (६) ज्ञान का नाश, (७-८) स्मृति और बुद्धि का नाश, (8) सज्जनों से अलगाव, (१०) वाणी में कठोरता, (११) नीच जनों का सहवास, (१२) कुल का नाश, (१३) बल का नाश, (१४-१५-१६) धर्म, अर्थ और काम की हानि । वास्तव में मद्यपान के फलस्वरूप होने वाले इन १६ दोषों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि दोषों के स्रोत मद्यासक्ति से अपने संचित यश का नाश ही होता है, चाहे वह कितना ही धनसम्पन्न हो, सत्ताधीश हो, अथवा कोई भी पदाधिकारी हो। क्य। कोई कह सकता है, कोई भी व्यक्ति हृदय से ऐसे दोषों के भण्डार मद्यपायी का यशोगान करेगा? _ महात्मा गांधी ने मदिरा को समस्त बुराइयों की जड़ और पापों की जननी बताया है, फिर इस पापों की माँ मदिरा का सेवन करने वाले के यशोगीत कौन गायेगा ? आत्मविकास को तो मदिरा आग लगाने वाली है। फिर इसका सेवन करने वाला कैसे यशोभागी हो सकता है ? बल्कि यों कहना चाहिए कि मदिरा यशोराशि को आग लगाने वाली है। जान-बूझकर आध्यात्मिक पतन मदिरा पीकर जो लोग मत्त होते हैं, वे अपने आत्म-गुणों को पीते ही तिलांजलि दे देते हैं, आत्मा के विकास पर गहरा काला पर्दा डाल देते हैं, उन्हें आत्मा का भान तो दूर रहा, अपने मन, बुद्धि और शरीर तक का भी भान नहीं रहता । योगशास्त्र में मद्यपान से निम्नोक्त आत्मिक गुणों का नाश बताया है For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ विवेकः संयमो ज्ञानम्, सत्यम् शौचं दया क्षमा । मद्यात् प्रलीयते सर्व तृण्यां वह्निकणादिव ॥ मद्यपान से आग की चिनगारी से घास के ढेर की तरह विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, दया, क्षमा आदि गुण भस्म हो जाते हैं। इन सब गुणों के नष्ट होते ही यश कहाँ रहेगा ? यश तो तभी रहता है, जब मनुष्य गुणों से समृद्ध हो। जब यश को भस्म करने वाली मदिरा की आग जीवन में पड़ी हो, तब गुणराशि कैसे टिकेगी? मद्यपान करने वाला जान-बूझकर जब अपनी गुणराशि को मदिरा की आग में झौंक देता है, तब आध्यात्मिक पतन होना स्वाभाविक है और आध्यात्मिक दृष्टि से पतित व्यक्ति का यश कैसे टिक सकता है ? मद्यपान से होने वाली फजीहत के विषय में तिलोक काव्य संग्रह में कहा हैकृमिराशि कुवास अपावन मद्य है, पीवत है नर नीच कुजाती। सूध रहे नहीं, बुद्धि रहे नहीं, मात के नार के नार के माती ॥ बासत मुख पै बैठत मक्षिका, लोक हंस करे बुद्धि की घाती। होत फजीती, यों जान के त्यागत, कहत त्रिलोक जो उत्तम जाती ॥४४॥ सचमुच शराबी अपवित्र कीड़ों का अर्क पीकर अपना यश गंवा बैठता है। पारिवारिक जीवन में मद्य से यशोनाश मद्य से व्यक्ति का पारिवारिक जीवन छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह परिवार की मर्यादाएँ तोड़ देता है, परिवार में आए दिन नशे में धुत होकर धूम मचाता है, चिल्लाता है, पत्नी बच्चों को पीटता है, पत्नी के चरित्र पर अकारण सन्देह करता है, परिवार के धर्मसंस्कारों का लोप करता है, भला ऐसे व्यक्ति का यश कहाँ बखाना जाएगा? वह व्यक्ति तो कुलकलंक है । वह अपने कुल की समस्त मर्यादाओं को ताक में रखकर एकमात्र मद्य में आसक्त रहता है, तो कुल की कीर्ति को भी बट्टा लगाता है । कुलतिलक या कुलीन के बदले लोग उसे कुलांगार या कुलकलंक कहेंगे। कंस की पत्नी जीवयशा ने यही तो किया था ! जिस समय देवकी का विवाह हो रहा था, उस समय अतिमुक्तक मुनि स्वाभाविक ही वहाँ भिक्षार्थ आए हुए थे। उन्हें देखकर मद्य के मद से उन्मत बनी हुई जीवयशा भान भूलकर अपनी कुलमर्यादा को ताक में रखकर मुनि अतिमुक्तक से कामवासनावश लिपट गई । कहने लगी"देवरजी ! तुम गीत गाओ, मैं नृत्य करूंगी।" मुनि ने जीवयशा का मद्यपानवश उन्मत्त प्रलाप देखा तो वे समझ गये कि यह मद्य की करतूत है, जिसने इसकी विवेक बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है । उन्होंने उसके आलिंगन पाश से छूटने का बहुत प्रयत्न किया, मगर वह तो उन्हें कस कर पकड़े हुए थी। मुनि ने जब उसके भावी अनिष्ट की बोर संकेत किया, तब कहीं उसका नशा उतरा । इस प्रकार मदिरादेवी की सेवा से जीवयशा ने अपने कुल के यश को धो डाला, कुल को कलंकित किया। For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : ११६ मद्यपायी को उसके सभी स्वजन धिक्कारते हैं, अनादर करते हैं, उसके पास नहीं बैठना चाहते और न ही उससे कोई वास्ता रखना चाहते हैं । यह सब मद्यवश उसके यशोनाश होने के कारण ही होता है। ___ कई बार तो मद्य पीने वाले व्यक्ति अपनी पत्नी की कमाई से लाये हुए आटे को बेचकर मदिरा पीता है; बेचारी पत्नी लज्जावश पड़ौसी के यहाँ से भूख से बिलबिलाते बच्चों के लिए आटा लाकर रोटी बनाकर खिलाती है। क्या शराबी की ऐसी दयनीय दशा देखकर कोई उसका यशोगान करेगा, अथवा ऐसी दुःस्थिति के कारण उसके पौरुष की, उसके व्यक्तित्व की जगह-जगह निन्दा होगी, अपयश होगा? बनारस की मद्यनिषेधक मंडली के प्रमुख केशवराम ने सन् १८६२ में मद्यनिषेध पर भाषण दिया। भाषण समाप्त होते ही ७ कोली-पत्नियाँ उनके सामने रो-रोकर कहने लगीं- हमारे पतियों ने शराब पीकर कर्ज चुकाने में सब रुपये, वस्त्राभूषण व अन्य सब सामान लुटा दिये । हमारे पास सिर्फ पहनने के दो वस्त्र बचे हैं। बताइए, हम क्या करें ? हमारी जिन्दगी मौत से भी भयंकर हो गई है। क्या ऐसे शराबी पति पारिवारिक जीवन के लिए अभिशाप नहीं हैं ? सामाजिक जीवन में यश का नाश मद्यपान करने वाले का यश समाज में कहाँ टिक पाता है ? आये दिन शराब के कारण होने वाली उसकी हरकतों या हलचलों को देखकर उसकी कुचेष्टाओं का साक्षी बना हुआ समाज उसे पागल, बुद्ध , निर्लज्ज, ढीठ, पापी, पारदारिक, लंपट, शराबी, बदमाश आदि नामों से पुकारता है । कोई भी व्यक्ति समाज में उसकी प्रशंसा नहीं करता फिर भले ही वह उच्चकोटि का विद्वान हो, धनी हो, सत्ताधीश हो, पदाधिकारी हो, वैद्य, वकील या कवि हो, संगीतज्ञ हो या साहित्यकार हो, कलाकार हो या वक्ता हो । मद्य जिसके पीछे भूत की तरह लग गया, उसके यश पर कालिख पुतते देर नहीं लगती। समाज का कोई व्यक्ति उसके वचन पर विश्वास नहीं करता। यहाँ तक कि उसके यहां रहने वाला नौकर भी उस पर विश्वास नहीं करता । समाज में उसकी कोई इज्जत नहीं करता। सभी उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं । हदीस में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है-“ऐ मुसलमानो ! तुम शराबी को सलाम मत करना । वह बीमार पड़े तो उसका कुशल-मंगल पूछने न जाना । उसकी मौत के पीछे नमाज भी न पढ़ना।" किसी-किसी जाति-पंचायत या समाज में तो शराबी का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है । कई-कई अपयश के कामी शराबी लम्पट बनकर अपने धन और अधिकार के बल पर अबलाओं पर वासनायुक्त आक्रमण करके अपने जीवन को कलंकित कर देते हैं । एक जगह भारतमाता की सेवा के पवित्र उद्देश्य को लेकर कुछ युवतियाँ For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ आई हुई थीं। दिनभर समाज-सेवाकार्य करके रात्रि को मनोरंजन कार्यक्रम आयोजित किया गया था। जिसकी समाप्ति के बाद सभी शयन के लिए चली गईं। आधी रात गये, दो तीन व्यक्ति शराब में धुत होकर वहाँ आए और अपनी पैशाचिक वृत्ति का परिचय देते हुए इन महिलाओं के साथ बलात्कार में प्रवृत्त हुए । क्या ऐसे शराबी व्यक्ति का कोई भी महिला विश्वास या यशोगान कर सकती है ? कदापि नहीं। ऐसे मद्यासक्त व्यक्ति अपने यश को स्वयं धो डालते हैं। आध्यात्मिक जीवन में भी यशोनाश ___ कई अध्यात्म की डींग हाँकने वाले लोग योग-साधना या सुरत लगाने के नाम पर मदिरा भवानी की उपासना खुलकर करते हैं, या वाममार्ग का आश्रय लेकर मद्य आदि पंच मकार का आश्रय लेते हैं । क्या वे अध्यात्म-क्षेत्र का मुख उज्ज्वल करते हैं या उस पर कलंक की कालिमा पोतते हैं। सचमुच आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रविष्ट ऐसे शराबी अध्यात्म को बदनाम करते हैं, उनका यश नष्ट हो ही जाता है । राजकीय जीवन में यशोनाश राजकीय या राष्ट्रीय जीवन में जहाँ शराब के दौर चलते हैं, राजनेताओं, दरबारियों, शासकों या राजमन्त्रियों में जहाँ शराब को राष्ट्र या राज्य के लिए सर्वनाश का कारण समझते हुए भी नहीं छोड़ी जाती, न ही शराब पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है, वहाँ उस राज्य या राष्ट्र के यश का तो सत्यानाश ही समझिये । इतना ही नहीं, उस राज्य या राष्ट्र की आर्थिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति या प्रगति होनी कठिन होती है। जनता या प्रजा की मद्यपान से सर्वनाश के कारण हृदय से निकली हुई आहे राष्ट्रीय जीवन का सर्वनाश करने से नहीं चूकतीं। - यादवों को राज्यरक्षा के लिए श्रीकृष्णजी ने जो तीन कर्तव्य बताये, उनमें दूसरा कर्तव्य मद्यपानत्याग था। पहला था- द्यूतत्याग और व्यभिचार-त्याग । मगर यादवकुमारों ने उनकी न मानी । मदिरा के घड़े जो खाई में डलवा दिये थे, उन्हें निकालकर मद्य पिया । द्वैपायन ऋषि से छेड़खानी की फलतः वे अत्यन्त क्रुद्ध हो गए । उसी समय बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे, ऋषि से माफी मांगी। उन्होंने द्वारिका नगरी के विनाश का श्राप दे दिया सिर्फ श्रीकृष्ण और बलराम को छोड़कर । वही हुआ जो होना था। इस प्रकार यादवों ने राष्ट्र यश पर कलंक लगा दिया। हवीं शताब्दी में अरब का प्रख्यात सौदागर भारत आया तो उसने देखाभारत में कहीं भी शराब की दुकान नहीं है। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने पापों, दुष्कर्मों और क्रूरता की जड़ शराब को समझकर तुरंत सेवकों को आज्ञा दी किशराब की सुराहियों, प्यालों और बर्तनों को तोड़-फोड़ दो। अपने सामने उसने शराब को जमीन पर फैला दिया। इस घटना से प्रजा ने शराब पीनी छोड़ दी। किन्तु For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्य में आसक्ति से यश का नाश : १२१ मुगलों के राज्य का पतन कुछ बादशाहों की बढ़ती शराबपरस्ती ही थी । यही यहाँ के राजा-महाराजाओं और ठाकुरों का हाल था । " कहते हैं--बहादुरशाह का पोता मुहम्मदशाह दिल्ली के तख्त पर राज्य करता था । यह वह समय था, जबकि नादिरशाह पश्चिम के मार्ग से भारत के प्रान्तों को लूटता हुआ दिल्ली तक आ धमका था । उसने दिल्ली के निकट पहुंचकर बादशाह को लिखा- "दो करोड़ रुपया दो, वरना दिल्ली की ईंट से ईंट बजा दूंगा जब उसका दूत यह पत्र लेकर दरबार में पहुँचा तो बादशाह शराब पी रहे थे, शेरें तथा गजलें गाई जा रही थीं । अमीर उमराव उन्हें 'क्लामुल्मुलुक लुकुलकलाम' कहकर झुक-झुक सलामें अदा कर रहे थे । दूत ने खत दिया । बादशाह ने बजीर से कहा - "पढ़ो क्या है ?" वजीर ने पढ़ा और कहा- " हजूर ! ऐसे गुस्ताखी के अल्फाज हैं कि जहाँपनाह के सुनने काबिल नहीं ।" बादशाह बोला – “ताहम पढ़ो।" खत सुनकर कहा - " क्या यह मुमकिन है कि यह शख्स दिल्ली की ईंट से ईंट बजा दे ?" खुशामदी दरबारियों ने कहा "हजूर ! कतई नामुमकिन है ।" तब बादशाह ने हुक्म दिया - " यह खत शराब की सुराही में डुबो दिया जाए और इसके नाम पर एक-एक दौर और चले । " जब दौर खत्म हुआ तो दूत ने पूछा - " हजूर ! बंदे को वया इरशाद है ?” बादशाह ने हुक्म दिया – “ ५०० अशर्फियाँ और एक दुशाला इसे इनाम दिया जाए ।" दूत चला गया। नादिरशाह तूफान की भाँति दिल्ली में घुस आया। उसने तीन दिन तक कत्लेआम किया । असंख्य हीरे-जवाहरात और तख्ते -ताऊस भी लूट ले गया । दस करोड़ का माल उसे लूट में मिला । बादशाह शराब में मतवाला न होता तो इतनी लूट, फजीहत और अपकीर्ति नहीं हो सकती थी ? राष्ट्रीय यश भी नष्ट न होता । इन सब पहलुओं से मद्यपान के अनेकानेक दुर्गुणों को देखते हुए महर्षि गौतम ने मद्य से विरत होने का संकेत करते हुए स्पष्ट कह दिया 'मज्जं पसत्तस्स जसस्स नासो' मद्यासक्त मनुष्य के सभी क्षेत्रों का यश नष्ट हो जाता है । For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८. वेश्या संग से कुल का नाश धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष ऐसे दुर्व्यसनयुक्त जीवन का विश्लेषण करना चाहता हूँ, जिस दुर्व्यसन के लग जाने पर मनुष्य के कुल का नाश हो जाता है। आप समझते होंगे कि केवल एक परिवार का नाश होता हो तो कोई बात नहीं । मैं आपको यह बताने का प्रयत्न करूँगा कि वेश्यागमन से केवल एक परिवार या कुटुम्ब का ही नहीं, सारे कुल और वंश का विनाश होता है, जो स्वास्थ्य, धन और अन्य भौतिक वस्तुओं के खोने से भी बढ़कर विनाश है । कुल का विनाश बहुत बड़ा विनाश है, क्योंकि कुल के साथ कई चीजें जुड़ी हुई हैं। महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया है 'वेसा पसत्तस्स कुलस्स नासो' -वेश्या में आसक्त व्यक्ति के कुल का नाश होता है । गौतमकुलक का यह ७४वाँ जीवनसूत्र है। आइए, इस पर गम्भीरता से विचार करें कि वेश्या कौन होती है ? किस कारण मूर्ख लोग उसमें आसक्त होते हैं ? वेश्यागमन के क्या-क्या कारण हैं ? तथा वेश्यागमन से कौन-कौन-से कुल का नाशं होता है ? वेश्या : क्या है, क्या नहीं ? वेश्या एक ऐसी कलंकित और पतित नारी है, जो अपना शरीर बेचकर कामी पुरुषों को काम की धधकती आग में जलाती रहती है । भर्तृहरि वेश्या का परिचय एक ही श्लोक के द्वारा देते हैं वेश्याऽसौ मदनज्वाला रूपेन्धन समेक्षिता। कामिभिर्यत्र हयन्ते यौवनानि धननि च ॥ –वेश्या क्या है ? वेश्या कामाग्नि की लपट है, जो रूप-रूपी ईन्धन से सजी रहती है, जिस रूपेन्धनसुसज्जित वेश्या नाम की कामज्वाला में कामी पतंगे अपने यौवन और धन (द्रव्य, रूप, स्वास्थ्य, बल एवं चरित्र) की आहुति देते रहते हैं। वेश्या बहुत ही लुभावनी होती है। साँप का सौन्दर्य और संखिये की उज्ज्वलता भी कम लुभावनी नहीं होती, मगर ये दोनो वस्तुएँ अत्यन्त त्रासदायक और मारक हैं, वैसे ही वेश्या का सौन्दर्य भी अत्यन्त त्रासदायक है, घातक है, धन, कुल, प्रतिष्ठा, शक्ति, स्वास्थ्य आदि का नाशक है । For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्या-संग से कुल का नाश : १२३ लाटी संहिता में वेश्या का स्वरूप बताते हुए कहा है 'पण्यस्त्री तु प्रसिद्धा या वित्तार्थ सेवते नरम् । तन्नाम दारिका दासी वेश्या पत्तननायिका ॥ -जो स्त्री केवल धन के लिए पुरुष का सेवन करती है, वह वेश्या कहलाती है। संसार में वह पण्यस्त्री (देह बेचने वाली स्त्री) के नाम से प्रसिद्ध है । उसे दारिका, दासी (देवदासी), वारांगना, गणिका (वेश्या) या नगर-नायिका (नगरवधू) के नाम से पुकारा जाता है। देशी भाषा में गोग्ग नाम की एक वेश्या स्वयं वेश्या वृत्ति की निन्दा करती हुई कहती है वेश्या विषनी वेलड़ी, कामी कुकुम वृक्ष। बाली बाउलीउ करिय, लघुवय मांहि लक्ष ।। वेश्या पाबक-पूतली, कामी काठ शरीर । तन धन यौवन सिउ दहइ, रहि न नाम्यां नीर ॥ –वेश्या तो विष की बेल है । अल्पवयस्क कामीरूपी कुमकुम वृक्ष के अगर यह वेश्यारूपी बेल चिपट जाए तो उसे जलाकर बबूल बना देता है । वेश्या आग की पुतली है, कामी के काष्ठ-शरीर को यदि इसने जरा भी छुआ कि उसके तन, धन, यौवन आदि को अवश्य जला देगी फिर चाहे जितना पानी छींटो, वह जलने से बचेगा नहीं। वैदिक धर्मग्रन्थों में नारी के जिस रूप का वर्णन है, कि वह स्वभाव से ही लज्जा, दया, क्षमा, सेवा, स्नेह की मूर्ति होती है, उससे ठीक विपरीत रूप वेश्या में देखने में आता है। वह निर्लज्जा, हृदयहीना, निर्दय, क्रूर, स्वार्थमूर्ति एवं धनलोलुप होती है । वेश्या में सरलता, निश्छलता, नम्रता आदि गुण नाममात्र को भी नहीं होते । यही आश्चर्य है कि यह कुलटा धन के लोभ में आकर किसी भी पुरुष के रूप, वय, गुण आदि को नहीं देखती, चाहे जिसके साथ अपने अमूल्य मानव-शरीर का सौदा कर लेती है । जो ज्यादा धन देता है, उसी को अपना शरीर सौंप देती है। कोई कुष्ट-रोगी हो, दुर्बल हो, बूढ़ा हो, अंग लड़खड़ा रहे हों, काला हो या गोरा, सुखी हो या दुःखी, चमार, भंगी हो या ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य हो, वेश्या को उससे कोई मतलब नहीं । किसी का घर उजड़ता हो, किसी का शरीर टी. बी., कैंसर या दमा के रोग से ग्रस्त होता हो, कोई अपने चारित्र से, शील से भ्रष्ट होकर भयंकर पापकर्म करके चाहे नरक-तिर्यञ्च में जाता हो, वेश्या को इसकी बिलकुल चिन्ता नहीं । वेश्या की तो वैश्य-वणिक्वृत्ति है, जो धन अधिक देता है, वहीं वह १. लाटी संहिता २/१२२ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ देह का सौदा कर लेती है। माधव-कामकन्दला-प्रबन्ध में कामकन्दला गणिका को अन्य गणिकाएँ समझी रही हैं, उससे वेश्या की वेश्यावृत्ति का चित्र स्पष्ट हो जाता दाम सरीसुं काम ॥ ध्र व ॥ सिउ कोढ़ी, सिय दूबलु, सिउ सफेद, सिउ श्याम । एह कथा शी आपणइ ? दाम सरीसु काम । जरा-जुरण जोब्बन किसिउ, सिउ गोरउ, सिउ स्याम ? एह कथा शी आपणइ, दाम सरीसुं काम । सुखी-दुखी नय पूछीइ, किणि पेरे लियाविउ दाम ? एह कथा शी आपणइ, दाम-सरीसुं काम । भावार्थ स्पष्ट है । शरीर और सौन्दर्य का खुला सौदा करना ही वेश्या का काम है । उसे समाज, राष्ट्र, विश्व के बनने-बिगड़ने, उत्थान-पतन, गरीबी-अमीरी जीने-मरने से कोई मतलब नहीं । __ कैसी है यह लुटेरी, जो अपना तन बेचकर मनुष्य का धन, बल, चरित्र और आरोग्य छीन लेती है। ___ अतः वेश्या पतित से पतित स्त्री है, स्त्री जाति का कलंक है, पुरुष जाति का कोढ़ है । यह समाज की जूठन है । गुह्य रोगों का धाम है । वसुनन्दि श्रावकाचार में कहा है रत्तणाऊण णरं सव्वस्सं हरइ वंचणसएहिं । काऊण मुयइ पच्छा पुरिसं धम्मट्ठि-परिसेसं ॥ –वेश्या मनुष्य को अपने पर आसक्त जानकर उससे सैकड़ों छल-कपटों द्वारा उसका सर्वस्व हरण कर लेती है और अस्थि-चर्ममात्र शेष रह जाने पर उसे छोड़ देती है । वह पुरुष की सम्पत्ति और प्रतिष्ठा लूटकर उसे ऐसे फेंक देती है, जैसे कोई गन्ने का रस चूसकर उसे कूड़ेदान में फेंक देता है। . प्राचीन काल में अनेक धर्म-ढोंगियों ने वेश्या को तथाकथित धर्म को या देवी-देवों की ओट में पनपने दिया, जिसके परिणामस्वरूप राजाओं, सत्ताधीशों, धनाढ्यों के प्रश्रय में गणिका संस्था फली-फूली । उसे नृत्यकला, संगीतकला और अन्य गायन-वादनकला में प्रवीण होने के कारण विभिन्न उत्सवों वगैरह में आमंत्रित किया जाता था। दक्षिण भारत की देवदासी प्रथा इसी का ही परिवर्तित रूप है । रामजनी, देवदासी, भगतन, मुरली, ये देवालयों में देवी-देवों के लिए अर्पित होकर नृत्य, गीत, वाद्य द्वारा लोकरंजन करती हैं, इसके अतिरिक्त पुजारियों एवं आगन्तुक भक्तों की वासनापूर्ति का काम भी। देह बेचने का निन्द्य कसब-धन्धा करती हैं, For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्या-संग से कुल का नाश : १२५ इसलिए कसबन भी कहलाती हैं। आश्चर्यजनक लोकविरुद्ध कार्य करती हैं, इसलिए 'तायफोइ' भी कहलाती हैं । इसी प्रकार ये वृद्ध, युवक, काला-गोरा, रोगी, हत्यारा आदि सभी पात्रों को धन के बदले में अपनाती हैं, तथा घृणा की पात्र होने के कारण 'पातरियाँ' भी कहलाती हैं। वेश्याओं के संसर्ग से बुरा हाल वेश्या का संसर्ग किसी भी मनुष्य के लिए अच्छा नहीं होता । साधुओं के लिए तो यहाँ तक बताया गया है कि वेश्याओं के मोहल्ले में भी न जाए, न उधर से होकर विचरण करे । 'संसर्गजः दोषगुणा भवन्ति' इस न्याय के अनुसार वेश्या का संसर्ग भी बहुत बुरा है । फिर उसका सेवन या उसके प्रति आसक्ति तो और भी बुरी है । वेश्यागमन मे कदाचित् क्षणिक दैहिक सुख प्राप्त हो जाए, किन्तु बदले में कष्ट और रोग के रूप में भारी मूल्य चुकाना पड़ता है । एक घटना समाचार पत्र में पढ़ी थी । बम्बई में जयपुर के ४-५ मेहमान एक कुलीन गृहस्थ के यहाँ टहरे हुए थे। रात को वे सैर-सपाटे के लिए निकले । पूछते-पूछते वे वेश्याओं के मोहल्ले में पहुँच गये । वह मोहल्ला ही ऐसा था कि जहाँ प्रतिदिन दो-चार लूट-खसोट, मार-पीट एवं हत्या की वारदातें हुआ करती थीं। उन सफेदपोशों को देखते ही एक दलाल उनके पीछे लगा गया। वे उसके साथ सीधे एक कोठे पर चढ़ गये । वहाँ देखा तो नीचे दर्जे की कुछ भयावनी-सी औरतें मेकअप किये हुए बैठी थीं। कुछ गुण्डे भी वहाँ पड़े थे । उनका यह ढंग देखकर आगन्तुक लोग वहाँ से खिसकने लगे। परन्तु गुण्डे उन्हें कैसे जाने देते ? उन्होंने उनकी घड़ी, चेन, दुपट्टा, कोट, रुपया-पैसा वगैरह सब छीन लिया, तब वहाँ से जाने दिया। जब वे लोग सीढ़ियों से उतरने लगे तो वे दुराचारिणी स्त्रियाँ उन पर जूते फेंकने लगीं। इस पर एक साथी ने वापस लौटकर एक बाँस उठाया और एक गुण्डे पर दे मारा । फिर दूसरे साथी भी आ पहुँचे, वे भी टूट पड़े । इस तरह कइयों के सिर फूटे । स्त्रियों के चिल्लाने से पुलिस दल आ पहुँचा और उन गुण्डों, व्यभिचारिणी औरतों तथा सैर करने वाले लोगों को पकड़कर थाने में ले गया। वहाँ उन्हें रात भर हवालात में बन्द रखा। सुबह १० बजे सब हाल सुनकर उन्हें छोड़ा गया। किसी तरह राम-राम करके वे जहाँ ठहरे थे, वहाँ आए और वहाँ से सीधे जयपुर पहुंचे। यह बुरा हाल केवल वेश्या-संसर्ग के कारण हुआ, वेश्यागमन और वेश्यासक्ति से तो और भी बुरा हाल होता है । वेश्यागामी पुरुषों की दशा वेश्यागामी पुरुष अक्सर अन्य दुर्व्यसनों में भी फँसा होता है, क्योंकि वेश्याएँ भी प्रायः शराब पीती हैं, मांसाहार भी करती हैं, और कभी-कभी किसी धनिक की हत्या करके या विष देकर उसे समाप्त कर देती हैं, और फिर उसका माल हजम कर लेती हैं। चोरों और डकैतों से भी वेश्या सम्बन्ध रखती हैं । इसलिए चोरी और For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ ste का माल भी उसके यहाँ आता है । वह किसी एक की नहीं होती । वह तो प्रायः धन पर दीवानी होती है । धन समाप्त होते ही वह उसे लात मारकर भगा देगी । कर्पूरकर में वेश्या के स्वरूप का स्पष्ट चित्रण किया गया है वेश्या विश्वकलत्रमत्र तदहो पानीयशालाजले, यवत् कान्दविकाशने च शुचिता का प्रायशस्तादृशी । तस्मात् सा कृतपुण्यवत् कृतकमुच्छोकोदया किं प्रिया, पूर्णेऽलं विशदा स्वभावकलुषा दोषाऽपिनेन्दौ कृशे ॥ ११ ॥ - वेश्या क्या है ? वह किसी एक की नहीं, सारे विश्व की स्त्री है । इसी कारण वह किसी एक की प्रिया नहीं हो सकती । जैसे प्याऊ के पानी में और हलवाई के यहाँ के भोजन में कोई पवित्रता नहीं होती; क्योंकि वहाँ तो सब एक दूसरे का जूठा खाते-पीते हैं । इसी प्रकार वेश्या भी सब लोगों की जूठी की हुई होती है, उसमें पवित्रता कहाँ ? जैन कवि भूधरदास वेश्यागामी पुरुषों को धिक्कारते हुए कहते हैं धन- कारन पापिनि प्रीति करै, नहि तोरत नेह जरा तिनको । लब चाखत नीचन के मुख की, शुचिता सब जाय छिये जिनको । मद-मांस बजारन खाय सदा, अंध विसनी न करें घिन को । गनिका - संग जे सठ लीन भये, धिक् है, धिक् है, धिक् है तिनको ॥ भावार्थ स्पष्ट है । कहना होगा कि वेश्या संग किसी भी तरह से उचित नहीं है । वेश्या तन से भी अपवित्र होती है, मन से भी । वह हर कामी पुरुष के सामने कहती हैं — "हृदयेश्वर ! आपके सिवाय मेरा कोई स्वामी नहीं है ।" हजारों खुशामदें भी करती है । परन्तु उसके हृदय में कपट होता है । 1 राजगृह निवासी धनदत्त सेठ का पुत्र कृतपुण्य बहुत सुन्दर, सुरूप और भद्र था । माता-पिता ने उसे चतुर बनाने हेतु वहाँ की प्रसिद्ध गणिका वसन्तमंजरी के यहाँ भेजा । गणिका ने पहले तो उसे खूब आदर-सत्कार दिया । कृतपुण्य को बहकासिखाकर वह उससे धन मंगवाती रही । वेश्यासक्त ने भी अपने पिता के करोड़ों रुपये लाकर वेश्या को दे दिये । उसने कुछ ही वर्षों में अपने धन, धर्म, स्वास्थ्य, बल, रूप और कुल को वेश्या की कामाग्नि में होम दिया। जब वह सब तरह से खाली हो गया और वेश्या ने देख लिया कि इसके माता-पिता भी न रहे और न ही इसके पास अब धन रहा है, तब उसने एक दिन कृतपुण्य को अपमानित करके अपने घर से froar दिया । वह उदास और निराश होकर घर आया तो उसकी चारों पत्नियों For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्या-संग से कुल का नाश : १२७ ने ताना मारा और उससे क्लेश करने लगीं। अतः कृतपुण्य घर छोड़कर निराधार चल दिया। यह है वेश्यागमन या वेश्यासक्ति का दुःखद परिणाम ! सचमुच वेश्या उस कलुष रात्रि के समान अत्यन्त स्वार्थी है कि जब उसका स्वामी चन्द्र पूर्णकलायुक्त व निर्मल होता है, तब वह भी निर्मल श्वेत रहती है, परन्तु जब चन्द्र की कला समाप्त हो जाती है तो वह भी काली हो जाती है । वेश्या के पीछे लगे हुए बड़े-बड़े सत्ताधीश और धनाधीश तबाह और दर-दर के भिखारी हो गये । इसीलिये सत्येश्वर गीता में कहा है वेश्यागमन करो नहीं, उजड़ेगा संसार । स्वास्थ्य नाश धननाश है, जीवन बंटाढार ॥ श्री अमृत काव्य संग्रह में भी वेश्या-संग की निन्दा की गई हैपरधन ठगिबे को करत कला अनेक, हावभाव दाखे मीठे वचन उच्चारे है। पतंग के रंग सम, जनावे अनित्य प्रीति, तन-मन-धन लूटी करत असार है। नीच मुखलब नित चाटत अभक्ष ऐसी, कुटिला कुपात्र महा अशुचि-आगार है । कहे अमीरिख सबै चातुरी भले है करे, पातुरी को संग ताको कोटिन धिक्कार है। भावार्थ स्पष्ट है। वेश्यावर्ग : आवश्यक या अनावश्यक कई लोग कहते हैं-जिनमें समाज सुधारक भी हैं, कि यद्यपि वेश्यावर्ग एक घृणित, पतित, निन्द्य वर्ग है, अनैतिक है, लेकिन वह समाज, परिवार और राष्ट्र की स्वच्छता के लिए आवश्यक भी है। यूरोपीय नीति का इतिहास लेखक 'लेकी' कहता है-"यद्यपि वेश्यावर्ग दुर्गुणों का सबसे बड़ा प्रतीक है, लेकिन वह सद्गुणों का का सुदक्ष द्वारपाल और रक्षक भी है । वेश्या न होती तो असंख्य सुखी परिवारों की पवित्रता अवश्य नष्ट हो जाती है । वही वर्ग ऐसा है जो स्वयं जनता के पापों का शिकार बनकर मानव की काम-पिपासा पूर्ण करता है।" कुछ भारतीय विचारक भी इस भ्रम के शिकार हैं कि जिस तरह किसी नगर, गांव या मकान की स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के लिये नालियाँ, परनाले, गटर, टट्टीघर, पेशाबघर एवं कूड़ा-दान आदि जरूरी हैं, समाज की स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के लिए वेश्यावर्ग की आवश्यकता है, जिसमें से होकर समाज की सारी गन्दगी बह जायेगी। ये और इस प्रकार की अन्य युक्तियाँ देकर कुछ लोग वेश्यावर्ग की उपयोगिता सिद्ध करने का मिथ्या प्रयास करते हैं। वे यह नहीं समझते कि इससे वेश्यावर्ग की For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ जड़ें मजबूत होंगी और वेश्यावर्ग की जड़ें मजबूत करने का अर्थ है-समाज में सर्वत्र झूठ, चालाकी, अनीति, उन्मुक्त व्यभिचार, छल, आर्थिक शोषण, फैशन, विलास आदि अनिष्टों की जड़ें मजबूत करना । उन अनिष्टों का चेप पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय संस्था को भी लगेगा, जिससे समाज, परिवार या राष्ट्र स्वच्छ रहने के बजाय अधिक कलुषित हो जाएगा। प्राचीन काल में आम आदमी वेश्या के यहाँ नहीं जाता था; क्योंकि जनसाधारण की इतनी हैसियत नहीं होती थी कि वह वेश्या के यहाँ सीधा पहुँच सके । बिना धन-वैभव के वेश्या किसी का भी स्वागत नहीं करती, चाहे वह कितने ही उच्च कुल का क्यों न हो। इसलिए वेश्या के यहाँ आम आदमी कदापि नहीं पहुंच सकता था। वेश्या के यहाँ राजा, महाराजा, बादशाह या कोई धनाढ्य पुरुष ही पहुँच सकता था। तब आज यदि आज वेश्यावर्ग को आम जनता के लिए खुला कर दिया जाएगा तो परिवार या समाज स्वस्थ एवं स्वच्छ रहने के बदले कई गुना अधिक अस्वस्थ, अस्वच्छ एवं पाप-मलिन हो जाएया । परिवार एवं समाज की स्त्रियां भी पति-पत्नी में सहसा कोई अनबन, विचार-भेद, संघर्ष या मनमुटाव होते ही पत्नी, संभव है, वेश्यावृत्ति के निरंकुश व्यापार मे लग जाये और पति और कोई चारा न देख वेश्या के यहाँ जाकर अपनी काम पिपासा शान्त करे । इस प्रकार पति और पत्नी दोनों एक-दूसरे के प्रति गैरजिम्मेदार, गैर-वफादार एवं अहंकारी बनकर गृहस्थधर्म की नैतिक सीमा का भी उल्लंघन कर जाएँगे । ऐसी स्थिति में वेश्यावर्ग का समर्थन कैसे किया जा सकता है ? साथ ही समाज की गृहिणियों के शील की रक्षा वेश्यावर्ग के द्वारा शील भंग करने से कैसे हो जाएगी ? प्रत्युत वेश्यावर्ग के शील-भंग पर गृहिणी का शील-संरक्षण कब तक टिका रह सकता है ? यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई अपने घर में निकले हुए साँप को पड़ौसी के आँगन में फेंककर स्वयं सही-सलामत महसूस करे, या अपने भयंकर रोग को भगवान से प्रार्थना करके दूसरे के शरीर में धकेलकर स्वयं नीरोग अनुभव करे । यह सच है कि वेश्यावर्ग गन्दा, नीच, घृणित और किसी न किसी भयंकर चेपी रोग से आक्रान्त रहता है । वेश्यागृह में प्रविष्ट होकर क्या कोई भी युवक इनके संक्रमक रोगों से बच सकता है ? कभी नहीं बचेगा। जब युवक विषाक्त रोगों से आक्रान्त हो जाएगा तो क्या उस रोग के कीटाणु उसकी पत्नी एवं सद्यःजात बालबच्चों में नहीं फैलेंगे ? इस प्रकार अनेक रोगों को वेश्यागृह से ढोकर लाने वाला युवक वेश्यावर्ग का पोषण करके अपने गृहस्थाश्रम या परिवार को कैसे पवित्र रख सकेगा ? वह तो वेश्यावर्ग की अपवित्रता को अपने परिवार में लायेगा ही। ___ अपवित्र वेश्यावर्ग के रहने से शील की मर्यादा में बद्ध परिवार कैसे पवित्र रह सकेगा? For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्या-संग से कुल का नाश : १२६ वेश्या-आसक्ति से कुलों का सर्वनाश यह तो महादुर्भाग्य होगा उस समाज या राष्ट्र का-जिसके सिर पर वेश्यावर्ग रूपी कलंक का काला टीका विद्यमान है । वेश्याओं के द्वार का दर्शन करते ही मर्यादा (लज्जा या शील की) का पट फट जाता है; धर्मशास्त्र भी विस्मृत हो जाते हैं; ओज, तेज, सौन्दर्य एवं स्वास्थ्यरूपी धन विदा हो जाता है; ऋतुमती होने पर भी लोभवश कामीपुरुष के साथ दुराचार में प्रवृत्त होने वाली वेश्या आतशक, सुजाक, क्षय, कुष्ट आदि भयंकर रोगों से आक्रान्त हो जाती है, तब क्या उसका संग करने वाला अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रख सकता है ? वेश्या की अट्टालिकाओं पर प्रायः जुए का अड्डा और मधुशाला (मद्यपानगृह) की महफिल-दोनों विद्यमान रहते हैं, तब वहाँ जाने वाला इन दुर्व्यसनों के चेप से मुक्त कैसे रह सकता है ? और मांसाहार तथा शराब, जुआ तथा चोरी-लूट एवं हत्या आदि भयंकर पापों का सेवन करके वेश्यागामी अपने परिवार एवं समाज को इस भयंकर छूत से कैसे बचा सकेगा? अतः वेश्यावर्ग का अस्तित्व तो प्लेग की बीमारी के समान है जिससे कोई भी कुटुम्ब, परिवार, समाज या राष्ट्र विनाश के गर्त में पड़ने से बच नहीं सकेगा। इसीलिए कहा गया है वेश्या श्मशानसुमना इव वर्जनीया —वेश्या श्मशान घाट के फूलों की तरह सर्वथा त्याज्य है। इतिहास के विद्यार्थी जानते होंगे कि १४वें लुई के समय में फ्रांस में वेश्याओं का बोलबाला था । व्यभिचार खुलेआम होता था, शील की कोई मर्यादा नहीं थी। न तो उस समय एक-पतिव्रत-धर्म शेष रहा था और न ही एक-पत्नीव्रत-धर्म । फ्रांस एक प्रकार से वेश्यावृत्ति की लपटों में जल रहा था। १५वाँ लुई अत्यन्त स्त्रीलम्पट था। बुढ़ापे में भी वह इतना वेश्यासक्त था कि उसी एक वेश्या के संकेत पर सारा राज्यकार्य चलाता था। वहाँ के सामन्तों एवं उमरावों (लॉर्डों) की स्त्रियां भी व्यभिचारिणी हो गई थीं, उनका मध्यमवर्गीय पुरुषों के साथ अनुचित सम्बन्ध हो गया था। वहाँ के धर्मोपदेशक भी उस समय दुराचारी हो गये थे । फ्रांस के १५वें लुई के साथ-साथ वहाँ की समस्त जनता वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और अन्यान्य पापकर्मों में इतनी लिप्त हो गई थी कि वह न तो धर्म और ईश्वर को मानती थी, और न ही धर्मगुरु को । पाखण्ड कहकर सबकी मजाक उड़ाती थी। फ्रांस के वेश्यासक्त लोग अपने परिवार, समाज और राष्ट्र की समस्त नैतिक मर्यादाओं को भूलकर अत्यन्त स्वच्छन्द बन गये थे। ऐसे अति-विलासी और व्यभिचारी तथा उच्छृखल जन-जीवन का नतीजा यह हुआ कि फ्रांस में भयंकर रक्तपात, क्रूरता, हत्या, मारकाट आदि पापकर्म फूट निकले, जिसे रक्त-क्रान्ति का नाम दिया गया। इतिहासकार लिखते हैं कि उन्हों व्यभिचारिणी पतित नारियों ने अपने हाथों से उन घायल सिपाहियों के गले काटकर उनके कलेजे का मांस पकाकर खाया। कैदियों For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ को मशीनगन से सरेआम बाजार में भून डाला गया। गली-गली में खून के फव्वारे छूटते थे। यह सब रक्तपात हुआ था, सिर्फ वेश्यावर्ग के साथ संसर्ग की खुली छूट के कारण । फिर कैसे कहा जा सकता है कि वेश्यावर्ग के होने से सामाजिक, कौटुम्बिक और राष्ट्रीय कुल-मर्यादाएं सुरक्षित रहेंगी ? यही कारण है कि महर्षि गौतम ने पहले से ही दीर्घदर्शितापूर्ण विचार करके चेतावनी दे दी कि वेश्या-संग से कुटुम्ब, समाज, जाति और राष्ट्र के कुल का सर्वनाश निश्चित है। जिस प्रकार एक परिवार का कुल होता है, उसी प्रकार जाति, समाज और राष्ट्र का भी कुल होता है । जहाँ वेश्यावृत्ति चलती है, या जिस कुटुम्ब, जाति, समाज या राष्ट्रकुल के लोग वेश्याव्य मिचार में प्रवृत्त हो जाते हैं, उस कुटुम्ब, जाति, समाज या राष्ट्र के कुल में से उत्तम संस्कारों, पवित्र धर्ममर्यादाओं एवं निर्मल सदाचरणों का सफाया हो जाता है । भले ही उस कुटुम्ब, जाति, समाज या राष्ट्र के कुलीन लोग जिंदा रहते हों, श्वास लेते हों, कदाचित् धन भी कमाते हों, पर वे पवित्र संस्कारधन से, उत्तम धर्म से, निर्मल सदाचरण से बिलकुल शून्य हो जाते हैं। फ्रांस की करुण कहानी सुनकर क्या आप विश्वास नहीं करेंगे ? और हजारों वर्षों पहले की रावण की व्यभिचारी वृत्ति का नतीजा तो इतिहास का पन्ना बोलकर कह रहा है-रावण के कुल का सर्वनाश । स्पार्टा के इतिहास की मुह बोलती घटनाएँ कह रही हैं कि जब तक वहाँ वेश्याओं के उन्मुक्त बाजार लगे रहे, व्यभिचार का खुलेआम सौदा होता रहा, तब तक सारा स्पार्टा, यहाँ तक कि यूनान भी मद्यपान, ऐय्याशी, विलासिता, आलस्य एवं बेकारी में फँसा रहा । न वहाँ सामाजिक जीवन शुद्ध रहा और न ही आर्थिक जीवन ! सर्वत्र रिश्वत, घूस, छल, बेईमानी और झूठ-फरेब का बाजार गर्म था। इस ओर स्पार्टा के प्रसिद्ध सम्राट् लाइगरकस का ध्यान गया। उसने इस दुर्व्यवस्था, अशान्ति और अराजकता को बदलने के लिए सर्वप्रथम सभी प्रकार की वेश्यावृत्ति और निरंकुश व्यभिचार प्रवृत्ति को रोका। उसने सरकारी फरमान जारी कर दिया कि कोई भी युवक-युवती स्वतन्त्रता से विवाह नहीं कर सकेंगे । उसके लिए सरकार की आज्ञा लेनी जरूरी होगी। सरकार भी उन्हीं युवक-युवतियों को विवाह से लिए आज्ञा देगी, जो स्वस्थ, बलिष्ठ एवं योग्य वय के होंगे। विवाहित स्त्री-पुरुष भी स्वच्छन्दतापूर्वक एक जगह नहीं सो सकेंगे । स्पार्टा सरकार ने यह व्यवस्था कर दी कि प्रत्येक घर में स्त्रियाँ सब एकत्र होकर भीतर सोएँ, पुरुष सब एकत्र होकर बाहर । वे सिर्फ ऋतुकाल में ही एकत्र हों । इसका परिणाम यह हुआ कि स्पार्टा में वेश्यावृत्ति या वेश्यासक्ति अथवा स्वच्छन्द व्यभिचार प्रवृत्ति बिलकुल न रही । यह था, परिवारगत, समाजगत एवं राष्ट्रगत कुल को शुद्ध, संस्कारी एवं स्वच्छ रखने का उपाय ! वेश्यावर्ग को बढ़ावा देने से तो इन कुलों में से किसी में भी शुद्धि नहीं रहेगी। फ्रांस की तरह ये सब कुल स्वच्छन्द वेश्या-व्यभिचार या स्वर For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैश्या-संग से कुल का नाश : १३१ व्यभिचार से अशुद्ध हो जाएँगे । विकृति को पनपने देकर शुद्ध संस्कृति को कभी जीवित नहीं रखा जा सकता।। वैश्या-संस्था को अधिक प्रोत्साहन देना परिवार, समाज एवं राष्ट्र की गहिणियों में विकृत खान-पान, ऐश-आराम, फैशन और विलास को न्यौता देना है। फिर तो वेश्याओं की देखा-देखी वे भी उसी फैशन और विलास का अनुसरण करेंगी। उनके पुरुष जब वेश्यागृहों में जाकर क्षणिक स्पर्शसुख का आनन्द लूटेंगे तो वे भी परपुरुषों को आकर्षित करके घर में ही वेश्यावृत्ति करके स्पर्शसुख का आनन्द नहीं लूटेंगी? ___क्या इस प्रकार वेश्यावर्ग को या वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने से पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय कुल का गौरव सुरक्षित रह सकेगा? प्रबल वेश्यासक्ति से कुल विनाश के कगार पर एक जमाना ऐसा था कि राजा-महाराजा लोग आए दिन उत्सवों में वेश्याओं को नृत्य, गीत, वाद्य द्वारा लोकरंजन करने के लिए बुलाते थे, उन्हें बहुत बड़ी राशि पुरस्कार में देते थे तथा धनिक वर्ग के लोग भी अपने पुत्रों के विवाहों में रंडियों को नाच-गान करने के लिए बुलाते थे । इसका बहुत ही बुरा असर दर्शकों पर पड़ता था। प्रायः कुलीन घरानों के, धनाढ्य घरों के बहुत-से युवक वेश्यासक्त होकर रात-दिन उन्हीं के यहाँ पड़े रहते थे। उनका सारा जीवन बर्बाद हो जाया करता था, साथ ही उनका सारा कुटुम्ब भी धन से, इज्जत से, चिन्ता से बर्बाद हो जाता था। इस सारे कुल की बर्बादी का कारण बनती थी--युवक के द्वारा की हुई वेश्या-आसक्ति। ___ राजगृह के जिनदत्त सेठ का परिवार केवल धनिक ही न था, कुलीन, संस्कारी, श्रेष्ठ आचार-विचार और शुद्ध व्यवहार में अग्रणी था। उनके कुल में सातों कुव्यसनों का त्याग परम्परा से चला आ रहा था। किन्तु उनके इकलौते पुत्र को वेश्यागमन का दुर्व्यसन लग गया था। मगर वह जाता था चुपके-चुपके रात को ही, क्योंकि उसके मन में पिता और जाति का भय था। परन्तु क्या वेश्यासेवन जैसा पाप रुई लिपटी आग की तरह छिपा रह सकता है ? एक दिन किसी ने उसे वेश्या के यहाँ जाते देखकर जिनदत्त सेठ से कह दिया-'सेठजी ! अब तक आपका कुल कलंकरहित था, परन्तु अब आपका पुत्र वेश्यागमन के कलंक से उसे कलंकित करने जा रहा है । आप उसे इस दुष्कृत्य से अवश्य रोकें।" सेठ जिनदत्त को यह सुनकर बहुत धक्का लगा। उसने पुत्र को एकान्त में बुलाकर कहा- "बेटा ! अपना कुल सदा से पवित्र, सभी व्यसनों से मुक्त, शुद्ध, संस्कारी और सदाचारी रहा है। अपने कुल में अनेक धर्मात्मा महापुरुष हुए हैं। हमारा कुल जूआ, चोरी, मद्यपान, वेश्यासंग, आदि बुराइयों से सदैव दूर रहा है । वेश्यासंग वही करते हैं, जो अकुलीन, असंस्कारी और धर्मकर्म से हीन हों। ऐसा करके वे समाज में बदनाम होते हैं, अपने कुल को भी बदनाम करते हैं । वेश्या तो सबकी जठन है। For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ जूठा भोजन तो कौए, कुत्ते आदि ही खाते हैं। पशुसम विवेकभ्रष्ट कामी लोगों के सिवाय वेश्यासेवन कोई नहीं करता । वेश्या तो बीमार, कोढ़ी, चोर, उचक्के आदि सभी के साथ सहवास करती है। जिसने पंचों की साक्षी से किसी कुलीन पतिव्रता नारी से विवाह किया है, भला वह कुलीन एवं श्रेष्ठ आचार-विचारसम्पन्न पुरुष वेश्या के साथ समागम कर सकता है ? अगर तुममें यह ऐब हो तो शीघ्र ही छोड़ देना। यह दुर्व्यसन हमारे कुल का सर्वनाश कर देगा, हमारे कुल के सभी श्रेष्ठ आचार-विचार, संस्कार आदि का सफाया कर देगा।" पिता की बात सुनकर लड़का लज्जित हो गया, नीचा मुंह करके बोला- 'आपकी बात सत्य है।" फिर भी वह इस निन्द्य एवं कुलनाशक दुर्व्यसन को छोड़ न सका । वेश्या के मोह में वह अन्धा हो गया था । वह किसी न किसी तरह सबकी नजर बचाकर प्रतिदिन वेश्या के यहाँ पहुँच ही जाता। पिता ने उसकी यह दुष्प्रवृत्ति देखकर फिर एक दिन उससे कहा "बेटा ! मैंने सुना है, तुम किसी वेश्या में आसक्त हो । परन्तु तुम जानते हो कि वेश्या के यहाँ चोर, डाकू, हत्यारे आदि सब जाते हैं । तुम भी उसी रास्ते से रातबिरात अकेले जाते हो, अगर असमय में तुम्हें अकेले जाते देख कोई व्यापारी-पुत्र होने से धन के लोभ में आकर मारे-पीटे, हत्या कर डाले, या अपहरण करके ले जाए तो हमारे लिए तुम्हारे बिना सर्वत्र अंधेरा हो जाएगा। इसलिए कुलदीपक ! तुम असमय में मत जाया करो । अगर तुम्हरा मोह वेश्या से न छूटे तो तुम प्रातःकाल उसके यहाँ जा सकते हो।" श्रेष्ठि-पुत्र अपने पिता की सहमति पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। सोचा- 'अपना क्या है ? रात को न जाकर सुबह ही जाया करूंगा।' सबेरा होते ही लड़का वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर वेश्या के यहां पहुँचा । देखा तो उसका रूप बिलकुल विकराल और घृणित-सा लगा। उसके बाल बिखरे हुए, गले में डाले हुए फूल मुरझाए हुए, काजल के दाग मुंह पर लगे हुए थे, वह बिलकुल चुडैल-सी बेडौल, बदसूरत लगती थी। उसके पास ही शराब पीने से हुई के पड़ी थी। जूठे बर्तनों का ढेर पड़ा था, मक्खियाँ भिन-भिना रही थीं। हुक्का पीकर जगह-जगह कफ थूका हुआ था। वेश्या का यह रंग-ढंग देखकर सेठ का लड़का हक्का-बक्का रह गया । सोचा, कहाँ सायंकालीन अप्सरा-सा रूप और कहाँ यह घृणाजनक रूप । इन दोनों में वास्तविक रूप कौन-सा है ? वेश्या का असली रूप तो यही है । पिताजी ने बिलकुल सच कहा था- ऐसी घृणित, निन्द्य, नीच वेश्या के यहाँ जाना कुलीन गृहस्थों का काम नहीं है। वह थोड़ी देर अनमना-सा होकर बैठा, फिर यह निश्चय करके चल दिया 'अब मैं कभी वेश्या के यहाँ नहीं जाऊँगा।' बन्धुओ ! श्रेण्ठिपुत्र पिता के समझाने से तथा वेश्या के असली रूप का अनुभव करने से शीघ्र ही इस दुर्व्यसन से छूट गया, अन्यथा सारे कुल का यश, धन, संस्कार, श्रेष्ठ आचरण धूल में मिल जाता। For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्या-संग से कुल का नाश : १३३ वेश्यासमागम के भयंकर परिणाम वेश्यागमन की सभी धर्मशास्त्रों ने एक स्वर से निन्दा की है, फिर भी इसका इतना प्रचार क्यों है ? प्राचीन राजा-महाराजाओं ने वेश्याओं का बहुत समर्थन किया और जब-तब उन्हें प्रतिष्ठा दी, इस कारण शासक या धनिक दो ही वर्ग वेश्या-संग करते थे, परन्तु मुगल शासनकाल अथवा ब्रिटिश शासनकाल में मुगल बादशाहों के ऐय्याशी पूर्ण जीवन को देखकर धीरे-धीरे शासकों के अधीनस्थ अधिकारीगण या कुछ कर्मचारीगण भी वेश्या के शिकार बन गये थे। उसके पश्चात् यूरोप के ईसाई राष्ट्रों का जब मुस्लिम राष्ट्रों के साथ धर्मयुद्ध हुआ, अथवा १६१४ से १९१८ तक विश्वयुद्ध चला उस समय योद्धा लोगों के मनोरंजन एवं उनकी काम-लिप्सा शान्त करने हेतु वेश्याओं को बुलाया जाने लगा। उनका पड़ाव वहाँ लगता था, जिसमें सैनिकों को अपने क्रम के अनुसार उनके पास जाने का अवसर दिया जाता था। इसके अतिरिक्त पर्यटक लोगों के सुखोपभोग के लिए भी बाद में वेश्याओं की उपयोगिता मानी गयी। साथ ही प्रवासी व्यापरियों या बड़े शहरों में काम करने वाले श्रमजीवियों की कामवासना की पूर्ति के लिए भी वेश्याओं का जाल शहरों में बिछाया जाने लगा। आज तो कलकत्ता, बम्बई आदि बड़े-बड़े शहर इन रूपाजीवियों के अड्डे बन गये हैं, वे रूप की हाट में बैठकर आम आदमियों को अपने शृंगार, रूप आदि से मोहित करके कामतृप्ति का सौदा करती हैं। क्या कोई बुद्धिमान यह बता सकता है, कि वेश्याओं की उपयोगिता की ये सब युक्तियाँ समाज के चरित्र-निर्माण में, परिवार के संस्कार-सिंचन में, राष्ट्र के सदाचार को सुदृढ़ करने के लिए उपयुक्त हैं ? वास्तव में वेश्या-संस्था की इन कार्यों में उपयोगिता कोई अर्थ नहीं रखती, जबकि परिवार, समाज और राष्ट्रगत कुल की जड़ों में ये घुन का काम करती है। __मैं पहले यह बता चुका हूँ कि जितना-जितना वेश्या-संस्था को प्रोत्साहन दिया जाएगा, उतना-उतना पारिवारिक कुल, राष्ट्र कुल एवं सामाजिक कुल पर घोर संकट है। बल्कि सैनिकों, विदेशी पर्यटकों या प्रवासी व्यापारियों व श्रमजीवियों को वेश्यासेवन की खुली छूट देने से उनका अपनी पत्नियों के प्रति व्यवहार अच्छा नहीं होता। कई बार वे अपनी पत्नियों पर अत्याचार करते देखे जाते हैं, उनके चरित्र पर शंका करते हैं और उनकी हत्याएँ भी कर बैठते हैं, इन सबका कारण है-वेश्यासम्पर्क। वेश्यासक्ति : सर्वनाश का कारण एक बार जिनकी आदत वेश्यासेवन की लग जाती है, फिर वे धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, आत्मा-परमात्मा आदि को कुछ नहीं मानते, न धर्ममर्यादा को मानते हैं । फलतः चाहे जिस कुलीन, रूपवान एवं भोली-भाली निर्धन युवती को फूसलाकर अपनी रखेल, पासवान या उपपत्नी के रूप में रखकर उसे भ्रष्ट करते हैं, स्वयं भ्रष्ट होते हैं, और अपने समस्त कुल को कलंकित करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ प्रवासी व्यवसायियों, सैनिकों या पर्यटकों आदि की कामपिपासा शान्त करने के लिए ऐसी घृणित-पतित स्त्रियों की फौज तैयार करनी पड़े, जो निर्लज्ज और कठोर होकर व्यभिचार करने और अपना शरीर बेचने को विवश हो जाए तथा समाज की नजरों में स्वयं घृणित, निन्दित एवं अपमानित होकर जीए; यह किसी भी समाज और राष्ट्र के लिए कलंक की बात है। ऐसे तथाकथित लोगों की कामवासना शान्त करने की समस्या का हल वेश्याओं को मुहैया करना तो कथमपि संगत नहीं है। इसके लिए सामाजिक वातावरण इस प्रकार का बनाया जाए कि प्रवासी लोगों, सैनिकों या पर्यटकों को वेश्या जैसी भ्रष्ट नारियों या कुलीन गृहिणियों की ओर झाँकने का मौका ही न आए। इन सब लोगों के मनोरंजन के लिए धार्मिक भजनों, सांस्कृतिक, सात्विक, सुसंस्कारप्रेरक कार्यक्रम रखे जाएँ। अगर मनुष्यों की मनोवृत्ति अच्छे संस्कारों से युक्त हो, पर-स्त्री को माता-बहन या पुत्री समझने की वृत्ति सुदृढ़ हो तथा आसपास का वातावरण सात्त्विक रखा जाए तो कोई कारण नहीं कि प्रवासियों आदि को इधर-उधर इन शरीर बेचने वाली नारियों की ओर ताकना पड़े। क्या घर में वर्षों तक बहन-भाई या माता-पुत्र साथ-साथ संयम से नहीं रहते हैं ? इसका कारण हैभारतीय संस्कृति के पवित्र संस्कार, सात्त्विक वातावरण एवं पर-स्त्री के प्रति माता और भगिनी की भावना । वेश्याओं का पारिपाश्विक वायुमण्डल वेश्याएं स्वयं भी भ्रष्ट और पतित होती हैं, उनका पारिपाश्विक वायुमण्डल भी कम गन्दा नहीं होता। वेश्या जहाँ रहती है, उसके आसपास शराबखाना भी चलता है। वेश्या के यहाँ आने वाले ग्राहक प्रायः पियक्कड़ होते हैं, वे या तो मद्य पीकर आते हैं, या वहाँ आकर पीते हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ गुडों का भी साम्राज्य रहता है। गुडे प्रायः किसी की इज्जत बिगाड़ने, लूट-खसोट करने तथा फुसला-बहकाकर भोली-भाली लड़कियों को वेश्याओं के यहाँ लाने का काम किया करते है । बम्बई जैसे बड़े शहरों में वेश्यालयों के आसपास पुलिस वाले भी खड़े रहते हैं । वे आगन्तुक ग्राहक को धमकाकर रुपये ऐंठ लेते हैं । इसके अतिरिक्त वेश्या के दलाल, विटु या विदूषक, भांड़ तथा अन्य लोग भी रहते हैं । कई बार चोर-डाकू भी आ जाते हैं। मांसाहार और शराब के बिना गणिका एक दिन भी नहीं रह सकती। इसलिए गणिका के पास आने वालों पर इस गंदे वायुमण्डल का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। कितना ही पवित्र व स्वच्छ व्यक्ति क्यों न हो, काजल की कोठरी में घुसने पर काला दाग लगे बिना नहीं रहता, वैसे ही कितना ही पवित्र कुल-शील वाला मनुष्य क्यों न हो, वेश्या के यहां कुछ न कुछ दाग लगे बिना नहीं रहता। इसीलिए त्रिलोक काव्य संग्रह में स्पष्ट चेतावनी देते हुए कहा है For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश्या-संग से कुल का नाश | १३५ पापिणी प्रीति करे धन कारण, धूर्तपणो करी लोक रिझावे । खावत मदिरा मांस अपावन, गावत राग विषै ललचावे । द्रव्य हटे तो फटे क्षण अंतर, महानिर्लज्ज कुजाति कहावे। लीन भये धिक् है धिक् है, केत तिलोक सो जन्म गमावे ॥४५॥ वेश्यागमन के बुरे नतीजों का कच्चा चिट्ठा एक उदाहरण द्वारा लीजिए आज वाणिज्यग्राम नगर में बड़ी चहल-पहल थी। हाथी, घोड़े और सशस्त्र योद्धाओं का बड़ा भारी झुण्ड नगर के बीचोंबीच चल रहा था। उस झुड के बीच में एक बन्धनों से जकड़ा हुआ पुरुष था, जिसके नाक, कान काटे हुए हैं और वध्य मण्डनों से मण्डित था। उसके कंठ में कनेर के फूलों की माला पड़ी थी। कई सिपाही उसी का मांस काट-काटकर उसे खिला रहे थे, कई उस पर कंकड़ फेंक रहे थे। अनेक नरनारी उसे घेरे हुए चल रहे थे । राजपुरुष हर चौक और बाजार में घोषणा कर रहे थे-जो कोई उज्झितकुमार की तरह अपराध करेगा, उसे इसी तरह का दण्ड मिलेगा। गणधर श्री गौतम स्वामीजी उसी समय नगर में भिक्षा के लिए आये हुए थे। उन्होंने भी यह घोषणा सुनी तो स्तब्ध रह गये । भिक्षाचरी करके वे सीधे भगवान् महावीर की सेवा में पहुँचे और सारा वृत्तान्त कह सुनाया। भगवान् से उन्होंने यह भी पूछा--भगवन् ! यह व्यक्ति पूर्वजन्म में कौन था ? प्रभु ने कहा-सुनो ! हस्तिनापुर में सुनन्द राजा राज्य करता था । नगर में एक बड़ा गोमंडल था, बहुत-सी गायें, बैल, भैंसे, वृषभ (सांड) आदि सबको चारा-पानी मिलता था, सभी सुख से रहते थे। नगर में भीम नामक एक कूटग्राह था। उसकी पत्नी का नाम था उत्पला। उत्पला जब गर्भवती हुई और गर्भ तीन मास का हआ, तभी उसे ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ कि वे स्त्रियाँ धन्य हैं, जो गायों और बैलों के आँख, नाक, कान, जीभ, ओठ, गलकम्बल, कंधे आदि को आग में भूनकर उस मांस के शूले बनाकर मद्य आदि के साथ सेवन करती हैं, यदि ऐसे पदार्थ हों तो मैं भी खाऊँ । ऐसे दोहद के कारण वह बहुत दुर्बल होती जा रही थी, भीम कूटग्राह ने जब उससे इस दोहद के सम्बन्ध में जाना तो बोला-"तू चिन्ता न कर, मैं इस दोहद को पूर्ण कराऊँगा।" । एक रात को भीम अपने घर से निकल सीधा गोमण्डल में घुसकर किसी गाय, बैल आदि के आँख, कान, नाक आदि काट-काटकर ले आया और विधिवत् उस मांस के शूले बनाकर खिलाये। दोहद पूर्ण हुआ। नौवें महीने पुत्र हुआ। जन्मते ही जोर-जोर से चिल्लाने लगा। उसका यह आरटन सुनकर नगर की गायें, बछड़े, बैल आदि सब भयभीत होकर चारों ओर भागने लगे। इस कारण माता-पिता ने उसका नाम 'गोत्रास' रखा । क्रमशः वह बड़ा हुआ। इसी बीच उसके पिता का देहान्त हो गया। सुनन्द राजा ने पिता के स्थान पर गोत्रास को कूटग्राह रूप में नियुक्त किया। वह जिसे भी जहाँ हीनाचारी देखता पकड़कर दण्डित करता । परन्तु प्रतिदिन For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ | आनन्द प्रवचन : भाग १२ आधीरात को गोमंडल में जाकर गाय-बैलों के नाक, कान, आँख, गलकम्बल आदि काटकर घर ले आता और उसके मांस के शूले बनाकर खाता था। वहाँ से भरकर द्वितीय नरक में पैदा हुआ । वहाँ की तीन सागरोपम की आयु पूर्ण करके इसी नगर में विजय नामक सार्थवाह की पत्नी सुभद्रा की कुक्षि से पैदा हुआ। जन्मते ही इसे कूरडी पर फेंककर फिर वापस ले आए थे, इसलिए इसका नाम उज्झितकुमार रखा। उज्झितकुमार अभी छोटा ही था, तभी उसका पिता विजय सार्थवाह जहाज में सब तरह का माल भर लवण समुद्र के जरिये विदेश यात्रा कर रहा था। बीच में हो तूफान आ जाने पर वह जहाज टूट गया। अब वह अशरण होने से मरणशरण हो गया। उसकी पत्नी भी अत्यन्त शोकसंतप्त होकर आर्तध्यानपूर्वक मर गई। अब रहा केवल उज्झितकुमार ! कोतवाल ने आकर उसे घर से निकालकर वह घर दूसरों को सौंप दिया । उज्झितकुमार अब आवारा फिरता था। वह वाणिज्यग्राम में जूआ खेलता, वेश्या के यहाँ जाता, कोई उसे रोक-टोक करने वाला नहीं था। वह मद्य, मांस, चोरी, जूआ आदि सभी दुर्व्यसनों से ग्रस्त हो गया। नगर की प्रसिद्ध वेश्या कामध्वजा में वह आसक्त हो गया। उस वेश्या के साथ रमण करना उसका नित्यकर्म हो गया। नगर के नृप मित्रराजा की रानी को उदरशूल होने से वह कामध्वजा वेश्या के यहाँ जाने लगा। वहाँ उज्झितकुमार को देख उसे निकलवा दिया। परन्तु उज्झितकुमार वेश्या में इतना आसक्त हो गया था कि वहाँ गए बिना उसे चैन नहीं पड़ता था, वह लुकछिपकर वहाँ जाने लगा। मित्रराजा को पता चला कि उज्झितकुमार फिर कामध्वजा वेश्या के साथ रमण करता है। एक दिन मित्रराजा ने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया। उसे गिरफ्तार करवाकर राजा ने अत्यन्त कुपित होकर उसे इतना पीटा कि वह अधमरा हो गया। फिर उसकी कितनी दुर्दशा हुई, यह तो तुम आँखों से देख आएहो। इसके बाद फिर यह नरक, तिथंच आदि कई जन्म लेकर अन्त में मनुष्य-जन्म पाएगा, वहाँ से महाविदेहक्षेत्र से मुक्त होगा। बन्धुओ ! इसी प्रकार उज्झितकुमार जितने-जितने जन्म धारण करेगा उन सबमें प्राप्त कुल का सर्वनाश ही करेगा अथवा कुलगत संस्कार, सुख आदि का सर्वनाश निश्चित ही हो जाएगा । इसलिए किसी भी प्रकार वेश्या-संग नहीं करने की महर्षि गौतम की शिक्षा है वेसा पसत्तस्स कुलस्स णासो । –वेश्यागमन से कुल का नाश हो जाता है। 00 For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं सप्त कुव्यसन के सन्दर्भ में पंचम दुर्व्यसन से सद्धर्म के विनाश के सम्बन्ध में अपना चिन्तन प्रस्तुत करूँगा । यहाँ पंचम दुर्व्यसन का नाम हिंसा रखा है परन्तु इसका प्रचलित नाम शिकार है। आधुनिक भाषा में हम उसे 'हत्या' कह सकते हैं । नैतिक जीवन-निर्माण के लिए इसका त्याग करना अनिवार्य है । इसीलिए महर्षि गौतम ने इससे सावधान एवं दूर रहने का संकेत किया है। इस जीवनसूत्र का रूप इस प्रकार है 'हिंसा पसत्तस्स सुधम्मनासो' 'जो हिंसा में रत रहता है, उसके सद्धर्म का नाश हो जाता है।' गौतमकुलक का यह ७५वाँ जीवनसूत्र है। हिंसा से यहाँ क्या तात्पर्य है ? नैतिक जीवन के लिए इसका त्याग क्यों अनिवार्य है ? इससे क्या-क्या हानियाँ हैं ? इसमें आसक्त व्यक्ति का सद्धर्म नष्ट कैसे हो जाता है ? आदि विविध पहलुओं पर चिन्तन प्रस्तुत करना आवश्यक है । अतः आज इस पर प्रकाश डालूगा। हिंसा से यहाँ क्या तात्पर्य है ? प्रश्न होता है, हिंसा क्या है ? प्रमाद, कषाय और अन्य किसी असद्वृत्ति-प्रवृत्तिवश किसी भी प्राणी के प्राणों का नाश करना, सताना, हानि पहुँचाना और भयभीत करना, मारना-पीटना आदि हिंसा है । तत्त्वार्थसूत्र में हिंसा का लक्षण दिया गया है 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' -प्रमाद (मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा आदि) के योग से दस प्राणों में से किसी भी प्राण को नष्ट करना हिंसा है। वर्तमान विश्व पर दृष्टिपात किया जाय तो भारत जैसे धर्मप्रधान एवं ऋषिमुनियों के देश में अनेक प्रकार से लोग प्राणियों का आये दिन प्राण-वध निःसंकोच करते हैं। उन्हें कोई विचार भी नहीं आता कि हम क्यों दूसरों की जिन्दगी से खिलवाड़ कर रहे हैं ? अपने जरा से स्वार्थ के लिए, अपने जरा से मनोविनोद के के लिए, अपने अहं के पोषण के लिए, अपनी सत्ता जमाये रखने के लिए, अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए दूसरे के ५ इन्द्रियों, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास एवं आयु इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को हानि पहुँचाते, नष्ट करते, अंगच्छेद करते, उनके दम घोंटते क्यों नहीं हिचकिचाते ? सरकारी कानून में चाहे उसके लिए For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ कोई दण्ड निश्चित हो या न हो, चाहे सरकारी कानून की गिरफ्त से बच जाये परन्तु कर्मों-पापकर्मों के कानून से वह कहाँ बच सकता है ? जब वह कर्मन्यायालय में पहुँचेगा, तब तो उसकी आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठेगी ? उफ ! इतनी भयंकर सजा ! कई बार तो उस हिंसा का फल तत्काल मिल जाता है, कई बार कुछ देर से, परन्तु हिंसा का कटुफल अवश्यमेव मिलता है। परन्तु मनुष्य अपने आपको सबल, समर्थ और सशक्त समझकर, अपनी बुद्धि की सर्वश्रेष्ठता का अभिमान करके तथा अपने अहं के नशे में चूर होकर निर्बल, निरपराध, निर्दोष एवं मूक पशुओं, पक्षियों, मानवों आदि के प्राणों को सताने, पीड़ा देने, विविध प्रकार से यातना देने, उनके अंग-भंग करने, प्राणहरण करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता । जरा भी विचार नहीं करता कि दूसरे प्राणी ने मेरा क्या बिगाड़ा है ? एक पशु अपनी मस्ती में स्वतन्त्र विचरण कर रहा है, हँसी-खुशी से अपना जीवन व्यतीत कर रहा है, वह उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं रहा है, कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहा है। किन्तु मनुष्य बिना किसी कारण के जानबूझकर उसे मार-पीट देता है, उसकी गर्दन पर छुरी फेर देता है, उसके प्राणों का ग्राहक बन जाता है, उसे मारकर खा जाता है, उसे भयंकर कष्ट देता रहता है । वह उस समय यह विचार नहीं करता कि जिस प्रकार मुझे अपने प्राण प्रिय हैं वैसे ही दूसरों को भी अपने प्राण प्रिय हैं, जैसे स्वयं सुखपूर्वक जीना चाहता है, और जीवन की रक्षा के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है, वैसे ही दूसरे सभी प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं। कोई उसे काँटा चुभोता है, तो पीड़ा के मारे कराह उठता है, वैसे ही दूसरे प्राणी को काँटा चुभोने का दर्द होता है । जो दूसरे प्राणियों के प्रति किसी भी प्रकार की संवेदना, सहानुभूति, हमदर्दो, या आत्मीयता नहीं रखता, और दूसरों का मनमाने ढंग उत्पीड़न करता है, त्रास देता है, उसका यह कार्य हिंसा है। हिंसा के पीछे करता, बेरहमी, निर्दयता, तुच्छ स्वार्थ, शोषण-उत्पीड़न की दुर्भावना, कठोरता आदि दुर्भाव होते हैं, राग और द्वेष के कीटाणु होते हैं। क्रोध, अहंकार, छल-कपट, लोभ और तृष्णा की भयंकर दौड़ होती है। हिंसा के पीछ अज्ञान, अविवेक, अन्धविश्वास, स्वत्वमोह जैसे राक्षसों के हाथ होते हैं जो हिंसा की पीठ ठोकते रहते हैं। जिसे दूसरों के प्राणों परवाह नहीं है, वहीं हिंसा नृत्य करती है । जिसे दूसरों की जिंदगी से खिलवाड़ करने की धुन सवार है, वहाँ हिसा खुलकर खेलती है । जहाँ मन, वचन, काया पर किसी प्रकार का कंट्रोल न हो, वहाँ हिंसा को स्वच्छन्दता से काम करने का मौका मिलता है। जहाँ मनुष्य अपनी आत्मा के पतन के प्रति जागृत नहीं होता, अपने धर्म-अधर्म का, पुण्य-पाप का, कर्मबन्ध-कर्मक्षय का जहाँ अविवेक है, वहाँ हिंसा बहुत जल्दी आ धमकती है और अधर्म, पाप और पापकर्मबन्ध की साथी बन जाती है । वह जिस पर टूट पड़ती है, उसे कैसी लगती है ? इस विषय में प्रश्नव्याकरणसूत्र की अनुभूति एवं साक्षी सुनिये For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश | १३६ "एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुट्टो अणारिओ निग्घिणो निस्संसो महब्भओ।" ___"यह प्राणवध (हिंसा), चण्ड (तीक्ष्ण) है, रुद्र (भंयकर) है, क्षुद्र (तुच्छ) है, अनार्य है, निघृण (निर्दय) है, नृशंस है, एवं महाभययुक्त है।" कहा जाता है-नादिरशाह जब अपनी विजय-यात्रा से लौट रहा था, तो उसके जन्म-दिन के उपलक्ष में एक गांव में रात को उत्सव मनाया गया और निकटवर्ती ४-६ गाँव दूर से कुछ वेश्याएं नृत्य करने आयीं। जब आधी रात को वे वेश्याएँ वापस लौटने लगी तो उन्हें डर लगा क्योंकि अमावस की अंधेरी रात थी। रास्ते में अंधेरा था। नादिरशाह ने उन्हें भयभीत होते देख कहा-"क्यों घबड़ा रही हो, मैं अभी तुम्हारे लिए रास्ते भर में उजाले का प्रबन्ध करा देता हूँ।" उसने अपने सैनिकों से कहा- "इनके रास्ते में जितने भी गाँव पड़ते हैं, सबमें आग लगा दो, ताकि रोशनी हो जाए।" सैनिक भी जरा सहमे कि ऐसा अटपटा आदेश ! न मालम कितने औरतबच्चे मर जाएँगे, कितने लोग उजड़ जाएँगे, कितने झुलसकर जल जाएँगे, कितने खेत जल जाएँगे, घर में बँधे हुए कितने पशु छटपटाकर मर जाएँगे। लेकिन नादिरशाह ने कहा--"देर मत करो, झटपट इन्हें अपने घर पहुँचना है। आने वाली पीढ़ी याद रखे कि नादिरशाह के दरबार में नाचकर वेश्याएँ लौटती थीं, तो अंधेरी रात में भी उनके रास्ते रोशन कर दिये जाते थे।" सैनिकों को आदेश का पालन करना पड़ा। छह गाँवों में आग लगा दी गई, सारे खेत जला दिये गये । सभी घर स्वाहा हो गये । यह था हिंसा का प्रचण्ड रूप ! हिंसा का यह नंगा और स्वच्छंद नाच था । प्राणवध का यह अनार्य और निर्दय खेल था। क्या नादिरशाह ने दूसरों की जिन्दगी की परवाह की थी ? क्या उसने यह कठोर आदेश, क्षुद्र स्वार्थपूर्ण हुक्म दूसरे के प्राणों से खिलवाड़ करने हेतु नहीं दिया था ? अगर इस प्रकार की बर्बरतापूर्ण चेष्टाओं को कोई व्यक्ति न्याय या धर्म कहने लगे तो आप उसे मान लेंगे ? क्या आपकी अन्तरात्मा गवाही देगी कि ऐसे सत्ताधीश का यह रवैया धर्म या न्याय है। परन्तु उस समय तो नादिरशाह के हुक्म को भगवान् का हुक्म माना गया था, उसके हुक्म को टालने की हिम्मत किसी में नहीं थी। परन्तु उन गाँव वालों की अन्तरात्मा से पूछे कि नादिरशाह का आदेश उन्हें हिंसा लगा था, या अहिंसा? उन्होंने उसे राजा का धर्म या न्याय माना या अधर्म-अन्याय ? भले ही वे दुर्बल होने के कारण कुछ भी विरोध न कर सके, संगठित होकर प्रतिवाद न कर सके, परन्तु उनके हृदय की आहे क्या उसे पापी नहीं कहेंगी? ऐसा हिंसक व्यक्ति स्वयं भयभीत रहता है, उसकी हिंसा दूसरों के विषय में शंकाशील बना देती है, हर समय चिन्तित भयभीत और आतंकित भी रहता है वह । For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ __ इसीलिए हिंसा में आसक्त व्यक्ति के धर्म का नाश हो जाता है। उसकी कोमल वृत्तियाँ दब जाती हैं, क्रूरता उभर आने के बाद दया, क्षमा, सहिष्णुता, सहानुभूति आदि भावनाएँ भी मर जाती हैं। तथागत बुद्ध के समय में अंगुलिमाल नाम का हत्यारा एवं डाकू हो गया है। वह दुनियाभर का हत्यारा अपने आपको सिद्ध करने की धुन में था। उसने तय कर लिया था कि लोगों को काटकर उनकी अंगुलियों की माला पहनूंगा। इसीलिए उसका असली नाम तो इतिहास में लुप्त हो गया, 'अंगुलिमाल' नाम प्रसिद्ध हो गया। क्या अंगुलिमाल को धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप की कोई चिन्ता थी? उसके हाथ से मरने वाले उसको देव समझते थे या दानव ? यह तो आप ही बता देंगे कि वह हिंसा के कारण दानव बन गया था । अतः संकल्पी और प्राणिहिंसानन्द नामक तीव्र रौद्रध्यान पैदा करने वाली जानबूझकर की गई निरर्थक हिंसा से यहाँ तात्पर्य है। ऐसी हिंसा में रत व्यक्ति सद्धर्म का-कोमल मानवीय गुणों का नाश कर देता है। इसीलिए महाभारत शान्तिपर्व में स्पष्ट कह दिया है-- __ 'अधर्मः प्राणिनां वधः' -प्राणियों का वध (हिंसा चाहे किसी रूप में हो), धर्म नहीं है । हिंसा : विविध रूपों में __ हिंसा का तात्पर्य समझ लेने के बाद सहसा प्रश्न होता है कि ऐसी हिंसा के कितने रूप हैं ? किन-किन रूपों में हिंसा मानव-जीवन में घुसती है ? मुख्य रूप से नौ रूपों में हिंसा प्रविष्ट होती है, जिसका त्याग करना आवश्यक है । आध्यात्मिक विकास के लिए सर्वप्रथम इस प्रकार की हिंसा का त्याग करना अनिवार्य है। (१) शिकार खेलने या करने के रूप में (२) मुर्गों, सांडों, मानवों आदि को लड़ाकर हत्या कराने के रूप में (३) विविध शृंगार-साधनों आदि के रूप में की जाने वाली प्राणिहत्या के रूप में (४) दवाओं, प्रयोगों और परीक्षणों आदि के नाम पर (५) हत्या या कत्ल करने-कराने के रूप में (६) पशु-पक्षी एवं मनुष्य की बलि के रूप में (७) धर्म के नाम पर होने वाली भयंकर हिंसाएँ (८) लूट, डाका, आगजनी आदि के रूप में (६) युद्ध द्वारा नरसंहार के रूप में यों तो सूक्ष्म और स्थूल हिंसा के असंख्य विकल्प (भंग) हैं । किन्तु यहाँ जिन हिंसाओं का त्याग करना आवश्यक है, वे भयंकर घोर हिंसाएँ हैं । अब हम क्रमशः इन सब मुद्दों पर विचार करेंगे। For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश | १४१ शिकार के रूप में हिंसा कितनी भयंकर ? जब अपना मनोरंजन या शौक पूरा करने के लिए अथवा अपना पौरुष बताने, शक्ति बढ़ाने आदि के रूप में मनुष्य किसी भी निर्दोष प्राणी को मारता है, वह शिकार कहलाता है। शिकार को आखेट या मृगया भी कहते हैं । प्राचीन काल में राजा-महाराजा आदि क्षत्रिय लोग अपने मनोरंजन या शौक के लिए शस्त्रास्त्रों से ससज्जित होकर अपने दल-बल सहित जंगलों में जाते और वहाँ निर्दोष विचरण करने वाले निरपराध हिरनों, चीतों, सिंहों, भालुओं आदि की ओर निशाना ताक कर मार डालते थे। जैनाचार्यों ने सप्त कुव्यसनों में शिकार को पाँचवाँ व्यसन माना है। शिकार को शास्त्रों में भयंकर पाप और पापद्धि कहा है। पापद्धि का अर्थ हैपाप की ऋद्धि-वृद्धि या प्राप्ति कराने वाला। शिकार को भयंकर पाप कहने का कारण शिकार इसलिए भयंकर पाप माना जाता है कि एक तो उसमें जान-बूझकर निरपराध जीवों की संकल्पी हिंसा की जाती है, दूसरे उसमें प्राणिहिंसानन्दरूप रौद्रध्यान रहता है, अर्थात् शिकार करने वाले के हृदय में उस प्राणी को येन-केनप्रकारेण मार डालने की धून होती है। तीसरे, जब शिकारी वन में पशु-पक्षियों का शिकार करने जाता है, तब केवल एक ही जीव को मारता है, ऐसी बात नहीं; वह वहाँ जो भी जीव सामने मिल जाता है, उसे एक के बाद धड़ाधड़ बंदूक की गोली छोड़कर मारता जाता है। उसके एक ही जीव के मारने का कोई नियम नहीं होता। उसे तो मौका मिलना चाहिए। निहत्थे और निर्दोष वन्य-पशुओं को देखकर उसका लोभ बढ़ता ही जाता है। चौथे, शिकार खेलने वाला अकेला नहीं जाता, वह अपने साथ अपने दल को ले जाता है, फिर वह और उसके साथी वन्य-पशुओं की टोह में इधर-उधर दौड़ते हैं, जहाँ भी कोई पशु मिल जाता है, उसे मार डालते हैं, अथवा हिंस्र पशु हुआ तो उसे उकसाते हैं, घेरते हैं, मचान बांधकर निशाना ताकते हैं, और मार डालते हैं। इससे शिकारी स्वयं तो क्रूर बनता ही है, अपने साथियों या पिछलग्गुओं को भी कर बना देने में कोई कसर नहीं छोड़ता। शिकारी के साथ रहते-रहते शिकारी की तरह उन साथियों में भी दया, सहानुभूति, सहृदयता आदि की भावना मर जाती है। उनका भी हृदय कठोर और क्रूर हो जाता है । पाश्चात्य विचारक 'बक्सटन' (Buxton) इसी बात का समर्थन करता है__"One of the ill-effects of cruelty is that it makes the by-standers cruel." -क्रूरता के बहुत-से दुष्प्रभावों में से एक यह है कि यह पास खड़े रहने वालों को भी क्रूर बना देती है। पाँचवाँ कारण यह है कि शिकार के व्यसनी में दुर्व्यसन लग जाते हैं । अनेक पाप शिकारी इसके साथ-साथ करता है । शिकारी जब शिकार करने वन में जाता है तो बहुत-सी बार वह चारों ओर से हिंस्र पशुओं से घिर जाता है, तब उसकी जान पर For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ | आनन्द प्रवचन : भाग १२ आ पड़ती है, वह भय से थर्रा उठता है, प्राणों की चिन्ता तीव्र रूप से करने लगता है, यह आर्तध्यान का लक्षण है। आर्तध्यान करने से भयंकर पापकर्म का बन्ध होता है । फिर प्राणिहिंसारूप रौद्रध्यान भी करता है। पहले तो हिंस्र पशुओं को मारने की योजना बनाता है, फिर मारने पर खुशियाँ मनाता है। रौद्रध्यानवश प्राणियों के प्रति आत्मीयता, मैत्री, परोपकारवृत्ति, मानवता आदि पवित्र भाव शिकारी के हृदय से विदा ले लेते हैं । निर्दोष पशुओं का शिकार करने वाला हिंसा और चोरी, दोनों पापों को एक साथ करता है । फिर शिकार के व्यसनी लोगों में अपनी झूठी शेखी बघारने और असत्य बोलने की आदत हो जाती है। जिन पशुओं को वह मारता है, उनका मांस भी खाता है, शराब भी पीता है । मांस खाने और शराब पीने से उत्पन्न कामोत्तजनावश उसके द्वारा परस्त्रीगमन या वेश्यागमन भी हो जाना संभव है। इस प्रकार शिकार के साथ अनेक दुर्व्यसनों और पापों का आगमन हो जाता है । इन कारणों से शिकार को भयंकर पाप कहा है । इसमें धर्म की प्राप्ति का तो कोई भी कारण नहीं है । इसके चारों ओर पाप ही पाप लगे हुए हैं। __शिकारी कई बार अपने इस दुर्व्यसन के कारण पशु-पक्षियों का शिकार करने के बहाने मनुष्यों तक का भी शिकार कर लेता है। मनुष्यों में से अपने ही बन्धु-बांधव उसके शिकार के निशाने बन जाते हैं, तब तो उसके पश्चात्ताप का ठिकाना नहीं रहता। जापान का एक बौद्धधर्मावलम्बी शिकारी था। वह आकाश में उड़ते हुए नभचारी पक्षियों का शिकार किया करता था । उसके दो पुत्रियाँ थीं। पिता के द्वारा निर्दोष पक्षियों का वध उनको अच्छा नहीं लगता था । बालिकाओं का कोमल स्वभाव पिता को इस प्रकार के शिकार करने को मना करता था, पर शिकार का चस्का लग जाने पर शिकारी किसी की भी सलाह नहीं मानता । पुत्रियों द्वारा पिता को समझाने का कोई परिणाम न निकला। एक दिन दोनों लड़कियाँ तालाब में जलक्रीड़ा कर रही थी। संयोगवश वह शिकारी भी शिकार करने के लिए बाहर निकला। अभी अधिक रात नहीं बीती थी। शिकारी को ऐसा भ्रम हुआ कि कोई जंगली जानवर तालाब में पानी पी रहा है । उसने एकदम तीर छोड़ा। तीर छोड़ते ही वह सीधा उन दोनों लड़कियों पर जा लगा । वे वहीं ढेर हो गईं। नजदीक आकर शिकारी ने देखा तो उसे घोर पश्चात्ताप हुआ-हाय ! ये मेरी प्यारी लड़कियाँ ही मेरे हाथ से मारी गयीं। उसने अपने धनुषबाण वहीं फेंक दिये और प्रतिज्ञा कर ली कि अब भविष्य में मैं कभी शिकार नहीं करूंगा। __ महाभारत की एक प्रसिद्ध घटना है कि जराकुमार शिकार का बहुत शौकीन था । उसे भगवान अरिष्टनेमि से ज्ञात हुआ कि श्रीकृष्ण की मृत्यु उसी के तीर से होगी। तब वह यह सोचकर द्वारिका छोड़कर जंगल में रहने लगा कि यहाँ रहूँगा तो शायद कभी मेरे हाथ से भाई श्रीकृष्ण की मृत्यु हो जाय । परन्तु होनहार को कौन टाल सकता है ? For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश | १४३ द्वारिकानगरी के विनष्ट होने की बात सुनकर श्रीकृष्ण बलदेवजी के साथ उसी वन में पहुँच गए द्वारिका छोड़कर । वन में श्रीकृष्ण को प्यास लगी तो बलदेवजी उन्हें एक जगह बिठाकर स्वयं पानी की तलाश में गये । श्रीकृष्ण पीताम्बर ओढ़कर बैठे थे । जराकुमार ने उन्हें हिरण समझकर तीर छोड़ा, वह सीधा श्रीकृष्ण के पैर में और वहीं उनकी इहलीला समाप्त हो गई । जराकुमार को जब ज्ञात हुआ तो उसके मन में अत्यन्त पश्चात्ताप हुआ, पर अब क्या होता ? बलदेवजी के डर से छिपाछिपा भागता रहा । शिकार के दुर्व्यसन ने कितना भयंकर अनर्थ करा डाला उसके हाथ से ? लगा, वैदिक रामायण के अनुसार राजा दशरथ को भी शिकार का शौक था । परन्तु उसका परिणाम कितना भयंकर आया ? उन्हों के तीर से ऋषिपुत्र मातृ-पितृभक्त श्रवण कुमार मारा गया । श्रवणकुमार के अंधे माता-पिता ने जब अपने पुत्र की मृत्यु का हाल सुना तो उनके हृदय की आहें दशरथ को लग गयीं । फलस्वरूप दशरथ की मृत्यु भी बड़े पुत्र के वियोग में हुई । गांगेयकुमार, जो आगे चलकर भारतीय इतिहास में भीष्मपितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए, उनके पिता शान्तनु राजा भी अत्यन्त मृगयारसिक थे । उनकी पवित्र महारानी गंगादेवी ने उन्हें कई बार शपथ दिलाई, निर्दोष पशुओं का वध न करने के लिए समझाया, परन्तु उन्हें मृगया का व्यसन इस तरह का लगा कि उन्हें इस व्यसन की धुन में अपनी परमप्रिय धर्मपत्नी - गंगा महारानी को छोड़ना पड़ा । पुत्र और पत्नी का दुःखद वियोग सहना पड़ा । फिर भी वे नहीं चेते । इसलिए शिकार घोर पश्चात्ताप और दुःख का कारण इस लोक में तो प्रत्यक्ष है ही, परलोक में भी शिकारी पंचेन्द्रिय पशुओं का निर्दोष वध करने के कारण घोर नरक का अतिथि बनता है, जहाँ घोर दुःख और यातना के सिवाय और कुछ नहीं है । श्रीमद्भागवत (८।२२।४६ ) में भी शिकार का घोर कटुफल बताते हुए कहा है मृगयारसिका नित्यं अरण्ये पशुघातकाः । परेतांस्तान् यमभटा लक्ष्यीभूतान् नराधमान् ॥ - मृगयारसिक लोग प्रतिदिन जंगल में अनेक पशुओं का वध करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें परलोक (नरक) में यमराज के सुभट अपना निशाना बनाकर मारते हैं । तिलोक काव्य संग्रह में शिकार का दुष्परिणाम बताते हुए कहा हैप्राण की पूंजी ले कानन में रहे तृण को खावे रति न सतावे । सो जो जीव गरीब अनाथ को ले हथियार सो मारण धावे ॥ हँसी-हँसी करे पातक पापिया कर्म उदय सब ही घबरावे । जीभ जलावत जम जोरावर कहत तिलोक पडयो बिललावे || For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ क्षत्रियों का धर्म : दुर्बलों का प्राणघात नहीं भारत के क्षत्रिय लोग प्रायः शिकार के शौकीन हैं। वे कहते हैं- "हम अपनी शक्ति बढ़ाने, अपना पौरुष दिखाने और मनोरंजन करने हेतु शिकार करते हैं।" परन्तु क्षत्रियों का धर्म निर्दोष, निर्बल और निरपराध को सताना नहीं है, बल्कि निर्बलों की रक्षा करना और गन्हें न्याय दिलाना है। अमृत काव्य संग्रह में इस विषय में सुन्दर मार्गदर्शन दिया हैपीठ देइ भागत रहत मुख दीन सदा, दांत तृण लेत कभी होत ना गरम है। डोले निराधार इत-उत, छिपि राखै प्राण, गरीब अजाण सिर संकट परम है। ऐसे वनचारिन पै गजब गुजारिबो सु, कहे अभीरिख यह निन्दित करम है । मृतक-समान वन फिरत अनाथ सदा, दीन पशु मारिवो न क्षत्री को धरम है । मृगया की कीड़ा के बहाने निर्दोष प्राणियों के प्राण लूट ना क्षत्रियों का धर्म है, यह कोई भी धर्मशास्त्र नहीं कहता। बल्कि क्षत्रिय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की मिलती है क्षतात् त्रायते रक्षतीति क्षत्रियः क्षत, दुर्बल और पीड़ित का जो रक्षण करता है, त्राण करता है, वह क्षत्रिय है। जैनधर्म के अनुयायी जितने भी क्षत्रिय राजा हुए सबने इसी नीति का अनुसरण किया है । यही नहीं जैन श्रावक भी जिन क्षत्रिय राजाओं के मंत्री, दीवान या प्रधान आदि किसी पद पर रहे हैं, उन्होंने भी क्षत्रिय राजाओं को उत्पथ पर जाते देख निर्भयतापूर्वक सन्मार्ग की प्रेरणा दी है। महाकवि धनपाल राजा भोज के बरबार में थे। वे जैन श्रावक थे। शान्त स्वभावी एवं दयालु प्रकृति के कवि थे। एक दिन राजा भोज उन्हें आग्रहपूर्वक अपने साथ आखेट क्रीड़ा देखने हेतु ले गये। जंगल में पहुँचकर राजा ने एक भागते हुए हिरण को बाण से बींध दिया। बेचारा मृग मरणान्तक पीड़ा से छटपटाने लगा। इसे देखकर दूसरे कवियों ने राजा की प्रशंसा में काव्य पढ़े । मगर धनपाल कवि चुप रहे । आश्चर्यपूर्वक राजा ने धनपाल की ओर देखा तो उन्होंने राजा को बोध देने की दृष्टि से निर्भयतापूर्वक तत्काल एक श्लोक पढ़ा रसातलं यातु तदत्र पौरुषम्, कुनीतिरेखा शरणोत्यदोषान् । निहन्यते यद् बलिनाऽति दुर्बलो, हाहाकष्टम राजकः जगत् ॥ -- वह पौरुष रसातल में चला जाए, यह कुनीति है कि निर्दोष प्राणियों को मौत के घाट उतारा जाए। बलवान के द्वारा अति दुर्बल को मारा जाना, यही तो कष्ट है, यही तो जगत् में अराजकता है। इन्हें कोई कुछ कहने वाला नहीं। राजा अपने कार्य की भर्त्सना सुनकर अपमान महसूस करते हुए उदासीनता के स्वर में बोला-"महाकवि ! यह क्या उलटी गंगा बहा रहे हो ?" धनपाल कवि ने नैतिक साहस बटोरकर कहा For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश : १४५ वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते प्राणान्ते तृणभक्षणात् । तृणाहाराः सदैवेते, हन्यन्ते पशवः कथम् ? "शत्रु भी प्राणान्त के समय अगर मुंह में तिनका दबाकर आ जाते हैं, तो उन्हें जीवित छोड़ दिया जाता है, ये पशु तो सदैव तृणाहारी है, मुंह में हमेशा ही तिनका लिये रहते हैं। फिर इन पशुओं को क्यों मारा जाता है ? कुछ समझ में नहीं आता।" ठीक समय पर धनपाल कवि की निःस्वार्थ भाव से की गई करारी चोट से राजा भोज का हृदय हिल उठा। उनके मन में दयाभाव जागा और सदा के लिए आखेट-क्रीड़ा का त्याग कर दिया । शिकारी जीवन में सुख कहाँ ? लोग कहते हैं शिकार से मनोरंजन होता है, परन्तु शिकार से कितना आनन्द मिलता है, यह तो किसी शिकारी से पूछिए, शिकार से क्या-क्या दुःख और क्लेश पाना पड़ता है, इसका ब्यौरा 'कामन्दकीयनीतिसार' में पढ़िये । शिकार को पाने और उसका पीछा करने में शिकारी को बहुत ही परेशानी उठानी पड़ती है । ऊबड़-खाबड़ एवं पथरीले संकीर्ण रास्ते पर घोड़ा या रथ दौड़ाने में वह क्षुब्ध हो जाता है। कई बार जरा-सा चूक जाने पर गहरे गड्ढे या खाई में गिरने का खतरा रहता है । कभी थकान, भूख प्यास, सर्दी-गर्मी, ठंडी-बर्फीली हवाएँ आदि सहन करनी पड़ती हैं। कहीं उत्पथ से जाने में काँटे, साँप की बांबी, किसी हिंस्र जानवर से मुकाबला आदि भयंकर खतरे हैं। कभी जंगल के आदिवासी शिकारी को देखकर उसे रस्सियों से बाँधकर मारने-पीटने लगते हैं; कभी अजगर भालू, चीता, शेर, भेड़िया आदि उसे देखते ही हमला कर बैठते हैं। इस प्रकार शिकारी के सामने अनेक बार प्राणों का संकट उपस्थित हो जाता है। जंगल के अटपटे विकट रास्तों में चलते-चलते कई बार दिशाभ्रम हो जाने से वह रास्ता भूल जाता है, तब तो लेने के देने पड़ जाते हैं। पर-प्राणघातक शिकार बहुधा स्व-प्राणघातक बन जाता है । आनन्द तो दूर रहा, शिकारी आर्तध्यान के चक्कर में पड़कर कष्ट ही कष्ट भोगता है। शिकार छोड़कर अगर वह प्राणियों की रक्षा और भलाई करने में अपना जीवन लगाता और इतना कष्ट उठाता तो कर्मों की निर्जरा होती, भगवान की तरह पूजा जाता, एवं महान् आत्मा बन जाता। परन्तु क्षणिक मनोरंजन के भ्रम से प्राणियों का वध करके अनेक कष्ट भी उठाता है, जिनका प्रतिफल पापकर्मबन्ध और नरक के सिवाय और कुछ नहीं आता। शिकार के दुर्व्यसन से वह शैतान और राक्षस बन जाता है। ... शिकार भी एक ही प्रकार का नहीं शिकार भी केवल एक ही प्रकार का नहीं होता। प्राचीनकाल में शिकार को 'मृगया' कहा जाता था, इसीलिए कि शिकारी मृग (हिरन) के पीछे दौड़ता For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ था-अभियान करता था। परन्तु बाद में कुछ राजा लोग सिंह, चीता आदि हिंस्र पशुओं का शिकार करने लगे, उसे 'आखेट' कहा जाता था। इसमें चारों ओर घूमघूमकर सारा जंगल छान लिया जाता था। हिंस्र पशुओं के शिकार के लिए मचान बाँधा जाता या ऊँची जगह से निशाना ताका जाता था। कई मांसाहारी क्रूर मानव निर्दोष पक्षियों और कबूतरों, चिड़ियों, बतखों आदि का शिकार करते हैं। अधिकतर पश्चिम के शिकारियों का प्रभाव भारत के लोगों पर भी पड़ा। __ कई लोग जल में स्वच्छन्द विचरण करने वाले मछली आदि निर्दोष जलचर प्राणियों का शिकार करते हैं। किसी तालाब या नदी के एक हिस्से को लक्ष्य बनाकर ये लोग पानी में कल्लोल करते हुए निर्दोष-निरपराध जलचरों को मार डालते हैं। पश्चिम के शिकार-विशेषज्ञों का चेप भारत के कुछ शौकीनों को लगा, और वे भी इस प्रकार का जलचरों का शिकार करने लगे। . भालनलकांठा प्रदेश (अहमदाबाद जिला) के नलसरोवर में मछलियों का शिकार करने के लिए सहसा प्रान्तीय गवर्नर और उसकी पार्टी आ पहुँची थी। यह घटना स्वराज्य-प्राप्ति से पूर्व की है। नलकांठा प्रदेश में उन वर्षों में मुनि संतबालजी धर्ममय समाज रचना के प्रयोग की नींव डाल रहे थे। उन्होंने उस प्रदेश के कोली पटेलों को शराब, मांस, शिकार आदि का त्याग कराकर धर्म-संस्कार दिये थे। ज्योंही शिकारी पार्टी नलकांठा सरोवर के समीपवर्ती गाँव में पहुँची। वहाँ के निवासी कोली पटेल आश्चर्यचकित रह गये। शिकारी पार्टी ने कोली लोगों को मछलियों के शिकार में सहयोग देने के लिए कहा, गवर्नर के हुक्म की धमकी भी दी, परन्तु उन्होंने साफ इन्कार कर दिया कि हम इस हिंसा-कार्य में आपका साथ नहीं देंगे। आखिरकार गवर्नर तथा उसकी पार्टी के लोग ही सरोवर पर पहुँचे और बंदूक चलाने लगे, लेकिन यह क्या ? उनकी बन्दूक कुछ काम ही नहीं करती, केवल सूसू की आवाज करके रह जाती । हार-थककर गवर्नर और उनकी पार्टी के लोग निराश होकर वापस लौट गये । किन्तु गवर्नर की शिकारी पार्टी इस दौरे से पहले अन्यत्र मछलियों के शिकार में सफलता प्राप्त कर चुकी थी। हाँ तो, इस प्रकार शिकार के कई रूप हैं । चाहे किसी भी रूप में शिकार हो, वह हिंसा है, अधर्म है, पाप है और भयंकर पापकर्मबन्धक है । हिंसा : मुर्गों, सांडों, मानवों आदि को लड़ाकर हत्या कराने के रूप में प्राचीनकाल में भारतवर्ष में मुर्गों, सांडों आदि को लड़ाकर उन्हें मरवाने, घायल करा देने के मनोरंजक खेल होते थे। इनमें दर्शकों का सिर्फ मनोरंजन होता था, पशुओं के प्राण चले जाते या वे लहूलुहान होकर गिर पड़ते। यह भयंकर एवं निरर्थक हिंसा का प्रकार था। For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति स धर्मनाश : १४७ यूरोप में भी उन दिनों इस प्रकार के हिंसात्मक खेल चलते थे, जिनमें बेरहमी से मुर्गों, सांडों, कुत्तों, बिल्लियों और बन्दरों को उकसा-उकसाकर दर्शक लोग लड़ाते थे । जब तक दोनों मुर्गे खून से लथपथ होकर गिर नहीं जाते थे, और खत्म नहीं हो जाते थे, तब तक यह खेल चलता था। बीच-बीच में दर्शक लोग उन्हें लाठियों से उकसाते रहते थे । कुत्तों और बिल्लियों की या कुत्तों और बन्दरों की आपस में भयंकर लड़ाई कराई जाती थी, और यह तब तक चलती थी, जब तक कि प्रतिपक्षी अपने प्रतिपक्षी के टुकड़े-टुकड़े नहीं कर देता था। इससे भी भयंकर हिंसा का एक और रूप प्रचलित था रोम में। भूखे शेर या शराब पिलाये हुए हाथी के साथ खरीदे हुए गुलाम या युद्धबन्दी को तलवार देकर लड़ने के लिए मैदान (Arena) में उतारा जाता था । शेर या हाथी उस मनुष्य से लड़ते-लड़ते उसे लहुलुहान कर देते और मर जाता तो उसकी लाश घसीटकर एक ओर फेंक दी जाती । दर्शकों में क्रूरता उभरती, वे जोर-जोर से तालियाँ पीटते । फिर दूसरे आदमी को भेजा जाता और इसी प्रकार एक ही दिन में लगातार कई पशुओं और मनुष्यों का द्वन्द्वयुद्ध कराया जाता था। यह हिंसा बहुत ही क्रूरता की प्रतीक थी। . ईसा से लगभग २०० वर्ष पूर्व रोमन साम्राज्य में यह कर प्रथा प्रारम्भ हुई थी, और लगभग ७०० वर्ष तक चली। मृतपुरुषों के प्रीत्यर्थ, पुत्रजन्म की खुशी, या अन्य किसी उत्सव, त्यौहार के अवसर पर अथवा नये मंत्रिमण्डल के बनने पर या व्यापारी द्वारा विज्ञापन करने हेतु इस प्रकार के कर हिंसाजनक द्वन्द्वयुद्धों का आयोजन किया जाता था । दर्शकों एवं आयोजकों में इतनी क्रूरता आ जाती थी कि वे द्वन्द्वयुद्ध में हारे हुए अथवा अधमरे को ईट, पत्थर मार-मार कर समाप्त कर देते थे। जब वे मनुष्यों को भी परस्पर द्वन्द्वयुद्ध में छटपटाते या तलवार से कटते देखते तो हर्ष व्यक्त करते थे। इस प्रकार के मल्लयुद्ध तलवारों से भी होते थे। कितना भयंकर क्रूर दृश्य होता था वह ! टेलीमेक्स नामक ईसाई सन्त ने अपना बलिदान देकर इस क्रूर प्रथा का अन्त कराया था। हिंसा : विविध शृगारिक उपकरणों आदि के रूप में विदेशों में विविध प्रकार के शृंगारिक उपकरणों के लिए, फैशन के लिए, विलासिता के लिए अथवा किसी भी अन्य प्रयोजन के लिए पशु-पक्षियों की हत्याभयंकर हिंसा की जाती है। विभिन्न प्रकार के शृंगार प्रसाधन बनाने के लिए आये दिन लाखों-करोड़ों प्राणियों को बलिवेदी पर चढ़ना पड़ता है। हाथी दांत के लिए हाथियों को, मृगमद (कस्तूरी) के लिए कस्तूरी मृग की, रोएँदार खाल के लिए खरगोश आदि की, रेशमी वस्त्रों के लिए शहतूत के कीड़ों की, तेल और चर्बी For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ के लिए मछलियों की, रोंएदार फर के लिए पक्षियों की, बढ़िया मुलायम चमड़े के लिए कई पशुओं की, और भी अनेक निर्दोष प्राणियों की फैशन के लिए हत्या की जाती है। ये हिंसाएँ केवल शृंगार प्रसाधन या फैशन के नाम पर की जाती हैं। इस क्रूर हिंसक व्यवसाय में लाखों लोग लगे हुए हैं। इनका धड़ल्ले से उपयोग करने वाले यदि यह देख-समझ पाते कि उनकी इस विलासिता के लिए कितने निर्दोष प्राणियों को करुण चीत्कार करते हुए अपने प्राण देने पड़ते हैं तो उन्हें अपने पर कदाचित् घोर घृणा आ सकती थी। एक 'कैनेडियन थियोसोफिस्ट' ने अपने देश के कछुए की पीठ से बने विभिन्न कलात्मक उपकरणों की वृद्धि की चर्चा करते हुए लिखा था-"कछुओं की पीठ काट ली जाती है और फिर उन्हें मार्मिक वेदना सहते हुए नई पीठ उत्पन्न करने के लिये जीवित रहने दिया जाता है। इस प्रकार बार-बार उनके साथ नृशंस व्यवहार किया जाता है । प्रायः ७६००० पौंड से अधिक वजन के कच्छप उपकरण तो विदेशों को ही निर्यात किये जाते हैं, वहाँ की खपत तो और भी अधिक है।" .. दवाओं, प्रयोगों, परीक्षणों आदि के नाम पर घोर हिंसा मछलियों को उबालकर निकाला जाने वाला तेल, कॉडलिवर आइल आदि औषधियाँ शरीर को पुष्ट करने के नाम पर पी जाती हैं, परन्तु जिन प्राणियों को प्राण देने पड़े, उनका क्या अपराध था कि उसकी हत्या की गई ? ___आजकल डाक्टरी अन्वेषण और औषधियों के परीक्षण के निमित्त सीरम और वेक्सीन बनाने के लिए, व्यापारिक चीजों के परीक्षण के लिए तथा जीवविज्ञान की शिक्षा के लिए विविसेक्शन पद्धति के माध्यम से तरह-तरह से प्राणियों पर घातक अत्याचार किये जाते हैं। विविसेक्शन पद्धति में मेंढक, खरगोश और अन्य कई प्रकार के जीवों को काटकर, जलाकर, तपाकर, टुकड़े-ट्रकड़े करके, बिजलो का झटका देकर तरह-तरह के परीक्षण किये जाते हैं। इस तरह शिक्षा के नाम पर निर्बल प्राणियों के साथ जो घातक व्यवहार किया जाता है, उन्हें कष्ट पहुँचाकर मारा जाता है, वह निन्दनीय है। अनेक विदेशी विद्वानों ने इसे अनावश्यक बताया है। इस तरह के निर्दय परीक्षण किये बिना भी जीवविज्ञान सिखाया जा सकता है। छोटी उम्र के विद्यार्थियों के सम्मुख इस प्रकार के निर्दयतापूर्ण प्रयोगों से उनकी कोमल मनोवृत्तियों का हनन हो जाता है । वे भविष्य में विशेष स्वार्थी और अन्य लोगों के सुख-दुःख के प्रति उपेक्षाभाव रखने वाले बन जाते हैं। समाज-कल्याण की दृष्टि से यह बहुत हानिकारक है । भारत में ऐलोपैथिक दवाओं का प्रचलन बढ़ जाने से यहाँ भी असंख्य जीवों को दवाइयाँ बनाने के लिए मौत के मुंह में धकेल दिया जाता है। प्रसिद्ध जीवशास्त्री डॉ० जे० बी० एस० डाल्टेन ने अनुरोध किया है कि "मनष्य स्वपीड़न का अनुभव करके परपीड़न का अनुभव करे तो उसे पता लगें कि For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश : १४६ वह कितना बड़ा पाप प्रयोगशालाओं में विज्ञान के नाम पर कर रहा है। लोगों को, विशेषतः भारतीयों को अहिंसक पद्धति से विज्ञान का विकास करना चाहिए; क्रूरता, नृशंसता और हत्या की पद्धति पर नहीं; क्योंकि उससे मानवीय गुणों का अन्त होता है। जिप्स दिन ये गुण न रहेंगे, उस दिन मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु हो जायेगा।" मनुष्य की क्रूरता और बर्बरता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अकेले ब्रिटेन में चिकित्सा सम्बन्धी खोजों में प्रतिवर्ष ५० लाख पशुओं और जीवजन्तुओं का जीवन नष्ट किया जाता है। इसमें से ८७ प्रतिशत वे जोव होते हैं, जिनकी चीर-फाड़ बेहोश किये बिना ही होती है। उसे हत्या नहीं, क्रन्दन, तड़पन और घोर उत्पीड़न ही कहना चाहिए। निरीह प्राणियों की यह हत्या क्या आकाश को शुद्ध और शान्त रख सकेगी? उससे प्राकृतिक परमाणुओं की ऐसी हलचल होगी जो पृथ्वी को उद्दण्ड और उच्छृखल मानवों से पाट देगी। विषाणुओं की मात्रा इतनी बढ़ जाएगी कि बचे हुए मानवों को बीमारियाँ खा जाएँगी। एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में, जहाँ दवाइयाँ बनती हैं, वहाँ औषधि शारीरिक क्रिया, अन्तरिक्ष आदि के प्रभाव को मापने से लिए परीक्षण किये जाते हैं। वहाँ तरह-तरह की पीड़ा और यन्त्रणाएँ देते हुए पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों के साथ हो रही निर्दयता को आप देखें तो कहेंगे, इन सुविधाओं और उपलब्धियों की अपेक्षा हम अभावग्रस्त रहे होते तो अच्छा था । हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में एक प्रयोग कुत्तों पर किया गया। कई कुत्तों को जंजीर से बाँधकर आग की लपटों म फेक दिया गया । ५-७ दिन तक कुत्ते उन चिनगारियों में तड़प-तड़प कर झुलसते रहे । उसी अवस्था में उन्हें अधमरा करके छोड़ दिया गया। ऐसे ही प्रयोग में कोलम्बिया विश्वविद्यालय में कुत्तों के हाथ-पैरों को हथौड़ों से इस तरह कूटा-पीटा और कुचला.गया, जैसे लोहार लोहे को घन से पीटता है । अधिकांश कुत्ते उसी दिन मर गये। तीन कुत्ते बचे, उन्होने भी घुट-घुटकर प्राण त्यागे । प्रयोगों के दरम्यान इन्हें पीटना, भूखे मारना, जलाना, सर्दी में ठिठुराना, आँख फोड़ना, जब तक थककर बेहोश न हो जायें तब दौड़ाना, पानी में डुबो देना, सोने न देना, चमड़ा उधेड़ देना, शरीर के किसा हिस्से को विषाणुओं के इन्जेक्शन देकर उस हिस्से को सड़ाकर इन्जेक्शन तैयार करना, शरीर को जीवित काटकर अनेक प्रकार की दवाइयाँ प्राप्त करना आदि सब हिंसाएँ विकास के नाम पर होती हैं। जान हापकिन्स यूनिवर्सिटी के अन्वेषक बिल्लियों पर प्रयोग कर रहे हैं। उनकी चमड़ी पकड़कर नोंचा और झकझोरा जाता है, कान-पूछ खींचकर पिटाई की जाती है । पूंछ को इतनी जोर से औजार से दबाया जाता है कि खून निकल आता है । इस तरह तड़पा-तड़पाकर मारा जाता है । For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ . एक बार कई कुत्ते ६५ दिन तक भूखे रखे गये। बाद में वे मर गय । अमेरिका के वाल्डर हॉस्पिटल में बन्दरों को ६-६ घंटे बेहोश रखा गया। चेतना आने पर उनके मस्तिष्क का कुछ अंश काट कर उसमें बिजली के करेंट दौड़ाये जाते ६-६ घंटे तक; बन्दर चीखते, उछल-कूद करते पर उन्हें ऐसी निर्दयता से बाँधा जाता कि हिलडुल न सके । प्रयोग के बाद भी न भोजन, न पानी, न हवा, न दवा; बेचारे तड़प-तड़प मर गये। एक कोमल खरगोश के कानों में नाइट्रिक एसिड जैसा तेजाब-तेज रसायन डाल दिया गया । वह बुरी तरह तड़प उठा, प्राण बचाने के लिए कहाँ भागता । रसायन-प्रयोग से कान के पास की नसें उभर आई । महाशय ने चाकू निकाल, उभरे हिस्से में घुसेड़ दिया । रक्त तेजी से बह निकला, बोतलें भरी गई। खरगोश की देह का सब रक्त निकल गया तो उसे चीमटे में दाब कर इस तरह फेंक दिया गया, जैसे नींबू का रस निचोड़ने के बाद छिलके को फेंक दिया जाता है। जीवित खरगोश को मारकर उसकी आँत निकाल ली जाती है। उस पर नवनिर्मित दवाइयों का प्रभाव देखा जाता है। कुत्ते के दिल, मेंढक के दिल, कबूतर के दिल और गिनीपिग के गर्भाशय में भी दवाओं के प्रभाव देखे जाते हैं। इन परीक्षणों के समय मार्मान्तक पीड़ा होती है। शारीरिक प्रतिक्रियाओं की जाँच के लिये चूहे, खरगोश, मेंढक, बन्दर आदि के सिर, हाथ, पाँव में डंडे मारते हैं, उछालते हैं, पूछ पकड़कर खींचते हैं, शिकंजों में कसकर दबाते हैं। यह क्या कम यातनाएँ हैं ? खरगोश आदि की चाल को छीलते हैं, छीले हुए स्थान पर सुइयाँ चुभोते हैं कि वह चिल्लाता है या नहीं। अंधी कोठरियों में ये सब क्रूर प्रयोग किये जाते हैं। .. यद्यपि विदेशों में इस प्रकार के घातक प्रयत्नों को रोकने के लिए कानून बने हुए हैं, फिर भी वहाँ की सरकार की ओर से डाक्टरों और विशेषज्ञों को संरक्षण दिया जाता है। भारत में भी प्राणियों के प्रति क्रूरता-निवारक कानून बने हुए हैं फिर भी विज्ञान के विकास के नाम पर लोग पशुओं की हत्या करते हैं। पिछले ७० वर्षों से अमेरिका आदि देशों में कुछ दयालु डाक्टरों की ओर से एण्टी विविसेक्शन मण्डल बनाकर ऐसे प्राणिघातक प्रयोगों को बन्द करने के प्रयास चालू हैं। ... अमेरिका की नेचुरल हाइजिनिक सोसाइटी ने रहस्योद्घाटन किया है कि पशु के अंगों से तैयार की जाने वाली दवाएँ तत्काल भले ही कुछ लाभ पहुँचा दे, मगर बाद में लकवा, केसर, स्नायु-विघटन जैसे रोग उत्पन्न करने का कारण बनती हैं। घोड़े से बनाये गये सीरम का उपयोग करने वाले रोगी बहुत बड़ी मात्रा में लकवे के शिकार हुए हैं। अतः अब विदेशों में और भारत में प्राणिघात के प्रयोगों के सिवाय अन्य वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग प्रारम्भ हो चुका है। मैंने “जैन जगत्" में स्व० मानकरजी For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश : १५१ का एक लेख पढ़ा था । उसमें उन्होंने बताया है कि वेक्सीन और सीरम, जो लाखों प्राणियों को कष्ट देकर, मारकर उनके अंगोपांगों से बनाई जाती है, उसके बदले में आईजेन नगर की वेटरनरी रिसर्च संस्था ने दसरी पद्धति से प्राणियों का प्रयोग किये बिना सीरम और वेक्सीन की पीव तैयार की है, जो प्राणिजन्य वेक्सीन से अधिक शक्तिशाली एवं गुणदायक सिद्ध हुई है। इसके प्रयोग से प्रति वर्ष ३६००० बकरे आदि पशुओं की हत्या रुक जायगी। कुछ भी हो, पशु-हत्या से मानवीय प्राकृति में क्रोध, आवेश, कामुकता, ईर्ष्या, प्रतिशोध जैसे अमानुषिक उच्छृखल तत्त्व बढ़ते हैं। काटे गये पशुओं का चीत्कार मनुष्य जाति पर नाना प्रकार की विपत्तियाँ बनकर बरसता है। हिंसा : हत्या या कत्ल करने कराने के रूप में - विश्व में आज हजारों से अधिक कत्लखाने चल रहे हैं, इन कत्लखानों में अरबों जानवर काटे जाते हैं। यह भयंकर पापकर्म तेजी से बढ़ता जा रहा है। इस पाप के लिये कौन जिम्मेदार है,- कसाई, सरकार या उपभोक्ता ? ... गहराई से सोचा जाए तो इस प्राणिहिंसा के लिए अधिकतर जिम्मेदार वे लोग हैं, जो प्राणिहिंसाजन्य वस्तुओं का उपयोग करते हैं। मांस खाने वालों के लिए बड़े-बड़े कत्लखाने चलते हैं, कसाइयों की दूकानें चलती हैं। वैसे इसके लिए सरकार और कसाई भी जिम्मेदार हैं ही। साधु टी. एल. बास्वानी के कथनानुसार डिब्बे में बन्द मांस बेचने वाली इंग्लैंड की एक कम्पनी प्रतिदिन १० हजार गाय, २० हजार भेड़े, २७ हजार सूअर कत्ल करती है। यह संख्या इतनी बड़ी है कि दो दो की लाइन में उन पशुओं को खड़ा किया जाए तो १५ मील लम्बी कतार बन जाएगी। 'चेकोस्लोवाक लाइफ' पत्रिका के अनुसार यूरोप में शिकारी संघों में १ लाख २० हजार ऐसे हैं, जो लाइसेंस प्राप्त करके प्राणिवध करते हैं। उसके वार्षिक विवरण के अनुसार इनके द्वारा मारे गए पशु-पक्षियों की संख्या पशु-पक्षी कुल मिलाकर ११ लाख ८८ हजार १६ होती है, बिना लाइसस की संख्या तो इससे तिगुनी होगी। - इसके अतिरिक्त क्रोध, आवेश, मनोरंजन, खुशी, उत्सव आदि के उपलक्ष में हजारों पशुओं की हत्या कर या करा दी जाती है, वह अलग है। न जाने सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी-मानव अपने तुच्छ प्रयोजन के लिए कितने रूप में हत्या कर देता है। जैसे-बहुत सी हिंसाएं क्रूर कुप्रथाओं के कारण होती हैं। हमारे देश में मृतपति के साथ उसकी जीवित पत्नी को जबरन जलकर सतो होना पड़ता था, वैसे ही मिस्र म राजाओं के शव के साथ उसकी कई रानियों को गला घोंटकर मार डाला जाता और राजा के साथ हो दफनाया जाता। ५० घोड़े और ५० सेवक तथा दासदासियों को भी वहीं गाड़ा जाता था, ताकि वे परलोक में राजा को मिल सकें। मंगूखाँ नामक सरदार की शव यात्रा के समय सामने पड़ने वाले २० हजार व्यक्तियों For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ का यह कहकर कत्ल कर दिया गया कि परलोक में वे अपने स्वामी की सेवा करेंगे। कितनी भयंकर क्रूर प्रथा थी । अन्ध-विश्वासवस घोर हिंसा का यह नमूना है। कई बार परस्पर विद्वेष या अदावत के कारण मनुष्यों में परस्पर हत्याकाण्ड चलता है, कई व्यक्ति अपने जरा से स्वार्थ को लेकर दूसरों की हत्या करा देते हैं। आजकल राजनैतिक स्वार्थ को लेकर बात-बात में अपने विरोधी की हत्या कराने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। पुराने जमाने में राज्यलिप्सावश राजघरानों में एक-दूसरे की हत्या के षड्यंत्र रचे जाते थे, अपने विरोधी का बिलकुल सफाया कर दिया जाता था। राजाओं के रनिवास में भी रानियों में परस्पर ईर्ष्या-द्वेष आदि चलता था, जिसके कारण एक मानीता रानो अपनी सौतों को मरवा देती थी। इसी प्रकार अपने शत्रु या प्रतिपक्षी का विनाश करने के लिए मारण, मोहन, उच्चाटन आदि मंत्रों का प्रयोग किया जाता था। कई बार तो धार्मिक विद्वेष, राजनैतिक विद्वष जातीय विद्वेष के कारण किसी अच्छे और लोकप्रिय व्यक्ति की भी हत्या कर जाती है, जैसे राष्ट्रपिता, सर्वहितैषी महात्मा गाँधी को गोडसे ने गोली का शिकार बनाया, इसी प्रकार राजनैतिक विद्वेष के कारण अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडो की हत्या की गई, जातीय या रंग-विद्वेष के कारण नीग्रो-नेता मार्टिन लूथर किंग की हत्या की गई। ऐसे ही भारत में जरा से तुच्छ स्वार्थ को लेकर अनेक महापुरुषों की, राजनैतिक पुरुषों की हत्या की खबरें आए दिन हम समाचार पत्रों में पढ़ते हैं। राजनैतिक स्वार्थवश किये गये भयंकर नर-हत्याकाण्डों के नमूने देखिये नादिरशाह ईरान का एक गड़रिया था भेड़ चराते-चराते डाकेजनी करते हुए अन्य डाकुओं को अपने नियंत्रण में कर के वह डाकुओं का सरदार बन बैठा। धीरेधीरे-धीरे वह ईरान की गद्दी पर पहुँचा । शासन सत्ता को हाथ में लेने के बाद यदि वह चाहता तो जनहित में अपनी प्रतिभा का उपयोग करके लाखों व्यक्तियों का वन्दनीय बन सकता था । परन्तु उसके हृदय और मस्तिष्क में क्रूरता और नृशंसता के तत्त्व विद्यमान थे। ईरान का शासक बनकर उसे नरहत्या में रस आने लगा। उसने कई देशों में कत्लेआम करवाये । भारत आकर उसने दिल्ली लूटी, और प्रायः उजाड़ दी। एक ही दिन में डेढ़ लाख आदमी कत्ल करवाये। जितने भी भवन-निर्माण कलाविशेषज्ञ मिले, सबको वह कैद करके ईरान ले गया। ___ जर्मनी का हिटलर नृशंसता में आने वर्ग के सभी साथियों से बाजी मार गया। उसका मिथ्या भ्रम था कि प्रथम महायुद्ध में जर्मनी यहूदियों के कारण ही हारा, अतः उसने उसका बदला अगली पीढ़ी से जाति-वध के रूप में लिया। उसने एक साथ ५०-६० लाख यहूदियों को विषली गैस से दम घोंटकर मार डाला। २१ अक्टूबर १९४१ का दिन यूगोस्लाविया की जनता के लिये सबसे बड़ा नृशंस दिन है। उस दिन ७ हजार निरपराध नागरिकों और स्कूलों में पढ़ रहे बालकों For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश : १५३ का एक साथ मौत के घाट इसलिये उतार दिया कि वे अपने देश को क्यों प्यार करते हैं, आक्रमणकारी नाजियों का साथ क्यों नहीं देते । कुछ ही वर्षों पहले बंगला देश में पाकिस्तानी बूचरों ने ३० लाख बंगालियों को गाजर-मूली की तरह काट दिया। दया और मानवता से अपरिचित इन नरपिशाच वधिकों को किन शब्दों से अलंकृत किया जाए ? इतिहास में पहले भी ऐसे क्रूर शासकों के द्वारा नर-संहार होते रहे हैं। चंगेजखाँ का बेटा हलाकूखाँ भी अपने बाप की तरह निर्दय था । उसने भी ईरान पर चढ़ाई करके उसकी ईट से ईट बजा दी। खलाफा को खत्म करके इस्लामियों का सफाया किया । खून से रंग दिया उस देश को। तैमूरलंग इतना निर्दय था कि उसने अपने शत्रओं के रक्त और हड्डियों का गारा बनाकर वितनी ही मीनारे चिनवाई। दिल्ली लूटी ही नहीं, लाशों से पाट दी उसने । कितने ही नगरों और गाँवों में उसने कत्लेआम करवाया। वह खड़ी फसलों और बस्तियों में आग लगाता हुआ आगे बढ़ता था। - बारहवीं सदी का मंगोल शासक चंगेजखाँ अपने लड़ाकू साथियों सहित जहाँ भी चढ़ाई करता, सर्वप्रथम कत्लेआम कराता। लूट के धन से उसे जितनी खुशी होती थी, उससे अधिक खुशी बिलखते, चीत्कार करते नर-नारियों के सिर उड़ाने और भाले भौंकने में आता । ४६ वर्ष की उम्र में वह चीन का शासक बन गया। अनेकों नगर-गाँव उजाड़े रूस का एक नगर लाशों से पाट दिया । रोम का शासक नीरो १४ वीं शताब्दी में ६ वर्ष तक शासनारूढ़ रहा । उसने अपनी माता की हत्या करवाई, पत्नी का सिर कटवा डाला, जिन अफसरों से अनबन' हुई, उन्हें देखते ही देखते मौत के घाट उतार दिया। सनक आई तो पूरा शहर ही जलवाकर खाक करा दिया, उस अग्निकाण्ड से हुई धन-जन की क्षति को मनोरंजन के रूप में ऊँची पहाड़ी पर बैठा देखता रहा, सर्वनाश के अवसर पर वह फिडल बजाता रहा। हिटलर का दायाँ हाथ मार्शल गोरिंग बड़ा कर था। इन दोनों ने मिलकर शत्रु पक्ष की सेना का जितना संहार किया था, उससे १० गुने अधिक स्वदेशवासी जर्मन नागरिक गाजर-मूली की तरह काटकर फक दिये । कारण बहुत ही नगण्य था । परन्तु क्रूरकर्मा अपनी अहंता की तृप्ति के लिए मृत्युदण्ड ही देता था। सामान्य मागरिकों को भी वह तड़पा-तड़पाकर मारता था। इतिहास में ऐसे अनेक शासक हुए हैं, निरीह मनुष्यों के हत्यारे रक्तशोषक ! इसी प्रकार कई लोग निर्दय प्रकृति के ही जन्मे, उन्हीं पैशाचिक प्रकृतियों में लिपटे रहे सारी जिन्दगी भर । 'बेनेडिक्ट कार्पजे' लिपजिग (जर्मनी) के सेशनकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश रहा । वह बहुत कठोर और क्रूर था। जुआ. उठाइगिरी, जादूटोना करने जैसे मामूली अपराधों में वह मृत्युदण्ड दे देता था, मानो उसने इससे For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ हलकी सजा की बात पढ़ी ही न हो । ४६ वर्ष (सन् १९२० से १९६६ तक) के शासन काल में उसने ३० हजार पुरुषों और २० हजार स्त्रियों को फाँसी के तख्ते पर चढ़वाया । वह फाँसी लगने का दृश्य देखने में बहुत रस लेता था । औसतन ५ व्यक्तियों को वह प्रतिदिन फाँसी पर चढ़ाता था, दया करना सीखा ही नहीं। उसकी कुरुचि ने असंख्य निर्दोष व्यक्तियों को करुण विलाप करते हुए अकारण मृत्यु के मुख में धकेला। जेम्स प्रथम के शासनकाल में इंग्लैण्ड के एडिनबरा नगर से कुछ ही दूर एक गाँव में स्वेनेवीन नामक लड़का जन्मा । उसे बचपन से ही चोरी की आदत पड़ गई । पीछे उसे क्रूरता में मजा आने लगा। वह पक्षियों की गर्दन मरोड़कर उनका खून पी जाता, अकेला कोई कुत्ता, बिल्ली आदि मिल जाता तो उसे एक ही डंडे में धराशायी कर देता, मेंढकों को पैरों तले कुचल डालता, मधुमक्खियों के छत्ते जला डालता, इस प्रकार की क्रूरता से मनोरंजन करता। एक दैत्याकार स्त्री भी उसे ऐसी ही मिल गई। दोनों मिलकर कर कर्म करने लगे। बाद में समुद्रतट के निकट वीरन क्षेत्र 'गालांबे' में एक गुफा में दोनों रहने लगे। पूरे २५ वर्ष तक यात्रियों को लूटना, सहसा हमला करके दम निकाल देना आदि धंधे करते रहे। इस दौरान ३ हजार नर-हत्याएँ की । जर्मनी के विषाणु शोधकर्ता फिजराफ को पुलिस ने पकड़ा और पाया कि वह छोटे बच्चों को चुराकर उन्हें तड़पा-तड़पाकर मार डालता है। इस प्रकार मनुष्यों की हत्या करने-कराने में संलग्न नरपिशाच हिंसा के ही पुजारी थे । वे इस विविध रूपों में हत्याएं करते-कराते जीवन बिताते रहे। ... हिंसा : पशु-पक्षी एवं मनुष्य की बलि के रूप में .. प्राचीनकाल में मनुष्य देवी-देवों को प्रसन्न करके उनसे सांसारिक कामनाओं की पूर्ति हेतु पशु (बकरा, भैंसा आदि) व पक्षी (मुर्गा आदि) उनके आगे चढ़ाता था । इस प्रकार पशु-पक्षी का वध करके अपने इष्ट देवी-देवों के समक्ष बलि चढ़ा देते थे। इस प्रकार का अधविश्वास सारे भारत में प्रचलित था। भगवान् महावीर और उनके अनुगामी साधु-साध्वीगण तथा तथागत बुद्ध व उनके अनुगामी भिक्ष पशु-पक्षीबलि का घोर खण्डन करते थे। वे आमजनता को इस हिंसा का स्वरूप समझाकर इसका त्याग कराते थे। आज भी बंगाल-बिहार में काली, दुर्गा आदि देवियों के आगे बकरों की बलि दी जाती है। यद्यपि सभी धर्मशास्त्र एक स्वर से पशुबलि का निषेध करते हैं । जिन तांत्रिक ग्रन्थों में पशुबलि का विधान है, वे भी पशु का अर्थ काम, क्रोध आदि अधम वृत्तियाँ करते हैं, फिर भी जिह्वालोलुप पंडे-पुजारी तथा अन्धविश्वासपरायण देवीभक्त इन बातों को नहीं मानकर प्राणिवध में ही कल्याण एवं लौकिक कामनाओं की पूर्ति समझते हैं । गुजरात में कुमारपाल राजा का राज्य था। उस समय परम्परा से कण्टकेश्वरी देवी के आगे पशुबलि का रिवाज था, परन्तु आचार्य हेमचन्द्र ने युक्ति से समझाकर पशुबलि बंद करवा दी। For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश: १५५ प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना है । एक बार नगर के देवमन्दिर में कोई उत्सव था, प्लेटो भी आमन्त्रित थे । नागरिकों के प्रेमाग्रह को वे न ठुकरा सके । उत्सव में सम्मिलित हुए । प्लेटो का विचार था कि ऐसे आयोजनों में किया जाने वाला व्यय जनकल्याण में लगना चाहिए । मन्दिर में एक नया दृश्य देखने को मिला । नगरवासी देवप्रतिमा के सामने अनेक पशुओं की बलि चढ़ाने लगे । जो आता, एक पशु अपने साथ लाता । देवप्रतिमा के आगे खड़ा कर उस पर तेज अस्त्र ये प्रहार किया जाता। दूसरे ही क्षण वह तड़पता हुआ अपने प्राण त्याग देता और दर्शक यह सब देखते, हँसते, इठलाते और नृत्य करते । जीवमात्र के प्रति सहानुभूति रखने वाले प्लेटो से यह दृश्य देखा न गया । वे उठकर चलने लगे । उनका हृदय आर्तनाद कर रहा था। तभी एक सज्जन ने उनका हाथ पकड़कर कहा – “मान्य अतिथि ! आज तो आपको भी बलि चढ़ानी होगी । यह लीजिए तलवार और यह रहा बलि का पशु, तभी देवप्रतिमा प्रसन्न होगी ।" प्लेटो ने शान्तिपूर्वक थोड़ा पानी लिया, मिट्टी गीली की, उसका एक पिण्ड बनाया और देवप्रतिमा के आगे चढ़ा दिया । फिर चलने लगे घर की ओर । अन्य श्रद्धालु इस पर बहस करने लगे - " क्या यही आपका बलिदान हैं ? प्लेटो ने शान्ति से कहा - "हां, आपका देव निर्जीव है । उसे निर्जीव भेंट ही उपयुक्त थी, सो चढ़ा दी । वह खा-पी नहीं सकता, इसलिए उसे मिट्टी चढ़ाना बुरा - नहीं ।' धर्मध्वजियों ने प्रतिवाद किया - "जिन लोगों ने यह प्रथा चलाई, वे मूर्ख थे ? क्या हमारा कृत्य मूर्खतापूर्ण है ? प्लेटो ने मुस्कराकर निर्भीकतापूर्वक कहा - "आप हों या पूर्वज जिन्होंने भी यह प्रथा चलाई, पशुओं की ही नहीं, मानवीय करुणा की हत्या का प्रचलन किया है । कृपया अपनी तृप्ति को धर्म न बनाओ, देव को कलंकित मत करो, न धर्म को धर्म हिंसा, अन्धविश्वास - पोषण एवं अविवेक में नहीं ।" सभी लोग निरुत्तर थे । प्लेटो चले गए । यह है - पशुबलि के रूप में हिंसा का ताण्डवृनृत्य ! भारत में आज पशुबलि प्रथा प्रचलित है, वह यज्ञादि के नाम से नहीं है, अपितु अपनी लौकिक कामनापूर्ति हेतु काली दुर्गा, आदि देवियों के आगे पशुबलि चढ़ाई है । नेपाल में पशुपतिनाथ के आगे भैंसे की बलि होती है । अब लीजिए यज्ञादि धर्म के नाम पर पशुबलि का हिंसात्मक रूप ! प्राचीनकाल में भारत में अश्वमेध, गोमेध, आदि यज्ञ होते थे, उनमें हजारों निरीह प्राणियों को स्वर्ग भेजने के नाम पर काटकर बलि चढ़ाते थे । 'याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर याज्ञिकी हिंसा को हिंसा मानने से इन्कार करके याज्ञिक आत्मवंचना और लोकवंचना करते थे । अधिकांश क्षत्रिय यजमान मिल जाते । वे अपनी पुण्यवृद्धि एवं स्वर्गफल की आशा से यज्ञ कराते । यज्ञ का सारा खर्च उन्हीं का होता था । For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ इसी तरह एक और क्रूर प्रथा थी प्राचीनकाल में नर-बलि की। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए जीवित मनुष्य को मारकर बलि चढ़ा दिया जाता था। धर्मनिष्ठ गुरु गोविन्दसिंह से एक पण्डित ने कहा- "आप सिक्खों की शक्ति बढ़ाना चाहते हैं तो दुर्गादेवी का यज्ञ कराइये । यज्ञ से अग्नि प्रकट होगी, वह सिक्खों को शक्ति का वरदान देगी।" गुरु गोविन्दसिंह उसकी बात से सहमत हो गए, लेकिन कई दिन तक यज्ञ होते रहने पर भी जब देवी प्रकट नहीं हुई तो धूर्त पण्डित ने कहा-“देवी को प्रसन्न करने के लिए किसी पुरुष का बलिदान देना होगा। तभी वह प्रसन्न होकर दर्शन देगी और बलिदानी व्यक्ति को स्वर्ग मिलेगा।" गुरु गोविन्दसिंह ने उस धूर्त पण्डित को पकड़कर कहा-"बलि के लिये आपसे अच्छा आदमी कहाँ मिलेगा? आपका बलिदान पाकर देवी तो प्रसन्न होगी ही, आपको भी स्वर्ग मिल जायेगा।" यह व्यवहार देखकर पण्डित घबराकर क्षमा मांगने लगा। गुरुजी ने कहा- "देवी किसी के प्राण लेकर प्रसन्न नहीं होती, वह प्रसन्न होती है, अच्छे कार्यों से। इस प्रकार का अन्ध-विश्वास फैलाना ठीक नहीं ।" इस प्रकार समझाकर पण्डित को छोड़ दिया । इस प्रकार पशुबलि हो, चाहे नरबलि, देवी-देवों को नाम पर हो या पितरों के नाम पर हो या यज्ञादि के नाम पर ये सभी भयंकर हिंसाएँ हैं, जिनसे स्वर्ग यहीं, नरक ही मिलता है । यह हिंसा कभी धर्म नहीं हो सकती। धर्म के नाम पर होने वाली भयंकर हिंसाएँ। इसी प्रकार धर्म के नाम से, या धर्भ खतरे में हैं' ऐसे नारे लगाकर परस्पर दो धर्म-सम्प्रदायों का लड़ना-लड़ाना, और एक-दूसरे के प्राणों के ग्राहक बन जाना कभी धर्म नहीं हो सकता है। जेरूसलम में लगभग १०० वर्ष तक क्रूसेड (धर्मयुद्ध) चलता रहा, मुसलमानों और ईसाइयों के बीच में । इसी प्रकार भारत में भी आए दिन साम्प्रदायिक दंगे धर्म-मजहब को लेकर होते हैं, प्राचीन काल में भी जनों के साथ वैदिकों का, बौद्धों के साथ वंदिकों का घोर संघर्ष हुआ, जिसमें जनों, बौद्धों पर बहुत अत्याचार हुए। इन सब धर्म सम्प्रदाय के नाम पर होने वाली लड़ाइयों में हजारों आदमी मौत के घाट उतार दिये जाते थे। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के विभाजन के समय, नोआखाली के दंगे के समय धर्म के नाम पर हजारों निर्दोष व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया गया। एक और विचित्र हिंसा है, धर्म के नाम पर ! शायद पहले यह विश्व में कहीं हुई हो तो पता नहीं। अभी-अभी कुछ वर्षों पहले एक शैतान ने की है। 'इंडिया ना पोलीश में सन् १९३१ में 'जीम वोरन जोन्स' नामक एक लड़का पैदा हुआ । बचपन से माँ लाइनेटा से उसे ऊटपटांग विचार मिले । १४ साल की उम्र में वह धर्मगुरु बन For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश : १५७ बैठा । १८ वर्ष की उम्र में विवाह कर लिया । एक पुत्र हुआ । ८ को दत्तक लिया । 'पीपल्स टेम्पल' चर्च की स्थापना की। केलिफोर्निया के रेडवुड जंगल में जाकर आश्रम की स्थापना की । एक लाख डॉलर बैंक में जमा किये। फिर तो चारों ओर उसकी प्रशंसा होने लगी। अमेरिका और रूस के राजनेता एवं उच्चाधिकारी उससे मिलने लगे । इससे पीपल्स टेम्पल के अनुयायी बढ़ते जाते थे। अतः १९७४ में जोन्स ने दक्षिण अमेरिका में गुयाना के जंगल में 'पीपल्स टेम्पल' नामक आश्रम की स्थापना की। 'जोन्स' पहले तो स्वयं को ईसा का अवतार बताता था, फिर वह स्वयं का भगवान् के रूप में परिचय देता था। लोगों के शरीर से केन्सर जैसे असाध्य रोगों को मिटा देने का वह दावा करता । उसके चित्रावली माला पहनने से रोग मिटता है, यों कहकर वह अपना छोटा चित्र बाँटता था । भक्तों से उनकी बचत ही नहीं, उनकी समस्त मिल्कियत भी ले लेता था। इसीप्रकार उसने डेढ़ करोड़ डॉलर इकट्ठ कर लिये थे। जो उसकी आज्ञा न मानता या अश्रद्धा रखता, उन पर क्रूर अत्याचार भी करता था । जोन्स की राक्षसी लीला के समाचार केलिफोर्निया आदि नगरों में पहुँचते थे। उसके आश्रम के एक अधिकारी ने अमेरिका आकर कहा 'जोन्स ६५ हजार डॉलर प्रतिमास इकट्ठे कर रहा है। सामूहिक हत्या कैसे की जाए ? इसकी वह कवायद भी कराता है । अनुयायियों को कैद में रखता है, उन पर शारीरिक, मानसिक जुल्म भी करता है। बालकों को नजरबन्द रखकर उनके माँ बाप से धन निकलवाता है।" अमेरिका के संसद सदस्य 'लियो रायन' को गुयाना की राजधानी जार्जटाउन से १५० मील दूर घने जंगल में बसे हुए जोन्स टाउन स्थित आश्रम की प्रवृत्ति देखने की इच्छा हुई तार दिया। पर कोई जबाव नहीं। उसके वकील ने धमकी भरा उत्तर दिया। किन्तु रायन साहस करके दलबल सहित आश्रम आये । नाटकीय ढंग से स्वागत हुआ। जो भी आश्रमवासी आश्रम छोड़कर जाना चाहता, वह सशंक होकर या तो उसे मरवा डालता या हैरान करता। रायन आश्रम देखकर ज्यों ही गुयाना एयरपोर्ट पर पहुँचे, अपने दल सहित गोलियों से बांध दिये गए । हा-हाकार मच गया । जोन्स को डर था कि गुयाना का पुलिस दल आ पहुँचेगा और बुरी मौत मारे जायेंगे, इसलिए उसने सभी आश्रमवासियों को स्वाभिमानपूर्वक मर जाना चाहिए, ऐसी प्रेरणा दी । आश्रम के युवक डॉक्टर ने 'जोन्स' के आदेश से स्ट्रॉबेरी की सुगन्ध वाला विषमिश्रित स्वादिष्ट पेय तैयार किया। एक बहुत बड़े टब में भर कर मैदान के किनारे रखा गया। बालकों को जबरन माताओं की छाती पर से खींच कर सर्वप्रथम उनके मुह में वह पेय डाला गया। कहीं कोई भाग न जाए, इसके लिए पहरा बढ़ा दिया गया था। लगभग ६०० आश्रमवासियों को वह विषमिश्रित पेय पिलाया गया। लगभग ८०० लोगों के पासपोर्ट उसने जब्त कर रखे थे, ताकि कोई भाग न जाए। अन्त में स्वयं ने भी हत्या कर ली। कितनो भयंकर सामूहिक हत्या थी यह ! हिप्नोटिक और मैग्नेटिक प्रभाव वाले धर्म-गुरु भगवान और पैगम्बर बन For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२, कर लोगों की विचारशक्ति और श्रद्धा को धर्म और सम्प्रदाय के नाम से अन्धश्रद्धा में लपेट कर अपने चरणों में समर्पित करने को विवश कर देते हैं, और फिर विनाशलीला का सृजन करते हैं, उसका यह एक ज्वलन्त उदाहरण है। हिंसा : लूट, डाका, आगजनी वगैरह के रूप में . हिंसा के असंख्य प्रकार हैं । कुछ साहसी एवं अत्याचारी लोग निर्दय बनकर राह चलते लोगों को लूट लेते हैं, घरों में डाका डालते हैं, आग लगा देते हैं, तोड़-फोड़ और दंगा करने पर उतारु हो जाते हैं। इन सबके पीछे, क्रोध, आवेश, द्वष, भयंकर स्वार्थ, लोभ, सत्तालिप्सा आदि कारण होते हैं। लुटेरे, डाकू, दंगाई, या अत्याचारी लोग केवल लूट आदि मचाकर ही नहीं रहते, वे बेरहमी से निर्दोष लोगों को मारतेपीटते हैं, जान से मार डालते हैं, डराते-धमकाते हैं, अंग-भंग कर देते या घायल कर देते हैं । इस प्रकार लूटपाट आदि भी एक अर्थ में हिंसा है, फिर मारपीट, वध आदि तो हिंसा है ही । ऐसी हिंसा क्या कभी धर्म हो सकती है ? हिंसा : युद्ध द्वारा नर-संहार के रूप में .... मनुष्य में जब असुरता बढ़ जाती है तो अत्यन्त नृशंस एवं बर्बर हो जाती है। छुटपुट लड़ाई से लेकर महायुद्ध तक जितनी भी क्रूरताएँ या विनाशलीलाएँ हुई हैं, सबके मूल में असुरता ही प्रधान रही है । युद्ध चाहे छोटा हो या बड़ा, जहाँ चलाकर छेड़ा जाता है, वहाँ उसकी तह में अपनी राज्यलिप्सा, दूसरे देशों में व्यापार वृद्धि की लिप्सा, अपने अहं की पूर्ति को लेकर निर्बल के साथ बल-प्रयोग या दमन-नीति होती हैं । इससे तिहरा लाभ प्रतीत होता है-(१) अपने अहं की तुष्टि, (२) आतंक से दूसरे लोगों द्वारा डरकर आत्म समर्पण करना और (३) अन्य भौतिक लाभ के अवसर। - शक्तिशाली पक्ष बहुत से कारण बताकर अपने लोगों को उकसाकर दूसरे पक्ष पर चढ़ दौड़ने की भूमिका निर्मित करता है। परन्तु युद्ध से थोड़ा-बहुत व्यक्तिगत लाभ भले ही किसी को हो जाए, सामूहिक रूप से भयंकर हानि है (१) लाखों निर्दोष व्यक्तियों का संहार । (२) जान-माल आदि का नाश । (३) संवद्धित संस्कृति का सत्यानाश । (४) मानसिक हिंसा। (५) देश की अर्थ-व्यवस्था चौपट । युद्ध कितने मंहगे, कष्टकर, विनाशकारी एवं अगणित समस्याएँ उत्पन्न करने वाले होते हैं ? यह अब भली-भांति समझा जाने लगा है। किसी जमाने में यह समझा जाता था कि शान्ति-रक्षा एवं आत्मरक्षा के लिए युद्ध करना आवश्यक है। पर मनोविज्ञान के निष्कर्षों ने हमारी आँखें खोल दी हैं कि युद्ध से कोई समस्या हल नहीं होती, हिंसा-प्रतिहिंसा, द्वेष, प्रतिशोध का कुचक्र, परस्पर आक्रमण के दाँव-घातों For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश : १५९ का तानाबाना बुनता है। समयानुसार दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी दुरभिसंधियों का निशाना बनाते हैं । इस शृंखला का अन्त तब होता है, जब दोनों ही पक्ष अपनी क्षमता नष्ट कर चुकते हैं। दोनों ही क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। अत; मंहगे युद्ध की निरर्थता स्पष्ट है। जूलियस सीजर के समय लड़ाई में एक सैनिक को मारने पर ७५ सेंट खर्च पड़ता था, नेपोलियन के युग में वह २१ डालर हो गया, दूसरे विश्व युद्ध में उसकी दर बढ़ी, एक संनिक को मारने में ५० हजार डालर खर्च करने पड़े। वियतनाम युद्ध में अमेरिका को इससे ७ गुना अधिक खर्च करना पड़ा। अर्थात् एक संनिक को मारने पर ३४४८२७ डालर खर्च करने पड़े । इतने धन से जापान जैसे छोटे-से देश को समृद्ध बनाया जा सकता था। फिलहाल संसार ७०० करोड़ रुपये प्रतिवर्ष शस्त्रास्त्रों पर खर्च करता है। ८६॥ करोड़ में एक ब्रिटिश विमान वाहक जंगी जहाज तयार होता है, जबकि ५३ करोड़ रुपयों से विश्व के नागरिकों को शुद्ध जल की व्यवस्था की जा सकती थी, ६०० देहाती अस्पताल खोले जा सकते थे। इतना विशाल खर्च युद्धबन्दी से बच सकता है, संसार स्वर्ग बनाया जा सकता है। परन्तु हिंसा के पक्षधरों में यह सद्बुद्धि पदा हो, तब न ? अन्यथा युद्धजन्य हिंसा से भयंकर पाप का उपार्जन तो होता ही है, धर्म का सर्वनाश हो जाता है । इसीलिये महर्षि गौतम ने सभी प्रकार की हिंसाएँ को सद्धर्म का विनाश करने वाली बताई हैं हिंसा पसत्तस्स सुधम्मनासो।' -हिंसा का आचरण करने से धर्म का नाश हो जाता है । For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६0. चोरी में आसक्ति से शरीर नाश धर्मप्रेमी बन्धुओ ! - आज मैं नैतिक जीवन के लिए घातक छठे कुव्यसन के सम्बन्ध में प्रकाश डालूगा । छठा कुव्यसन है-चोरी । नैतिक जीवन-निर्माण के लिए चोरी का त्याग अनिवार्य है। महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में चोरी के त्याग का संकेत किया है। इस जीवन सूत्र का रूप इस प्रकार है चोरी पसत्तस्स सरीरनासो -चोरी में आसक्त पुरुष के शरीर का नाश होता है। गौतम कुलक का यह ७६वाँ जीवनसूत्र है। - चोरी क्या है ? वह नैतिक जीवन के लिए क्यों घातक है ? उसके क्या-क्या रूप हैं ? चोरी से क्या-क्या हानियाँ हैं ? आदि सभी पहलुओं पर आज में चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। चोरी क्या है ? क्या नहीं है ? सर्वप्रथम प्रश्न होता है कि चोरी किसे कहते हैं ? चोरी की परिभाषा क्या है ? स्थूल रूप से चोरी है-दूसरे के स्वामित्व की वस्तु को हड़प लेना, हरण कर लेना, बिना दिये या बिना अनुमति के ले लेना, उठा लेना और अपने अधिकार में कर लेना, किसी भी व्यक्ति का धनमाल या कोई भी वस्तु जबरन छीन लेना, लूट लेना, या धोखा देकर दूसरे के माल को हथिया लेना, सेंध लगाकर या घर फोड़कर अन्दर घुसकर किसी के धन-माल को बटोर कर ले जाना । इसे शास्त्रों में अदत्तादान कहा है। अदत्तादान का अर्थ है-बिना दिये लेना । परन्तु घर में, दूकान में, उपाश्रय में या सर्वत्र प्रत्येक चीज इस प्रकार दूसरे के द्वारा बिना दिये लेना चोरी में परिगणित होता हो तब तो साधु या श्रावक के लिए किसी चीज का उपयोग करना भी कठिन हो जायेगा, क्योंकि पद-पद पर गृहस्थ को घर में कई चीजें लेनी-रखनी होती हैं, कहाँ वह बात-बात में अनुमति लेता रहेगा ? यदि घर का मालिक कहीं किसी कार्यवश बाहर चला गया तो वह किससे अनुमति लेगा? और अनुमति नहीं लेगा और एक भी चीज बिना अनुमति के उठाएगा तो चोरी का दोष लगेगा न ? इसी तरह साधु भी अपने सार्मिक साधु के साथ रहता है, कदाचित् उसको साधु के निश्राय के किसी उपकरण, या किसी For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १६१ पुस्तक, वस्त्र, पात्र आदि की आवश्यकता पड़ गई, सार्मिक साधु स्थण्डिल भूमि को शौचार्थ गया हुआ है, या सोया हुआ है, अथवा किसी कार्यवश उपाश्रय से बाहर गया है, अब बताइए आवश्यकता पड़ने पर साधु उसके निश्राय का कोई पात्र या पुस्तक उठाएगा तो सार्मि-अदत्त नामक चोरी का दोष नहीं लगेगा ? - इसका समाधान यह है कि यों चोरी का दोष श्रावक या साधु को नहीं लगता; चोरी का दोष तब लगता है, जब श्रावक के परिवार का या साधु का कोई साधर्मिक साधु उसे मना कर दे, अपनी सहमति किसी चीज के लिए प्रकट न करे, फिर भी उससे छिपाकर या उसके परोक्ष में कोई चीज उठाकर उसका उपयोग कर लिया जाए । घर की प्रत्येक वस्तु का उपयोग करने की घर के हर सदस्य को गृहस्वामी या गृहस्वामिनी की ओर से पहले से अनुमति या सहमति होती है, तब बार-बार हर वस्तु के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं रहती। इसी प्रकार प्रत्येक साधु की ओर से अपने साथ रहने वाले सार्मिक साधु को उसके निश्राय की कोई भी वस्तु लेने, उपयोग करने या उठाने की अनुमति या सहमति रहती है, उसका किसी प्रकार का विरोध या असहमति उस बारे में नहीं होती, ऐसी स्थिति में अदत्तादानचोरी का दोष नहीं लगता । चोरी का दोष तो तब लगता है, जब कोई गृहस्वामी अपने परिवार के किसी सदस्य को किसी चीज के लेने से इन्कार करे, तब भी वह ले ले । अथवा साधु अपने सार्मिक को किसी वस्तु के लेने या उपयोग करने का निषेध कर दे । वास्तव में देखा जाए तो जहाँ चोरी होती है या की जाती है, वहाँ प्रच्छन्नता, गुप्तता होती है, वस्तु के मालिक से छिपाकर, नजर बचाकर, उसकी अनुपस्थिति में या परोक्ष में चोरी होती है। __ चोरी क्यों पाप है ? क्यों कुव्यसन है ? कई लोग यह कह बैठते हैं कि चोरी में कौन-सा पाप या व्यसन है ? चोरी में यही तो होता है, कि एक जगह से चीज उठाकर दूसरी जगह रख दी गई, एक की तिजोरी से माल लेकर दूसरी तिजोरी में रख दिया गया, एक पेटी से दूसरी पेटी में, एक की जेब से दूसरे की जेब में धन चला गया, इसमें किसी भी जीव की हिंसा नहीं हुई, एक चींटी भी नहीं मरी, न किसी प्रकार का झूठ बोलने का काम पड़ा, न बेईमानी करने का, न ब्रह्मचर्य भंग करने का और न परिग्रह-वृद्धि का काम हुआ। बल्कि एक के यहाँ का परिग्रह कम कर दिया। क्या आप इस बात को मानेंगे कि चोरी में कोई पाप नहीं है ? यदि कोई व्यक्ति चोर के यहाँ की वस्तु चुरा ले और फिर उससे पूछे कि तुम क्यों तिलमिला रहे हो ? हो क्या गया, तुम्हारे यहाँ वह वस्तु न रही सही, किसी दूसरे के यहाँ चली गई तो कौन-सा गजब हो गया ? तुम भी तो यही करते हो ? क्या चोर इस बात को तब भी मानेगा? क्या वह अपनी चोरी को शान्ति से सह लेगा? कदापि नहीं। वह अपने यहां हुई चोरी को तो पाप कहेगा, बुरी कहेगा, अच्छी नहीं समझेगा, तब दूसरे के यहाँ की जाने वाली चोरी For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ को वह कैसे अच्छी कह सकता है ? कैसे धर्म या पुण्य कह सकता है ? बल्कि चोरी को हिंसा से भी बढ़कर पाप माना गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में हिंसा से भी चोरी को बढ़कर दुःखकर बताते हुए कहा हैएकस्यैकक्षणं दुःखं मार्यमाणस्य सपुत्रपौत्रस्य पुनर्यावज्जीवं हृते -- मारे जाने वाले जीव को अकेले को सिर्फ एक क्षण के लिए दुःख होता है, परन्तु जिसका धन हरण कर लिया जाता है, उसे और उसके पुत्र-पौत्रों को जीवन भर के लिए दुःख होता है । धने ॥ स्पष्ट है कि चोरी भयंकर पाप है, मनुष्य को उत्तरोत्तर पतन की ओर ले जाती है । जिसे एक बार चोरी का चस्का लग जाता है, जो चोरी किये हुए पराये धन पर तागड़धिन्ना करना सीख जाता है, जिसे पर धन के उपभोग में सुख मिलता है, वह उत्तरोत्तर चोरी ही चोरी करता चला जाता है, न्याय-नीतिपूर्वक पुरुषार्थ से, व्यवसाय से या आजीविका से अथवा नौकरी करके कमाना उसे सुहाता ही नहीं । भारतीय नीतिशास्त्रज्ञों ने तो पराये धन पर गुलछर्रे उड़ाने की अपेक्षा भिक्षा माँगना अच्छा बताते हुए कहा है वरं भिक्षाशित्वं न च परधनास्वादनसुखम् । - भिक्षा माँगकर खाना अच्छा है, लेकिन परधन ( चुराये हुए) के स्वाद का सुख अच्छा नहीं । पड़े, चोरी किये बिना । व्यसन वह होता है, परन्तु चोरी की लत एक बार जिसे लग जाती है, फिर उसे चाहे जितना दुःख, क्लेश, मानसिक चिन्ता, भय, उद्व ेग, संकट आदि उठाना चैन नहीं पड़ता । इसीलिए चोरी को कुव्यसन कहा गया है जो एक बार सेवन करने पर छोड़ा नहीं जाता। जब तक वश चलता है, जब तक जीवन में कोई बड़ा आघात नहीं लगता या कोई प्रबल वैराग्योत्पादक प्रेरणा नहीं मिलती, तब तक वह चीज छोड़ी नहीं जाती । किसी भी पाप या बुराई का जब जीवन में बार-बार पुनरावर्तन होता जाता है, तब वह पाप भयंकर बन जाता है, वह व्यसन कुव्यसन बन जाता है; वह व्यसनी भी उस पाप को करने में पक्का बन जाता है । किसी के जरा-सा समझाने, यहाँ तक कि त्यागी - महात्माओं के बार-बार उपदेश देने पर भी वह उस भयंकर पाप या कुव्यसन को प्रायः नहीं छोड़ता । कदाचित् देखादेखी, शर्माशर्मी या आवेश में आकर छोड़ भी देता है, तब भी मौका पाकर अपने समान दुर्व्यसनी को देखकर फिर उसका मन उस कुव्यसन के लिए ढीला पड़ जाता है । इसी कारण चोरी को कुव्यसन भी कहा जाता है और भयंकर पाप भी । हेमू की शादी होने के बाद उसकी पत्नी राधा को का पता तब लगा, जब वह उसके लिए कभी मिठाई लेकर उसकी चोरी की आदत कभी नई साड़ी आता, १. योगशास्त्र २. भर्तृहरि नीतिशतक । जायते For Personal & Private Use Only १ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश ; १६३ और कभी सौन्दर्य प्रसाधन की वस्तुएँ लाता । राधा ने पूछा कि "ये सब वस्तुएँ कहाँ से आती हैं ?” पहले तो उसने आनाकानी करते हुए कहा - " तुझे क्या मतलब है इससे ? तुझे आम खाने हैं कि पेड़ गिनने ?” किन्तु वह स्वार्थी पत्नी नहीं थी, पति का जीवन कुमार्ग पर न चला जाए इस बात की वह बहुत सावधानी रखती थी, इसलिए उसने जोर देकर कहा - " मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ । मुझ से आप छिपाते " बात यह है कि मैं कमाता तो हूँ नहीं । ऐसे ही कहीं हाथ मेहनत और सिफ्त से हाथ लग जाता है, उसी से ये धन क्यों हैं ?" हेमू ने कहा आता हूँ । थोड़ी-सी सब चीजें ले आता हूँ ।" राधा को सुनकर बहुत दुःख हुआ, उसने कहा- "मुझे ये चीजें नहीं चाहिए । आप इस चोरी को बन्द करो । मेहनत मजदूरी से जो कुछ मिलता है, उसी में हम परिवार का गुजारा चला लेंगे ।" हेमू ने झुंझलाकर कहा - " और जो चाहो, बन्द कर सकता हूँ । चोरी मुझ से बन्द न होगी । परिवार का इतना खर्च थोड़ी-सी आमदनी से कैसे चल सकता है ? सबसे आसान और लाभदायक धंधा है यह !" राधा के बार-बार कहने पर भी हेमू ने चोरी नहीं छोड़ी। एक बार एक बड़ी चोरी के अपराध में हेमू पकड़ा गया । ६ महीने के कठोर कारावास की सजा मिली। इस बीच राधा हेमू से ३-४ बार मिल भी आई, उसने चोरी छोड़ने की बार-बार प्रार्थना भी की, लेकिन दुर्व्यसनी एवं हठी हेमू ने उसकी एक न मानी । कठोर कारावास से हेमू का शरीर सिर्फ हड्डियों का ढाँचा रह गया । जेल से छूटकर वह जीर्ण एवं जर्जर शरीर लिए घर पाया । कुछ दिन बाद एक दिन राधा ने हेमू से साफ-साफ कह दिया - "देखिये, अब आप चोरी का बिलकुल त्याग कर दीजिए । मुझे पड़ौसी लोगों के ताने सुन-सुनकर शर्मिन्दा होना पड़ता है । कहीं किसी के हृदय की आह लग गई तो हमारा सर्वनाश हो जाएगा । इसलिए मैं साफ कह देती हूँ, अगर आपने यह धन्धा नहीं छोड़ा तो मैं अपने बेटे - जीवन को लेकर अपने मैंके चली जाऊँगी।" इस पर भी हेमू अपनी जिद पर अड़ा रहा । उसने चोरी का त्याग करने से साफ राधा अपने बेटे को लेकर अपने मैके चलो गई । हेमू को रह-रहकर अपनी पत्नी और अपने प्रिय पुत्र की याद सताती थी, पर चोरी का कुव्यसन उसको चैन से नहीं बैठने देता था । फिर भी पत्नी - पुत्र के प्र ेम ने उसे प्रेरित किया उन्हें ने आने को । अतः वह अपनी ससुराल पहुँचा, अपने पुत्र की सौगन्ध खाकर उसने चोरी का त्याग कर दिया और बहुत कठिनाई से राधा को मनाकर घर लाया । इन्कार कर दिया । अतः घर आए कुछ ही दिन हुए थे कि हेमू के पुराने साथी उसे उकसाने लगे, चोरी के लिए । हेमू उनसे इन्कार करता रहा कि उसने कसम खा ली है । किन्तु एक दिन रात को उसके साथी ने कहा - " धनीराम के यहाँ आज लड़की की शादी है, For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ लगभग ७-८ हजार का गहना मिल जाएगा। आखिरी बाजी है। इसके बाद कहीं चोरी मत करना । अट्टागाँव यहाँ से सिर्फ ५ मील ही तो है । चलो, जल्दी।" पहले तो हेमू ने आनाकानी की, किन्तु उसकी पुरानी आदत और लालच दोनों ने उसके हृदय में हलचल मचा दी। सौगन्ध को भूलकर वह उस साथी के साथ चल दिया, बुकानीबंध वे दोनों धनीराम के घर में घुसे । हेमू ने धनीराम की छाती पर छुरा तानकर कहा--- "खबरदार, जरा भी हल्ला किया तो ! चुपचाप सारा गहना मेरे हवाले कर दे ।" । ___ धनीराम ने गिड़गिड़ाते हुए कहा- "भाई ! मैं गरीब आदमी हूँ। मेरे पास गहना कहाँ है ?" हेमू ने कहा --- "झूठ बोलता है, अभी इस छुरे से तेरा काम तमाम कर दूंगा।" - धनीराम ने घबड़ाते हुए कहा- "भाई ! वह तो लड़की का गहना है, मेरे लिए वह गोमांस के समान है।" इस प्रकार धनीराम ने बहुत आजीजी की, परन्तु हेमू ने कड़ककर कहा-"निकालकर लाता है या छुरा भौंक दूं।" धनीराम ने अन्दर के कमरे में रखी हुई सन्दूक में से गहनों का डिब्बा काँपते हाथों से हेमू के हाथ में सौंपा । दोनों चोर उस डिब्बे को लेकर नौ दो ग्यारह हो गए। रात को लगभग एक बजे गांव के निकट पहुँचे । वहीं एक चबूतरा बना हुआ था, उसके पास ही पेड़ के नीचे गड्ढा खोदकर डिब्बा गाड़ दिया। हेमू का साथी तो अपने घर पहुँच गया । परन्तु हेमू सीधा अपने खेत पर पहुँचा। वह खाट पर लेटा तो सही, पर आज न जाने उसे क्या हुआ, नींद नहीं आ रही थी। सहसा एक आदमी चिल्लाता हुआ आया-"हेमू भाई है क्या यहाँ पर ?" हेमू झटपट उठा और आवाज देकर उसे अपने पास बुलाया, पूछा -- "क्यों क्या बात है, बिरदू ?" बिरदू ने कहा - "जल्दी चलो, घर पर, तुम्हारे लड़के जीवन को पता नहीं क्या हुआ, अचानक उलटियाँ और टट्टियाँ होने लगीं, रुक ही नहीं रही है। वह निढाल एवं मरणासन्न होकर पड़ा है।" हेमू की आँखों के आगे अंधेरा छा गया । वह मन ही मन सोचने लगा-'हाय ! मैंने राधा के सामने बेटे की सौगन्ध खाकर चोरी न करने की प्रतिज्ञा ली थी, उसे भंग कर दी, हो न हो, धनीराम के संतप्त हृदय की आह लग गई है । प्रभो ! मुझे क्यों ऐसी कुबुद्धि सूझी? दो-ढाई हजार के लालच में अपने प्यारे लाल को खो बैठूगा ?' रास्ते भर उसकी आँखों के समक्ष धनीराम का गिड़गिड़ाता करुण चेहरा और रात की घटना चित्रपट की तरह आती रही । हेमू जैसे-तैसे घर पहुँचा । घर में राधा एवं पड़ौसिने बच्चे की चारपाई के आस-पास बैठी थीं । हेमू ने अपने पुत्र को देखा तो रुआंसा हो गया। मन ही मन प्रतिज्ञा की-"प्रभो ! मेरे बेटे जीवन की किसी तरह रक्षा करो। ज्यों ही यह थोड़ा स्वस्थ होगा, मैं तुरन्त धनीराम के गहने उसके सुपुर्द कर दूंगा। इसके बाद तो For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १६५ आजीवन चोरी का धन मेरे लिए गोमांस के समान होगा। बस, आज मेरा अपराध क्षमा कर दे, प्रभो !" निकट के गाँव से वैद्य को लाए। वैद्य ने दो-दो घंटे से दो दो पुड़िया दवा देने का कहा । आश्वासन दिया कि प्रभु ने चाहा तो तुम्हारा लड़का ठीक हो जाएगा। दो घंटे बाद मुझे इसकी हालत की खबर देना । दो घंटे बाद लड़का थोड़ा स्वस्थ हुआ, आँखे खोली हलचल करने लगा, तब सबके जी में जी आया । हेमू ने वैद्यजी को खबर दी । उन्होंने बदलकर दूसरी दवा दी। उसे आराम कराने का कहा और चल दिये । इधर हेमू भी तुरन्त घोड़े पर बैठ कर गाँव के किनारे चबूतरे के पास गड़ा हुआ गहनों का डिब्बा लेकर अट्टा गाँव धनीराम के यहाँ पहुँचा । हेमू को सहसा आए देख सब घबराए । उन्हें आश्वासन देते हुए हेमू ने कहा - "भाई धनीराम ! लो यह गहनों का डिब्बा ! यही मेरे लिए आफत का कारण बन गया। क्षमा करना, मैंने तुन्हें व्यर्थ ही डरायाधमकाया । लो यह पाँच रुपये मेरी ओर से तुम्हारी बेटी को दे देना।" धनीराम गद्गद हो गया । उसके अन्तर से आशीर्वाद फूट पड़े - "भगवान् तुम्हार। भला करें।" हेमू सन्तुष्ट होकर घर आया। उसका लड़का अब स्वस्थ था। उस दिन से हेमू ने फिर कभी चोरी न की। इस घटना से स्पष्ट है, चोरी का चस्का लग जाने के बाद जल्दी छूटता नहीं, अगर छूटता है, तो किसी बड़े आघात के कारण ही। इसी कारण चोरी सामान्य पाप नहीं; भयंकर पाप और कुव्यसन है । फिर जो चोरी करता है, असत्य तो उसके रग-रग में रम जाता है और हिंसा, वह तो उसकी सहचरी बन जाती है। जब चोर चोरी करने जाता है, उस समय घर में कोई उपस्थित होता है तो वह उसे मारता-पीटता, डराता-धमकाता है, यहाँ तक कि जान से भी मार डालता है। इसीलिए कहा है 'तस्करस्य कुतो धर्मः ?' --चोर का कौन-सा धर्म होता है ? मतलब यह है कि चोरी के साथ-साथ हिंसा, असत्य, परिग्रहवृत्ति, लोभ, कोध, कपट, अहंकार, निर्दयता आदि दुर्गुण-पाप, चोर में प्रविष्ट हो जाते हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में चोरों के पापी स्वाभाव का वर्णन करते हुए कहा है - 'परदव्वहरा नरा णिरण कंपा जिरवेक्खा' -पराये धन का हरण करने वाले मनुष्य--चोर, निर्दय एवं परलोक के प्रति निरपेक्ष-लापरवाह होते हैं। __ चोरी करने वाला जब दूसरे की चीज को उसकी इच्छा, अनुमति या सहमति के बिना उठाता है, तब उसकी नीयत दूसरे की वस्तु को अपने कब्जे या स्वामित्व में करने की होती है । एक जगह से उठाकर वस्तु को दूसरी जगह रखने के पीछे, चोर की भावना या नीयत अच्छी नहीं होती, उसकी भावना दूसरे की वस्तु को अपनी वस्तु बना लेने की होती है। इसीलिए ऐसा दुष्कृत्य चोरी, अनीति, पाप, अधर्म एवं अपराध कहलाता है। For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ; आनन्द प्रवचन ; भाग १२ फिर चोरी इसलिए भी पाप है कि इससे असामाजिकता पनपती है । चोरी से समाज में अशान्ति, अव्यवस्था, अविश्वास, असन्तोष, एवं अनीति बढ़ती है। चोर सामाजिकता एवं राष्ट्रीयता को ताक में रख देता है। वह समाज और राष्ट्र के प्रति कृतज्ञ नहीं रहता । चोरी व्यसन बन जाती है, तब वह परिवार, समाज और राष्ट्र सबको बेचैन, परेशान और बदनाम कर देती है। उस स्थिति में चोर अपनी कुलीनता, शालीनता, संस्कृति और धर्म सबको ताक में रख देता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में चोरी के ३० नाम बतलाये हैं। उनसे स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि चोरी पाप ही नहीं, पाप से भी बढ़कर पापों की जननी है। इनमें से कुछ नाम ये हैं चोरी, परहृत, क्रूरकृत, असंयम, परधनगृद्धि, लौल्य, अपहार, पापकर्मकरण, धनलोपन, अप्रत्यय, अवपीड़, कूटता, कुलमसि, कांक्षा, लालपन (लल्लो-चप्पो करना), दुःखकारक होने से व्यसन, इच्छा-मूर्छा, तृष्णा-गृद्धि, निकृति (माया) कर्म, अप्रत्यक्ष, मित्रद्रोह इत्यादि । __इसके अतिरिक्त अदत्तादान लोकदृष्टि एवं साधुवर्ग की दृष्टि में कितना घृणित है ? यह भी प्रश्नव्याकरणसूत्र में बताया गया है "अवत्तादारणं... अकित्तिकरणं, अणज्जं. साहुगरणिज पियजता-मित्तजणभेव-विप्पीतिकारणं, रागदोषबहुलं ...।" अदत्तादान अकोति-कारक, अनार्य कर्म, साधुजनों द्वारा निन्दनीय, प्रियजनों और मित्रों में भेद तथा अप्रीति पैदा करने वाला एवं राग-द्वेष से परिपूर्ण है। इन सब कारणों से चोरी भयंकर पाप और कुव्यसन है । चोरी का कुव्यसन कैसे जन्मता, कैसे बढ़ता ? चोरी महापाप है, किन्तु यह जब व्यसन का रूप ले लेती है, तब उसकी पक्की आदत या वृत्ति बन जाती है, वह उसके संस्कारों में घुल-मिल जाती है तब चोरी से उसे घृणा नहीं होती। क्योंकि अब वह उसे बुरी नहीं समझता। किन्तु चोरी का जन्म पहले-पहल छोटी-सी चोरी से होता है। छोटा-सा बच्चा दूसरों की सोहबत से या अपने माता-पिता को देखकर प्रारम्भ में अपने घर से पैसा चुराता है । जब उसकी इस आदत पर उसके घर वाले कोई रोक-टोक नहीं करते तो उसका साहस बढ़ जाता है । वह सोचता है कि माता शाबाशी देती है, या मेरे चौर्यकर्म से प्रसन्न होती है तो मुझे अवश्य ही इस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए । फलतः वह बड़ी चोरी करने लग जाता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ उसकी चोरी की आदत भी पक्की और साहसिक हो जाती है। कभी पकड़ा गया और जेल की हवा खानी पड़ी तो कुछ अर्से तक जेल में रहकर छूटने के बाद फिर चोरी करता है। इस प्रकार चोरी की कला में वह प्रवीण हो जाता है। यों चौर्य के विष का पौधा लगा तो था बचपन में, नादान अवस्था में, जबकि उसे धर्म, संस्कृति, राष्ट्रीयता या सामाजिकता का बोध नहीं था, For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १६७ लेकिन उस अबोध अवस्था में जब यह विष का पौधा अंकुरित होने लगा था, तभी उसके अभिभावकों द्वारा उखाड़ दिया जाता तो वह न पनपने पाता और एक दिन विशाल विषवृक्ष का रूप धारण न करता; किन्तु माता-पिता या अभिभावक लाड़प्यार में बच्चे को कुछ नहीं कहते या चोरी की बुराइयां नहीं समझाते, इसी कारण चौर्य-विषवृक्ष बढ़ता गया और एक दिन उसकी जड़े काफी मजबूत हो गईं। अब उसे उखाड़ना किसी के वश की बात न रही। क्योंकि चोरी की कला में दक्ष और परिपक्व हो जाने पर वह न तो साधु-सन्तों की बात सहसा मानता है, और न ही किसी हितैषी धर्मपरायण व्यक्ति की बात सुनता है। बचपन में जब अबोध बालक में चोरी के संस्कार का जन्म होता है, तब कोमलमति बालक को अपने हिताहित का, चोरी के दूरगामी दुष्परिणामों का भान नहीं होता । इस प्रकार चोरी का जन्म होता है और बढ़ते-बढ़ते पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है । वस्तुतः चोरी का प्रारम्भ भले ही छोटी-सी चोरी से होता हो, किन्तु उसका अन्त बड़ा भयंकर होता है । माधो अभी अबोध एवं गरीब बालक था । दूसरे बच्चों के हाथ में तिलपपड़ी देखकर वह भी अपनी माँ के समक्ष मचल पड़ा-“माँ, आज तो मुझे तिलपपड़ी खिला।" माँ बोली 'बेटा ! हम गरीब हैं, हमें पेटभर रोटी भी मुश्किल से नसीब होती है, तो तुझे तिलपपड़ी कहाँ से खिला हूँ।" किन्तु बालहठ तो बालहठ ही है । बालक गरीब-अमीरी को क्या समझे ? वह हठ करता ही रहा । माँ ने उसे बहुत समझाया, तब कहीं वह ऊपर से तो शान्त हो गया, लेकिन उसकी इच्छा नहीं मरी । तिलसंक्रान्ति पर्व निकट आ रहा था। लोगों के घरों में तिलपपड़ी बन रही थी। जब बालक माधो और बच्चों को तिलपपड़ी खाते देखता, तो उसकी इच्छा भी तीव्र हो जाती । वह टुकुर-टुकुर ताकता और मन में संतप्त होता । एक दिन माँ उसे आंगन में नहला रही थी, शरीर पौंछने के लिए वह तौलिया लेने भीतर गई : पास में ही तेली रहता था। वह भी किसी कार्यवश भीतर कुछ लेने गया। तभी माधो अपनी तीव्र इच्छा पूरी करने हेतु दौड़ा और तिल में लोट गया। गीले शरीर में तिल चिपक गये । बस, माधो का काम बन गया, वह दौड़कर घर में घुस गया और प्रसन्नतापूर्वक माँ से कहने लगा-'ले माँ, तिल ले माँ !" माँ सब कुछ समझ गई । वह बच्चे की बुद्धि पर मुग्ध हो गई। उसने बच्चे को एक कपड़े पर खड़ा किया और उसके शरीर पर चिपके हुए तिल पौंछ लिये। इस प्रकार माधो की तिलपपड़ी खाने की इच्छा पूर्ण हो गई। अब माधो की मनःस्थिति ऐसी हो गई कि जब भी वह तेली के यहां तिल सूखते हुए देखता तो माँ से कहता-“माँ, मुझे झटपट स्नान करा दे।" माँ भी समझ जाती । वह उसे स्नान कराने लग जाती और मौका देखकर माधो भी अपना कार्य For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ सिफ्त से कर लेना । अब तो ज्यों-ज्यों वह बड़ा होने लगा, उसने इस कला में दक्षता प्राप्त कर ली। अब वह बड़ी सफाई से लोगों का माल उड़ाने लगा। मनुष्य जिस ओर अपनी बुद्धि लगाता है उसी ओर उसकी बुद्धि दौड़ने लग जाती है । माधो जब चुराई हुई वस्तुएँ ला-लाकर माँ को सौंपता तब माँ बहुत खुश होती। वह कहती-"शाबाश बेटा! तू ठीक कर रही है। समाज ने तथा जगत ने हमारी परवाह नहीं की तो हम क्यों न लूटे । दुनिया में चोरी कहाँ नहीं हो रही है ? दुनिया में जिधर देखो, उधर चोर ही चोर हैं ? कौन चोर नहीं है ? ये साहूकार कहलाने वाले सब कहाँ दूध के धोये हैं ? व्यापारी, सुनार, दर्जी, राजकर्मचारी आदि सभी चोर हैं। अरे ! जो साधु भगवान् की आज्ञा के विपरीत चलता है, जानबूझकर नियमादि भंग करता है, वह भी एक तरह से चोर है। तू कोई बुरा कार्य नहीं कर रहा है।" । इस तरह माँ का प्रकट अनुमोदन पाकर माधो का साहस बढ़ गया । अब उसके चौर्य-कार्य में प्रतिदिन वृद्धि होने लगी। वह बहुमूल्य वस्तुओं की चोरी करने लगा। वह अब इतनी सफाई से चोरी करता था कि किसी को कुछ भी शंका नहीं होती थी। अब उसके रहन-सहन का स्तर ऊँचा होने लगा। वह अब बढ़िया कपड़े पहनता, अच्छी वस्तुएँ खरीदता। अपना निजी मकान भी उसने बना लिया। इससे लोगों को सन्देह होने लगा कि यह कोई व्यवसाय तो करता ही नहीं है फिर इतना धन कहाँ से आया ? सम्भव है, कुछ तस्कर व्यापार करता हो। लोगों ने आगे कुछ ध्यान नहीं दिया। राज्य में चोरी की बारदातें बढ़ने लगीं। आए दिन किसी न किसी की चोरी की शिकायत थाने में दर्ज होती, पर चोर पकड़ में नहीं आता था। लोगों का शक माधो पर हुआ, परन्तु सबूत के अभाव में कोई कुछ नहीं कर सका। अब लोग उस पर नजर रखने लगे । माधो और ज्यादा सावधान हो गया। व्यक्ति चाहे जितना सावधान रहे, कभी न कभी तो उसके पापों का भंडाफोड़ हो ही जाता है। एक बार माधो ने राजमहल में चोरी की। चोरी का माल उसके पास बरामद हो गया । वह गिरफ्तार कर लिया गया । पुष्ट प्रमाणों से उसका अपराध भी साबित हो गया। उसकी पिछली चोरियाँ भी प्रकट हो गई । जेल की यातनाओं को न सह सकने के कारण माधो ने अपने सब अपराध स्वीकार कर लिये। उसे इन सब अपराधों के बदले मृत्युदण्ड सुनाया गया। फांसी देने का हुक्म हुआ। जिस समय उसे फांसी पर लटकाने लिए ले जाया जा रहा था, उस समय बड़ी भारी भीड़ उसके पीछे चल रही थी। फांसी दी जा रही थी, तब भी काफी भीड़ खड़ी थी। भीड़ में खड़ी उसकी माँ भी आंसू बहा रही थी। माधो को फांसी पर चढ़ाने से पूर्व उसको अन्तिम इच्छा पूछी गई तो उसने कहा-"मुझे अपनी मां से मिलना है।" अतः उसकी माँ को उसके पास लाया गया । वह फाँसी के तख्ते के नीचे झुका । माँ समझी कि वह मुझे गुप्त धन के बारे में बतलायेगा। वह कुछ ऊँची होकर माधो के मुह के पास तक अपना कान ले गई । फलतः माधो ने उसका For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १६६ कान दाँतों से जोर से दबा दिया । माँ दर्द के मारे चीखने लगी, पर उसने कान नहीं छोड़ा । सिपाहियों ने जबर्दस्ती उसका मुंह हटाया, परन्तु कान माधो के मुंह में ही रह गया । माँ लहूलुहान होकर माधो को गालियाँ देने और कोसने लगी । लोग भी उसे भला-बुरा कहने लगे । उस समय माधो ने कान को थूककर जोर से कहा“भाइयो ! मेरे कार्य से आपको आश्चर्य हुआ होगा । मैं आज फाँसी पर चढ़ाया गया हूँ, इसका कारण मेरी माँ ही है ।" लोग उसकी बात को ध्यान से सुनने लगे । उसने तिल चुराने से लेकर बड़ी-बड़ी चोरियाँ करने तक की तथा माँ के प्रोत्साहन की बात अथ से इति तक सुना दी । लोग उसकी बात सुनकर आश्चर्य में डूब गए और उसकी माँ को धिक्कारने लगे । इस उदाहरण से स्पष्ट है कि चोरी का प्रारम्भ बचपन में छोटी-मोटी चोरी से होता है और एक दिन बढ़ते-बढ़ते नामी चोर की श्रेणी तक पहुँच जाता है । यही चोरी के जन्म और संवर्द्धन की कथा है । अगर चोरी को प्रारम्भ से ही माता-पिता या अभिभावकों द्वारा रोक दिया जाता है, या उसे प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है तो चोरी आगे नहीं बढ़ पाती । परन्तु कच्ची उम्र में पड़े हुए चोरी के संस्कार यौवन और प्रौढ़ अवस्था में परिपक्व और बद्धमूल हो जाते हैं । प्रस्तुत में किस प्रकार की चोरी त्याज्य ? यों तो चोरी के सूक्ष्म और स्थूल कई प्रकार शास्त्रों में वर्णित हैं । महाव्रती साधु के लिए चोरी ( अदत्तादान) मन-वचन-काया तीन योगों से और कृत-कारितअनुमोदित रूप (तीन करण ) से त्याज्य होती है । जबकि अणुव्रती श्रावक के दो करण, तीन योग से अर्थात् - मन-वचन काया से स्थूल चोरी करने-कराने का त्याग होता है । परन्तु यहाँ तो व्रतबद्ध श्रावक की अपेक्षा भी नीची भूमिका है, नैतिक जीवन की भूमिका है । चोरी अनीति है, वह नैतिक जीवन की भूमिका में सह्य नहीं होती । यहाँ उसी चोरी का त्याग अनिवार्य है, जिसे समाज में स्थूलदृष्टि वाले लोग चोरी कहते हैं, जिससे सरकारी कानून द्वारा व्यक्ति दण्डित होता है, जो कानून की दृष्टि में अपराध माना जाता है, जिसे लोग घृणित और निन्दित समझते हैं । जिस चोरी से व्यक्ति लोकनिन्दा का पात्र बनता है । ज्ञानार्णव में इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहा हैगुणा गौणत्वमायान्ति, याति विद्या विडम्बनाम् । चौर्येणाऽकीर्तयः पुंसा शिरस्याधत्ते पदम् ॥ १ — चोरी करने से मनुष्य के गुण गौण हो (दब) जाते हैं, उसकी विद्या निकम्मी हो जाती है, और अकीर्तियाँ उन पुरुषों के सिर पर अपना पैर जमा लेती हैं ।' सारांश यह है कि जिस चोरी से मनुष्य में निहित दया, क्षमा, सेवा, परोपकार आदि गुण ढक जाते हैं और उसकी शिक्षा-विद्यां सभी निन्द्य हो जाती है, सिर्फ १. ज्ञानारणव, पृ० १२६ For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ बदनामी ही बदनामी चारों ओर से सुनने को मिलती है, ऐसी चोरी यहाँ कुव्यसन मानी गई है और उसका त्याग नैतिक जीवन के लिए अनिवार्य बताया गया है। आवश्यकसूत्र' में मोटे तौर पर उस चोरी के पांच अंग बताये गये हैं, जिनसे उस चोरी की पहचान हो सकती है (१) खात खन कर, यानी दीवार फोड़कर या सेंध लगाकर (२) गांठ खोलकर (३) सन्दूक, तिजोरी या पेटी का ताला तोड़कर या ताला खोलकर (४) वस्तु के मालिक के जानते-अजानते, या उसकी गफलत (असावधानी) में गिरी हुई, पड़ी हुई या रखी हुई चीज को अपने अधिकार में करने की नीयत से उठाना। (५) मालिक की उपस्थिति में डाका डालकर, छीनकर, लूटकर या जेब काटकर विविध उपायों से पराई वस्तु ले लेना । आजकल चालाक लोगों ने चोरी के नये-नये ढंग अपना लिये हैं। कई लोग जेब काटने का धंधा करते हैं, उन्हें न तो किसी के मकान में सेंध लगाना है, न गांठ खोलना है, न डाका डालना है और न लूटना है, न गिरी हुई या पड़ी हुई चीज को उठाना है । वे ऐसी सिफ्त से जेब काटते हैं कि किसी को पता भी नहीं चलता और जो भी नोट वगैरह होते हैं, उन्हें लेकर चंपत हो जाते हैं। एक धनिक स्टेशन पर अभी ट्रेन से उतरा ही था कि उसके पीछे एक व्यक्ति लग गया। उसने उसकी पीठ पर ऐसी दवा डाल दी, जिससे खुजली चलने लगी । वह जब खुजलाने लगा, तब उस चोर ने उसके पास आकर कहा- सेठजी ! यह रहा नल। आप कपड़े यहाँ उतार दीजिए और नल पर शरीर को रगड़कर नहा लीजिए । उसने कोट, पैन्ट आदि खोला और एक ओर रखकर नहाने लगा । जिस समय वह साबुन लगाकर आँखें बन्द करके नहा रहा था। उसी समय उसने कोट, पैन्ट आदि की जेब में जो भी नकद या घड़ी, अंगूठी आदि थे, सब साफ कर लिए और वापस उन कपड़ों को ज्यों के त्यों रखकर नौ दो ग्यारह हो गया। नहाकर जब वह व्यक्ति कपड़े पहनने लगा और कोट आदि की जेबों में हाथ डाला तो सब चीजें नदारद ! ___ इसी प्रकार कई लोग बड़े शहरों में किसी के यहाँ नौकर के रूप में गृह-कार्य करने के लिए नियुक्त होते हैं, कुछ दिनों बाद जब विश्वास जम जाता है, तब एक दिन मौका देखकर अपने किसी सम्बन्धी को बुलाकर चोरी करा देते हैं। ___ दिल्ली की लगभग तीन दर्जन चोरियां करने वाली कुख्यात चोर और जेबकट सुन्दरी शीला की सन् १९७४ में अखबार में एक घटना प्रकाशित हुई थी। दक्षिण दिल्ली जिला के पुलिस अधीक्षक ने बताया कि शीला ऊँचे घरानों में पहले स्वयं १. अदिन्नादाणे पंचविहे पणत्ते, तंजहा–खत्त खणणं, गंठिभेयणं, जतुग्घाडणं, पडि यवत्युहरणं, ससामियवत्थूहरणं । For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १७१ नौकरानी के रूप में काम करती थी । और दो या तीन मास बाद किसी दिन अपने पति अरुण बंगाली को बुलाकर घर की सफाई कर देती थी । गत वर्ष शीला ने अपना नाम मीना और अपने पति का नाम रामकिशोर रखकर स्वयं ने सफदरजंग के के० सी० त्रिपाठी के यहाँ नौकरी कर ली । एक दिन त्रिपाठी को परिवार एक शादी में गया हुआ था, तो उसने घर की सफाई कर डाली । गत अप्रेल में उक्त दम्पती नेफ्रैंड्स कॉलोनी के रवीन्द्रसिंह साहनी के यहाँ नौकरी कर ली, अपना नाम राजेश्वरी रख लिया । एक दिन ५० हजार रुपये का सोना और हीरे लेकर चम्पत हो गई । आखिर एक दिन पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया । कई बार गृहिणियों को चकमा देकर उनके पति अमुक डिब्बा मँगवा रहे हैं, या अमुक चीज मँगवा रहे हैं, इस प्रकार का बहाना बनाकर वे गृहिणियों से कई चीजें लेकर फरार हो जाते हैं । आजकल बहुत-सी फिल्मों ने गजब ढहा दिया है, कई नवयुवक फिल्म देखकर उसी तरीके से चोरी करने लगते हैं, किन्तु नौसिखिये होने के कारण वे पकड़े जाते हैं । चाहे कैसा भी तरीका हो, ये सब कठोर दण्ड के पात्र चौर्यकर्म हैं । ये सब नैतिक पतन करने वाले तथा आध्यात्मिक विकास को रोकते हैं, इसलिए त्याज्य हैं । ये व्यसन इसलिए हैं कि इन चौर्य कर्मों का एक बार चस्का लगने पर वह वहीं नहीं रुकता, बार-बार उसकी आवृत्ति करता है । एक ही श्लोक में नारद संहिता ने इस त्याज्य चौर्य-कर्म का लक्षण दे दिया है उपायविविधैरेषां छल यित्वाऽपकर्षणम् । सुप्तमत्तप्रमत्तेभ्यः स्तेयमाहुर्मनीषिणः || अर्थात् - सोये हुए, शराब आदि पीकर नशे में चूर अथवा प्रमत्त -- असावधान व्यक्तियों से विविध छलपूर्ण उपायों द्वारा उनके धनादि साधनों का अपहरण करनेचुराने को मनीषीगण स्तेय या चौर्यकर्म कहते हैं । निष्कर्ष यह है कि किसी भी उपाय से छल, बल या झूठ - फरेब द्वारा पराये धन या दूसरों की वस्तु का हरण करना या चुरा लेना चोरी है । चोरी के अन्तरंग एवं बाह्य कारण अब प्रश्न यह है कि मनुष्य चोरी जैसे अनैतिक धन्धे में क्यों पड़ता है ? क्यों इतना खतरा उठाता है ? राजदण्ड, लोकनिन्दा, समाजदण्ड आदि अनेक खतरों को मोल लेकर तथा शारीरिक, मानसिक क्लेशों को गौण करके चोरी जैसा खतरनाक कुकृत्य क्यों अपनाता है ? उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् महावीर ने चोरी का सर्वप्रथम मूल और अन्तरंग कारण बताते हुए कहा है— For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ रूवे अत्ति य परिग्गहंमि, सत्तो व तत्तो न उवेइ तुट्ठि अतुट्टिदोरण दुही परस्प, लोभाविले आययइ अदत्तं ॥ १ - रूप के ग्रहण करने में अतृप्त, सुन्दर-सुन्दर वस्तुओं को आसक्तिपूर्वक ग्रहण करते हुए भी संतुष्ट नहीं है, बार-बार उनमें असक्त होकर भी उसे सन्तोष नहीं होता, वह लोभ का मारा तथा असन्तोष के वेग से व्याकुल पुरुष दूसरे की चोरी करता है । रूप एवं रूपवान् वस्तुओं की अतृप्ति, आसक्ति एवं लोभ के कारण ही क्यों, इसी प्रकार रस और रसवान ( स्वादिष्ट ) वस्तुओं, गन्ध और गन्धवान, शब्द और शब्दवान् ( कर्णप्रिय संगीत आदि), कोमल स्पर्श और स्पर्शवान् वस्तुओं के प्रति अतृप्ति, आसक्ति, असंतुष्टि एवं लोभ (लोलुपता) के कारण व्यक्ति चोरी करता है । यह बात इसी अध्ययन में आगे चलकर कही गई है । ૨ निष्कर्ष यह है कि रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन पाँचों विषयों तथा इन पाँचों विषयों से युक्त पदार्थों के प्रति आसक्ति, लोभ, अतृप्ति आदि के कारण मनुष्य चोरी जैसे अनैतिक कुकृत्य में प्रवृत्त होता है । इन पाँचों विषयों से युक्त नाना भोग्य पदार्थों को प्राप्त करने के लिये साधारण मनुष्य धन को अमोघ साधन मानता है, इसलिए धन बटोरने के लोभ से प्रेरित होकर भी वह चोरी जैसे अनैतिक कृत्य में प्रवृत्त होता है । इसीलिए चोरी का अन्तरंग कारण लोभ, आसक्ति, अतृप्ति आदि हैं । इनके बाह्य निमित्त कोई भी पदार्थ हो सकते हैं । चोरी के बाह्य कारणों में सर्वप्रथम कारण है- दरिद्रता या अभावों से ग्रस्त जिंदगी। जहाँ निर्धनता, गरीबी या दरिद्रता होती है, या अभावों से पीड़ित जिंदगी होती है, वहाँ अगर अज्ञान आकर मिल जाता है तो चोरी को खुला प्रश्रय मिल जाता है । किसी ने कहा है- 'चोरी की माँ गरीबी है और बाप है-अज्ञान ।' जो ज्ञानी व्यक्ति होता है वह चाहे जितना दरिद्रता, अभाव, गरीबी या निर्धनता से पीड़ित हो, कदापि चोरी जैसे अनैतिक पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता । किन्तु सभी व्यक्ति ज्ञानी नहीं होते, साधारण व्यक्ति स्थूल दृष्टि से, व्यावहारिक पहलू से सोचता है, वह दरिद्रता एवं अभाव का संकट उपस्थित होने पर लम्बे समय तक धैर्य नहीं रख पाता और चोरी जैसे धन्धे को अपना लेता है । दीर्घनिकाय में चोरी के इसी कारण की ओर संकेत किया गया है अधनानं धने अननुपदीयमाने, दालिद्दियं वेपुल्लमगमासि । बालिदिये वेपुल्लंगते, अदिन्नादानं वेपुल्लंगमासि ॥ १. उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३२, गा. २६ २. उत्तराध्ययन अध्ययन ३२ ३. दीघनिकाय ३/३/४ For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १७३ अर्थात् निर्धनों को धन न दिये जाने से दरिद्रता बहुत बढ़ गई और दरिद्रता के बहुत बढ़ जाने से चोरी बहुत बढ़ गई है। अगर सम्पन्न लोग अपना कर्त्तव्य समझकर निर्धनों को गले से लगा लें और उन्हें यथोचित सहयोग दें तो उन्हें चोरी करने का अवकाश ही न रहे । परन्तु धनवान लोग अपने धन के मद में रहते हैं, उन्हें क्या मतलब, समाज में कोई अनाथ, गरीब, असहाय, दरिद्र या अभावग्रस्त है। कौन किस प्रकार से जिन्दगी व्यतीत कर रहा है ? इसकी चिन्ता उन्हें नहीं होती ! वे प्रायः अपने ही ऐश-आराम में, सुखोपभोग में मस्त रहते हैं। परन्तु याद रखिए, आपकी सम्पन्नता इन्हीं गरीबों की बदौलत है। अगर आप लोग गरीबों को पुकार सुनेंगे तो गरीब लोग भी आपके सहायक होंगे, आपके धन की सुरक्षा में सहायक होंगे अन्यथा आपका पुण्य समाप्त हो जाने पर संचित धन भी किसी न किसी रूप में चला जाएगा। निर्धन, भूखे और विवश लोग धनिकों से सहायता न मिलने पर अगर चोरी कर बैठें कोई अस्वाभाविक नहीं । चोरी के बाह्य कारणों में दूसरा कारण है-बकारी और बेरोजगारी। देश में आज बहुत बेकारो फैली हुई है। कुछ तो भारत के लोग आलसी हैं। वे दो दिन का भोजन होगा तो आलस्य में पड़े रहेंगे, श्रम नहीं करेंगे। दूसरी बात यह देखी गई है कि भारतीय लोग श्रम के कार्य से जी चुराते हैं, वे चाहते हैं ऐसा कार्य, जिसमें केवल कुर्सी पर बैठे रहकर कलम चलानी पड़े। हाथ-पैर न हिलाने पड़े। इसीलिए थोड़े से पढ़लिखकर वे गाँव छोड़-छोड़कर शहरों में भाग रहे हैं। इस प्रकार शहरों के कलकारखानों में श्रम बहुत थोड़ा करते हैं, आए दिन हड़ताल, बंद, घेराव आदि के कारण उत्पादन ठप्प कर देते हैं । भला काम से इस प्रकार जी चुराकर भागने से बेकारो नहीं आएगी तो क्या होगा? वे बैठे-बैठे हुक्का गुड़गुड़ाते हैं, बीड़ियाँ फूंकते हैं या गप्पें लड़ाते हैं। इतने कार्य पड़े हैं कि कोई करना नहीं चाहता । कुछ तो बेकारी स्वाभाविक होती है, कुछ ये काम से जी चुराने वाले लोग बढ़ा देते हैं। बेरोजगारी की बात भी हमारे देश में स्वाभाविक नहीं हैं, मध्यमवर्गीय परिवार में एक कमाने वाला और दस खाने वाले होते हैं , स्त्रियाँ आजीविका के कार्य नहीं करतीं, न श्रम के कार्य में हाथ बँटाती हैं । पढ़ने वाले लड़के-लड़कियाँ भी प्रायः माता-पिता पर बोझ बने रहते हैं । छोटे बच्चों और अत्यन्त बूढ़ों को छोड़ दें तो भी घर में बहुत-से सदस्य सशक्त होते हुए बेकार बैठे रहते हैं। सबको रोजगार-धन्धा कहाँ से मिलता-बेकारी, भुखमरी और बेरोजगारी के कारण। कई लोग चोरी का अनैतिक धंधा अपना लेते हैं। आजकल तो सुनने में भी आ रहा है-पढ़े-लिखे शिक्षित लोग बेकारी के कारण चोरी के धंधे पर उतर आते हैं, वे श्रम से जो चुराकर ही इस प्रकार से चोरी का धंधा अपनाते हैं। जो लोग अपनी मेहनत मजदूरी में विश्वास रखते हैं, वे कदापि चोरी जैसी अनैतिक जीविका नहीं अपनाते । For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ मैंने समाचार पत्र में पढ़ा था कि एक कस्बे में एक बी.ए. पास नाई का लड़का अन्य सब बौद्धिक कार्य छोड़कर अपने पैतृक धंधे में लग गया। उससे किसी ने पूछा"तुम तो ग्रेजुएट हो, कहीं प्रोफेसर बन जाते या अन्य किसी सरकारी नौकरी में लग जाते, यह बाल काटने का धंधा क्यों अपनाया ?" उसने बड़े गर्व के साथ कहा- "मैं अपने पैतृक धंधे से पूर्ण सन्तुष्ट हूँ इसमें आय कम नहीं है। मुझे अपने बाप-दादों के धंधे में शर्म कैसी ? लज्जा तो उसे आनी चाहिए, जो चोरी करता हो, कार्य से जी चुराता हो।" भारत के अधिकांश बेकार एवं बेरोजगार लोग वे नहीं हैं जो स्वयं मजदूरी करते हैं पर वे हैं जो पढ़े-लिखे हैं मेहनत, मजदूरी नहीं करना चाहते; और अधिकतर ऐसे लोग ही चोरी का पेशा अपनाते हैं। कई ऐसे भी मिलेंगे जो अनपढ़ हैं, किन्तु शारीरिक श्रम से कतराते हैं, ऐसे लोग भी चोरी जैसा अनैतिक व्यवसाय अपना लेते हैं। चोरी का तीसरा बाह्य कारण है- फिजूलखर्ची । प्रायः देखा जाता है कि मध्यमवर्गीय परिवरों में खर्च तो अधिक है, आमदनी कम । विवाह आदि की सभी रूढ़ियाँ वे धनवानों, उच्चवर्गीय परिवारों के अनुसार करना चाहते हैं, परन्तु आय इतनी नहीं है कि वे नैतिक व्यवसाय से यह सब कर सकें। अतः वे सभ्य चोरी अपनाते हैं या अन्य अनैतिक धंधे, तिकड़मबाजी करके धन कमाने के उपाय आजमाते हैं। अपनी आय के अनुसार व्यय करने वाले को चोरी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। चोरी का चौथा कारण है आवश्यकताओं में वृद्धि । प्रायः देखा जाता है कि लोग अपना कृत्रिम स्टैंडर्ड बढ़ाने के लिए आवश्यकताएँ बहुत बढ़ा लेते हैं। परिवार के लोगों का जीवन भी उसी साँचे में ढालते हैं। अधिक खर्चीले जीवन के अभ्यस्त लोग उस खर्चे की पूर्ति नैतिक धंधे से नहीं कर पाते । तब वे चोरी जैसे अनैतिक कामों को अपनाते हैं। अगर पहले से ही अपनी आवश्यकताओं में कटौती की जाय तो उन्हें स्वाभाविक रूप से सात्विक जीवन जीने का आनन्द आजाए और चोरी आदि अनैतिक कृत्यों की ओर झांकना ही न पड़े। कौन-सी अनिवार्य आवश्यकता है, कौन सी कृत्रिम ? इस विषय में व्यक्ति को स्वयं ही निर्णय करना चाहिए। कुछ लोगों की सम्पत्ति जूए में स्वाहा हो जाती है या शराब, अफीम, भंग, गांजा, व्यभिचार, वेश्यागमन आदि दुर्व्यसनों में धन फंक देते हैं तब अभावग्रस्त होकर वे दूसरों के धन पर हाथ साफ करते रहते हैं। यह दुर्व्यसनों की आदत ही उनके जीवन में चोरी के दुर्दिन लाती है और आफत में डालती है। चोरी का पाँचवाँ बाह्य कारण है-यश कीति या प्रतिष्ठा की भूख । मनुष्य की यह दुर्बलता हे कि वह झूठी क्षणिक वाहवाही नामवरी या प्रसिद्धि के लिए हजारों रुपये प्रदर्शन, आडम्बर, गाजे-बाजे, दिखावे आदि में फूक देते हैं। उस समय वह अपने आय व्यय को नहीं देखता। इस प्रकार की मिथ्या प्रसिद्धि के चक्कर में पड़कर धन फूंक देता है तब वह उसकी पूर्ति चोरी आदि से करता है । For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १७५ बहुत-सो बार शासन को दुर्बलता के कारण भी चोर, डकैत बढ़ जाते हैं। सात्त्विक एवं पवित्र धन्धा वे नहीं करना चाहते, रिश्वत देकर या किसी तरह से अधिकारियों की जेब गर्म करके चोर लोग सरकार की आँखों में धूल झौंककर एक या दूसरे प्रकार से चोरी करते-कराते रहते हैं। चोरी का मुख्य दुष्परिणाम : शरीरनाश महर्षि गौतम ने चोरी के मुख्य दुष्परिणाम का उल्लेख किया है, कि चोरी से मनुष्य के शरीर का नाश हो जाता है। शरीर के नाश के पीछे क्या रहस्य है ? यह मैं आपको संक्षेप में बता देता हूँ-चोरी करने के फलस्वरूप या तो उसे मारा-पीटा जाता है, या अंगभंग कर दिया जाता है अथवा मृत्युदण्ड मिलता है तो शरीर का नाश या शरीर की हानि हो जाती है । आप सोचते होंगे, मनुष्य-शरीर का नाश हो गया तो क्या हो गया ? फिर मिल जाएगा। परन्तु भगवान् महावीर एवं भारत के ऋषि, मुनि, त्यागी, संत एक स्वर से पुकार-पुकारकर कहते हैं, मनुष्य, शरीर या मनुष्य-जन्म मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । अनन्त जन्मों की पुण्यराशि के बाद मानव-शरीर मिलता है, फिर किसी पापकर्म या अधर्म कृत्य के फलस्वरूप इस शरीर का नाश हो जाने पर पुनः मनुष्यजन्म मिलने की कोई गारंटी नहीं है। एक बार मनुष्य-शरीर का पापकर्मवश नाश होने पर नरक या तिर्यंच गति मिलती है, पता नहीं करोड़ों वर्षों तक पुनः मानव शरीर मिले या न मिले। मनुष्य-शरीर के सिवाय कोई भी शरीर ऐसा नहीं है, जिससे व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान किये जा सके, धर्माचरण किया जा सके, यहाँ तक कि श्रावकत्व एवं साधुत्व का पालन करके मुक्ति की आराधना-साधना की जा सके, और सर्व कर्मों के बन्धन से मुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुआ जा सके। इसलिए जिस मनुष्य-शरीर के द्वारा इतनी बड़ी उपलब्धि हो सकती थी, उसका नाश हो जाने पर कितना बड़ा नुकसान हुआ ? आप अनुमान लगाइए, जिस आत्मा पर सघन कर्मावरण थे, वह बहुत कुछ दूर हुए व मनुष्य-जन्म पाने तक का विकास हुआ। वह सारा कियाकराया, काता-पींजा मनुष्य-शरीर का नाश होते ही नष्ट हो जाता है। फिर नये सिरे से आत्मा का विकास करने के लिए न मालूम कितने जन्मों के बाद अवसर मिले या न भी मिले । क्या नरक, तिर्यंच में आत्म-विकास का अवसर मिल सकेगा? कदापि नहीं, और न स्वर्ग में ही आत्मविकास का सुअवसर या वातावरण मिल सकता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य-शरीर का विनाश एक दृष्टि से आत्मविकास का बहुत बड़ा ह्रास है। जिस मनुष्य-शरीर से पुण्य-वृद्धि के अनेक उपाय हो सकते थे, उस मनुष्य-शरीर के नाश से वे कदापि नहीं हो सकते, अन्य-शरीरों में। जिस मनुष्य-शरीर से पर कल्याण कर सकता था, उस मनुष्य-शरीर के अकाल में नष्ट होने से कल्याण तो दूर रहा, अपनी अधिकाधिक हानि और अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र की अधिकाधिक बदनामी, कुसंस्कारिता आदि ही फैलाकर मनुष्य जाता है । For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ ___ मान लो, मनुष्य-शरीर नष्ट नहीं हुआ, किन्तु अंगभंग हुआ, या घायल हो गया, अथवा बार-बार जेल आदि में यातनाएँ मिलीं, क्या ऐसी शारीरिक और मानसिक पीड़ा के समय मनुष्य-शरीर से वह धर्मध्यान कर सकता है ? धर्मध्यान तो क्या, वह प्रायः आर्तध्यान करेगा या रौद्रध्यान करेगा। रात-दिन चिन्ता, शोक, रुदन, विलाप, कराह, आर्तनाद आदि के रूप में आर्तध्यान करके वह नाना प्रकार के अशुभ कर्मों का बन्धन करेगा, तथा उस भयंकर यातना दिये जाने की प्रतिक्रियास्वरूप वह दूसरों को नीचा दिखाने, हत्या करने, पीड़ित करने या उसके घर में चोरी, डाका इत्यादि उपद्रव करा देने, ठगी करने, षड़यन्त्र रचने आदि के रूप में वह रौद्रध्यान भी कर सकता है। इन दोनों ही कुध्यानों से वह भयंकर दुष्कर्मबन्धन कर लेगा। चोरी से शरीरनाश किस-किस रूप में होता है ? इसकी जानकारी के लिए प्रश्नव्याकरणसूत्र साक्षी है। मैं संक्षेप में उसका भावार्थ समझाता हूँ-धन की टोह में चोर लोग समय-कुसमय का, गम्य-अगम्य स्थानों का कोई विचार नहीं करते, श्मशान आदि भयंकर एवं गन्दे स्थानों में घूमते हैं । सूने मकानों में, पर्वतगुफाओं में, सर्पादि के बिलों तथा हिंस्र जानवरों से युक्त घोर जंगलों में रहते हैं । सर्दी-गर्मी आदि का भयंकर कष्ट सहते हैं। भूख-प्यास आदि भी सहनी पड़ती हैं, कंदमूल, मुर्दे का मांस या अन्य जो भी खाने की चीज मिल जाए खा लेते हैं। न सोने का ठिकाना, न रहने का । रात-दिन पकड़े जाने का भय, चिन्ता, थकान, दौड़-धूप, रोग, परिवार का वियोग आदि कष्ट सहने पड़ते हैं। इन शारीरिक कष्टों के अतिरिक्त पकड़े जाने जाने पर उन्हें सारे नगर में बेइज्जती करके घुमाया जाता है, जेलों में भयंकर यातनाएँ दी जाती हैं, मृत्युदण्ड भी दिया जाता है। यह तो इहलौकिक शरीरनाश का वर्णन है। परलोक में नरक गति के भयंकर कष्टों का तो कहना ही क्या ? यहाँ के शरीर-नाश से अनन्तगुना शरीर-नाश वहाँ होता है । इस प्रकार के शरीर-नाश को देखते हुए कौन कह सकता है कि चोरी सुखशान्तिदायक लाभदायक धन्धा है ? सिर्फ थोड़े-से क्षणिक धन-लाभ के बदले में कितनी भयंकर हानियाँ उठानी पड़ती हैं ? यह प्रत्येक धर्मप्रेमी जानता है। श्री अमृतकाव्य संग्रह में चोरी के दुष्परिणामों का निरूपण करते हुए कहा हैचोर चित्त चिन्त चौक बसी हो रहत भीत, परधन देखि के हरण चित्त चहे है। माल धनी देखी होय कुपित पीटत ग्रही, मारे शस्त्र घाव वध-बंध दुःख लहे है। नप कोप तोप से आरोप के हरे है प्राण, __ मरि के सिधावे यमलोक दुःख सहे है। कहे अमीरिख दुःखदाता है व्यसन यातें, समझि विवेकी त्यागी ज्ञान उर गहे है । For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी में आसक्ति से शरीर-नाश : १७७ हुडिक चोर कहीं से मथुरा नगरी में आया और वहाँ गुप्त रूप से चोरी करने लगा। एक बार वह किसी व्यापारी के घर में सेंध लगाकर बहुत-सा सोना चुराकर भागने लगा। घर के लोग जाग गए। उन्होंने हल्ला मचाया। कोतवाल को खबर दी, उसने चारों ओर घूमकर हुडिक चोर को धन सहित पकड़ा। प्रातः काल होते ही सिपाहियों ने उसे मथुरानरेश शत्रुमर्दन के समक्ष पेश किया; उसके द्वारा की गई चोरी का वृत्तान्त सुनाया। राजा ने सब कुछ सुनकर फैसला दिया"यह सारे जगत् का शत्रु है, अतः इसे विडम्बित करके मार डालो।" कोतवाल ने नीम के पत्तों की माला, सकोरों की माला तथा जूतों की माला उसके गले में डालकर वध्य मण्डन से मंडित किया। सड़े हुए पुराने सूप का छत्र किया, चुराया हुआ धन उसके गले में बाँधा, काला मुंह करके उलटा मुंह करके गधे पर बिठाया। और ढोल बजाकर तमाम बाजारों और चौराहों पर यों घोषणा करते हुए घुमाया-"इस हडिक चोर ने बड़ी-बड़ी चोरियां की हैं। अतः इसे मृत्युदण्ड दिया गया है, इसलिये कोई चोरी न करना। राजा चोरी करने वाले के अपराधों को क्षमा नहीं करेंगे।" यों कहते हुए वे लाठी और मुक्कों से उसे मारते हुए वध-स्थल पर ले गये। कितना करुण दृश्य था ! फिर उसे शूली पर चढ़ाया गया। राजा की आज्ञा थी कि कोई उसे मदद न करे; जो मदद करेगा, उसे भी वही दण्ड दिया जाएगा। यह है-चोरी से शरीरनाश का ज्वलन्त उदाहरण ! श्री त्रिलोक काव्य संग्रह में चोरी के दारुण दुःखों का वर्णन करते हुए कहा है चोरी करे परद्रव्य को दुरातम, जाणत लोक मारे तस घाई। राज दण्डे, खोड़ा बेडी में देत है, सज्जन लाजत लोक भंडाई॥ पावे भवोभव सो दुःख आतम, सार करे नहीं सज्जन भाई। अन्य को धन अंगारा-सो लेखत, कहत तिलोक न हाथ लगाई ॥४७॥ चोरी से इससे भी भयंकर रूप से शरीरनाश कैसे होता है ? इसके लिए एक प्राचीन ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए तक्षशिला का प्रियंवद बढ़ाई सभी तरह से सुखी और सम्पन्न था। वह रथकार था। नगरी के कोट के पास ही उसका विशाल भवन था। एक बार उसके यहाँ बाहर के चार खू ख्वार चोर रात्रि-निवास के बहाने आ गये । प्रियंवद ने चोरों की आवभगत की, ठहराया। बात-चीत के सिलसिले में प्रियंवद के हृदय में धन-लोभ जागा और अशुभकर्मोदयवश वह उन चारों चोरों को नगरी के सबसे बड़े धनिक लाला करोड़ीमल के यहाँ चोरी करने ले गया। मकान की दीवार में सेंध लगाई, पर दीवारों में तख्ते जड़े हुए थे, उन्हें काटने का बीड़ा प्रियंवद बढ़ई ने उठाया। अशुभकर्मोदयवश उसने तख्ते करवत के दाँतों की तरह सूर्य किरणों की तरह गोल For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ काटे । फिर चोरों से आधा हिस्सा पाने का वादा लेकर उसने अपने दोनों पैर उस सेंध में डाले । इधर मकान में सेठ, उसके तीन पुत्र और दो नौकर जाग गये। उन्होंने मजबूत रस्ते का फंदा कसकर पकड़ रखा था। ज्योंही उसने पैर अन्दर डाले, उन लोगों ने उसके दोनों पैरों को रस्सी के फंदे से जकड़ लिया और खींचने लगे। उधर प्रियंवद के साथी चोर उसे बाहर खींचने लगे । दोनों ओर की रस्सा-कस्सी में वह लहूलुहान हो गया । सबेरा होते ही हम सब पकड़े जाएँगे यह सोच चोरों ने प्रियंवद की गर्दन काट ली और लेकर भागे। रास्ते में शंका से सिपाहियों ने उन्हें पकड़ लिया। राजा के समक्ष पेश किया । चोरों की विडम्बना करके राजा ने शूली पर चढ़ा दिया । यों भयंकर यातना पाते हुए वे चारों मरकर नरक में पहुँचे ।। चोरी से शरीरनाश से कितनी हानियां होती हैं, यह मैं पहले बता चुका हूँ। इसीलिए महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया है "चोरी पसत्तस्स सरीरनासो" चोरी में आसक्त होने वाले का शरीर नष्ट हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. परस्त्री-आसक्ति से सर्व-नाश प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! सप्तकुव्यसन के सन्दर्भ में आज मैं आपके समक्ष परस्त्रीगमन से जीवन के सर्वनाश के सम्बन्ध में प्रकाश डालूगा । महर्षि गौतम ने, नैतिक जीवन का अतिक्रमण करने से सर्वनाश का मार्ग खुल जाता है, इस बात की गंभीर चेतावनी दी है। गौतमकुलक का यह ७७ वाँ जीवनसूत्र है, जिसे इन शब्दों में यहाँ व्यक्त किया गया है "तहा परत्थीसु पसत्तयस्स, सम्वस्स नासो अहमागई य ॥" तथा जो व्यक्ति परस्त्रियों में आसक्त हो जाता है, उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है, साथ ही नीचगति भी प्राप्त होती है। परस्त्री में आसक्त होने के कारण सर्वप्रथम प्रश्न यह होता है कि परस्त्री में मनुष्य क्यों आसक्त होता है ? क्या कारण है कि अपनी सुन्दर, सुरूप, पतिभक्ता, सुशील, गृहिणी को छोड़कर या नैतिक-सामाजिक मूल्यों को तिलांजलि देकर मनुष्य किसी भी जाति-कुल की, संस्कारकुसंस्कार को देखे बिना परस्त्री में फँस जाता है। परस्त्री के प्रति आकर्षण होने के क्या-क्या कारण हैं ? परस्त्रीसेवन महापाप है, वह त्याज्य है, निषिद्ध है, अनार्य कर्म है, अपराध है; इतना कहने मात्र से आज कोई भी व्यभिचारी मानव या जिसे परस्त्रीसेवन का चस्का लग चुका है, नहीं मानता। इसलिए परस्त्रीसेवन के कारणों को ढूढ़कर, उनका जड़मूल से निवारण करने का प्रयत्न करना चाहिए। समाजशास्त्रियों की दृष्टि में परस्त्री में आसक्ति होने के मुख्य-मुख्य कारण (१) परस्त्रीगामियों का कुसंसर्ग (२) क्षणिक कामावेश, (३) अज्ञानता, (४) स्व-स्त्री में अत्यासक्ति, (५) स्व-स्त्री के व्यभिचारिणी होने पर, (६) आर्थिक विवशता, For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ (७) अश्लील साहित्य का प्रचार, (८) गन्दे नाटक-सिनेमा का वातावरण, (६) एकान्तवास, (१०) सहशिक्षण, सहभ्रमणादि, (११) धार्मिक अन्धविश्वास, (१२) मादक वस्तुओं का सेवन, (१३) बालविवाह, वृद्ध-विवाह और अनमेल विवाह, (१४) अत्यधिक धन, सुख-सुविधा और निरंकुशता । अब हम क्रमशः इन पर विचार करेंगे १. परस्त्रीगामियों का कुसंसर्ग-परस्त्री में आसक्ति का सर्वप्रथम कारण हैऐसे लोगों की टोली में बैठना, गपशप लड़ाना, उनका संसर्ग करना, जो परस्त्रीगामी हों, पराई स्त्रियों को हमेशा ताकते रहते हों और परस्त्री को फंसाने की कला में उस्ताद हों, जो एक प्रकार से परस्त्रियों की सप्लाई करने के एजेंट हों। बहुधा ऐसे चालाक व्यक्ति अपने वाग्जाल में फँसाकर कुआरे, विधुर, धनिक, वृद्ध, शौकीन एवं दुर्व्यसनी लोगों से पैसा झाड़ लेते हैं और ऐसी दुश्चरित्र या कुलीन स्त्रियों को ला-लाकर प्रस्तुत करते रहते हैं। इससे परस्त्रीगमन का बाजार गर्म हो जाता है। स्वार्थी यार-दोस्त, शराबी, गंजेड़ी-भंगेड़ी एवं दुराचारी लोगों के कुसंग से व्यक्ति को जब एक बार परस्त्रीगमन की आदत पड़ जाती है, या चस्का लग जाता है, तब उसमें वह झूठा आनन्द मनाता है, फिर तो प्रतिदिन ही वह नित-नई सुन्दरी की माँग करता है । इस प्रकार परस्त्रीसेवन मीठा जहर है, जो मनुष्य को इस दुर्व्यसन में फंसाकर मार डालता है। इसके अतिरिक्त कई बार कामी पुरुष और दुश्चरित्र कामिनियों के बार-बार के सम्पर्क से अथवा मेले-ठेलों में, कारखानों में स्त्री-पुरुषों के साथ-साथ काम करने से प्रायः कई पुरुष परस्त्रीगमन के कुचक्र में फंस जाते हैं। २. क्षणिक कामावेश-वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन करने के बाद कभी किसी सुन्दरी को देखकर क्षणिक कामावेश में आकर कई साधक व्यभिचार के मार्ग पर चढ़ जाते हैं। एक बार व्यभिचार का मार्ग खुल जाने पर फिर उसे नियंत्रण में करना बहुत कठिन होता है। एक ब्रह्मचारी साधक था । गाँव के बाहर कुटी बनाकर रहता था। आनेजाने वाले भक्तों को वह भजन सुनाता और उपदेश देता था। गाँव के लोगों का उस पर विश्वास हो गया था। यद्यपि वह ब्रह्मचर्य पालन करता था, किन्तु ब्रह्मचर्य को पचाने के लिए एक बृहद्ध्येय में अपने को संलग्न करने की आवश्यकता थी। वह ध्येय उसके सामने स्पष्ट नहीं था, और न उसने किसी आध्यात्मिक गुरु का For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री - आसक्ति से सर्वनाश : १८१ सत्सग करके सीखा ही था । फलतः ब्रह्मचर्य का स्थूल पालन तो वह करता था, परन्तु ब्रह्मचर्य उसके अन्तरंग में रचा- पचा नहीं था । वह अभी अपरिपक्व साधक था । गाँव की कई बहू बेटियाँ उसके पास आया-जाया करती थीं। एक दिन एक सुन्दर युवती को देखकर मोहकर्मवश उसके मन में कामवासना जागी । पहले तो उसने रोकने और दबाने की कोशिश की, परन्तु शुद्ध और परिपक्व विचार के बिना काम का वेग रुक न सका । युवती अकेली ही थी । बाबा उसे कुटिया में ले गया और अपनी कामवासना शान्त की । वर्षों की कमाई क्षणिक कामावेश में आकर समाप्त कर दी । अब तो बाबा को चस्का लग गया । आए दिन किसी न किसी युवती को पटाकर वह कुकर्म करता रहता था । एक दिन एक तेजस्वी युवती के समक्ष जब उसने अपने मन की दुर्भावना प्रकट की तो वह बाबा की नीयत बिगड़ी समझकर सावधान हो गई । ज्योंही बाबा उसे पकड़ने लगा, त्योंही झटका देकर उसने अपने को छुड़ा लिया और पास में ही पड़े डंडे से उसकी खूब पिटाई की। बाबा की अब आँखें खुलीं । "युवती तो तुरंत ही चली गई थी। काम का नशा भी उतर चुका था । परन्तु गाँव में उसके दुश्चरित्र का डंका पिट गया था । इस कारण उसी रात को बोरिया बिस्तर बाँधकर बाबा वहाँ से रफूचक्कर हो गया । इस प्रकार ब्रह्मचर्य को न पचाने के कारण कई अपरिपक्व ब्रह्मचर्यपालक भी क्षणिक कामावेश में आकर अपना सर्वस्व लुटा देते हैं । फिर वे सदा के लिए परस्त्रीगामी बन जाते हैं । उनका एक बार पतन होने के बाद संभलना कठिन हो जाता है । इसलिए क्षणिक कामावेश भी परस्त्रीसेवन का एक कारण है । ३. अज्ञानता - अज्ञानता भी परस्त्री - सेवन की चाट लगाने में बहुत बड़ा कारण है । भारतवर्ष में कई अज्ञानताएँ पनप रही हैं । उनके कारण बहुत से मिथ्याविश्वास भी चल रहे हैं । कई स्त्रियाँ प्रदरादि स्त्री रोगों को न समझकर उसकी वास्तविक चिकित्सा कराने के बजाय, मंत्र, तंत्र, डोरा, ताबीज, झाड़-फूँक आदि करने वाले धूर्तों के चक्कर में फँस जाती हैं । वे उन्हें भूत-प्रेत, डाइन आदि लग जाने का बहम डाल देते हैं और फिर उनके साथ मौका पाकर कुकर्म करते हैं । अन्धविश्वासवश बेचारी स्त्रियाँ अपना शरीर सौंप देती हैं । ऐसे सयानों एवं धूर्तों के चक्कर में पड़ जाती हैं और वे करते हैं । इस प्रकार की हजारों भोली स्त्रियाँ अज्ञानतावश लुटा देती हैं । दिल्ली में एक सिक्ख भूत-प्रेत निकालने का धंधा करता था । वह इसी बहाने कई स्त्रियों को बिगाड़ चुका था। इसी बहाने से अपने पति से असन्तुष्ट पुत्रलिप्सावश कई स्त्रियाँ उनके साथ काला मुँह अपना धन और शील For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ स्त्रियाँ अपना शील लुटाने को तैयार हो जाती थीं । आखिर एक बार उसका भंड। फूटा, तब जाकर लोग सावधान हुए । एक और प्रकार की अज्ञानता भी समाज में प्रचलित है। जिन स्त्रियों के पति बूढ़े, रोगी और गरीब होते हैं, अथवा जो व्यक्ति बुढ़ापे में जवान स्त्री से विवाह करते हैं, या अपनी सुशील स्त्री को किसी कारणवश मार-पीटकर भगा देते हैं, तो वे स्त्रियाँ बहुधा कुमार्ग में फँस जाती हैं । साधारण-सी चीजें - कंघे, सुर्मा, इत्र, केशतेल, वस्त्र या मिठाइयाँ ही उन्हें धर्मपथ से डिगा देती हैं । वास्तव में धर्म का उन्हें कुछ ज्ञान ही नहीं होता । प्रायः स्त्रियाँ स्वभाव से ही भीरु व कोमल होती हैं, एक बार गिर जाने के बाद वे उठ नहीं सकतीं । समाज में कुछ ऐसे रूढ़ रिवाज प्रचलित हैं कि इस प्रकार स्त्रियों की अज्ञानता का लाभ उठाकर उन्हें गिराने वाले पुरुष तो किसी बहाने से अलग हो जाते हैं, लेकिन बेचारी स्त्रियों का भंडाफोड़ हो जाता है तो उनका कहीं ठिकाना नहीं रहता । इस प्रकार उन भोली-भाली स्त्रियों की अज्ञानता के कारण परस्त्री - सेवन धड़ल्ले से चलता है । ४. स्वस्त्री में अत्यासक्ति - यह परस्त्रीगमन के द्वार खोलने का कारण है । बहुधा लोग यह मानते हैं कि अपनी पत्नी के साथ तो चाहे जब और चाहे जितनी बार सहवास करने की छूट है। इसी गलत विचारधारा के कारण अपनी स्त्री चाहे थकी हुई हो, रजस्वला हो, शोकमग्न हो, चिन्तित हो, प्रसव के कारण अत्यधिक दुर्बल हो, रोगिष्ठ हो, परन्तु उसका नरपिशाच पति जबरन उससे सहवास करता है । इस प्रकार के सहवास में अबला स्त्री पुरुष का सामना नहीं कर सकती, फलतः जब-तब पति महोदय अत्यासक्तिपूर्वक अपनी स्त्री पर बलात्कार करते रहते हैं । इससे स्त्री का स्वास्थ्य, सौन्दर्य, लालिमा और बल नष्ट हो जाता है । वह ऊपरा - ऊपरी संतान का बोझ पड़ जाने से असमय में ही बूढ़ी-सी हो उठती है । पति महोदय को अब वह नहीं सुहाती । उनके मन पर काम का भूत सवार होता है और वे इधरउधर किसी पड़ोसी की अथवा अन्य गरीब स्त्री, मजदूरिन, रसोईदारिन या काम करने वाली स्त्री को जरा-सा प्रलोभन देकर फँसा लेते हैं, इस तरह परस्त्रीगमन का द्वार खुल जाता है । ५. स्व- स्त्री के व्यभिचारिणी हो जाने पर - परस्त्रीगमन का पाँचवाँ कारण स्व- स्त्री का व्यभिचारिणी हो जाना है । कई बार चंचल मन की स्त्रियाँ किसी भी सुन्दर युवक को देखकर ललचा जाती हैं, उस समय कई पति उस स्त्री से विरक्त हो जाते हैं और वे दूसरी स्त्री के साथ फँस जाते हैं । विवाहिता स्त्रियों में बहुत कम स्त्रियाँ ऐसी होती हैं, जो पति के रहते अन्य पुरुष को चाहती हों या अन्य पुरुष के चक्कर में फँसती हों । परन्तु कई लम्पट लोग छल, बल और प्रलोभन से विवाहिता स्त्रियों को For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री-आसक्ति से सर्वनाश : १८३ भी अपने कामजाल में फंसा लेते हैं । उनके पतियों को जब पता लग जाता है, तब या तो वे उन्हें घर से निकाल देते हैं, या फिर वे उन्हें जान से मार डालते हैं, अथवा उनसे विरक्त हो जाते हैं, और उनसे विरक्त होकर दूसरी के जाल में फँस जाते हैं। ६. आर्थिक विवशता-आर्थिक विवशता भी परस्त्रीसेवन का मार्ग खुला कर देती है। परस्त्रीलम्पट पुरुष कई स्त्रियों की आर्थिक विवशता से लाभ उठाते हैं । गरीब, अभावग्रस्त, विपन्न एवं संकटग्रस्त महिला को कुछ आर्थिक सहायता देकर उन्हें अपने चंगुल में फँसा लेते हैं। धनवानों, सत्ताधीशों या विदेशियों को ऐसी खूबसूरत स्त्रियों को पैसा देकर अपने वश में करना बहुत आता है। कई बार वे किसी सुन्दर स्त्री को देखकर अपने यहाँ नौकर रख लेते हैं। फिर उसके साथ अनुचित सम्बन्ध रखकर गुप्त रूप से अनाचार-सेवन करते रहते हैं। इससे परस्त्रीसेवन को अनायास ही उत्तेजना मिलती रहती है ।। मैंने एक जगह पढ़ा था कि एक सेठ ने एक निर्धन किन्तु सुन्दर स्त्री को अपने यहाँ रसोई बनाने के काम पर रख लिया । सेठ की स्त्री को मरे अभी कुछ ही महीने हुए थे । घर में लड़के, बहू सब थे, परन्तु कामुक सेठ का मन वश में नहीं रहता था। इसलिए गुप्त रूप से उस नौकरानी के साथ व्यभिचारलोला करते थे। ____ कई बार गरीब आदमी आर्थिक तंगी के कारण अपनी स्त्री से इस प्रकार की वेश्यावृत्ति कराकर उससे अपनी आजीविका चलाता है। समाचारपत्र में पढ़ा थाजोधपुर रियासत का एक गरीब ब्राह्मण, अपनी निर्धनता के कारण अपनी स्त्री से स्वयं वेश्यावृत्ति कराता था । पुरुषों से बात पक्की करके कुट्टनखानों में या उस पुरुष के ही स्थान पर स्वयं अपनी स्त्री को ले जाता था। उसका धन्धा ही यह था । हाँ, तो आर्थिक विवशता भी कामीपुरुषों को परस्त्रीसेवन के लिए ललचाती है । आर्थिक विवशता के कारण व्यक्ति धर्म-कर्म सबको ताक में रख देता है। ७. अश्लील साहित्य का प्रचार-आजकल बाजारों में अश्लील घासलेटी साहित्य की बाढ़ आ गई है। गंदे उपन्यास, इश्क के गाने, फिल्मी गीत तथा अन्य अश्लील कामोत्तेजक कहानियाँ या साहित्य सहवास के लिए युवक से लेकर प्रौढ़ तक को, युवती से लेकर प्रौढ़ा तक को उकसाता है। खासकर विद्यार्थी युवकों, शिक्षितों और प्रौढ़ों को जवानी में अश्लील साहित्य का प्रचार दीमक का काम करता है। वे परस्त्रीसेवन के मार्ग पर एक बार पैर धरते हैं, फिर सदा के लिए भ्रष्ट हो जाते हैं । अतः अश्लील साहित्य का प्रचार भी परस्त्रीसेवन को उत्तेजित करता है। ८. गन्दे नाटक-सिनेमा का वातावरण-सिनेमा के पर्दे पर नर्तकियों तथा सिनेमा तारिकाओं के अश्लील नाच-गान तथा कामवासना भड़काने वाले कुकृत्य देख कर तथा अश्लील नाटक देखकर परस्त्री-सेवन की गंदी भावना की लहर प्रायः पुरुषों For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ के हृदय में चल पड़ती है, फिर वह हूक एक न एक दिन कार्य रूप में भी परिणत हो जाती है । सिनेमा में ललनाओं के फैशन और विलास के चलचित्र देखकर भी परस्त्री के प्रति कामुकता की तरंगें तीव्र गति से उठती हैं । ये तरंगें न जाने कितने युवक, प्रौढ़ों और युवतियों को भ्रष्ट करती हैं । अतः अश्लील नाटक सिनेमा भी परस्त्रीसेवन का सत्यानाशी द्वार खोल देते हैं । ६. एकान्तवास — एकान्त में स्त्री-पुरुष का मिलना, बैठना, बातचीत करना तथा एकान्तशयन एवं सम्पर्क करना भी परस्त्रीसेवन का कारण हो जाता है । कई बार स्त्रीपुरुष का एकान्त - मिलन या एकान्त-शयन भी स्त्री-पुरुष के शीलरक्षण के लिए अग्निपरीक्षा की घड़ी बन जाता है । अंग्रेजी साहित्य में एक कहावत है"Deeds of daikness are committed in the dark." " संसार में जितने भी अन्याय-अत्याचार या अनाचार के काम हैं, वे सब अन्धेरे में ही किये जाते हैं ।" अरिष्टनेमि के छोटे भाई रथनेमि जैसे योगी मुनिवर भी एकान्त गुफा मे राजीमती के अंगोपांग और रूपलावण्य को देखकर विचलित हो गये थे । यह तो ठीक था कि सती राजीमती पूर्णतया जागृत थी और उसने जब रथनेमि मुनि को संयम से डिगते देखा तो कुल का स्मरण कराया, अपनी प्रतिज्ञा की याद दिलाई । राजसभा में कालीदास से पूछा गया - " कविवर ! यह बताइए कि काम का जनक कौन है ? कालीदास घर आये । शास्त्रों को टटोला परन्तु कहीं भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला । कालीदास की पुत्री अपने पीहर आई हुई थी, पिता के लिए रसोई बनाने हेतु । कालीदास इधर अपने प्रश्न के उत्तर में उलझे हुए थे, उधर भोजन ठंडा हो रहा था । पुत्री के बहुत आवाज देने पर भी जब कालीदास न आए तो वह स्वयं पहुँची । चिन्तातुर देखकर पूछताछ करके जान लिया कि पिताजी प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने की चिन्ता में हैं । लड़की ने आश्वासन दिया कि मैं बता दूंगी। उस दिन शाम को उसने जो भोजन बनाया, उसमें कुछ उत्तेजक पदार्थ डाल दिये । नशा चढ़ा । कामोन्माद जागा । पुत्री को बुलाया, एकान्त और पिता-पुत्री के सिवाय कोई नहीं । पुत्री ने पहले से ही एक अलग कमरा ठीक कर लिया था, ताकि पिता कहीं कुछ करें तो तुरन्त भागकर वह दरवाजा बन्द कर सके । बस, कामोन्मादवश एकान्त देखकर कालीदास ने पुत्री का हाथ पकड़ा। तुरंत ही हाथ छुड़ाकर वह अपने नियत कमरे में चली गई और अन्दर से कुण्डी लगा ली । कालीदास खोलने के लिए बहुत चिल्लाए पर उसने न खोला। सुबह जब नशा उतरा, होश में आए तो अपने दुष्कृत्य एवं दुर्विचार पर बहुत पश्चात्ताप हुआ । पुत्री से क्षमायाचना करके आत्महत्या करने का उतारु हुए लेकिन बुद्धिमती पुत्री ने उन्हें समझा-बुझाकर रोका तथा For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री-आसक्ति से सर्वनाम : १८५ यह भी बताया कि आपके कल वाले प्रश्न 'काम का जनक कौन है ?' का उत्तर'एकान्तवास' है, इसे समझाने के लिए मैंने ही यह आयोजन किया था। कालीदास तुरन्त समझ गये कि काम का बाप-जनक एकान्तवास है। पिता-पुत्री या बहनभाई का भी एकान्तवास जब उचित नहीं है। तब अन्य स्त्री के पास पुरुष का एकान्तवास कितना अनिष्टकर हो सकता है ? यह इसी से समझा जा सकता है। स्त्री-पुरुष का एकान्तवास ही परस्त्रीसेवन के लिए खतरे की घंटी है। १०. सहशिक्षण, सहभ्रमणादि-आजकल हाईस्कूलों एवं कॉलेजों में प्रायः लड़के-लड़कियों का सहशिक्षण भी परस्त्रीगमन का एक कारण है। लड़के-लड़की अबोध अवस्था में साथ-साथ पढ़ते हैं और अपने-अपने मित्र भी बनाते हैं। प्रेमपत्र, सहभ्रमण, सैरसपाटा, सिनेमा, क्लब आदि में साथ-साथ गमन, इत्यादि कामवासनामूलक परस्त्री-सेवन के पाप का प्रारम्भ हो जाता है। लड़के कच्ची उम्र में ही अपनी मनोनीत प्रेमिका के साथ भ्रष्ट हो जाते हैं। साथ ही अपने जीवन का इस तरह सर्वनाश कर बैठते हैं । जब तक वे वयस्क होते हैं तब तक तो परस्त्री में आसक्त और उसके सेवन के अभ्यस्त हो जाते हैं । मानना होगा कि वर्तमान युग का सहशिक्षण परस्त्री-सेवन का जबर्दस्त कारण है। __ इसके अतिरिक्त मेलो-ठेलों, बाग-बगीचों, क्लबों तथा समय-असमय में होने वाले प्रीतिभोजों आदि में भी सावधानी न रखी जाए तो अज्ञात, अपरिचित नरनारियों का इनमें सहभ्रमण, नाच-रंग में साथ-साथ शरीक होना, खेल-कूद में भी स्त्री पुरुषों का साथ-साथ रहना तथा स्वच्छन्द होकर साथ-साथ घूमना भी परस्त्रीगमनरूप पाप को न्यौता दे सकता है । और प्रायः देखा जाता है कि ऐसे स्थलों में एक बार जाने के बाद स्त्री-पुरुषों को उसकी चाट लग जाती है फिर पतन होते क्या देर लगती है। विदेशों में स्त्री-पुरुषों के स्वच्छन्द सहभ्रमण आदि पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है, परन्तु भारत में इसे नैतिक दृष्टि से अनुचित माना जाता है। विवाह होने से पूर्व वाग्दत्त स्त्री-पुरुष का भी सहभ्रमण, प्रेम-पत्र-लेखन आदि नैतिक दृष्टि से अनुचित माने जाते हैं । पति-पत्नी हो जाने के बाद सहभ्रमण की छूट दी गई है। आज का सभ्य समाज सहशिक्षण, सहभ्रमण आदि के दुष्परिणामों को जानता-बूझता हुआ भी इसे गले का हार बनाये हुए है। कबीर जैसे महात्माओं ने आज से कई शताब्दी पूर्व इसके दुष्परिणाम स्पष्ट बताये हैं नारी की झाई परत, अन्धा होत भुजंग। कबिरा तिन की कौन गति, नित नारी के संग ।। १. "मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विवक्तासनो भवेत् ॥ बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥" -मनुस्मतिअ० २ For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ : मानन्द प्रवचन : भाग १२ ११. धार्मिक अन्धविश्वास-एक ओर हमारे यहाँ शिक्षा में दिन-दूनी रातचौगुनी प्रगति हो रही है, दूसरी ओर धार्मिक अन्धविश्वास अभी उतनी ही संख्या में खंभ ठोककर खड़े हैं । धर्म के नाम से सारे संसार में कई अन्धविश्वास प्रचलित हुए हैं ; जो कि नारी के शील की बलि पर प्रगतिशील थे। ईसा से पूर्व पाँचवीं सदी में बाबल के लोगों की देवी माईलिट्टा के मन्दिर में प्रत्येक स्त्री को अपने जीवन में एक बार आकर अपने आपको उस परदेशी पुरुष को समर्पण कर देना पड़ता था, जो देवी की गोद में सबसे पहले भेट स्वरूप पैसा फेंकता था। कालान्तर में यह धार्मिक अन्धविश्वास भी प्रचलित हो गया कि देवी-देवता के पुजारियों के साथ सम्भोग करने से स्त्री को बाँझ होने का भय नहीं रहता है । देव-पूजा से सम्भोग पवित्र हो जाता है, यह मान्यता भी थी। __ दक्षिण भारत के देव-मन्दिरों में माता-पिता जिन कन्याओं को बचपन से चढ़ा जाते, वे देवता के साथ विवाहित-देवदासियाँ मानी जाती थीं। वहीं वे बड़ी होती । इनका मुख्य काम देव-प्रतिमा के सम्मुख नाचना होता था। इनमें से कुछ सुन्दर स्त्रियाँ पुजारियों के व्यभिचार की सामग्री होतीं। शेष देवदर्शनार्थ आये हुए यात्रियों की कामवासना पूरो करके जीवन निर्वाह करतीं। उदयपुर के पास 'एकलिंगजी' का मन्दिर है, जिसके महन्त को महाराणा की वंश परम्परा से यह छूट दे दी गई थी कि मेवाड़ में जो भी पुरुष विवाह करके अपनी पत्नी लाए, उसकी पहली रात-सुहागरात-महन्तजी की सेवा में मनाई जाए। अर्थात् उसका पति सबसे पहली रात को महन्तजी के पास अपनी पत्नी को भेजे । महन्तजी उसका उपभोग कर लें, उसके बाद उसका पति उपभोग करे। महन्तजी द्वारा उस नववधू का उपभोग करने का अर्थ होता था - एकलिंग महादेव द्वारा उसका उपभोग। यह धार्मिक अन्धविश्वास कई वर्षों तक चला । अन्त में, किसी तेजस्वी नववधू ने इसका प्रबल विरोध किया, महाराणा के आगे पुकार की तब से यह परस्त्रीगमन के कुचक्र की कुप्रथा बन्द हुई। फिर भी वैष्णव सम्प्रदाय की विभिन्न गद्दियों के गुसाइयों को कई भावुक एवं अन्धविश्वासी महिलाएँ कृष्ण का प्रतिनिधि मानकर आज भी स्वयं गोपिका के रूप में देह समर्पण करतो हैं । गुप्त रूप से यह व्यभिचार-लीला कई जगह महन्तों, पण्डों, पुजारियों, मठाधीशों आदि में चलती है। बहुत-से लोग तीर्थस्थानों पर अपनी स्त्री को दान कर देते हैं। फिर कुछ रुपये देकर उसे मोल ले लेते हैं। इस मूर्खता के कारण कई बार पण्डे किसी सुन्दरी स्त्री को वापस देने से इन्कार कर देते हैं। स्त्री जाति के लिए यह कितनी अपमानजनक बात है ! जानबूझकर पण्डों द्वारा होने वाले परस्त्रीगमन के पाप को प्रोत्साहन देना, कितना भयंकर है। For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री - आसक्ति से सर्वनाश : १८७ वाममार्गी - शाक्त सम्प्रदाय में तो तंत्र ग्रन्थों में पंच मकार (मद्य, मीन, मांस, मुद्रा और मैथुन) के सेवन का उल्लेख है । साथ ही मातृयोनि को छोड़कर सभी स्त्रियों के साथ मैथुन - सेवन का उल्लेख तो सरासर परस्त्रीगमन का निर्देश करता है । तांत्रिक लोगों (वामपंथियों) की भैरवचक्र में प्रवेश करके सामूहिक मद्यपान एवं तत्पश्चात् मतवाले होकर सामूहिक व्यभिचार की जो रीति है, वह बड़ी विचित्र है । उससे तो ऐसा लगता है, मानो सारे जगत् का स्वच्छन्द व्यभिचार यहाँ आ गया है । और ऐसे ही नानाप्रकार के धार्मिक अन्धविश्वास परस्त्रीसेवन का खुल्लमखुल्ला समर्थन करते हैं । चीजों - शराब, भाँग, मादकता तथा आवेश - गम्य - अगम्य का विचार १२. मादक वस्तुओं का सेवन- नशीली एवं मादक गाँजा, अफीम आदि के सेवन से मनुष्य में कामोत्तेजना और ग्रस्तता हो जाती है जिसके कारण मनुष्य नशे में चूर होकर किये बिना चाहे जिस स्त्री के संगम कर बैठता है । उस समय नशे में स्वस्त्री - परस्त्री की, बहन-बेटी की कोई सुध नहीं रहती । नशे में चूर एवं मतवाले बात की कोई चिन्ता नहीं होती कि मैं कहाँ, किस स्त्री के पास क्या हूँ ? वह अंधाधुन्ध काम - प्रवृत्ति करता है । अतः मादक द्रव्यों का सेवन के पाप के लिए बहुत कुछ जिम्मेदार है । १३. बालविवाह, वृद्धविवाह, अनमेल विवाह - ये तीनों विवाह भी अनैतिक और आगे चलकर परस्त्रीगमन या परपुरुषगमन के पाप में नर-नारी को प्रवृत्त करने वाले हैं । बालविवाह की भयंकर प्रथा के कारण असमय में अपरिपक्व अध-खिले कोमल बच्चों का विवाह कर दिया जाता है । वे दाम्पत्य जीवन के विषय मानव को इस करने जा रहा सेवन भी परस्त्री जब में में कुछ नहीं समझते । दोनों ही अवयस्क होते हैं । तब तक बिगड़ चुके होते हैं । अज्ञानवश वे फिर चाहे जिस स्वच्छन्द रूप से रमण करते हैं अथवा लड़का कच्ची उम्र कारण, नासमझी से बार-बार स्त्री-संगम करने से नामर्द अथवा अकाल में ही काल कावलित हो जाता है, ऐसी स्थिति में उसकी पत्नी यौवनावस्था में कामवासना के वेग को सहन न कर सकने के कारण गुप्तरूप से परपुरुष के साथ व्यभिचार करती है । या नपुंसक हो जाता है, तक वे वयस्क होते हैं, स्त्री या पुरुष के साथ वीर्य नष्ट हो जाने के कई पुरुष नामर्द हो जाने से अपनी स्त्री की कामपिपासा शान्त न कर सकने के कारण किसी सशक्त युवक को अपनी स्त्री से संगम करने की अनुमति दे देते हैं। इसी प्रकार का दुष्परिणाम वृद्धविवाह के कारण होता है । बूढ़े पति के असमय में मर जाने के कारण बेचारी विधवा निराधार हो जाती है, समाज में और परिवार में उसका अपमान होता है । पड़ोसी तथा अन्य व्यभिचारी लोग उस पर आँख गड़ाए For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ : मानव प्रवचन : भाग १२ रहते हैं, फलतः आश्रयहीन विधवा किसी परपुरुष के साथ भ्रष्ट हो जाती है। गुप्तरूप से यह दुर्व्यसन चलता रहता है। अनमेल विवाह भी परस्त्रीगमन को बढ़ावा देता है। शिक्षा, संस्कार, उम्र, सहखान-पान, आचार-विचार, धन, शरीर आदि में से कई बातों में जिनका मेल नहीं होता, ऐसे लड़के-लड़कियों का गठबन्धन कर दिया जाता है, जिसके फलस्वरूप आगे चलकर स्त्री को या तो पुरुष छोड़ देता है, या मजबूर कर देता है, तब वह कहीं न कहीं किसी भी पुरुष का आश्रय ले लेती है। अतः यह भी परस्त्रीगमन के लिए प्रोत्साहक बनता है। एक जगह १२ वर्ष का लड़का और १८ वर्ष की लड़की की शादी कर दी गई। लड़का नासमझ था । बहू को यौवन का कामोन्माद चढ़ा। उसका श्वसुर ५० वर्ष की उम्र का था। उसने बहू को अपनी सेवा करने के बहाने भ्रष्ट कर दिया। एक बार चस्का लग जाने पर रोज-रोज यह दौर चलने लगा। श्वसुर से बहू को ३-४ गर्भ रह चुके । गाँव वालों को पता लगा तो उन्होंने उसका कुएँ पर चढ़ना बन्द कर दिया । अन्त में गांव छोड़कर वह व्यभिचारी महाशय शहर में आ बसा और पुत्रवधू के साथ अनाचार-सेवन करता रहा।। निष्कर्ष यह है कि बालविवाह, वृद्धविवाह या अनमेल विवाह ये तीनों ही आगे चलकर स्त्रियों को परपुरुषगामिनी बनने का और व्यभिचारी पुरुषों को परस्त्रीगमन का प्रोत्साहन देने वाले हैं। १४. अत्यधिक धन, सुख-सुविधा और निरंकुशता-इन तीनों का परस्पर गठजोड़ है । जहाँ अनाप-शनाप धन आता रहता है, वहां मनुष्य सुख-सुविधाएं बढ़ाने का प्रयत्न करता है, साथ ही उस पर कोई अंकुश, स्वयं का या दूसरे का, नहीं रहता है, तब स्वाभाविक है, कि उसकी इन्द्रियाँ विपरीतपथगामिनी हों । खासतौर से ऐसा धनाढ्य, निरंकुश व्यक्ति मद्य, मांस आदि दुर्व्यसनों के साथ-साथ परस्त्रीगमन के दुर्व्यसन का प्रायः शिकार हो जाता है । वह पैसे फेंककर प्रतिदिन एक से एक बढ़कर सुन्दरी को अपने दुर्व्यसन-पोषण के लिए बुलवाता है। अथवा जिस किसी सुन्दर स्त्री को देखता है उसे कुछ न कुछ प्रलोभन देकर अपने कामजाल में फंसा लेता है। उसके पति को या तो कुछ प्रलोभन देकर नौकरी पर रख लेता है, या लोभ देकर राजी कर लेता है, अथवा उसे समाप्त करा देता है। कई लोग किसी अन्य स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हैं, तब वे अपनी सुन्दर, सुशील पत्नी को किसी तरह समाप्त कर देते हैं, जाति एवं समाज वालों का मुंह पैसे के बल पर बन्द कर देते हैं। राजस्थान का एक डाक्टर मुलुन्द (बम्बई) में रहता था। उसका वहां की एक महाराष्ट्रीयन महिला से प्रेम हो गया। वह डॉक्टर के काम में सहायिका भी बन गई। उसने अपनी सुन्दर सुशील पत्नी को मामूली ज्वर होने पर जहर का इम्बेक्शन दे दिया। फलतः बेचारी मरणशरण हो गई । लोगों For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री-आसक्ति से सर्वनाश : १८६ ने डॉक्टर को बहुत भला-बुरा कहा, परन्तु पैसे के बल पर उसने लोगों का मुँह बन्द कर दिया। इस प्रकार की निरंकुशता भी परस्त्रीगमन के पाप का बढ़ावा देती है । ये और इस प्रकार के अन्य अनेक कारण हो सकते हैं, जो परस्त्री - सेवन या परस्त्री - आसक्ति के लिए जिम्मेदार हैं । मनुष्य इनसे बचता रहे और सावधान होकर धर्म-पुनीत पथ पर चले, तभी वह इस दुर्व्यसन से बच सकता है । परस्त्री में प्रासक्ति : सर्वनाश का कारण मैं अभी-अभी आपके समक्ष मानव के परस्त्रीसेवन के पाप में गिरने के १४ मुख्य कारणों का उल्लेख कर गया हूँ। इनमें से किसी भी कारण से परस्त्री में आसक्त होने वाला मनुष्य अपने लिए सर्वनाश के बीज बो देता है । सर्वनाश का अर्थ परस्त्री में आसक्त होकर सर्वनाश हो जाता है, इसका तात्पर्य इस प्रकार हैमनुष्य सब तरह से विनष्ट हो जाता है, किसी भी तरह से वह अपने आपको सुरक्षित नहीं कर पाता । जिस प्रकार किसी जहाज में जब सूराख हो जाते हैं तो उसमें पानी उन सूराखों से तेजी से अन्दर घुसने लगता है, उस समय जहाज सहित यात्रियों के सर्वनाश का समय उपस्थित हो जाता है - तन से, धन से, जन से, धर्म से तथा साधन आदि से भी । वह यात्री तन, मन, धन, जन, साधन और धर्म आदि सभी से वंचित हो जाता है । मन उसका कुण्ठित और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है, इसलिए जहाज डूबते समय स्वयं की मृत्यु का दृश्य उपस्थित होने से वह घबरा जाता है, मन को स्थिर रखकर किसी भी प्रकार का शुभ या कल्याणमय विचार नहीं कर पाता, प्राय: आर्तध्यान में ही उसकी मृत्यु होती है, वह मृत्यु का सहर्ष आलिंगन नहीं कर सकता, न ही मृत्यु को समाधिमरण बना सकता है, धर्मध्यान, त्याग - प्रत्याख्यान, अनशन (संथारा) करके । और धर्म का भी कोई विचार नहीं कर पाता, क्योंकि उस समय आर्तध्यान की ही प्रधानता रहती है । इसलिए व्रत, नियम, त्याग आदि उस अन्धकाराच्छन्न अवस्था में नहीं कर पाता । ठीक यही बात परस्त्रीसेवन के दुर्व्यसन से होने वाले सर्वनाश के सम्बन्ध में समझिए । परस्त्री - आसक्त मनुष्य के जीवन का बेड़ा जब डूबने को होता है, तब सर्वनाश आयुष्य-बल का, बुद्धिबल का, का दृश्य उपस्थित होता है । उसके तन का मन का, दश प्राण-बल का, यशकीर्ति का, पारिवारिक जीवन का, वंश का, आध्यात्मिक गुणों का तथा अन्य सभी धनादि साधनों का सर्वनाश हो जाता है । परस्त्री - आसक्त व्यक्ति के जीवन का बेड़ा उक्त साधनों सहित समूचा विनष्ट हो जाता है । कुछ भी नहीं बचता । For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ __ कई लोग कहते हैं, संसार में बहुत-से लोग ऐसे भी हैं, जो जिन्दगी भर व्यभिचारी रहे, फिर भी उनका बाल भी बांका न हुआ। जन्म भर धन-वैभव से सम्पन्न रहे । इसका समाधान यह है कि व्यक्ति केवल इस जन्म के ही संस्कार (कर्म) लेकर नहीं आता, वह अनन्त-अनन्त जन्मों के पुण्य-पापों की गठरी सिर पर ढोए हुए चलता है। अगर उसने पूर्वजन्म में या उससे कई जन्मों पहले कोई अच्छे (शुभ) कर्म-पुण्य किये हैं, तो उसका फल उसे इस जन्म में मिलना सम्भव है । अतः यह कहा जा सकता है, कि अमुक व्यक्ति ने इस जन्म में परस्त्रीसेवन किया, उसके फलस्वरूप शरीर आदि का किसी न किसी रूप में नाश होना शुरू हो गया है। साथ ही पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों की कमाई का फल भी उसे धनसम्पन्नता, सुख-सुविधा, साधनसम्पन्नता आदि के रूप में प्राप्त हुआ है। इसलिए परस्त्री में आसक्त मनुष्य धनादि सम्पन्न होते हुए भी तन-मन आदि से विनष्ट होता जाता है। यह बात शास्त्रों द्वारा ही नहीं अनुभव द्वारा सिद्ध है । देखिये प्रश्नव्याकरण मूत्र में कामान्धों की दुर्दशा का वर्णन-- __." इहलोए ताव नट्ठा, परलोए य नट्ठा महया मोहतिमिसंधयारे घोरे तसथावर-सुहमबादरेसु य पज्जतमपज्जत-साहारण सरीर-पत्तेय सरीरेसु ।" "इन्द्रियों के दुर्विषयभोगरूप मैथुनसेवनकर्ता (कामान्ध) इहलोक में तो नष्ट होते ही हैं, परलोक में भी वे नष्ट होते हैं, घोर महामोहतमिस्रा रूप अन्धकार में पैदा होते हैं, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण शरीर और प्रत्येकशरीर आदि विभिन्न योनियों में बार-बार परिभ्रमण करके मोहकर्म को बढ़ाते हैं। इसी सत्र में कामान्धों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं"... मेहुणसन्नापगिद्धा य मोहभरिया सत्थेहि हणंति एक्कमेक्कं विसयविसउदीरएस अवर परसहि हम्मंति कम"।" "मैथुनसंज्ञा में अत्यासक्त और मोह एवं अज्ञान में भरे हुए कामान्ध लोग शस्त्रों से एक दूसरे का वध कर डालते हैं, विष देकर मार डालते हैं। यदि परस्त्री हुई तो उसका पति उसके प्रेमी (जार) का घात कर डालता है।" योगशास्त्र में परस्त्रीगामी के सर्वनाश की संक्षिप्त झांकी दी गई है सर्वस्वहरणं बन्धं, शरीरावयवच्छिदाम् ।। मृतश्च नरकं घोरं, लभते पारवारिकः ।। २/९७ "परस्त्रीगामी पुरुष का यहाँ धन-जन-तन-मन आदि सर्वस्व नष्ट हो जाता है, जेल आदि का बन्धन तथा शरीर के अंगोपांगों का छेदन भी होता है और मरकर वह घोर नरक में जोता है।" अब हम परस्त्री-सेवन से सर्वनाश के प्रत्येक पहलू पर क्रमशः विचार करेंगे-- For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री- आसक्ति से सर्मनाश : १९१ शरीर का नाश - परस्त्री - सेवन से शरीर नाश तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है । जो कामान्ध पुरुष अपनी सुन्दर सुशील गृहिणी होने पर भी परस्त्रीलम्पट बनता है, उसे शाङ्गधर में कौए की उपमा दी गई है— परिपूर्णेऽपि तटाके काकः कुम्भोदकं पिबति । अनुकूलेऽपि कलत्रे नीचः परवार लम्पटो भवति ॥ - जल से पूरा भरा तालाब होने पर भी कौआ दूसरे के घड़ों में चोंच डुबोता है, इसी प्रकार मनोऽनुकूल गृहिणी होने पर भी नीच पुरुष परस्त्री में आसक्त होता है । इस प्रकार के परस्त्रीलम्पट के हाथ-पैर काट दिये जाते हैं, उसकी चमड़ी उधेड़ दी जाती है, उसके शरीर पर आग से तपाकर दाग दिया जाता है, और जले पर नमक छिड़का जाता है । उसके शरीर पर कोड़े बरसाये जाते हैं । उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं । कई बार उसका मुँह काला करके बुरी तरह पिटाई की जाती है । अथवा उसे जमीन में गाड़कर शिकारी कुत्तों से नुचवा दिया जाता है । बुरी मौत मारा जाता है । परस्त्रीलम्पट पुरुष के साथ कोई भी रियायत नहीं करता । अगर उस स्त्री का पति जान जाए तो उसका गला काटकर फेंक देता है अथवा अन्य तरह से उसकी दुर्गति करता है । परस्त्रीलम्पट को समाज या जाति के कोई भी व्यक्ति रंगे हाथों पकड़ लेते हैं तो जूतों या थप्पड़-मुक्कों से पीटकर उसका कचूमर निकाल देते हैं । यहाँ तक कि कामज्वर से पीड़ित होने पर उस परस्त्रीगामी का अंग-अंग गल-सड़ जाता है । उसे स्वतः ही दण्ड मिल जाता है । एक जैन साधु का बचपन का गृहस्थावस्था का सहपाठी एक लड़का था । जब वह लगभग २५ साल का हुआ तो कामज्वर से पीड़ित होकर एक स्त्री के प्रेम में पड़ गया । वैसे लड़का बड़ा रूपवान, बुद्धिशाली, होनहार व चरित्रवान था, किन्तु जब उसके बारे में सुन्दरी में आसक्त होने की बात सुनी तो सहसा विश्वास नहीं हुआ । मगर जब उसे उन्होंने आँखों से देखा तो उसके कृत्य पर बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने उस लड़के को अपनी लत छोड़ देने के लिए बहुत समझाया, मगर वह टस से मस न हुआ । कुछ समय बाद उक्त जैन साधु ने उस युवक को देखा, उसका रोम-रोम सड़ गया था । सारे शरीर में अगणित कीड़े पड़ गये थे । देखने वाले को भी घृणा होती थी । एक दिन वह इहलीला समाप्त करके चला गया । बम्बई की एक घटना अखबार में पढ़ी थी । एक रूपवती महिला अपनी कार में बैठकर कर कहीं जा रही थी । रास्ते में कार एक जगह रुकी तो एक हृष्टपुष्ट काले लूटे मुसलमान ने उसे देखा । सहसा लपककर वह मोटर पर चढ़ गया । उस महिला को सड़क पर गिराकर उसने वहीं उसके साथ बलात्कार किया। हजारों For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ लोग उस महिला को उससे छुड़ाने के लिए आ गए, मगर उसमें इतना पैशाचिक बल आ गया कि चारों ओर से पिटपिटकर वह लहूलुहान हो गया, पर जब तक उसकी इच्छा पूर्ण न हो गई तब तक उस स्त्री को नहीं छोड़ा । आखिर स्त्री से हटते ही उसने वहीं दम तोड़ दिया । यह था, परस्त्रीगामी कामान्ध का शरीर से, दस प्राणों से और आयुष्य - बल से सर्वनाश का ज्वलन्त उदाहरण ! सामाजिक दृष्टि से सर्वनाश - परस्त्री-सेवन सामाजिक दृष्टि से सर्वनाश का कारण है । सामाजिक जीवन में मनुष्य सम्मान के साथ जीना चाहता है, वह चाहता है, लोगों में मेरी प्रतिष्ठा हो, परन्तु परस्त्रीगामी अपनी कीर्ति, प्रतिष्ठा और यश को पहले से ही लुटा देता है । समाज में उसके साथ कोई बहन-बेटी का लेन-देन नहीं करना चाहता । कई बार बहन-बेटियाँ स्वयं उसके यहाँ आना-जाना बन्द कर देती हैं । वह बीमार हो, रोगग्रस्त हो, विपद्ग्रस्त हो अथवा किसी कारणवश चिन्तित हो तो भी प्रायः लोग उसकी सेवा, सहायता या उसके साथ सहानुभूति करना नहीं चाहते । प्रायः अपनी जाति, कुटुम्ब - कवीले या समाज से उसका सम्बन्ध कट-सा जाता है | वह अलग-थलग अकेला पड़ जाता है। वह विपन्न, दीन-हीन, मनमलिन-सा, तनछीन-सा बनकर जीता है । परस्त्रीगामी पुरुष की कई बार बहुत ही दुर्दशा होती है, जिस स्त्री को वह अपने जाल में फँसाना चाहता है, वही सच्चरित्र स्त्री उसे अच्छा सबक सिखा देती है । एक धर्मात्मा साहूकार की धर्मपत्नी अपने पीहर से ससुराल आती, तब मार्ग में एक दुकानदार उसे देखकर कभी खंखारता, कभी कंकड़ फेंकता, यों जब-तब वह छेड़खानी करता रहता था । और कोई रास्ता न होने से सेठानी को उसी रास्ते से अपने ससुराल के घर जाना पड़ता था । दूकानदार की अधमता पर उसे क्षोभ होता, पर अपनी इज्जत का खयाल करते हुए उसने युक्ति से दिन उसने अपने पति के सामने इसका जिक्र किया। पति आग-बबूला होकर उसे पीटने के लिए उतावला हो रहा था, किन्तु पत्नी ने गुपचुप प्रतिकार करने की योजना पति को समझा दी । ऐसा ही करने का तय हो गया । काम लेने की सोची । एक एक दिन जब वह आ रही थी तो दूकानदार ने छेड़छाड़ की । अतः उसने कहा - "आप क्यों रोजाना ऐसा करते हैं ? आज रात को नौ बजे आ जाइए । सेठजी तो रात को भोजन करने और सोने घर पर आते ही नहीं ।" यह सुनकर दूकानदार फूला न समाया । वह रात को नौ बजे वस्त्रादि से सजधजकर कुछ इत्र, तेल, फुलेल आदि प्रसाधन सामग्री भेंट देने को लेकर पहुँचा । द्वार खटखटाया। सेठानी ने द्वार खोलकर उसे अन्दर ले लिया । बिठाया, स्वागत किया । भोजन का आग्रह किया । पहले तो उसने आनाकानी की, लेकिन फिर स्वीकार किया । उधर सेठानी रसोईघर में For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री-आसक्ति से सर्वनाश : १९३ जाकर गर्म तवे पर पानी के छींटे देने लगी। कामुक दूकानदार अपने भाग्य को सराह रहा था, तभी सेठ ने द्वार खटखटाया। कामुक ने पूछा-"कौन है ?" सेठानी--"ये तो घर वाले सेठजी ही हैं।" सुनते ही उसका रोम-रोम काँप उठा । बोला-"तुम तो कहती थीं कि वे रात को नहीं आते। हाय ! मुझे कहीं छिपा । फिर द्वार खोलना।" सेठानी बोली-"मेरे घर में छिपाने जैसा कोई स्थान नहीं है। सिर्फ दो-तीन कमरे ही हैं।" कामुक-"कुछ भी कर । मुझे छिपने का कोई उपाय जल्दी बतला।" सेठानी-“एक उपाय है । मेरे यहाँ एक नौकरानी आटा पीसने के लिए प्रतिदिन आया करती है, उसकी पुरानी गन्दी घाघरी और ओढ़ना खूटी पर टंगा हुआ है । उसे पहनकर चक्की चलाने लग जाओ। इससे सेठ समझेंगे कि काम करने वाली बाई आटा पीस रही है।" ___ लाचार होकर दुकानदार ने अपने सूटबूट निकालकर नौकरानी के गंदे कपड़े पहन लिये । लंबा घूघट तानकर चक्की चलाने लगा। इधर सेठ गर्म हो गया। सेठानी ने द्वार खोला तो सेठ ने कहा--"आज तबियत ठीक नहीं है। सुबह कुछ खाया नहीं गया। अभी कुछ रुचि हुई तो चला आया।" सेठानी ने सेठ की रुचि के अनुसार मूंग की दाल और फुलके बनाये । इधर कामी अभ्यास न होते हुए भी विवश होकर चक्की चला रहा था। सेठ ने ज्यों ही रोटी का एक ग्रास लिया, गुस्से में आकर कहा-"कितनी किरकिर हैं। यह आटा किसने पीसा है ? गेहूँ के साथ कंकड़ भी पीस डाले हैं।" ___ सेठानी-“यह नई नौकरानी है । इसे कितनी ही बार कह दिया कि तू गेहूँ पीसने से पहले अच्छी तरह साफ कर लिया कर । परन्तु यह ध्यान ही नहीं देती।" सेठ खड़ा हो गया और जहाँ वह कामी चक्की चला रहा था, वहाँ जाकर नौकदार जूतों से तडातड़ पीटने लगा । सेठानी ने बीच में पड़कर न छुड़ाया होता तो वह उसका कचूमर ही निकाल देता । सेठ ने कहा-"अब मैं रोटी बिलकुल नहीं खाऊँगा । लाओ, थोड़ी-सी गर्म दाल ही पी लू।" यों एक घूट दाल की ली, उसमें भी धूल व कंकड़ मिश्रित होने की शिकायत की। गुस्से में आकर दाल की कटोरी फेंकते हुए कहा - "कुछ देखती ही नहीं हो ! क्या खाने का आनन्द है !" सेठानी बोली-“मैंने इस छोकरी से दाल साफ करने को कहा था, किन्तु इसने कुछ ध्यान ही नहीं दिया दिखता है ।" इतना सुनते ही सेठ फिर उबल पड़ा और उस कामी के पास पहुँचकर बोला- "आज इसको अक्ल ठिकाने लाकर ही छोड़गा।" यों कहकर उसे मुक्कों और लातों से इतना पीटा कि उसे भी छठी का दूध याद आ गया । कामी मन मसोसकर चुपचाप सहन करता रहा । सेठानी ने फिर सेठ को शान्त करके एक ओर भेजा और उस लम्पट से कहा-"घाघरी पहने ही यहाँ से जल्दी भाग जा, मैं द्वार खोल देती हूँ वरना सेठ फिर पीटेगा।" For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ ___ कामी पुरुष अधमरी हालत में अपना-सा मुह लेकर वहां से निकल भागा । घर पहुँचकर उसने बहुत उपचार कराया तब कुछ उठने-बैठने जैसा हुआ। फिर तो उसने मन ही मन प्रतिज्ञा करली कि अब कभी ऐसा बुरा काम नहीं करूंगा। जान बची, लाखों पाए। ___ यह है, परस्त्री में आसक्ति से होने वाली बर्बादी ! परस्त्री से होने वाली हानियों के सम्बन्ध में श्री अमृत काव्य संग्रह में ठीक ही कहा है परतिय संग किये, हारे कुल कान दाम, नाम धाम परम आचार दे विसार के । लोक में कुजस, नहीं करे परतीत कोऊ, प्रजापाल दंडे औ विटंबे भान पारि के ।। पातक है भारी, दुखकारी भवहारी नर, कुगति सिधावे व श होय परनारि के । यातें अमीरिख धारे. शियल विशुद्धचित्त तजो कुव्यसन हित साख उर धारि के ॥ भारतीय इतिहास कहता है, जितने भी परस्त्रीगामी हुए हैं, उनके तन, मन, धन, साधन, प्राण और धर्म की दुर्दशा हुई है। रावण कितना शक्तिशाली राजा था, किन्तु परस्त्री में आसक्ति ही उसको तथा उसके वंश को ले डूबी। शिवाजी का पुत्र सम्भाजी परस्त्रीगामी था। जोधपुर के वीर राठौड़ दुर्गादास रात को अपने मकान में बैठे-बैठे परमात्मा का भजन कर रहे थे कि एक युवती रक्षा के लिये चिल्लाती हुई भाग रही थी। सम्भाजी उसके पीछे हाथ में तलवार लिये आ रहा था। वीर दुर्गादास ने उसे शरण दी। कामान्ध सम्भाजी दुर्गादास से लड़ने को तैयार हो गया । उसने सम्भाजी से तलवार छीन ली। सम्भाजी के पास औरंगजेब का एक जासूस किबलेखाँ रहता था। उसने सम्भाजी को कैद करके औरंगजेब के समक्ष पेश किया । औरंगजेब ने सम्भाजी के हाथ पैर कटवाकर बुरी तरह मरवा डाला । यह सब परस्त्रीगमन का परिणाम था । परस्त्री से संसर्ग करने वालों का बुरी तरह सफाया परस्त्री एक ऐसी जहरीली बेल है, जिसका स्पर्श करने, कराने और अनुमोदन करने वाले सब लोगों का सब तरह से सफाया हो जाता है । किसी नगर के राजा की रानी बहुत चंचल स्वभाव की थी। राजा द्वारा तो वह अत्यन्त सम्मानित होती थी, मगर अन्तर् से सन्तुष्ट नहीं थी। किन्तु किसी परपुरुष का प्रवेश राजमहल में आसान नहीं था। ५ वर्ष से ऊपर की आयु का बालक भी अन्दर नहीं जा सकता था। मगर रानी अपनी कामुकवृत्ति से प्रेरित होकर इधर-उधर ताक-झांक करती रहती थी। For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री-आसक्ति से सर्वनाश : १६५ इसी नगर में एक सम्पन्न घर का युवक आवारा फिरता रहता था। घर में धन की कमी नहीं थी। ऊपर किसी का अंकुश न रहने के कारण वह परस्त्रीगामी हो गया था। बहुमूल्य वस्त्रों में सुसज्जित होकर, तेल-इत्र की सुगन्धि से महकता हुआ छल-छबीला बनकर चल रहा था। किसी भी सुन्दरी पर बुरी दृष्टि डालना उसका स्वभाव बन गया था। एक दिन वह इसी तरह राजमहल के पास से होकर नोचे-ऊपर दृष्टिपात करता हुआ जा रहा था। अचानक ही रानी का उस ओर देखना हुआ। दोनों की आँखें लड़ी। वह बार-बार उसी रास्ते से आवागमन करने लगा। रानी ने एक पत्र लिखा और फूलों के गुलदस्ते में गूथकर उस युवक को लक्ष्य करके नीचे गिरा दिया। युवक फूला न समाया । एकान्त में उसे तोड़कर देखा तो रानी का लिखा पत्र मिला । जिसमें लिखा था-"मैं आपको हृदय से चाहती हूँ। आपके बिना प्रतिक्षण व्याकुल हूँ। अतः किसी प्रकार आप राजमहल में पहुँचने की चेष्टा करें।" रानी का आमंत्रण पाकर वह हर्षित हुआ। सोचा-'राजमहल में तो कड़ा पहरा रहता है, कैसे प्रवेश हो ? राजमहल के आगे कई दरवाजों पर सिपाही तैनात रहते हैं, वे किसी को अन्दर नहीं जाने देते। फिर जहाँ रानी का आवास भवन है, उसका रास्ता जहाँ महाराज बैठते हैं, वहीं से होकर जाता है दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है।' कामी युवक ने काफी चेष्टाएँ की, पर राजमहल में प्रविष्ट होने में वह सफल न हो सका । आखिर उसने खोज की कि कौन स्त्री प्रतिदिन बाहर से राजमहल में रानी के पास जाती है । उसे पता चला कि फूलां मालिन प्रतिदिन फूलों से भरी टोकरी लेकर राजमहल में जाया करती है। युवक उससे मिला । फूलां मालिन जब पुष्पमालाएँ एवं गजरे गूथ रही थी, तब उस युवक ने कहा -"लाओ एक गजरा में भी गूथ हूँ।" उसने भीतर प्रेम-पत्र छिपाकर फूलों को ऐसे नए ढंग से सजाया कि देखने वालों को वह अलग ही दिखाई दे । फूलां मालिन फूलों की टोकरी लेकर राजमहल में आई । रानी के सामने उसने सब फूलों को रखा तो एक नये ही ढंग से गूथे हुए गजरे को देखकर रानी ने पूछा-"यह गजरा तो नये ही ढंग से गूथा हुआ है, किसके हाथ की कला है ?" फूलों ने सहजभाव से कह दिया बगीचे में घूमने आये हुए एक युवक ने यह गजरा गूथा है । महारानी तुरंत समझ गई और उस गजरे को एकान्त में ले जाकर तोड़ा तो प्रेमी का पत्र निकला । वह फूली न समाई। अपने कुल-गौरव का जरा भी ध्यान न करती हुई किसी प्रकार प्रेमी से मिलने को आतुर हो गई। मालिन को एकान्त में लेजाकर कहा-"फूलां ! मैं तुम्हें निहाल कर दूंगी। जो चाहोगी, तुम्हें दूंगी, पर उस युवक को किसी भी तरह से मेरे महल में ले आओ। यह काम For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ : आनन्द प्रवचन ; भाग १२ तुम्हारे सिवाय और किसी से नहीं हो सकता। अतः तुम्हें मेरा यह गुप्त काम बड़ी होशियारी से करना होगा। किसी को भी पता न लगे, इसका ध्यान तुम्हें रखना है।" फूलां रानी की अत्यन्त अनुचित, पीलधर्मविरुद्ध मांग को सुनकर चौंकी, कहने लगी-"महारानीजी ! आपके लिए यह काम शोभा नहीं देता। आप राजरानी नगरमाता-सदृश हैं । इस पर पुनः विचार करें।" महारानी-"मैं सब कुछ जानती हूँ। पर उस युवक के बिना रह नहीं सकती। उसे तो तुम्हें किसी तरह लाना होगा । ले यह रत्नावली हार ।" यों कहकर फूलां के गले में वह लाखों की कीमत का हार डाल दिया। फूलां बहुमूल्य हार पाकर प्रसन्न हुई और लोभवश इस अनुचित कार्य को करने के लिए तैयार हो गई। मालिन ने अपने घर पर आकर उस हार को रखा और बगीचे में प्रतीक्षारत युवक से मिली। एकान्त में बुलाकर रानी का सन्देश सुनाया । युवक अत्यन्त हर्षित हो उठा। फिर दोनों महल में प्रवेश का उपाय सोचने लगे। फूलां ने एक उपाय सुझाया--"युवक ! अगर तुम स्त्री का वेष पहन लो तो तुम्हें अपनी नव-परिणीता पुत्रवधू कहकर राजमहल में पहुँचा दूंगी, किसी को जरा भी शंका नहीं होगी । गुप्त रूप से काम भी बन जाएगा।" कामान्ध युवक ने शीघ्र ही यह उपाय स्वीकार कर लिया। युवक के शरीर पर नववधू का वेश सजाया गया। उसने ग्रामीण मोटा-सा ओढ़ना ओढ़ लिया। लम्बा-सा घूघट तान लिया, सिर पर फूलों की टोकरी रख ली और आगे-आगे फूलां और पीछे-पीछे वह नववधू चलने लगी। गढ़ के सारे दरवाजे कांपते हृदय से उसने पार कर दिये। मालिन के विश्वास पर सबने उसे जाने दिया। किन्तु राजा के दीवानखाने के आगे से होकर जब मालिन गुजरने लगी, तो राजा ने मालिन के साथ किसी अजनबी महिला को देखकर सहज भाव से पूछ लिया-"फूलां ! यह दूसरी औरत कौन है, तेरे साथ ?" फूलां बोली-“अन्नदाता ! मेरे बेटे की शादी हो गई। नई बहू घर में आ गई। इतने दिन तो यह अपने पीहर थी। आज ससुराल आई है, सोचा-इसे भी महारानीजी के दर्शन करवाकर राजघराने से परिचित करवा दूं क्योंकि मैं बूढ़ी होने आई हूँ ; आखिर तो इन्हीं लोगों को यह काम संभालना होगा। अतः इसे साथ ले आयी।" राजा-'अच्छा, ले जा।" घाटी तो पार हो गई। दोनों तत्काल सीढ़ियाँ पार करके ऊपर चली गई। तीव्र प्रतीक्षारत महारानी फूलां के साथ दूसरी स्त्री को देख कर समझ गई कि मालिन बड़ी बुद्धिमानी से मेरे प्रेमी को ले आयी है। फूलां ने सब दासियों को अलग हटाकर उस कामी युवक को रानी से मिला दिया। दोनों की चिर अभिलाषा पूर्ण हई। कामान्धजन धर्ममर्यादा को बिलकुल ताक में रख For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री-आसक्ति से सर्वनाश : १९७ अत्यन्त प्रसन्न महारानी ने मालिन को और भी बहुत कुछ देने का आश्वासन दिया। मालिन से रानी ने तीसरे-चौथे दिन छद्मवेष में इस कामी युवक को लेकर आने का अनुरोध किया । परन्तु एक कहावत है-- पाप छिपायां ना छिप, छिप तो मोटा भाग । दाबी दूबी ना रहे, रुई लपेटी आग ।। भावार्थ स्पष्ट है। रानी सोचती थी कि मेरी बात कोई जान ही नहीं पाएगा, परन्तु किसी न किसी दिन बात फूटे बिना नहीं रहती । बहू को लेकर जब फूला वापस लौट रही थी, सीढ़ियों से उतरते समय कामान्ध युवक का पर इतने जोर से पड़ा कि 'धम्म' सी आवाज हुई। दीवानखाने में बैठे महाराज ने जब यह जोरों की आहट सुनी तो सोचा-'इतनी जोर की आवाज पुरुष के पैर के सिवाय नहीं हो सकती। कुछ दाल में काला दिखता है। अतः राजा ने पूछा-'फूलां ! यह कौन है तेरे साथ ?" डरती सहमती-सी फूलां बोली- 'अन्नदाता ! मैंने पहले आप से निवेदन किया था कि यह मेरी पुत्रवधू है ।" यों कहकर आगे बढ़ने लगी। राजा के हृदय का बहम मिटा नहीं। उन्होंने आदेश दिया एक पहरेदार को-"जाओ, इस नई बहू का मुह देखकर आओ। न दिखलाए तो आगे मत जाने दो।" राजपुरुषों ने दौड़कर फूलां का रास्ता रोक लिया, कहा--"हमें नई बहू का मुंह देखना है।" मालिन ने आनाकानी की। राजपुरुष हटे नहीं । एक राजपुरुष ने पीछे से ऐसा झटका दिया कि चेहरा एकदम नंगा हो गया। देखा तो दाढ़ी-मूछ वाला मर्द । अब तो राजपुरुष दोनों को पकड़कर राजा के पास लाए। राजा के क्रोध का पार न रहा । विश्वसनीय स्थान पर इतना विश्वासघात ! महलों में जाकर राजा ने सारी स्थिति ज्ञात की। राजा को रानी की नीच प्रकृति पर बड़ा दुःख हुआ । न्यायप्रिय राजा ने दण्ड देने का आदेश देकर पाप करने वाली रानी, करवाने में सहायक फूलां मालिन दोनों को जीते-जो दीवार में चुनवा दिया । उस व्यभिचारी युवक का मुंह काला करके गधे पर चढ़ाकर ढोल पीटते हुए समूचे नगर में घुमाकर फिर दोनों हाथ और दोनों पैर कटवा दिये और नगर के बीच चौराहे पर एक गड्ढा खुदवाकर गले तक गड़वा दिया। केवल मुह खुला रखा, ताकि जनता को पता चले कि यह महादुराचारी, व्यभिचारी, राजरानीगामी पुरुष है, जो देखे, वह धिक्कारे, मुंह पर थूके और जूते से सात बार पीटे। पास ही एक गड्ढा और खुदवाया कि जो इसकी प्रशंसा करे, उसकी भी यही हालत की जाए। सारे शहर में तहलका मच गया। सभी ने उस युवक को धिक्कारा, उसके मुंह पर थूका और जूते मारे । एक भगेड़ी नशे में चूर था, वह उस युवक के पास आया, बोला For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ "शाबाश है, सूने गजब का काम किया । जीवन का सच्चा आनन्द लूट लिया, पहुंच गया राजमहल तक !" यह सुनना था कि राजपुरुषों ने उसे भी पकड़ा और हाथ-पर काटकर गड्ढे में गाड़ दिया। इस प्रकार एक से दो हो गए। निष्कर्ष यह है कि पाप करने वाली रानी, वह व्यभिचारी परस्त्रीगामी युवक, पाप करवाने वाली मालिन और अनुमोदन (प्रशंसा) करने वाला भंगेड़ी युवक सभी व्यभिचार के पापजन्य दण्ड को भागी हुए। परनारी पैनी छरी, तीन ठौर ते खाय । धन छीजे जोवन हरे, मुए नरक ले जाय ।। इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट है कि जो व्यक्ति परस्त्रीसेवन करता है, वह राजकीय दण्ड से बच नहीं सकता। यश-कीर्ति तो समाप्त ही हो जाती है उसकी । आर्थिक दृष्टि से परस्त्रीगामी बर्बाद हो जाता है। धर्म-कर्म की दृष्टि से तो वह पिछड़ ही जाता है। कोई भी धर्माचरण उसका तब तक सफल नहीं होता, जब तक वह परस्त्रीसेवन न छोड़े। उसकी आत्मा का विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। सत्य, अहिंसा, क्षमा, दया आदि अन्य गुण तो उससे कोसों दूर रहते हैं। परस्त्रीगामी का वंश या तो नष्ट हो जाता है, अगर उसके संतान होती भी है, तो वह भी प्रायः व्यभिचारी और कुसंस्कारी होती है। उसके पारिवारिक जीवन में परस्पर कलह, अशान्ति, कुसंस्कारों का सूत्रपात हो जाता है । परस्त्रीगामी का अपनी गृहिणी के साथ भी कोई मेल नहीं होता है। वह अपनी पत्नी के प्रति शंकाशील, अविश्वासी रहता है, पत्नी का तो अपने कामान्ध पति पर से विश्वास उठ ही जाता है। इस तरह परस्त्रीगामी का घर भी नरकागार बन जाता है। श्री तिलोक काव्य संग्रह में स्पष्ट कहा है कुमति की आगर, दुःख की सागर, गुणवन काटन फर्शी समानी। विष की बेलड़ी, सेलड़ी दाहक, तेज पराक्रम पीलण घाणी ।। है परनारी महादुःखकारक, खांडे की धार से तीक्षण जानी । छांडिये संग अनंग को जीत ले, केत 'तिलोक' धारो गुरुवाणी ।।४८।। भावार्थ स्पष्ट है। बन्धुओ ! परस्त्री-संग सर्वथा महाविनाश को न्यौता देने वाला है। इसीलिए महर्षि गौतम ने अपने अनुभवयुक्त जीवनसूत्र में बताया है - For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री-आसक्ति से सर्वनाश : १२६ 'तहा परस्थोसु पपत्तयस्स । सध्वस्स नासो अहमा गई य॥ परस्त्री के राग में फँसे पुरुष का सब कुछ नाश हो जाता है और परलोक में अधम गति भी प्राप्त होती है। आप भी गौतमकुलक के इस जीवनसूत्र पर मनन-चिन्तन करके परस्त्रीसंग को महाविनाशकारक समझकर सर्वथा छोड़ें। इसी में आपका, परिवार का, समाज का और राष्ट्र का -सभी का कल्याण है। For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : दरिद्र के लिए दान दुष्कर धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष जीवन की चार दुष्कर वस्तुओं में से प्रथम दुष्कर वस्तु पर प्रकाश डालूगा । महर्षि गौतम ने चार दुष्कर वस्तुओं में से सर्वप्रथम दुष्कर वस्तु बताई है -दरिद्र के लिए दान देना। गौतमकुलक का यह ७८वाँ जीवनसूत्र है; जिसका शब्दात्मक रूप इस प्रकार है . दाणं दरिहस्स..... सुदुक्करं -दरिद्र व्यक्ति के लिए दान देना अतिदुष्कर है । दरिद्र कौन ? किन वस्तुओं के अभाव में ? दरिद्र के लिए दान क्यों दुष्कर है ? इन प्रश्नों पर चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करू गा, जिससे आप इस जीवनसूत्र का हार्द समझ सकें। वास्तविक दरिद्र कौन ? किन वस्तुओं के अभाव में ? आज दरिद्र किसे कहा जाए ? यही एक समस्या है। कई लोग धन से दरिद्र होते हैं, कई मन से और कई बुद्धि से । धन के अभाव में जो दरिद्र होते हैं, उन्हें सर्वसाधारण दरिद्र कहते हैं । धन का अभाव मनुष्य को दीन-हीन बना देता है। परन्तु विचारकों का कहना है कि जो व्यक्ति धनाभाव से ग्रस्त तो हो, परन्तु जो मन से उदार है, बुद्धि से उदार है वह व्यक्ति धन का अभाव होते हुए भी वास्तव में दरिद्र नहीं है । साधुओं के पास धन का बिलकुल अभाव होता है, तीर्थंकर तक भी अकिंचन और अपरिग्रही होते हैं, उनके पास भौतिक धन का एक अंश भी नहीं होता, परन्तु धन का अभाव होते हुए भी वे मन, बुद्धि और वाणी से उदार होते हैं, वे कथमपि दरिद्र नहीं होते। वे अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, जीवनदाता, बोधिदाता, धर्मदाता आदि होते हैं। वे अपनी ओर से सर्वस्व लुटाते हैं, जो भी जिज्ञासु याचक उनके पास जाता है, वह कुछ न कुछ पाता है। उन्हें सांसारिक प्राणियों को इस प्रकार का दान देकर आत्मसन्तोष होता है, आत्मतृप्ति होती है, १. 'अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाण जीवदयाणं बोहिदयाणं धम्मदयाणं ... ... .." ।' -शकस्तव (नमोत्थुणं) पाठ, आवश्यक सूत्र । For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्र के लिए दान वुडकर : २०१ वे अपने आपको कभी दीन-हीन नहीं समझते । अनन्तशक्तियों के धनी, अनन्तज्ञानदर्शन और सुख की समृद्धि से सम्पन्न महापुरुष भला कभी अपने आपको दीन-दरिद्र समझ सकते हैं ? मैंने आपको अटपटी बात कह दी। आप कहेंगे, फिर दरिद्र किसे कहेंगे ? लोक व्यवहार में तो दरिद्र उसे ही कहते हैं, जिसके पास धन न हो, किन्तु शास्त्रीय दृष्टि से दरिद्र उसे कहते हैं, जिसके पास धन भी हो, अन्य साधन भी हों देने के लिए, लेकिन उसकी देने की भावना न हो, कृपण बनकर वह न किसी को देता है, न स्वयं उपभोग करता है । दरिद्र वस्तुतः वही है, जो अपने पास कुछ होते हुए भी देने की भावना न रखता हो । साधनों का अभाव : दान देने में बाधक नहीं यह सत्य है कि जो मन का और बुद्धि का दरिद्र है, उसे अपने पास कुछ होते हुए भी दूसरों को देगा -- आवश्यकता हो उसे देकर उसके अभाव की पूर्ति करना, अखरता है । वह सोचता है, इतना धन कम हो जाएगा, अमुक वस्तु देने से कम हो जाएगी अथवा वह सोचने लगता है - मैं अकेला किस-किसको दूंगा ? अभावग्रस्त तो बहुत हैं, मैं तो एक ही हूँ । एक विचारक ने इसी शंका को उठाकर उसका सुन्दर समाधान प्रस्तुत किया है एकोऽयं पृथिवीपतिः क्षितितले लक्षाधिका भिक्षु काः । कि कस्मै वितरिष्यतीति किमहो एतद् वृथा चिन्त्यते ॥ आस्ते किं प्रतियाचकं सुरतरुः, प्रत्यम्बुजं कि रविः । कि वाऽस्ति प्रतिचातक प्रतिलतागुल्मञ्च धाराधरः ॥ अर्थात् – 'अहो ! भूतल पर यह राजा तो एक ही है, लाख से अधिक भिक्ष ुक - याचक हैं, यह अकेला किस-किस को क्या देगा ? इस प्रकार की चिन्ता करना व्यर्थ है । क्या प्रत्येक याचक के लिए एक-एक कल्पवृक्ष है ? या प्रत्येक कमल को विकसित करने के लिए एक-एक सूर्य है अथवा प्रत्येक पपीहे के लिए या प्रत्येक लता और गुल्म के लिए एक-एक मेघ है ? ऐसा तो हजारों-लाखों को आवश्यकता पूर्ति करते हैं ।' नहीं है । ये तो एक-एक ही परन्तु जो मन और बुद्धि का दरिद्र नहीं है, वह सोचता है - 'मनुष्य अगर थोड़ा-सा शारीरिक और आर्थिक कष्ट उठाकर भी दूसरों का कष्ट दूर करे तो उसे एक प्रकार का अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होता है । दूसरों को खिलाकर खाने में, अथवा भूखे रह जाने में भी आत्मतृप्ति का अनुभव होता है । इसके विपरीत, दूसरों को भूखे देखकर भी स्वयं अपना पेट भर लेने में आत्मग्लानि होती है । दूसरों को सुखी करने से मनुष्य को जो कृतकृत्यता की स्वयं अनुभूति होती है, वह अन्य उपाय से दुर्लभ है ।' For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२: आनन्द प्रवचन : भाग १२ जो बुद्धि से दरिद्र नहीं है, वह यही सोचता है-'मैंने समाज से बहुत कुछ लिया है, अन्न-वस्त्र के लिए, रहन-सहन और सुसंस्कार के लिए, समाज से भाषा, धर्म और संस्कृति ली; समाज में प्रचलित कार्यों और व्यवहारों का ज्ञान प्राप्त किया, समाज से विधाएँ, कलाएँ, ज्ञान-विज्ञान आदि अजित किए, जीवन-निर्माण भी मेरा समाज की सुन्दर व्यवस्था एवं रचना से हुआ है, मेरा जीवन अनेक व्यक्तियों के सम्मिलित सहयोग से बना है, इसलिए समाज के प्रति कृतज्ञ रहकर मुझे उसे प्रत्यर्पण करना चाहिए । मेरे पास जो भी शक्ति, उपलब्धि, विद्या, धन, साधन आदि हैं, उन्हें समाज के लिए समर्पित कर देना चाहिए । शरीर रहते-रहते मुझे समाज के अगणित उपकारों के ऋण से उऋण हो जाना चाहिए। जरूरतमन्दों को दान देना समाज के उपकारों से उऋण होने का एक उपाय है।' ऐसा मन और बुद्धि से उदार विचारक सदैव यही सोचता है कि चाहे मेरे पास धन न हो, परन्तु शरीर रहते जो भी कुछ है, उसे यदि दे सकू तो मैं धन्य हो जाऊँगा। __जो भी वस्तु मनुष्य के पास है, उससे वह दूसरों को भी लाभ उठाने दे । यदि उसके पास रुपये नहीं हैं, तो अन्य साधन तो हो ही सकते हैं, जिनसे आप दूसरों की-कष्टपीड़ितों की अपने से दुर्बल प्राणियों की सहायता कर सकते हैं । दान के बहुत से साधन हैं । __ महाभारत में एक सुन्दर प्रसंग इस सम्बन्ध में अंकित है-द्रोणाचार्य जब अपनी दीन अवस्था में परशुराम से कुछ माँगने महेन्द्र पर्वत पर गये तो त्यागी परशुराम ने कहा- "मैं तो अपनी सारी सांसारिक विभूतियाँ दान में दे चुका हूँ। अतएव तुम्हें धन देने में असमर्थ हूँ। मेरे पास विद्या ही शेष है, तुम चाहो तो उसे ले सकते हो।" द्रोण ने विद्यादान लेना स्वीकार कर लिया। इसी प्रकार देने और लेने की कितनी ही वस्तुएँ होती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि आपके पास महादानी कर्ण के कवच-कुण्डल हों, तभी आप दान करने का साहस करें। कवच-कुण्डल न सही आप किसी भूखे को एक समय का भोजन और प्यासे को पानी ही दे देते हैं, तो दान का लाभ मिल सकेगा। किसी फटेहाल या सर्दी से ठिठुरते हए व्यक्ति को आप अपने पास का वस्त्र दे सकते हैं। और कुछ नहीं तो आप किसी को श्रमदान देकर उसका दुःख दूर सकते हैं। किसी को अपना बना-बनाया घर नहीं दे सकते, तो संकट में शरण तो दे ही सकते हैं। पैसे न सही शक्ति, सहयोग, बौद्धिक परामर्श, सहानुभूति, आश्वासन, शुभ कामना, आशीर्वाद, सान्त्वना ही दें तो वह दान की कोटि में आ सकता है। For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्र के लिए दान दुष्कर : २०३ निष्कर्ष यह है कि साधनों का अभाव दान देने में बाधक नहीं, अगर मनुष्य का मन उदार है, उसकी बुद्धि दान के प्रति श्रद्धा से ओत-प्रोत है, तो धन और साधन न होते हुए भी मनुष्य दरिद्र नहीं है । दिया हुया निष्काम दान कई गुना अधिक मिलता है कई लोग कहा करते हैं, जिनमें कई तो कृपणवृत्ति के हैं और कई नास्तिक प्रकृति के हैं, कि दान क्यों दिया जाए किसी को ? दान देने से भिखमंगों और याचकों की संख्या बढ़ती जाएगी, वे पुरुषार्थहीन हो जाएँगे, दूसरी बात यह है, जो लोग अभावग्रस्त हैं, वे अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोग रहे हैं, हमें उनके कर्मों को भोगने में दान के रूप में सहायता देकर अन्तराय क्यों डालना चाहिए ? तीसरी बात यह है, कि कई लोग कहते हैं- हम क्यों किसी को दान दें ? क्या वह हमारे यहाँ कुछ रख गया था, जो हम उसे दें अथवा उसके पिता ने हमारे यहाँ कुछ जमा किया था, जो हम से माँगता है ? ये और इस प्रकार के बहाने दान न देने के हैं। यह ठीक है कि दान में विवेक तो अवश्य करना चाहिए। जिनका भीख माँगने का पेशा ही है, जो सुबह से शाम तक दूकान-दूकान से पैसा ही बटोरने का धन्धा करते हैं, उनसे हाथ जोड़कर कहा जा सकता है--आप भूखे हों तो हम भोजन करा सकते हैं, और किसी चीज की अत्यन्त आवश्यकता हो तो हमारी शक्ति अनुसार दे सकते हैं। परन्तु पंसा तो नहीं दिया जा सकता, आपको। आप चाहें तो हम आपको मेहनत-मजदूरी का काम दे या दिला सकते हैं । परन्तु जो लोग सचमुच अभावग्रस्त हैं, उन्हें उनके पापकर्मों का फल भोगने का कहकर टरकाना तो शोभा नहीं देता। इस प्रकार का बहाना करने से आपके दानान्तराय कर्म का बन्ध होना संभव है। आप यदि स्वयं अभावग्रस्त हों, और उस समय आपको कोई कहे कि आप अपने कर्मों का फल भोगें, हम आपके कर्मफल भोगने में अन्तराय क्यों दें ? तो आपको कितना बुरा लगेगा ? कितना आघात लगेगा आपको ? संभव है, आपके निमित्त से ही अभावग्रस्त व्यक्ति का अन्तराय टूटने वाला हो, उसको लाभ मिलने वाला हो। आपके द्वार पर आये हुए किसी अभावग्रस्त, पीड़ित एवं दीन-हीन को अगर कुछ आपने दे दिया, सहायता पहुँचा दी तो क्या उससे आपके पास कुछ कमी हो जाएगी। यह तो एक भ्रम है कि किसी को देने से कमी हो जाएगी। प्रत्येक मानवीय शक्ति सदुपयोग से बढ़ती है। दान देने से लक्ष्मी बढ़ती है, ज्ञान देने से ज्ञान की वृद्धि होती है, किसी को सम्मान देने से सम्मान बढ़ता है, सुख देने से सुख बढ़ता है। सचमुच सात्विक दान से ऐश्वर्य मिलता है, व्यक्तित्व का विकास होता है, मनुष्य का आत्मबल बढ़ता है और उसकी सहृदयता और सजीवता का परिचय मिलता है। दान और परोपकार के पीछे न जाने कितने For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ लोगों की शुभकामनाएँ, हार्दिक शुभाशीर्वाद और लोक-बल रहता है । परमार्थ से तो पुरुषार्थ ही प्रकट होता है । संवाद के रूप में एक रूपक प्रस्तुत करता हूँ धरती बोली - " वृक्षो ! मैं तुम्हें खाद-पानी देती हूँ, रस देती हूँ, उससे अपने आपको तृप्त करो, पुष्ट करो, किसी को दो मत ।" वक्ष बोला - "नहीं, मां ! मैं देता हूँ, तभी फलता हूँ । मुझे दिये बिना शान्ति नहीं होती ।" वृक्ष ने अपने फल दिये, पत्ते दिये, पथिकों को छाया दी, पक्षियों को बसेरा दिया । वृक्ष पतझड़ में सूख रहा था, तब भी उसकी यही कामना थी कि कोई आये और मेरी सूखी लकड़ियाँ लेजाकर अपना काम चलाये । वसन्त ऋतु आई । प्रकृति से वृक्ष को फूल, पत्ते, फल मिल गये । वृक्ष ने जितना दिया था, उससे अधिक उसे मिला । वह हरा-भरा हो उठा । गंगा नदी हिमालय से चली तो हिमालय ने उसे बहुत रोका कि "तुम यहीं रहो, आगे न बढ़ो, अपना जल यों ही न लुटाओ ।" गंगा ने कहा- "मुझे लोककल्याण के लिये जाना ही पड़ेगा ।" गंगा वहाँ से निकली और प्यासी धरती, सूखी खेती तथा व्याकुल जीव-जन्तुओं को शीतल जल लुटाती हुई आगे बढ़ी तो हिमालय का हृदय स्वतः द्रवित हो उठा । उसने जल उड़ेलना शुरू किया और गंगा जितनी गंगोत्री में थी, गंगासागर में पहुँचते सौगुनी बड़ी होकर जा मिली । निसर्ग का यह नियम है कि जो निरन्तर दान करता है, वह निर्बाध प्राप्त भी करता है । आज का दिया हुआ कल हजार गुना होकर लौटता है । तिथि न गिनो, समय की प्रतीक्षा न करो, विश्वास रखो - आज दोगे तो कल तुम्हें कई गुना मिलेगा । लोकमंगल के लिए जो अपनी क्षमताएँ, सम्पदाएँ दान करते हैं, उनकी क्षमताएँ, सम्पदाएँ, योग्यताएँ, वैभव और विभूतियाँ हजारगुनी अधिक हो जाती हैं । समय भले ही लगता हो, परन्तु दान, त्याग और परोपकारार्थ उत्सर्ग ही जीवन. को महान् और परिपूर्ण बनाता है । स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था -- " अगर तुम कुछ प्राप्त करना चाहते हो तो देने को तैयार हो जाओ । देने में आनन्द है । जो जितना देता हैं, उससे अनेकगुना पाता है । पाने का एक मात्र उपाय यही है कि आप देने को तैयार हों । जो जितना अधिक दे सकेगा, उसे उससे अनेकगुना मिलेगा । इस जगत का यही नियम है । जो इस नियम को जान लेता है, उसे परिपूर्ण तृप्ति पाने की साधन सामग्री मिलती है ।" यदि समुद्र अपना जल बादलों को न दे तो उसे नदियों द्वारा अनन्त जलराशि प्राप्त करते रहने की आशा छोड़ देनी होगी । जो मलत्याग नहीं करना चाहता उसके पेट में तनाव और दर्द बढ़ेगा, उसे नया सुस्वादु भोजन पाने का अवसर नहीं मिलेगा | कुआ अपना जल न दे तो, उसका पानी सड़ जाएगा । इसीलिये कबीर ने कहा है For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्र के लिए दान दुष्कर : २०५ पानी बाढ़ो नाव में, घर में बाढ़ो दाम । दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ।। शालिभद्र अपने पूर्वजन्म में संगम नाम का ग्वाला था। उसकी मां आस-पास के धनिकों के यहाँ का गृहकार्य करने से जो कुछ मिलता, उसी से अपना और बेटे का गुजर-बसर करती थी। एक बार संगम धनिकों के बच्चों से खीर खाने की बात सुनकर मचल पड़ा-खोर खाने के लिए। परन्तु गरीब माता उसे खीर कहाँ से देती । बहुत समझाया, पर उसने तो हठ ही पकड़ ली। उसे रोते देख सेठानियों ने उसकी माँ को खीर की सामग्री दे दी। माता ने खीर बनाने की हंडिया में सब चीजें डालकर चूल्हे पर चढ़ा दी और संगम को कहती गई- 'बेटा ! मैं अब काम पर जाती हूँ। जब खीर सीझ जाए तब उतारकर थाली में ठंडी करके खा लेना ।" संगम ने खीर पकते ही उतारकर ठण्डी करने के लिए थाली में उड़ेल ली । खीर थाली में ठण्डी हो रही थी, तभी एक मासिक उपवासी मुनिवर पारणे के लिए भिक्षार्थ पधारते हुए देखे । संगम की भावना जगी कि मैं भी यह खीर ऐसे तपस्वी मुनि को दे दूं तो कितना अच्छा हो ! बस, मुनिराज को प्रार्थना करके वह ले आया घर पर । थाली में जो खीर थी, वह मुनि के पात्र में उड़ेलने (बहराने) लगा। सोचा, मैं तो फिर खा लूगा, ऐसे तपस्वी मुनि का संयोग फिर कहाँ मिलेगा ? सारी की सारो खीर उसने मुनिराज को प्रबल उल्लास से दे दी। मुनिवर आहार लेकर पधार गए। उसी दान के प्रबल परिणाम के फलस्वरूप राजगृहनगर के सबसे अधिक धनाढ्य गोभद्र सेठ के पुत्र के रूप में उसे जन्म मिला। खीर का क्या मूल्य था ? परन्तु उस गरीब संगम के पास और था ही क्या ? सर्वस्व उसने दे दिया। उसने अपने लिए खीर नहीं रखी। उस नगण्य वस्तु के भी उत्साहपूर्वक दान ने संगम को करोड़पति सेठ का पुत्र बना दिया । शालिभद्र की कथा आप लोग जानते ही हैं । निष्कर्ष यह है कि संगम ने अपने गरीबी को न देखकर केवल थोड़ी सी खीर का दान दिया, बदले में उसने लाखों करोड़ों गुना पाया; शालिभद्र के रूप में। पद्म पुराण में भी स्पष्ट कहा है दानं दरिद्रस्य विभोः क्षमित्वं, यूनां तपो ज्ञानवतां च मौनम् । इच्छानिवृत्तिश्च सुखोचितानां, दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ।। अर्थात्-दरिद्र का दान, सामर्थ्यशील की क्षमा, युवकों का तप, ज्ञानियों का मौन, सुखभोग के योग्य पुरुष की स्वेच्छया निवृत्ति, समस्त प्राणियों पर दया-ये सब गुण स्वर्ग में ले जाते हैं। इसीलिए यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि दान से लक्ष्मी के द्वार खुल जाते हैं, लक्ष्मी बढ़ती है। चाणक्यनीति में स्पष्ट कहा है For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ 'दारिद्र्यनाशनं दानम्' -दान दरिद्रता को नष्ट कर देता है। दरिद्र के लिए दान : कितना सुकर, कितना दुष्कर? वास्तव में देखा जाए तो जब मनुष्य अपनी स्वल्प सामग्री में से कुछ भी दान देता है तो उसके मन और बुद्धि का दारिद्र य तो उसी समय मिट जाता है, रही बात धन के दारिद्र य की, वह भी देते रहने से खलता नहीं है। जिस समय संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि माघ के पास कुछ नहीं बचा था, फाके चल रहे थे। उन दिनों में माघ के पास एक दरिद्र किन्तु विद्वान ब्राह्मण अवन्तिका से उपस्थित हुआ, अपनी कन्या के विवाह के हेतु आर्थिक सहायता की मांग लेकर । सहृदय माघकवि के पास कुछ नहीं था, दरिद्र ब्राह्मण को १०. मुद्राओं की जरूरत थी। जब वह निराश होकर जाने लगा तो माघ कवि से देखा न गया । उन्होंने ब्राह्मण को बैठक में बिठाया, स्वयं भीतर गये । चारों कोने साफ थे। कोई भी मूल्यवान् वस्तु बची न थी। सिर्फ पत्नी के हाथों में सोने के दो कंगन चमक रहे थे । घर की सम्पन्नता के वही अन्तिम स्मारक थे। विवाह के भी वही अन्तिम स्मरण-चिन्ह थे ; जिन्हें उनकी पत्नी बचाये हुए थी। माघ ने चुपचाप सोई पत्नी के हाथ से कंगन निकाल लिया । वे ज्यों ही, उसे लेकर चले कि उनकी पत्नी की आँख खुल गई। चौंककर पूछा- “कौन ?" माघ ने कहा- "चोर ! मैं तुम्हारा गहना चुराकर लेजा रहा था, तुम मुझे जो भी दण्ड देना चाहो, दे सकती हो ।” पत्नी बोली-“चोरी तो दूसरे की वस्तु को होती है। मेरा तो सर्वस्व आपका है, फिर आपको चोर कैसे मानू ? पर कहिए तो, इसकी जरूरत क्यों पड़ी ?" माघ ने कहा-"प्रिये ! हमारे द्वार पर एक दीन ब्राह्मण आया है, धन के अभाव में उसकी युवती कन्या अभी तक अविवाहित है । उसने बड़ी आशा से मुझसे सो मुद्राओं की याचना की। उसे निराश कैसे लौटने दू? यह तो घर का अपमान है और पुण्य-लाभ का अवसर खोना है कि कोई व्यक्ति निराश होकर यहाँ से लौटे । तुम्हारी स्वीकृति हो तो एक कंगन उसे दे दू, इससे उसका काम चल जाएगा।" पति की बातें सुनकर पत्नी ने दूसरे हाथ का कंगन भी निकालकर देते हुए कहा-"प्राणनाथ ! यह दूसरा कंगन भी आप मेरी ओर उसे दे दीजिए, जिससे उसका कार्य धूमधाम से हो।" नारी का मुखमण्डल दोनों कंगनों को देते हुए हर्ष और स्वात्माभिमान से दमक उठा । माघ ने दोनों कंगन प्रसन्नतापूर्वक उस याचक को देते हुए अपनी शुभकामना भी प्रकट की। ब्राह्मण ने कृतज्ञतापूर्वक दोनों कंगन स्वीकार किये For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्र के लिए दान दुष्कर : २०७ और हादिक आशीर्वाद देते हुए कहा- "कविवर ! आपका यह काव्य थोड़े समय में ही मैंने उलट-पलटकर देखा, अद्भुत रचना है। यह काव्य आपको विश्व में अमर कर देगा । आपका परिश्रम आपको गौरव प्रदान करेगा । मेरा आशीर्वाद सत्य होगा।" ब्राह्मण यह कहकर चला गया । माघ ने कहा- "अगर हम इसे निराश लौटा देते, तो अवश्य ही एक विद्वान ब्राह्मण का अनादर हो जाता।" माघ का यह दान स्थूलदृष्टि वाले लोगों की दृष्टि में बहुत दुष्कर था, परन्तु उदार माघ के लिए वह अत्यन्त सुकर हो गया, क्योंकि वे बुद्धि और मन से निर्धन नहीं थे, वे उदार थे । और सचमुच माघ कवि उस दिन से गौरवशाली एवं समृद्ध होते चले गए । उनके जीवन में फिर अभाव न रहा । किन्तु जो व्यक्ति बौद्धिक एवं मानसिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं हैं अपितु केवल भौतिक दृष्टि से सम्पन्न हैं, वे अगर मन से उदार नहीं हैं तो एक तरह से दरिद्र ही हैं, चाहे वे कितने ही बड़े धनिक हों, सत्ताधीश हों, अथवा प्रभुत्वसम्पन्न हो । ऐसे धी-दरिद्र के हाथ से दान दिया जाना अत्यन्त दुष्कर है। किन्तु मनुष्य के स्वभाव में उदारता हो तो वह निर्धन होकर भी कुछ न कुछ दान कर सकता है । गरीब का दान महत्त्वपूर्ण क्यों ? जो धन से सम्पन्न है, वह व्यक्ति किसी को किसी प्रकार के फल, सुखभोग या स्वार्थ की आकांक्षा से रहित होकर दान देता है, उसका इतना महत्त्व नहीं है, क्योंकि उसके पास धन का अभाव नहीं है, परन्तु वह अपनी कमाई का अमुक अंश ही दान दे पाता है, सर्वस्व नहीं; मगर गरीब व्यक्ति, जो प्रतिदिन जितना कमाता है, उतना ही पारिवारिक निर्वाह में खर्च हो जाता है, वह यदि अपना सर्वस्व या अधिकांश दान दे देता है, तो उसका दान महत्त्वपूर्ण इसलिए माना जाता है कि उसने अपने उपभोग में कटौती करके, इच्छानिरोध करके दान दिया है। ऋषभपुर नगरवासी अभयंकर सेठ जितना धनिक था, उतना ही दान में शूरवीर था। उनके यहाँ चारुमति नाम का एक नौकर था। वह सेठ-सेठानी को प्रबल भावना से दान देते देख मन में सोचा करता- “धन्य है, इनको ! कितने उत्कट भाव से दान देते हैं ? परन्तु मैं अभागा हूँ। क्या कर सकता हूँ ? मेरे पास कुछ भी द्रव्य नहीं है । अगर द्रव्य होता तो मैं भी दान देता।' कई बार मनुष्य के हृदय में दान देने की भावना जागती है, परन्तु वह उस भावना को दबा देता है । किसी समय तो वह अपने मन को यों मना लेता है, जब मुझसे इतने बड़े-बड़े धनिक दुनिया में पड़े हैं, वे सब तो दान नहीं देते, मैं तो उनके सामने तुच्छ हूँ, मैं अपनी थोड़ी-सी पूंजी में से कैसे दान दे सकूगा ? मैं धनिक ही कहाँ हूँ, जो इस प्रकार से दान हूँ ! परन्तु गरीब अपनी शक्ति को भूल जाता है For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ कि उसका थोड़ा-सा दान भी धनिकों के लिए महाप्रेरणादायक बन सकता है। गरीब के पास जो थोड़ी-सी पूजी है. या दान देने के लिये धन के सिवाय जो भी अन्य साधन हैं, उसमें से वह थोड़ा-सा भी देता है तो समाज में उसके प्रति सद्भावना जागती है और स्वयं की शुद्धि या स्वामित्व-विसर्जन की भावना के साथ समाज को भी शुद्धि एवं स्वामित्व-विसर्जन की प्रेरणा मिलती है। गरीब के पास भी श्रम, बुद्धि, स्वल्प साधन, थोड़ा-सा अन्न आदि की कमी तो शायद नहीं रहती, इसलिये उन्हें अपने को हीन, अभागा या दान देने के लिये अक्षम-असमर्थ नहीं मानना चाहिये । बल्कि उन्हें दान देने की पहल करनी चाहिए। असल में देखा यह जाता है कि धनिक लोगों के पास प्रचुर धन, साधन आदि होते हैं, इसलिए उनकी उन पर ममता-मूर्छा भी उतनी ही अधिक होती है, अपने हृदय को समझाकर दान देने का निर्णय करने में भी उतनी ही देर लगती है, जबकि निर्धन को अपनी थोड़ी-सी पूजी या साधनों पर ममता-मूर्छा तो होती है, मगर उसमें अपनी दान को शक्ति का गौरव जगाने पर तथा दान-लाभ समझाने पर वह झटपट निर्णय पर आ जाता है, शीघ्र ही दान देने के लिए तैयार हो जाता है। यही बात हई । सेठ ने उसे समझाया-"चारुमति ! तु भी दान दिया कर। तेरे पास जो भी है, उसमें से तू मुनिवरों को दान दे सकता है।" परन्तु वह कहने लगा-“सेठजी ! मेरे पास तो रोजाना खाने-पीने जितना ही होता है, बचता कुछ भी नहीं; फिर मैं मुनिवरों को कैसे दान दे सकता हूँ।" एक बार अभयंकर सेठ चारुमति को अपने साथ गुरु-दर्शन के लिए उपाश्रय में ले गया। वहाँ मुनिवर ने उससे कहा - "भाई ! दान, शील, तप और भाव-ये चार धर्म के अंग हैं । इनमें से तेरे पास सभी शक्तियाँ हैं । तू भी यथाशक्ति धर्माचरण कर सकता है।" वह सविनय कहने लगा—'गुरुदेव ! मेरे पास तो बहुत ही थोड़ा सा द्रव्य, सिर्फ ५ कौड़ी बचती हैं, उनसे मैं कैसे दान कर सकता हूँ।" गुरुदेव ने कहा - "भाग्यशाली ! धर्म में तो भावों की प्रमुखता है, तू प्रबल भावों से अगर थोड़ासा भी, तुच्छ वस्तु का भी, दान करता है, तो उसका मूल्य बहुत अधिक है ।" गुरुदेव यह कह रहे थे, कि एक व्यक्ति गुरुदेव से कुछ प्रत्याख्यान (त्याग) करने के लिए आया। गुरुदेव ने उसे प्रत्याख्यान कराया । तब चारुमति ने पूछा"भगवन् ! इस प्रकार के प्रत्याख्यान से भी कुछ धर्म होता है ?" गुरु बोले-"हाँ, भाई ! प्रत्याख्यान करने से भी बहुत धर्म होता है।" यह सुनकर चारुमति ने कहा-"भगवन् ! आज मुझे उपवास का प्रत्याख्यान (नियम) करा दीजिए।" इस प्रकार गुरुदेव से उपवास का प्रत्याख्यान करके घर गया । सोचा-'आज साधु-मुनिराज पधारें तो मैं अपने उपार्जित भोजन में से उन्हें देकर प्रतिलाभित होऊँ।" सेठ के यहाँ For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्र के लिए दान दुष्कर : २०६ से उसे प्रतिदिन खाने के लिए भोजन मिलता था। आज उपवास के कारण उसने वह भोजन बचाकर रखा था । संयोगवश एक सेवाभावी मुनि भिक्षा के लिए पधार रहे थे, उन्हें विनति करके वह अपने घर लाया और अत्यन्त उत्कट भाव से जो भोजन सेठ से अपने हिस्से का मिला था, सबका सब मुनि के पात्र में दे दिया। उन शुभ भावों के कारण उसने शुभ गति और शुभ-योनि का आयुष्य बंध किया। यह है गरीब के दान का महत्त्व ! वस्तुतः चारुमति के पास धन न होने से वह दान देना दुष्कर समझता था। किन्तु उसके मन में दान का दीपक प्रज्वलित हो गया था, उसने दान किसी प्रकार की नामना या कामना की दृष्टि से नहीं दिया, दिया था-केवल धर्माचरण करने के लिए। यद्यपि रुपये-पैसों में उसकी दी हुई वस्तु का मूल्यांकन करें तो उसका मूल्य लाख रुपयों के दान के आगे कुछ नहीं था, लेकिन दान के पीछे तो भावों की गणना की जाती है, सिक्कों को नहीं । दान की कमाई तो भावों पर निर्भर है। बाजार में चीजों के भाव बढ़ते हैं, तभी व्यापारी निहाल हो जाता है । ऊँचे भावों के कारण थोड़ी-सी वस्तु के बहुत दाम आते हैं। इसी प्रकार दान में भी भावों की उछाल के कारण दान का मूल्य बढ़ जाता है । चन्दनबाला उस समय एक दरिद्र दासी के रूप में थी। उसके पास अपनी सम्पत्ति कुछ भी नहीं थी। जो कुछ था, वह धनावह सेठ का । बल्कि चन्दनबाला तो उस समय बिलकुल फटेहाल, भूखी, प्यासी और पराधीन थी, सिर्फ एक कच्छा पहने हुए, मस्तक मुडी हुई और हथकड़ियों-बेड़ियों में जकड़ी हुई । धनावह सेठ उसे तीन उपवास के पारणे के लिए सिर्फ उड़द के बाकले दे गया था। परन्तु इतनी दीन-हीनपरवश चन्दनबाला के मन में दान देकर पारणा करने की भावना उमड़ी । संयोगवश कठोर अभिग्रहधारक भगवान् महावीर पधार गए। उन्होंने अपने मनःसंकल्पित अभिग्रह की १३ बातों में से सिर्फ एक बात की कमी देखी-'आँखों में अश्र'; इसलिए लौटने लगे। बस, चन्दनबाला की आँखों से अश्र धारा बह निकली । दीर्घतपस्वी भगवान् वापस मुड़े। चन्दनबाला ने अपने पारणे के लिए रखे हुए वे उड़द के बाकले प्रबल भावनापूर्वक भगवान् महावीर को दे दिये । वह धन्य हो उठी। उड़द के बाकलों का क्या मूल्य था ? मूल्य तो भावना का था, जिसने चन्दनबाला को दान के माध्यम से उच्चपद पर पहुँचा दिया। विदुरानी के केले के छिलकों का क्या महत्व था ? परन्तु कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने विदुरानी के दिये हुए केले के छिलकों को न देखकर उसके पवित्र भावों को देखा और उसका वह भोजन स्वीकृत किया। शबरी के दिये हुए झठे बेरों का मूल्यांकन क्यों इतना अधिक किया गया है ? इसीलिए कि उसके पीछे उत्कट भक्तिभावना थी। निष्कर्ष यह है कि दीन-हीन-निर्धन के द्वारा दिया हुआ तुच्छ पदार्थ का दान For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ भी उत्कट भावों के कारण बहुमूल्य हो जाता है । महाभारत (शान्तिपर्व) में इसी बात की पुष्टि की गई है सहस्रशक्तिश्च शतं, शतशक्तिर्दशाऽपि च। दद्यादपश्च यः शक्त्या, सर्व तुल्यफलाः स्मृताः॥ "यदि हजार रुपयों की शक्ति वाले ने सौ रुपये, सौ रुपये की शक्ति वाले ने दस रुपये दिये, और किसी ने अपनी शक्ति-अनुसार थोड़ा-सा पानी भी दे दिया तो ज्ञानी पुरुषों ने इन सबका फल समान बतलाया है।" वास्तव में उस दरिद्र के हाथ से दान दिया जाना महत्त्वपूर्ण है, जिसके पास कुछ साधन भी न हो। जिसके मन, बुद्धि और जीवन का विकास नहीं हुआ है, ऐसे दरिद्र की ओर से भावना से दिया गया अल्प दान बहुत ही दुष्कर और महत्त्वपूर्ण बताया है। "अप्पास्मा दक्षिणा दिन्ना, सहरसेन समं मताः" -थोड़े में से जो दान दिया जाता है, वह हजारों-लाखों के दान की बराबरी करता है। गुजरात में चौलुक्यवंशी राजा सिद्धराज का शासन था। उनकी माता मिणलदेवी ने सोमनाथ तीर्थ की यात्रा की । वहाँ सोमनाथ तीर्थ पर सवा करोड़ मुहरें दान में दीं। उसी तीर्थ में एक दरिद्र महिला दर्शन करने आई। माता मिणलदेवी से किसी ने कहा-"माताजी ! अपने पुण्य के बदले इस गरीब महिला का पुण्य ले लो।" राजमाता ने उससे पूछा- "इसका पुण्य मुझसे प्रबल क्यों है ?" उसने कहा- "इसके कल तीर्थ का उपवास था। घर से यह थोड़ा-सा नमकोन सत्त लेकर आई थी। उसमें से आधे सत्त से सोमनाथ की पूजा की। आधे में से आधा अतिथि को दिया और शेष चौथाई सत्त से स्वयं ने पारणा किया। अपने पास जो था, उसमें से बहुत थोड़ा-सा अपने लिए रखकर शेष सब दान-पुण्य के कार्य में लगा दिया । बताइए, आपका पुण्य अधिक है या इस महिला का, जिसने उत्कट भाव से बहुत अधिक दान दे दिया है ?" राजामाता को स्वीकार करना पड़ा कि मेरे दान से बढ़कर इस धन से दरिद्र, किन्तु भावना से समृद्ध व उदार महिला का दान है। वास्तव में जिस व्यक्ति के लिए धन का अधिक दान करना कठिन होता है, ऐसा दुष्कर दान वह अपनी शक्तिभर किसी भी साधन का करता है तो धन्य हो जाता है । उसके दान को सभी महान् पुरुषों ने महत्त्व दिया है । सर्वस्ववान : दुष्करतम और महत्तम परन्तु इससे भी बढ़कर एक और दान है, जो स्वल्प साधन-सम्पन्न गरीब के लिए तो बहुत ही दुष्कर है, वह है सर्वस्वदान । सर्वस्वदान में व्यक्ति अपने पास जो भी कुछ होता है वह दे देता है । तथागत बुद्ध के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पृष्ठ आपके समक्ष ला रहा हूँ तथागत बुद्ध को जब आत्मज्ञान हुआ तो उनके शिष्य अनाथपिण्ड ने उनसे For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्र के लिए दान दुष्कर : २११ प्रार्थना की-"भंते ! आपको जो आत्मज्ञान हुआ है, उसे संसार के लोगों को भी सुनाइए, ताकि उनका कल्याण हो।" महात्मा बुद्ध-"संसार के लोग जब तक आत्म-ज्ञान के पात्र न हों, तब तक मैं इसे किसी को नहीं सुना सकता। आत्म-ज्ञान के अधिकारी की कसौटी है, त्यागभावना-सर्वस्वदान की भावना। यदि एक व्यक्ति भी सर्वस्वदान देने वाला निकल आए तो मैं समझ लूगा, संसार में त्याग एवं सर्वस्वदान की भावना है और वैसी स्थिति में मैं आत्म-ज्ञान अवश्य सुनाऊँगा।" इस पर अनाथपिण्ड ने कहा-"भंते ! संसार में आपके लिए सर्वस्वदान देने वालों की क्या कमी है ? बहुत-से निकलेंगे।" महात्मा बुद्ध-"तू तो अनेक की कहता है, एक भी सर्बस्वदानी मिल जाय तो मेरा काम बन जायगा।" अनाथपिण्ड पात्र लेकर कौशाम्बी आया, सूर्योदय होने का समय था । नगर के लोग बिछौने पर पड़े थे। कुछ लोग उठ चुके थे, कुछ उठ रहे थे। उसी समय अनाथपिण्ड ने आवाज लगाई-'बुद्ध सर्वस्वदान चाहते हैं, कोई सर्वस्वदान देने वाला दाता हो तो वह मुझे दे।" बुद्ध बहुत प्रसिद्ध थे, उस समय । अनाथपिण्ड भी कौशाम्बी के नागरिकों के परिचित थे । आवाज सुनकर लोग कहने लगे-"अनाथपिण्ड तथागत बुद्ध के लिए आज सबेरे ही सर्वस्वदान लेने के लिए आए हैं, अतः इन्हें खाली नहीं जाने देना चाहिए।" इस प्रकार विचार करके अनेक स्त्री-पुरुष वस्त्र, आभूषण, रत्न आदि लेकर दौड़े और अनाथपिण्ड के पात्र में डालने लगे । लेकिन अनाथपिण्ड उनमें से किसी भी वस्तु को अपने पात्र में नहीं रहने देता था, वह पात्र को औंधा कर देता था जिससे सब चीजें नीचे गिर जाती थीं । अनाथपिण्ड यह कहकर आगे बढ़ जाता कि मुझे सर्वस्वदान चाहिए, ऐसा दान नहीं । लोग नीचे गिरी हुई अपनी-अपनी चीजें उठा लेते और निराश होकर लौट जाते। अनाथपिण्ड इस तरह सारी नगरी में घूम गया, लेकिन सर्वस्वदानदाता कोई न मिला । चलते-चलते वह नगर से बाहर निकल गया। अनाथपिण्ड ने सोचा-'अब तो जंगल आ गया है, जब नगर में ही कोई सर्वस्वदानी नहीं मिला तो जंगल में कौन मिलेगा !' लेकिन 'बहुरत्ना बसुन्धरा है', शायद कोई सर्वस्वदानी जंगल में भी मिल जाए, इस आशा से जंगल में पहुँचकर आवाज लगाने लगा- "बुद्ध सर्वस्वदान चाहते हैं, कोई देना चाहे तो दे।" जंगल में एक वृद्धा ने अनाथपिण्ड की यह आवाज सुनी । वह महादरिद्रा थी। उसके न तो कोई घर-बार था, न वस्त्र-पात्र, उसके शरीर पर एक फटा-पुराना लज्जानिवारणार्थ वस्त्र था, वही उसका सर्वस्व था। उसने सोचा-बुद्ध सर्वस्वदान चाहते हैं और मेरा सर्वस्व यही एक वस्त्र है। अपने इस सर्वस्व को देने का दूसरा सुयोग For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ : आमन्द प्रवचन : भाग १२ कब मिल सकता है ? फिर सर्वस्व को लेने वाला बुद्ध जैसा पात्र कहाँ मिलेगा ? अतः वृद्धा ने अनाथपिण्ड को सम्बोधन करके कहा-"ओ भिक्षु ! आओ, मैं तुम्हें सर्वस्वदान देती हूँ।" यह कहकर वह वृद्धा, जिस मार्ग से अनाथपिण्ड आ रहा था, उस मार्ग पर स्थित एक पुराने वृक्ष के खोखले में उतर गई और अपना एक मात्र वस्त्र हाथ में लेकर अनाथपिण्ड से कहा-"लो, भिक्ष ! यह सर्वस्वदान, अपने गुरु बुद्ध को दो, उनकी इच्छा पूर्ण करो।" ___ अनाथपिण्ड ने उस स्त्री का दिया हुआ वह वस्त्र हर्षपूर्वक अपने पात्र में ले लिया और गद्गद् होकर उससे कहने लगा- "माता ! आपकी तरह सर्वस्वदान देने वाला संसार में कौन होगा ? धन्य है आपको, आपने लज्जानिवारणार्थ एकमात्र वस्त्र, अपने शरीर को वृक्ष के कोटर में छिपाकर, दे दिया। मुझे बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण आदि देने वाले और भी अनेकों लोग मिले थे, लेकिन आपके इस सर्वस्वदान के समान वह दान न था । अतः मैने वह छोड़ दिया ।" ... इस प्रकार सर्वस्वदानी वृद्धा की प्रशंसा करता हुआ अनाथपिण्ड बुद्ध के पास आया और उन्हें वह वस्त्र सौंपते हुए कहा-"भगवन् ! यह लीजिए सर्वस्वदान !'' यह कहकर उसने कौशाम्बी में सर्वस्वदान न मिलने, किन्तु जंगल में मिलने आदि का वृत्तान्त आद्योपान्त सुनाया। बुद्ध उस वस्त्र को पाकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उस वस्त्र को मस्तक पर चढ़ाते हुए कहा--"मेरी प्रतिज्ञा अब पूर्ण हुई । अब मैं लोगों को अवश्य ही वह आत्मज्ञान सुनाऊँगा, जो मुझे प्राप्त हुआ है।" इससे यह स्पष्ट जाना जा सकता है कि एक अत्यन्त दरिद्र वृद्धा के द्वारा दिया हुआ सर्वस्वदान कितना दुष्कर है, कितना दुर्लभतम और महत्तम है। ऐसे दान को बराबरी धनिकों का वह दान नहीं कर सकता, जिसमें बहुलांश रखकर अल्पांश दिया जाता है। आप भले ही ऐसे सर्वस्वदानी को दरिद्र कहें, धन और साधनों के अभाव में वह भले ही दरिद्र कहलाता हो किन्तु विचारों और हार्दिक भावों से वह कदापि दरिद्र नहीं हो सकता। साधनों के अभाव में भी दान की अगाध शक्ति उसके हृदय में संचारित होती रहती है । वह वस्तु न देकर भी दान के उत्कट भावों से ही दान देने का महान् लाभ प्राप्त कर लेता है। सामूहिक रूप से कैदियों द्वारा प्रदत्त दुष्कर दान . आजकल कई जेलखानों में कैदियों से शारीरिक श्रम कराया जाता है, उन्हें मनोरंजन कार्यक्रम के अतिरिक्त श्रेष्ठ वाचन, श्रवण, चिन्तन-मनन करने का अवकाश भी दिया जाता है । मजदूरी के रूप में उन्हें दैनिक वेतन भी दिया जाता है, जिससे कि वे सामाजिक बनें, उनमें पवित्र भावना जागे, उनका जीवन सुधरे। गया जेल में कैदी लोग अपने मेहनताने की राशि जमा कराते थे । वर्ष के अन्त तक पहुँचते-पहुंचते यह रकम काफी इकट्ठी हो गई । वार्षिक मजदूरी गया जेल के For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्र के लिए दान दुष्कर : २१३ कैदियों को बाँटने के लिए तत्कालीन स्वास्थ्य एवं कर-मन्त्री श्री अब्दुल कय्यूम अंसारी आए । उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा-"आप लोगों ने आलस्य छोड़कर अपने को सुधार कर जो यह पैसे कमाए हैं, यह आपकी पवित्र नैतिक कमाई है । गया सेंट्रल जेल के कैदियों ने वार्षिक १०६३ रुपये कमाए हैं । यह रकम अभी आप लोगों में बाँटी जायेगी। इस सम्बन्ध में आप लोगों को कुछ कहना है ?'' इस पर एक कैदी उठा, और बोला- "हम लोगों की पापवृत्तियाँ अब दब गई हैं। हम मनुष्य-सेवा को अपने जीवन का अंग बनाना चाहते हैं । यह पैसा हमने अपने लिए नहीं, मुसीबत में फंसे हुए उन लोगों के लिए कमाया है, जो हर तरह निर्बल, दीन-हीन और दयनीय जीवन बिता रहे हैं। हम गिरे हुए समाज को उठाने में अपनी धर्म की कमाई लगाकर धर्म को व्यावहारिक रूप देना चाहते हैं।" __ “आप सबने क्या तय किया है ?'' यह पूछने पर एक कैदी ने सुझाव दिया“यह रकम किसी आध्यात्मिक संस्था को दान दी जाए, जो जनता की सेवा द्वारा भगवान् की सेवा करती हो।” मंत्रीजी ने कहा-"तो फिर यह रकम 'जवाहरलाल नेहरू स्मारक कोष' को दानस्वरूप दे दी जाए, बोलो सबको मंजूर है ?" सबने एक स्वर से कहा-"मंजूर है। यही दान सबसे अच्छा रहेगा।" बस, वह १०६३ रुपये कैदियों की ओर से उस संस्था को दान दे दिये गये। वस्तुतः कैदियों की ओर से अपने नैतिक पारिश्रमिक की राशि का इस प्रकार दान करना बहुत ही दुष्कर दान है । इस प्रकार के दान ने कैदियों के जीवन का कायापलट कर दिया है । इसीलिए महर्षि गौतम कहते हैं _ 'दानं दरिद्दस्स...."सुदुक्कर' दरिद्र व्यक्ति के लिए दान देना बहुत दुष्कर है। For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर धर्मप्रेमी बन्धुओ! ___आज मैं आपके समक्ष जीवन की चार सुदुष्कर वस्तुओं में से द्वितीय सुदुष्कर वस्तु के सम्बन्ध में प्रकाश डालूंगा। महर्षि गौतम ने द्वितीय दुष्कर वस्तु बताई हैसमर्थ के लिए क्षान्ति । गौतम कुलक का यह ७६वाँ जीवनसूत्र है। जिस का शब्दशरीर इस प्रकार है पहुस्स खंती सुतुक्करा प्रभु-समर्थ के लिए क्षान्ति अत्यन्त दुष्कर है । प्रभु किसे कहना चाहिए ? क्षान्ति से यहाँ क्या तात्पर्य है ? समर्थ के लिए शान्ति रखना क्यों सुदुष्कर है ? इन सब प्रश्नों पर इस प्रवचन में चिन्तन प्रस्तुत करूंगा। प्रभु कौन और कैसे ? सर्वप्रथम विचारणीय यह है कि प्रभु किसे कहना चाहिए ? लोकोत्तर क्षेत्र में तो प्रभु भगवान या अवतार को कहते हैं। परन्तु यहाँ लौकिक क्षेत्र के प्रभु से तात्पर्य है । इसलिए लौकिक क्षेत्र में प्रभु के मुख्यतः ४ अर्थ हो सकते हैं-(१) समर्थ, (२) शक्तिशाली, (३) स्वामी, और (४) प्रभुता-प्राप्त ।। समर्थ वह होता है, जो अपने व्यक्तित्व, योग्यता और क्षमता के बल पर परिवार, समाज और राष्ट्र में सब कुछ करने में समर्थ होता है, लोग उसकी बात मानते हैं; इसलिए कि उसमें कार्य करने की क्षमता है, टूटे हुए दिलों को जोड़ने की शक्ति है, बौद्धिक प्रतिभा है । उसे मनीषीगण समर्थ कहते हैं। शक्तिशाली भी प्रभु कहलाता है। प्राचीन काल में चक्रवर्ती, सम्राट, राजामहाराजा आदि शक्तिशाली होते थे, जो अपने शत्र ओं तथा शत्र राज्यों पर विजय प्राप्त करके अपने अधीन कर लेते थे। इस प्रकार के शक्तिशालियों से लोग थर्राते थे। उनकी बात पर गौर करते थे, उनसे विरोध नहीं करते थे। प्रभु का अर्थ स्वामी भी होता है । किसी सत्ताधारी या धनाढ्य के यहाँ रहने वाले दास-दासी या नौकर-चाकर उसे प्रभु कहते थे, स्वामी भी कहते थे। आर्य-पत्नी अपने पति को स्वामी के बदले प्रभु भी कहती थी। और प्रभु का शब्दशः अर्थ होता है—प्रभुता-सम्पन्न । अर्थात्-किसी न किसी पद, अधिकार या नेतृत्व को प्राप्त करने वाला व्यक्ति भी प्रभु कहलाता था । For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २१५ वास्तव में प्रभुता, पद, अधिकार, योग्यता, क्षमता, राज्यादि की प्राप्ति आदि सब एक या दूसरे प्रकार से शक्तियाँ हैं। इसलिए प्रभु का सामान्य अर्थ हम सामर्थ्यशाली या शक्तिशाली व्यक्ति कर सकते हैं। पृथक्-पृथक् शक्ति से सम्पन्न व्यक्ति को प्रभु कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। शक्ति के साथ नम्रता एवं सहिष्णुता कठिन मनुष्य जब किसी शक्ति, सामर्थ्य, प्रभुता या अधिकारसम्पन्नता प्राप्त कर लेता है, तब उसके साथ ही उसका मद भी उसमें प्रविष्ट हो जाता है । मान लीजिए, किसी के पास धन को शक्ति है, उसके पास पर्याप्त धन है, प्रतिदिन कमाता भी है, उसका व्यवसाय भी अच्छा चलता है, तिजोरी में चाँदी भवानी की छनाछन हो रही है, चारों ओर से नोटों की वर्षा होती है; ऐसे समय में धन की शक्ति से सम्पन्न मनुष्य में एक प्रकार का नशा चढ़ जाता है, जिस कारण वह निर्धनों को, गरीबों और दीनहीनों को कुछ नहीं गिनता। जब भी कोई जरूरतमन्द उसके द्वार पर आकर किसी आवश्यक वस्तु की याचना करता है, तो उसका पारा सातवें आसमान पर चढ़ जाता है। वह अपने नौकरों, कर्मचारियों आदि को फटकारता है, गालियाँ देता है, ऊटपटाँग बकता है । परन्तु ऐसा क्यों ? कारण है, धन की शक्ति का मद । 'शक्तौ सहनम्' शक्ति होने पर सहन करने का मन्त्र वह मुल जाता है । राजस्थान के महाकवि विहारी की भाषा में कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। वा खाये बौरात है, वा पाए बौराय ॥ कनक धतूरे को भी कहते हैं और सोने को भी। परन्तु धतूरे से सोने की मादकता सौ गुनी अधिक हो जाती है । क्यों ? धतूरा तो खाने पर ही नशा चढ़ाता है, हाथ में पकड़ने, या जेब अथवा थैले में रखने से नशा नहीं चढ़ाता, परन्तु सोना तो हाथ में आते ही नशा चढ़ा देता है, व्यक्ति सोने के नशे में मदोन्मत्त होकर दूसरों की जरा-सी अपने से प्रतिकूल बात-चाहे वह यथार्थ हो, हित की हो, सहन नहीं करता; फौरन आपे से बाहर हो जाता है । इसी प्रकार किसी के पास सत्ता की शक्ति है, वह भी अपने आपको बहुत बड़ा आदमी समझ लेता है, उसका दिमाग भी बात-बात में गर्म हो जाता है, सत्ता मद का नशा भी बड़ा भयंकर होता है । सत्ताधारी के कान सच्ची बातें सुनने को तैयार नहीं होते । प्रायः सत्ताधारी अपने पद और अधिकार के बल पर दूसरों को नीचे गिराते, दीन-हीनों को ठुकराते और अपने हितैषी को भी अपनी बात मनवाने के लिए उतावले हो जाते हैं । वे सत्ता के मद में विवेक, अदब, मान-मर्यादा, विनय, बड़ों के प्रति नम्रता आदि सब कुछ भूल जाते हैं । जिस समय यहां मुगल शासन था तब मुगल बादशाह भी सत्ता के नशे में निरीह प्रजा पर, उनकी बहन-बेटियों पर तरह-तरह से जुल्म करने लगे थे । बलात् For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ धर्म-परिवर्तन कराना तो उनके सत्तामद का सबसे बड़ा सबूत है । यही ब्रिटिश शासन में था, तब अंग्रेज शासकों ने भारतीयों के साथ किया। वे अपने आपको प्रभु (Lord) समझते थे, जन वगैरह को उन्हें सम्बोधन भी 'My Lord' (मेरे प्रभु) से करना पड़ता था। उच्च पदाधिकारियों में अधिकांश अंग्रेजों की नियुक्ति करते थे। भारतीयों के साथ उनका व्यवहार भी सौतेला होता था । भारतीयों को वे असभ्य, जंगली एवं कुली समझते थे। उनका शासन था, इसलिए कोई भी भारतीय उनके विरुद्ध सिर नहीं उठा सकता था। अंग्रेज प्रभुओं का भारतीय विद्वानों एवं संन्यासियों के प्रति कैसा रवैया था, यह एक घटना से साफ पता लग जायेगा स्वामी विवेकानन्द एक बार ट्रेन से कहीं की यात्रा कर रहे थे। वे जिस डिब्बे में बैठे थे, उसमें दो अंग्रेज भी बैठे थे। भारतीय और गेरूआधारी संन्यासी को बैठे देख वे दोनों अपनी प्रभुता के मद में आकर उनके बारे में जितना भी अंट-संट कह सकते थे, अंग्रेजी में बोले । स्वामीजी चुपचाप सुनते रहे । इतने में स्टेशन आया। स्वामीजी ने स्टेशन मास्टर को बुलाकर अंग्रेजी में कहा-'कृपया थोड़ा पानी मंगवा दीजिए।' स्वामीजी को अंग्रेजी में धड़ल्ले से बोलते देख, दोनों अंग्रेज सहयात्री जरा झेंप गये। उनमें से एक ने स्वामीजी से कहा-"आप अंग्रेजी जानते है तो जब हम आपके बारे में कुछ अंट-संट बोल रहे थे, तब आप बोले क्यों नहीं ? क्या आपको हमारी बात सुनकर गुस्सा नहीं आया ?" __ स्वामीजी ने मुस्कराकर कहा- "आप जैसे सभ्यताभिमानी लोगों ने अपनी सभ्यता छोड़ दी, पर मैं अपनी सभ्यता कैसे छोड़ देता ? इसलिए मैंने मौन रखना ही उचित समझा। मैं अपनी सहिष्णुता खोकर अपनी शक्ति क्यों खर्च करता ?" दोनों अंग्रेज बहुत लज्जित हुए। उन्होंने स्वामीजी से क्षमा मांगी। ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण हैं, ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति सौतेला व्यवहार रहा। प्रभुता के मद में वे भारतीयों की धर्मपुनीत संस्कृति, रीति को सहन नहीं कर सकते थे । जब भी दांव लगता, वे भारतीयों को अपमानित एवं तिरस्कृत करने से नहीं चूकते थे। भारत के राजा-महाराजाओं का भी यही हाल था। वे अपने यहाँ सैकड़ों गोले-गोलियों को रखते थे, उनके साथ मनमाना एवं पशु का-सा व्यवहार करते थे । कोई भी उनके सामने चीं-चपड़ करता तो फौरन कोड़ों, जूतों और लाठियों से उसे पिटवाते । उसकी कोई सुनवाई नहीं होती थी। राजा जो कुछ कहदे, करदे वही न्याय, बाकी अन्याय । इस प्रकार राजा नामक प्रभुओं ने भी अपनी शक्ति के मद में आकर बहुत ही असहिष्णुता दिखाई। राजाओं के पास सशस्त्र सेना आदि अनेक साधन होते, लेकिन प्रजा बेचारी निहत्थी होती, उसे न्याय मिलना दुष्कर होता। मार-पीट एवं बेगार में काम लेने की आदत अधिकांश शासकों की थी। हिरण्यकश्यप, दुर्योधन, कंस आदि राजाओं की वृत्ति इसी प्रकार की रही । For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २१७ प्रसिद्ध विचारक कोल्टन ( Colton ) ने ठीक ही कहा है "Power will intoxicate the best hearts, as wine the strongest heads." " जिस प्रकार शराब सुदृढ़ मस्तिष्कों को उन्मत्त कर देती है, उसी प्रकार सत्ता की शक्ति भी अच्छे हृदयों को उन्मत्त कर देती है ।" बड़े-बड़े शक्तिशाली राजा सत्ता के नशे में उन्मत्त होते देखे गये हैं । देवगढ़ के तत्कालीन रावसाहब ने एक बनिये से कोई सौदा लिया । उसकी कीमत उस समय नहीं चुकाई गई । उसके कुछ ही दिनों बाद बनिया रावसाहब के पास गया । उसने उनसे बकाया रुपयों के चुका देने की नम्रतापूर्वक प्रार्थना की । किन्तु रावसाहब सत्ता के मद में बोल उठे - " तुम्हारे रुपये चुका दिये गये हैं, फिर तुम दुबारा क्यों आये, रुपये माँगने ?” उस बनिये ने बहुत ही विनयपूर्वक कहा - " अन्नदाता ! ऐसी बात नहीं है । अगर मुझे अपनी दुकान से लिए हुए माल के रुपये मिल जाते तो मैं क्यों आपसे प्रार्थना करने आता ?" इस पर रावसाहब गुस्से में आकर बोले - " बड़ा सत्यवादी हरिश्चन्द्र बन रहा है । सिपाहियो ! पकड़ लो, इस लोभी बनिये को । इसके मलद्वार में खूंटा ठोककर इसकी अक्ल ठिकाने ला दो ।" बनिया बेचारा बहुत गिड़गिड़ाया किन देना हो तो न दें; पर मेरी दुर्गति तो न करें । पर उसकी एक न सुनी। बेचारा तड़प-तड़प कर मर गया । उच्चत्व शक्ति के मद में सवर्ण लोग अपने को उच्च मानकर शूद्रवर्ण के लोगों को नीच, अछूत कहकर उनका तिरस्कार और अपमान करते थे । ब्राह्मण वर्ण स्वार्थवश क्षत्रिय, वैश्यों को उच्चवर्ण के होने का फतवा दे दिया और सेवा करने वाले वर्ग को अछूत, नीच और घृणित कहकर उसे दुरदुराया, उसे शिक्षा-दीक्षा, संस्कार, भगवद्भक्ति, धर्मश्रवण आदि से वंचित रखा। इस प्रकार सवर्ण लोग प्रभु बन गये और उन्हें गुलाम बनकर रहने को विवश कर दिया । आए दिन इन सवर्ण प्रभुओं द्वारा हरिजनों, ढेढ़ों, चमारों आदि पर अत्याचार होते रहते थे । 'समरथ को नहि दोष गुसाई' कहकर इन सवर्ण समर्थों की ओर से जो कुछ भी अन्याय, अत्याचार, अपमान, तिरस्कार आदि किया जाता, उसे दोष नहीं हुआ कि लाखों हिन्दू (वैदिक धर्मी) मुस्लिम एवं करोड़ों बनते जा रहे हैं । समझा जाता था। नतीजा यह ईसाई बन गए, और अब भी अब सुनिये उन पतियों का हाल, उन्होंने भी पुरुषत्व शक्ति के मद में स्त्रियों को पैर की जूती, सन्तान पैदा करने की मशीन, पति की उचित - अनुचित सभी आज्ञाओं को बिना तर्क-वितर्क किये मानने वाली, माना है । पत्नी को अपने पति को प्रभु मानकर सदैव उसकी सेवा करनी चाहिए, उसकी आज्ञा अनुचित हो तो भी चुपचाप पालन करनी चाहिए । पत्नी बीमार पड़ जाए या शरीर आदि से असमर्थ ( लाचार ) हो जाए For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ | आनन्द प्रवचन : भाग १२ तो पति उसकी सेवा नहीं करता, न ही उसके बदले में कोई काम कर सकता है । इस प्रकार के भ्रान्त विचार पुरुषत्व के मद के कारण पतियों के बने । परन्तु भारतीय धर्म एवं संस्कृति पति और पत्नी दोनों का समानाधिकार मानती है । परन्तु पुरुषत्वरूप प्रभुता में मदान्ध पतिगण इस बात को समझें तब न ? अनुचित बात को न मानने पर पत्नी को मार-पीट दी, घर से निकाल दी, जला दी, विष दे दिया, आत्महत्या करने को विवश कर दी, छोड़ दी; एक पत्नी के जीवित रहते दूसरी ले आए। यह सब असंस्कारी पति-प्रभुओं का हाल है। अब रहे पदाधिकारी, राज्याधिकारी, नेतागण आदि । इनका भी बुरा हाल है, भारत में तो। प्रायः अधिकार या पद की शक्ति के मद में पदाधिकारी, राज्यधिकारी या नेतागण साधारण व्यक्तियों से तो सीधे मुंह बात भी नहीं करते । सभी सरकारी महकमों में नीचे से लेकर ऊपर तक प्राय: रिश्वतखोरी का बाजार गर्म है। जब भी किसी कार्य के लिये कोई गरीब, अन्याय-पीड़ित, दुःखी उनके पास जाएगा, तो सबसे पहले तो चपरासी ही नहीं घुसने देगा अगर वह किसी की सिफारिश से या चपरासी को दक्षिणा देकर आफिस में प्रविष्ट हो गया तो भी आफिसर सौ बहाने बनाएगा, टालमटूल करेगा, जब तक उसे तगड़ी दक्षिणा न दी जाएगी, तब तक वह कुछ भी काम करके न देगा, वह जनता की सेवा तो क्या, कुसेवा ही अधिकांशतः करता है। जनता को डांटना, फटकारना, धमकी देना आदि तो उनके आए दिन का काम है । और पुलिस विभाग के प्रभुओं का हाल तो इससे भी बुरा है। वहाँ तो निर्दोष को भी फंसाने, धमकी देने और मारने-पीटने के काण्ड आए दिन होते रहते हैं । जब तक उनकी जेबें गर्म नहीं की जाती, तब तक कुछ भी काम नहीं करके देते । प्रायः दोनों पक्षों की ओर से घूस लेकर मामले को ठंडा कर देते हैं । आश्वासन दोनों पक्षों को देते रहते हैं । यह है पुलिस विभागीय प्रभुत्व का मद । नेतागण अपने को वोट के समय तो जनता के सेवक कहते हैं किन्तु चुनाव समाप्त होते ही, एम० एल० ए०, एम० पी० या कोई मंत्री पद पर पहुँच गए कि आँखें फेर लेते हैं । फिर उन्हें जनता की कोई परवाह नहीं होती । प्राय: नेतगण जनता को अपने से नीची समझकर उसे भी डांटते-फटकारते रहते हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने स्पष्ट कह दिया था "प्रभुता पाय काहि मद नाही" प्रभुता पाकर किसे मद नहीं होता ? अर्थात् सबको होता है। समर्थ के लिए क्षमा कितनी दुष्कर, कितनो सुकर ? प्रायः यह देखा जाता है कि जो व्यक्ति किसी प्रकार की प्रभुता या शक्ति से सम्पन्न होता है, उसके लिए झटपट अपने पर कंट्रोल करना, कुछ भी प्रतिकार न करना, चुपचाप बैठे रहना अशक्य होता है। उसमें नम्रता, मृदुता, सहिष्णुता, प्रिय For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २१६ वादिता, कृतज्ञता, सौम्यता, प्रशान्ति, उदारता और करुणा आदि सद्गुण सहसा उद्भूत नहीं होते । परन्तु याद रखिए पूजनीय और महान् व्यक्ति वे ही होते हैं, जो क्रोध, उत्तेजना, आवेश, मदान्धता आदि के समय तुरन्त अपने पर नियंत्रण कर लेते हैं । सुप्रसिद्ध नीतिकार भर्तृहरि ने बड़े सुन्दर ढंग से कहा है नम्रत्वेनोन्नमन्तः परगुणकथनैः स्वान् गुणान् ख्यापयन्तः । स्वार्थान् सम्पादयन्तो विततप्रियतरारम्भयत्नाः परार्थे ॥ क्षान्त्यैवाक्ष पक्षाक्षरमुखरमुखान् दुर्मुखान् दूषयन्तः । सन्तः साश्चर्यचर्या जगति बहुमताः कस्य नाभ्यर्चनीयाः || अर्थात् — जो नम्रता से ऊँचे होते हैं, पराये ( गुणियों के ) गुण कहकर अपने गुणों की प्रसिद्धि सहज में कर लेते हैं, दत्तचित्त होकर परोपकार के विस्तृत प्रियतर कार्य में यत्न करते हुए वे अपने हित भी सम्पादन कर लेते हैं । अपने पर आक्ष ेप करने के लिए कठोर शब्द का उपयोग करने वाले दुर्मुख लोगों को वे अपनी क्षमा से ही दूषित कर देते हैं । ऐसे विचित्र चर्यावाले बहुजनमान्य सज्जनगण संसार में किसके पूजनीय नहीं होते ? परन्तु आज संसार में प्राय: रजोगुण का प्रादुर्भाव अधिक होने से लोग थोड़ासा किसी ने कुछ कहा-सुना तो आपे से बाहर हो जाते हैं, क्रुद्ध होकर क्षमा-सहिष्णुता आदि का परित्याग कर देते हैं । थोड़ा-बहुत समर्थ होते ही लोग सर्वप्रथम विनय एवं नम्रता का परित्याग कर देते हैं । विद्या का वैभव पाकर शिक्षित लोग विनीत होना तो दूर रहा, प्रायः अपने गुरुजनों का अपमान करने अपना गौरव समझते हैं । छोटामोटा पद पाकर ऐंठने लगते हैं और रोब दिखाने के लिए बेचैन हो उठते हैं । बहुत-से लोग दूसरों की पगड़ी उछालने में ही अपनी तारीफ समझते हैं । दुर्विनीतता को लोग शूरवीरता और विनम्रता या सहनशीलता को कायरता मानते हैं । में परन्तु याद रखिये समर्थ की क्षमा का जितना प्रभाव दूसरों पर पड़ता है, उतना कठोरता, दुर्विनीतता या क्रोध का नहीं होता । इसीलिए महाभारत में क्षमा की शक्ति को क्रोधादि की शक्ति से अनेक गुना बढ़कर बताया है क्षमा ब्रह्म, क्षमा सत्यं, क्षमा भूतं च भावि च । क्षमा तपः क्षमा शौचं क्षमयेदं धृतं जगत् ॥ क्षमा ब्रह्म है, क्षमा सत्य है, क्षमा भूत और भविष्यत् है । पवित्रता - शुद्धि है | क्षमा ने ही यह जगत् धारण कर रखा है, कभी का प्रलय, अराजकता, आपाधापी एवं संघर्ष फैल जाता, मार-काट मच जाती । दुनिया तबाह हो जाती । जो जरा भी सहन नहीं कर पाता, वह जगत् को कुछ नहीं क्षमा तप है, क्षमा अन्यथा, संसार में दे पाता । प्राकृतिक पदार्थों को देखिये, वे कितनी क्षमा-सहिष्णुता रखकर जगत् को १. नीतिशतक, श्लोक ६० For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ अपनी वस्तु देते हैं। वृक्ष सूर्य का प्रचण्ड ताप तथा कड़कड़ाती ठंड सहन करके तथा फलदार वृक्ष ढेले, पत्थर एवं लकड़ी आदि का प्रहार सह करके भी फल, फूल, छाया, लकड़ी आदि देते हैं । जब प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ इसी प्रकार स्वयं सहकर जगत् को देता है, तब मनुष्य का तो कर्तव्य है कि वह समर्थ होने पर स्वयं सहन कर दूसरों को क्षमा करे तो बहुत कुछ दे सकता है । यह कोई इतना कठिन काम नहीं है कि वह इसे न कर सके। चाहिए स्वयं अपने आप पर नियन्त्रण अरविन्द आश्रम, पांडिचेरी की फ्रेंच माताजी ने अपने जीवन का एक संस्मरण लिखा है, उसमें बताया है कि उत्तरफ्रांस निवासी एक युवक से मेरा परिचय हुआ। वह लड़का मन का तो बहुत सरल था, परन्तु हृदय का बड़ा उग्र था। उसके हृदय में क्रोध का उफान हर समय आने को उद्यत रहता था । एक दिन मैंने उससे कहा-"जरा सोचकर बताओ, तुम जैसे हृष्ट-पुष्ट लड़के के लिए सबसे कठिन कौन-सी बात हैथप्पड़ के बदले थप्पड़ लगाना, या मारने वाले साथी के मुंह पर मुक्का मारना, अथवा ठीक उसी समय मुट्ठी को जेब में डालना ?" वह बोला--'अपनी मुट्ठी को जेब में डालना।" मैं बोली-“अच्छा अब बताओ, तुम जैसे तेजस्वी लड़के के लिए सबसे आसान काम करना उचित है या सबसे कठिन काम ?' एक मिनट सोचकर उसने कहा-"सबसे कठिन काम करना ।" मैंने कहा- "बहुत ठीक ! अबकी बार ऐसा करने का ही प्रयत्न करना।" उसके कुछ ही दिनों बाद वह युवक मेरे पास आया, उसने समुचित गर्व के साथ बताया कि “मैं सबसे कठिन कार्य करने में सफल हो गया हूँ।” मैं-"कैसे ?" वह बोला-'कारखाने में मेरे साथ काम करने वाले युवक ने, जो अपने बुरे स्वभाव के लिए प्रसिद्ध है । क्रोध में आकर मुझे पीटा । चूंकि वह जानता था कि मैं साधारणतया क्षमा नहीं किया करता, मेरी भुजाओं में बल भी है, अतः वह अपनी रक्षा के लिए तैयार हो गया । ठीक उसी समय मुझे जो बात आपने सिखाई थी, याद आ गई । वैसा करना मुझे कठिन लगा, परन्तु मैंने अपनी मुट्ठी जेब में डाल ही ली। जैसे ही मैंने ऐसा किया, मेरा गुस्सा न जाने कहाँ गायब हो गया । उसका स्थान साथी के प्रति दया ने ले लिया। मैंने तब अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया। एक क्षण तो वह मुंह बाए मेरी ओर ताकता रहा, एक शब्द भी न बोल सका; फिर शीघ्रता से मेरे हाथ की ओर लपका, उसे दबाया और पिघलकर बोला-"आज से तुम जो चाहो मुझ से करा सकते हो । मैं अब सदा के लिए तुम्हारा मित्र बन गया हूँ।" - इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो गया कि यह एक मिथ्या भ्रान्ति है कि दवाब से ही दूसरों को वश में किया जा सकता है । 'भय बिनु होई न प्रीत', इस उक्ति को For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २२१ महात्मा गाँधी जैसे महामना समर्थ लोगों ने अपनी क्षमा और सहिष्णुता द्वारा मिथ्या सिद्ध कर दिया है। यदि किसी कारणवश या अज्ञानवश कोई व्यक्ति किसी समर्थ को कटुवचन कहता है, गाली-गलौज करता है, या ताड़ना देता है, फिर भी उसके प्रति क्षमाभाव दर्शाते हुए वह सहन करता है, उससे उसके हृदय में अध्यात्मिक प्रकाश का उदय होता है, और जीवन में सुख, शान्ति और समाधि की मात्रा बढ़ती है । क्षमा की परिभाषा ही यही है 'सत्यपि प्रतीकारं सामर्थ्यऽपकारसहनं क्षमा' "प्रतीकार करने का सामर्थ्य होते हुए भी दूसरे के अपकार को सहन करना क्षमा है।" जिस हृदय में प्रतिहिंसा की, प्रतिशोध की, अथवा हिंसक प्रतिरोध की भावना है, वह व्यक्ति धन, सत्ता, प्रभुता आदि से चाहे जितना समर्थ हो, स्वप्न में भी मानसिक शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता और न ही आध्यात्मिक पथ में आगे बढ़ सकता है । प्रतिहिंसा या प्रतिशोध की भावना से जिसका हृदय क्षुब्ध एवं अस्थिर है, उसमें सच्ची शान्ति कैसे रह सकती है ? ऐसे विकारग्रस्त चित्त में वैरभाव घर कर लेता है, जिसके कारण चित्त की सारी शुभ वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं । प्रतिहिंसा की भावना अन्दर ही अन्दर चित्त को विषाक्त बना देती है। और यह भी सत्य है कि प्रतिहिंसा या प्रतिशोध की शक्ति न होने से अनिच्छापूर्वक आपने सहन कर लिया, किन्तु तन-मन में प्रतिहिसा एवं प्रतिशोध की भावना बनी रही तो, वह क्षमा या सहिष्णुता नहीं होगी, कायरता या निर्बलता ही होगी। इसलिए इस ध्र व सत्य पर अटल विश्वास रखें कि हिंसा को प्रतिहिंसा से नष्ट नहीं किया जा सकता, उसे तो प्रेम, क्षमा एवं सहिष्णुता द्वारा ही जीता जा सकता है। इसलिए वैरभाव, क्रोध, प्रतिहिंसा, प्रतिशोध या हिंसक प्रतिकार आदि सबको आत्मा के महान् शत्र मानकर उनसे अलग रहना चाहिए, तभी दूसरों के हृदय को क्षमा भाव से जीता जा सकता है । एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए--- चित्तौड़ में एक महान् शान्तिप्रिय विनम्र कवि हो गये हैं। वे मूल तो सौराष्ट्र निवासी थे, परन्तु चित्तौड़ में कैसे आगए ? इसके पीछे उनके जीवन की एक प्रबल घटना है । वे दो भाई थे । बड़ा भाई शान्त था, छोटा उग्र। एक बार दोनों भाइयों में किसी तुच्छ बात पर झगड़ा हो गया । बड़े भाई ने छोटे भाई को बहुत समझाया, पर उसने एक न मानी, बल्कि क्रोध में आगबबूला होकर हाथ में लाठी लेकर बड़े भाई को मारने दौड़ा । बड़े भाई को विचार आया कि मैं इसे इतना समझाता हूँ फिर भी समझता नहीं, उलटे मुझे मारने आया है । इसलिए उसे भी गुस्सा आ गया। उसने क्रोधावेश में छोटे भाई के हाथ से लाठी छीन ली और उसी के मारी। छोटा भाई तुरन्त जमीन पर गिर पड़ा और वहीं उसने दम तोड़ दिया। यद्यपि बड़े भाई ने उसके इतनी जोर से लाठी नहीं मारी थी, किन्तु उसका आयु इसी निमित्त पूर्ण होना था। छोटे भाई की इस करुण मृत्यु को देखकर बड़े भाई के For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ | आनन्द प्रवचन : भाग १२ मन में बहुत पश्चात्ताप एवं दुःख हुआ। छोटे भाई को गुजरे ६ महीने हो गए तब भी बड़े भाई के मन से वह अपसोस नहीं गया । लोग भी बराबर कहते रहते थे कि "बड़े भाई ने छोटे भाई के लाठी मारकर प्राण ले लिए।" अतः बड़े भाई के मन में विचार आया-'अगर मैं इस गाँव में रहूँगा तो जिन्दगी भर मुझे लोग सुख से नहीं रहने देंगे, बराबर टोकते और कोसते रहेंगे। फिर छोटे भाई की विधवा पत्नी और उसके छोटेछोटे बच्चों के सामने मुझ से देखा नहीं जाता । इससे बेहतर यही है कि मैं इस गाँव को छोड़कर अन्यत्र कहीं चला जाऊँ ।' यों सोचकर बड़ा भाई सौराष्ट्र छोड़कर अपनी पत्नी और बालकों को लेकर चित्तौड़ आ बसा । चित्तौड़ आकर उसने अपनी काव्य कुशलता और शक्ति से वहाँ की राजसभा में स्थान जमा लिया। कुछ ही अर्से में वह कविरत्न के रूप में वहां प्रसिद्ध हो गया। कवि की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भी पिता से बढ़कर चतुर निकला, वह भी कविरत्न हो गया। सौराष्ट्र का वह कवि-पुत्र राणा का इतना प्रिय एवं सम्मानित व्यक्ति हो गया कि घर से राजसभा में ले जाने के लिए राज्य की ओर से पालकी लेकर राजसेवक आते और वहाँ से उसे घर पहुंचाते। राज्य की ओर से उसके यहाँ नौकर-चाकर और रसोइया नियुक्त किये गये । उसके घर के चारों ओर सरकार की ओर से पहरा रहता। इतने वैभव और प्रभुत्व से सम्पन्न थे ये कविरत्न । उसमें सुन्दर आकर्षक कविता बनाने और साहित्य रचना करने की अद्भुत शक्ति थी। राजा या दरबारी उसकी बात से कभी इन्कार नहीं कर सकते थे । इतना होते हुए भी प्रभुता एवं शक्ति का मद या क्रोधावेश उसमें जरा भी नहीं था। इतना पवित्र, क्षमाशील एवं नम्र कवि था वह । उसके पिता चित्तौड़ में आकर जितने सुखी हुए उसकी अपेक्षा पुत्र सवाया सुखी हुआ। उधर सौराष्ट्र में उसके पिता के द्वारा लाठी के प्रहार से उनका छोटा भाई गुजर गया था, उनके (चाचा के) दो पुत्र थे। वे भी बड़े होकर कवि बने । एक बार दोनों पुत्रों ने अपनी माँ से पूछा- "मां ! हमने सयाने होने के बाद अपने पिताजी नहीं देखे, वे छोटी उम्र में ही कैसे चल बसे ?'' । उनकी मां ने कहा- 'तुम्हारे पिताजी मौत से नहीं मरे, उनके बड़े भाई ने उनके लाठी मारी । मारते ही वे नीचे गिर पड़े और उनके प्राण छूट गये।" यह सुनते ही दोनों पुत्रों का खून उबल पड़ा । कहने लगे- "बस ! अब तो हम पिता की हत्या करने वाले से बदला लेकर ही दम लेंगे । बता वे कहाँ हैं ?" मां बोली-' सुना है वे चित्तौड़ जा बसे हैं। वहाँ बड़े कवि बने हैं।'' यह सुनकर छोटे भाई के दोनों पुत्र चित्तौड़ आए । वहाँ किराये से एक मकान लेकर रहने लगे। कुछ ही अर्से में राजसभा में आ-जाकर वे संगीतकार के रूप में जम गये । यहाँ चाहे जितने कवि या संगीतकार आते, पर राजमान्य कविरत्न की तुलना नहीं कर सकते थे, क्योंकि बुद्धि एवं शक्ति होते हुए भी दूसरों में अभिमान, क्रोध, लोभ आदि विकार होते थे, जबकि कविरत्न में ये सब दुर्गुण न थे । वे निरभिमानी, गंभीर, निर्लोभी एवं ईर्ष्यारहित थे। राज For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २२३ सभा में कोई भी नया कवि आता तो वे उसका प्रेम से स्वागत करते थे। उन्हें पता नहीं था, कि ये दोनों मेरे चचेरे भाई पिता के वैर का बदला लेने आए हैं। उन दोनों ने लोगों से पूछ-ताछ की ये बड़े कवि कौन हैं ? इनके पिता कौन थे ? पता लगा कि हमारे पिताजी को मारने वाले (ताऊ) तो मार गये हैं, पर यह उनका लड़का बड़ा कविरत्न है । बस, इसे चाहे जिस तरह से मार डालना है । वे मारने के उपाय सोचने और खोजने लगे । परन्तु ये कविरत्न तो कभी अकेले नहीं होते, घर जाते और राजसभा में आते सवारी में जाते थे, साथ में सिपाहियों का संगीन पहरा होता था । कैसे मारना ? इसी उधेड़-बुन में पड़ गए दोनों भाई । एक पाक्षिक पर्व का पवित्र दिन था, इसलिए कविरत्न ने कहा---'आज मुझे पालकी नहीं चाहिए, मैं अकेला ही पैदल चला जाऊँगा।" सिपाहियों ने घर तक साथ चलने देने का बहुत आग्रह किया, पर कविरत्न ने साफ इन्कार कर दिया। उन दोनों भाइयों ने देखा-आज अच्छा मौका है। यह अकेला ही घर जा रहा है अतः उसके पीछे दोनों लग गये । गली के नुक्कड़ पर उन्हें घेरकर दोनों बोले-"ठहर जा पापी ! हमारे पिताजी को तेरे बाप ने मार डाला, हम उसका बदला लेने आए हैं। अब तुझे जीवित नहीं जाने देंगे।" दोनों भाई तलवार हाथ में लिए उन्हें मारने को तैयार हो गए। कविरत्न ने उनसे कहा-'भाइयो ! तुम्हारे और मेरे पिताजी की क्या परिस्थिति थी, इसका पता न तो तुम्हें है, न मुझे। हम सब भाई हैं। हमें उस पूर्व के वैर की परम्परा नहीं रखनी है । अगर तुम मुझे मारोगे तो मेरे पुत्र तुम्हारे प्रति वैर रखेंगे । इस प्रकार वैर की परम्परा चलेगी । इसे चलाने की क्या आवश्यकता है ? हम भाई-भाई बनकर प्रेम से रहें। चलो, तुम मेरे घर पर।" परन्तु वैर का बदला लेने के लिए उद्यत चचेरे भाइयों को ऐसी हित-शिक्षा कहाँ सुहाती? वे तो उलटा कहने लगे-"हमें तुम्हारा उपदेश नहीं सुनना है । तेरा बाप हमारे पिताजी को मारकर शाह बनकर यहाँ आ बसा था, अब तू बड़ा ज्ञानी बनकर हमें उपदेश देने लगा है ? बचने के लिए ये सब रास्ते तू खोज रहा है । पर हम तुझे जीता नहीं जाने देंगे।" कविरत्न ने उन्हें वैर वसूल करने की बात छोड़ने के लिए बहुत समझाया फिर भी वे टस से मस न हुए । तब कविरत्न ने कहा-"भाइयो! अगर तुम्हें मुझे मारना ही है तो मैं तुम्हें उपाय बताऊँ । इस समय तुम मुझे मारोगे और कोई तुम्हें देख लेगा तो तुम गिरफ्तार कर लिए जाओगे। आज रात को १० बजे इस नगर के बाहर शंकर के मन्दिर में तलवार लेकर आ जाना। मैं भी वहां आकर खड़ा हो जाऊँगा । तुम खुशी से मुझे मार डालना।" परन्तु वे दोनों कहने लगे- "तू यहाँ से भागने की युक्ति सोच रहा है, हमें ठगना चाहता है, पर हम तुझे जीवित जाने नहीं देंगे।" For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ कविरत्न बोले-भाई ! मैं भागने की नहीं, तुम्हें बचाने की युक्ति कर रहा हूँ। तुम्हारी आत्मा को मुझे मारने से शान्ति मिलती हो, और वैर-परम्परा का विसर्जन होता हो तो मैं अभी मरने को तैयार हूँ। मुझे मरने का डर नहीं है। तुम विश्वास रखो, मैं आज रात को अवश्य शंकर मन्दिर में पहुँच जाऊँगा । वहाँ तुम निर्भयतापूर्वक मुझे मार सकोगे।" वे दोनों बोले- "हमें तेरी बात पर विश्वास तो नहीं है कि तू मरने को आएगा । पर इस समय तेरी पवित्रता की बातों पर विश्वास कर लेते हैं । नहीं आया, तो देख लेना।" घर आकर कविरत्न ने अपनी पत्नी से कहा- "आज एक दिव्य संन्देश सुनाने आया हूँ। मेरे दोनों चचेरे भाई अपने पिता का वैर लेने के लिए आये हैं। आज इस प्रकार बना है । बोलो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? वैर-परम्परा रखनी या रोकनी है ?" पत्नी बोली- "प्राणनाथ ! वैर विष है। हमें किसी के साथ वैर नहीं रखना है।" कविरत्न-"तो तुम्हें मेरा मोह छोड़ना होगा। आज रात को उन्हें दिए गए वचनानुसार मुझे शंकर मन्दिर में जाना है । तुम्हारी अनुमति है न?' पत्नी-"प्राणनाथ ! किस पतिव्रता को अपने पति को मरने के लिए भेजते दुःख न होगा । तथापि आप वैरबीज को जलाने हेतु खुशी से अपना बलिदान दे रहे हैं, इसके लिए मैं सहर्ष अनुमति देती हूँ।" । कविरत्न भी झट-पट तैयारी करके दस बजे से पहले निश्चित स्थान में पहुंच गए । उन दोनों को विश्वास नहीं था कि कवि आ पहुँचेगा, परन्तु फिर भी कौतुकवश दोनों भाई तलवार लेकर वहाँ आ पहुँचे। कविरत्न ने दोनों से कहा-"प्रिय भाइयो ! मैं आ गया हूँ। तुम कहो वैसे खड़ा रहूँ। तुम अपनी तलवार लेकर जल्दी काम निपटाओ और अपनी आत्मा को शान्ति दो।" बन्धुओ ! जरा सोचिए तो सही ! कविरत्न, जो लोकप्रिय और राजप्रिय थे। इन्हें पता लग गया था कि ये दोनों मुझे मारने हेतु आए हैं, चाहते तो राजा के पास खबर भेजकर उन्हें कैद में डलवा सकते थे। परन्तु वे समर्थ थे। उन्होंने वैर-परम्परा को समाप्त करने हेतु शूरवीरता और क्षान्ति अपनाई थी। मौत सामने नाच रही है, फिर भी उनके चहरे पर अद्भुत शान्ति है। वे प्रभु से प्रार्थना करते हैं। फिर नमस्कार महामंत्र के स्मरण में लीन हो जाते हैं। ज्यों ही वे दोनों कविरत्न को मारने के लिए तलवार उठाते हैं, त्यों ही घोड़ों के टाप सुनाई दिये । दोनों भाई घबराए कि कई मनुष्य हमें पकड़ने के लिए घोड़ों पर आ रहे हैं। हमें पकड़ कर मार देंगे। अतः दोनों के हाथ नीचे हुए। गुस्से होकर कविरत्न से कहने लगे-"हमारे साथ तुमने धोखेवाजी की है, अकेले आने का कहा था, पर ये कौन आ रहे हैं ?" । कविरत्न-"मैंने किसी से आने का नहीं कहा । मुझे पता नहीं, ये कौन और क्यों आ रहे हैं ?" For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २२५ इतने में तो दो घोड़े नजदीक आ गए। एक पर कविरत्न की पत्नी बैठकर आई थी, दूसरा खाली था । कविरत्न ने पूछा तो पत्नी ने कहा - " स्वामी ! आप मुझ से इजाजत लेकर यहाँ आए, किन्तु तुरन्त मुझे विचार आया कि मेरे पति तो वैर परम्परा समाप्त करने हेतु बलिदान देंगे, पर मेरे ये दोनों लाड़ले देवर पकड़े जायेंगे । पैदल चलकर कितनी दूर भागेंगे । सबेरे पुजारी को राजा को पता लगते ही वे घोड़े दौड़ाएँगे, आपके हत्यारों को पकड़ने के लिए, मेरे ये देवर पकड़े जाएँगे, राजा इन्हें फाँसी पर चढ़ाएँगे । अत: फिर आपकी और इनकी संतानों के बीच वैर-परम्परा चालू रहेगी, फिर आपके बलिदान का क्या अर्थ ? ऐसा विचार आते ही मैं अति शीघ्र दो घोड़े लेती आई हूँ । ताकि आपको मारने के बाद ये दोनों इन घोड़ों पर चढ़कर खुशी से दूर पहुँच जाएँ, जिससे न तो हमारे लड़कों को पता चले, न राजा को । और मैं आपकी मृतदेह के साथ ही चिता में जलकर समाप्त हो जाऊँ । जीवित रहने से फिर कोई पूछताछ करे तो कदाचित् मुँह से बात निकल पड़े तो महा अनर्थ हो जायगा ।" कविरत्न ने उसे धन्यवाद दिया, उसकी उदारता, बुद्धि एवं सतीत्व की प्रशंसा की । फिर उन दोनों से मारकर जल्दी काम निपटाने को कहा । परन्तु पति-पत्नी का संवाद एवं पवित्र भावना सुनकर दोनों का हृदय परिवर्तन हो गया । दोनों उनकी प्रशंसा करने और स्वयं को धिक्कारने लगे - " आप तो हमें पकड़वाने तथा मारने में भी समर्थ थे, फिर भी वैर की आग शान्त करने हेतु अपना बलिदान देने को तैयार हुए।" उनकी आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी । हाथ की तलवारें फेंक दीं । "भाई-भाभी आप ! दोनों की दीर्घदर्शिता और उदारता को धन्य है । आपने शक्ति एवं प्रभुता होते हुए भी हमें राजा से मृत्युदण्ड न दिलाकर स्वयं क्षमा धारण की । अतः आपको कोटि-कोटि धन्यवाद है ।" यों कहकर दोनों चरणों में गिर पड़े और अपनी तलवारें उठाकर अपनी गर्दन पर फिराने को तैयार हुए । कविरत्न ने तलवार उनके हाथ से लेकर दोनों को प्र ेम से समझाकर शान्त किया। दोनों को समझाकर घर लाए । आश्वासन दिया । राजा से कहकर दोनों को संगीतकार पद पर नियुक्त कराया । बन्धुओ ! समर्थ होते हुए भी कविरत्न की कितनी अद्भुत क्षमा, सहिष्णुता, उदारता और नम्रता थी ! इसी कारण दोनों भाइयों का हृदय परिवर्तन हो गया । यह है समर्थ होते हुए भी क्षमा करने का अद्भुत चमत्कार ! इसीलिए कहा है- 'शक्तौ सहनम् ' - प्रतीकार करने की शक्ति होते हुए भी सहन करना । भरत और बाहुबलि का जब मुष्टियुद्ध प्रारम्भ हुआ। तब सर्वप्रथम भरत ने बाहुबलि पर मुष्टि तानकर जमीन में उतार दिया, परन्तु बाहुबलि तुरन्त धूल खंखेर कर ऊपर आ गए । अब उनकी बारी थी मुष्टियुद्ध की । उन्होंने भारत पर मुष्टि तो तान ली पर फिर विचार आया - मेरी सृष्टि निश्चय ही भाई के प्राण लेकर रहेगी । For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ मैं शक्तिशाली हूँ, इसका अर्थ यह नहीं है कि बड़े भाई पर अजमाऊँ । क्या इससे मेरी जीत हो जाएगी, नहीं-नहीं, यह तो मेरी हार होगी । मुझे शक्ति का प्रयोग दूसरी तरफ करके अपनी इन्द्रियों और मन पर विजय पानी चाहिए। बड़े भाई भरत के प्रति उन्हें करुणा आ गई तुरन्त ही उन्होंने अपनी मुष्टि पंचमुष्टिलोच करने और दीक्षा के लिए मस्तक ' में लगा दी । बाहुबलि अजेय एवं वन्दनीय हो गए क्षमा एवं करुणा की इस धारा में शक्ति को बहाकर । वे मुनि बन गए । कायोत्सर्ग में एकाग्र होने में उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी । सचमुच, बाहुबलि की प्रभुत्व एवं सामर्थ्यशक्ति मुष्टि से भाई पर प्रहार करने में न लगकर पंचमुष्टिलोच करने में लगी । इसे ही कहते हैं— सामर्थ्य होते हुए भी क्षमा करना । क्षमा से आध्यात्मिक जीवन चमक उठता है । साधु-जीवन में जब प्रतीकार सामर्थ्य होते हुए भी क्षमा आ जाती है, तब चार चांद लग जाते हैं । क्षमामूर्ति गजसुकुमार आदि के उदाहरण तो हमारे सामने हैं ही। वर्तमान में भी दरियापुरी सम्प्रदाय के पूज्य श्री भ्रातृचन्द्रजी महाराज के जीवन की एक घटना हैएक बार वे कड़ी के उपाश्रय में विराजमान थे । उस समय उनकी दीक्षा को सिर्फ दस ही वर्ष हुए थे । वहाँ एक लालजी भाई भावसार नाम के दबंग आदमी थे । वैष्णव होते हुए भी प्रतिदिन जैन साधुओं के दर्शनार्थ आते थे । कड़ी के तालाब में मुस्लिम लड़के मछली मारते हों, उस समय यदि लालजी भाई पहुँच जाएँ तो वे डर कर भाग जाते । अतः मुस्लिम लड़कों ने लालजी भाई को अपना दुश्मन मान लिया । लालजी भाई के गुरु होने के कारण पूज्यश्री भ्रातृचन्द्रजी महाराज के प्रति भी उनको द्व ेषभाव जागा । एक दिन पूज्य भ्रातृचन्द्रजी महाराज शौचक्रिया के लिए स्थण्डिल भूमि को जा रहे थे, तभी इन्हें देखकर मुस्लिम लड़कों ने उन्हें घेर लिया और इनकी पीठ पर लकड़ी मारने लगे । महाराजश्री कायोत्सर्ग करके देहाध्यास छोड़कर खड़े रहे । वे सोचने लगे -- ' गुरुदेव ने मुझे क्षमा का पाठ पढ़ाया है, मैं वास्तव में शान्त हूँ या नहीं ? इसकी कसौटी हो रही है ।' वे इस प्रकार चिन्तन में इतने डूब गये कि लकड़ी की कहाँ लगी, इसकी खबर भी न पड़ी । लड़कों ने लकड़ी का इतना प्रहार किया कि वह टूट गई । तब भयभ्रान्त होकर वे भाग गए । मार की असह्य पीड़ा थी, फिर भी पूज्य गुरुदेव शान्ति से सहते रहे, उन्होंने किसी से कहा नहीं, क्योंकि वे जानते थे कि किसी के आगे कहने से फिर मुस्लिम लड़कों को मार पड़ेगी । धर्मरुचि अनगार की आदर्श जीवन गाथा, उनके हृदय में रम रही थी । अतः किसी से न कहकर चुपचाप उपाश्रय में आए, मार के निशानों को उन्होंने वस्त्र से ढक लिया । वे समर्थ थे, चाहते तो हल्ला मचाकर लोगों को इकट्ठा कर सकते थे, श्रावकों से कहकर उन लड़कों को पिटवा सकते थे, परन्तु उन्होंने इसे चुपचाप सहन किया । धन्य है आपकी सहिष्णुता एवं क्षमा को ! For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २२७ विविध प्रभुतासम्पन्न समर्थ लोगों की दुष्कर क्षमाएँ वास्तव में शक्ति, प्रभुता और अधिकार से सम्पन्न समर्थ लोगों के लिए क्षमा एवं सहिष्णुता अतीव दुष्कर-कठिन है; तथापि ऐसे समर्थों की क्षमा अनेकों को उत्तम विचारधारा की प्रेरणा देती है। समर्थ मालिक की नौकर के प्रति क्षमा हुसैन पैगम्बर मोहम्मद के नाती थे। रहने के लिए आलीशान मकान था, उनकी थैलियाँ अशर्फियों से भरी रहती थीं। उन्हें नाराज करना एक धनिक को नाराज करना था । धनिक का क्रोध बड़ा भयंकर होता है। उनके लिए क्षमा करना बहुत ही दुष्कर होता है । एक दिन की बात है एक गुलाम खौलते हुए पानी का बर्तन लिए हुसैन के पास से गुजरा । वे भोजन कर रहे थे। दुर्भाग्य से पानी उछलकर उन पर गिर गया। वे क्रोध से झल्ला उठे। गुलाम घुटने टेककर बैठ गया। उसका मन इतना शान्त एवं स्वस्थ था कि उसे कुरान की आयत याद आ गई–'स्वर्ग उन लोगों के लिए है, जो अपने क्रोध को वश में रखते हैं।' हुसैन ने कहा- "मैं क्रोधित नहीं हूँ, मैंने आयत के शब्दों का अर्थ समझ लिया है।" गुलाम ने आगे कहा-"और स्वर्ग उन लोगों के लिए है, जो मनुष्यों को क्षमा करते हैं।" हुसैन-“मैं तुझे क्षमा करता हूँ।" गुलाम ने अन्त में कहा-"क्योंकि खुदा रहमदिल (दयालु) व्यक्तियों को प्यार करता है।" इस बातचीत के समाप्त होते-होते हुसैन का सारा गुस्सा काफूर हो गया। उन्होंने अनुभव किया कि उनका हृदय अत्यन्त कोमल हो उठा है । गुलाम को उठाते हुए उन्होंने कहा-'ले ये ४०० दिनार, आज से तू स्वतन्त्र है।" इस प्रकार हुसैन ने अपने उतावले आवेशयुक्त मन पर सहसा लगाम लगानी सीखी। प्रभुत्वसम्पन्न राजा को क्षमा राजा लोग समर्थ एवं प्रभुत्वसम्पन्न होते हैं। पर जो उदार एवं विचारक राजा होता है, वह अपने प्रति प्रहार करने वाले पर भी सहसा गर्म नहीं होता, न घोर दण्ड देता है । पाश्चात्य विचारक थौमसन (Thomson) ने ठीक ही कहा है "It is easier for the generous to forgive than for the offender to ask forgiveness." अपराधी के लिए क्षमा मांगना उतना आसान नहीं है, जितना कि एक उदार व्यक्ति के लिए क्षमा करना । महाराजा रणजीतसिंह प्रातःकाल वायुसेवनार्थ जंगल की ओर जा रहे थे, For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ प्रकृति की लीला का अवलोकन करते-करते । तभी उनके सिर पर एक पत्थर आकर लगा, खून बहने लगा। वे आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगे कि पत्थर क्यों और किसने फेंका है ? अंगरक्षक अपराधी को खोजने के लिए दौड़े और शीघ्र ही एक अधेड़ महिला को पकड़कर लाए, जिसकी गोद में बच्चा था, जो भूखा प्रतीत हो रहा था। महिला काँप रही थी कि पता नहीं कितनी सजा मिलेगी ? आश्वासन देकर पूछा-'बताओ बहन ! पत्थर क्यों फेंका था ?" उसने रोते हुए कहा- "मैं विधवा हूँ। केवल मजदूरी पर गुजर करती हूँ। कल काम नहीं मिला। बच्चा भूखा था, इसकी भूख मिटाने हेतु पत्थर मारकर जामुन तोड़ रही थी कि पत्थर जामुन के न लगकर आपको लग गया । मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ।" महाराजा गम्भीर विचार में पड़े। जेब से एक हजार रुपये निकाल कर विधवा के हाथ में दिये । और न उपालम्भ दिया न कठोर दण्ड, केवल क्षमादान दिया। विधवा अन्तर् से आशीर्वाद देती हुई चली गई। यह था एक समर्थ राजा का क्रोधावेश के प्रसंग पर क्षमा का उदार आदर्श । सचमुच क्षमा जब अन्तर् में आती है तो सामने वाले व्यक्ति की दुरवस्था, करुण स्थिति आदि पर भी विचारने को प्रेरित करती है, करुणा, सहृदयता आदि भाव उमड़ आते हैं। समर्थ पति की पत्नी के प्रति क्षमा जो पति पुरुषत्व के मद से आक्रान्त होता है, वह अपनी पत्नी को जरा-सी गलती पर क्षमा करने को तैयार नहीं होता । लेकिन जो पति और पत्नी का समान हक मानते हैं, एक-दूसरे के प्रति उदार होते हैं, अपने जीवन का निर्माण भी पत्नी के निमित्त से मानते हैं, वे पत्नी पर क्रोध के प्रसंग पर भी क्रोध नहीं करते, क्षमाशील रहते हैं। ___ एक बार सुकरात की पत्नी ने गुस्से में आकर उनका कोट फाड़ डाला । मगर वे शान्त रहे और पूर्ववत् मुस्कराते रहे । उन्होंने क्रोध के प्रसंग पर भी क्रोध न किया। उनका एक मित्र, जो उनसे मिलने आया था, यह सब देखकर बोला- "आपने इनसे कुछ कहा क्यों नहीं ?" सुकरात बोले-"जैसे सईस बिगडैल घोड़े को साधता है, वैसे ही मैं भी इसे सुधारने की कोशिश करता हूँ। दूसरे, इसकी बदमिजाजी झेलकर दुनिया का दुर्व्यवहार सहना सीखता हूँ।" वास्तव में प्रत्येक पति अपना पुरुषत्व शक्ति का मद छोड़कर पत्नी के व्यवहारों को क्षमा करता जाए, तो आधी दुनिया सुधर सकती है । मनुष्य की अपनी शक्ति क्रोध, आवेश और कलह में न लगकर आध्यात्मिक पुरुषार्थ में लग सकती है। शक्तिशाली लोग बाह्य शत्रुओं को जीतने का प्रयत्न करते हैं, वैसे ही आभ्यन्तर शत्र ओं-काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर आदि को जीतने का प्रयत्न करें तो उन्हें सहस्र मल्ल की तरह शाश्वत विजय प्राप्त हो सकती है। सहस्रमल्ल पहले कनथरथ राजा के For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर : २२६ शत्रु कालसेन को जीवित ही बाँध लाया था। मुनि बन जाने के बाद वह सबके प्रति अभयदानी एवं क्षमाशील होकर विचरण कर रहा था, तभी कालसेन ने उसे देखा तो पूर्ववैर स्मरण करके उस पर टूट पड़ा । यद्यपि सहस्रमल्ल मुनि उसे जीतने में समर्थ थे किन्तु समभावपूर्वक उसका प्रहार सहन किया। बन्धुओ ! इस प्रकार जो सामर्थ्यशाली है, यद्यपि उसके लिए क्षमा दुष्कर है, तथापि उसे अपने क्षेत्र में क्षमाशील बनना चाहिए । यही महर्षि गौतम का परामर्श है "पहुस्स खंती""सुदुक्करा।" समर्थ व्यक्ति के लिए क्षमा कठिन है, पर शोभाजनक है। 00 For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं जीवन की चार सुदुष्कर वस्तुओं में से तृतीय सुदुष्कर वस्तु के सम्बन्ध में प्रकाश डालूगा । महर्षि गौतम ने तृतीय सुदुष्कर वस्तु बताई है-सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध । गौतमकुलक का यह ८०वाँ जीवनसूत्र है। इसका शब्दात्मक रूप इस प्रकार है "इच्छा निरोहो य सुहोइयस्स" जो सुखोपभोगी है, उसके लिए इच्छानिरोध दुष्कर है। सुखोपभोगी कौन ? इच्छाओं का निरोध सुखसम्पन्नता में क्यों दुष्कर है ? इत्यादि पहलुओं पर आपके समक्ष चिन्तन प्रस्तुत करना चाहता हूँ, ताकि आप इस जीवनसूत्र को भली-भांति हृदयंगम कर सकें। सुखोपभोगी कौन और कैसे ? प्रश्न होता है, प्रस्तुत जीवनसूत्र में किस सुख से सम्पन्न का निरूपण है ? वैसे सुख दो प्रकार के होते हैं; एक होता है-इन्द्रियविषयक सुख और दूसरा होता है-आत्मिक सुख । जो आत्मिक सुख से सम्पन्न है, उसके लिए इच्छाओं का निरोध कोई कठिन नहीं है, किन्तु जो अभी तक इन्द्रियविषयक सुखों से सम्पन्न है, रातदिन इन्द्रिय-विषय सुखों के उपभोग में, सुख-सुविधाओं में निमग्न है, विविध रागरंग, आमोद-प्रमोद आदि में मशगूल है, उसी व्यक्ति को लेकर यहां कहा गया है कि ऐसे सुखोपभोगी के लिए इच्छाओं का निरोध करना अति दुष्कर है। निष्कर्ष यह है कि जो सांसारिक सुखों में निमग्न है, उसके लिए सुखाभिलाषाओं या विविध इच्छाओं को रोकना अतीव दुष्कर है। सांसारिक सुखों के मुख्य स्रोत सर्वसाधारण लोग सांसारिक सुखों के मुख्यतया छह स्रोत मानते हैं-(१) स्वास्थ्य (२) धन (३) यश (४) पद (५) संतान (६) पंचेन्द्रिय विषय । ये सांसारिक सुखों के मुख्यतः ६ स्रोत माने जाते हैं। एक कहावत प्रसिद्ध है'पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया।' सर्वप्रथम सुखोपभोग के लिए स्वस्थ शरीर का होना आवश्यक है । जिसका शरीर रुग्ण रहता हो, खाया-पीया भी ठीक तरह से हजम न होता हो, टी० बी०, कैंसर, डायबिटिज, रक्तचाप, दमा या हृदय रोग आदि दुःसाध्य व्याधि से पीड़ित रहता हो, वह व्यक्ति इन्द्रिय-विषयों का उपभोग भी क्या व कैसे कर सकता है ? यदि उसके समक्ष सुख-साधनों का ढेर भी For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २३१ लगा हो तो किस काम का ? बीमार आदमी के सामने खाने-पीने के अच्छे-अच्छे पदार्थ रखे हों, पहनने के बढ़िया से बढ़िया वस्त्राभूषण हों, तो भी क्या वह उनका उपभोग कर सकता है, उसकी रुचि उन पदार्थों में कैसे जगेगी ? इसी प्रकार किसी व्यक्ति के पास धन और सुखोपभोग के प्रचुर साधन हैं, किन्तु उसके परिवार में आए दिन गृहकलह, संघर्ष और तू-तू मैं-मैं होता रहता है, या वह किसी प्रकार की चिन्ता, शोक, खतरा, भय, अपमान, बदनामी आदि से पीड़ित है । समाज में जगह-जगह उस पर चख-चख हो रही है, तो वह धन या सुखोपभोग के वे साधन उसे किसी भी प्रकार से सुख नहीं दे सकेंगे। किसी के पास धन भी प्रचुर मात्रा में है, सुखोपभोग के साधन भी हैं, लेकिन उसके कोई पुत्र नहीं है, तब भी वह धन या साधन उसे काटने को दौड़ेगा, उसके मन में सुख-शान्ति का अनुभव नहीं होगा। इसी प्रकार सब कुछ साधन होते हुए भी बचपन में ही माता-पिता का वियोग हो गया, या बुढ़ापे में पुत्र वियोग हो गया, अथवा जो पद या अधिकार उसे मिलना चाहिए था, वह दूसरे को मिल गया, या किसी परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया, व्यापार में घाटा लग गया, व्यवसाय ठप्प हो गया ऐसी स्थिति में मनःकल्पित सुख दूरातिदूर होता जाएगा। इसलिए सांसारिक सुखों का उपभोक्ता वही सच्चे माने में माना जा सकता है, जिसका शरीर स्वस्थ हो, धन भी पर्याप्त हो, चरित्र एवं नैतिक जीवन उज्ज्वल होने से यश भी प्रचुर मात्रा में फैला हुआ हो, कोई पद भी हो, संतान भी हों तथा पंचेन्द्रिय-विषयों का उपभोग करने की शक्ति, परिस्थिति और योग्यता हो। ऐसा व्यक्ति भी तभी सुखोपचित माना जा सकता है, जब वह किसी प्रकार के शोक, चिन्ता, भय, अपमान, बदनामी और संकट से ग्रस्त न हो। सुखोपभोगी कितना सुखसम्पन्न, कितना नहीं? इस प्रकार का सुखोपभोगी उपर्युक्त सुख के सभी स्रोतों से युक्त हो, ऐसा प्रायः नहीं होता । संसार में ऐसे व्यक्ति प्रायः विरले ही मिलते हैं, जो सभी सांसारिक सुखों से ओतप्रोत हों। इसका कारण यह है, कि जो लोग सुखसम्पन्न होते हैं, वे प्रायः धर्मसंस्कार छोड़ बैठते हैं, धर्माचरण से हट जाते हैं, नाना कुव्यसनों में फंस जाते हैं, अनाचार या हीनाचार से युक्त हो जाते हैं, जिसका प्रतिफल उन्हें दुःख और विपत्ति के रूप में भोगना पड़ता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। असंयम बरतने पर कोई न कोई रोग-महारोग आ घेरता है । कटुवचन बोलने से शत्र ता, अप्रियता बढ़ती है, धन के अपव्यय से दरिद्रता आती है, नशैली वस्तुओं के दुर्व्यसन से तन, मन, बुद्धि और धन का ह्रास होता है, आलस्य और अकर्मण्यता में पड़े रहने से मनुष्य अतिभोगीविलासी बन जाता है । अतिलोभवश बेईमानी, छल-कपट, ठगी और धोखेबाजी से संग्रह किया हुआ धन अनेक विपत्तियों और चिन्ताओं का कारण बनता है। For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ बहुत से लोग तात्कालिक लाभ को देखते हैं, वे लुभावने प्रेय माग को सुखकारक समझकर झट-पट अपना लेते हैं, पर उसका परिणाम दुःख और शोक के रूप में ही प्रायः भोगना पड़ता है । बचपन से अपनी सन्तान को जो मोहवश अत्यधिक लाड़-प्यार में रखते हैं, निरंकुश एवं स्वच्छन्द बनने देते हैं, उनके पुत्र बड़े होकर प्रायः स्वच्छन्द अनाचार का सेवन करने लग जाते हैं, वे माता-पिता को भी कष्ट देते हैं, अविनीत बन जाते हैं, सारी सम्पत्ति दुर्व्यसनों में उड़ा देते हैं, उद्दण्ड हो जाते हैं, आवारा फिरते हैं, ज्यादा कहने-सुनने पर घर से भाग जाते हैं, अभिभावकों का सारा सुख स्वाहा हो जाता है। इसी प्रकार सुख के सभी स्रोत प्रायः दुःखों से आक्रान्त हो जाते हैं । वशिष्ठ स्मृति में ठीक ही कहा है दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च ॥ दुराचारी या अनाचारी पुरुष की लोक में सर्वत्र निन्दा होती है, वह पद-पद पर दुःखभागी बनता है, रोगग्रस्त रहता है और अल्पायु हो जाता है। आचारभ्रष्ट होने पर व्यक्ति चाहे कितना हो धन-साधन-सम्पन्न हो, सुखी नहीं रह सकता। वह अदूरदर्शितावश तात्कालिक क्षणिक मनःकल्पित सुख देने वाली वस्तुओं को अपनाता है, परन्तु उसका परिणाम मृत्यु, व्याधि, चिन्ता, पीड़ा और विपत्ति के रूप में भोगना पड़ता है। जैसे मछली आटे की गोली के लोभ में अपने प्राण गँवा बैठती है, वैसे ही सांसारिक सुखों के काल्पनिक लोभ में पड़कर लोग अपनी इन्द्रियाँ क्षीण कर बैठते हैं, जवानी में ही बुढ़ापा आ घेरता है, मद्य-मांस, व्यभिचार, जुआ आदि कुव्यसनों को अपनाकर धन को फूंक देते हैं ; अकाल में ही काल कवलित हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने आप को सुखी कैसे कह सकते या मान सकते हैं ? स्वयं ही दुःख में पड़ता है मनुष्य जान-बूझकर ऐसे दुःखों को बुलाता है, अथवा दुःखों के कारणों को सुखकारक समझकर अपनाता है, परिणाम दुःखरूप आता है। नीतिकार ठीक ही कहते हैं व्रजत्यधः प्रयात्युच्चैर्नरः स्वरेव चेष्टितः। अधः कूपस्य खनक ऊवं प्रासादकारकः ।। मनुष्य अपनी ही चेष्टाओं से-प्रवृत्तियों से नीचे जाता है और अपने ही प्रयत्नों से ऊपर उठता है, जैसे कुए को खोदने वाला नीचे ही नीचे उतरता जाता है, और महल बनाने वाला ऊपर-ऊपर की ओर चढ़ता जाता है। सचमुच मानव भी प्रायः अपने ही हाथों से अपना पतन और उत्थान करता है । आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने स्पष्ट कहा है For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २३३ दुक्खे केण कडे ? समणाउसो, दुक्ख सएण कडे' दुःख किसने किया है ? दुःखकर्ता और दूसरा कोई नहीं है, यह जितना भी दुःख है, वह स्वयं प्राणी का किया हुआ है। किन्तु अज्ञानी मनुष्य चाहे कितना ही धन और साधनों से लदा हो चाहे कितने ही सुखोपभोग के साधन-सुविधाओं से भरा-पूरा हो, वह अपने ही गलत विचारों एवं विपरीत दृष्टिकोण के कारण दुःखी होता रहता है। कई बार मनुष्य दूसरों की उन्नति देखकर या दूसरे की प्रसिद्धि होती देख कर कुढ़ता-जलता रहता है । वह ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध आदि के कारण स्वतः दुःखी होता रहता है। कई बार दूसरों के पास अपने से अधिक धन या आमोद-प्रमोद के साधन देखकर चिन्तित एवं दुःखित होता रहता है । वास्तविक सुखोपभोगी सम्पदाओं से नहीं, विभूतियों से ___ सम्पदाएँ दूसरों को प्रभावित करती हैं, पर अपने पर भार बनकर लदी रहती हैं । धन, वैभव, पद, बड़प्पन आदि सम्पदाओं को देखकर दूसरे लोग अनुमान लगा लेते हैं कि यह व्यक्ति बड़ा सुखी है, पर असल में बात ऐसी होती नहीं है। जिस प्रकार कोल्हू के बैल को चलते देखकर यह अनुमान लगा लिया जाए कि यह तेल पीता होगा, खली खाता होगा और तेल के व्यापार से लाभ उठाता होगा पर यह मान्यता सही नहीं होती इसी प्रकार अँधेरी रात में जंगली वृक्ष हाथी जैसा लगता है, पर पास में जाने पर यह भ्रान्ति दूर हो जाती है, उसी प्रकार सम्पदाएँ दूर से चमकती तो खूब हैं, पर कोई वहाँ चला जाय तो चन्द्रमा वायु, जल, एवं जीवन से रहित एक निष्प्राण नीरव पिण्ड-सा दृष्टिगोचर होगा ; इसी प्रकार दूर से चमकने वाली संगृहीत सम्पदा बहुधा समीपवतियों में ईर्ष्या, द्वष उत्पन्न करती है । जैसे मधुमक्खी के छत्त पर न जाने कितनों का दाँव लगा रहता है, वैसे ही संगृहीत सम्पदा पर घात न लगे तो भी शत्रु तो प्रायः बन ही जाते हैं, ठग पीछे पड़े रहते हैं, उसकी रक्षा बड़ी कठिन होती है। फिर उस सम्पदा के साथ विवेक न हो तो मनुष्य को वह मदोन्मत्त, अहंकारी, कुव्यसनी और विलासी बनाकर पतन के गर्त में धकेल देती है। इसके विपरीत विभूतियाँ दूसरों को सहसा दिखाई नहीं पड़तीं, वे चमकती नहों, पर स्वयं के जीवन में आनन्द, सुख-शान्ति और उल्लास भर देती हैं। वे विभूतियाँ हैं आन्तरिक सद्गुण । असली सम्पदाएँ यही हैं। ये विभूतियाँ जहाँ भी होंगी, व्यक्ति के जीवन में श्रेष्ठता का समावेश करेंगी, सम्मान और सहयोग तथा मैत्री का क्षेत्र बढ़ायेंगी। प्रशंसकों की कमी न रहेगी। इसका कारण यह है कि सच्चरित्रता और प्रामाणिकता के आधार पर ही विश्वास प्राप्त किया जाता है और विश्वासी को समाज में अपनाया जाता है, महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपे जाते हैं और सहयोग दिया जाता है। For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ इस प्रकार की न्यायोपार्जित सम्पदा चाहे थोड़ी ही हो, वह विभूतियुक्त होने से सुख-शान्ति और संतोष पैदा करती है, इसके विपरीत येन-केन-प्रकारेण सम्पदा एकत्रित करने से अनेक दुःख, विपदाएँ और संकट उपस्थित होते हैं । अतः सदाचार और सद्गुणों की विभूति से युक्त मनुष्य निर्भय, निर्द्वन्द्व और निर्दोष रहता है, पाप-ताप भी उसके पास फटकते नहीं। अतः विभूतिसम्पन्न आजीविका से चाहे धन इकट्ठा न हो, प्रचुर भोग-साधनों का संग्रह न हो, पर उसे इतना सन्तोष और आन्तरिक सुख मिलता है, जितना अन्याय-अनीति से उपार्जित विपुल सम्पदा के स्वामी को स्वप्न में भी नहीं मिल सकता । इसलिए आँखें मूंदकर सम्पदाओं के पीछे भागने और उनके लिए लालायित रहने की अपेक्षा विभूतियों का महत्त्व समझना चाहिए । जहाँ विभूतियाँ होंगी, वहाँ सम्पदाएँ अनायास ही प्राप्त हो जाएंगी। ___आज अमेरिका जैसे धनाढ्य देशों में सम्पदाएँ धन के रूप में प्रचुर मात्रा में हैं, परन्तु वहाँ सुख-शान्ति नहीं, नींद नहीं आती, चिन्ता और बेचैनी रहती है । मन की शान्ति के लिए वे गोलियाँ सेवन करते हैं । कई माताएँ भी वहाँ बालकों को शान्त रखने के लिए इन गोलियों का उपयोग करती हैं । इस अशान्ति का मूल कारण यह है कि अमेरिकन लोगों के पास सम्पदाएँ तो हैं, परन्तु विभूतियों की कमी है। अगर सम्पदा के साथ विभूति हो तो वहाँ भी सुख-शान्ति, सन्तोष, तृप्ति आदि की प्रतीति हो सकती है । पर वे लोग काल्पनिक सुख के पीछे पड़कर ज्यों-ज्यों सुखोपभोग के कल्पित साधनों की प्रतिस्पर्धा में पड़ते हैं, त्यों-त्यों उनका दुःख, अशान्ति और बेचैनी बढ़ती जाती है । परन्तु क्या किया जाए ? वहाँ सामाजिक प्रगति का मापदण्ड ही नये-नये वैज्ञानिक साधन जुटाने, औद्योगिक प्रगति करने और तेजी से समृद्धि बढ़ाने को ही मान लिया गया है । सुविधाएँ बढ़ाने से सुख नहीं बढ़ जाता, सुख-शान्ति के लिए केवल बाह्य पदार्थों का ढेर ही पर्याप्त नहीं है, उसके लिए हर सम्भव सद्गुण, सद्विचार और सदाचार की विभूतियों को अपनाना अनिवार्य है। सुख-शान्ति का ताला बाह्य सम्पदाओं की चाबी से नहीं खुलता। ___ एक मनुष्य सुख के मन्दिर का ताला खोलने निकला। उसे किसी महात्मा ने बताया "कि सुख-मन्दिर खुलते ही सुख के दर्शन हो जाएँगे । लो, ये चाबियाँ, सुखमन्दिर के ताले को खोलने के लिए । तुम्हें पसंद हो उस चाबी को लगाकर देखना । १२ घंटे का समय दिया जाता है।" ___ वह व्यक्ति सुखमन्दिर की जो चाबियाँ लेकर आया था, उन पर अलग-अलग नाम लिखे थे। किसी पर लिखा था धन, किसी पर वैभव, किसी पर यश-कीर्ति, किसी पर पद-प्रतिष्ठा और किसी पर महत्वाकाँक्षा तथा एक चाबी पर लिखा था-सद्धर्माचरण । उस मनुष्य ने सबसे पहले 'धन' वाली चाबी उठाई और लगा ताला खोलने। उसने लोगों को देखा कि 'जिसके पास प्रचुर धन होता है, वही सुखसम्पन्न हो जाता है । इसलिए 'धन' ही सुखमन्दिर की चाबी है । उसी से सुख मन्दिर का द्वार खुलेगा।' पर उसने लगातार For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २३५ दो घंटे तक धन की चाबी घुमाई पर सुखमन्दिर का ताला न खुला । उसने सोचा शायद वैभव की चाबी से सुखमन्दिर का ताला खुले । क्योंकि धन तो नष्ट हो जाता है, पर मकान, वस्त्रादि तथा अन्य ठाट-बाट रहते हैं, अतः सुख की चाबी 'वैभव' हो, उसने वैभव की चाबी उठाई और ताला खोलने लगा, पर दो घंटे तक मेहनत करने के बाबजूद भी उससे ताला न खुला । उसने दूसरी चाबियाँ देखीं, तो एक चाबी पर लिखा था-यश-कीति । उसने सोचा-मनुष्य के पास धन व वैभव तो नष्ट हो जाता है, लेकिन यश-कीर्ति तो चिरस्थायी रहती है, शायद इससे सुख मन्दिर का ताला खुल जाए। अतः उसने यश-कीर्ति वाली चाबी उठाकर घुमाई । तीन घंटे वह उस चाबी को इधर से उधर घुमाता रहा, मगर सुखमन्दिर का ताला न खुला। उसके मस्तिष्क में विचार स्फुरित हुआ कि यह भी सुख की चाबी नहीं है । 'महत्वाकांक्षा' ही सुख की चाबी है, क्योंकि महत्वाकांक्षाओं, बड़ी-बड़ी आकांक्षाओं एवं इच्छाओं से मन को तृप्ति होती है । अतः उसने वही चाबी उठाई और घुमाने लगा। लगातार तीन घंटे तक बहुत प्रयत्न किया मगर सुखमन्दिर का ताला खोलने में सफलता न मिली। फिर उसने उसने, 'पद-प्रतिष्ठा' वाली चाबी उठाई और लगातार दो घंटे तक उसे घुमाता रहा, मगर सफलता न मिली, सुखमन्दिर का ताला खोलने में, बारह घंटों में से सिर्फ ४-५ मिनट बाकी रहे, वह घबराया। तभी उसे एक अन्तिम चाबी दिखाई दी, जिस पर लिखा था-'सद्धर्माचरण' । सोचा–सद्धर्म का आचरण करने वाले प्रत्यक्ष सुखी तो दिखाई नहीं देते, उनके पास न तो पूरे वस्त्र रहते हैं, न बढ़िया खाने-पीने की वस्तुएँ होती हैं, वे तो सादगी और गरीबी में जीवन व्यतीत करते हैं, इनमें क्या सुख होता होगा? फिर भी उसे यह विश्वास था कि महात्मा ने उसे चाबियां दी हैं, तो इनमें से जरूर एक चाबी तो लगनी ही चाहिए । अतः उसने वह 'सद्धर्माचरण' की अन्तिम चाबी लगाई, उससे ताला तो खुल गया, पर सुखमन्दिर के द्वार न खुल सके, क्योंकि समय पूरा हो चुका था । अतः सुखमन्दिर की झांकी होते-होते रह गई । सुख उसे मिल न सका। यह एक रूपक है। इस पर से समझना चाहिए कि मनुष्य सुख-प्राप्ति के लिए जिन्दगी भर दौड़-धूप करता है, वह धन, वैभव, यश-कीर्ति, महत्वाकांक्षा और पद-प्रतिष्ठा आदि सम्पदाओं की चाबियां लगाता रहता है, परन्तु सुखमन्दिर का असली द्वार नहीं खुलता । १२ घण्टे के समान अधिक से अधिक १२० वर्ष की जिन्दगी है। अन्तिम समय में जब थोड़े-से मिनट रह जाते हैं, तब उसे सूझता है कि अब धर्माचरण कर लें, ताकि यहाँ जो सुख नहीं मिला, वह अगले जन्म में मिल जाएगा। परन्तु उस ४-५ मिनट की धमा-चौकड़ी में वह कुछ भी धर्माचरण नहीं कर पाता। कदाचित् २-४ घण्टे भी मिल जाएं, तब भी बुढ़ापे में शरीर और मन दोनों हारे-थके, जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, अतः धर्माचरण में मन कहां लगता है ? For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ इसीलिए मैं कह रहा था कि सम्पदाओं के साथ सद्विचार, सदाचार और सद्गुणों (सद्धर्म) की विभूतियाँ हों, तभी मनुष्य को सच्ची सुख-शान्ति मिल सकती है । __सुखोपभोग में बाधक वस्तुएँ एक बात खास तौर से विचारणीय यह है कि जब तक सुखोपभोग में बाधक वस्तुओं का विवेकपूर्वक त्याग नहीं किया जाएगा, तब तक सुख-सुविधा के लिए कल्पित वस्तुओं का ढेर भले ही हो जाए, सुख का समुचित उपभोग नहीं हो सकेगा। सुखोपभोग में विशेषतया बाधक वस्तुएँ ये हैं (१) अवांछनीय अभिवृद्धि, (२) अनुपयुक्त आकांक्षाएँ, और (३) निरंकुश भोगवाद । हम क्रमशः इन पर विचार करेंगे १. अवांछनीय अभिवृद्धि-धन, साधन आदि की अभिवृद्धि के लिए सामान्यतया सभी लोग इच्छुक रहते हैं, परन्तु यह ध्यान नहीं रखा जाता कि अभिवृद्धि किस सीमा तक हो । अभिवृद्धि जब सीमातिक्रमण कर जाती है, तब वही अभिवृद्धि चिन्ता, दुःख, आफत और समस्या बन जाती है । नदियों और तालाबों में पानी अत्यधिक बढ़ जाने पर वह दोनों तटों या पालों को लाँघकर जब बाढ़ का रूप ले लेता है तो गाँवके गाँव तबाह कर देता है, वह प्रलयंकर बना हुआ जल लाभ के बजाय धन, जन और साधनों की अपार क्षति कर देता है । नौका में पानी बढ़ जाए तो वह उसे ले डूबता है, इसी तरह घर में भी पानी बढ़ जाए तो घर की सभी वस्तुओं को सड़ा देता है। शरीर में चर्बी बढ़ जाने से जो स्थूलता आती है, वह आँखों को भले ही सम्पन्नता का चिन्ह लगे, मोटा आदमी तोंद बढ़ जाने के कारण भले ही अपनी समृद्धि और सम्पन्नता की शेखी बघारे, पर यह बढ़ा हुआ भार प्रत्येक दृष्टि से असुविधा ही उत्पन्न करता है । सूजन आ जाने से किसी अग की स्थूलता बढ़ सकती है, पर उससे किसी को कोई सुविधा या प्रसन्नता नहीं हो सकती। इसी प्रकार आज येन-केन-प्रकारेण सुख-सुविधा के कल्पित साधनोंधन, यश, वैभव, सामग्री आदि भौतिक साधनों की वृद्धि के लिए होड़ लगी हुई है, इससे सम्पन्नता बढ़ी है, यह कहा जाता है, पर इस पर से यह नहीं कहा जा सकता कि इससे सुख-शान्ति, सन्तोष या प्रसन्नता बढ़ी है। परन्तु अवांछनीय तरीकों से तथा सीमातिक्रमण करके हुई अभिवृद्धि जीवन में असन्तुलन पैदा करती है। इस अभिवृद्धि की तुलना में वह सामान्य स्थिति ही अच्छी थी, जिसमें असन्तुलन उत्पन्न होने की आशंका तो नहीं थी। उदाहरणार्थ-मस्तिष्क पर चिन्ताओं का भार बढ़ने की बात को यहाँ छोड़ दें तो भी मस्तिष्क (खोपड़ी) के भीतर भरे हुए पदार्थ के भार और विस्तार दोनों में ही आज अभिवृद्धि हो रही है। मस्तिष्कीय भार की इस अभिवृद्धि के कारण लाभ नहीं For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छा निरोध दुष्कर : २३७ हो रहा है, वरन् हानि ही सहनी पड़ रही है। यह वृद्धि वैसी ही है, जैसी कुसंस्कारों की या अनैतिकता से उपार्जित सम्पदा दुष्टताओं और दुर्गुणों को बढ़ाने का निमित्त बनती है। हाल ही में ब्रिटिश चिकित्सकों ने तथा 'लन्दन इन्स्टीट्यूट ऑफ सायकिल्ट्री' के प्रोफेसर कोर्सेलिस एवं डॉ. एच. मिलर ने अपनी प्रामाणिक शोध द्वारा यह सिद्ध किया है कि "मानवीय मस्तिष्क का वजन निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है और उसी अनुपात में मस्तिष्कीय क्षमता का निरन्तर ह्रास भी होता जा रहा है। इसी अनुपात में स्नायविक रोगों की संख्या तथा आत्म-हत्या करने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है।' इन वैज्ञानिकों के मतानुसार भार एवं आयतन का सीधा सम्बन्ध है। मस्तिष्कीय भार के अनुपात में आयतन भी बढ़ा है। इसी कारण मानसिक अशान्ति, दिमाग में तनाव, तथा हृदय रोग एवं स्नायविक रोगों की वृद्धि हम प्रत्यक्ष देखते हैं। ऐसा लगता है कि भौतिक सुख-सम्पदाओं की तलाश में मनुष्य के मस्तिष्क पर अधिक बोझ पड़ गया है। __ आज से सौ वर्ष पहले के मानव अपनी सीमाओं में सुरक्षित थे, शान्तिपूर्ण जीवन जीते थे तथा उनमें पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। आज का मानव 'अशान्त है, प्रतिद्वन्द्वी है, मनोविकार व तनाव से ग्रस्त है । प्रतिद्वन्द्विता, उत्तेजना तथा उलझनों के कारण मानव मस्तिष्क पर भार पड़ा, इससे वह भावनात्मक धरातल पर कमजोर पड़ गया है। कमजोर मस्तिष्क उसकी निर्णय शक्ति का साथ नहीं दे पाता, तब वह मानसिक सुषुप्ति के लिए दवाओं का सहारा लेता है । विक्षिप्त व्यक्ति समाज के लिए घातक, बोझ तथा मृत व्यक्ति के समान होता है। मस्तिष्कीय उत्कृष्टता पर मानव की सच्ची सुख-शान्ति, समृद्धि एवं आत्मिक उन्नति का सारा ढाँचा खड़ा है। परन्तु उससे उपयोगी प्रयोजन तभी सध सकते हैं, जब मस्तिष्क अपनी स्वाभाविक एवं सन्तुलित अवस्था में बना रहे। अत्यधिक मात्रा में काम लेने से मस्तिष्क की दुर्गति होती है, वह सन्तुलित नहीं रहता। आजकल जो चिन्ता, भय, निराशा, द्वेष, लोभ-लालसा जैसे मनोविकारों का अनावश्यक दवाब पड़ रहा है, उसका प्रधान कारण मस्तिष्कीय भार वृद्धि है । जैसे मस्तिष्कीय भारवृद्धि प्रत्यक्षतः अतीव हानिकारक हो रही है, वैसे ही केवल धन, वैभव, भोग-सामग्री आदि साधनों में वृद्धि भी हानिकारक सिद्ध हो रही है । इसलिए अवांछनीय अभिवृद्धि वास्तविक सुखोपभोग के लिए अत्यन्त घातक है। २. अनुपयुक्त आकांक्षाएँ-सुखोपभोग में दूसरा बाधक तत्व है-अनुपयुक्त आकांक्षाएँ । अनुपयुक्त आकांक्षाएँ क्यों और कब पैदा होती हैं ? यह भी जान लेना आवश्यक है । मनुष्य जब दूसरों की तुलना में अपने आपको दीन-हीन समझता है, तब उसमें ईर्ष्या और हीनता के भाव पैदा होते हैं । मानसिक असन्तोष या सन्ताप भी इसी अभाव की भावना से उत्पन्न होता है। इसके कारण प्रतिक्षण घुटन, रोष, क्षोभ For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ और तनाव का भी वह अनुभव करता है। इस असन्तोष से कुण्ठा, कुढ़न एवं विषाद के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगता। फिर आशा, उत्साह और कार्य करने की क्षमता ही नष्ट हो जाती है। जैसे-तैसे बिना मनोयोग के किया हुआ कार्य जीवन को सरस, सुख-सम्पन्न और सन्तुष्ट नहीं बना सकता। इस मानसिक असन्तोषरूपी व्याधि का मूल कारण वे अनुपयुक्त आकांक्षाएँ ही हैं। ___ अनुपयुक्त आकांक्षाओं से मनुष्य अनावश्यक प्रतिस्पर्धा-प्रतियोगिता पालता है । दूसरों से होड़ लगाकर आगे बढ़ता है। अनुपयुक्त आकांक्षाओं से पल्ले क्या पड़ता है ? सिर्फ असन्तोष, अशान्ति और आर्तध्यान ही तो! परन्तु आज के भौतिक संघर्षपूर्ण जीवन में अधिकांश व्यक्ति इसी प्रकार के अनावश्यक फैशन, प्रदर्शन, विलास व सुख-सुविधाओं की वस्तुओं तथा खर्चीली कुप्रथाओं की प्रतिस्पर्धा में लगे हैं। इन सबकी जननी अनुपयुक्त आकांक्षा है। जीवन के हर क्षेत्र में मितव्ययिता, सादगी, सज्जनता, नैतिकता, व्यसनमुक्तता, परोपकार आदि सद्गुणों की स्वस्थ प्रतियोगिता हो तो वह मनुष्य की सुख-शान्ति, आत्मिक उन्नति और संतोष बढ़ाने में सहायक होती है। परन्तु ऐसी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा श्रेष्ठ आकांक्षाओं के कारण होती है। ___ यद्यपि आकांक्षाओं के महत्त्व से इन्कार नहीं किया जा सकता किन्तु उनका औचित्यपूर्ण होना आवश्यक है। यदि व्यर्थ की अनुपयुक्त आकांक्षाएँ मन में उदित हुई तो वे जीवन को असन्तोष आदि दुर्गुणों की आग से भर देंगी। श्रेष्ठ आकांक्षाएँ जहाँ मनुष्य को महान् बनाती है, उसके जीवन में सुख, शान्ति और संतोष भरती हैं, वहाँ विकृत एवं निकृष्ट अनुपयुक्त आकांक्षाएँ उसे दुःख, दारिद्रय, असन्तोष एवं अशान्ति के नरक में धकेल देती हैं। श्रेष्ठ आकांक्षाओं से समाज, राष्ट्र एवं विश्व का हित सम्पादित होता है, जबकि दूषित निकृष्ट आकांक्षाओं से समाज, परिवार, राष्ट्र एवं विश्व का अहित ही होता है, व्यक्तिगत जीवन में भी अशान्ति और क्लेशादि ही बढ़ते हैं । श्रेष्ठ आकांक्षाओं से प्रेरित व्यक्ति अपने जीवन में उन चीजों को स्थान नहीं देते, जिनसे समाज का अहित होता हो । उनकी सारी योग्यता समय, धन, साधन एवं शक्ति तथा क्षमता अपनी तथा परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की श्रेष्ठता की अभिवृद्धि में लगी रहती है, वे अपनी क्षमताओं एवं शक्तियों का दुरुपयोग इन्द्रिय-भोगलिप्सा की पूर्ति में नहीं करते। वे अपनी शारीरिक-मानसिक शक्तियों का उपयोग श्रेष्ठता के अभिवर्द्धन में करते हैं । दूषित एवं अनावश्यक आकांक्षाएँ निकृष्ट एवं हेय मानी गईं हैं । वे मनुष्य को झूठी शान-शौकत बढ़ाने, कुव्यसनों में लगे रहने, राग-रंग, विलास, अपव्यय एवं भारी प्रदर्शन में जुटे रहने को प्रेरित करती हैं। ऐसी थोथी महत्त्वाकांक्षाएँ जब मनुष्य के मन में भड़कती हैं, तो वे उसकी व्यक्तिवादी अहम्मन्यता को बढ़ाती हैं। मनुष्य प्रतिस्पर्धी बनकर दूसरों से अधिक For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २३६ ऊँचा उठने और आगे बढ़ने की होड़ लगाता है । ऐसी मनःस्थिति वाले व्यक्ति में अपने को ही अधिक साधन-सम्पन्न और अधिक सुखोपभोग करने में समर्थ बनाने की चेष्टा पनपती है। ऐसे व्यक्ति में प्रायः अपराधी मनोवृत्तियां घर कर जाती हैं। जल्दी सफलता न मिलने पर निराशा छा जाती है और असफलता मिलने पर तो उसकी स्थिति छत से उठाकर खाई में पटक देने जैसी हो जाती है। अनुचित महत्वाकांक्षाओं की आँधी उसे दूर तक उड़ा ले जाती है। व्यक्तिगत भावी सफलता की रंगीन कल्पनाएँ उसमें तीखी आकुलता पैदा कर देती हैं, जो असंतोष के झूले में झुलाती रहती हैं। जब असंतोषजन्य प्रतिस्पर्धा की तृप्ति हेतु मनुष्य व्यक्तिगत अनुपयुक्त महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में जुट जाता है, उससे सामाजिक दृष्टि से एक बड़ी हानि है-व्यक्तिगत सुख-साधन बढ़ाने, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बटोरने की। इस ज्वर से पीड़ित व्यक्ति दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपने सुख-साधनों को छोड़ने को प्रायः तैयार नहीं होता। उसे तो दूसरों से आगे बढ़ना है, ऊंचा उठना है-सफल साधन-सम्पन्न होना है, इसके लिए अपनी सारी शक्ति झौंकना भी कम पड़ता है। ऐसे व्यक्ति समाजसेवा के लिए कुछ कर नहीं सकते। उनकी तथाकथित समाज-सेवा है-सस्ती वाहवाही लूटकर जनसम्मान और जनसहयोग को खींचना और उससे लाभान्वित होकर अपनी अनुचित महत्त्वाकांक्षा पूरी करना। प्रसिद्धि प्राप्त करने के क्रम में वे किसी प्रकार की सेवा, सहायता नहीं कर सकते, क्योंकि सेवा, सहयोग या सहायता देने में तो अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को दबाना पड़ता है। वर्गविद्वष उत्पन्न करने वाले अनैतिक तत्त्वों के मूल में चन्द लोगों की महत्त्वाकांक्षाएँ ही उद्धत होती दिखाई देती हैं। ऐसे महत्त्वाकांक्षी लोग सवर्णों-असवर्णों, धनी-निर्धनों, नर-नारियों, शिक्षितोंअशिक्षितों को लड़ाकर वर्ग-विद्वष पैदा करके अपना उल्लू सीधा करते हैं, झूठी प्रतिष्ठा की भूख मिटाते हैं, और एक प्रबल वर्ग से दूसरे निर्बल वर्ग का शोषण कराते हैं । इस दावानल को सुलगाने से न तो व्यक्ति को सम्पन्नता का सुख मिलता है, न ही समाज को। शोषकों ने अपनी आत्मा गँवाई, शोषितों ने सुविधा। दोनों ही घाटे में रहे। इससे धर्मोन्माद, साम्प्रदायिक वैमनस्य, उद्धत राष्ट्रवाद, जातीय या वर्गीय हिंसक संघर्ष ही प्रायः पनपता है । हिटलर, चंगेजखाँ, नादिरशाह, सिकन्दर आदि की वैयक्तिक विकृत महत्त्वाकांक्षाओं ने दूसरों का रक्त पिया, शोषण किया और उन पर आसुरी अट्टहास किया । इसलिए अनुपयुक्त एवं दूषित महत्त्वाकांक्षाएं सुखोपभोग में बहुत बड़ी बाधक हैं। ३. निरंकुश भोगवाद-सुखोपभोग में तीसरी बाधक वस्तु है-निरंकुश भोगवाद । निरंकुश भोगवाद का अर्थ है-जिसके खाने-पीने, पहनने, धन रखने, मकान रखने, आदि पर कोई नियन्त्रण नहीं है । क्या सुनना, क्या नहीं सुनना ? क्या बोलना, For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ क्या नहीं बोलना, कितना बोलना? क्या देखना, क्या नहीं देखना ? क्या खाना, क्या नहीं खाना, कितना खाना, कब खाना ? कितना, कहाँ, कब सोना, कितना, कहाँ और कब न सोना ? कहाँ बैठना, कितना बैठना, कब तक बैठना और कहां, कितना और कब तक न बैटना ? कहाँ, कैसे और कब जाना, कब, कैसे और कहाँ न जाना ? किस के साथ, कैसे, कब तक रहना, किसके साथ, क्यों और कब तक न रहना ? इत्यादि क्रियाओं-प्रवृत्तियों पर कोई अंकुश नहीं है, विवेक नहीं है, किसी बात का नियम नहीं है, कोई भी विचार नहीं है। पशु की तरह स्वच्छन्द है अथवा राक्षसों या बर्बर लोगों की तरह कोई आचार-विचार नहीं है । इसी प्रकार चाहे जिस वस्तु का, चाहे जब, चाहे जैसी स्थिति में स्वच्छन्द उपभोग करना निरंकुश भोगवाद है । मनुष्य मर्यादाशील होने पर ही पारिवारिक, सामाजिक या नागरिक बन सका है, परन्तु जो मनुष्य परिवार, समाज, राष्ट्र या प्रान्त अथवा ग्राम-नगर की मर्यादाओं का पालन नहीं करता, वह न तो पारिवारिक है, न सामाजिक और न ही नागरिक । अगर वह किसी परिवार, समाज, राष्ट्र या ग्राम-नगर में सुख-शान्तिपूर्वक रहना चाहता है, तो परिवार समाज, राष्ट्र या ग्राम-नगर के नियम, कानून, विधि-विधान आदि मर्यादाओं का पूर्णतया पालन करना होगा, तभी वह उस परिवार, समाज, राष्ट्र या ग्राम-नगर का सदस्य हो सकेगा। आप भी जिस धर्म-सम्प्रदाय के हैं, अगर आप उस धर्म-सम्प्रदाय के मौलिक नियम-मर्यादाओं का पालन नहीं करते हैं तो आपको लोग उस धर्म के अनुयायी कहने से हिचकिचाएँगे । परन्तु इन धर्म-मर्यादाओं, विधि-विधानों, नियमों या व्यवहारों का किसी भी तरह से जो पालन करना नहीं चाहता वह निरंकुश भोगवादी है, स्वच्छन्दी है, शास्त्रीय भाषा में अविरति है। ऐसा अविरत आत्मा प्रायः असंतोषी होता है । वह चाहे जब, चाहे जो चीज खाने-पीने को तैयार हो जाता है, किसी भी निषिद्ध वस्तु से परहेज नहीं करता है । अग्नि की तरह सर्वभक्षी है । ऐसा निरंकुश भोगवादी मनुष्य भी अपनो इच्छाओं पर कोई नियन्त्रण नहीं कर पाता। ऐसा असन्तुष्ट एवं विषयलोलुप व्यक्ति स्वस्थ, सन्तुष्ट, प्रसन्न एवं हृष्टपुष्ट नहीं रहता । इस विषय में एक उदाहरण लीजिए 'प्रवर' पुरिमताल नगर का क्षत्रिय पुत्र था । वह नगर में अस्तव्यस्त और फटेहाल होकर भिखारी की तरह घूमता फिरता था। उसके किसी भी चीज का कोई व्रत, नियम या प्रत्याख्यान नहीं था। जो मन में आया खाया, जो मन में आया पिया, पहना, जब और जहाँ मन में आया सो गया, असभ्य और स्वच्छन्द था, अविरति था । सर्वभक्षी था, जो हाथ में आया खा जाता था। खाने-पीने पर कोई अंकुश न रहने से उसे अजीर्ण हो गया और धीर-धीरे उसके शरीर में कोढ़ फूट निकला। उसे कोढ़ी जानकर लोग उसे फटकारने-धिक्कारने और दुरदुराने लगे, इससे घबराकर वह नगर के बाहर निकल गया। वहाँ घूमते-घूमते एक जगह उसे प्रशान्त एवं भव्य For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २४१ तपस्वी मुनि दिखाई दिये । उसने निकट जाकर दर्शन किये । वन्दन करके सविनय पूछने लगा "भगवन् ! मुझे यह कुष्टरोग किस कारण से हुआ ? यह रोग कैसे मिटेगा ?" इस पर मुनि ने कहा-"भद्र ! जो अविरति-आत्मा होता है, वह सदा असन्तुष्ट रहता है । वह किसी वस्तु का उपभोग न करे तो भी उसे विरति का लाभ नहीं मिलता । जैसे कोई व्यक्ति साहूकार से ब्याज पर धन लाकर अपने व्यापार में न लगाए, घर में यों ही रखदे, तो भी उसे उसका ब्याज तो देना ही पड़ता है । अतः जब जीव हिंसा आदि से विरति करता है, तभी उसे विरति का लाभ मिलता है। "जैसे एकेन्द्रिय जीव कोई पाप नहीं करता, परन्तु पापों से विरति किये बिना उसके अठारह ही पाप (पापस्थानक) लगते रहते हैं, वैसे ही तुमने भी अविरति के कारण जहाँ गए, वहाँ जिस समय जो भी मिला खाया; न रात देखा, न दिन; इस कारण तुम्हें अजीर्ण हुआ और उसकी प्रबलता के कारण कोढ़ हुआ। यह रोग तभी मिट सकता है जब तुम पापों से विरति करो और चारों ही आहार का सेवन परिमाणपूर्वक करो । इसी से तुम्हारा कल्याण भी होगा।" प्रवर ने गुरुदेव के वचन शिरोधार्य किये और इस प्रकार नियम लिया''आज से आजीवन मैं एक ही अन्न, एक ही विगय और एक ही साग लूंगा, और अचित्त पानी पीऊँगा।" गुरुदेव ने कहा-"जिस प्रकार का तुमने संकल्प किया है, उसी रूप में पालन करना, पालन का ही सबसे बड़ा लाभ है।" गुरु के वचनों को स्वीकार करके वह अपने स्थान पर आया। पूर्वोक्त नियम का पालन करने से वह स्वस्थ हो गया । इससे उसे धर्म पर दृढ़ श्रद्धा हुई। धर्मपूर्वक निष्पापवृत्ति से व्यापार करने लगा । धर्म के प्रताप से उसने करोड़ों रुपये कमाए । निरंकुश भोगवाद पर उसने पूरा नियंत्रण कर लिया । स्वयं ने जो नियम लिया था, उसे कभी खण्डित नहीं किया । अत्यन्त सुख-सुविधाओं से सम्पन्न होने पर भी उसने अपनी इच्छाओं का निरोध रखा । अपने नियमानुसार भोजन करते हुए वह सुपात्रों तथा दीनों-अनाथों को यथायोग्य दान देने में तत्पर रहता था। एक बार भयंकर दुष्काल पड़ा, तब उसने एक लाख मुनिवरों को निर्दोष चतुर्विध आहार का दान दिया । सार्मिकों को उसने गुप्तदान देकर उन्हें धर्म में स्थिर किया। इस प्रकार आजीवन वह दृढ़वती रहा, जिसके परिणामस्वरूप वह सौधर्म देवलोक में इन्द्र का महर्द्धिक सामानिक देव हुआ। __बन्धुओ ! इस उदाहरण से स्पष्ट समझा जा सकता है कि निरंकुश भोगवाद सुखोपभोग में कितना बाधक होता है, और उस अतिदुष्कर भोगवाद का त्याग करके अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण करने से मनुष्य सुखों से कितना सम्पन्न हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ जिसके जीवन में निरंकुश भोगवाद पनपता है, उसमें अन्तःकरण की आस्तिकता, सद्भावशीलता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, सदाशयता एवं संस्कारसम्पन्नता आदि आस्थाएँ लगभग समाप्त हो जाती हैं । फलतः ऐसे व्यक्ति के जीवन में अपराधी प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती हैं । साथ ही भय, आशंका, अविश्वास, घृणा और लोभ की अधिकता भी प्रचुर मात्रा में घर कर जाती है । अतिशय निरंकुश भोगवादी दृष्टिकोण ही नैतिक एवं नागरिक मर्यादाओं का अतिक्रमण तथा मानवीय संवेदनशीलता के नितान्त अभाव, स्तरहीनता, परपीड़न, असहकार आदि अवांछनीयताओं के लिए जिम्मेवार है । ऐसे अनास्थावादी लोग ही अपराधी बनते हैं, गुंडागर्दी अपनाते हैं, और हत्या, बलात्कार, चोरी, ठगी, जेबकटी जैसे नृशंस क्रूरकर्म करने से नहीं चूकते । ऐसे निरंकुश भोगवादी दृष्टिकोण वाले लोग सांस्कृतिक गतिविधियों का अर्थ भी नाच-गान, कामोत्त ेजन और अश्लील सस्ते मनोरंजन तक ही करते हैं । भोग की निरंकुश भूख और मनमानी उछल-कूद को ही जिस समाज में स्वाभाविक मान लिया गया हो, वहाँ हिंसा, क्रूरता तथा अन्य अपराध भी अवश्यम्भावी हैं । कहने को तो निरंकुश भोगवादी यों कह देते हैं कि धर्म, नीति या अध्यात्म से कोई धन, साधन, सामग्री या सुविधाएँ तो मिलती नहीं, फिर इन्हें अपनाने से और अपनी इच्छाओं या मन पर नियन्त्रण करने से क्या लाभ? उन्हें स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि अध्यात्म, नीति तथा धर्म के अन्तर्गत त्याग, तप, व्रत, नियम- प्रत्याख्यान एवं संयम से भौतिक धन नहीं, किन्तु उससे भी बढ़कर आत्मशान्ति, आत्मसन्तोष, वास्तविक आनन्द मिलेगा; तथा धन से, कोरे धन से जिस सुख-शान्ति की आशा रखी जाती है, वह नहीं मिलती, जबकि अध्यात्म, धर्म आदि से वह अवश्य मिलती है । अराजकता, असामाजिकता की चपेट से कोरा धन बचा नहीं रह पाता, परन्तु धर्म, अध्यात्म आदि द्वारा धन का इनसे संरक्षण हो जाता है । अतः धन के संरक्षण एवं सदुपयोग के लिए धर्म, अध्यात्म आदि आवश्यक हैं । निष्कर्ष यह है कि अवांछनीय अभिवृद्धि, अनुपयुक्त आकांक्षाएँ और निरंकुश भोगवाद, ये तीनों ही वास्तविक सुखोपभोग में प्रबल बाधक हैं । इच्छाओं का निरोध कितना सुकर, कितना दुष्कर ? यह निश्चित है कि सुखोपभोग में मुख्य बाधक इन तीनों चीजों का जन्म इच्छाओं से होता है, क्योंकि आवश्यकताओं के आधार पर मनुष्य के मूल्यांकन और महत्त्व का विश्लेषण किया जाए तो पेट भर खाना, तन ढकने भर कपड़ा और रहने को आरामदेह हवादार मकान मिल जाए तो इसके बाद उसकी कोई जरूरत नहीं रहती । विचारशील मनुष्य के लिए शिक्षा और मनोरंजन भी जोड़े जा सकते हैं । परन्तु ये दोनों बौद्धिक विकास पर निर्भर हैं। क्योंकि शिक्षा जहाँ मनुष्य के बौद्धिक विकास और मानसिक For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २४३ शिक्षण से सम्बन्धित है, वहाँ मनोरंजन इन विशिष्ट चेतनाओं को विश्राम देने एवं सुख प्राप्त कराने के लिए होता है। यह सब सिद्ध करता है कि मनुष्य इच्छाओं का पुतला है और आकांक्षाएँ उसका जीवन हैं । इच्छाओं और आकांक्षाओं के चक्कों पर ही मनुष्य-जीवन की गाड़ी दौड़ती है परन्तु इच्छाएँ किस स्तर की हैं इस पर से ही व्यक्ति की कार्य-पद्धति, विचारों और व्यवहारों से पता लग जाता है । कुछ ऐसी मोटी कसौटियाँ भी हैं जिनसे मनुष्य की इच्छाओं का निर्णय किया जा सकता है । जैसे व्यभिचारी और कामुक व्यक्ति की आँखों से निर्लज्जता टपकती रहती है, चोर, डाकू और बदमाशों के चेहरे पर एक नृशंस डरावनपन छाया रहता है, सदाचारी, सौम्य और सज्जन स्वभाव के व्यक्तियों की मुखाकृति बता देती है कि यह व्यक्ति सात्विक स्वभाव का है, विचारयुक्त और गम्भीर मुंह कह देता है कि यह व्यक्ति विद्वान् और विचारशील है। ____ इसलिए यह सत्य है कि इच्छाओं के विभिन्न स्तर हैं। छोटे स्तर के प्राणी शरीर-सुख तक अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ सीमित रखते हैं । इन्द्रिय-चेतना तक में सीमित जीव पेट और प्रजनन का यानी इन्द्रिय-लिप्सा अथवा शारीरिक सुविधा भर की बात सोचता है, उसी का तानबाना बुनता है । वह वैसे साधन मिलने पर सुखी और न मिलने पर दु:खी होता है। इससे ऊँचा स्तर मनश्चेतना की प्रधानता का होता है। इसमें अहंता प्रबल होती है । दूसरों की तुलना में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिए अनेक योजनाएँ बनाता है । यश पाने और अपनी वरिष्ठता सिद्ध करने के लिए लोग कितने ही प्रकार की प्रतिस्पर्धाओं में उतरते हैं, कितने ही प्रकार के प्रदर्शन करते हैं, अमीरों के ठाठ-बाट बनाते और अपनी ओर लोगों को आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं। संसार की आधी हलचलें शारीरिक सुख के लिए और आधी बड़प्पन पाने की अभिलाषा से प्रेरित होती हैं। ऐसे स्तर के लोग अपनी प्रतिभा, योग्यता, अमीरी, पदवी आदि के सहारे ही अपना बड़प्पन सिद्ध नहीं करते, वरन्, गुण्डागर्दी जैसी आततायी आक्रमणकारी गतिविधियाँ अपनाने में यही वृति विकृत बनकर काम करती है । डाकू भी बहुधा हीरो कुनने की ललक से ग्रस्त पाये जाते हैं। धन से बढ़कर लोगों के मन में चर्चा का विषय बक्ते की इच्छा प्रबल होती है। धर्माडम्बर, स्मारक निर्माण, फैशन, ठाठ-बाट, शृंगारिकता आदि के पीछे भी यही यशलोलुपता ही मुख्यतया काम करती है। ___ मनुष्य की स्थल चेतना में पहले शरीर और बाद में मन आता है । इच्छाओं के ये दोनों स्तर प्रधानतया भौतिक हैं । इसलिए इनकी अभिलाषाएँ भी ऐसी हैं, जो भौतिक पदार्थों की सहायता से तृप्त हो सकें। इन्द्रिय-सुख प्रिय पदार्थों से मिलते हैं। कामवासनाजन्य सुख भी साथी की शारीरिक स्थिति की अपेक्षा रखता है । इस प्रकार के लाभों को वासना कहते हैं, जो For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : yarashtr ghi friepteg BY: आवनय प्रवचन भागोही FAFETFE IF या FEST केवल कामवासना ही नहीं, शरीर के इन्द्रिय समूह से विनोद, मनोरंजन एवं आराम विश्राम के सभी साधनों से जुड़ी रहती है। दूसरी बड़प्पना की इच्छी तृष्णा कहलाती है। मानवीय चेतना की ये दोनों इच्छाकीय परत भौतिक हैं । तीसरा स्तर है जिसमें अध्यात्म की पृष्ठभूमि प्रधान है । इसमें दो तरह की इच्छाएँ उठती हैं-एक उत्कृष्टता की, दूसरी आदर्शवादिता की । व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय सद्गुणसम्पन्न बनाना तथा उसे परमार्थ प्रयोजन के लिए उदारताभरी सेवासाधना में संलग्न रखना ही इस इच्छा पूर्ति के दो मार्ग हैं। मोक्ष-प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर रत्नत्रय की साधना करना तथा कल्याण के लिए अपने मन-वचन-काया को प्रस्तुत कर देना- ये दोनों उत्कृष्ट इच्छाएं अथवा आकांक्षाएं भी आगे चलकर सर्वोच्च स्तरीय साधक में लुप्त हो जाती हैं । सहज भाव से यह सब स्व-परकल्याण साधना होती रहती है । इच्छा के तीन प्रकार के स्तरों में से तीसरे प्रकार के स्तर वाले के लिए इच्छानिरोध करना कोई कठिन नहीं है । वह व्यक्ति इन भौतिक इच्छाओं को इतना महत्व नहीं देता; क्योंकि वह भली-भांति जान लेता है कि जहाँ तक व्यक्तिगत उपभोग का सम्बन्ध है, एक बहुत छोटी मात्रा में ही धन, वैभव, यश आदि भौतिक सम्पदाओं को काम में लाया जा सकता है । थोड़े से आहार से पेट भर जाता है, पहनने के लिए थोड़ा सा कपड़ा पर्याप्त है, रहने के लिए एक सादा-सा छोटा मकान मिल गया तो बहुत है, थोड़े से अन्य आवश्यक साधनों की जरूरत रहती है । उनकी पूर्ति अपनी आजीविका के अंश से हो जाती है । यश, प्रतिष्ठा आदि के लिए कोई पैसा या साधन खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती। मनुष्य के अच्छे आचार-विचार , अच्छा व्यवहार या अच्छे कार्य ही उस के यश की दुन्दुभि बजा देते हैं । अतः इन थोड़ी-सी मूलभूत आवश्यकताओं और उपभोग की नगण्य क्षमताओं के अतिरिक्त जो भी इच्छाएँ हैं वे लोभ, मोह आदि की सनक पूरी करने के लिए हैं, जो किसी भण्डार में जमा पड़ी रहती हैं। जो लोग प्रथम दो स्तर की इच्छा वाले होते हैं, वे दूरदर्शी नहीं होते। यदि लोभ, मोह, ममता और कृपणता से ग्रस्त होकर व्यक्ति इन भौतिक सम्पदाओं का संग्रह ही करता चला जाता है, तो उसका सदुपयोग होना कठिन है। मरने के बाद उस हराम के धन और साधनों के पाने के लिए कुटुम्बियों और सम्बन्धियों में प्रायः परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, कलह भड़कता है । यह मुफ्त का माल जिसके हाथ लगता है, वह प्रायः उसे व्यसनों में फक देता है। अतः बुद्धिमत्ता धनादि का संग्रह करने में नहीं, उससे इच्छाएं बढ़ती ही जाएंगी, बुद्धिमत्ता इसी में है कि उनका सदुपयोग हो । पूर्वपुण्यवश उपार्जित सम्पदाओं का जो ठीक तरह से उपभोग कर लेता है, और सिर्फ पूर्वोक्त दोनों भौतिक स्तर की इच्छाओं वाला है, उसके लिए इच्छाओं का निरोध अतीव दुष्कर हो जाता है । वह यही सोचता है कि इन सांसारिक सुखों का उपभोग जितना कर सकू, कर लेना चाहिए। इसे समझाने के लिए कुछ ही वर्षों पूर्व 'कल्याण' में पढ़ी हुए एक घटना देना पर्याप्त होगा For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध बुष्कर : २४५ लगभग ६० वर्ष पहले की बात है । झेलम नदी के तट पर बसे हुए खुशाबनगर (सरगोधा जिला ) से नगाड़े HE के सर्वोच्च सरकारी पदाधिकारी तहसीलदार दीवान मदनगोपाल शैदा रहते थे, जो देशविख्यात वजीराबाद के दीवान परिवार में दीवान ठाकुर दास के पुत्र थे । उनके घर में धन-सम्पत्ति की कोई कमी न था, वे केवल सम्मान-प्रतिष्ठा के लिए सरकारी नौकरी करते थे । धन था, यौवन था, प्रभुता थी और इस पर रसिक तथा कवि भी थे। चार-चार घोड़े रखते थे, जिन्हें विलायती बिस्कुट खिलाया करते थे । रईसी ठाठ-बाट से रहते थे । सुसरानी से इन्हें विशेष क्लायती ह्विस्की की वेदियों का इनके यहाँ गोदाम था । ऐसी स्थिति में में ही सब करते थे जो ऐसे रईस लग किया करते हैं ि . ra | ज्येष्ठ कामही था इतनी कर पाती कि दिन के ि बजे बाद धूप और के मारे कोईघर से बाहर नहीं निकलता श्री मदनगोपाल शैदा थे । झेलमनदी की कोमल बालू बिछी हुई सोचा गया था। खिड़की और दरवाज़ों पर खसखस के हदूदे लगे लम्बा झाला पंखा लटक रहा था, जिसको एक व्यक्ति खींच रहा था । एक, तडा पलंग डाला हुआ था, जिस पर कोमल, सफेद विना इस पर डीवान साहब आराम कर रहे थे । द्वार पर, द्वारपाल बैठा था, ताकि कोई बिना आज्ञा के भीतर न घुस सके। PS एक बाड़े से कमरे में थी, जिसे यंत्र जल से हुए थे । छत से एक är inre ige IPIN ऐसे सुखोपभोग में निमग्न व्यक्ति के लिए अपनी इच्छाओं को रोकना, PI5 PPE PHIE FERLI TUPPE 17 THFP SF FESTE FIRE दुर्व्यसनों एवं अनावश्यक खर्चों को छोड़ना कितना दुष्कर था, यह आप अंदाजा लगा Ti सकते हैं । IF APP-FSE THE PEDER & BEN RIFTS FIFUL FIN उन्हें पर इस जलती दोपहरी में एक गौरवर्ण दीर्घकाय भव्याकृति, तेजस्वी काषायवस्त्रधारी संन्यासी, खस-खस का पर्दा उठाकर भीतर प्रदेश किया देखकर दीवान साहब उठे । उन्होंने संन्यासीजी को नमस्कार किया और चौकी पर Samajik #FE आदर सहित बिठाया । फिर पूछा - "कहिए महाराजजी ! क्या आज्ञा है' TSF VIK महात्माजी ने उत्तर दि 我 दिया आपसे एक भिक्षा माँगने आया हूँ, देने का # STEP-YIFT PE TE वचन दें तो कहूँ" Fre CMMIRR IPPIN कि त दीवान साहब ने कहा पहले आप बताएँ, तभी वचन दिया जा सकता है - हो सकता है, जो वस्तु आप मांगें, वह मेरे पास हो ही नहीं । और यदि हो तो भी उसको देकर मैं जिन्दगीभर पछताता रहूँ ।" + की सकेंगे देने P महात्माजी ने कहा—“वही वस्तु माँगूँगा जो आप दे सकरी और जिस दिन सिआप कोई कष्ट भी नहीं होम"..... कोण' इसपेरा दीवाना साहब मे देवे को वचन दे दिया महात्माजीनेशन् 14 आपकी सबसे प्रिय वस्तु कौन सी है ?" दबाजी में उत्तर दिया कि 15 शराब | MP IF TEBIE? For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ महात्माजी ने कहा - " बस तो, इसी का मुझे दान कर दो ।" दीवान साहब सच्चे क्षत्रिय थे, वचन के पक्के थे । वे अविलम्ब बोले" अच्छी बात है, महाराज ! दान कर दी ।" - " अब आपके पास जितनी शराब है, वह अब मेरी हो महात्माजी ने कहागई, उसे मुझे सौंप दो ।" उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी । ह्विस्की के बक्सों पर बक्से लगे, महात्माजी बोतलें फोड़ने लगे । ह्विस्की की नाली बहने लगी । कहा—'बस, अब अमाप्त हो गई ।' तब महात्माजी ने कहा- "कुछ कपट हुआ है । अस्तु, यह तो मेरी भिक्षा श्री, अब मैं आप को आज्ञा देता हूँ कि भविष्य में कभी सुरा - सुन्दरी को मुँह न लगाना ।" आने लगे, खुलने जब सेवकों ने यह आज्ञा देकर महात्माजी ने खसखस का पर्दा उठाया और बाहर चले गये । महात्माजी के इस वचन से 'कि कुछ कपट हुआ है दीवान साहब घबराए और सेवकों से पूछा - "क्या तुम लोगों ने कुछ शराब छिपा ली है ?" सेवक बोले - "सरकार ! केवल एक बक्सा रहने दिया है, क्योंकि आप रात को माँगते तो कहाँ से आता ? लाहौर के अतिरिक्त कहीं मिलता नहीं ।" खुलवाया और जितनी बोतलें थीं, अपने हाथ को हाथ तक नहीं लगाया । दीवान साहब ने वह बक्सा भी से फोड़ दीं । फिर उन्होंने जीबनभर सुरा इसके पश्चात् दीवान साहब के अन्तःकरण में ऐसी उथल-पुथल मची, ऐसा विचारों का विप्लव मचा कि उसी समय सुरासुन्दरी के पुजारी न जाने कहाँ चले गए, उनके स्थान पर एक व्यसन - त्यागी एवं सात्त्विक सादा वेष पहने मुमुक्षु आ गए । उनकी जीवनधारा ही पलट गई बन्धुओ ! कहाँ सुखोपभोग में पले हुए दीवानजी और कहाँ बिलकुल सादगी और सात्त्विक आचार-विचार से ओतप्रोत साधु-सम दीवानजी ! यह स्थिति इच्छाओं के निरोध की बदौलत हुई । उनको इन्द्रियलिप्सा सीमित करने में जरा जोर तो लगाना पड़ा, लेकिन उसके बाद असंयम में नष्ट होने वाली उनकी जीवनी शक्ति की बचत हो गई । उनमें क्रियाशक्ति और विचारशक्ति स्वतः आ गई । उसे उन्होंने आत्मनिर्माण और समाज - निर्माण में लगा दिया । जागृति हो तो इच्छानिरोध सुकर सुखोपभोग में पड़ा हुआ व्यक्ति यदि जाग्रत हो तो उसे कोई देर नहीं लगती इच्छाओं का निरोध करने में । जाग्रत व्यक्ति झूठी शर्म, लिहाज या मिथ्या पोजीशन या प्रतिष्ठा के चक्कर में नहीं पड़ता, वह सुख-साधनों की प्रचुरता होने पर भी उनमें अलिप्त-सा रहता है । भरत चक्रवर्ती में यही गुण था, वे चक्रवर्ती पद पर थे, सभी सुखभोग के साधन थे उनके पास, लेकिन इस वैभव एवं सुखोपभोग के साधनों की For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २४७ चकाचौंध से अलिप्त, अनासक्त, अप्रभावित-से रहते थे। एक सुनार ने उनकी इस अलिप्तता की परीक्षा भी ली थी, जिसमें भरत चक्रवर्ती उत्तीर्ण हुए। एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए___ एक राजा बहुत दूर जंगल में चला गया, उलटी रास के घोड़े ने राजा को संकट में डाल दिया; भूखा-प्यासा, हारा-थका, एवं भूला-भटका राजा वहीं एक जगह बेभान होकर गिर पड़ा। बकरी चराने वाली एक भील की लड़की ने राजा को इस हालत में देखा तो उसके हृदय में दया उत्पन्न हुई । वह निकट आई। अपने पास जो पानी की घड़िया थी, उसमें से पानी लेकर राजा के मुंह पर छींटा, जिससे राजा होश में आया। फिर उस भील-पुत्री ने कहा- "मालूम होता है आप बहुत थके हुए और भूखे-प्यासे हैं, लीजिए पानी तो पी लीजिए और हमारा भौंपड़ा पावन करिये । वहाँ आराम करके फिर रोटी खा लीजिए।" भीलपुत्री नहीं जानती थी कि यह राजा है, एक अपरिचित को दुःख में देख उसके दया और सहानुभूति उमड़ी थी। वह राजा को अपने भौंपड़े पर ले गई । भील ने राजा का खूब सत्कार किया। एक खटिया पर बिछोना बिछाकर राजा को आराम करने के लिए कहा । फिर रोटी बनवाई। छाछ घर में थी ही । एक कटोरे में छाछ तथा थाली में मोटी रोटी लेकर भील ने राजा से कहा-लीजिए, यह ताजी छाछ और रोटी खाइए।" राजा रोटी खाकर अत्यन्त तृप्त हुआ। उसने लड़की की विनयशीलता, सहृदयता और सेवाभावना देखकर भील से कहा-“मेरी तुमसे एक माँग है भाई !" "कहिये साहब, क्या चाहिए आपको ?" भील ने हाथ जोड़कर कहा । राजा-"तुम्हारी लड़की ने आज मुझं जीवनदान दिया है। अगर वह अभी तक कुआरी हो तो मेरे साथ उसका विवाह कर दो। मैं इस देश का राजा हूँ। उसे अपनी रानी बनाकर अपने ऋण का बदला चुकाना चाहता हूँ। भील-"लड़की तो कूआरी है, पर आप बड़े राजा हैं, पालनहार हैं, हम तो तुच्छ भीलजाति के हैं, आपके तो और भी बहुत-सी रानियाँ होंगी। मेरी लड़की आपके महल में कहाँ शोभायमान होगी ।" राजा-“यह तो मुझे देखना है तुम्हें तो अपनी स्वीकृति देनी है।" भील-"आपके जैसे राजा को अपनी लड़की देना किसे पसन्द नहीं होगा। मैं अपनी कन्या आपको देने में खुश हूँ।" राजा के साथ भील-कन्या का पाणिग्रहण हो गया । भीलकन्या को रानी बनाकर राजा ले आया ! समस्त शृंगारों से उसे सुशोभित किया। भीलनी रानी सोचने लगी–कहाँ मेरी जंगल की झौंपड़ी और कहाँ यह भव्य राजमहल ! कहाँ रूखी रोटी और छाछ और कहाँ प्रतिदिन मेवा मिष्ठान ! कहाँ फटे-टूटे सादे कपड़े और कहाँ जरी के वस्त्र ! कहाँ मेरे चिरमी के हार और कहाँ हीरों का हार एवं मूल्यवान आभूषण ! इन सुख साधनों को पाकर मैं अभिमान में कहीं अपने वास्तविक स्वरूप For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ को भूल न जाऊँ' अतः वह सुखोपभोग के साधनों में अलिप्त रहने का अभ्यास करने लगी । अपने भूतपूर्व भील कन्या के वेष में वह प्रभु से एकान्त में प्रतिदिन प्रार्थना करने लगी-"प्रभो ! मैं इस राज्य-सुख में लिप्त न हो जाऊँ, राजसत्ता के अभिमान में आकर मैं अपनी पूर्वस्थिति को न भूल जाऊँ, किसी को अभिमानवश कुचल न हूँ। यह जो कुछ सुखोपभोग सामग्री मुझे मिली है, यह मेरी नहीं, फिर इसका अभिमान किस बात का ? प्रभो ! मुझे ऐसी सद्बुद्धि दें, जिससे सदैव पति को परमेश्वर मानकर उनकी भक्ति एवं मेरी अन्य बड़ी बहनों (सौतेली रानियों) की सेवा कर सकू। मुझमें जरा भी दुर्गुण प्रविष्ट न हो । मुझमें सदैव नम्रता रहे । मैं सबसे छोटी बनकर रहूँ। प्रभो ! मेरे जीवन में सदा सद्गुणों का सिंचन करना ।" भीलनी रानी इस प्रकार प्रभु से प्रार्थना करती है। दूसरी रानियों ने इस नई भील रानी की यह कर्यवाही देखी तो ईष्या के मारे राजा के कान भरने लगी कि "देखा, आपकी नई रानी को ! यह बहुत यन्त्र मन्त्र जानती है, आपको वश में करके पागल बना देगी यह !" राजा ने उसके कमरे की खिड़की के पास खड़े होकर यह सब प्रार्थना के उद्गार सुने तो गद्गद हो गया । वह रानी पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। दूसरी रानियों से कहा- "तुम्हारी दृष्टि में जहर भरा है, इसी कारण मुझे भ्रम में डाल दिया। इस रानी की भावना शुद्ध है, यह तो प्रतिदिन भगवान से सुन्दर प्रार्थना करती है।" राजा ने भीलरानी के आनाकानी करने पर भी आग्रहपूर्वक पटरानी का पद दिया। __ वास्तव में देखा जाय तो इतनी सुखोपभोग सामग्री के बीच में रहकर अपनी इच्छाओं का निरोध करना भीलरानी के लिए बड़ा कठिन था, परन्तु वह अपनी आत्मसाक्षी से प्रतिदिन जागृतिपूर्वक अपनी सादगी और सद्गुणों के लिए प्रभु से प्रार्थना करती थी, इस कारण इच्छाओं का निरोध करने में कोई भी अड़चन न आई। परम भक्ता मीराबाई जैसी चित्तौड़ के राणा को महारानी के लिए इतने विरोधों के बीच राजसी वेश-भूषा, शृंगार प्रसाधन आदि सब इच्छाओं का त्याग करना कितना कठिन था ? परन्तु वह तो स्वयं कृष्ण-भक्ति के रंग में रंग गई और सर्वस्व कृष्णार्पण कर दिया । प्रतिक्षण जागृति रखने से उसके लिए भी इच्छानि रोध सुकर हो गया, दुष्कर न रहा । । वास्तव में उच्चस्तरीय मनीषियों का जाग्रत चिन्तन रहा है कि बाजार में दुकानों पर कई सुन्दर-सुन्दर चीजें दिखाई देती हैं। किन्तु यदि हम मन को अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त न करने हैं, उसे किसी को अच्छा या बुरा न बताने दें तो उन वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा ही पैदा नहीं होगी। इच्छाएँ उठती हैं, वहीं से हमारी विविध शक्तियों के क्षरण का आरम्भ उनकी पूर्ति के लिए हो जाता है । अत्तः यहीं से इच्छाओं के सरोवर पर संयम का तटबन्ध बाँधा जाना चाहिए । ताकि शक्तियों का क्षरण रोक कर वे आत्मिक प्रगति की दिशा में लगायी जा सकें। For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २४६ 1 इच्छाओं पर संयम ही शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास के लिए अनिवार्य है । जो व्यक्ति जितना ही इच्छाओं पर संयमी होगा. उसका व्यक्तित्व उतना ही प्रखर, तेजस्वी और सामर्थ्यवान् होगा । यदि वह विषय-भोगों में रस लेने लगा तो इच्छाएँ चारों ओर से घेरकर उसके संयम के तटबन्ध को तोड़ देंगी । इच्छाओं पर संयम करने से जिन-जिन चीजों के उपभोग कर दैनिक जीवन में जरूरत है, वे चीजें तो उसे अनायास ही प्राप्त हो जाएँगी, फिर उनके भोगों की इच्छा को तीव्र बनाने से क्या लाभ ? अतः इच्छाओं का त्याग भोगों में अत्यन्त लुब्ध व्यक्ति के लिए अवश्य दुष्कर है, परन्तु उनमें आसक्त व्यक्ति सुख भी तो नहीं प्राप्त कर सकता । इसीलिए महर्षि गौतम ने कहा है S KO 6 18 605 BFF "इच्छानि रोही य सुहोइयस्सदुक्क सुखोपभोग की इच्छा करने वाले के लिए इच्छानिरोध करना बड़ा कठिन है। For Personal & Private Use Only ire: E Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं जीवन की चार सुदुष्कर वस्तुओं में से चतुर्थ सुदुष्कर वस्तु के सम्बन्ध में प्रकाश डालूंगा। महर्षि गौतम ने चतुर्थ सुदुष्कर वस्तु बताई है-तरुणावस्था में इन्द्रियनिग्रह । गौतमकुलक का यह ८१वाँ जीवनसूत्र है। इसका शब्द-शरीर इस प्रकार है-- "तारुण्णए इंदियनिग्गहोय, चत्तारि एयाणि सुदुक्कराणि ।" अर्थात्-युवावस्था में इन्द्रियनिग्रह सुदुष्कर है । तथा ये ( पूर्वोक्त ) चारों वस्तुएँ सुदुष्कर हैं। तरुणावस्था क्या है ? उसमें इन्द्रियनिग्रह क्यों दुष्कर है ? आदि प्रश्नों पर गहराई से विचार करना आवश्यक है ? युवक, युवावस्था और कर्तृत्व-शक्ति यौवन एक सन्धि काल है-कैशोर्य और तारुण्य का । शैशव अधिकांशतः खेलकूद में बीतता है, किशोरावस्था में जीवन का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है, और तरुणावस्था में निर्माण की क्रिया पूरे वर्ग से चलती है। जीवन की सक्रियता और उसका यथार्थ आरम्भ यौवन से होता है। संस्कृत भाषा के अनुसार 'य मिश्रणा मिश्रणयोः' अर्थात् यु 'धातु' मिश्रण और अमिश्रण, इन दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है, उसी से यौवन शब्द बना है । यौवन शब्द का अर्थ है-किशोरावस्था का मिश्रण और वृद्धावस्था का अमिश्रण । यौवन वृद्धावस्था से अभी बहुत दूर पड़ जाता है। इसलिए यौवन का वृद्धावस्था से मेल नहीं खाता । हाँ, यौवन किशोरावस्था के निकट होता है, इसलिए वह किशोरावस्था के साथ घुला-मिला होता है। यही कारण है कि युवक में बुजुर्गों जैसी गम्भीरता नहीं, उनके जितना गहरा अनुभव और धैर्य नहीं होता, दूसरी ओर उनमें किशोरों की तरह अत्यधिक खेल-कूद, व्यर्थ के वाद-विवाद, उखाड़-पछाड़, हास्य-विनोद और बेफिक्री होती है, जिम्मेवारी का भान व कर्तव्य पालन की चिन्ता प्रायः नहीं होती। तीसरी ओर युवकों को अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं ऐन्द्रियक शक्तियों के सदुपयोग का अनुभव प्रायः नहीं होता । अनुभव न होने से उनकी कर्तृत्व शक्ति प्रायः पाँचों इन्द्रियों के विषयों का उन्मुक्त For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २५१ उपभोग करने में, दुर्व्यसनों के पोषण में, सिनेमा, नारी सौन्दर्य आदि अश्लील चीजों के प्रेक्षण में, कुसंग से आवारा बनकर व्यभिचार या अनाचार में पड़कर अपना पतन करने में, सैर-सपाटे, निरर्थक आमोद-प्रमोद, विलास आदि में अपने अभिभावकों के धन का अपव्यय करने में लगती है । बची-खुची शक्ति राजनैतिक नेताओं के चक्कर में पड़ कर वे हड़ताल, तोड़-फोड़, दंगे, आगजनी, जुलूस, नारेबाजी, घेराव आदि असामाजिक प्रवृत्तियों में खर्च कर देते हैं । फलतः वे अपने जीवन-निर्माण, इन्द्रियों और मन-बुद्धि आदि की शक्तियों के सदुपयोग, विद्याओं और कलाओं के अध्ययन, सांस्कृतिक ज्ञान आदि से वंचित रहते हैं । परिणाम यह होता है कि वे धर्म, संस्कृति, नीति, अध्यात्म आदि के यथार्थ ज्ञान और आचरण से, इनकी विशिष्ट शक्तियों से अनभिज्ञ रहते हैं । जब उन पर पारिवारिक दायित्व आता है तो वे लड़खड़ा जाते हैं, अपनी असफलता के लिए वे अभिभावकों को कोसते हैं, सामाजिक व्यवस्थाओं को भी । आवेश में आकर अपनी त्रुटि, गलती, अक्षमता और अयोग्यता के रंज का जहर वे बड़ों पर उड़ेलकर खीज और निराशा के शिकार हो जाते हैं । युवावर्ग में जो कर्तृत्व-शक्ति है, वह अकल्पनीय है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता । तरुणों की इन्द्रियों में शक्ति और क्षमता होती है, उनके मन में चिन्तन की शक्ति होती है, उनके शरीर में पौष्टिकता, स्फूर्ति, विकास, वेग एवं विशेष स्पन्दन होता है । युवावर्ग असम्भव कार्य को भी सम्भवता में परिणत कर सकता है। बुजुर्ग जिस कार्य को करने में झिझकते रहते हैं, युवक अपने अद्भुत साहस से उसे प्रत्यक्ष करके दिखा सकता है। व्यवहार में भी यह देखा जाता है कि युवक निठल्ले होकर बैठते नहीं, वे कुछ न कुछ करते रहते हैं । इतना होते हुए भी युवकों के प्रति बुजुर्गों की शिकायत है कि "वे निकम्मे हैं, विद्रोही हैं, उच्छृंखल हैं एवं असंतुष्ट हैं । उनकी कर्तृत्व शक्ति अच्छे कार्यों में, सेवा के विविध कार्यों में सुनियोजित ढंग से नहीं लगती । परिवार, समाज एवं राष्ट्र के लिए वे उपयोगी नहीं बन पा रहे हैं, धर्म, संस्कृति, नीति और अध्यात्म के वे प्रायः शत्रु बन रहे हैं ।" वास्तव में इन बातों में कुछ अंश तक सत्य हो सकता है । सचमुच; युवकों की सक्रियता समाज-विरोधी कार्यों या व्यक्तिगत मनोरंजन आदि में ही व्यय होती है जो निष्क्रियता से भी बढ़कर खतरनाक है । युवकों पर वृद्धों का प्रायः यह आक्षेप है कि उनमें निष्क्रियता, विद्रोही भावना, असंतोष और उच्छृंखलता है । अतः वे परिवार एवं समाज में खप नहीं सकते । दूसरी ओर युवकों का यह कहना है कि हम क्या करें ? दूरदर्शी अनुभव हमें होता नहीं, हमें जो भी अनुभव होता है, वह वर्तमान युग का अपने पारिपाश्विक वातावरण का होता है । तरुण को सक्रियता के दुरुपयोग से कैसे रोका जाएँ ? युवकों में निष्क्रियता कितनी है ? सक्रियता का दुरुपयोग कितना है ? इस For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ बात का उल्लेख माअभी-अभी कर गया हूँ। सक्रियता के दुरुपयोग को रोकने के लिए TER : NipHIF F EE THEATRE FFT: 11: मेरी दृष्टि से वर्तमान युग के तरुण की सारी शक्तियाँ इन्द्रियों में समाहित हैं, मन भी इन्द्रियों का संचालक होने से नोइन्द्रिय कहलाता है। इसलिए इन्द्रियों का ही साथी है । इन शक्तियों को दुरुपयोग से रोकने और सहपयोग में लगाने के लिए आत्मीयता भरा सही मार्गदर्शन तरुण को मिले तो आज के, तरुण की कर्तृत्वशक्ति को यथार्थ दिशा में मोड़ा जा सकता हैं जवानी की देहली पर पैर रखते ही उसे अपने अभिभाधकों, अग्रणी, व्यक्तियों और धर्मगुरुओं द्वारा उचित मार्ग-दर्शन आत्मीयता एवं स्नेह से परिपूर्ण प्रेरणा मिलनी चाहिए । अधिकांशु अभिभावक, जिनमें अधिकतर व्यवसायी हैं, उन्हें इतना कम अवकाश मिल पाता है कि वे अपनी यूवा संतति पर ध्यान नहीं दे पाते, प्रायः वे घर में आते हैं, तब भी युवक-युवतियों के माता-पिताओं से सामान्यतया पूछ लेते हैं, स्वयं उनके साथ घंटा, आधा घंटा बैठकर सहानुभूति से बात नहीं कर पाते । प्रायः वे तरुणों की गतिविधि पर ध्यान नहीं दे पाते । वे ऐसे समय में घर आते हैं, जबकि वे सो जाते हैं, और ऐसे समय में वे जाते हैं, जबकि वे अपने स्कूल या कॉलेज के पाठ्यक्रम के अध्ययन में लगे रहते हैं अथवा वे भी स्वयं अपने विद्यालय या महाविद्यालय जाने की तैयारी में होते है । - EPTET भभावक शशव रिकिश र-अवस्था. मे तो खूब लाड-प्यार करते 20प्यार करते भर कर हैं और यौवन अवस्था में पदार्पण करते ही उनके प्रति उपेक्षा करने लग जाते हैं, रास्ते । या दूसरे किसी यूवक की गलत M ETREETTE चेष्टाओं का उल्लेख उनके सामने करके उन्हें डाँटते हैं, भला-बुरा कहते हैं । " 1183 बहुत से बुजुर्ग अभिभावक युवकों को युग के अनुसार सही मार्गदर्शन नहीं कर सकते, वे युवक-युवतियों को सिर्फ पुराने ढर्रे पर ही चलाना चाहते हैं । वे युवकों की सही-गलत, उचित-अनुचित सभी प्रवृत्तियों पर सर्वथा रोक लगाने की कोशिश करते सवातक, अनुचित प्रवत्तियों को से इन्कार कर देते हैं, या उपेक्षा कर देते हैं, तब वे एकदम झल्लाकर कह बैठते हैं "आजकल के युवक किसी की कुछ सुनते-मानते नहीं, वे नित नहीं, अपनी मनमानी करते हैं। ।, ऐसा भी देखा जाता है कि बहुत से अनजान और युग की गतिविधि से अनभिज्ञ बुजुर्ग अभिभावक इसका निर्णय भी नहीं कर पाते, कि उन्हें नवयुवकों को किस ओर ले जाना है, ? उनकी इन्द्रियों में जो विलक्षण कर्तृत्व शक्ति है, उसे किस ओर मोड़ा जाय । समाज के अग्रणी तो युवकों के पारिवारिक मुखियानों से उसके स्वभाव के बारे में जरा सा पूछताछ करके मौन हो जाते हैं, वे युवकों से प्रत्यक्ष मिलकर भी डर होता कार्यों में आगे लाया जाएगा, तो समाज का नेतृत्व इनके हाथों में आ जाएगा, हमारे हाथ से समाज का नेतृत्व चला जाएगा, हमें फिर कोई नहीं पूछेगा । अपने बुजुर्गों के बात ते । कि अगर यूवको को सामाजिक For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २५३ विसंगत आचरणों या अटपटी असम्बद्ध प्रवृत्तियों को देखकर ही प्राय: वे धर्मगुरुओं के पास जाने से हिचकिचाते हैं अथवा धर्म-सम्प्रदायों का जनूनी इतिहास पढ़कर वे धर्मगुरुओं के पास जाना ही नहीं चाहते। जब भी कभी अभिभावकों के साथ जाते हैं तो बेरुखे, बेमन से, बिना दिलचस्पी के जाते हैं, वहाँ चुपचाप बैठकर आ जाते हैं, अथवा धर्मगुरु भी उनकी प्रकृति को जाने बिना सहसा कोई बात कहने में झिझकते हैं। कई धर्मगुरु तो अपनी साम्प्रदायिक या सम्प्रदाय रक्षा की प्रवृत्तियों में उलझे रहते हैं। उन्हें युवावर्ग को शुद्ध धर्म की ओर मोड़ने का अवकाश ही कहाँ मिलता है ? अगर कभी मोड़ते हैं तो भी साम्प्रदायिक क्रिया-काण्डों या सम्प्रदाय-पोषक विचारों की ओर हो। इससे युवकों को धर्मगुरुओं की ओर से यथार्थ मार्गदर्शन नहीं मिल पाता और उनकी कर्तृत्वशक्ति कुण्ठित या विद्रोही हो जाती है, अथवा गलत मार्ग पर भी चली जाती है । एक दुःखद ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए लाला लाजपतराय का नाम आपने सुना होगा ? वे राष्ट्र के प्रसिद्ध नेताओं में से एक थे। उनका सारा परिवार जैनधर्म का अनुयायी था। जैनधर्म के सिद्धान्तों को मानता था । लाजपतरायजी जिस समय जवान थे, लाहौर के प्रसिद्ध कॉलेज से बी. ए. पास करके वे अपने घर आए। उनके अभिभावकों ने उनसे कहा --"चलो, महाराजश्री के दर्शन करने ।" यद्यपि डी. ए. वी. कॉलेज में पढ़ने से आर्य समाज के कुछ-कुछ संस्कार उनमें प्रविष्ट हो ही गए थे, किन्तु अगर उनके अभिभावक ध्यान देते तो उन्हें जैनधर्म के उच्च सिद्धान्तों से अवश्य ही परिचित कर सकते थे। परन्तु वे तो ऐसा न करके धर्मगुरुओं से सीधी ही प्रेरणा उन्हें दिलाना चाहते थे। युवक लाजपतराय अनमने-से होकर उग समय लाहौर में विराजित एक बुजुर्ग जैन साधु के पास आए । उनका प्रवचन सुना। प्रवचन के बाद जब वे बन्दना करने गये तो और लोगों को हरी माग-सब्जी का त्याग दिलाने की तरह उनसे भी कहने लगे---"लाजपत राय ! तुम भी अमुक दिन हरी साग-सब्जी खाने का त्याग ले लो।" युवक लाजपतराय पर इस बात का उलटा प्रभाव पड़ा कि इन्होंने आते ही मुझसे अन्य बातों को विषय में पूछा तक नहीं, नैतिक जीवन बनाने के सम्बन्ध में एक शब्द भी नहीं कहा, जुआ, चोरी, मांस, मद्य आदि के त्याग के विषय में समझाया तक भी नहीं और एकदम लिलोती (हरी साग-सब्जी) के त्याग पर अड़ गए, भला हरी साग-सब्जी क्या जीवन का इतना नुकसान करती है, जितना कि कुव्यसनों या बेईमानी, ठगी, या अन्याय अत्याचार से युक्त अनैतिक जीवन हानि करता है ? अत: जब बुजुर्ग सन्त दुबारा-तिबारा उसी हरी-सब्जी के त्याग पर जोर देकर कहने लगे तो उनसे न रहा गया । वे बोले-"पहले मुझे समझाइए कि मैं हरी साग-सब्जी का त्याग क्यों कर लू? आपने पहले मेरे नैतिक जीवन के बारे में पूछा तक नहीं और एकदम हरी सब्जी का त्याग करने के लिए बाध्य करने लगे।" For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ कहते हैं, इस पर साधुजी भी जरा गर्म हो गए और कहने लगे-“पढ़-लिखकर केवल तर्क करना सीख गए हो, हमारी बात पर श्रद्धा रखकर बिल्कुल चलते नहीं। हरी सब्जी के त्याग करने से बहुत लाभ हैं तभी तो हम तुम्हें त्याग करने को कह इस पर युवक लाजपतराय ने कहा- "नहीं, महाराजश्री ! ऐसे एकदम मैं हरी साग-सब्जी का त्याग नहीं करता !" सन्त अपने आग्रह पर अड़े रहे । अन्ततः युवक लाजपतराय वन्दना करके चले गये, पर उन्हें जैन साधुओं के प्रति घृणा हो गई । वे उस दिन के बाद जैन साधुओं के पास न आए, आर्यसमाजी बन गए। यह है–युवकों को सही मार्गदर्शन न देने का दुष्परिणाम ! अगर युवक लाजपतराय को ठीक मार्गदर्शन मिलता तो उनके द्वारा धर्म की सेवा भी होती और अनेक युवक भी उनके साथ-साथ क्रमबद्ध धर्माचरण को तैयार हो जाते। - बहुधा देखा जाता है कि युवक विद्रोही हो जाते हैं। उनकी यह विद्रोह भावना परिवार एवं धर्म के प्रति उभरती है। युवक चाहता है कि जो ढर्रे से चला आ रहा है उसमें कुछ परिवर्तन एवं संशोधन हो । बुजुर्ग उसमें जरा-भी परिवर्तन नहीं करने देना चाहते; बल्कि आधुनिकता के नाम पर जो भी नया आ रहा है, उसे वे विकृत, समाजविरोधी, धर्मविरोधी कहकर ठुकरा देते हैं। इस प्रकार प्राचीन-नवीन का संघर्ष, व्यामोह और भावुकता का यह द्वन्द्व पुरानी और नई पीढ़ी के बीच टकराव का कारण बन जाता है जो विद्रोह के रूप में फूट निकलता है । अतः युवकों की सक्रियता को समाप्त करने की जरूरत नहीं है, सर्वप्रथम जरूरत है, सक्रियता में आई हुई वास्तविक सदोषता को परखकर निर्दोष करने की। युवावर्ग की इन्द्रिय-शक्ति को रोकने की अपेक्षा, उसे व्यवस्थित रूप दे दिया जाए तो वह शक्ति निर्दोष एवं समाज के लिए विध्वंसात्मक न होकर सर्जनात्मक सिद्ध हो सकती है । जैसे नदी में स्वच्छन्दता से बहने वाले पानी की अपेक्षा नहर के रूप में व्यवस्थित हुआ पानी खेती के लिए विशेष लाभदायक सिद्ध होता है, वैसे ही युवकों की इन्द्रिय-शक्ति को यों ही बहने न देकर यदि सही मार्गदर्शन देकर सुयोजित ढंग से मोड़ी जाए तो उनकी वह सक्रियता स्वहित, परिवारहित, समाजहित, राष्ट्रहित एवं धार्मिकहित के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इस प्रकार युवकों के साथ आत्मीयतापूर्वक व्यवहार किया जाए तो मार्गदर्शन और इन्द्रिय-शक्ति का सक्रियता के दुरुपयोग से रक्षण दोनों का मेल हो सकता है। अपेक्षित है-अभिभावकों, समाज के अग्रगण्यों तथा धर्मगुरुओं द्वारा यथार्थ मार्गदर्शन और युवकों द्वारा विनयपूर्वक अपनी इन्द्रियशक्ति का अर्पण ! अनुभव और इन्द्रिय-शक्ति का समन्वय अपेक्षित युवकों में फलती हुई विद्रोही भावना को, जिसके कारण उनकी इन्द्रिय-शक्ति ध्वंसात्मक कार्यों में लग जाती है, रोकने के लिए उन्हें दायित्व सौंपा जाए और जहाँ For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २५५ गलती हो, उसे प्रेम से सुधारा जाए, उन पर अविश्वास न किया जाए। प्राचीन काल में अनेक व्यक्ति अपनी ढलती अवस्था के प्रारम्भ में ज्येष्ठ पुत्र को गृहदायित्व सौंपकर व्यवसाय एवं घर के अन्य कार्यों से निवृत्त हो जाते थे, सिर्फ अध्यात्म जागरण में लगते थे। कई अवकाश प्राप्त व्यक्ति अपना शेष समय धार्मिक अनुचिन्तन तथा सामाजिक सेवा की प्रवृत्तियों में व्यतीत करते थे । उपासक दशांग सूत्र में आनन्द, कामदेव आदि श्रमणोपासकों के जीवन का संक्षेप में उल्लेख है, उन्होंने अपनी ढलती अवस्था में विशिष्ट अध्यात्म साधना का जीवन बिताने हेतु अपने ज्येष्ठ पुत्र को दायित्व सौंप दिया था । उसके प्रशिक्षण की उस समय कई विधियाँ हुआ करती थीं, उनमें उत्तीर्ण होने के बाद पारिवारिकों की उपस्थिति में उसे गृहभार सौंप दिया जाता था । निवृत्त गृहप्रमुख तटस्थ पर्यवेक्षक तथा परामर्शक के रूप में रहता था । इससे इन्द्रिय-शक्ति के विकास के लिए दायित्व और अनुभवयुक्त तटस्थ मार्गदर्शन दोनों का समन्वय हो जाता था । दायित्व सौंपने से युवक स्वतन्त्र रूप से अपनी इन्द्रिय-शक्तियों का उपयोग करके स्वनिर्माण कर पाता था, साथ ही गृहप्रमुख के मार्गदर्शन से उसमें कोई दोष प्रविष्ट होता तो निकल जाता था । वर्तमान में सर्वथा विपरीत स्थिति है । प्राय: अभिभावकों का विश्वास युवकों पर टिक नहीं पाता । वे अपना दायित्व छोड़ने और युवकों पर कर्तव्यभार डालने के लिए प्रायः तैयार नहीं होते । चाहे व्यावसायिक प्रतिष्ठान हो, चाहे सार्वजनिक संस्था, चाहे वह धार्मिक संस्था हो, वृद्धों का मन युवकों को कार्यभार सौंपने के लिए उदार नहीं होता । वे कहते हैं- युवावर्ग में कर्तृत्व और अनुभवों का अभाव है, उन्हें जो कार्यं सौंपा जाएगा, वे उसे रसातल पहुँचा देंगे । उन्हें कुछ करना धरना नहीं आता । केवल बातें बनाने में वे कुशल होते हैं । बातों से कोई संस्था या व्यवसाय प्रतिष्ठान नहीं चला करते | युवकों का यह तर्क है कि हमें कार्य करने का अवकाश नहीं दिया जाता, बाँधकर रखा जाता है । बन्धन में हमारी कर्तृत्व शक्ति का विकास कैसे हो सकता है ? प्रेमपूर्वक हमें उचित मार्गदर्शन, अनुभव एवं हार्दिक आशीर्वाद दिया जाए तो हम अपनी इन्द्रियों की क्षमता और कर्तृत्वशक्ति का विकास कर सकते हैं । में वास्तविकता यह है कि बुजुर्गों के पास अनुभव होता है और युवकों में होता है - शक्ति का अद्भुत स्रोत । दोनों का सन्तुलित समन्वय हो तो युवकों की इन्द्रियविषयक कर्तृत्व क्षमता विकसित हो सकती है । अवस्थाभेद के कारण उत्पन्न होने वाले मतभेदों को वात्सल्य और विनय के द्वारा समाहित किया जाए तो परिवार, समाज और राष्ट्र का बड़ा हित संध सकता है । असन्तोष : कारण और निवारण युवकों और वृद्धों, दोनों की ओर से असन्तोष पल रहा है। युवकों को वर्तमान धर्म, संस्कृति, आहार-विहार, रहन-सहन, रीति-रिवाज, सभ्यता, वेशभूषा तथा संकीर्णता के प्रति प्रायः असन्तोष होता है । उनके असंतोष का पहला निशाना प्राचीन परम्पराओं For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ और कुरूढ़ियों पर होता है, उसके बाद वृद्ध माता-पिता, समाज और राष्ट्र के बुजुर्ग नेताओं पर होता है । बुजुर्गों एवं नेताओं का असन्तोष है कि युवक अपने निर्माण के लिए कुछ भी यत्न नहीं करते । निर्माण के अभाव में असन्तुष्ट युवक अपनी ऋटियों और दुर्बलताओं को दूसरों पर थोपते हैं। दोनों के मन में प्रादुर्भूत असन्तोष का निवारण ध्वंसात्मक मार्ग छोड़कर सृजनात्मक मार्ग अपनाने से हो सकता है। बुर्ग यह समझ लें कि प्राचीन पीढ़ी से लेकर वर्तमान पीढ़ी तक हजारों वर्षों में धर्म, संस्कृति, रहन-सहन आदि सभी में अनेक परिवर्तन एवं संशोधन हुए हैं, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। अतः वे स्थितिस्थापकता के पोषक न बनकर उनमें से प्रत्येक क्षेत्र की युगबाह्य, विकासघातक, धर्म-संस्कृतिबाधक परम्पराओं के परिवर्तन एवं संशोधन को स्वीकार कर लें । युवक लोग भी यह समझ लें कि प्रत्येक प्राचीन परम्परा खराब नहीं होती, जो परम्परा शुद्ध धर्म, संस्कृति आदि के अनुकूल हो, उसे चालू रखने में नहीं हिचकिचाना चाहिए। हर नई प्रवृत्ति को भी बिना परीक्षण किये, बिना सोचेसमझे आँखें मूंदकर नहीं अपनाना चाहिए यथार्थता का अंकन न करके नई लहर के प्रवाह में तेजी से नहीं बह जाना चाहिए। दोनों ही अपने-अपने असन्तोष का समाधान सामुहिक रूप से परस्पर मिल-बैठकर कर लें, एक-दूसरे के प्रति आक्षेप, प्रत्याक्षेप न करें। तभी असन्तोष का समाधान होकर सन्तोष एवं शान्ति हो सकती हैं । युवकों की इन्द्रिय-शक्ति सार्थक हो सकती है। उच्छृखलता कितनी यथार्थ, कितनी अयथार्थ ? युवावर्ग की उच्छृखलता की ओर बुजुर्गों का रोष बार-बार भड़कता है ? परन्तु यह तो मानना पड़ेगा कि युवकवर्ग में जोश होता है, कुछ करने की तमन्ना होती है। जब उसे अनुभव नहीं होता और बुजुर्ग लोग उसके प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त होकर उसे किसी प्रकार का अनुभव एवं मार्गदर्शन नहीं देते, तब वे उनकी ओर से निराश होकर अपने ही बुद्धिबल पर भरोसा रखकर चलता है । उसमें कई दफा कार्य गड़बड़ा भी जाता है । कई दफा युवावर्ग किसी कार्य में आँख मूंदकर उत्साहपूर्वक कूद पड़ता है, विरोधीवर्ग उसे असफल करने के लिए पहाड़-सा तनकर खड़ा हो जाता है। यदि युवक असफल हो गए तो उन्हें उच्छृखल या उद्दण्ड कहकर बदनाम किया जाता है । युवकों में कितनी उच्छृखलता है, और कितनी स्वतन्त्रता की भावना है ? इसका यथार्थ निर्णय कोई तटस्थ एवं न्यायशील निष्पक्ष व्यक्ति करे तभी सत्य का पता लग सकता है। और यदि युवक सफल हो जाते हैं तो भी उनके कार्यों को कोई महत्व नहीं दिया जाता, न उनकी प्रशंसा करके उन्हें प्रोत्साहित किया जाता है । सच पूछा जाए तो युवकों में उच्छृखलता आने का मुख्य कारण उनके प्रति बुजुर्गों या अभिभावकों का गलत दृष्टिकोण है । उनकी योग्यता, शक्ति, क्षमता एवं सक्रियता की अवगणना की जाती है, उनकी सक्रियता को पुनः-पुनः नकारा जाता है, उनके प्रति आत्मीयतापूर्ण व्यवहार नहीं किया जाता तभी वह उच्छृखल बनते हैं । For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २५७ इसका नतीजा जो भी होता है, वह आप जानते ही हैं । युवकों की इन्द्रियाँ भी फिर उच्छृखल होकर विपरीत दिशा में लग जाती हैं। चार दैत्य : इन्द्रियशक्ति के उच्छृखल होने में कारण युवकों की इन्द्रियाँ प्रबल होती हैं, उनमें कर्तृत्व शक्ति भी अपार होती है, परन्तु उन शक्तियों को उच्छृखल बनाने में चार दैत्य मुख्य रूप से कारण बनते हैं(१) हठ, (२) अहं, (३) क्रोध एवं (४) आवेश । युवकों के मन में जैसे ही विचार उठता है, कि उनका मन इन्द्रियों को शीघ्रातिशीघ्र कार्यान्वित करने के लिए आदेश दे उठता है । प्रायः युवक प्रतिरोधी विचारों को सहन नहीं करता, संशोधन भी नहीं करना चाहता । हठाग्रह पकड़ लेता है। हठ के ही सहोदर अहं, क्रोध और आवेश आदि होते हैं। वह किसी से कुछ सीखने और ग्रहण करने को उत्साहित नहीं होता। जब उसके अहं को चोट पहुँचती है, तो उसमें आवेश और क्रोध उभरता है। इससे उसके साथी एक-एक करके बिखर जाते हैं और वह एकाकीपन महसूस करने लगता है। ऐसी स्थिति में वह अपनी इन्द्रियों को शराब, गांजा, भाँग, सिगरेट-बीड़ी आदि नशीली चीजों के सेवन या मांस, मछली, अण्डे आदि के सेवन से बहलाता है, निन्दा, चुगली या प्रपंच करने में वाणी को लगाता है, आँखों को सिनेमा, अश्लील चित्र देखने या गन्दे उपन्यास पढ़ने एवं रूप देखने में लगाता है, कानों से भी वैसे ही अश्लील गन्दे, अपशब्द सुनकर दुरुपयोग करता है। इसी प्रकार हाथ-पैर आदि को लड़ाईझगड़ा, तोड़-फोड़, मारकाट या संघर्ष करने में जुटा देता है, कामेन्द्रिय को उत्तेजित करके विभिन्न रूपों में व्यभिचार में उसे संलग्न रखता है। ___मतलब यह है कि इन चार दैत्यों के करण युवक सभी इन्द्रियों को उच्छृखल एवं उद्दण्ड बना देता है। एक बार उच्छृखल बन जाने के बाद फिर उन पर काबू पाना बहुत ही कठिन होता है। तारुण्य, इन्द्रियों की अजोड़ शक्ति का केन्द्र हां, तो मैं कह रहा था, जवानी में इन्द्रियों की शक्ति चारों ओर से सिमट कर आती है । इन्द्रियों के सर्वांगीण विकास की अवस्था जवानी है। परन्तु इन्द्रियों की शक्ति को धारण और संचित करने के लिए उससे पूर्व उसका संरक्षण एवं सुरक्षा आवश्यक है । परमाणु शक्ति को धारण करने वाला बम- अणुबम कहलाता है, यह इतनी शक्तिशाली धातु का बना होता है, यानी उसका बाहरी आवरण इतनी मजबूत और ठोस धातु से बनाया जाता है कि उसके भीतर अणुविखण्डन की प्रक्रिया सम्पन्न करने वाले यन्त्रों पर बाहरी आघातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यदि इतनी कड़ी और मजबूत धातु का आवरण उस पर न चढ़ाया जाए तो उस बम के किसी भी क्षण विस्फोट होने का खतरा बना रहेगा। इसी प्रकार जिस इन्द्रिय-शक्ति के संचय से चैतन्य-शक्ति बढ़ती है उस शक्ति के धारण एवं संरक्षण के लिए भी प्रयत्न होना चाहिए। अगर युवक चाहता है कि मेरी आत्मिक प्रगति हो, तो उसे अपनी शक्तियों For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ : आनन्द प्रवचन भाग १२ पर नियन्त्रण करने की कला भी आनी चाहिए । एक ओर श्रम - साधना और एकाग्रता से शक्ति का संचय किया जाए और दूसरी ओर उसे इन्द्रिय-छिद्रों से निर्बाध बहने दिया जाए तो शक्तिशाली या आत्मबलसम्पन्न बनने का लक्ष्य दिवास्वप्न ही सिद्ध होगा । प्रयत्न और पुरुषार्थ का, साधना और एकाग्रता का सत्परिणाम इन्द्रियशक्तियों के निग्रह से ही मिलता है । जो अपने आवेगों, भावों और इच्छाओं को वश में रखता है, आत्म-विजय की सफलता का श्रेय उसे ही मिलता है | आवेगों को निरन्तर नियन्त्रण में रखने की शक्ति का नाम ही संयम है । आवेग एवं इच्छाएँ यद्यपि मन में पैदा होती हैं, किन्तु उनका प्रभाव और प्रतिक्रिया इन्द्रियों पर होती है । यद्यपि इन्द्रियनिग्रह सभी अवस्थाओं में कल्याणकारी और उपयोगी है, किन्तु तरुणावस्था में जबकि समस्त इन्द्रियों की शक्तियाँ पूर्णतः विकसित होती हैं, उस अवस्था शक्तियों का क्षरण रोकना परम आवश्यक होता है । इन्द्रियनिग्रह उन शक्तियों का ह्रास रोकने के लिए शक्तियों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है । इन्द्रियनिग्रह एक प्रकार का बाँध है, जिसे तारुण्य में ही बाँधा जाना जरूरी है । अगर तारुण्य में इन्द्रियनिग्रह द्वारा शक्तियों का क्षरण नहीं रोका जाता तो निरंकुश बनी हुई इन्द्रियाँ मनुष्य को पतन के गड्ढे में गिरा देंगी । इन्द्रियों के अधीन बनने से आत्मविजय या आत्मोत्थान की बात हवा में रह जाएगी, आत्मपतन ही होगा, आत्मा की हार ही होगी । अमर्यादित और स्वेच्छाचारी इन्द्रियाँ जीवनलक्ष्य से गिरा देती हैं, इसीलिए इन्द्रियों का अत्यधिक भोग निन्दनीय एवं वर्जनीय माना गया है । सभी धर्मशास्त्रों में इन्द्रियनिग्रह का महत्त्व एक स्वर से स्वीकार किया गया है । जैनशास्त्र उत्तराध्ययन सूत्र में तथा भगवद्गीता में बताया गया है कि इन्द्रियनिग्रह करने से ही आत्मकल्याण, सुखसम्पन्नता, स्थितप्रज्ञता प्राप्त होगी । यौवन वय में इन्द्रियाँ are area और विषयभोगों में स्वच्छन्द भटकती हैं, इसलिए उस अवस्था में खासतौर से इन्द्रियों को संभालना है और अपनी शक्तियों को बर्बाद होने से बचाना है, ताकि आत्मविकास की यात्रा निर्बाधरूप से हो सके । तारुण्य में इन्द्रियनिग्रह : सुकर या दुष्कर ? एक जंगली घोड़े को वश में किया जा सकता है, परन्तु जंगली बाघ के मुँह में लगाम क्यों नहीं लगाई जा सकती ? क्योंकि बाघ के स्वभाव में स्वाभाविक क्रूरता होती है, जो किसी भी तरह से स्वाभाविक रूप से आसानी से नहीं सुधारी जा सकती । इसके विपरीत जंगली घोड़ा, चाहे वह प्रारम्भ में कितना ही अड़ियल या उद्दण्ड क्यों न हो, थोड़े-से प्रयत्न से वश में किया जा सकता है । फिर तो कुछ दिनों बाद वह घोड़ा स्वयं ही आज्ञा पालन करना और प्रेम करना भी सीख जाता है । इसी प्रकार तरुण की प्रकृति में स्वाभाविक उग्रता, उद्दण्डता, या अड़ियलपन नहीं है । ये किसी न किसी सामर्थ्य, प्रभुता या शक्ति के मद के निमित्त से आए हैं । अगर जंगली घोड़े की तरह For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २५६ युवक पर भी प्रयोग और प्रयत्न किया जाए तो ये सब क्रूरता, उग्रता आदि दुर्गुण दूर हो सकते हैं । वह सहिष्णु, क्षमाशील, नम्र, एवं मृदु बन सकता है । परन्तु युवावर्ग के लिए यह सुकर बात भी दुष्कर इसलिए हो जाती है, कि वह स्वयं इस प्रकार का प्रयत्न और स्वयं पर लगाम लगाने का प्रयोग नहीं करता । अगर युवक और युवती अपनी इन्द्रियों पर स्वयं स्वेच्छा से नियंत्रण करें तो आसानी से वे अपनी आत्मशक्तियाँ बढ़ाकर संसार में अद्भुत कार्य करके दिखा सकते हैं । तरुणावस्था में पंचेन्द्रियनिग्रह से युवक-युवतियों की शक्तियाँ किस प्रकार विकसित हो जाती हैं, तथा उनका गृहस्थाश्रम भी कितना सुखसम्पन्न हो जाता है, इसके लिए एक प्राचीन उदाहरण जैन संस्कृति में प्रचलित है— विजय सेठ और विजया सेठानी का । दोनों ने कौमार्य-अवस्था में ही गुरुदेव से एक-एक पक्ष में ब्रह्मचर्य पालन का नियम ले लिया था । संयोगवश दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया । सुहागरात का अवसर, शुक्लपक्ष चल रहा था, पति-पत्नी दोनों के मन में आज आनन्द नहीं समा रहा था । विजय सेठ के शुक्ल पक्ष में ब्रह्मचर्य पालन का नियम था । अतः उसने अपनी धर्मपत्नी विजया से कहा - "मेरे शुक्लपक्ष में ब्रह्मचर्य पालन का नियम है, इसलिए इतना धैर्य रखना । संसार के भोगों में इन्द्रियों की शक्ति का अतिव्यय करना उचित नहीं है ।" पति के वचन सुनकर क्षणभर के लिए विजया के चेहरे पर उदासी छागई । उसने मन अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण करके कहा - "प्राणनाथ ! जैसे अपने गुरुदेव से शुक्लपक्ष में ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा ली है, वैसे ही मैंने कृष्णपक्ष में ब्रह्मचर्य - पालन की प्रतिज्ञा ली है । अतः प्रतिज्ञा भंग करना मेरे लिए मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायी है । मैं आपको कृष्णपक्ष में पत्नी के रूप में भोग सुख नहीं दे सकूंगी | अतः आप चाहें तो दूसरा विवाह कर सकते हैं। अपनी ओर से आपको अनुमति देती हूँ ।" । कोई आग्रह नहीं तुम्हें सांसारिक मैं विजया सेठानी की बात सुनकर विजय सेठ ने उस पर किया या दवाब नहीं डाला कि "तुमने मेरे साथ विवाह किया है तो कर्म करना ही चाहिए ।" आजकल का कोई युवक - आधुनिकता से सम्पन्न पतिहोता तो शायद पत्नी पर दवाब डालता, उसे डांट-फटकार कर या उस पर जोर अजमा कर प्रतिज्ञा भ्रष्ट होने को बाध्य कर देता । आजकल के अधिकांश युवक जवानी के नशे में अपनी शक्तियों का भान भूल जाते हैं । एक पाश्चात्य विचारक रोचीफॉकोल्ड (Rouchefoucould ) जवानी का विश्लेषण करते हुए कहते हैं भी है ।" “Youth is a continual intoxication, it is the " तारुण्य सतत रहने वाला एक नशा है, साथ ही fever of reason.' यह कारणों का ज्वर पत्नी भी फैशन और विलास के प्रवाह में बहकर अपनी प्रतिज्ञा से भ्रष्ट हो जाती है, विषय-भोगी पति के द्वारा बाध्य करने पर । For Personal & Private Use Only " Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ परन्तु विजय सेठ और विजया सेठानी दोनों अपनी इन्द्रिय-शक्तियों के प्रति जागरूक हैं, दोनों अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ हैं । विजय सेठ को यह जानकर अतीव प्रसन्नता हुई। उसने मन ही मन ऐसी धर्मसहायिका पत्नी मिलने के लिए अपने को धन्यभागी समझा । उसने स्पष्ट कहा - "देवी ! मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ । जब तुम आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन कर सकोगी तो क्या मैं लिये हुए ब्रह्मचर्यं नियम में पीछे रहूँगा ? हम दोनों को अनायास ही आत्मसंयम का अवसर मिला है, इसके लिए हम गुरुदेव के प्रति भी उपकृत हैं ।" दोनों के हृदय में आत्म-संयम का पूर्ण चन्द्र प्रकाशित हो रहा था । प्रातःकाल दोनों ने ही गुरुदेव के पास जाकर अपने जीवन में अनायास प्राप्त पंचेन्द्रियनिग्रह रूप ब्रह्मचर्य के सुयोग की बात कही और दोनों ने अपना निर्णय सुनाया - "गुरुदेव ! हम दोनों को आजीवन ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा देकर कृतार्थ कीजिए ।" गुरुदेव ने दोनों की भावना और दृढ़ता देखकर दोनों को आजीवन ब्रह्मचर्य पालन को प्रतिज्ञा करा दी । इस प्रकार तारुण्य अवस्था में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कितना दुष्कर है यह अनुमान लगाया जा सकता है । फिर भी दोनों ने भरी जवानी में अपनी इन्द्रियशक्ति का उपयोग विषय-भोगों की आसक्ति में नहीं किया, पंचेन्द्रियसंयम को सुकर सिद्ध कर दिया । इसलिए सतत जागृति रखने वाले युवक के लिए इन्द्रियनिग्रह दुष्कर नहीं है परन्तु जो पहले तो इन्द्रियनिग्रह करता है, किन्तु कुछ वर्षों बाद इन्द्रियों को बिलकुल बेलगाम छोड़ देता है, वह व्यक्ति धोखा खा जाता है । उसके लिए इन्द्रियनिग्रह करना दुष्कर हो जाता है । लक्ष्मण अभी युवक थे । विवाह हुए थोड़े ही दिन हुए थे । फिर भी श्रीराम के प्रति उनका अत्यन्त स्नेह था, इस कारण वे वनवास स्वीकार करके श्रीराम के साथ वन-वन में घूम रहे थे । परन्तु अपने पंचेन्द्रियनिग्रह में - ब्रह्मचर्य पालन में पक्के थे । वे जाग्रत रहा करते थे ब्रह्मचर्य पालन में । रामायण में लक्ष्मण के इन्द्रियनिग्रह की जागृति के ३ प्रसंग मिलते हैं ( १ ) पहला प्रसंग है - शूर्पणखा को जब राम की ओर से अस्वीकार कर दिया जाता है, तब वह लक्ष्मण के पास आती है, सुन्दर रूप धारण करके वह उन्हें हावभाव दिखाती है, वश में करने और ललचाने का प्रयत्न करती है, परन्तु लक्ष्मण उसे साफ इन्कार कर देते हैं कि जब तुमने मेरे बड़े भाई के समक्ष उनकी पत्नी बनने का प्रस्ताव रख दिया तो तुम मेरी भाभी हो गईं। भाभी माता के तुल्य होती है । अतः मैं तुम्हें कदापि स्वीकार नहीं कर सकता । यद्यपि लक्ष्मण चाहते तो शूर्पणखा का प्रस्ताव स्वीकार कर सकते थे । परन्तु वे पक्के इन्द्रियनिग्रही थे । (२) दूसरा प्रसंग है - पंचवटी का । वन में पंचवटी के आश्रम में राम, लक्ष्मण और सीता ने एक ही कुटिया बनाई थी, जिसमें राम और सीता सोते थे, लक्ष्मण बाहर पहरा देते थे । एक दिन की बात है—– सीता माता अत्यन्त थकी हुई थीं, For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २६१ नोंद आ रही थी । लक्ष्मण को वे अपने पुत्र-समान ही मानती थीं । लक्ष्मण बैठे हुए थे, सीता लक्ष्मण के उत्संग को सिरहाना बनाकर सो गईं। परन्तु पक्के इन्द्रियजयी लक्ष्मण के मन में जरा भी विकार न आया, मातृभावना जो थी। (३) तीसरा प्रसंग है-सीताहरण के बाद का। श्रीराम सीता के वियोग में चिन्तामग्न होकर वन-वन में घूम रहे थे । सीता की खोज में वे व्याकुल थे । एक जगह श्रीराम को कुछ गहने पड़े हुए मिले । शोकातुर श्रीराम ने लक्ष्मण से पूछा'भाई लक्ष्मण ! देखो तो ये आभूषण सोता के ही हैं क्या ? क्या तुम पहचान सकते हो?" लक्ष्मण ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया--- नाऽहं जानामि केयूरे, नाऽहं जानामि कुण्डले । नपुरे त्वभिजानामि, नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥ "भैया ! मैं सीतामाता के हाथ में पहने जाने वाले बाजूबंदों को नहीं पहचानता और न ही कानों में पहनने के कुडलों को पहचानता हूँ। किन्तु मैं प्रतिदिन मातृभाव से उनके चरणों में वन्दन करता था, इसलिए चरणों में पहने जाने वाले नूपुरों (नेऊर) को पहचानता हूँ।" यह है, श्री लक्ष्मणजी का नेत्रन्द्रिय-निग्रहभाव ! जिसे ब्रह्मचर्य का महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है । लक्ष्मणजी के द्वारा किये जाने वाला इन्द्रियनिग्रह जागृतिपूर्वक था इसलिए दुष्कर होते हुए भी सुकर हो गया। इन्द्रियनिग्रह : क्यों दुष्कर ? कैसे सुकर ? यहाँ स्वाभाविक ही प्रश्न उठता है कि इन्द्रियनिग्रह और वह भी उठती हुई तरुणाई में क्यों दुष्कर हो जाता है ? जबकि तरुण यह जानता है कि इन्द्रियनिग्रह से बहुत बड़े लाभ हैं । उससे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक सभी तरह का लाभ इसी जन्म में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, अगले जन्म में तो उसका लाभ मिलता ही है। इन्द्रियनिग्रह की दुष्करता का सर्वप्रथम कारण है-जागृति का अभाव । मैंने अभी. अभी बतलाया था कि अगर इन्द्रियों के उपयोग के समय विजय सेठ-विजया सेठानी, या वीरवर लक्ष्मण की तरह प्रतिक्षण जागृति रखी जाए तो यौवन में इन्द्रियनिग्रह आसान हो जाता है । परन्तु आज कितने ऐसे तरुण हैं, जो इस प्रकार की जागृति रखते हैं ? अधिकांश युवक-युवतीगण इन्द्रियनिग्रह के बारे में प्रायः अजागृतदशा में रहते हैं । कोई भी प्राणी किसी इन्द्रिय के विषय में असावधान, प्रमादी या मोहवश आसक्त हो जाएगा तो तुरन्त ही उसका विनाश निश्चित है । गरुड़ पुराण के अनुभवी रचयिता कहते हैं कुरंग-मातंग-पतंगा-भगाः मीना हताः पंचभिरेव पंच । एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पंचभिरेव पंच ॥ "हिरण, हाथी, पतंगा, भौंरा और मछली, ये पांचों क्रमशः श्रोत्रेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ नेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय- इस एक-एक इन्द्रिय की आसक्ति के कारण विनष्ट हुए, तो जो इन पाँचों इन्द्रियों के निग्रह के विषय में प्रमादी (असावधान) रहता है, वह क्यों नहीं विनष्ट होगा ?" मृग भोला-भाला वन में स्वतन्त्र विचरण करने वाला प्राणी है, किन्तु वही मृग जब संगीत की स्वरलहरियों पर मुग्ध होकर श्रोत्रन्द्रिय-विषय में आसक्त एवं असावधान हो जाता है और दौड़ता हुआ कानों में मधुर संगीत श्रवण करने हेतु आता है, तब शिकारी के शस्त्र प्रहार से बेचारा अपने प्राण गंवा बैठता है। हाथी इतना बलवान प्राणी है कि सहसा उसे वश में करना आसान नहीं, किन्तु हाथी को पकड़ने वाले उसे स्पर्शेन्द्रियविषय के जाल में फंसाते हैं। वे एक गहरा गड्डा खोदकर उसमें घास पत्तियाँ इस तरह से बिछा देते हैं ताकि ऊपर की सतह ठीक दीख सके, और उस पर कागज की हथिनी बनाकर रख देते हैं हाथी दूर से ही हथिनी को देखकर कामविवश होकर आता है, कामात होकर ज्यों ही नकली हथिनी के पास आता है, गड्ढे में गिर जाता है और पकड़ लिया जाता है । पतंगा प्रकाश--रूप को देखकर ही उस पर मोहित होकर टूट पड़ता है, और वहीं अपने प्राण खो बैठता है । यह नेत्र न्द्रियविषयासक्ति का परिणाम है। __ भौंरा भी सुगन्ध में लुब्ध होकर कमल के कोष में बन्द हो जाता है, सोचता है, अभी क्या जल्दी है, जब चाहूँगा तब बाहर निकल जाऊंगा। परन्तु अभागा भौंरा कमलकोष में बन्द होकर अपने प्राण खो बैठता है । अगर घ्राणेन्द्रियविषय में आसक्ति न होती तो भौंरे को कोई उसमें फंसा नहीं सकता था । और मछली, वह रसनेन्द्रियलोलुप बनकर आटे की गोली के लोभ में आकर काँटे में फंस जाती है और अपने प्राण खो देती है। जब ये अज्ञानी और बेसमझ प्राणी भी एक-एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर अपनी हानि कर बैठते हैं, तब समझदार और शिक्षित होकर मनुष्य-पुत्र युवावर्ग अपनी पाँचों इन्द्रियों का असावधानीपूर्वक उपयोग करता है, उसकी कितनी हानि होगी? इससे आप अनुमान लगा सकते हैं। वास्तव में अजागृति या असावधानी ही इन्द्रियनिग्रह को दुष्कर बना देती है कई विद्वान् एवं शास्त्रज्ञ यह समझते हैं कि हम ज्ञानी हैं, हमें इन्द्रियाँ क्या बहकायेंगी? परन्तु उनकी जरा-सी असावधानी पलभर में उन्हें पतन की ओर ले जा सकती है। एक प्राचीन कथा है। वेदव्यासजी धर्मसूत्र की व्याख्या कर रहे थे तो एक सूत्र उनके सामने आया- 'बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति'-इन्द्रियसमूह बलवान् है, वह विद्वान् को भी खींच लेता है। व्यासजी इसका अर्थ करते समय सोचने लगेजो विद्वान है वह इन्द्रियों के विषय में कैसे खिंच जाएगा ? क्योंकि विद्वान् का अर्थ हैभले-बुरे का, हिताहित का जानने वाला । सम्भव है, सूत्र में जरा भूल हो गई हो, मैं इसे सुधार हूँ उन्होंने सुधार करके इस प्रकार लिखा For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २६३ "बलवानिन्द्रियग्रामोऽविद्वांसमपि कर्षति-इन्द्रियगण बलवान है, वह अविद्वान् को भी खींच लेता है।" ऐसा लिखकर व्यासजी शौच को चले गये। नहा-धोकर जब वे वापस लौटने लगे तो एक प्रौढ़ कन्या, जो रूप में देवकन्या सदृश थी, दृष्टिगोचर हुई । सामने की गली से उसने व्यासजी को आवाज दी- "मुझे आने दीजिए। गली संकड़ी होने से आपका मेरे शरीर से स्पर्श न हो जाय क्योंकि मैं अभी कुआरी हूँ।" व्यासजी कन्या के सौन्दर्य और उसकी वाणी के माधुर्य से आश्चर्य-मग्न थे। अतः पीछे हटने के बजाय वे आगे बढ़ते ही गये । जब कन्या ने दुबारा कहा तो व्यासजी बोले- 'संकड़ी गली की परवाह मत करो, आजाओ, पास से निकल जाएंगे।" व्यासजी के न मुड़ने पर वह कन्या पीछे मुड़ चली। जब व्यासजी जरा तेज कदमों से आगे बढ़ने लगे तो वह कन्या यह कहती हुई अदृश्य हो गई-"बलवान इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ।" व्यासजी स्तब्ध होकर आकाश की ओर देखने लगे । वे मन ही मन समझ गये कि यह कोई कन्या नहीं थी, यह तो स्वयं वाग्देवी सरस्वती थी, जो मुझे मेरी गलती का भान कराने के लिए आई थी। घर आकर उन्होंने फिर धर्मसूत्र को उठाया और इस प्रकार संशोधन किया मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ निष्कर्ष यह है कि विद्वान् को भी यह दावा नहीं करना चाहिए कि मैं इन्द्रियों पर क्यों निग्रह करूं ? मेरे तो इन्द्रियाँ वश में हैं ? उसे भी, इन्द्रियजयी होने पर भी प्रतिक्षण इन्द्रियों के उपयोग में सावधान रहना चाहिए। अगर प्रतिक्षण इन्द्रियों के उपयोग पर चौकसी रखी जाए तो कोई कारण नहीं कि इन्द्रियनिग्रह युवक के लिए दुष्कर हो। __ इन्द्रियाँ आत्मा की शत्र नहीं हैं, ये आत्मा की सुविधाजनक विकास यात्रा में सहायक उपकरण हैं, आत्मा के औजार हैं, सेवक हैं । इनकी सहायता से आत्मा के हित व कल्याण में बाधा नहीं पहुँचती, वरन् इन्हें साधनरूप मानकर इनका सदुपयोग किया जाए तो जीवन का मधुर रस चखता हुआ युवक अपना जीवन लक्ष्य पूरा कर सकता है । निःसन्देह इन्द्रियाँ बड़ी उपयोगी हैं। अतः किसी भी इन्द्रिय का उपयोग करना पाप नहीं है, जरूरत है सावधानीपूर्वक इनकी गतिविधि को संभालने की। जब भी कोई इन्द्रिय अपने विषय की ओर दौड़ने लगे, व्यक्ति तुरन्त सम्भल जाए। बड़ी सूक्ष्मता और चतुराई से यह देखता रहे कि इन्द्रियाँ कहीं अपनी इच्छा से मुझे घसीट तो नहीं रही हैं । इन्द्रियों का स्वभाव जानकर उन्हें सही मार्ग पर ले जाए तो इन्द्रियनिग्रह कठिन नहीं, सरल हो जाएगा। __ युवक के लिए इन्द्रियनिग्रह कठिन तो तब होता है, जब वह इन्द्रियों में इतना आसक्त हो जाता है कि वह आध्यात्मिक विज्ञान की ओर उन्मुख नहीं हो पाता । उसकी For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ सारी चेष्टाएँ कुत्सित, घृणित, अदूरदर्शी एवं क्षणिक सुखोपभोग के आसपास ही चक्कर लगाया करती हैं । इन्द्रियनिग्रह जागृत रहने से कितना सरल हो जाता है, इसके लिए एक आधुनिक उदाहरण लीजिए _ तिवरी (जोधपुर) निवासी सेठ फकीरचन्द के पास लाखों की सम्पत्ति थी। मध्यप्रदेश में अच्छा कारोबार था । सब तरह से समृद्ध होते हुए भी संत-समागम, शास्त्रवाचन तथा इन्द्रियनिग्रह के अभ्यास की ओर उनका ध्यान था। संसार के भोग उन्हें नीरस प्रतीत होने लगे । दुनियादारी जंजाल मालूम होती थी। अभी जवानी थी। बच्चे छोटे थे। माता और पत्नी नहीं चाहती थीं कि वे संसार से इतने विरक्त होकर मुनीम-गुमाश्तों के भरोसे कारोबार छोड़ दें। माताजी ने उनकी विरक्ति देखकर उन्हें परदेश जाकर कारोबार सम्भालने की आज्ञा दी तो वे परदेश अपनी फर्म सम्भालने हेतु पहुँच गये । परन्तु वहाँ भी प्रतिक्षण जागृत रहकर आत्मचिन्तन करने लगे। न खाने-पीने की आसक्ति, न अच्छे वस्त्राभूषण पहनने का शौक, न ही सिनेमा आदि मनोरंजन के साधनों में दिलचस्पी थी, और न ही भोग-विलास के साधनों में कोई रुचि थी। आत्मानन्द के सामने उन्हें ये सब फीके मालूम होते थे। सेठजी अपने इन्द्रियसंयम की यात्रा में सतत जागरूक थे। वे अपनी ही मस्ती में रहते थे। यह देखकर माताजी ने सेठ फकीरचन्दजी को पुनः तिवरी बुला लिया । यहाँ भी वे इन्द्रियसंयम से रहते थे। मारवाड़ में प्रायः खिचड़ी ही सायंकाल का भोजन है । एक दिन सेठानीजी खिचड़ी उतारकर पानी लेने चली गईं। पास ही भैंस के लिए बाँटा रखा हुआ था। सेठजी भोजन करने आए । वृद्धा माँ भोजन परोसने लगीं । आँखों से कम दिखाई देने के कारण माताजी ने खिचड़ी के बदले बाँटा परोस दिया उनकी थाली में । सेठजी वही भोजन करके चले गये । सेठानी ने आकर देखा तो खिचड़ी ज्यों की त्यों पड़ी है। पूछने पर सारी बात मालूम हुई । दूसरे दिन सेठजी के उपवास था, अतः सारे दिन उपाश्रय में ही रहे । तीसरे दिन सबेरे जब वे आए तो माँ ने आँखों में आँसू भरकर कहा- "बेटा ! मुझे तो कम दिखता था, परन्तु तुमने भी देखकर कुछ कहा नहीं। खिचड़ी के बदले भैस का बाँटा खा गए !" पुत्र फकीरचन्द ने उत्तर दिया-"माँ ! जो पदार्थ भैंस नित्य खाती है, क्या मैं उसे एक बार भी नहीं खा सकता? फिर चिन्ता की क्या बात है ?" यह है इन्द्रियनिग्रह के विषय में जागरूकता के कारण युवावस्था में भी दुष्कर न लगने का ज्वलन्त उदाहरण ! आदतों पर नियंत्रण और निरीक्षण के अभाव में कुछ लोग विभिन्न इन्द्रियों से विभिन्न प्रकार की निरर्थक क्रियाएँ करते रहते हैं। एक प्रकार की उनकी आदत-सी बन जाती है । वे इन्द्रियों की इन चेष्टाओं द्वारा ऐसे बेतुके कार्य करते रहते हैं, जिनसे इद्रियाँ चंचल हो उठती हैं , और स्वयं को तथा For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २६५ दूसरों को हानि पहुँचाती हैं । जैसे कुर्ते या कोट के बटन मरोड़ना, उंगलियाँ चटकाना, जंभाइयाँ लेते रहना, खटखटाना, पिनों से दाँत या कान कुरेदना, मूछे ऐंठते रहना, नाक में उँगली डालना, दांत से नाखून काटना; किसी के यहाँ जाकर उसके घर में पड़ी वस्तुओं को उलटना-पलटना, किसी के शरीर को धक्के देकर बात करना आदि ऐसी हरकतें हैं, जिनसे इन्द्रियों की शक्ति का निरर्थक अपव्यय होता है। हाथ-पैरों की चेष्टाओं के अलावा मुह से भी कई लोग बेतुके कार्य करते रहते हैं। जैसे बात-बात में गालियाँ देना, असभ्यतासूचक भाषा का प्रयोग करना, अकारण निन्दा-चुगली करना, तम्बाकू या पान खाने के कारण चाहे जहाँ थूकते रहना, जोर-जोर से या जल्दी-जल्दी बोलना, खाते समय चपचप आवाज करना, मुंह से थूक उछालना, जब-तब गाने लगना, अपनी बड़ाई करना आदि बुरी आदतें पड़ जाती हैं तो वे इन्द्रियों की शक्ति का व्यर्थ ही अपव्यय करते हैं । इन आदतों पर नियंत्रण और निरीक्षण की बात जब भुला दी जाती है तब इन्द्रियनिग्रह दुष्कर हो जाता है। ऐसी बुरी आदतों के कारण लोगों को उपहासास्पद और छिछोरा बनना पड़ता है । अपनी शक्ति नष्ट होती है, और दूसरों द्वारा उसे असामाजिक, असभ्य, असावधान और अप्रामाणिक मान लिया जाता है। इन्द्रियों की शक्तियों का इस प्रकार अपव्यय जीवन को नरक बना देता है। इन्द्रियों की शक्ति इस प्रकार की कुटेबों में खर्च करने के अतिरिक्त कई लोग शारीरिक उत्त जनाओं से उत्तेजित होकर तथा मानसिक निर्बलताओं से प्रेरित होकर इन्द्रियों की बहुमूल्य शक्तियों को यों ही पंचेन्द्रियविषय-भोगों में अत्यधिक आसक्त होकर बर्बाद कर देते हैं । आखिर वे जवानी में ही बूढ़े-से लगने लगते हैं, चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं, इन्द्रियाँ अत्यन्त शिथिल, जर्जर एवं मृतवत् हो जाती हैं । ऐसा जीवन नीरस, शुष्क, अपवित्र और अन्धकारमय बन जाता है । शरीर-सुख की क्षणिक तृप्ति के लिए भोगों में सारे शरीर को वह निचोड़ देता है। थोड़े ही दिनों में शरीर निढाल होकर पड़ जाता है, जीवन का सत्त्व बर्बाद हो जाता है, इन्द्रियाँ जवाब देने लगती हैं । अकाल मृत्यु आकर दरवाजे पर दखल देती है। व्यक्ति क्षणिक स्वाद के लिए जीवन की अमूल्य शक्ति को बर्बाद कर देते हैं। साथ ही शरीर की विद्यु त्शक्ति और प्राणशक्ति दोनों का अनावश्यक उपयोग करने से वे अप्रिय, अप्रसन्न, रोगी और चिन्तित दिखाई देते हैं । दो क्षण के इन्द्रिय-सुख के लिए जीवन के अमूल्य हित पर कुठाराघात करना कितनी मूर्खता है ? इन्द्रियों का दुरुपयोग भी दुष्करता का कारण इन्द्रियनिग्रह की दुष्करता का एक कारण उनका दुरुपयोग भी है। किसी घोड़े को बेलगाम छोड़ दें तो वह अपने सवार को खड्डे में गिराकर ही रहेगा। सवार की सुरक्षा सदैव इसी बात में है कि वह घोड़े के नियन्त्रण को ढीला न करे। ऐसा करने से वह जिस दिशा में जितनी दूर जाना चहाता है, घोड़ा उसे सुरक्षापूर्वक पहुँचा देगा । यदि इन्द्रियों का दुरुपयोग रोककर युवक उनका सदुपयोग करने लगें तो इन्हों से For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आवश्यकता है, इनके स्वतन्त्र विचरण की बहुमुखी प्रवृत्ति पर अंकुश बनाए रखें । जैसे जिह्वन्द्रिय को लीजिए, युवक इससे अनिवार्य आवश्यक पदार्थ चखकर पेट में डालता है, वहाँ तक तो कोई आपत्ति नहीं, मगर जब वह भाँति-भाँति के स्वादिष्ट, चटपटे व्यंजनों की सदैव लालसा और लोलुपता रखता है, तब अपने शरीर, मन और आत्मा तीनों को खराब करता है । शरीर में अनेक रोगों को बुला लेता है, मन को रात-दिन स्वादलोलुप और विषयासक्त बनाये रखता है । आत्मा को कर्मों से भारी बना देता है। कभी-कभी स्वाद के चक्कर में पड़कर किसी मादक और विषैले पदार्थ का सेवन करके अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठता है । जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा है रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे वडिस विभिन्नकाए मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥' "जो प्राणी रसों में तीव्र गृद्धि (आसक्ति) करता है, वह अकाल में विनाश पाता है। जिस प्रकार रागातुर होकर मछली आमिष के उपभोग में गृद्ध होकर कांटे में फंस जाती है, उसका शरीर छिन्न-भिन्न हो जाता है।" इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में समझ लेना चाहिए। इन्द्रियों के साथ मन का स्पर्श होते रहने पर युवकों के लिए इन्द्रियनिग्रह की दुष्करता का एक प्रबल कारण है-इन्द्रियविषयों के साथ बराबर मन का स्पर्श होने देना । इन्द्रियाँ स्वयं अपने-अपने विषयों में स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त होती हैं, वहाँ तक पापकर्मबन्ध या दोष नहीं है, किन्तु जब मन उनके साथ मिलकर एक पर राग और दूसरे पर द्वष करने लगता है, तब उनका निग्रह करना अत्यन्त कठिन होता है । गीता में कहा है इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुविमिवाम्भसि ॥ "इन्द्रियाँ जब अपने-अपने विषय में विचरण करती हैं, तब यदि मन उनके पीछे लग जाता है तो वह मनुष्य की प्रज्ञा को उसी प्रकार बलात् खींच (हरण कर) ले जाता है, जिस प्रकार जल में नौका को हवा खींच ले जाती है।" उत्तराध्ययन सूत्र में भी बताया है- प्रत्येक इन्द्रिय के साथ मन लग जाने से राग और द्वष बढ़ता है, वही इन्द्रियनिग्रह में बाधक बनता है “रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥" १. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३२, गा० ६३ For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २६७ अगर युवक अपनी इन्द्रियों के साथ मन का स्पर्श न होने दे तो उसके लिए इन्द्रियनिग्रह बहुत ही आसान हो सकता है। मनोजन्य राग-द्वेष के वश न हो तो वह आत्मा का विकास सहज भाव से कर सकता है । बन्धुओ ! मैंने सभी पहलुओं से यौवन में इन्द्रियनिग्रह की दुष्करता के कारणों पर तथा सुकरता के उपायों पर विवेचन कर दिया है। अतः आप दुष्करता के कारणों से दूर रहकर सुकरता के उपायों को अपनाइए और सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कीजिए । महर्षि गौतम इसी कारण इस जीवन-सूत्र में कह रहे हैं 'तारुण्णए इन्दियनिग्गहो य चत्तारि एयाणि सुदुक्कराणि' तरुणावस्था अथवा यौवन वय में इन्द्रियों का निग्रह करना, उन्हें वश में रखना, अति दुष्कर है। तथा ये चारों पूर्वोक्त (पिछले प्रकरणों में बताई हुई ) बातें भी बहुत दुष्कर हैं। For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. जीवन अशाश्वत है धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं जीवन के एक विशिष्ट सत्य की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ। आप और हम सभी जीवन जीते हैं। परन्तु जीवन के विशिष्ट रहस्य को विरले ही समझते हैं । बहुत-से लोगों की जीवन के सम्बन्ध में विचित्र धारणाएँ बनी हुई हैं । बहुत-से लोग इसी जीवन को अन्तिम मानते हैं । किन्तु जीवन के विशिष्ट तत्त्वज्ञों का मत है कि जीवन अशाश्वत है-क्षणभंगुर है, अनित्य है, वह सदा एक-सा रहने वाला नहीं है, परिवर्तनशील है। महर्षि गौतम इसी सत्य को मानते हैं । अतः इस जीवनसूत्र में उन्होंने इस सत्य का रहस्योद्घाटन किया है "असासयं जीवियमाहु लोए।" लोक में दृश्यमान यह जीवन अशाश्वत है। जीवन क्या है ? वह अशाश्वत क्यों है ? शाश्वत क्यों नहीं ? अशाश्वत कहने के पीछे महर्षि का तात्पर्य क्या है ? इन प्रश्नों पर चिन्तन करने पर ही इस जीवनसूत्र का आशय समझ में आ सकता है। अतः आज मैं इसी पर अपना चिन्तन-विश्लेषण प्रस्तुत करना चाहता हूँ । गौतमकुलक का यह बयासीवाँ का जीवनसूत्र है। जीवन क्या है, क्या नहीं ? सर्वप्रथम मैं आपके समक्ष जीवन की परिभाषा दे देना चाहता हूं, ताकि आप जीवन का रहस्य समझ सकें । जीवन से यहाँ तात्पर्य है-मानव-जीवन से । परन्तु मानव-जीवन क्या मानव की आत्मा है, या मानव का शरीर अथवा मानव का कार्यकलाप है अथवा मानव के प्राण या श्वासोच्छ्वास हैं ? सचमुच यहां जीवन के विषय में आपके समक्ष गहराई से संक्षेप में विश्लेषण करने का प्रयत्न करूंगा। अकेली आत्मा ही मानव-जीवन नहीं है, क्योंकि अकेली आत्मा से जीवन में धर्म की कोई साधना-आराधना नहीं हो सकती। अतः शरीरविहीन या प्राणविहीन अकेली आत्मा मानव-जीवन नहीं कहला सकती। तब प्रश्न होता है, क्या आत्मा से रहित केवल शरीर मानव-जीवन है ? नहीं, ऐसा भी नहीं है । अकेला शरीर, मुर्दा शरीर, मानव-जीवन नहीं हो सकता, क्योंकि अकेला मुर्दा शरीर-आत्मा से रहित शरीर तो जड़ होता है, अचेतन होता है, उससे कोई भी कार्य मानव-जीवन का नहीं हो सकता। शरीर से आत्मा (चैतन्य) के प्रयाण कर जाने के बाद अकेला शरीर कुछ For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अशाश्वत है : २६६ भी करने-धरने की स्थिति में नहीं होता, वह तो जला दिया जाता है या दफना दिया जाता है । प्राण या श्वासोच्छ्वास भी अपने आप में अकेले नहीं रहते, वे रहते हैं आत्मा के साथ ही; और तभी वे सक्रिय होते हैं । प्राणरहित या श्वासोच्छ्वासरहित होने का अर्थ है-आत्मा से रहित मुर्दा शरीर । इसलिए आत्मा से रहित केवल शरीर से युक्त होने का अर्थ है-प्राणरहित निर्जीव हो जाना । यह सब जीवन नहीं है । निष्कर्ष यह है कि जीवन का अर्थ हुआ-आत्मा से युक्त शरीर; मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास के सहित चेष्टा करता हुआ एक पदार्थ । किन्तु जीवन का अर्थ इतने में ही परिसमाप्त नहीं होता । जीवन के अनुरूप मन, बुद्धि, इन्द्रिय, शरीर एवं शरीर के अंगोपांगों से विविध कार्य करते हुए. हलचल करते हुए तत्त्व भी जीवन के ही अंग हैं। संक्षेप में कहें तो मनुष्य की आत्मा के साथ लगे हुए शरीरादि अजीव, तथा उसके विविध कार्यों के कारण होने वाली पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बंध-मोक्ष आदि तत्त्वों से संलग्न स्थितियाँ तथा बाल्य, युवा एवं वृद्ध अवस्थाएं मानव-जीवन है। ___ यह जीवन अशाश्वत है या शाश्वत ? जीवन और जीव ये दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं । जीव से जब केवल आत्मा का बोध होता है, तब वह नित्य या शाश्वत होता है, और जब शरीर संयुक्त आत्मा का बोध होता है, तब वह अनित्य होता है, क्योंकि वह शरीर से संयुक्त होने के कारण अपने शुभाशुभकर्मवश नानागतियों और योनियों में भ्रमण करता रहता है, इसलिए अनित्य, अशाश्वत, क्षणभंगुर, परिवर्तनशील या अध्र व होता है । यहाँ जीवन की चर्चा है । जीवन नित्य तो तब होता, जब वह सिर्फ आत्ममय होता, परन्तु यहाँ तो आत्मा के साथ कई अन्य तत्त्व भी लगे हुए हैं, वे तत्त्व परिवर्तनशील, क्षणभंगुर, अनित्य एवं अशाश्वत हैं, इसलिए जीवन भी अशाश्वत है। मनुष्य-जीवन के साथ शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अंगोपांग, जन्म-मरण, बचपन, जवानी, बुढ़ापा, प्राण, श्वासोच्छ्वास आदि लगे हुए हैं। फिर विभिन्न शुभाशुभ कर्मों से युक्त होने के कारण पुण्यवान्, पापी, धार्मिक, अधार्मिक, धनिक, निर्धन, विद्वान, मूर्ख, व्यापारी, सैनिक, पण्डित और शिल्पकार आदि अनेक विशेषण लग जाते हैं। और ये सब नाशवान पर्याय हैं, ये बदलते रहते हैं, नष्ट होते रहते हैं, इसलिए मानव-जीवन को अशाश्वत कहना ही ठीक है, शाश्वत कहना युक्तिसंगत नहीं। यह एक अटल सिद्धान्त है कि जो उत्पन्न होता है, उसका विनाश अवश्य ही होता है। द्रव्य की अपेक्षा से भले ही सभी वस्तुओं को नित्य माना जाए, परन्तु पर्याय की-परिणमन की अपेक्षा से कोई भी वस्तु शाश्वत-नित्य नहीं है। इसीलिए कातिकेयानुप्रेक्षा में स्पष्ट कहा है जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जुव्वणं जरासहियं । लच्छी विणाससहिया, इय सव्वं भंगुरं मुणह ॥ ५॥ . For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ अत्थिरं परियणसयणं, पत्तकलत्त सुमित्त-लावण्णं । गिहगोहणाइ सव्वं णवघविदेण सारित्थं ॥६॥ सुरधणुतडिव्व चवला, इंदियविसया सुमिच्चवग्गाय । दिट्ठपणा सव्वे तुरय-गय-रहवरादीया ॥७॥ अर्थात् -- यह जन्म मरण से युक्त है, यौवन वृद्धावस्था सहित उत्पन्न होता है और लक्ष्मी विनाश के साथ ही आती है। इस प्रकार (जीवन से सम्बद्ध) सभी वस्तुएँ क्षणभंगुर समझो। जैसे आकाश में छाये हुए नवीन बादल तत्काल बिखर जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार इस संसार में परिजन-स्वजन, पुत्र, स्त्री, सन्मित्र, शरीर-सौन्दर्य, घर और गोधन आदि सब वस्तुएँ अस्थिर हैं--नाशवान हैं। इन्द्रियों के विषय इन्द्रधनुष और बिजली की चमक की तरह चंचल हैं। थोड़ी देर दिखाई देते हैं, फिर तुरन्त ही नष्ट हो जाते हैं । इसी तरह अच्छे नौकरचाकर, घोड़े, हाथी, रथ आदि श्रेष्ठ मानी जाने वाली सभी वस्तुएं नाशवान हैं। इनकी स्थिरता का कोई भरोसा नहीं है । निष्कर्ष यह है कि जीवन से सम्बन्धित जितने भी क्रिया-कलाप अथवा प्रवृत्तियाँ हैं, जितनी भी अवस्थाएँ हैं, वे सभी अनित्य हैं । जीवन की कोई भी अवस्था स्थायी नहीं है। आज का युवक समय पाकर वृद्ध हो जाएगा, बीच में ही अकाल मृत्यु से भी मर सकता है । और तो और आयुष्य पूर्ण होते ही देह छूट जाता है, आत्मा कृतकर्मानुसार दूसरी गति में चला जाता है। इसलिए भी यह जीवन अनित्य है, स्थिर या अविनाशी नहीं है । जीव का आयुष्य दो प्रकार का शास्त्र में बताया गया है--सोपक्रमी और निरुपक्रमी। देवता, नारकी, युगलिया, बेसठ श्लाघ्य पुरुष, और चरमशरीरी मनुष्यों का आयुष्य निरुपक्रमी है, शेष जीवों का आयुष्य सोपक्रमी है, अर्थात् किसी न किसी निमित्त से अकाल में ही आयुष्य समाप्त हो सकता है । सोपक्रमी आयु वाले जीवों का आयुष्य सात प्रकार से घटता है। यह एक गाथा द्वारा बताया गया है __ अज्झवसाणं निमित्त , आहार-वेयणा-पराघाए । फासे आणापाणू सत्तविहं छिज्जए आउ ॥ राग, स्नेह या भय आदि के अध्यवसाय के निमित्त से, अतिआहार करे या बिल्कुल आहार न करे, क्षुधा, पिपासा, रोग, शौचादि का निरोध, अजीर्ण सर्प, तीव्र शीतउष्ण आदि का स्पर्श, पानी में डूबने, आग में झलसने से, दण्ड, तलवार, चाबुक, अन्य शस्त्रादि के आघात से, श्वासोच्छ्वास के रोक देने आदि निमित्तों से आयुष्य बीच में ही टूट जाता है । अत्यन्त हर्षावेश में आने से मनुष्य का हार्टफेल हो जाता है । अत्यन्त १ कार्तिकेयानुप्रेक्षा-अध्र वानुप्रेक्षा For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अशाश्वत है : २७१ स्नेह या शोक के कारण भी स्त्री या पुरुष की बीच में ही मृत्यु हो जाती है। एक धोबी की एक लाख रुपये की लाटरी निकली। धोबी ने शराब पी ली और हर्षावेश में नाचने लगा। अत्यन्त हर्षावेश से उसका हार्ट फेल हो गया । अत्यन्त स्नेह से मृत्यु के भी अनेक उदाहरण हैं । अत्यन्त भय से सोमल ब्राह्मण की मृत्यु श्रीकृष्ण को देखते ही हो गई थी। इसी प्रकार अकस्मात् बिजली गिर जाने से, भूकम्प, बाढ़ आदि प्रकोपों से भी मृत्यु हो जाती है । देवताओं का आयुष्य भले ही निरुपक्रमी हो, मगर वह भी अशाश्वत है । कहा भी है जइ ता लवसत्तमसुरा, विमाणवासी वि परिवडंति सुरा । चितिज्जं तं सेसं संसारे सासयं कयरं ? अर्थात्-वैमानिक देवों की आयुष्य ३३ सागरोपम की भी है, वैसे ७ लव आयुष्य पूर्ण करके भी वैमानिक च्यवन करते हैं । इसी प्रकार शेष वैमानिकों का भी तथा अन्य देवों का भी चाहे जितना आयुष्य हो, वह भी पूर्ण होने पर टूट जाता है । कौन संसार में शाश्वत है ? निरुपक्रमी आयुष्य वाले युगलिया भी अपर्याप्त-अवस्था में ३ पल्योपम का अपवर्तन करके अन्तर्मुहुर्त में मृत्यु प्राप्त करते हैं। इसलिए संसार में किसी भी जीव का जीवन शाश्वत एवं स्थायी नहीं है । यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वर्तमान काल के मनुष्य की आयु उत्कृष्ट १०० वर्ष से कुछ अधिक और २०० वर्ष से कुछ कम बताई है । तथापि किसी समय तरुण-अवस्था में भी उपर्युक्त तीन अध्यवसाय (अतिहर्ष, अतिशोक, अतिभय) तथा अन्य उपक्रमों द्वारा भी जीवन का अन्त हो जाता है। इसीलिए सूत्रकृतांग सूत्र में बताया है इह जीवियमेव पासह, तरुण एवासासयस्स तुट्टइ । इत्तरवासे य बुज्झह, गिद्धनरा कामेसु मुच्छ्यिा ॥' इस लोक में प्रथम तो अपने जीवन (जीवन काल) को देखो। जीवन अनित्य है, आवीचिमरण से प्रतिक्षण विनाशी है। कई बार तरुण-अवस्था में भी किसी न किसी निमित्त से अकाल में ही आयुष्य टूट जाता है । इस जीवन को भी अल्पकालीन निवास स्थान के समान समझो। ऐसी परिस्थिति में भी हिताहित विवेकविकल मनुष्य काम-भोगों में गृद्ध और मूच्छित होकर नरकादि की यातना प्राप्त करते हैं । बन्धुओ ! एक तो मानव-जीवन बहुत ही अल्प है। फिर कब रोग आ घेरेगा, कोई ठिकाना नहीं। फिर सात कारणों से आयुष्य टूट जाता है, कदाचित् मान लें कि किसी का आयुष्य परिपूर्ण हो, फिर भी देवों के आयुष्य की अपेक्षा मनुष्य का आयुष्य कितना अल्प है ? देवों की आयु कम से कम १० हजार वर्ष की और अधिक से अधिक ३३ सागरोपम की है, फिर उनका आयुष्य टूटता नहीं है, उन्हें कोई रोग नहीं १. सूत्रकृतांगसूत्र श्रु० १, अ० २, उ० ३, गा० ८ For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ होता । देवों के सागरोपमों जितने आयुष्यकाल की अपेक्षा से मनुष्य का आयुष्य तो सिन्धु बिन्दु जितना है । इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में भी इस का बात स्पष्ट प्रतिपादन किया है— असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्त, frog विहिमा अजया गर्हिति ॥' "यह जीवन असंस्कृत है - नष्ट हो जाने पर पुनः जोड़ा नहीं जा सकता, अतः प्रमाद मत करो। बुढ़ापे के निकट आ जाने पर भी जीवन की सुरक्षा नहीं होती । प्रमादीजन इस प्रकार समझें और वे पराजित जन अजय होकर विशेष हिंसा को क्यों पकड़े हैं ?" अशाश्वत जीवन को भ्रमवश शाश्वत-सा मानते हैं जीवन अशाश्वत है, उसके सभी अंगोपांग, अनित्य एवं क्षणभंगुर हैं, जीवन की जितनी भी स्थितियाँ या अवस्थाएं हैं, वे सभी परिवर्तनशील हैं, आयुष्य भी क्षणभंगुर है, कोई भी तत्त्व अविनाशी नहीं है, सिवाय आत्मा के । इतना सब प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सिद्ध हो जाने के बावजूद भी अधिकांश लोग भ्रमवश जीवन को शाश्वत समझते हैं, या निश्चित रूप से चिरस्थायी समझते हैं । वे कहते हैं- "अभी जवानी है, इसके बाद प्रौढ़ अवस्था आएगी, फिर आएगा बुढ़ापा, तब आएगा मृत्यु का नंबर | अभी से हम मृत्यु की चिन्ता क्यों करें ?" परन्तु वे यह नहीं जानते कि जीवन और मरण का अविनाभावी सम्बन्ध है । जो जन्म लेता है, वह अवश्य मरता है और मृत्यु का कदम कोई निश्चित नहीं है कि वह बुढ़ापे के बाद ही आए । किसी भी समय वह मनुष्य को चेलेंज दे सकती हैं । इतना जानते हुए भी लोग जीवन को चिरस्थायी बनाने हेतु धन का अन्धाधुन्ध संग्रह करते हैं, भोग-विलास में अपना बहुमूल्य समय - शक्ति और धन खर्च करते हैं, सांसारिक विषयों के उपभोग का ही अधिकतर चिन्तन करते हैं, वे जीवन-निर्माण के मूलभूत तत्त्वों की ओर बिलकुल ध्यान नहीं देते हैं, अगर कभी सुन या पढ़ भी लेते हैं तो भी उस पर ध्यान देकर तदनुसार अपना भविष्य उज्ज्वल नहीं बनाते । जहाँ आवीचिमरण की दृष्टि से क्षण-क्षण में समुद्र की तरंगों की तरह आयुष्य क्षीण होता रहता है, वहाँ निश्चिन्त होकर बैठना कितनी मूढ़ता है ? जहाँ मृत्यु की तलवार सिर पर लटक रही हो, क्या शान्ति से बैठा जा सकता है ? श्री अमृतकाव्य संग्रह में ठीक ही कहा है १. उत्तराध्ययन सूत्र, अ. ४, गा. १ For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अशाश्वत है : २७३ झठी काया माया जैसे बादल की छाया सम, पुण्य खिस जाय नहीं ठहरे पाय पल है । दामिनी उजास जैसे संझा को प्रकाश जाण, ठहरे नहीं मूढ़ ! जैसे अंजलि को जल है ॥ डाभ - अग्रबिन्दु जैसे इन्द्र के धनुष्य सम, कुंजर को कान जैसे तरुवरदल है । अमीरख कहे चेत-चेत हो हुसियार नर, गाफिल रहे ते आगे पड़े मुसकिल है ॥ भावार्थ स्पष्ट है । इतना सब कुछ अशाश्वत, अनिश्चित जानते हुए भी मोह के कीचड़ में पड़कर मनुष्य अपना अमूल्य जीवन बर्बाद कर देता है । सेठ सुखलाल बहुत ही धनाढ्य थे । श्रावक के घर में उन्होंने जन्म लिया था, मगर वे धर्म को छोड़कर धन के पीछे पागल बने हुए थे । पुण्य प्रबल था, इसलिए व्यापार में खूब मुनाफा होता था । वे यही सोचा करते थे - जितना कमाया जा सके, उतना धन कमा लूं । जीवन को वे चिरस्थायी समझते थे । इसलिए इस समय कोई धर्म की बात कहता तो उन्हें सुहाती नहीं थी । जो इन्द्रियों के विषय, स्वजन - परिजन, देह - सुख, अस्थिर और नाशवान हैं, उनमें और चंचल लक्ष्मी को उपार्जित करते में ही वह रात-दिन लगे रहते थे । जबकि धर्मग्रन्थ पुकार -पुकार कहते हैं FRA अइलालिओ वि देहो पहाण सुगंधेहिं विविध भक्ोहि । aणमित्तं वि विडइ जल भरिओ आम-घडओ व्व ॥ जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बंधेइ रई इयरजणाणं अपुण्णाणं ॥ "देखो तो सही, यह शरीर, जिसे मनुष्य स्नान, सुगन्धित पदार्थों और अनेक प्रकार के भोजनादि भोज्य पदार्थों से अत्यन्त लालन-पालन करता है, वह भी पानी से भरे हुए कच्चे घड़े की तरह क्षणभर में फूट-टूट जाता है ।" "जो लक्ष्मी अत्यन्त पुण्योदयवश चक्रवर्ती को मिलती है, उसके पास भी वह शाश्वत नहीं है, तब फिर जो पुण्यहीन या अल्पपुण्य हों, उनके पास तो वह कैसे रह सकती है ? चाहे वह कुलीन, धैर्यधारी हो, पण्डित हो, योद्धा हो, पराक्रमी हो, सुन्दर हो, लोक - मान्य हो ।” सेठानी बहुत धर्मात्मा थी । उसे सेठजी की धर्मविमुखता बहुत ही खलती थी । वह बार-बार कहती थी- ' थोड़े से जीने के लिए क्यों इतना धन कमाने में रचे-पचे रहते हो ? क्यों सांसारिक सुखों में लुब्ध हो रहे हो ? न धन टिकेगा, न ये भोग-सुख १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा - अध वानुप्रेक्षा गाथा, ६-१० For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ टिकेंगे, न शरीर टिकेगा, फिर भी आप धर्म में रुचि नहीं करते । बताइये, क्या ये सब धनादि आपके साथ जाएँगे ?" सेठानी कहती-कहती थक गई मगर सेठ बिलकुल नहीं सुनता था। सेठानी का मन घर में प्रचुर सम्पत्ति एवं सुखोपभोग के सभी साधन होते हुए भी उदास रहता था। पड़ौसिनें, सखियाँ, सहेलियाँ भी जब सेठानी का चेहरा उदास देखकर पूछतीं, तब वह यही संक्षिप्त उत्तर देती- "बाह्य सुखों में कोई कमी नहीं है, बहनो ! परन्तु मेरे पतिदेव किसी प्रकार का धर्माराधन नहीं करते, यही दुःख है । ये सब सुखोपभोग के साधन पुण्य समाप्त होते ही नष्ट हो जाएंगे।" सेठानी अपने पति को बहुत समझाती और धर्माचरण करने को कहती। देखिये धर्म शास्त्र में क्या कहा है "उवणिज्जइ जीवियमप्पमायं मा कासि कम्माइं महालयाई।" "यह जीवन शीघ्रातिशीघ्र मृत्यु की ओर चला जा रहा है, अतः महादुर्गति में पहुँचाने वाले कर्म मत कर ।" मगर सांसारिक विषयों के मोह में मुग्ध, लक्ष्मी के मद में मत्त सेठ कह देते-"तू व्यर्थ ही चिन्ता करती है । मैं धर्मस्थान में जाऊँगा तो तुम्हें हीरों एवं सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित कौन करेगा ?'' परन्तु सेठानी के तो रग-रग में धर्म रमा हुआ था, वह बोली- "मुझे न तो हीरों के आभूषण चाहिए और न ही सुन्दर वस्त्र । मुझे धर्म खोकर व्यापार करना अच्छा नहीं लगता । धर्मसाधना में आप जुट जाएँ । मैं खादी की मोटी साड़ी और सादी चूड़ी से ही काम चला लूगी । घर का सारा काम मैं हाथ से कर लूंगी।" सेठ कहने लगा-"अगर मैं तुम्हें बढ़िया वस्त्राभूषण न पहनाऊँ तो समाज में मेरी प्रतिष्ठा ही खत्म हो जाएगी । तुम्हें तो केवल कहना है, समाज के बीच तो मुझे रहना है न ?" सेठानी चाहे जितनी जीवन की अनित्यता समझाती पर संसार की मोहमाया से प्रभावित सेठ को धर्माचरण की बात बिलकूल पसन्द नहीं आती थी । सेठानी अपने ही पुण्य की कमी मानकर सन्तोष करती । वह कहती थी-"मेरे पति को धर्म का रंग लगे, तभी मैं स्वयं को वास्तविक पुण्यवान समझूगी।" ___एक बार एक महान पवित्र और ज्ञानी साधु नगर में पधारे। सेठानी उन्हें वन्दना करने गई । वन्दना करते-करते सेठानी की आँख से आँसू टपक पड़े । यह देख कर मुनिराज पूछने लगे- "बहन ! तुम्हारी आँखों में आँसू क्यों ?" इस पर सेठानी ने सेठ से सम्बन्धित अपनी कथा कह सुनाई । मुनिराज भी उसकी बात सुनकर गम्भीर विचार में पड़ गये। फिर उन्होंने कहा-"बहन! सेठ से कहना कि एक खास काम के के लिए महाराजश्री ने आपको याद किया है।" सेठानी ने सेठ से यह सन्देश कहा तो सेठ को लगा कि महाराजश्री ने याद For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अशाश्वत है : २७५ किया है, तो मुझे अवश्य जाना चाहिए । सेठ मुनिश्री के पास गये । उन्हें वन्दना करके कहा-'गुरुदेव ! फरमाइए, मेरे योग्य क्या सेवा है ? मुनिश्री ने कहा- 'सेठ ! यह मेरी एक लकड़ी है, इसे आप अपने घर ले जाएँ, वहाँ रख देना। मैं काफी वृद्ध हो चला हूँ। कब यहाँ से परलोक विदा हो जाऊँ, कुछ पता नहीं है । मेरा जब देहान्त हो जाए तब आपको यह लकड़ी मुझे परलोक में पहुँचानी है । यानि आप जब परलोक में आएँ, तब मेरी यह लकड़ी साथ में लेते आएँ।" सेठ ने कहा- "गुरुदेव ! यह कैसे सम्भव होगा? परलोक में मैं यह लकड़ी कैसे ले जा सकूगा ?" ___मुनिश्री ने कहा- “सेठ ! इसमें कौन-सी बड़ी बात है ? जब आप अपनी सारी मिल्कियत, हीरा, माणक, मोती आदि सारी सम्पत्ति परलोक में साथ लेकर जाएँगे तो मेरी इस छोटी-सी लकड़ी में क्या भार है ?" ___ सेठ ने कहा- "महाराजश्री ! करोड़ों की सम्पत्ति में से मैं एक कण भी एक पाई भी साथ में नहीं ले जा सकूँगा, मेरे बाप-दादा भी तो यहीं छोड़ गए थे, मुझे भी यहीं छोड़कर जाना होगा ?" मुनि-"आपके बाप-दादों को सम्पत्ति पर मोह नहीं होगा, इसलिए वे यहीं छोड़ गये होंगे । पर आपको तो सम्पत्ति पर इतना जबर्दस्त मोह-ममत्व है इसलिए आप तो साथ में ले ही जाएँगे।" सेठ-'अरे भगवन् ! न वे ले गये, न मैं ले जाऊँगा । सब यहीं धरा रह जाएगा। सबको संसार के सारे पदार्थ यहीं छोड़कर जाना होगा । और तो और यह शरीर भी साथ में नहीं जाएगा, न जाएँगे ये कुटुम्बीजन !" __मुनि-"आप इतना जानते हैं, और यह भी जानते हैं कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं, कब लुढ़क जाए, तब इतनी उखाड़-पछाड़ धन के लिए क्यों और किसके लिए कर रहे हैं ? इतना सब छल-प्रपंच करके जो करोड़ों की सम्पत्ति इकट्ठी की है, वह किसलिए है ? क्या यह छोटी-सी जिंदगी थोड़े-से साधनों से नहीं चल सकती ? फिर इतने बँधे हुए पापकर्मों का फल भोगना होगा, उसे कौन भोगेगा ? क्या ये पारिवारिक जन इसमें हिस्सा बंटाएँगे? नहीं-नहीं सेठ ! छोटी-सी जिंदगी के लिए क्यों इतनी खटपट कर रहे हो ?" सेठ पर मुनिश्री के वचनों का बहुतों गम्भीर प्रभाव पड़ा। उनकी आँखों में आँसू छलक उठे, वे कहने लगे- "गुरुदेव ! आज आपने मेरी आँखें खोल दीं। आपको बात बिलकुल सही है। मेरी पत्नी तो मुझे बराबर यही कहती थी, तरन्तु मोह में अन्धा होकर मैंने उसकी एक नहीं सुनता था। मैं इस जीवन की अनित्यता पर कभी विचार नहीं करता, न ही मुझे धर्माचरण की बात सुहाती थी। मैंने अपना जीवन स्याहसफेद करने में -पापकर्म में बर्बाद कर दिया। अब मेरा क्या होगा ? प्रभो ! मैं कैसे इन पापों से छूटूगा ?" For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ संत ने कहा- “सेठ ! घबराओ मत । 'जबसे जागे, तब से सबेरा' इस कहावत के अनुसार अब धर्म की खूब डटकर आराधना करो।" सुखलाल सेठ ने कहा-"अब मैं दीक्षा नहीं ले सकता, परन्तु गृहस्थ-जीवन में रहकर यथाशक्ति धर्माराधना करूंगा ।" । सुखलाल सेठ ने मुनिश्री से सहर्ष श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये । घर आकर सेठ ने संकल्प किया कि 'अब मुझे नया धन्धा बिलकुल नहीं करना है । जो सम्पत्ति है उसमें से ५० प्रतिशत मुझे दान में उपयोग करना है।' सेठ का हृदय-परिवर्तन और जीवन-परिवर्तन देखकर सेठानी अत्यन्त प्रसन्न हुई। पति के चरणों में पड़कर उसने कहा- "नाथ ! आज मेरा जीवन आनन्दित है, मेरी वर्षों की भावना आज सफल हुई है।" इस प्रकार सेठ-सेठानी दोनों ने मनुष्य-जीवन का स्वरूप समझकर धर्माराधना करके अपना जीवन सफल किया। बन्धुओ ! जिस प्रकार सुखलाल सेठ के मन में जीवन के शाश्वत होने का तथा मोहवश सम्पत्ति इकट्ठी करके उससे जीवन को चिरस्थायी बनाने का भ्रम था, ऐसा ही भ्रम आज के कई भौतिकवादी या पुद्गलानन्दी लोगों को है । वे भी अहंकारवश जीवन को चिरकाल स्थायी और निश्चित समझकर उसे बर्बाद कर रहे हैं। परन्तु जब उन्हें कोई बड़ा भारी धक्का लगता है, या किसी महापुरुष द्वारा युक्ति से समझाने पर प्रेरणा मिलती है, तब उनकी आँखें खुलती हैं, वे उस अशाश्वत, किन्तु बहुमूल्य मानव-जीवन को सार्थक करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। जीवन को अशाश्वत समझकर क्या करना ? जो मनुष्य जीवन के इस सच्चे स्वरूप को समझ लेता है, कि यह अशाश्वत, अनित्य और अध्र व है, वह फिर गफलत में नहीं रहता, वह जागृत होकर अपने जीवन को सार्थक करने और इस बहुमूल्य मानव-जीवन से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यकतपरूप धर्म की आराधना करता है, निरतिचार व्रत, नियम, त्याग, दान, प्रत्याख्यान आदि का पालन करता है। परन्तु जो जीवन को अशाश्वत समझकर मी मोह-ममता एवं अज्ञानवश पापकर्म में पड़कर जीवन को यों ही नष्ट कर देता है, उसके लिए तिलोक काव्य संग्रह में स्पष्ट बताया है खिण-खिण मांही जैसे अंजलि को तोय घटे, तेल खूटे दीपक को, हीण होत जोत है। ओसबिन्दु सूरज की तेजसु विरलाय जाय, तैसे पल-पल तेरी आयु क्षय होत है ॥ For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अशाश्वत है : २७७ पलक के ख्याल मांही काहे को मगन होय, सार नहीं जैसे अजा कंठ थण होत है । कहत 'तिलोक' क्षमा खरची धरमधार, गजऋषि खंदक ज्यों होय निरमोत है।' भावार्थ स्पष्ट है । वास्तव में जो लोग अज्ञान और प्रमाद में पड़कर अपने जीवन को बर्बाद कर देते हैं, वे एक ही जीवन को नहीं, अनन्त-अनन्त जीवनों को बर्बाद करते हैं । उपनिषद के ऋषि ने कहा है “इतो विनष्टिमहती विनष्टिः" — यहाँ जो अपने जीवन को विनष्ट कर देता है, वह महान विनाश को न्यौता देता है।" जो मनुष्य इस जीवन का विचार नहीं करता, वह अपने लिए कुगतियों कुयोनियों का द्वार खोलकर महाविनाश उत्पन्न करता है । एक कवि ने ऐसे लोगों को चेतावनी देते हुए कहा है पल-पल बीत रहे जीवन का क्या कुछ तुझे विचार है ? नश्वर काया को कब तक इन सांसों का आधार है ?।। ध्र व ॥ हर काया के लिए अन्त में निश्चित जगह श्मशान है। धरे रहेंगे ये सब ऊँचे-ऊँचे महल मकान हैं । मिट जाएगा, यह सारा कल्पित तेरा अधिकार है ॥ पल....॥ तन को केवल माँज रहा है, मन का मैल न धो रहा । अमृतफल की चाह लगी, पर बीज जहर के बो रहा। मानवता को छू न सका, अब तक तेरा व्यवहार है ॥ पल....॥ धन का जादू ऐसा है, जो सिर पर चढ़कर बोलता। तू स्वीकार न कर चाहे, वह भेद स्वयं ही खोलता। उसके कारण मरे जा रहे, तेरे शुभ संस्कार हैं । पल....॥ कवि ने कितनी हृदयस्पर्शी बात कह दी है ? साथ ही उसने मानव-जीवन के वामियों को कर्तव्य की चेतावनी भी दे दी है। तात्पर्य यह है कि जब यह निश्चित है के जीवन नाशवान है, तब छोटे-से-स्वल्पसमय के जीवन को सार्थक करने के लिए मनुष्य को प्रमाद या गफलत न करके अपने प्रत्येक अंग को धर्माचरण में लगाना वाहिए । अपने तन, मन, वचन, साधन, इन्द्रियाँ, बुद्धि, धन, भवन आदि सबको, जो कि ताशवान हैं, धर्म-कार्यों में अधिकाधिक लगाना चाहिए। अपनी सुख-सुविधा के लिए, अपने जीवन के सुखोपभोग में कम से कम, यथोचित और धर्ममर्यादा में रहकर समय गाना चाहिए । पिछले जन्मों में जब तक अबोध अवस्था में रहा, तब तक तो अपने । तन-मन आदि के लिए सब कुछ किया, परन्तु अब तो बोध प्राप्त होने पर भी फिर नके मोह में पड़े रहना कितनी नादानी है। भगवान् महावीर ने तो गौतम गणधर तिलोक काव्य संग्रह, द्वितीय बावनी, काव्य २१ For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ जैसे उच्चकोटि के साधक को भी जीवन सार्थक करने के लिए बार-बार सावधान करते हुए कहा है दुमपत्तए पंडरए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए। एवं मणयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ इद इत्तरियम्मि आउए, जीवियए बहुपच्च वायए। विहुणाहि रयं पुरेकडं, समयं गोयम ! मा पमायए। "पेड़ का हरा-भरा पत्ता अनेक रात्रियों के बीत जाने पर जैसे पीला पड़कर झड़ जाता है, इसी प्रकार मनुष्य का जीवन है, आयुष्य पूर्ण होते ही यह समाप्त हो जाता है । इसलिए हे गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद मत करो। इस थोडे से आयुष्य (जीवितकाल ) में तथा अनेक विघ्न-बाधाओं से संकुल जीवन में पहले किए हुए कर्मों को नष्ट करो और नए कर्म न बँधने दो । हे गौतम ! इसमें क्षण मात्र भी प्रमाद मत करो।" क्षणभंगुर जीवन को सफल करने का कितना सुन्दर उपदेश है। मगर यह उपदेश लगे तब न ! परन्तु आप तो प्रायः कह बैठते हैं- 'जीवन की अशाश्वतता और कर्तव्य का ऐसा उपदेश देने का आपका स्वभाव है, हम तो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते हैं।' जिसकी भवस्थिति पक जाती है, उसे यह उपदेश तुरन्त लग जाता है। आपने पांचालपति द्विमुखराय का नाम सुना होगा । वे कांपिल्यपुर के राजा थे । सब तरह के वैभव का ठाठ था। एक बार काम्पिल्यपुर में इन्द्र महोत्सव मनाया गया। राजा के आदेश से पूरे नगर को सजाया गया था, जगह-जगह वंदनवार और द्वार लगाये गये । नगर के बीच में एक विशाल प्रांगण था, उसके ठीक मध्य में एक भव्य चबूतरा बनाया गया। उस पर रंगीन रेशमी ध्वजाओं और झंडियों से सुसज्जित एक विराट इन्द्रध्वजा खड़ी की गई। नगर के सभी नर-नारी, युवक-युवतियाँ, बालकबालिकाएँ हर्षोन्मत्त होकर उसके चारों ओर घूम-घूमकर नाचने-गाने-बजाने और उछलने लगे । नगरजन समस्त चिंताओं को भूलकर नये उत्साह से इसमें जुटे हुए थे। राजा द्विमुख ने इस उत्सव पर अपने दामाद मालवपति को भी आमंत्रित किया और खूब आनन्द से उत्सव मनाया। पूर्णिमा के दिन सर्वप्रथम राजा ने इन ध्वज की पूजा की, आरती उतारी, फिर नगर के समस्त प्रमुख श्रेष्ठी, सेनापति, अमात्य आदि ने आरती करके इन्द्रध्वज का पूजन किया। एक दूसरे से गले मिले, ताम्बूल, लवंग आदि से एक-दूसरे का सत्कार किया। पूर्णिमा की दुग्ध-धवल चांदनी में रतभर लोग गाते-बजाते-नाचते रहे और एक दूसरे से गले लगकर मिलते रहे। पूर्णिमा के दिन उत्सव पूर्ण हुआ । तोरण, चंदोवे आदि सब खोल लिये गये। सारी सजावट उतार ली गई । इन्द्रध्वजा पर लगे बहुमूल्य वस्त्र, सोने-चांदी के कलश आदि सब हटा लिये गये । सारी सामग्री समेट लेने के बाद अब उस प्रांगण में सिर्फ एक ध्वजदण्ड रह गया, सारा प्रांगण सूना-सूना हो गया। For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अशाश्वत है : २७९ कालान्तर में एक दिन राजा द्विमुख उधर से निकले तो इन्द्रध्वज में लगे विशाल खंभे को भूमि पर गिरा देखा, अब वह एक सूखे ठूठ-सा था। उस पर कितनी ही धल की परतें जम गई थीं। आस-पास रहने वाले बच्चों ने उस पर पेशाब-टट्टी करके जगह-जगह से गंदा कर दिया था। कई कुत्तों ने भी उस पर टट्टी-पेशाब करके उसे घिनौना बना दिया था। मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। चारों ओर से बदबू आ रही थी। राजा ने इन्द्रध्वज के स्तम्भ की दुर्दशा देखी तो वह गहरे चिन्तन में डूब गया। सोचा- 'एक दिन वह था, जब इस स्तम्भ की पूजा धूमधाम से की गई थी, इसे नाना वस्त्राभूषणों से सुसज्जित किया गया था। झंडियों, पताकाओं से यह ध्वज आसमान में फरक रहा था। चारों ओर धूप और मधुर सुगंध की महक थी। सभी नर-नारी इसकी पूजा कर रहे थे। और आज इसकी यह दुर्दशा !" क्या जीवन की भी यही दशा नहीं है, आज मेरी पूजा-भक्ति सर्वत्र हो रही है । जीवन-पुष्प कुम्हलाते और मुरझाते ही सबकी यही दशा श्मशान में होती है। संसार की सभी वस्तुएँ, जीवन की सभी अवस्थाएँ, धन, यौवन, सत्ता आदि सब इसी तरह तो नाशवान हैं।' द्विमुखराय का अन्तश्चेतन जागृत हो गया । संसार के विषय-भोगों के प्रति वह विरक्त हो गया। इस नाशवान जीवन को सार्थक करने का संकल्प कर लिया, राज्य आदि सबका परित्याग कर दिया । देवों ने उनके संकल्प के अनुसार उन्हें मुनिवेष पहनाया और द्विमुख राजर्षि प्रत्येकबुद्ध होकर भूमण्डल पर विचरण करने लगे। बन्धुओ ! प्रबुद्ध होते ही जीवन का तथा इससे सम्बद्ध तमाम सांसारिक पदार्थों का विनाशशील स्वरूप समझकर उन्होंने अपने जीवन को प्रबल धर्माचरण से सार्थक किया। महर्षि गौतम ने इसीलिए जीवन का यह सत्य उद्घाटित करके इस सूत्र के माध्यम से प्रस्तुत कर दिया है 'असासयं जीवियमाहु लोए।' लोक में यह जीवन अशाश्वत कहा गया है। 00 For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण धर्मप्रेमी बन्धुओ! आज मैं आपके समक्ष जिनोपदिष्ट धर्म के आचरण के सम्बन्ध में प्रकाश डालूगा । महर्षि गौतम ने बताया है कि जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यदि कोई आचरणीय है तो वह है जिनोपदिष्ट धर्म ! गौतमकुलक का यह तिरासीवाँ जीवनसूत्र है। इसमें स्पष्ट निर्देश है धम्मं चरे साह जिणोवइठं' -जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण करो। प्रश्न होता है-विश्व में अनेक धर्म हैं, धर्म-प्रवर्तक भी अनेक हुए हैं, विभिन्न देश-काल-पात्र के अनुसार उनमें से अनेक सम्प्रदाय, मत, पंथ आदि का प्रादुर्भाव हुआ है। फिर जिनोपदिष्ट धर्म को ही आचरणीय क्यों बताया ? जिनोपदिष्ट धर्म की क्या विशेषताएँ हैं ? उस धर्म का पालन करने से व्यक्ति को क्या-क्या लाभ होते हैं ? इन सब मुद्दों पर चिन्तन-मनन किये बिना आप इस जीवनसूत्र के रहस्य को शीघ्र नहीं समझ सकेंगे। इस जीवनसूत्र के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चिन्तन-मनन कर लें। विश्व के अनेक धर्म और जिनोपदिष्ट धर्म विश्व में आज अनेक धर्म प्रचलित हैं। सभी धर्म-सम्प्रदायों के दो रूप होते हैं-एक बाह्य, दूसरा अन्तरंग । बाह्य रूप होता है उस-उस धर्म का विधि-विधान, क्रियाकाण्ड, पूजा-उपासना की विधियाँ, तथा वेशभूषा आदि । और प्रत्येक धर्म का अन्तरंगरूप होता है-सत्य, अहिंसा, न्याय, नीति, क्षमा, दया, सेवा, ब्रह्मचर्य, ईमानदारी, अचौर्य, अपरिग्रह आदि विभिन्न तत्त्व । भिन्न-भिन्न धर्मों के बाह्य रूपों में जो अन्तर दिखाई देता है, उसी पर से प्रायः उस धर्म की पहचान होती है। धर्मों के अन्तरंग रूप में बहुत ही कम अन्तर प्रतीत होता है, और खासकर अन्तर होता है-धर्म, सत्य, अहिंसादि तत्त्वों के आचरण का। कोई धर्म अहिंसा पर अधिक जोरदे ता है, कोई सत्य पर, कोई न्याय पर और कोई नीति पर । यों देखा जाए तो विभिन्न धर्म विभिन्न देश-काल में विभिन्न धर्मप्रवर्तकों द्वारा प्रचलित किये गये हैं, इसलिए उनके पारिभाषिक शब्दों में बहुत अन्तर पाया जाता है, परन्तु उनके भावों और भावार्थों पर ध्यान दिया जाए तो उनमें बहुत ही समानता पाई जाती है। जैनधर्म ने अनेकान्तवाद द्वारा उन-उन दर्शनों और धर्मों में समन्वय स्थापित करके बता दिया है कि सभी धर्म आपस में भाई-भाई हैं। जैनधर्म के विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों या अवतारों का परस्पर समन्वय किया है। योगीश्वर आनन्दघनजी ने षट्दर्शनों को जिन भगवान के अंग बताया है For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २८१ षड्दर्शन जिन-अंग भणीजे, न्यास षडंग जे साधे रे । नमिजिनवरना चरणउपासक षड्दर्शन आराधे रे ॥ अर्थात्-छहों दर्शन जिन-वीतरागप्रभु के ६ अंग कहे गये हैं । विभिन्न निक्षेप और अपेक्षा से जो इन ६ अंगों की साधना करते हैं, परस्पर सामञ्जस्य बिठाते हैं, वे नमिजिनवर के चरणोपासक हैं । इसी प्रकार उन्होंने विभिन्न धर्मों के अवतारों आदि के नामों का भी समन्वय किया है राम कहो, रहमान कहो, कोई कहान कहो, महादेव री। पारसनाथ कहो, कोर ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री। आचार्य हेमचन्द्र ने भी विभिन्न नामों का समन्वय किया है भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा बुद्धो जिनो हरो वा नस्मतस्यै ॥ अर्थात्-जिनके भवबीजांकुर के उत्पादक रागद्वेषादि क्षय हो चुके हैं, उनका नाम चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, बुद्ध हो, जिन हो, हर (महादेव) हो या और कोई, उन्हें मेरा नमस्कार है। निष्कर्ष यह है कि जैनधर्म की विशेषता है कि वह अनेकान्तवाद के सिद्धान्त द्वारा प्रत्येक धर्म के सत्तत्वों और प्रत्येक धर्म के महापुरुषों आदि का समन्वय करता है । यह बतलाता है कि अमुक अपेक्षा से अमुक धर्म का तत्त्व सम्यक् है और अमुक अपेक्षाओं से असम्यक् । जिनोपदिष्ट धर्म क्या है ? जिन कोई व्यक्ति विशेष नहीं है, यह गुणवाचक नाम है । जिसके राग-द्वेष क्षय हो चुके हैं, जो वीतराग और केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) बन चुके हैं, जो जीवन्मुक्त हैं, अर्थात्-जहाँ तक शरीर है, वहाँ तक चार अघाती कर्मों के कारण शरीर में रहते हुए वे सभी यथोचित प्रवृत्तियाँ राग-द्वेषादि रहित होकर करते हैं, जो १८ दोषरहित हैं, उन्हें जिन कहते हैं । वे दो प्रकार के होते हैं-एक तीर्थंकर जिन और दूसरे सामान्य केवली जिन । जो तीर्थंकर जिन होते हैं, वे तीर्थंकरनामकर्म के कारण धर्मतीर्थ (धर्म-संघ) की स्थापना करते हैं। ऐसे तीर्थंकर एक ही नहीं हुए, अलग-अलग समय में होते हैं। ये जैनधर्म की मान्यतानुसार इस अवसर्पिणी कालचक्र में ऋषभदेव से वर्द्धमान (महावीर) तक २४ तीर्थकर हुए हैं । ऐसे २४-२४ तीर्थंकर विभिन्न देश-काल में अनन्त हो चुके हैं । यही कारण है कि जिनोपदिष्ट धर्म के केवल बाह्यरूपों का समय-समय पर परिष्कार होता रहा है, इसके बाह्य विधि-विधानों में, वेशभूषा में, क्रियाकाण्डों में समय-समय पर अपने-अपने युग के अनुरूप आवश्यकतानुसार तीर्थंकरों और उनके अनुगामी आचार्यों द्वारा संशोधन-परिवर्द्धन और परिवर्तन होता रहा है । इस कारण हम यह कह सकते हैं कि जैनधर्म में बहुत ही कम विकृतियाँ आई हैं और यदि आई हैं For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ तो समय-समय पर युगप्रभावक आचार्यों ने उन्हें दूर करके धर्म को शुद्ध रखने का प्रयत्न किया है । जिनोपदिष्ट धर्म का अर्थ होता है - वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादितप्ररूपित धर्म । वह धर्म, जो रागद्वेषरहित, वीतराग, सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा कथित हो, भला उसमें किसी के लिए पक्षपात या किसी के लिए अहित की कोई सम्भावना हो सकती है ? भावनाशतक में कहा है जिस योगी ने रागद्वेष का जड़ से कर डाला है नाश, जिसको कुछ भी स्वार्थ नहीं है, नहीं ममत्वभाव भी पास । उस उपकारी परमार्थी का कहा धर्म है सत्य महान, कर्मरोग का नाशक है वह है हितकारी पथ्य-समान || जिसका किसी से कोई स्वार्थ नहीं है, किसी से कुछ लेना-देना नहीं है, जिसे किसी भी सजीव-निर्जीव पदार्थ के प्रति आसक्ति, ममता मूर्च्छा, लालसा, स्पृहा, तृष्णा, वासना आदि जरा भी नहीं है, जो महापुरुष अहेतुक एवं निःस्वार्थभाव से, परमार्थ दृष्टि से जगत के दुःखपीड़ित जीवों पर करुणा एवं दया करके अपना प्रवचन - विश्वहितंकर धर्मकथन करते हैं, वह धर्म शुद्ध, निखालिस, श्र ेयस्कर, सत्य, हितकर एवं पथ्यकर हो इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता । प्रश्नव्याकरणसूत्र इस बात का साक्षी है कि तीर्थंकर प्रवचन (धर्मकथन) क्यों करते हैं " सव्वजगजीव रक्खणदयट्ट्याए पावयणं भगवया सुकहियं ।" " सारे विश्व के जीवों की रक्षारूप दया से प्रेरित होकर भगवान् ने प्रवचन कहे हैं।" जिस प्रकार हितैषी एवं निष्पक्ष वैद्य की दवा कड़वी होती है, उसके साथ पथ्यपालन भी सावधानीपूर्वक करना पड़ता है, अन्यथा रोग मिटेगा नहीं, रोगी वैद्य पार बार-बार शिकायत करेगा । इसी प्रकार भवभ्रमणरूप रागद्वेषादि विकार - रोगों को मिटाने के लिए कुशल, सर्वहितैषी, निःस्वार्थ, निष्पक्ष वीतराग, (जिन) वैद्य की दवा चाहे कड़व हो, उसके साथ नियमोपनियम- मर्यादारूप पथ्य का कठोरता से पालन करना होगा । तभी आत्मिक रोग मिट सकेंगे । परन्तु कोई पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर यों ही कह दे कि वीतराग-वाणी तो जैनों के लिए है, या जैनसाधुओं के लिए हैं उनके द्वारा कथित धर्म हमारे लिए नहीं है । हम क्यों जिनोपदिष्ट धर्म को निष्पक्ष मानें तो बात ही दूसरी है --- जिन वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं । उनकी वाणी में पक्षपात, पूर्वाग्रह, विकार लिप्त होने का दोष कदापि नहीं हो सकता । समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि ने तो स्पष्ट कहा है १. भावनाशतक - धर्मभावना, ह२ For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २८३ पक्षपातो न मे वीरे, न द्वषः कपिलादिषु । युत्तिमद वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ "मुझे तीर्थंकर महावीर के प्रति कोई पक्षपात नहीं है, और न ही सांख्यमतप्रवर्तक कपिल आदि के प्रति द्वष है, जिसका भी वचन युक्तिसंगत हो उसका ग्रहण कर लेना चाहिए।" इसलिए जिनोपदिष्ट धर्म सर्वथा निष्पक्ष, उदार, निःस्वार्थ है। इसे वर्तमान में जैनधर्म कहते हैं। कई लोगों का इस धर्म पर आक्षेप है कि , यह बहुत ही कठोर धर्म है । इसका पालन करने में बहुत ही दिक्कतें आती हैं। आम आदमी ही नहीं, विशिष्ट व्यक्ति-राजा, धनिक या सत्ताधीश भी इसका पालन कर ही कैसे सकता है ? भला इतनी उच्च अहिंसा का पालन कैसे होगा, किसी से ? यह धर्म तो केवल साधुओं के लिए ही है, जिनका घर-बार, परिवार, धन-सम्पत्ति आदि से कोई वास्ता न हो, जो गृहस्थ की जिम्मेवारियों से मुक्त हों।" ___ मैं कहता हूँ, ऐसी बातें वे ही लोग कहते हैं, जिनको जैनधर्म के सिद्धान्तों और विधि-विधानों का बहुत ही कम ज्ञान है। तथा जो जैनधर्म के इतिहास से बिलकुल अनभिज्ञ हैं, जैन-जीवन से जो बिलकुल अछूते है। अथवा जो लोग अत्यन्त भोगी-विलासी हैं, जिन्हें धर्म का बिलकुल स्पर्श नहीं है, जो जरा-सा भी, थोड़ी देर के लिए भी, त्याग, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि नहीं कर सकते, जिन्हें यह भान नहीं है कि जीवन का लक्ष्य जब त्याग, प्रत्याख्यान, तप, नियम आदि से आत्मशुद्धि और आत्मविकास करके मुक्ति-प्राप्ति है न कि केवल सुख-भोग, आमोद-प्रमोद, दुर्व्यसनासक्ति, या विलासिता होता है, वे ही जिनोपदिष्ट धर्म को कठोर, कष्टकारक एवं अरुचिकर मानते हैं। जिन्हें अपने जीवन का कल्याण प्रिय है, जिन्हें अपनी आत्मा पर आए हुए आवरणों को दूर करके आत्मा को शुद्ध एवं विकसित करना है, और अन्त में सर्वदुःखों-कर्मों से मुक्त करना है, वे कदापि इस धर्म को कठोर, कष्टकर एवं अरुचिकर नहीं कहते । यही कारण है कि बहुत-से लोग जैनधर्म के विषय में गलत-फहमियाँ फैलाते हैं और ऐसे धर्म को ढूढ़ते हैं, जिसमें कुछ करना-धरना न पड़े। जो सब प्रकार की इन्द्रिय-सुखभोगों की छूट देता हो, इन्द्रियों और मन को उन्मुक्त रूप से विषय-भोगों का स्वाद लेने के लिए प्रेरित करता हो, संभोग से समाधि मानता हो, जिसमें रातदिन खाने-पीने की, हर एक वस्तु खाने-पीने की स्वतन्त्रता हो, कोई नियम नहीं, कोई त्याग-प्रत्याख्यान नहीं, कोई व्रत या संकल्प नहीं, कोई मर्यादा या सीमा नहीं। उच्छृखल, स्वच्छन्द और उन्मुक्त रूप से विचरण करने की बात कहता हो वामाचार-पंचमकार (मद्य, मीन, मैथुन, मांस और मुद्रा) को ही धर्म कहता हो क्या इस प्रकार की स्वच्छन्दता और मनमानी से आत्मा पर जमे हुए कर्मों के आवरण जाल टूट जाएँगे? इच्छाओं का भला कोई अन्त है, कोई सीमा है उनकी ? इच्छाअं For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ पर कोई भी रोक न लगाने वाला धर्म मुक्ति का दावेदार कैसे हो सकता है ? जैनधर्मं ने तो स्पष्ट कहा है "छन्दनि रोहेण उवेइ मोक्खं ' "मोक्ष अगर कोई प्राप्त कर सकता है तो वह स्वच्छन्दता का निरोध करके ही प्राप्त कर सकता है ।" जिनोपदिष्ट धर्म को विशेषताएं जिनोपदिष्ट धर्म की अनेक विशेषताएँ है । यहाँ मैं बहुत हो संक्षेप में कुछ प्रमुख विशेषताओं के सम्बन्ध में आपको बताऊँगा । अनेकान्त - जिनोपदिष्ट धर्म की सबसे बड़ी विशेषता अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद या स्याद्वाद है । जैनधर्म की परिभाषा एक आचार्य ने इस प्रकार की है स्यादवादो विद्यते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यस्य पीड़नं किंचित्, जैनधर्मः स उच्यते ॥ " जिसमें स्याद्वाद है, पक्षपात बिलकुल नहीं है, तथा जिसमें किञ्चिन्मात्र भी परपीड़न नहीं है, उसे जैनधर्म कहते हैं ।" अनेकधर्मात्मक वस्तुओं का विविध अपेक्षाओं से कथन करना या मानना स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है । जब अनेकान्त जीवन में आ जाता हैं, तो 'जो सच्चा सो मेरा' की वृत्ति हो जाती है । वहाँ पक्षपात का तो नाम ही कैसे रह सकता है ? जिस धर्म में किसी भी जीव के प्रति पक्षपात न हो, वहाँ किसी भी जीव को पीड़ा कैसे दी जा सकती है ? और फिर अनेकान्त दृष्टि से सभी धर्मों, आध्यात्मिक साधनाओं, तत्त्वों, शास्त्रों, लौकिक विधियों, जातियों आदि का समन्वय हो जाता है । जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, कि जैनधर्म में अनेकान्तवाद के माध्यम से किस प्रकार दर्शनों, धर्मप्रवर्तकों और धर्मों का समन्वय किया गया है । धर्माचरण : सबके लिए - जिनोपदिष्ट धर्म किसी एक जाति, वर्ण, देश, प्रान्त या राष्ट्रविशेष द्वारा ही आचरणीय हो, ऐसा नहीं है । जैनधर्म की दृष्टि से किसी भी देश, वेष, वर्ण, जाति, धर्म-सम्प्रदाय, प्रान्त, राष्ट्र, भाषा, संस्कृति या धर्म - संस्कारों आदि का कोई भी व्यक्ति इसका आराधन या पालन कर सकता है । कोई भी व्यक्ति अपनी भूमिका के अनुसार इसे अपना सकता है। जैनधर्म में विभिन्न कोटि के व्यक्तियों की भूमिका के अनुसार धर्माचरण का प्रतिपादन किया गया है । मुख्यतया यहाँ तीन प्रकार की भूमिका के अनुरूप धर्माचरण की तीन कोटियाँ बताई गई हैं— ( १ ) मार्गानुसारी ( २ ) गृहस्थ श्रावक या श्रमणोपासक और (३) महाव्रती साधु । गृहस्थ श्रावक की भी कई श्र ेणियाँ बताई हैं, इसी प्रकार कई श्रेणियाँ बताई गई हैं । महाव्रती साधुओं की भी For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २८५ इन सबका वर्गीकरण करके इनके धर्माचरण में भी विभिन्न श्रेणी के अनुरूप अन्तर बताया गया है, जो कि स्वाभाविक है । सभी के लिए महाव्रत आचरणीय नहीं होते, न ही सभी के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत आचरणीय होते हैं । मार्गानुसारी के ३५ गुणों का भी वही व्यक्ति आचरण करता या कर सकता है, जो धर्म-मार्ग पर नैतिकता के आधार पर आना चाहता हो। मैं पहले बता चुका हूँ कि जिनोपदिष्ट धर्म के द्वारा सभी वर्ण, वर्ग, जाति, देश, वेश, संस्कृति, राष्ट्र एवं भाषा आदि के लोगों के लिए खुले हैं । अपनी-अपनी योग्यतानुसार सभी व्यक्ति इसमें स्थान पा सकते हैं । जैनधर्म जन्मना जातिवाद को, छुआछूत को, मानव मानव में भेदभाव को नहीं मानता; वह इन ऊपरी आवरणों को चीरकर व्यक्ति की आत्मा को टटोलता है। यहाँ तक कि पापी से पापी व्यक्ति को भी जैनधर्म में स्थान है, और एक पवित्र धर्मात्मा को भी है। पापात्मा व्यक्ति भी अगर चाहे तो अपनी आत्म-शक्तियों को धर्माचरण द्वारा प्रगट कर सकता है, उच्च कोटि का धर्मात्मा, महात्मा और परमात्मा तक बन सकता है । कई स्थूलदृष्टि वाले महानुभाव जैनधर्म के सिद्धान्तों को न समझकर कह देते हैं कि यह तो बनियों का धर्म है, यह वैश्यों के लिए ही आचरणीय है, किन्तु ऐसी बात नहीं है । जैनधर्म न तो एकान्ततः वैश्यों का धर्म रहा है, और न ही एकान्ततः क्षत्रियों या ब्राह्मणों का, न ही शूद्रों का । इसमें चारों ही वर्गों के व्यक्ति साधु बने हैं, श्रावक भी बने हैं। सभी ने अपनी-अपनी भूमिकानुरूप इस धर्म का आचरण करके अपना कल्याण किया है। अनेक क्षत्रिय राजाओं, राजकुमारों और क्षत्रिय-पुत्रों ने इस धर्म की मुनिदीक्षा ली है, अनेक राजरानियों, क्षत्रियाणियों ने साध्वी बनकर स्वपरकल्याण साधा है । अनेक ब्राह्मणों ने इस धर्म में दीक्षित होकर स्वपरकल्याण-साधना की है । भगवान महावीर के धर्म-तीर्थ संघ के इन्द्रभूति गौतम आदि ११ गणधर ब्राह्मण ही थे । उन्होंने महावीर के धर्मसंघ का संचालन और संघ व्यवस्था सुन्दर ढंग से की । जम्बूकुमार. धन्ना, शालिभद्र आदि अनेक वैश्यपुत्रों ने जैनधर्म की मुनिदीक्षा लेकर स्वपरकल्याण-साधना की । सम्प्रति राजा, खारवेल, कुमारपाल आदि राजाओं ने जिनोपदिष्ट धर्म अंगीकर कर श्रावकधर्म के व्रतों का यावज्जीवन पालन किया था । अर्जुन मालाकार, हरिकेशबल चाण्डाल, चिलातीपुत्र आदि अनेक शूद्रवर्णीय महानुभावों ने साधुधर्म का आचरणा करके अपना और दूसरों का कल्याण किया । इसी प्रकार काली, महाकाली, कृष्णा, महाकृष्णा, आदि राजरानियों ने भगवान महावीर के धर्मशासन-काल में साधुधर्म का आचरण करके मुक्ति प्राप्त की। सद्दालपुत्र कुम्भकार आदि शूद्रजातीय श्रावक भी उस युग में हुए हैं; तो कई उपासक आनन्द जैसे कई वैश्य श्रमणोपासक भी हुए हैं। क्षत्रिय और ब्राह्मण भी कई श्रमणोपासक हुए हैं, जिन्होंने अपना कल्याण श्रावकधर्म का आचरण करके किया है। For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ मोक्ष : सबके लिए-कई धर्म वाले कहते हैं- "हमारे धर्म में आओगे, तभी मुक्ति होगी, नहीं तो नरक में जाना पड़ेगा।” परन्तु जिनोपदिष्ट धर्म किसी से यों नहीं कहता कि इस धर्म में, इस वेश में, इस जाति में, इस तीर्थंकर, पैगम्बर या अवतार की शरण में आने पर ही मुक्ति होगी। स्त्री को, गृहस्थ को, नपुंसक को, हमारे धर्म में मुक्ति नहीं होती। दूसरे धर्म, देश, वेश, जाति के लोगों की मुक्ति नहीं होती। दूसरे अवतार की शरण में जाने पर भी मुक्ति नहीं होती है । परन्तु जैनधर्म यह नहीं कहता कि मेरे धर्म में, मेरे देश या या वेश में, मेरी जाति में, मेरे तीर्थंकरों की शरण में आने पर ही मुक्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं। किसी भी धर्म, वेश, देश, जाति का व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर सकता है। कोई भी स्त्री, पुरुष, नपुंसक हो, गृहस्थवेशी हो या साधुवेशी, स्वयंबुद्ध हो या प्रत्येकबुद्ध, मुक्ति प्राप्त कर सकता है, बशर्ते कि रत्नत्रय की साधना करे । जैनशास्त्रों में १५ प्रकार से सिद्ध-मुक्त होने का स्पष्ट उल्लेख है-(१) तीर्थसिद्ध, (२) अतीर्थसिद्ध, (३) तीर्थंकरसिद्ध (४) अतीर्थंकरसिद्ध (५) स्वयंबुद्ध सिद्ध, (६) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, (७) बुद्धबोधित सिद्ध, (८) स्वलिंग सिद्ध, (8) अन्यलिंग सिद्ध, (१०) गृहीलिंग सिद्ध, (११) स्त्रीलिंग सिद्ध, (१२) पुरुषलिंग सिद्ध (१३) नपुंसकलिंग सिद्ध, (१४) एक सिद्ध (१५) अनेक सिद्ध। सिद्ध का अर्थ सर्वकर्मों से मुक्त--मोक्ष-प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि जिनोपदिष्ट धर्म कितना उदार है ? उसने मुक्ति के द्वार सबके लिए खोल रखे हैं । पतितों या शूद्रों को भी प्रवेश इतना ही नहीं, जिनको एक दिन समाज पतित और शूद्र कहता था, जिनको कहीं भी और कोई भी धर्म या धर्मनायक स्थान नहीं देता था, जिन्हें अपने उद्धार या मोक्ष की कोई आशा नहीं थी, जिनोपदिष्ट धर्म ने उन्हें अपने धर्म में स्थान दिया है; इतना ही नहीं, उन्हें मुनि-दीक्षा भी दी है, और मुक्ति-पद भी प्राप्त कराया है । चित्त और सम्भूति चाण्डाल-पुत्र थे । तथाकथित समाज के त्रास से परेशान हो उठे थे। वे नमुचि प्रधान से संगीत कला सीखकर उसमें दक्ष हो गये थे, कण्ठ भी सुरीला था। जब वे सुरीले कण्ठ से मधुर लय और तान के साथ गाते तो जनता मुग्ध हो जाती थी। जनता का उन दोनों भाइयों के प्रति आकर्षण देखकर नगर के कुछ प्रमुख लोगों ने विरोध उठाया और इन पर समाज को धर्मभ्रष्ट करने का आरोप लगाकर राजाज्ञा द्वारा नगर से निष्कासित कर दिया। दोनों अब जंगल में रहते, वहीं मधुर संगीत गाते और मस्त रहते थे। वहाँ भी उनके प्रति लोगों का आकर्षण कम नहीं था, मगर जात्यभियानी धर्मध्वजी लोगों ने उन्हें वहाँ भी टिकने नहीं दिया। जीवन से निराश होकर उन्होंने पर्वत से गिरकर आत्महत्या करने का विचार किया। सोचा- 'समाज में हमारेलिए कोई स्थान ही नहीं है, तब हमारा जीना बेकार है।' १. समवायांग सूत्र तथा तत्त्वार्थ सूत्र For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २८७ यों सोचकर वे दोनों पहाड़ से नीचे गिरने जा रहे थे, तभी एक पवित्रता की प्रतिमूर्ति स्वपरकल्याणदक्ष जैन मुनिराज वहाँ दृष्टिगोचर हुए। उन्होंने दोनों को हाथ के संकेत से रोका, उनके निकट पहुंचे और पूछा- "वत्स तुम ! दोनों इस अमूल्य मानवजीवन को क्यों नष्ट कर रहे हो?" वे कहने लगे-"भगवन् ! इस दुनिया में अब हमारा कोई स्थान नहीं है। इसलिए हमें अब जीकर क्या करना है ? समाज में हमें सब दुर-दुराते हैं, हमें नगर से बाहर निकाल दिया। वन में रहते थे, वहां से भी खदेड़ दिया। अब हम कहाँ जाएँ ?" मुनिवर ने कहा- "वत्स ! घबराओ मत ! हमारा धर्म तुम्हें शरण देगा । तुम अपने जीवन को तप, संयम से उज्ज्वल बनाओ। मैं तुम्हें अपने पास स्थान दूंगा, तुम उच्च साधना करके अपने जीवन का कल्याण कर सकोगे।" दोनों बहुत प्रसन्न हुए । दोनों चाण्डाल-पुत्र उन मुनिराज के पास मुनिधर्म में दीक्षित हो गये । महाव्रत तप-संयम की आराधना की। अनेक लब्धियाँ प्राप्त की और स्वपरकल्याण करते हुए विचरण करने लगे। यह है समाज में घृणित एवं अस्पृश्य शूद्र माने जाने वालों का जैनधर्म में प्रवेश और आत्म-कल्याण का ज्वलन्त उदाहरण ! इसी प्रकार हरिशकेबल चाण्डाल को कौन नहीं जानता? हरिकेशबल चाण्डालकुल में जन्मे थे । एक तो चाण्डालकुल में जन्म, फिर उनका शरीर कालाकलूट, कुरूप और बेडौल ! इसके अतिरिक्त वे अंट-शंट एवं कठोर बोलते थे, चाहे जिससे लड़ते-झगड़ते थे। घर में, परिवार में, अडोस-पड़ोस में कोई उन्हें चाहता नहीं था । सभी उसका तिरस्कार करते थे। तिरस्कृत होकर वे मामा के यहाँ रहने लगे । मामा के यहाँ भी कोई उनका सत्कार नहीं करता था, न प्रेम से बुलाता था। एक बार किसी रिश्तेदार के यहाँ भोज था। उसमें वे भोजन करने गये थे। हमजोली बच्चे उनका मजाक उड़ा रहे थे । तभी एक दुमुही निकली। उसे देख सब लोग पूजने और आदर करने लगे । कुछ ही देर बाद एक सर्प निकला, उसे देखते ही सब लड़के-लकड़ियाँ लेकर उसे मारने दौड़े, पीटने लगे । वह बेचारा किसी तरह जान बचाकर भागा । इन दोनों का रंग-आकृति एक-सी देख हरिकेशबल विचार करने लगे -'पहले की पूजा की और दूसरे को मारा-पीटा यह अन्तर क्यों ?' पूछा तो लोगों ने कहा- "दुमुही और सर्प एक ही जाति के, एक-से रंगरूप के होते हुए भी पहले का आदर इसलिए किया गया कि उसकी जबान में विष न था। दूसरे का अनादर इसलिए किया गया कि उसकी जबान में विष था।" बस, उनके दिमाग में विचार की बिजली कौंधी'मेरे भी तो जबान में विष है, मैं भी लोगों को कड़वा एवं कठोर वचन कह देता हूँ। इसीलिए लोग मेरा सर्वत्र अनादर करते हैं। अगर मैं अपनी जबान पर संयम कर लू, मधुर बोलू तो चाहे मेरा चेहरा कैसा भी हो, लोग आदर करेंगे।' वह प्रतिबोध पाकर वहाँ से चल पड़ा । स्वयमेव जैनसाधु का जीवन स्वीकार कर लिया। भगवान महावीर के धर्मसंघ में हरिकेशबल का महत्त्वपूर्ण स्थान है । आगम के पन्नों पर उनकी तप-संयम से ओतप्रोत जीवनगाथाएँ अंकित की गई हैं। For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ इससे भी आगे बढ़कर जैनधर्म ने ११४१ व्यक्तियों की हत्या करने वाले अर्जुन मालाकार को मुनिसंघ में स्थान दिया । भगवान महावीर से अर्जुन मुनि ने क्षमा की अद्भुत व कठोर साधना सीखी और क्षमाधर्म के अटल पुरुषार्थ से छह महीनों में अपने समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बने । जैनधर्म के इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं। धर्मानुरूप समस्त लौकिक विधियों का स्वीकार जैनशास्त्रों में मूल में विवाह आदि की लौकिक विधियों का उल्लेख नहीं है। केवल विवाहों का तथा कुछ कथाओं में वर-कन्या की योग्यता तथा प्रीतिदान का उल्लेख अवश्य है । जब जैनाचार्यों के समक्ष यह प्रश्न आया कि कौन-सी लौकिक विधि मानी जाए और कौन-सी नहीं ? तब उन्होंने यह निर्णय दिया सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधि । - यत्र सम्यक्त्व हानिन, न स्याद् व्रतदूषणाम् ॥ जैनों के लिए सभी लौकिक विधियां प्रमाण हैं, स्वीकार्य हैं, बशर्ते कि उनके स्वीकार करने पर सम्यक्त्व नष्ट न हो, तथा व्रतों में कोई दोष (अतिचार) न लगता हो । सचमुच जैनधर्मानुयायियों ने विवाह आदि की बहुत-सी लौकिक विधियाँ मान्य की हैं, तो बहुत-से रीतिरिवाजों में संशोधन-परिवर्तन किया है। एक-दो उदाहरणों द्वारा मैं इसे स्पष्ट कर दू गोभिल्लगृह्यसूत्र में उल्लेख है कि वर-वधू जब विवाहमंडप में बैठते थे, तब ताजे बैल को मारकर उसका लाल चमड़ा उन्हें ओढ़ाया जाता था; यह एक बीभत्स प्रथा थी, इसके पीछे भयंकर हिंसा थी । जैनों ने इस विधि को हिंसक होने के कारण अमान्य कर दिया और इसके बदले वर-वधू को लाल (शालू का) कपड़ा ओढ़ाने की विधि प्रचलित की। विवाह आदि मांगलिक प्रसंगों पर लोग मनुष्य की खोपड़ी लेकर चलते थे, जिसे मांगलिक माना जाता था । परन्तु जैनों ने खोपड़ी जैसी घिनौनी और अमांगलिक वस्तु के बदले श्रीफल (नारियल) लेकर चलने का रिवाज अपनाया। मृतक के पोछे श्राद्धप्रथा का जिक्र चला तो जैनों ने कहा-'इससे हमारे सम्यक्त्व में बाधा आती है । जैन लोग वैसे ब्राह्मणों को खिला सकते हैं, परन्तु उनकी यह मान्यता नहीं है कि यहाँ ब्राह्मणों को भरपेट खिलाने से वह भोजन उनके पितरों (मृत पुरुषों) को परलोक में मिल जाता है । ब्राह्मणों के पेट से मृतकों के पेट का ऐसा कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है कि उन्हें वह भोजन वहाँ मिल सके।" अतः सैद्धान्तिक विरोध होने के कारण जैनों ने श्राद्धप्रथा सम्यक्त्वबाधक होने से अमान्य कर दी । जो प्रथाएँ धर्मानुकूल एवं व्रत-सम्यक्त्वानुकूल थीं, उन सबको जैनधर्म के अनुगामी गृहस्थों ने मान्य कर लिया। समस्त आत्म-साधनाओं में समन्वय-विविध धर्मों की आध्यात्मिक १. यशस्तिलक चम्पू-सोमदेव सूरि For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २८९ साधनाओं में अन्तर अवश्य है; परन्तु जैनधर्म ने उन साधनाओं को मिथ्या नहीं कहा, जो सम्यग्दर्शनपूर्वक की जाती हों। भगवतीसूत्र में अम्बड, कालास्यवेशी आदि अनेक परिव्राजकों, तापसों आदि की साधनाओं का उल्लेख है। जिन साधनाओं के साथ शंका कांक्षा (फलाकांक्षा, सुखभोगाकांक्षा, निदान आदि), विचिकित्सा (फल में सन्देह) देवमूढ़ता गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता, शास्त्र-मूढ़ता, लोकमूढ़ता आदि मूढ़ता; मूढदृष्टि, विरुद्धता, अस्थिरता, मिथ्यादृष्टिप्रशंसा, मिथ्याहृष्टि का अत्यधिक परिचय, साधर्मीभाइयों के साथ रूखा व्यवहार, धर्मप्रभावना में मंदता आदि सम्यक्त्व-दोष न हों, उन साधनाओं तथा अध्यात्म-साधनाओं के धनी बहुत से साधकों को जैनधर्म ने मान्य कर लिया था । भगवान महावीर ने उन्हें अपने धर्मसंघ में समाविष्ट कर लिया था। समस्त तत्त्वों का समन्वय-- सभी आस्तिक धर्म जड़-चेतन (अजीव-जीव), पुण्प-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि को तो मानते ही हैं, अब रहे आस्रव, संवर और निर्जरा तत्त्व ये तीनों कर्मवाद से सम्बन्धित हैं । कर्मों का आगमन आस्रव है, आते हुए कर्मों का अवरोध संवर है और कर्मों का अंशतः क्षय निर्जरा है। इन्हें प्रकारान्तर से दूसरे धर्म भी मानते हैं, नाम चाहे भिन्न हों। जीव के अन्तर्गत संसारी (आत्मा) और सिद्ध (परमात्मा) दोनों का समावेश हो जाता है । जिनोपदिष्ट धर्म इन सभी तत्त्वों का सर्व जीवों के हित की दृष्टि से निरूपण करता है । सम्यग्दृष्टि के लिए सभी शास्त्र मान्य-संसार में कई प्रकार के शास्त्र हैं, उनमें आध्यात्मिक वर्णन वाले शास्त्रों के अतिरिक्त कई आत्मा से असम्बन्धित शास्त्र हैं जैसे कि चौर्यशास्त्र, विधिशास्त्र, शकुनशास्त्र, अंगस्फुरणशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल-खगोलशास्त्र आदि । जिसकी दृष्टि सम्यक् है, उसके लिए जैनधर्म ने इन और ऐसे आत्मा से असम्बद्ध शास्त्रों को सम्यक्श्रुत मान लिया है, क्योंकि जिसकी दृष्टि सम्यक् होगी, वह इनमें से आध्यात्मिक प्रेरणा लेगा । उनका उपयोग पाप-कार्यों में या स्वार्थसिद्धि में नहीं करेगा, वह कुछ को ज्ञेय और कुछ को हेय समझेगा। निष्कर्ष यह है कि जिनोपदिष्ट धर्म सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से ऐसे शास्त्रों को भी पठनीय समझता है । नन्दीसूत्र में विशेष रूप से इसका विधान है। सभी भूमिकाओं के जनधर्मी : विचारों में समान-इसके अतिरिक्त जिनोपदिष्ट धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैनधर्मी चाहे वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती (सम्यग्दृष्टि) हो, चाहे पंचम गुणस्थानवर्ती (श्रावकव्रतधारी गृहस्थ) हो, अथवा छठे गुणस्थानवर्ती (महाव्रती साधु) हो, वह साधु भी जिनकल्पी कोटि का हो अथवा स्थविरकल्पी कोटि का, सबके लिए एक शर्त है कि उनमें सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) होना अनिवार्य है। सम्यग्दर्शन होने से व्रत, नियम, त्याग, For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ तप आदि समस्त धर्माचरण सम्यक्, आराधनारूप, सम्यक्चारित्रमय, आत्मविकास का साधक और कर्मक्षयजनक होता है । इसकी सरल शब्दों में व्याख्या करें तो यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म की सभी श्रेणियों के गृहस्थ-साधुओं का वैचारिक दृष्टिकोण एक समान होना चाहिए। यानी उनकी दृष्टि और विचारधारा में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। उनका शास्त्रीय ज्ञान चाहे उच्चकोटि का न हो, वे चाहे शास्त्रार्थ न कर सकते हों, वे चाहे अपने से उच्चश्रेणी की भूमिका का आचार पालन न कर सकते हों, परन्तु उनकी दृष्टि और विचारधारा में कोई अन्तर न रहे। विविध कोटि के श्रावकसाधुओं के चारित्र-आचारधर्म में काफी अन्तर होगा, इसलिए धर्माचरण करने में विविधता अवश्य होगी, लेकिन वे एक धर्मावलम्वी होने के नाते परस्पर साधर्मी (सहधर्मी) होंगे, अपने धर्म के सभी कोटि के लोगों की धर्माचरण की मर्यादाओं और व्रतनियमों को वे अवश्य जानेंगे। निष्कर्ष यह है--सभी कोटि के जैनर्मियों में सम्यग्दर्शन अवश्य होगा। जो धर्म का उच्च आचरण नहीं कर सकता, वह अपने से उच्च आचरण करने वाले को पूजनीय या श्रेष्ठ समझेगा, अपनी कमजोरी वह स्वीकार करेगा, अपनी विवशता मानेगा। ये और इस प्रकार की विशेषताएँ जिनोपदिष्ट धर्म में हैं। धर्म के आचरण पर जोर जिनोपदिष्ट धर्म आचरण पर अधिक जोर देता है। जो धर्म केवल श्रद्धा की ही बात करता है या सिर्फ तत्त्वज्ञान तक ही अपने अनुयायी को सीमित रखता है, आचरण करने की बात को गौण मानता है, वह धर्म एकांगी है । जैन धर्म कहता हैधर्म पर पहले श्रद्धा करो, उसका दृष्टिकोण समझो, उसके तत्त्वों, सिद्धान्तों तथा आचरण की विविध श्रेणियों को जानो, तत्पश्चात् अपनी-अपनी भूमिका के अनुरूप आचरण करो । स्थानांग सूत्र में भ० महावीर ने स्पष्ट कहा है-- असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणयाए अब्भुट्ट्यव्वं भवति, सुयाणं धम्माणं ओगिण्हणयाए उवधारणयाए अन्भुट्टेयव्वं भवति । __"अभी तक नहीं सुने हुए धर्म को सुनने के लिए तत्पर रहना चाहिए, तथा सुने हुए धर्म को ग्रहण करने-उस पर आचरण करने को उद्यत रहना चाहिए। वास्तव में धर्म का रहस्य आचरण में है । जो व्यक्ति किसी धर्म का अनुयायी होकर सिर्फ तत्त्वज्ञान कर लेता है, या विचारधारा जान लेता है, इतने से उसका कल्याण नहीं हो सकता । तथागत बुद्ध ने बहुत ही सुन्दर बात कही है-"जो व्यक्ति बहुत से धर्मशास्त्र पढ़ता है, परन्तु उनके अनुसार आचरण नहीं करता, वह उस ग्वाले के समान है, जो दूसरों की गायों को ही गिनता रहता है।" १. स्थानांग, स्थान ८ ! For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २६१ किसी भी रोगी को अगर रोग मिटाना है तो उसे दवा खानी पड़ती है। परन्तु अगर दवा का नाम लेकर ही रोग मिटाना चाहे तो क्या वह मिट सकता है ? कदापि नहीं । इसी प्रकार केवल अहिंसा, सत्य आदि धर्मांगों का नाम ले लेने मात्र से भवभ्रमण का रोग नहीं मिट सकता । वह रोग तो तभी मिटेगा, जब कि उस पर आचरण किया जाएगा । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र में धर्माचरण का महत्त्व बताते हुए कहा है अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गरं च । पडिवज्जिया पंचमहव्वयाणि, चरिज्ज धम्म जिणदेसियं विऊ ।' "विद्वान् पुरुष को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का स्वीकार करके जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करना चाहिए।" जो व्यक्ति धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, पर उनके जीवन में अधर्म भरा हो, वे बातून हों तो समझना चाहिए, वे वाणीशूर हैं । वास्तविक धर्म आचरण से ही जीवन में आता है, आचरित धर्म ही यथार्थ फल देता है । एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए चीन में एक महान दार्शनिक हो गये हैं-'ताओ-बू'। उनके पास अगाध ज्ञान था। उनकी ज्ञान की बातें सुनकर लोग झूम उठते थे। एक बार उनके पास चुंग-सिन नामक एक शिष्य धर्म का रहस्य समझने के लिए आया। वह यों समझता था कि कि ताओ-बू धर्म की बड़ी-बड़ी पोथियों में से धर्म के सिद्धान्त समझाएँगे। परन्तु उन्होंने कभी धर्म की पोथी खोली ही नहीं । चुगसिन इसी आशा से गुरु-सेवा करता रहा कि आज नहीं तो कल गुरुजी धर्म का रहस्य बताएँगे । परन्तु वर्षों बीत गये, उन्होंने कभी धर्मशास्त्र की बात नहीं समझाई । चुंगसिन का धैर्य जवाब दे रहा या। एक दिन प्रातःकाल गुरु ताओ-बू शान्ति से बैठे थे, वहाँ सहसा चुंगसिन आया और गुरुचरणों में नतमस्तक होकर बोला- "गुरुदेव ! मैं अनेक वर्षों से आपकी सेवा में धर्म का रहस्य जानने के लिए रहा, परन्तु आपने तो मुझे धर्म की एक भी बात समझाई नहीं। आप तो प्रतिदिन प्रायः यही पूछा करते हैं-"तुमने आज खाया या नहीं। तुम्हें घर याद आता है या नहीं ? तू आज यह वस्तु लाया वह अमुक से पूछकर लाया है न ? तूने किसी को धोखा तो नहीं दिया ? आदि, परन्तु धर्म के विषय में तो आप कभी पूछते ही नहीं।" शिष्य का प्रश्न सुनकर मंद-मंद मुस्कराते हुए गुरु ताओ-ब बोले-"वत्स! मैंने तुझे समय-समय पर धर्म का रहस्य समझाया है, परन्तु वह तेरी समझ में नहीं आया। इसीलिए तू कहता है-आपने धर्म का रहस्य नहीं समझाया। धर्म तो जीवन के साथ गूंथा हुआ है, पर तू धर्म को दैनिक जीवन के कार्यों से अलग समझता है, यही तेरा भ्रम है । अपने हिस्से में आये हुए कार्य को सद्भाव और धर्मभाव से करना ही तो धर्म १. उत्तराध्ययन सूत्र २१/१२ For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ है। धर्म के सभी तत्त्वों को अपने दैनिक व्यवहार में ओतप्रोत करना ही तो धर्म है । धर्म के बड़े-बड़े सिद्धान्त हम चाहे जितने जान लें, अगर वे आचरण में जरा भी नहीं आते, तो उनको जानने का कोई अर्थ नहीं है । चोरी न करना, असत्य न बोलना, दूसरों को दुःख न देना, इत्यादि सब धर्म के मूल सिद्धान्त हैं, इन्हें आचरण में लाना ही धर्म का रहस्य है। चोरी न करना-अर्थात्-किसी भी मूल्य पर चोरी नहीं करना। वस्तु की चोरी तो चोरी है ही, किसी से कोई बात छिपाना भी भाव-चोरी है । श्रम से जी चुराना भी चोरी है। इसी तरह असत्य बोलना पाप है। परन्तु जीवन में सत्य बात जाहिर करते समय चुप रहना भी असत्य है, पाप है। इस प्रकार जीवन में कदम-कदम पर धर्म रहा हुआ है । प्रत्येक कार्य, विचार और व्यवहार में धर्म रहा हुआ है। इन सब का हमें पालन करना है। सबके साथ मैत्री और आत्मीयता भरा व्यवहार करना भी धर्म है। धर्म में इन सब बातों का समावेश हो जाता है। धर्म की कोरी डींगें हाँकते रहें मगर धर्म का जीवन में बिन्दु भी न हो या दैनिक कार्यों में अधर्म भरा हो तो समझना चाहिए वह धर्म से रिक्त है।" ताओ-बू का वचन सुनकर शिष्य चुगसिन धर्म का रहस्य समझ गया। जैनधर्म स्पष्ट कहता है-लोगों के सामने तुम अपने धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते रहो, उच्च सिद्धान्त बताते रहो, परन्तु तुम्हारे जीवन में वे सिद्धान्त या वे बातें न हों तो उससे तुम्हारा धर्म महान् नहीं कहला सकता । कवि अपनी अन्तर्व्यथा इस सन्दर्भ में प्रकट करता है धर्म के भिन्न न होते छोर। कहने में कुछ और, क्रिया में परिणत होता कुछ और ॥ध्र व।। सुखप्रद वही धर्म कहलाता, जो पाचरणों में आ जाता । विमल विवेचन शास्त्रों का जब चलता अपनी ओर ॥धर्म ॥१॥ तरह-तरह से स्वादू खाने, हलवाई की सजी दुकानें। भरता पेट तभी जब भूखा, लेता मुंह में कौर ॥धर्म"॥२॥ सच्चे देव धर्म है सच्चा, उदाहरण अच्छे से अच्छा । खुद हो कितने अच्छे ? इस पर कर लेना कुछ गौर ।।धर्म ॥३॥ सचमुच कवि ने मर्म की बात कह दी है । धर्म जब तक आचरण में नहीं आता तब तक वह अनुभूत नहीं कहलाता। इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है _ 'धम्मं चर सुदुच्चर' "धर्म चाहे आचरण में कठिन लगता हो, परन्तु शुभ परिणाम लाने वाला है, इसलिए उसका आचरण करो।" धर्म का आचरण ही सुफल लाता है धर्म का आचरण करने से ही मनुष्य सुख-शान्ति और समृद्धि प्राप्त करता है, For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २६३ जो केवल धर्म के सिद्धान्तों का बखान करता है, वह धर्म का सुफल नहीं पा सकता। कोई भी व्यक्ति कैसी भी स्थिति में धर्माचरण करता है वह उसका उत्तम फल प्राप्त करता ही है । जैन इतिहास का एक चमकता उदाहरण लीजिए चिलातीपुत्र राजगृहनिवासी धन्य सार्थवाह के यहाँ रहने वाली चिलाती नाम की दासी का पुत्र था। चिलातीपुत्र धीरे-धीरे बड़ा हुआ। इधर धन्य सार्थवाह के भी पाँच पुत्रों के बाद छठी पुत्री हुई । उसका नाम था सुषमा । चिलातोपुत्र सुषमा को खिलाता था। परन्तु धीरे-धीरे सुषमा के साथ चिलातीपुत्र का इतना स्नेह हो गया कि वह जो भी खाने-पीने की अच्छी चीज होती, चिलातीपुत्र को देती थी। सार्थवाह को यह बात खटकती थी, वह सुषमा को भी फटकारता और चिलातीपुत्र को भी; किन्तु चिलातीपुत्र सुषमा के साथ प्रणयरंग में रंग गया था, यह देख सेठने उसे डांटकर घर से निकाल दिया। चिलातीपुत्र भी गुस्से में आगबबूला होकर सिंहगुफा नामक चोरपल्ली में पहुँचा। वहाँ के पल्लीपति से मिला। वहीं रहने लगा। धीरे-धीरे वह नामी चोर होगया। पल्लीपति ने उसे अपने स्थान पर पल्लीपति बना दिया। एक दिन चिलातीपुत्र ने अपने साथी चोरों से कहा-'हम राजगृह चलें, वहाँ धन्य सार्थवाह के यहाँ चोरी करेंगे । जो भी माल हाथ लगे, वह तुम्हारा, और उसकी पुत्री सुषमा हाथ आए तो मेरी।" । सभी चोर सहमत होकर आए। वे धन्य सार्थवाह के यहाँ घुसे । अन्य चोरों ने जितना धन हाथ लग सकता था; लिया और चिलातीपुत्र सुषमा का अपहरण करके चला । धन्य सार्थवाह जाग गया। चोरों के पीछे-पीछे भागा। पर वे हाथ नहीं आए। सेठ कोतवाल तथा अपने पाँचों पुत्रों को लेकर उनके पीछे दौड़े। कोतवाल तो उन चोरों से धन लेकर लौट गया। सेठ पाँचों पुत्रों सहित चिलातीपुत्र के पीछे भागे। सुषमा का वजन उठाकर दौड़ने में असमर्थ चिलातीपुत्र ने उसका सिर काटा और धड़ वहीं छोड़कर दौड़ा। धन्य सेठ ने पुत्री की मृत्यु जानकर आगे बढ़ना उचित न समझा । वे सब हताश होकर वापस लौट गए। चिलातीपुत्र सुषमा का कटा हुआ सिर हाथ में लिए दिङ मूढ़ होकर भागा जा रहा था। इसी दौरान उसे एक भव्य तपोमूर्ति जैन साधु के दर्शन हुए, जो वहाँ आतापना ले रहे थे। उनसे चिलातीपुत्र कहने लगा-“या तो मुझे सक्षेप में धर्म कहिये, अन्यथा इसी तरह आपका भी मस्तक काट लूगा।" विज्ञ मुनिवर ने कहा-उपशम, विवेक और संवर । इन तीन पदों को सुनकर चिलातीपूत्र एकान्त में उन पर चिन्तन करने लगा'उपशम का अर्थ तो क्रोधादि का शमन करना है, मैं तो क्रोधादि से भरा हूँ। विवेक का अर्थ है-किसी व्यक्ति, धन या सांसारिक पदार्थों पर आसक्ति का त्याग करना; For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ किन्त मेरी तो सुषमा पर आसक्ति है। अतः सुषमा का सिर और तलवार एक ओर डाल दिये। तीसरा पद है-संवर । संवर का अर्थ-पाँचों इन्द्रियों और मन के विषयों को रोकना । मुझमें तो इनमें से एक पर भी संवर नहीं है।' यों विचार करके चिलातीपुत्र के संवर किया, और वहीं कायोत्सर्ग में खड़ा रहा। उसका शरीर खून से लथपथ था, उसकी गंध से चीटियाँ आ-आकर खाने लगीं । शरीर चलनी-चलनी कर दिया । ऐसा उपद्रव होने पर भी वह ध्यान से विचलित न हुआ। यह उपसर्ग ढाई दिन तक रहा । उपसर्ग को समभावपूर्वक दृढ़ता से सहन किया । फलस्वरूप समाधिपूर्वक मृत्यु हुई । चिलातीपुत्र साधु मरकर देवलोक में गये । बन्धुओ ! चिलातीपुत्र चोर ने धर्म के तीन तत्त्वों को ग्रहण करके तथा तत्काल मुनि बनकर उन्हें आचरण में लाकर क्रियान्वित किया जिसका सुखद फल उन्हें मिला। ढाई दिन में धर्माचरण करके अपना जीवन सार्थक कर लिया। धर्म का आचरण करो, परन्तु सम्यक् रूप में प्रस्तुत में महर्षि गौतम ने धर्म का आचरण करने के निर्देश के साथ 'साहु' शब्द जोड़ा है, उसका अर्थ है-धर्म का सम्यक् रूप से आचरण करो। जैनधर्म की प्रत्येक धर्मसाधना के साथ यह हिदायत दी गई है कि किसी भी धर्म की साधना करते समय शुद्धता का ध्यान रखो । धर्म का आचरण चाहे थोड़ा ही हुआ हो, पर उसकी शुद्धता देखो कि वह सम्यक् प्रकार से विधिपूर्वक हुआ या नहीं ? अविधिपूर्वक आचरित धर्म विपरीत परिणाम लाता है । सम्बोधसत्तरी में स्पष्ट कहा है-- जह भोयणमविहिकयं विणासए विहिकयं जीयावेइ । तह अविहिकओ धम्मो देइ भवं, विहिफओ मुक्खं ॥ "जैसे अविधि से किया गया भोजन मार डालता है, और विधिपूर्वक किया हुआ जीवन देता है, उसी प्रकार अविधिपूर्वक किया हुआ धर्म संसार में भटकाता है और विधिपूर्वक किया हुआ धर्म मोक्ष देता है।" ___ यही कारण है कि हितैषी महर्षि ने जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करने के साथसाथ चेतावनी दी है कि धर्म का आचरण करो पर सम्यकप से करो, अविधिपूर्वक नहीं । जैनधर्म क्वालिटी (गुणवत्ता) को महत्त्व देता है, क्वांटिटी (संख्या) को नहीं । जहाँ-जहाँ भी धर्म की सामायिक, पौषध आदि साधनाएं बताई गई हैं, वहाँ 'सम्म' शब्द द्वारा स्पष्टतः बता दिया है कि सम्यक् रूप से करो। असम्यक् धर्माचरण के स्रोत मैं यहाँ असम्यक् (अविधिपूर्वक) धर्माचरण के कुछ स्रोतों का संक्षेप में उल्लेख करूंगा, ताकि आप धर्माचरण के असम्यक् रूप से बच सकें । वे स्रोत इस प्रकार हैं (१) पंचेन्द्रियविषयों की प्राप्ति के लिए किया गया धर्माचरण।। (२) धर्म के अंतरंग तत्त्व के बदले स्थूल क्रियाकाण्डों का पालन करके सन्तुष्ट हो जाना। For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २६५ (३) धर्म के प्रति बार-बार शंका, फलाकांक्षा आदि करके उसके आचरण में शिथिलता लाना। (४) धर्माचरण में भ्रष्टता भी असम्यक् धर्माचरण है। (५) धर्माचरण में अविवेक करना । जिनका (अनीति आदि का) त्याग पहले करना हो उनका त्याग किये बिना ही अविवेकपूर्वक धर्म के उच्च तत्त्वों का पालन करने लग जाना। (६) धर्म से सम्बन्धित कुरूढ़ियों, कुरीतियों, गलत परम्पराओं आदि को ही धर्म मानकर पालन करना । (७) चमत्कार 'सिद्धियों' लब्धियों आदि का प्रदर्शन, आडम्बर, दिखावा आदि के जरिये धर्माचरण का सब्जबाग दिखाना । (८) धर्माचरण के साथ फलाकांक्षा, भोग-वांछा, इहलौकिक-पारलौकिक सुखभोग की इच्छा आदि को जोड़कर धर्म को दूषित करना । __(8) किसी स्वार्थ, लोभ, प्रलोभन या भय आदि से प्रेरित होकर धर्माचरण करना। (१०) धर्माचरण के साथ धर्म के प्रति वफादारी, श्रद्धा एवं ज्ञान न हो। (११) धर्म के दो रूपों (निश्चय और व्यवहार) में से किसी एक को एकान्त रूप से ग्रहण कर लेना। ये और इस प्रकार की कुछ बातें हैं, जो धर्म के साथ मिलकर धर्म को दूषित और बदनाम कर देती हैं। अतः जितना शीघ्र धर्माचरण को दूषित करने वाले इन स्रोतों का निवारण किया जाएगा, उतना ही साधक श्रेय और अपवर्ग (मोक्ष) के निकट पहुँचेगा। अगर इसी प्रकार से असंयम एवं अविधि से धर्म किया गया तो उसका परिणाम भयंकर आता है । उत्तराध्ययन सूत्र भी इस बात का साक्षी है विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्यं जह कुग्गहीयं । एसो वि धम्मो विसओववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो॥ "जैसे पीया हुआ कालकूट विष और उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र अपना ही घातक होता है, वैसे ही शब्दादि विषयों की प्राप्ति के लिए किया गया धर्म भी अनियंत्रित वेताल की तरह साधक को मार डालता है।" ____ बन्धुओ ! जिनोपदिष्ट धर्म की विशेषताओं, उसके तत्त्वों और सिद्धान्तों को भली-भाँति समझकर श्रद्धापूर्वक धर्म का सम्यक् आचरण करने में ही जीवन का कल्याण निहित है। यही इस जीवनसूत्र में बताया गया है __ "धम्मं चरे साहू जिणोवइलैं" जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित धर्म का साधु सम्यक् प्रकार से आचरण करे । 10 For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. धर्म : जीवन का त्राता प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ! आज मैं धर्म की ही विशेषता पर आपके समक्ष चिन्तन प्रस्तुत करूंगा। धर्म जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण पाथेय है, जिसकी पद-पद पर जीवन में आवश्यकता पड़ती है, वह मानव-जीवन की बाह्य और आभ्यन्तर रूप से रक्षा करता है । धर्म की इसी विशेषता को बताने के लिए महर्षि गौतम यह जीवनसूत्र प्रस्तुत करते हैं धम्मो य ताणं "धर्म मानव-जीवन का त्राता है-रक्षक है।" गौतमकुलक का यह चौरासीवाँ जीवनसूत्र है। धर्म मानव-जीवन का कैसे रक्षक-त्राता बनता है ? वह मनुष्य-जीवन की किन-किन से कब और क्यों रक्षा करता है ? आइए, इन सब पहलुओं पर हम गहराई से चिन्तन करें। धर्म : जीवन का रक्षक कैसे ? यह जीवन इस तरह विनिर्मित हुआ है कि इसमें संघर्ष, दीनता, परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव, विपरीत-अनिष्टसंयोग आदि के अप्रत्याशित आक्रमण सभी को सहन करने पड़ते हैं । कष्टों, संकटों एवं परेशानियों की आँधी आती है तो साधारण मनुष्य को झकझोरकर रख देती है, उसकी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं, बुद्धि ठीक तरह से काम नहीं करती, निराशा चारों ओर से घेर लेती है । ऐसे समय में रक्षा की एक चाह उत्पन्न होती है । कौन हमारी रक्षा करेगा? कौन हमारा उद्धार करेगा ? कौन हमें आश्वासन देकर यथार्थ-पथ का ज्ञान करायेगा ? उत्तराध्ययन सूत्र में इस समस्या का समाधान करते हुए कहा है ‘एगो हु धम्मो नरदेव ! ताणं" "राजन् ! इस संसार में एकमात्र धर्म ही जीवन की रक्षा करने वाला है।" वैदिक धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ महाभारत में भी यही बताया गया है यो धर्मो जगदाधारः, स्वाचरणे तमानय । मा विडम्ब्य तं स ते ह्य को मार्गे सहायकः ॥ १. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १४, गा० ४०। For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : जीवन का वाता : २९७ यह सच है कि विश्व के सम्पूर्ण क्रिया-कलाप, व्यवसाय, प्रवृत्तियाँ और कार्य धर्म के आधार पर ही टिके हुए हैं, व्यवस्थित हैं । धर्म के कारण ही अशान्त परिस्थितियों का निवारण होकर सुख-शान्ति की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं । लोकजीवन का धारणपोषण करने वाला, उसे सुखमय बनाने वाला अगर कोई तत्त्व है तो धर्म ही है । क्या पारिवारिक. क्या वैयक्तिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में धर्म के होने से स्थिति ठीक रहती है और धर्म के नष्ट होते ही पारिवारिक आदि क्षेत्रों में विनाशलीला प्रारम्भ हो जाती है, पतन होना शुरू हो जाता है । जिस दिन संसार में धर्म का पूर्णतया लोप हो जाएगा, उस दिन संसार को सर्वनाश से कोई भी न बचा सकेगा। इस युग में जो अधर्माचरण बढ़ रहा है, उससे मनुष्य को नैतिक अवस्था, जीवनव्यवस्था एवं सुख-शान्ति में बहुत बड़ा व्याघात उत्पन्न हो रहा है। अधिकांश लोगों के मन में शान्ति और सन्तोष नहीं है । सर्वत्र स्वार्थ, भोग, असंयम और शोषण का जाल फैला हुआ है । इस जाल में ग्रस्त मनुष्य बुरी तरह छटपटा रहा है । परन्तु बुद्धि पर अज्ञान का पर्दा पड़ जाने से त्राण का कोई रास्ता उसे सूझ नहीं रहा है । इसलिए तन्दुल वैचारिक ग्रन्थ में स्पष्ट मार्गदर्शन दिया है धम्मो ताणं धम्मो सरणं धम्मो गइपइट्ठा य । धम्मेण सुचरिएण लब्भइ अयरामरं ठाणं ॥ "धर्म ही त्राण-रक्षक है, धर्म ही शरणरूप है। धर्म ही गति एवं आधार है। धर्म की सम्यक् आराधना करने से जीव अजर-अमर स्थान को पाता है।" यों तो धर्म शब्द में हो धारण, पोषण एवं रक्षण का अर्थ निहित है । 'धून धारणे' धातु से धर्म शब्द निष्पन्न हुआ है । इसका एक अर्थ इस प्रकार है "ध्रियते लोको प्रजाः वाऽनेन अथवा धरति लोकं प्रजाः वा इति धर्मः ।" "जो लोक अथवा प्रजा (जनता) को धारण करता है, अर्थात् लोक या प्रजा की स्थिति की रक्षा करने वाला तत्त्व धर्म है अथवा जो शुद्ध और पवित्र बनाकर रक्षा करे वह धर्म है । धर्म सुख-शान्ति की परिस्थितियों का जनक है। धर्म के दो रूप : अन्तरंग और बाप धर्म के दो रूप हमें परिलक्षित हो रहे हैं-एक धर्म का बाह्य रूप है, जिसे क्रियाकाण्ड, पूजा-पाठ, जप-तप, वेशभूषा आदि के रूप में देखा जाता है। यह धर्म की सुरक्षा के लिए कलेवर है। धर्म का असली रूप तो अहिंसा, सत्य, सेवा, दया, ब्रह्मचर्य, क्षमा आदि हैं । यह धर्म का अन्तरंग रूप है, प्राण है। धर्म का अन्तरंग रूप ही वास्तविक धर्म है । धर्म पर चलने का अर्थ है-धर्म के इन अंगों एवं सिद्धान्तों का पालन करना। इन्हें अपने व्यवहार और आचरण में स्थान देना ।। वास्तविक धर्म के अभाव में सुरक्षा कैसे हो ? आज हम देखते हैं कि धर्म के अन्तरंग रूप का पालन करने से लोग कतराते For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ हैं। वे कभी तो परिवार की, कभी समाज की और कभी राष्ट्र की परिस्थिति का बहाना बना कर कहते हैं-“वर्तमान युग में वास्तविक धर्म का पालन नहीं हो सकता।" कहने को कहा जाता है कि भारत धर्मप्रधान देश है, किन्तु यहाँ के लोग ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि में भी दूसरे देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हुए हैं, जबकि जिन देशों में धर्म का सूक्ष्म विचार एवं दर्शन भारत के जितना नहीं है, उन देशों का नागरिक एवं राष्ट्रीय चरित्र भारत की अपेक्षा बहुत उन्नत देखा जाता है। पश्चिम के कई देशों में तो मिलावट, झूठा तौल-माप, रिश्वत आदि बातें देखने को ही नहीं मिलती। यहाँ इन सब अनैतिकताओं का बाजार गर्म है । यों देखा जाए तो धर्म का बाह्य रूप यहाँ प्राचीनकाल से अधिक मालूम होगा। यहाँ मन्दिर, मस्जिद, स्थानक, उपाश्रय, गुरुद्वारे, गिर्जाघर आदि पहले से अधिक हैं। धर्मगुरु और धर्माचार्य भी बढ़े हैं, कोटि-कोटि लोग विश्वासपूर्वक अपने-अपने देवी-देवों, धर्मगुरुओं आदि की उपासना करते हैं, एकादशी आदि व्रत रखते हैं, रोजा रखते हैं, नमाज पढ़ते हैं, सामायिक-प्रतिक्रमण करते हैं, बाह्यतप भी करते हैं, पूजा-पाठ, उपासना आदि करते हैं। कहना होगा कि धर्म का बाह्यरूप प्रखर है, तेजी से बढ़ रहा है, परन्तु धर्म के अन्तरंगरूप का ह्रास होता जा रहा है । अहिंसा, सत्य, न्याय-नीति, प्रामाणिकता, ब्रह्मचर्य आदि अन्तरंगधर्म आचरण में जितना चाहिए उतना नहीं है। इसी कारण आज भारत में दुःखों और संकटों के बादल छा रहे हैं । चोरी, डकैती, लूटमार, हत्या, हिंसा, अप्रामाणिकता, बलात्कार, व्यभिचार, आगजनी, तोड़-फोड़ आदि के समाचार आए दिन अखबारों में छपते हैं। कोरे बाह्य धर्म से जीवन की रक्षा नहीं हो सकती। चारों ओर जहाँ देखें वहीं, अव्यवस्था और अराजकता बढ़ती जा रही है। केवल मन्दिरों, धर्मस्थानकों आदि तथा धार्मिक क्रियाकाण्डों के बढ़ने से धर्म थोड़े ही बढ़ जाता है । वास्तव में बाह्यधर्म तो अन्तरंगधर्मरूप माल की रक्षा के लिए पेटी, बोरी या टीन के रूप में है । उससे अन्तरंगधर्म का कार्य नहीं हो सकता । कोरे धर्म के उपदेशों से सामाजिक जीवन बदला नहीं जा सकता, हजार में से दो चार का व्यक्तिगत परिवर्तन भले ही हो जाए । इसलिए याद रखिए, जब तक अहिंसा, सत्य आदि धर्म के अन्तरंग रूप का पालन नहीं होगा, तब तक पारिवारिक, सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन की, तथा व्यक्तिगत जीवन की भी सुरक्षा नहीं हो सकेगी। जीवन के दोनों रूपों में धर्म से सुरक्षा जीवन के दो रूप होते हैं—एक वैयक्तिक और दूसरा सामाजिक । सामाजिक जीवन में परिवारगत, जाति-समाजगत, एवं राष्ट्रगत सभी जीवन आ जाते हैं । वैयक्तिक जीवन में धर्म तब आता है, जब व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ईमानदारी, ब्रह्मचर्य, परिग्रहमर्यादा या अपरिग्रहवृत्ति, सेवा, क्षमा, दया, संयम आदि गुणों को जीवन में अंगीकृत करके आचरण करता है, तो उसे स्वयं सुख-शान्ति की अनुभूति होती है, कदाचित पूर्व-कर्मोदयवश कोई कष्ट या संकट आता है तो भी वह समभाव, धैर्य एवं शान्तिपूर्वक For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : जीवन का त्राता : २६६ सहन करता है । दूसरों पर भी कोई दुःख, संकट या आफत आने पर मनुष्य का वैयक्तिक धर्म कहता है-उस समय उन्हें सहायता दो, उनकी रक्षा करो, उन्हें सहयोग दो ; परन्तु अपना आचरण एवं व्यवहार दूसरों को नुकसान, कष्ट या हानि पहुँचाने वाला न हो । उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति धर्म से अनुप्राणित होगी । वह कोई भी ऐसी प्रवृत्ति न करेगा, जो उसकी धर्ममर्यादा से विपरीत हो । धर्मनिष्ठ व्यक्ति के जीवन में एक विलक्षण आह्लाद एवं आत्मबल रहता है कि वह असंख्य विघ्न-बाधाओं और प्रतिगामी शक्तियों से अपनी रक्षा करते हुए उन्हें परास्त कर देता है । वस्तुतः धर्म मनुष्य का वह अग्नितेज है, जो प्रकाश भी उत्पन्न करता है और क्रियाशीलता भी जागृत रखता है । इसीलिए सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है - 'दीवेव धम्मं ' - धर्म दीपक के समान अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला है । धर्म की प्राणवत्ता निर्जीव को सजीव एवं स्फूर्तिमान् बनाने में समर्थ होती है । 'जीवट' सच्चे धार्मिक का प्रधान लक्षण होता है । धर्मशील व्यक्ति के अन्तःकरण में वह शक्ति होती है, जिससे वह विभिन्न विपदाओं एवं विघ्न-बाधाओं में भी हिमालय के समान अटल एवं समुद्र के सदृश धीर-गम्भीर रहता है । मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का वन में लक्ष्मण और सीता के सिवाय कौन सहायक था ? विपदाएँ आई, विरोध और अवरोध उत्पन्न हुए, मगर वे अपनी धर्म मर्यादा पर अटल रहे । इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में धर्म को द्वीप की उपमा दी है " जरामरणवेगेण बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो.... "" "वृद्धावस्था और मृत्यु के वेग से बहते हुए जीवों के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है ।" दूसरी बात यह है कि जब व्यक्ति धर्माचरण करता है तो कम से कम उसके अशुभ कर्मों का तो क्षय हो ही जाता है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को सहसा रोग, शोक, दुःख दारिद्रय, संकट आदि का सामना नहीं करना पड़ता । धर्म-पालन के कारण इस जन्म में तो उसे सुख-शान्ति प्राप्त होती ही है, अगले जन्म में भी अशुभकर्मों का अधिकांश रूप में क्षय हो जाने से सुगति मिलती है, उत्तम कुल में जन्म, नीरोग शरीर, उत्तम धर्म का वातावरण आदि प्राप्त होता है और फिर वह धर्माचरण के बल पर कर्मों का क्षय करके शाश्वत सुख (मोक्षसुख) को प्राप्त कर लेता है । ऐसी स्थिति में उसकी आत्मरक्षा काम-क्रोधादि विकारों से स्वतः हो जाती है, दुःखों और विपदाओं से तो उसकी रक्षा हो ही जाती है। इसके अतिरिक्त क्षमा, दया आदि धर्मों का पालन करने से इस लोक में उसका अभ्युदय और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है, जिससे वह अपने जीवन को सार्थक कर सकता है । धर्म ही इस लोक और परलोक का निर्माता है । वही एक सुगम और स्वाभाविक मार्ग है, जन्म-मरण के चक्र से निकालकर जीवन - नैया को संसार-सागर से पार करने में सहायक होता है । For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ ये हैं धर्म द्वारा धर्मपालक मनुष्य की रक्षा के विविध रूप ! धर्म का दूसरा रूप है सामाजिक जीवन का त्राण । यद्यपि मनुष्य का विकास एवं अभ्युदय व्यष्टिपरक तत्त्व है, परन्तु वही सामूहिक होने पर समष्टिपरक हो जाता है । यदि मनुष्य धर्म द्वारा निर्धारित अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, न्याय-नीति आदि गुणों को अपने जीवन में अंगीकार कर ले तो वह व्यष्टिपरक गुण समष्टिपरकसामाजिक हो जाता है। जब सब मनुष्य धर्माचरण करने लगेंगे तो फिर कहीं कोई धर्मविरुद्ध आचरण नहीं होगा फिर यह धर्म समष्टिपरक या सामाजिक रूप ले लेगा। इसीलिए कुछ ऋषियों की यह धारणा रही कि यदि एक व्यक्ति सुधर जाए तो समाज भी बदल जाए। क्योंकि व्यक्तियों से समाज बनता है, व्यष्टि से ही समष्टि बनती है । इसलिए यदि हर व्यक्ति धर्मनिष्ठ बन जाए तो पूरा परिवार-समाज व युग भी धर्मनिष्ठ बन सकता है। यही धर्म का लक्ष्य भी है कि व्यष्टि रूप में मनुष्य देवतुल्य बने, समष्टि रूप में धरती ही स्वर्ग बने । अपने दूसरे रूप में धर्म सामाजिक स्थिति की दुःख और विपत्ति से रक्षा करने और उसे सुख शान्तिमय बनाने का आधार बनता है । जैसा कि नारायणोपनिषद् में स्पष्ट कहा है धर्मो विश्वरूपजगतः प्रतिष्ठा, लोके मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति । धर्मेण पापमपनुदन्ति धर्म सर्व प्रतिष्ठितम्, तस्माद् धर्म परमं वदन्ति । "धर्म ही सारे जगत् का प्रतिष्ठान-आधार है। धर्मिष्ठ के पास ही प्रजाजन आते हैं, धर्म से ही पाप दूर होता है। धर्म में सब कुछ प्रतिष्ठित-समाया हुआ है। इसी कारण धर्म को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।" व्यष्टिरूप में यदि धर्म को मानव मात्र ने अंगीकृत कर लिया या व्यक्ति ने अपना वैयक्तिक जीवन धर्मानुरूप बना लिया तो समष्टिरूप में यही धर्माचरण ऐसी सामाजिक स्थिति का निर्माण करता है जिससे मनुष्य का पारिवारिक एवं सामाजिक ढांचा व्यवस्थित रहता है । पूरा समाज ही ऐसा बन जाता है कि वहाँ 'एक के लिए सब और सबके लिए एक' का भाव व्याप्त रहता है। धर्म का यही रूप आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में समता, समानता एवं समाजवाद के नाम से प्रचलित है। इस प्रकार किसी समय-विशेष या समाज-विशेष में धर्म की धारणाएँ, मान्यताएँ या मर्यादाएं या नैतिक मूल्य निर्धारित हो जाने पर यदि उस समाज के सभी घटक धर्म का पालन करने लगेंगे तो फिर धर्म पूरे समाज की रक्षा करेगा ही; क्योंकि समाज के किसी अंग पर विपत्ति आ पड़ने पर दूसरे घटक उसकी विपत्ति में सहायता करना या विपत्ति-निवारण करना अपना धर्म समझते हैं। धर्म 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का सिद्धान्त मनुष्य को सिखाता है। यह धर्मसिद्धान्त जब व्यक्ति की समझ में आ जाता है तो वह दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझता है, दूसरे को सुख पहुँचाना प्रकारान्तर For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : जीवन का त्राता : ३०१ से अपने आप को सुख पहुँचाना मानता है । इसी तरह समाज के पीड़ित, पददलित एवं दुर्बल वर्ग को समुन्नत करने, विकसित करने के लिए उन्नत एवं विकसित वर्ग के लोग अपना धर्म समझकर प्रयास करते हैं । समाज या राष्ट्र पर या इसके किसी वर्ग पर कोई प्राकृतिक प्रकोप - भूकम्प, बाढ़, सूखा, महारोग आदि का उपद्रव आ पड़ता है तो दूसरे वर्ग के लोग अपनी धर्मभावना से प्रेरित होकर ही उसके निवारणार्थं भरसक प्रयत्न करते हैं । राष्ट्र या समाज के किसी भी वर्ग के भाइयों पर कष्ट आ पड़ने पर कष्ट निवारणार्थ त्याग, बलिदान या सर्वस्व होमने को भी मनुष्य धर्मप्रेरणावश तत्पर होता है । इन सब दृष्टियों से धर्म एक या दूसरे रूप में व्यक्ति, समाज और समष्टि की— शास्त्रीय शब्दों में प्रजा एवं समाज की रक्षा करता है । इस प्रकार धर्म वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों जीवनों की रक्षा करता है । धर्म से व्यक्तिगत जीवन की रक्षा का एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए । राजा विक्रमादित्य धर्मनिष्ठ एवं प्रजावत्सल नरेश था । एक बार राजा विक्रमादित्य ने घोषणा की - "मेरे नगर में आये हुए किसी भी व्यापारी का माल नहीं fair at food - बिकते बच जाएगा तो उसे मैं खरीद लिया करूंगा और राजकोष से उसका यथोचित मूल्य चुका दिया जाएगा ।" राजा इस धर्म से प्रेरित था कि 'प्रजा का धन प्रजा की भलाई के कार्यों में ही लगना चाहिए।' राजा के इस प्रण का समाचार देवलोक तक पहुँच गया । कहते हैं, एक देवता ने राजा की परीक्षा लेने के विचार से व्यापारी का रूप बनाया और फटे-पुराने कपड़ों का एक पुतला बनाकर बाजार में बैठ गया । उसे देखकर लोग पूछने लगे--- "आप क्या माल लाये हैं ?" व्यापारी (पुतला दिखाते हुए) बोला - "देखो, यह माल है, इसे 'दरिद्रता का पुतला' कहते हैं ।" लोग - " इसमें क्या गुण है ?" व्यापारी - "इसका सबसे बड़ा गुण यह है कि यह जिसके घर में जाएगा, उसकी लक्ष्मी भाग जाएगी ।" लोग - " इसकी कीमत क्या है ?" व्यापारी - " सवा लाख रुपये ।" जो भी इस व्यापारी की बात सुनता, भौंचक्का-सा रह जाता ; फिर हँसता और तालियाँ पीटता हुआ चला जाता । तीसरा पहर हो चुका, लेकिन इस अनोखे व्यापारी का वह पुतला नहीं बिका। राजा विक्रमादित्य व्यापारियों के बचे हुए माल को खरीदने के लिए बाजार में आए और पूछने लगे – “किसका माल बिकने से बचा है ?" यह सुनकर वह व्यापारी राजा के पास पहुँचा और बोला - " अन्नदाता ! मेरा माल अभी तक नहीं बिका ।" उसने राजा को पुतला बतलाकर उसके गुणों का भी वर्णन किया । व्यापारी का कथन सुनकर राजा विचारमग्न हो गए, सोचा - 'यदि मैं वचन - पालन करके अपने धर्म की रक्षा करता हूँ, For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ तो लक्ष्मी भाग जाएगी और यदि मैं लक्ष्मी की रक्षा करता हूँ तो वचन भंग होगा, मैं धर्म भ्रष्ट और कलंकित होऊँगा ।' अन्त में धन और धर्म दोनों की रक्षा की उलझन में, राजा इस निर्णय पर पहुँचा कि मुझे अपने धर्म की रक्षा करनी है, चाहे लक्ष्मी चली जाए । राजा ने व्यापारी को राज- कोष से सवा लाख रुपये दिला दिये और उस पुतले को राजकोष में रखवा दिया । रात्रि को जब राजा विचारलीन होकर विस्तर पर लेटा था, तभी लक्ष्मी ने वहाँ आकर पूछा - "राजन ! सोते हैं जागते ?” राजा - " जागता हूँ । कहिए क्या आज्ञा है ?" " लक्ष्मी बोली - "मैं तुम्हारी राजलक्ष्मी हूँ । अब मैं तुम्हें छोड़कर जा रही हूँ । क्योंकि तुमने मेरे शत्रु - दरिद्रता के पुतले को स्थान दिया है । " इतना कहकर लक्ष्मी चली गई । राजा धैर्यपूर्वक उसी विस्तर पर लेटा रहा । उसने दृढ़ निश्चय किया- 'प्रजा का हित करना मेरा धर्म है और धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्व भी न्यौछावर हो जाए तो कोई चिन्ता नहीं ।' पिछली रात तक इधर-उधर घूमकर लक्ष्मी पुनः राजा के पास आई और कहने लगी- "राजन ! मैं तुम्हारे आश्रय में रहना चाहती हूँ। मैंने देखा कि लोग सत्यहीन, धर्महीन एवं नीतिहीन हो रहे हैं । मैं तुम्हारी प्रजावत्सलता और धर्मनिष्ठा से अत्यन्त प्रसन्न हूँ ।" वास्तव में, राजा विक्रमादित्य ने सब कुछ जाते देखकर भी धर्मरक्षा की । उसी धर्मरक्षा के प्रभाव से लक्ष्मी पुनः आ गई । इसलिए चन्दन दोहावली में कहा हैधर्म सिवा रक्षक नहीं, अखिल विश्व में और । अतः धर्म अपनाइए, 'चन्दन मुनि' हर ठौर ॥ इसी प्रकार किसी व्यक्ति या वर्ग पर संकट आने पर धर्म किसी घटक के द्वारा रक्षा करता है । जब भी किसी प्रान्त या देश पर संकट आ पड़ता है, लोग भूकम्प या बाढ़ से पीड़ित हो जाते हैं, तब भारत के कोने-कोने से लोग उनकी मदद के लिए सहायता भेजते हैं, अपना धर्म समझकर । धर्म - धारणा भी रक्षण के अर्थ में धूञ धातु धारण करने अर्थ में है, इसी से धर्म शब्द बना है, जिसका अर्थ हुआ है, धारण करना, पुष्ट करना बनाये रखना । इसीलिए महाभारत में कहा है धारणाद्धर्ममित्याहु धर्मो धारयते प्रजा । यतेस्याद्धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥ "धारणा ( मर्यादा) करने वाला होने से इसे धर्म कहा गया । क्योंकि यह प्रजा को धारण करता है, उसे पुष्ट करता है, समर्थ बनाता है । जो धारण करने में समर्थ है, वही धर्म है । For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : जीवन का व्राता : ३०३ धर्म की धारणाएँ विभिन्न कोटि की मर्यादाएँ हैं । गृहस्थ और साधु की, तथा वानप्रस्थ एवं ब्रह्मचारी की अलग-अलग धारणाएं हैं। शास्त्रों में मार्गानुसारी, गृहस्थ श्रमणोपासक एवं महाव्रती साधु-मुनि की अलग-अलग धर्म - मर्यादाएँ ( धारणाएँ) हैं । धर्म की धारणा में वे सब अनुष्ठान या विधि-विधान हैं, जो मनुष्य को अपने-अपने वर्ग ( नीतिमान गृहस्थ, श्रावक आदर्श गृहस्थ, साधु-संन्यासी आदि) की भूमिका में मनुष्य के जीवन को गढ़ती हैं, जीवन-निर्माण करती हैं । इस प्रकार की धर्मव्यवस्था से धर्म मानव-जीवन को सभी तरह से समुन्नत एवं प्रकाशमान बनाता है । इसी प्रकार अपने-अपने क्षेत्र में अलग-अलग कर्त्तव्यों का विधान भी धर्म - धारणाएँ हैं, जिनके अनुसार चलने से जीवन का आन्तरिक एवं बाह्य सभी प्रकार से रक्षण एवं विकास होता है । धर्म-धारणा के अनुसार चलने से मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में काम एवं मोक्ष पुरुषार्थ भी धर्म के नियन्त्रण ( धर्ममर्यादा) में सधते हैं । इसलिए कहा जा सकता है कि धर्म- जीवन विकास की सर्वांगीण साधना है । ऐसी साधना करने वाले व्यक्ति के जीवन को धर्मपतन से, भ्रष्ट होने से और अश्रद्धालु होने से बचाता है । यही धर्म के द्वारा रक्षणीयता है । धर्म की रक्षात्मकता - जब दूसरी दृष्टि से देखें तो भी धर्म की सार्वभौम रक्षात्मकता सिद्ध होती हैमनुष्य अहिंसादि व्रतों तथा नियमों को जिनमें सार्वभौमिकता को उदार भावना सन्निहित है, आत्मौपम्य की पवित्र वृत्ति के आधार पर अपने जीवन को ढालता है, किसी भी स्वार्थ, प्रलोभन या भय के कारण इनका उल्लंघन नहीं करता, सर्वहित की सामूहिक भावना का अतिक्रमण नहीं करता और न ही शारीरिक भेद या जाति-पाँति या वर्ग वर्ग के भेद के आधार पर मनुष्य- मनुष्य में भेदभाव करता है, सबके साथ समानता का व्यवहार करता है, तब स्वाभाविक है कि वह धर्म की मर्यादाओं का दृढ़ता से पालन करता है, और ऐसा करने वाले व्यक्ति के जीवन की सार्वभौमिक सुरक्षा धर्म के द्वारा स्वतः हो जाती है । अतः यह कहा जा सकता है कि किसी भी अवस्था में, सभी वर्ग के धम-पालकों की रक्षा धर्म ही करता है । मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम जब वन में जाने के लिए प्रस्थान करने लगे, तब जीवन की सर्वांगीण रक्षा की दृष्टि से उन्होंने माता कौशल्या से आशीर्वाद माँगा | विदुषी एवं बुद्धिमती माता कौशल्या ने कहा यं पालयसि धर्म त्वं प्रीत्या च नियमेन च । सवै राघवशार्दूल! धर्मस्त्वामभिरक्षतु ।' "हे राम ! तुमने जिस धर्म का प्रीतिपूर्वक ( श्रद्धा से ) और नियम- मर्यादापूर्वक १. वाल्मीकि रामायण | For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ पालन किया है । जिस धर्म के अनुसार तुम वन जाने को तत्पर हुए हो, वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा । " धर्म : माता-पिता की तरह रक्षक जिस प्रकार माता-पिता अपने पुत्र की प्राणप्रण से रक्षा करते हैं, पुत्र पर वात्सल्य बरसाकर उसके हित की कामना करते हैं, कल्याण-मार्ग में प्रेरित करते हैं, पाप और अधर्म के पथ में जाने से रोकते हैं, उसी प्रकार धर्म भी माता-पिता की तरह अपनी पालनकर्ता संतति को सब तरह से विकास, हित और कल्याण के मार्ग में प्रेरित करता है, पाप और अधर्म - मार्ग में जाने से रोकता है । इसीलिए इतिहास समुच्चय में कहा गया है 'धर्मो माता पिता चैव" "धर्म प्राणियों के लिए माता और पिता है ।" धर्मः बन्धु, सखा और नाथ कई बार मनुष्य चारों ओर से विपदाओं से घिर जाता है, समाज में उसका कोई सहायक नहीं रहता, सबल लोग उसे दुर्बल जानकर उस पर अन्यायअत्याचार करते हैं, वह रोग, शोक, पीड़ा आदि के दुःखों से पीड़ित होकर हैरान हो जाता है, कोई भी सहारा नहीं रहता, उस समय कौन रक्षा करता है, अथवा कौन आश्वासन देकर सन्मार्गपर स्थिर रखता है ? उस समय बन्धु बान्धव भी निरुपाय हो जाते हैं । मित्र और हितैषी भी पल्ला झाड़ देते हैं, मालिक और पारिवारिक जन भी जवाब दे देते हैं | कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने उस समय धर्म को ही असहाय का सहायक, निराश्रय का आश्रय बताया है सखा अबन्धूनामसौ बन्धुरसखीनामसौ अनाथामसौ नाथो, धमो विश्वैकवत्सलः ॥ "यह धर्म अबन्धुओं का बन्धु है, जिनके कोई मित्र नहीं हैं, उनका यह मित्र है, अनाथों का नाथ है । अतः विश्व का यही एक मात्र परमवत्सल है ।' धर्म ही उस समय दुःखित और पीड़ित के आँसू पोंछने वाला परमबन्धु, परमहितैषी मित्र एवं अनाथों का नाथ बनकर कहता है- "घबराओ मत ! विपत्ति केवल तुम पर ही नहीं आई है । किसी पूर्वकृत अशुभकर्म के उदयवश तुम दुःख से घिर गये हो, रोगग्रस्त हो गये हो । परन्तु देखो, उन महापुरुषों को ! श्रीराम पर वन में क्या कम विपदाएँ आई थीं ? हरिश्चन्द्र राजा पर क्या मुसीबत कम पड़ी थीं ? पाँचों पाण्डवों १. इतिहास समुच्चय २. योगशास्त्र ४ / १०० For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : जीवन का नाता : ३०५ को निराधार होकर क्या वन-वन में भटकना नहीं पड़ा ? कर्मों का आवरण दूर होते ही विपत्ति के बादल छंट जाएँगे और उसी धर्म के प्रताप से, जिसका तुमने पालन किया है— तुम्हारा संकट दूर हो जाएगा, तुम्हारे जीवन में सुख-शान्ति व्याप्त हो जाएगी । तुम्हारा जीवन स्वस्थ एवं विकासमान हो जाएगा ।" धर्म का सम्बल जिसके पास रहता है, उसमें संकटों और कष्टों के समय प्रबल सहनशक्ति आ जाती है । उन कष्टों और संकटों को धर्मपालन के लिए उत्साह और शान्तिपूर्वक सहन कर लेता है । कष्टों और दुःखों को सहने से आत्मशक्तियाँ भी बढ़ जाती हैं । इस प्रकार धर्म रक्षा ही नहीं करता, सब प्रकार से उस धर्मनिष्ठ व्यक्ति के जीवन का सर्वांगीण विकास कर देता है । धर्म उसके जीवन को, उसके अन्तःकरण को पवित्र एवं निर्मल बना देता है । उसमें निखार और तेजस्विता लाता है । सत्यवादी हरिश्चन्द्र ने धर्म की रक्षा के लिए स्त्री, पुत्र, राज्य आदि सर्वस्व का परित्याग कर दिया, परन्तु अन्त में ऋषि विश्वामित्र को उनके समक्ष घुटने टेकने पड़े । दुःख और संकट की अंधेरी रात्रि व्यतीत हो गई, सुख-शान्ति की किरणों और सत्य के तेज से तेजस्वी धर्मसुख का सूर्य प्रकाशमान हुआ । राजा हरिश्चन्द्र का नाम धर्म ने अमर कर दिया, उनकी जो लोक व्यवहार में क्षणिक अप्रतिष्ठा हुई थी, उसके बदले कई गुनी प्रतिष्ठा से वे चमक उठे । इसीलिए भारतीय संस्कृति का यह मुद्रालेख है— यतो धर्मस्ततो जयः 'जहाँ धर्म है, वहीं विजय है ।' धर्म कैसे रक्षा करता है आप पूछेंगे कि धर्म कैसे रक्षा करता है ? कभी हमें वह प्रत्यक्ष तो रक्षा करता दिखाई नहीं देता, फिर कैसे मान लें कि धर्म धार्मिक पुरुष को रक्षा करता है ? और रक्षा भी करता है तो उस व्यक्ति के शरीर की करता है, उसके स्त्री- पुत्रों की करता है, उसके धन या साधनों की करता है अथवा उसकी आत्मा की रक्षा करता है ? वास्तव में ये प्रश्न बड़े महत्त्वपूर्ण हैं । इन पर विचार किये बिना जो अन्धश्रद्धावश निश्चिन्त होकर या तो यह मान लेता है कि धर्म मेरी रक्षा करने ही वाला है, मैं चाहे जैसे चलू, चाहे जैसा व्यवहार करूँ ? इस प्रकार व्यक्ति धर्म या नीति का मार्ग छोड़कर धर्म से रक्षा की आशा करता है । अथवा कई लोग भ्रमवश यह मान बैठते हैं कि धर्म हमारे शरीर, परिवार, बाल-बच्चों की, धन एवं साधनों की रक्षा करेगा, उसे आत्मा की रक्षा की चिन्ता कतई नहीं होती । वास्तव में, शुद्धधर्म की रक्षा के लिए जी-तोड़ प्रयत्न किये बिना आत्मरक्षा या जीवन की रक्षा नहीं हो सकती । धर्म चाहे प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी रक्षा करता न दिखाई देता हो, परोक्ष रूप से रक्षा करता ही है | वह कैसे-कैसे रक्षा करता है ? यह हम पहले बता चुके हैं । परन्तु एक बात For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ निश्चित है कि वह उसी व्यक्ति की रक्षा करता है, जो धर्माचरण करता हो। जो व्यक्ति यह सोचकर चुपचाप बैठ जाता है कि धर्म को मेरी रक्षा की चिन्ता है, मैं अपनी चिन्ता क्यों करू ? वह भ्रम में है। स्वरक्षा की प्यास बुझाने के लिए स्वयं धर्माचरण का श्रम तो करना पड़ेगा। मेरे बदले दूसरा धर्म कर लेगा, उसके (नौकर के) द्वारा धर्मपालन से मेरी रक्षा हो जाएगी, यह बात धर्म में नहीं चलेगी। राजा हरिश्चन्द्र ने अपने बदले किसी और को विश्वामित्र का कर्ज चुका देने का आदेश नहीं दिया, न ही श्रीराम ने दूसरे को वन में भेजा। राजा दिलीप ने अपने बदले किसी और को नन्दिनी गाय को चरा लाने व उसकी सेवा करने का आदेश नहीं दिया । इन सबने स्वयं खुशी-खुशी कष्ट सहकर धर्मपालन किया तभी धर्म ने उनके जीवन की सर्वतोमुखी रक्षा की। इन्हें धर्मपालन करने में इतना श्रम और कष्टसहन करने में भी कोई असंतोष नहीं हुआ। इससे प्रकट है कि धर्म तभी रक्षा करता है जब मनुष्य स्वयं अपनी ओर से धर्माचरण के लिए कठोर पुरुषार्थ करता हो। रक्षा की प्यास स्वयं श्रम किये बिना नहीं बुझती । एक रोचक दृष्टान्त मुझे याद आ रहा है एक बार एक नवाब साहब के गाँव पर किसी ने चढ़ाई की। नवाब साहब ग्राम की सुरक्षा की जिम्मेवारी छोड़कर गाँव से भागे । चलते-चलते वे बहुत दूर निकल गए । अब उन्हें प्यास लगी । पास ही उन्होंने एक कुआ देखा । वहाँ बाल्टी और रस्सी दोनों पड़े थे। नवाब को विचार आया कि चलो सब चीजें मिल गई हैं, पानी निकाल लें । किन्तु ज्यों ही उन्होंने बाल्टी और रस्सी के हाथ लगाया, त्यों ही उन्हें याद आया कि-"अरे! मैं पानी कैसे निकालू, नवाब जो हूँ! कोई देख लेगा तो ?" यह सोचकर नवाब साहब वहीं प्यासे ही बैठे रहे । एक दूसरा आदमी वहाँ आया, उसे भी पानी पीना था। उसे देखकर नवाब ने कहा- "भाई ! मुझे पानी पीना है।" उसने कहा “तो आप भी खूब हैं । बाल्टी और रस्सी पड़ी है, पानी निकाल लीजिए न ?" नवाब बोला- "पर मैं नवाब हूँ, पानी कैसे निकाल सकता हूँ ?' उसने कहा – “यही दुःख मेरा है । मैं भी तो शाहजादा हूँ न!' नवाब- "अच्छा, किसी की इंतजार करें।" यों कहकर दोनों बैठ गए । कुछ देर बाद जब एक आदमी आया तब दोनों ने कहा-"भले आदमी! हम दो घंटे से तुम्हारा इन्तजार कर रहे थे। क्योंकि दोनों को पानी पीना था।" उसने कहा- "तो बाल्टी और रस्सी दोनों पड़े हैं, पानी खींचकर निकाल लो न, मैं भी पी लूगा।" दोनों ने कहा-“यों पानी निकाल लेते तो बात ही क्या थी ? मैं नवाब हूँ और यह शाहजादा है। हम पानी कैसे निकाल सकते हैं ?" वह बोला- “माफ करें, मैं भी अमीरजादा हूँ।" यों तीनों व्यक्ति प्यासे बैठे प्रतीक्षा करने लगे कि कोई आदमी आए, पानी निकाले और हमें पिलाए। दैवयोग से चौथा आदमी भी वहाँ आ गया। पर वह भी For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : जीवन का त्राता : ३०७ इन्हीं का भाई था। उसका नाम था-हरामजादा; सारी दुनिया की मेहनत पचाकर बैठा रहने वाला । वह हाथ-पैर क्यों हिलाए ? यों सब लोग प्यासे ही बैठे रहे । वर्तमान युग के मानव को धर्मरूपी जल से सुरक्षा की प्यास तो बुझानी है, पर धर्माचरण के लिए कोई पुरुषार्थ करना नहीं चाहता, बिना हाथ-पैर हिलाए ही कहीं से धर्म का फल मिल जाए तो सुरक्षा की प्यास बुझाने को प्रतीक्षा में बैठा रहता हैं । स्वयं धर्म में उद्यम नहीं कर सकता। धर्म से रक्षा : किसको और क्यों ? क्या धर्म से मनुष्य के शरीर की रक्षा होती है, स्त्री-पुत्र या परिवार की, अथवा धन और साधनों की रक्षा होती है ? अथवा धर्म मनुष्य की आत्मा या जीवन की रक्षा करता है ? गहराई से इस प्रश्न पर जब हम विचार करते हैं तो धर्म आत्मविशुद्धि का साधन है, आत्मा पर जो कर्ममलों का आवरण है, जिसके कारण आत्मशक्ति कुण्ठित हो जाती है, आत्मविकास अवरुद्ध हो जाता है, धर्म उन आते हुए कर्मों को रोकता (संवर) है, अथवा कर्मों का अंशतः क्षय (निर्जरा) या सर्वथा क्षय (मुक्ति) करता है । इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि धर्म मनुष्य की आत्मा की रक्षा करता है । चूकि मनुष्य की आत्मा अकेली नहीं है, वह शरीर, इन्द्रियों तथा मन आदि के साथ सम्बद्ध है, इसी कारण शुभाशुभ कर्मों का बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप वह सुगति-कुगति में जाता है, शुभ-अशुभ योनि को प्राप्त करता है, सुख-दुःख, रोग-आरोग्य आदि प्राप्त करता है। इस दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि धर्म जीवन की रक्षा करता है। जब मनुष्य धर्माचरण करता है, तब अशुभकर्म क्षीण हो जाते हैं, शुभकर्मों का बाहुल्य हो जाता है। शुभकर्म के बाहुल्य का अर्थ है-- पुण्य की प्रबलता । जब मनुष्य के पुण्य प्रबल हो जाते हैं, तब उसके शरीर, परिवार, स्त्री-पुत्र, धन और साधनों आदि की रक्षा होना स्वाभाविक है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि धर्म सीधा तो आत्मा की या जीवन की रक्षा करता है । परन्तु परम्परा से उससे मनुष्य की पुण्यबृद्धि होने पर वह मनुष्य के शरीरादि की भी रक्षा करता है। इसी धर्म ने महात्मा गांधी को विदेश-प्रवास के समय अब्रह्मचर्य में प्रवृत्त होने से बचाया था। इसी धर्म ने वन में तपस्या करते हुए वीर अर्जुन को अप्सरा के चंगुल में फंसने से बचाया था। ___बल्कि जो व्यक्ति धर्म में अधिक ओतप्रोत हो जाता है, वह शरीरादि भौतिक पदार्थों की रक्षा की इच्छा नहीं करता, सहज ही रक्षा हो जाए, यह बात दूसरी है। वह प्रभु से या धर्म से केवल आत्मशक्ति या आत्मरक्षा ही चाहता है । कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर की इसी आशय की एक प्रार्थना है For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ : आनन्द प्रबचन : भाग १२ करो रक्षा विपत्ति से न ऐसी प्रार्थना मेरी । विपद् से भय नहीं खाऊँ, प्रभु ! यह भावना मेरी ॥ ध्रुव ॥ मिले दुःखताप से शान्ति, न ऐसी प्रार्थना मेरी । सभी दुःख पै विजय पाऊँ, प्रभु ! यह भावना मेरी ॥ करो १॥ मदद पर कोई आजाए न ऐसी प्रार्थना मेरी । न टूटे आत्मबल - डोरी प्रभु ! यह प्रार्थना मेरी ॥ करो ॥२॥ कितनी उत्तम भावना है- धर्मनिष्ठ व्यक्ति की ! वास्तव में धर्मनिष्ठ व्यक्ति को धर्म से अपनी सुरक्षा की माँग करने की आवश्यकता ही नहीं रहती, उसकी रक्षा स्वतः हो ही जाती है । 'धर्मो रक्षति रक्षितः ' सूत्र की सूझ परन्तु मनुष्य चाहे सुरक्षा की माँग करे या न करे अथवा भौतिक पदार्थों की सुरक्षा चाहे या आत्मिक रक्षा चाहे अथवा आत्मिक रक्षा की मांग करे — सबके लिए यह अनिवार्य शर्त है कि वह धर्म की रक्षा करे । एक ओर धन, शरीर या अन्य भौतिक पदार्थों की रक्षा का प्रश्न हो, दूसरी ओर धर्म की रक्षा का - उस समय अन्य पदार्थों की रक्षा को गौण समझकर धर्म की रक्षा करे । आज का मनुष्य प्रायः अत्यन्त स्वार्थी हो गया है । वह हर दिशा में, हर क्षेत्र में पहले यह देखता है कि इस कार्य को करने से मेरा कितना हित या लाभ होगा, तत्पश्चात् उस कार्य को प्रारम्भ करता है । गाय, भैंस, घोड़े, बकरी आदि की वह इसलिए रक्षा करता है कि बदले में वे भी मनुष्य की सम्पत्ति एवं तन्दुरुस्ती की रक्षा करते हैं, बढ़ाते हैं । सियार, भेड़िया, लोमड़ी, हिरन, चीता, कछुआ आदि को आमतौर पर नहीं पाला जाता, क्योंकि इनसे मनुष्य की कोई रक्षा या स्वार्थसिद्धि नहीं होती । यही बात हर दिशा में है । व्यापार, विवाह, मित्रता, कुटुम्बपालन, विद्या, व्यायाम आदि को इसलिए साधारण मनुष्य अपनाता है या उचित ठहराता है कि इनके द्वारा मनुष्य का व्यवहार में हित साधन होता है, रक्षा होती है, सुख मिलता है । जिस कार्य से किसी अच्छे प्रतिफल की आशा नहीं होती, उसमें मनुष्य दिलचस्पी नहीं लेता । रक्षक, सैनिक, पहरेदार या चौकीदार आदि रक्षा करने वाले व्यक्तियों को पैसा खर्च करके भी मनुष्य इसलिए रखता है कि इनके द्वारा आने वाली बचाव होता है । यदि यह बात न होती तो कोई भी मनुष्य विपत्तियों और हानियों से इन्हें न रखता । इसी प्रकार सुखों को त्यागकर और रहता है; क्योंकि लाखों ' ने धर्मं को भली-भाँति परख लिया है कि वह हमारी रक्षा करता है । इसीलिए मनुष्य ने धर्म को बहुत बड़ी वस्तु माना है। छोटे-बड़े कष्टों को अपनाकर भी वह धर्माचरण के लिए प्रयत्नशील वर्षों का अनुभव यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा करने से अपनी इसीलिए लोग धर्म की रक्षा करना उचित समझते हैं। यदि इसमें यह गुण न होता तो कोई उसे स्वीकार न करता । रक्षा होती है । For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : जीवन का त्राता : ३०९ अहिंसा से सारी समस्याएँ आसानी से हल हो जाती है । ब्रह्मचर्य से शरीर, इन्द्रियाँ और मन बलवान, स्वस्थ और सुन्दर बनते हैं। सत्य से बड़े-से-बड़े अत्याचारी, अन्यायी एवं पापी को झुकाया जा सकता है, मनुष्य निर्भय होकर दूसरों पर प्रभाव डाल सकता है । ईमानदारी से व्यावहारिक, धार्मिक और आर्थिक सभी लाभ हैं। इसी प्रकार क्षमा, दया, परोपकार, सेवा, सन्तोष, तितिक्षा आदि के प्रत्यक्ष लाभ विदित हैं। धर्म के इन अंगों से होने वाले प्रत्यक्ष लाभों की आकर्षण शक्ति ने ही मनुष्य को धर्म के साथ बांध रखा है, अन्यथा स्वार्थी मनुष्य कभी का धर्म को धता बता चुका होता । इसीलिए एक सहृदय अनुभवो कवि ने धर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखने की सलाह दी है रखना तुम मन में दृढ़ श्रद्धा यह धर्म बचाने वाला है। कष्टों को दूर हटा सुखमय यह सृष्टि रचाने वाला है ॥ध्रव।। इस धर्म की महिमा भारी है, यह अनुपम ताकत धारी है। जन-जन की डूबती नैया को, यह पार लगाने वाला है ॥रखना""१॥ शूली का सिंहासन करता है, विष को अमृतमय करता है। बस अग्निकुण्ड धगधगते को, यह नीर बनाने वाला है ॥रखना""२।। हर आफत को नर तर जाता है, भूला-भटका रास्ता पाता। सब ताप मिटा करके मन का, यह शान्ति बढ़ाने वाला है ॥रखना""३॥ सचमुच कितनी ही विपत्तियाँ आने पर भी जो धर्म को नहीं छोड़ता, धर्म उसकी अवश्यमेव रक्षा करता है। चम्पानगरी के सेठ सुदर्शन के सामने कितने भय और प्रलोभन आये शील से भ्रष्ट करने के, यहां तक कि उन पर झूठा इलजाम लगाकर शूली का दण्ड भी दिया गया था, लेकिन शील में दृढ़ सेठ सुदर्शन की शीलधर्म ने रक्षा की, शूली का सिंहासन बन गया। सारे नगर में उनकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गये । इसी प्रकार सीता को धधकते अग्निकुण्ड में पड़कर अपने सतीत्व की परीक्षा देने के लिए कहा गया था। सीताजी ने ज्यों ही अग्निकुण्ड में प्रवेश किया, अग्नि के बदले वहाँ पानी हो गया। सीताजी ने अपना शीलधर्म नहीं छोड़ा, इसी के फलस्वरूप धर्म ने सीताजी की रक्षा की। भारतीय इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपने ऊपर अनेक संकट आने पर भी धर्म पर दृढ़ता रखी, उसी के फलस्वरूप धर्म ने उनकी रक्षा की, उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाई । उनका नाम संसार में अमर हो गया। जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज को एक दिन एक स्वप्न आया, जिसका उल्लेख उन्होंने अपने प्रवचन में किया है, वह इस प्रकार है-वे एक वन में से होकर जा रहे थे, तभी एक अप्सरा-सी रूपवती एक महिला को देखा । उसके शरीर पर एक भी आभूषण नहीं था, किन्तु अंग-अंग से स्वाभाविक रूप से सौन्दर्य फूट रहा था। For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ उधर से घोड़े पर सवार एक राजा उसके पीछे आ रहा था । सुन्दरी को देखते ही उसके मन में काम विकार पैदा हुआ। उसे पकड़ने के लिए उसने अपना घोड़ा दौड़ाया। कामान्ध मनुष्य के मन में भय और लज्जा नहीं होती । राजा को अपनी ओर आते देख वह स्त्री समझ गई कि यह दुष्ट अवश्य ही मेरे शीलधर्म को हानि पहुँचाएगा। वह धर्मरक्षा के हेतु बेतहाशा दौड़ी। मन में धर्म के नाम का रटन था। राजा भी उसके पीछे भागा । महिला के पैरों तले कांटे आए मगर धर्म के प्रताप से चुभे नहीं। पानी से भरी नदी आई । महिला ने सोचा-'धर्म की रक्षा के लिए मर जाना श्रेष्ठ है, मगर धर्म नष्ट करके जीना ठीक नहीं।' यों सोचकर उसने नदी में छलांग लगाई। आश्चर्य की बात है कि उसके पैरों के तलवों में पानी लगा, मगर वह डूबी नहीं । वास्तव में शीलधर्म का प्रभाव अचूक होता है। स्त्री को नदी पार होते देख कामान्ध राजा ने भी नदी में अधिक पानी नहीं है, यह सोच ज्यों ही घोड़े को नदी में उतारा, वह राजा पानी के तेज प्रवाह में बहकर मर गया । यह दृश्य देख उस सुन्दरी ने सोचा- अगर नदी ही मारने या बचाने वाली होती तो, या तो वह दोनों को ही मार देती या दोनों को ही बचा लेती । इसलिए व्यास ऋषि की यह उक्ति विलकुल सच है धर्म एव हतो हन्ति, धमो रक्षति रक्षितः । तस्माद्धर्मों न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत ।। "नष्ट किया हुआ धर्म हमेशा नाश करता है, हमारे द्वारा रक्षा किया हुआ धर्म ही हमारी रक्षा करता है । इसलिए धर्म का हनन नहीं करना चाहिए ताकि विनष्टधर्म हमारा विनाश न करे।" जिसने धर्म को त्यागा, उसे सभी विभूतियाँ त्यागकर चली जाती हैं। उसे सदा दुःख दुर्भाग्य ही घेरे रहते हैं। ऐसे लोग नरक जैसी यंत्रणाग्रस्त मनोभूमि तथा आग में जलते रहने जैसी बैचैनी लेकर जिन्दगी के दिन ज्यों-त्यों पूरे करते हैं । धर्म का परित्याग करके मनुष्य पशु ही नहीं, पिशाच भी बन जाता है। धर्म रक्षा क्यों नहीं करता? एक शिकायत : एक समाधान बहुत-से धर्म पर अविश्वासी या अर्धविश्वासी लोगों की शिकायत है कि 'हमारी पंचमांश शक्तियाँ तो धर्म खा जाता है, बदले में हमें झूठी कल्पनाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं देता' इसके उत्तर में हमारा कथन है कि आप जिसे अपनी शक्तियां सौंपते हैं, वह धर्म न होकर धर्मभ्रम या धर्माभास होगा। धर्म तो एक प्रकार की उर्वरा भूमि है, जिसमें बोया हुआ बीज कई गुना होकर लौटता है। धर्म में 'नकद' होने की विशेषता है, 'इस हाथ दे, उस हाथ ले' का स्वाभाविक गुण है । जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी अवश्यमेव रक्षा करता है। यदि किसी प्रकार का प्रत्युत्तर या प्रत्युपकार प्राप्त न हो तो समझना चाहिए, कि नकली चीज है । जिसमें गर्मी और प्रकाश दोनों न हों उसे अग्नि नहीं कहा जा सकता, इसी प्रकार For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : जीवन का त्राता : ३११ जिसकी रक्षा करने पर भी जो न तो सुख में वृद्धि करता है, न आफतों से रक्षा करता है, वह धर्म नहीं है। प्रायः मनुष्यों में आज असवृत्तियाँ बलवती होगई हैं । वे मनुष्य को असत्कार्य करने के लिए लालायित व आकृष्ट करती रहती हैं। जिस प्रकार अर्जुन को मोहवश धर्म के विषय में भ्रान्ति हो गई थी, वह सत्-असत्वृत्ति का विवेक न कर सका तब श्रीकृष्ण ने उसे धर्म का सही स्वरूप बताया। अर्जुन की तरह जब मनुष्य सत्-असत् का निर्णय नहीं कर पाता, तब मोहवश अधर्म को ही धर्म मान बैठता है। जो भ्रमवश अनुचित को ही उचित मानने लगता है, तब उसका वह कार्य धर्म की परिधि में न होने से न तो अभ्युदय तथा कल्याण में सहायक होता है, न उसके कार्यों से सामाजिक हित की सुरक्षा होती है । वास्तव में धर्म का अर्थ एवं उद्देश्य है, जो व्यक्तित्व परिष्कार या व्यक्ति-कल्याण के साथ-साथ सामाजिक हित के अनुकूल हो। अपने जीवन-निर्वाह के लिए किया जाने वाला जो व्यवसाय या श्रम है, वह धर्मानुकूल तभी माना जा सकता है, जब वह दूसरों का अहित करने या शोषित-पीड़ित करने वाला न हो। मूढ़ लोग पशुबलि, कसाईपन, चोरी, लूट-पाट, डकैती, बेईमानी आदि अनैतिक धंधों को भी धर्म समझ बैठने हैं। दस्युजीवन बिताने वाला वाल्मीकि अपने परिवार के सदस्यों का पालन करने के लिए लूट-पाट करने को ही 'धर्म' समझता था । एक बार उसने धन के लोभ से सप्तऋषियों को पकड़ लिया । सप्तऋषियों ने उससे पूछा- "भाई ! असहाय लोगों को इस तरह लूटना और मारना तो पाप है, तुम यह सब क्यों करते हो ?" इस पर वाल्मीकि ने उत्तर दिया- 'यह तो मेरी जीविका है। इससे मैं अपने वृद्ध माता, पत्नी व सन्तान का पालन-पोषण करता हूँ। भला, अपने आश्रितों का पोषण करना क्या पाप है ?" यह सुन सप्तऋषियों ने समझाया-'अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों के हितों का हनन करना, अपना पेट भरने के लिए दूसरों का शोषण करना , उन्हें भूखे मारना, तड़फाना; अपनी पारिवारिक सुख-समृद्धि के लिए दूसरे परिवारों को कष्ट व असुविधा में डालना, बिना श्रम किये हुए दूसरों का श्रमार्जित धन छीनकर उसका उपभोग करना 'धर्म' नहीं माना जा सकता।" वाल्मीकि को बात समझ में आ गई । वह सोचने लगा-'सचमुच मेरे कार्य से दूसरों का उत्पीड़न, शोषण होता है। जिस कार्य से दूसरों को पीड़ा होती हो, दूसरे के प्रति अन्याय हो, वह धर्म नहीं माना जा सकता।' इस प्रकार की अनुभूति ने 'वाल्मीकि' को दस्यु से महर्षि बना दिया। धर्म का असली तत्त्व जब उनके जीवन में प्रविष्ट हुआ तो उनका व्यक्तिगत परिष्कार हुआ, वे धर्म को जीवन में रमाकर करोड़ों मनुष्यों के मार्गदर्शक बन गये; समाज की भी रक्षा हुई। वास्तविक धर्म को छोड़ देने से ही आज लोग पराधीन, बेकार, क्षुधात, रुग्ण और दीनहीन, विपद्ग्रस्त एवं चिन्तातुर बने हुए हैं । देखिये अमृत काव्य संग्रह में धर्म के त्याग का दुष्परिणाम For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ नीति छोड़ दूर भोला धारत अनीति मन, धर्म को छोड़ के पातक धारे मन में । चिन्तामणि छोड़कर कांच को संचय करे, कल्ततरु काट बोबे बबूल अंगन में। धेनु छोड़ अजा ग्रहे, अमत से धोवे पग, सुख सिज्जा छोड़कर सोवत अगन में। 'अमीरिख' कहे भरे कंचन के थाल धल, दोन भव हार मूढ़ धिक तीन पन में।। १२ आज यही दशा हो रही है। हर क्षेत्र में स्वार्थपरता घुस गई है। धर्मगुरु जहाँ पहले रक्षा करने वाले धर्म का उपदेश दिया करते थे वहाँ भी आज ओछी मनोवृत्ति के तथाकथित गुरुओं ने व्यक्तिगत स्वार्थ-लाभ की प्रेरणा से शुद्ध धर्म में नकली बातें जोड़ दीं । इस नकली-असली के संमिश्रण के कारण स्थिति ऐसी है कि धर्म के नाम से किये जाने वाले अधिकांश कार्य अधर्मरूप या पापरूप होते हैं। उनमें पुण्य का भाग कम और पाप का भाग अधिक होता है। इसी कारण रक्षा या सुख समृद्धि नहीं हो पाती। धर्मरक्षा को प्राथमिकता कहाँ ? __एक बात और है-आज कितने लोग हैं, जो पुत्र, यश, धन, स्वास्थ्य, सुखसुविधा आदि की रक्षा के प्रश्नों को गौण करके सर्वप्रथम धर्म की रक्षा करते हैं ? जैसे स्वास्थ्य-रक्षा के लिए वैद्य आदि के निर्देशानुसार लोग खाने-पीने, सोने-उठने तथा पहनने आदि का पूरा ख्याल रखते हैं । पुत्रादि के जन्म तथा विवाह आदि के प्रसंगों पर यश-कीर्ति प्राप्त करने की बेहद कोशिश की जाती है। अपनी झूठी शान और मिथ्या प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए लाखों रुपये विवाह आदि प्रसंगों पर फूक दिये जाते हैं। अपने धन की सुरक्षा या प्राप्ति के लिए येन-केन-प्रकारेण अन्याय-अनीति, बेईमानी, झूठ-फरेब करके, धर्म को धता बताकर भी आकाश-पाताल एक कर दिया जाता है। अपनी बात रखने के लिए अथवा भाईबन्धुओं से लड़ाई करके मुकदमेबाजी करने में अपने अहंकार की रक्षा हेतु कितना उखाड़-पछाड़ किया जाता है, परन्तु धर्मरक्षा की कितनी चिन्ता है ? धर्म रहे चाहे जाए ? इसकी परवाह बिलकुल नहीं की जाती। श्रीकृष्ण ने धर्म की श्रेष्ठता एवं सुरक्षा को अधिक महत्त्व देते हुए कहा था मम प्रतिज्ञां च निबोध सत्याम, वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च । राज्यं च पुत्रांश्च यशोधनं च, सर्व न सत्यस्य कलामुपैति ।। "अर्थात्- मेरी प्रतिज्ञा को सत्य समझो । मैं जीवन और अमृत (मोक्ष) से भी धर्म को श्रेष्ठ स्वीकार करता हूँ, क्योंकि राज्य, पुत्र, धन और यश, ये सब सत्य यानी धर्म की कला के बराबर भी नहीं हैं । धर्म को विदाई देकर सुरक्षा की आशा कैसी ? किन्तु हम देखते हैं- इस युग में पाप और अधर्म ही अधिक बढ़ रहा है। धम के नाम पर अधर्माचरण का इन्द्रजाल फैला हुआ है, उससे धर्म का सही रूप ही लुप्त हो चला है। ऊपर से धर्मात्मा का ढोंग रचकर, धर्मक्रियाएँ करके, लोगों ने धर्म की For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : जीवन का त्राता : ३१३ ओट में अथवा सफेदपोश बनकर अनीति-अन्याय से, बिना श्रम के धन कमाने की प्रवृत्ति चला रखी है। कई लोग तो जान-बूझकर सम्पन्न होते हुए भी लड़की के पिता को दबा-सताकर अधिकाधिक धन दहेज या मिलनी के नाम पर प्राप्त करके धर्म को तिलांजलि दे रहे हैं। इसीलिए कवि हार्दिक वेदनापूर्वक कहता है भारत से धर्म देख लो अब तो रवाना हो गया। किस को सुनाएँ भाइयो ! बहरा जमाना होगया ॥ ध्रुव ।। लड़के का बाप पूछता, लड़की के साथ दोगे क्या ? मोटर बिना तो ब्याह का मुश्किल रचाना हो गया ।। भारत से ।। मिलनी का फकत नाम है, माहरों से असली काम है। काम अमीरों का गजब लूट के खाना हो गया । भारत से""॥ बन्धुओ ! कड़वी बात कह गया हूँ। क्षमा करें। परन्तु आज धर्म की दुर्दशा और धर्म की विदाई देखकर सच्ची बात न कहूं तो मैं अपने धर्म से चूकता हूँ। सचमुच, इस प्रकार की कुप्रथाओं के पोषण से समाज के अधिकांश लोग अपने शुद्ध धर्म को तिलांजलि दे देते हैं; धन की रक्षा करने में वे धर्म की रक्षा को भूल जाते हैं । जब शुद्ध धर्म की रक्षा नहीं होती तो वे लोग दिखावे के लिए कुछ धार्मिक क्रियाएँ कर लेते हैं, कुछ रकम अमुक धार्मिक संस्थाओं को दे देते हैं, धर्मस्थानों में बहुत आते जाते हैं । परन्तु अन्तरंग धर्म को विदाई देकर बाह्य धर्म का प्रदर्शन करने से धर्म की सुरक्षा नहीं होती । धर्म की सुरक्षा किये बिना, जीवन की सुरक्षा कैसे हो सकती है । आप इसे भली-भांति समझें। इसीलिए महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में कह दिया है धम्मो य ताणं धर्म ही मानव जीवन का त्राता है। For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. धर्म ही शरण और गति है धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष एक आश्वासनदायक और प्रेरणादाता जीवनसूत्र पर विवेचन करने जा रहा हूँ। यह एक प्रकार का विवेकसूत्र है, जिस पर विचार न करने से मनुष्य अपने जीवन के प्रवाह को उलटी दिशा में बहा ले जा सकता है, वह भटक सकता है, उसका जीवन विमूढ़ताओं का शिकार हो सकता है। इसी हार्दिक अनुकम्पा से प्रेरित होकर महर्षि गौतम ने यह जीवनसूत्र प्रस्तुत क्रिया धम्मो ...""सरणं गई य "धर्म ही शरण है और गति है । अर्थात्-धर्म ही शरण लेने योग्य है, और वही गति-प्रगतियों में सहायक हैं।" गौतमकुलक का यह पच्चासीवाँ जीवन सूत्र है। धर्म ही क्यों शरणदाता है और गतिप्रदाता है ? संसार के अन्य पदार्थ क्यों नहीं ? धर्म किस प्रकार और किसको शरण देता है ? उसकी शरण में जाने से क्या-क्या लाभ हैं ? ये और इनसे सम्बन्धित प्रश्नों पर विचार किये बिना इस जीवनसूत्र का आशय समझ में नहीं आ सकेगा । इसलिए मैं आपके समक्ष विविध पहलुओं पर चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। धर्म की ही शरण क्यों ? मनुष्य के जीवन में कई बार भयंकर एवं विपरीत परिस्थितियाँ आ जाती हैं, मनुष्य का मन उस समय डांवाडोल हो उठता है, और वह कोई न कोई आश्रय या शरण ढूढता है । वह सोचता है, ऐसी जगह या वस्तु का आश्रय लिया जाए, जिसका आश्रय एक बार लेने पर छूटे नहीं, या वह उस मनुष्य को छोड़े नहीं, उसकी गोद में बैठ जाने पर फिर उसे कहीं न जाना पड़े। साथ ही शरण देने वाला इतना शक्तिशाली समर्थ और सर्वतोमुखी व्यापक हो कि कष्ट या संकट आने पर या उसके प्रति सामान्य बुद्धि लोगों की ओर से तानाकशी की जाए, बदनामी हो, फिर भी वह जिसको एक बार शरण दे चुका, उसे छोड़े नहीं। दूसरे शब्दों में, वह शरणागत व्यक्ति की हर तरह से रक्षा करे, उसका सर्वांगीण विकास करे, उसे बन्धनमुक्त होने की प्रेरणा दे । ऐसा शरण्य या शरणदाता इस विश्व में धर्म के सिवाय और कोई नहीं हो सकता । शरीर ऐसा शरणदाता नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर नाशवान है, वह स्वयं आत्माश्रित है । आत्मा के दूसरी गति में जाते ही शरीर यहीं रह जाता है, नष्ट हो जाता है। माता-पिता भाई-बहन या अन्य सगे-सम्बन्धी अथवा मित्र आदि शरण देने में असमर्थ होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ही शरण और गति है : ३१५ कदाचित् वे थोड़े समय के लिए शरण दें भी दे तो भी अन्त में वे जवाब दे देते हैं। धर्म ऐसा शाश्वत शरणदाता है कि एक बार शरण देने के बाद फिर शरण ग्रहण करने वाले को स्वयं नहीं छोड़ता। __धर्म ही सच्चा मित्र और शरणदाता एक सेठ था। वह धनाड्य होने के साथ-साथ धर्मात्मा भी था । उसको परिवार भी सुसंस्कारी और संप में दृढ़ मिला था। एक दिन वह एक नीति की पुस्तक पढ रहा था, उसमें लिखा था-मनुष्य को मित्र तो सैकड़ों बनाने चाहिए, शत्र एक भी नहीं । वह यह पढ़कर विचार में पड़ गया-'मित्र कैसे बनाऊँ ? मुझे तो अपने व्यापारधन्धे से भी फुरसत नहीं।' वह अपने सगे-सम्बन्धियों के सिवा किसी से ज्यादा परिचय ही नहीं बढ़ाता था, इसलिए मित्र बनाने में कठिनाई अवश्य थी, फिर भी उसकी उत्कण्ठा प्रवल थी, इसलिए हार्दिक मित्र बनाने की धुन में घर से चल पड़ा । सेठ कुछ ही दूर चला होगा कि एक सफेदपोश व्यक्ति मिल गया, उसने पूछा- “सेठ ! कहाँ चले आज ?'' सेठ-'कहीं नहीं, एक मित्र बनाने की इच्छा से घर से चला हूँ।" सफेदपोश -"तो मुझे ही बना लीजिए न ? आज से मैं आपका मित्र रहा।" सेठ राजी हो गया। एक मित्र बन गया। सेठ सिर्फ मित्र बनाकर ही नहीं रहा । उस मित्र को सेठ ने अपनी आधी सम्पत्ति, मकान आदि भी दे दिये । मित्र प्रसन्नता से उछल पड़ा । अब तो वह परछाई के समान सेठ के साथ-साथ रहने लगा । जहाँ भी सेठ जाता, जो भी काम करता, सबमें वह साथ रहता। इस प्रकार वह २४ घंटे साथ रहने वाला मित्र बन गया। इसी बीच एक दूसरा मित्र भी बन गया, जो तीज, त्यौहार आदि पों पर आया-जाया करता, बातचीत करता और खा-पीकर चला जाता। सेठ स्वास्थ्यलाभ के लिए घूमने जाता था, उसी दौरान साल-छह महीने में एक व्यक्ति से भेंट हो जाती थी। दोनों परस्पर अभिवादन मात्र कर लेते व कुशल-मंगल पूछ लेते थे। एक दूसरे से विशेष जान-पहचान नहीं थी। यह भी एक तीसरा मित्र बन गया। उन्हीं दिनों नगर में एक दुर्घटना हो गई । किसी व्यक्ति ने एक व्यापारी की हत्या कर दी और लाश मौका पाकर रखवा दी, सेठजी के मकान में । षडयंत्र इस खूबी से रचा गया था कि जांच होने पर सेठजी अपराधी सिद्ध हो गये । लोग हैरान थे कि इतने बड़े धर्मात्मा सेठ ने एक व्यक्ति की हत्या कैसे कर दी? लेकिन कानून तो अंधे का लठ्ठ है, जिस पर पड़ जाता है, पड़ ही जाता है । सेठ ने सोचा-'गिरफ्तारी से पहले किसी मित्र के यहाँ छिप जाना चाहिए, ताकि वह मित्र मामले की पैरवी करके बरी करा दे।' इसी आशा से सेठ २४ घंटे वाले मित्र के पास गये और उसे अपने घर में आश्रय देने के लिए कहा । मगर उसने साफ इन्कार कर दिया-''मित्र ! वैसे तो आप के लिए जान हाजिर है, लेकिन अपने यहाँ आश्रय नहीं दे सकता, राजा को पता लग गया तो मेरे परिवार पर आफत आ जाएगी। पैरवी भी मुझसे न हो सकेगी।" For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ सेठ अपना सा मुँह लेकर चल दिया । रास्ते में ख्याल आया कि पर्वमित्र के यहाँ भी चल कर देखूं । लेकिन घर में शरण देने और मुकदमे में पैरवी करने की बात सुनते ही उसके देवता कूच कर गए। टका सा जवाब दे दिया - " मित्र ! मैं आपको धन दे सकता हूँ, अपने घर में शरण नहीं । मैं बैठे-सोते इस संकट को क्यों मोल लू ?" सेठ निराश होकर वहाँ से चल पड़ा । वह अब घर की ओर जा रहा था कि उसकी नजर ऐसे व्यक्ति पर पड़ी, जो कोठी के बरामदे में घूम रहा था, यह वही तीसरा मित्र था । विचार आया - 'इससे भी कह कर देख लूं । शायद काम बन जाए ।' सेठ ने ज्यों ही घर में शरण देने को कहा, तो उसने तुरन्त हाँ करली । बोला - " मेरा परम सौभाग्य है कि मैं आज मित्र के काम आया । ऐसे संकट के समय मैं काम न आऊँ तो मित्र कैसा ?" उसने सेठ को अपने घर में शरण दो । उसके खिलाफ अभियोग की पैरवी की, जिससे वह निर्दोष बरी हो गया । यह दृष्टान्त है । दान्तिक इस प्रकार है— शरीर चौबीस घंटे का मित्र है, पर संकट और मोत के वारंट के समय शरण नहीं दे सकता, दूसरे पर्वमित्र सगे सम्बन्धी गण हैं, वे भी शरण न देकर जबाव दे देते हैं। तीसरा मित्र धर्म है, वही मौत के वारंट आने पर या संकट आ पड़ने पर शरण देता है और उस संकट से मुक्त करा देता है, कर्मों के बन्धन से भी छुड़ा सकता है । और सभी आँखें फेर लेते हैं, पर धर्मं आँखें नहीं फेरता । अतः संसार की कोई भी नाशवान वस्तु शरण नहीं दे सकती, धर्म ही एक मात्र स्थायी शरण दे सकता है । धर्म : एक सार्वभौम व्यापक सत्ता धर्म की सत्ता भी बहुत व्यापक है। शरीर, मित्र, माता-पिता आदि सम्बन्धी या अन्य सांसारिक लोगों का दायरा बहुत ही सीमित है, जबकि धर्म एक अपरिवर्तनशील, शाश्वत एवं विश्वव्यापी सत्ता है । यह एक सार्वभौम शक्ति है । जिसका लक्ष्य'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः' है । धर्म एक ऐसी सत्ता है, जिसकी शक्ति एवं सीमाएँ असीम हैं । वह राजसत्ता से कई गुना अधिक व्यापक एवं शक्तिमान है । राजसत्ता तो अपने छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में निश्चित परिधि में ही कार्य करती है । धर्मसत्ता का कार्यक्षेत्र समूचा विश्व है । विश्व का हर मानव धर्मसत्ता की प्रजा है, और हर मानव धर्मशासन का शासक भी है। धर्मसत्ता का कार्यक्षेत्र न केवल मानव के स्थूल शरीर तक ही सीमित है, वरन् उसके मनन, चिन्तन, इन्द्रियविषय, स्वभावनिर्माण, गुण- विकास, संस्कार - निर्माण, चरित्र निर्माण एवं उसकी आत्मा तक विस्तृत है । अगर हर मनुष्य धर्म महासत्ता के अधीन अपने आपको सम्बद्ध करले, उसकी शरण में आकर या अनुशासन में रहकर अपना स्वभाव, देव, आदत, संस्कार एवं गुणविकास एवं चरित्र बना ले तो वह धर्ममय बन सकता है । वेदों में धर्म को सार्वभौम मूलाधार बताते हुए कहा है'धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा' "धर्म सारे विश्व का प्रतिष्ठान है - आधार है ।', For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम ही शरण और गति है : ३१७ धर्मः एक महासागर धर्म महासागर के समान विशाल, स्पष्ट, गहन और गम्भीर जीवन प्रणाली है। यही कारण है कि जैसे महासागर की पहचान अमुक नदियों के जल से नहीं होती, किन्तु वह होती है-उसकी विशालता, व्यापकता और गहनता को देखकर; इसी प्रकार धर्म की पहचान अमुक सम्प्रदाय, पंथ आदि से नहीं होती, और न वह होती है, केश, वेश या क्रियाकाण्डों से; वह होती है- उसकी व्यापकता, गहराई और सबको अपने में समा लेने की शक्ति के कारण । समुद्र में बिना किसी भेदभाव के अनेक नदी, नद आदि आकर मिलते हैं, समुद्र किसी को मना नहीं करता, इसी प्रकार धर्म भी वर्ण-जाति या देश-काल आदि का भेद किये बिना प्रत्येक आत्मपरायण को अपने में मिला लेता है । समुद्र में जैसे मृतक-शरीर नहीं रहने पाता, उसी प्रकार जीवन के सत्य (आत्मा-परमात्मा) के प्रति जिसकी आस्था नहीं रही, जो जड़बुद्धि या नास्तिक हो गए हैं, उन्हें धर्म अपने में नहीं मिलाता । समुद्र अपना रस नहीं बदलता, अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार धर्म भी अपना रस (अहिंसा, सत्यादि) नहीं बदलता, वह अपरिवर्तनीय रहता है, और अपने सिद्धान्तों पर दृढ़तापूर्वक टिके रहने की शिक्षा देता है। समुद्र क्रमशः नीचा और गहरा होता जाता है, वैसे ही धर्म का अनुगामी भी धर्म को पाकर विनयशील (नम्र) और गम्भीर (सत्यता की गहराई में) होता चला जाता है । समुद्र में अनेक प्रकार के रत्न, मूगे, मोती आदि भरे होते हैं, साथ ही सेवाल, खर-पतवार भी, वैसे ही धर्म भी अनेक गुणों (क्षमा, सेवा, दया, मार्दव, सरलता आदि) का आगार होते हुए भी उसमें तुच्छ एवं अवरोधक भी समाविष्ट होते हैं । महासमुद्र की तरह धर्मरूपी महासागर से भी वैसे ही विस्तृत, महान् एवं उदार बनने की प्रेरणा मिलती है। धर्म में राजनीति, अर्थनीति, संस्कृति, परिवार, समाजनीति, सम्प्रदायनीति, जाति आदि सबका समावेश हो जाता है। धर्म उदारतापूर्वक सबको अपनाकर सबमें अपना रंग डाल देता है ; बल्कि राजनीति, अर्थनीति आदि में से जो धर्म में समाविष्ट नहीं होते, अर्थात्-धर्म में नहीं मिलते, वे धर्मरहित होने से लोक-श्रद्धय, लोकग्राह्य एवं लोक-उपयोगी नहीं होते । महात्मा गांधी ने स्वयं एक बार कहा था--"धर्मरहित सम्पत्ति त्याज्य है, धर्मरहित राज्यसत्ता राक्षसी है। जो धर्म शुद्ध अर्थ (धन) का विरोधी हो, वह धर्म नहीं है, जो धर्म शुद्ध राजनीति का विरोधी हो, वह धर्म नहीं है। अर्थ (धन) आदि से पृथक् शुद्ध धर्म नाम की कोई वस्तु हो नहीं सकती।" ___ धर्म का उद्देश्य-सभी रुचियों, क्षमताओं आदि का समावेश __धर्म की धारणा के अन्तर्गत उन सभी अनुष्ठानों, नीति-नियमों, विधि-विधानों और गतिविधियों का समावेश हो जाता है, जो मानवीय जीवन को गढ़ती और धर्म For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ में ओतप्रोत रखती हैं। मनुष्यों के अनेक हित होते हैं, विभिन्न इच्छाएँ, रुचियाँ, दृष्टियाँ और क्षमताएं-योग्यताएँ होती हैं, साथ ही परस्पर विरोधी आवश्यकताएँ भी होती हैं, उन सबको संगृहीत करके उन सबमें समन्वय व सामंजस्य स्थापित करके, विभिन्न अपेक्षाओं से समुच्चय रूप में प्रस्तुत कर देना धर्म का उद्देश्य है । साथ ही धर्म विविध देशकालानुसार विभिन्न रुचि एवं मान्यता के अनुसार जो परम्पराएँ, प्रथाएँ या त्रियाएँ, उपासना-विधियाँ आदि हैं उन सबको अपने में समाविष्ट करके विभिन्न अपेक्षाओं से समन्वय स्थापित करता है। धर्म विभिन्न दर्शनों और विचार-धाराओं का संगम भी है । धर्म सिद्धान्त उन सभी आध्यात्मिक विचारधाराओं एवं सत्यों को मान्य करता है जो आत्मा के केन्द्र में रखकर प्रचलित की गई हों। धर्म कहता है-जीवन एक और अखण्ड है, इसके आध्यात्मिक, व्यावहारिक, लौकिक, पारलौकिक आदि खण्ड वास्तविक नहीं हैं, केवल समझने की दृष्टि से इनके भेद भले ही किये जाएं। अर्थ, काम, राजनीति आदि व्यावहारिक प्रवत्तियाँ, धर्म के साथ ही रहती हैं, पृथक् नहीं। धर्म कोरा आध्यात्मिक वाद या अलग-थलग पदार्थ नहीं है । भक्ति और मुक्ति परस्पर विरोधी नहीं है। दैनिक जीवन के सामान्य व्यवहार भी धर्म के प्रकाश से प्रकाशित रहते हैं । धर्म अर्थ,काम, समाजनीति, राजनीति, दैनिक व्यवहार आदि पर अपना आध्यात्मिक नियंत्रण रखता है और इस प्रकार वह अर्थ, काम, राजनीति, समाजनीति आदि व्यवहार मार्ग पर चलने वाले विभिन्न कोटि के व्यक्तियों के लिए शरण्य (शरणयोग्य) सिद्ध होता है, और प्रेरक-नियामक भी । धर्म की शरण इन सबके लिए ग्राह्य एवं अनिवार्य इसलिए होती है, कि धर्म की शरण लेने पर वह इन्हें माता-पिता की तरह शुद्ध मार्गदर्शन करता है, पवित्र रखता है, विश्वसनीय बनाता है, लोकभोग्य एवं उपादेय भी बना देता है । इसके अतिरिक्त जिस किसी वर्ग एवं श्रेणी का व्यक्ति धर्म की शरण ग्रहण करता है, धर्म उसके मन, इन्द्रियों, हृदय, बुद्धि और आत्मा को पवित्र, उच्च, शुद्ध और पापताप से रहित, निश्चिन्त, निर्दोष एवं सात्त्विक बना देता है। धर्म उन्हें शुद्ध अथवा शुभ यानी मुक्ति-पथ अथवा पुण्य-पथ की ओर मोड़ देता है। धर्म की शरण में आने पर मनुष्य की सभी सांसारिक आसक्तियाँ, अशुद्ध कामनाएँ, गहित वासनाएं समाप्त हो जाती हैं, वह निरंजन, निराकार, शुद्धात्मस्वरूप, विदेहमुक्त अथवा जीवन्मुक्त वीतराग प्रभु के रंग में उसे रंग देता है। उसे जन्म-मरण के दुःखों को समाप्त करने की प्रेरणा देता है। पतिता आम्रपाली धर्मशरण लेकर पावन बनी बौद्धजगत् में आम्रपाली गणिका का नाम प्रसिद्ध है। वह वैशाली के राजा महासमन की पालित पुत्री थी। उनके ही राजमहल में उसका पालन-पोषण हुआ था। यौवनवय में उमका रूप-लावण्य चमक उठा । नृत्य, गीत, वादन आदि कलाओं में भी For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ही शरण और गति है : ३१६ वह पारंगत हो गई थी । उसके एक स्मित पर हजारों राजा, महाराजा एवं राजकुमार हजारों स्वर्णमुद्राएँ न्योछावर करने को तैयार रहते थे । इतना अद्भुत आकर्षण था, उस नारी में । इसी कारण वह विपुल सम्पत्ति का और अनेक प्रकार के सुखों का उपभोग करती थी । मगध, वैशाली, कौशाम्बी, कौशल, अवन्ती आदि के अनेक राजा उस पर आकर्षित एवं मुग्ध थे । परन्तु राजा महासमन के देहावसान बाद आम्रपाली विषयभोगों से विरक्त-सी हो गई थी, उसे अब शृंगार आदि में कोई रस न रहा । एक बार तथागत बुद्ध वैशाली पधारे और आम्रपाली गणिका के आम्रवन में ठहरे । आम्रपाली उनके दर्शनार्थ आई । उनकी प्रसन्न शान्त मुद्रा देख अम्रपाली शान्त एवं स्वस्थ हुई । उपदेश सुना तो हृदय आनन्द बुद्ध के चरणों के आगे साष्टांग प्रणाम करके झुक गई। से उछल उठा । वह तथागत तथागत ने उसकी चंचलता आम्रपाली ने स्वस्थ होकर शान्त देख वरदहस्त ऊँचा करके कहा - 'उठ, सन्नारी ! क्या इच्छा है तेरी ?" कहा - "देव ! मेरी इच्छा है कि आप संघसहित कल इस तुच्छ नारी के यहाँ भिक्षा के लिए पधारें। मैं बड़ा आभार मानूंगी।" तथागत ने कुछ क्षण मौन रहकर उसे स्वीकृति दे दी । इसके पश्चात् वैशाली के अनेक धनाढ्य युवक, प्रौढ़ तथागत बुद्ध के पास भोजन का आमन्त्रण देने आए; किन्तु उनके आमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया । सबने चाहा कि किसी भी प्रकार से बुद्ध आम्रपाली गणिका का आमन्त्रण अस्वीकार कर दें । उन्होंने तर्क, बहस, प्रलोभन, मनुहार आदि सब कुछ किया, पर बुद्ध ने उनका आमन्त्रण स्वीकार न किया । दृढ़ शब्दों में कहा - "तुम सारा वैशालीनगर भी भेंट कर दो, तो भी मैं आम्रपाली के आमन्त्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता ।" दूसरे दिन प्रातः काल तथागत बुद्ध अपनी भिक्षुकमण्डली सहित आम्रपाली के यहाँ भिक्षा के लिए गये । उनका अपूर्व स्वागत किया गया । भिक्षाग्रहण करने के बाद बुद्ध ने आम्रपाली से पूछा"शुभे ! क्या इच्छा है अब तेरी ?" आम्रपाली बोली --- "भंते ! मैं धर्म, बुद्ध और संघ की शरण ग्रहण करती हूँ । मैं अपने बाग-बगीचे, प्रासाद, वस्त्राभूषण आदि सब संघ को समर्पित करती हूँ । मुझे भिक्षुणी बना दें ।" 'तथास्तु' कहकर बुद्ध ने भिक्षु आनन्द को आज्ञा दी भिक्षुणी बनाने की । आम्रपाली अब पतित से पावन बन गई थी, धर्म की शरण में जाने पर । उसके मन में सौन्दर्य का जरा भी गर्व न था, न ही सुख-वैभवों की याद थी । एकमात्र धर्म को ही वह अपने मन में संजोए हुए थी । धर्मशरण : सर्वदुःखहरण इस दृष्टि से धर्म सदा के लिए शरणागत प्रतिपालक तो है ही, इसके अतिरिक्त भी वह शरणागत के जीवन को सार्थक बन्धनमुक्त एवं सर्वांगरूप से विकसित भी 1 For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ करता है । एक प्राचीन श्लोक में धर्म की शरणदातृत्व आदि विविध शक्तियों से युक्त परिभाषा का निरूपण इस प्रकार किया है - हरति जननदःखं मुक्तिसौख्यं विधत्त, रचयति शुभबुद्धिं पापबुद्धिं निहन्ति । अवति सकल जन्तून्, कर्मशन न निहन्ति, प्रशमयति मनो यस्तु तं बुधा धर्ममाहुः ॥ "अर्थात्-जो जन्म-मरण के दुःखों का हरण कर लेता है, मुक्ति-सुख प्राप्त कराता है, मनुष्य की बुद्धि को शुभ या शुद्ध बना देता है, उसकी पापबुद्धि नष्ट कर देता है, समस्त प्राणियों की रक्षा करता है, आत्मा के विकास को रोकने वाले आवरणरूप कर्मशत्र ओं का नाश करता है तथा जो मनुष्य के मन में प्रविष्ट दिषय-कषाय आदि विकारों को शान्त कर देता है, उसे तत्त्वज्ञ पुरुष धर्म कहते हैं।" धर्म की इस गुणात्मक परिभाषा से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि धर्म ही संसार के जन्म-मरणादि से भयत्रस्त जीवों को शरण दे सकता है। इसीलिए उत्तराध्यन सूत्र में स्पष्ट कहा है जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तम । “जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक आदि वेगों से पीड़ित प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप के समान एकमात्र आश्रयस्थल है, सहारा है, धर्म ही शरणदाता है, धर्म ही गतिप्रगति देने वाला है।" क्या भयंकर रोग, व्यथा या पीड़ा से दुःखित-चिन्तित व्यक्ति का दुःख मातापिता आदि पारिवारिक जन मिटा सकते हैं ? क्या वे उस पीड़ा या कष्ट को बाँट सकते हैं या स्वयं ले सकते हैं ? ऐसा तो कदापि सम्भव नहीं है; परन्तु धर्म की शरण ग्रहण करने वाला अपने अशुभकर्मों के फल को अपने उपादान का विचार करके समभावपूर्वक सह सकता है, समभावपूर्वक कष्ट सहन करने से और धर्म का आचरण दृढ़ श्रद्धापूर्वक संकल्प करने से पुराने अशुभकर्मों का क्षय होगा और जो आत ध्यान करने से नये कर्म बंधने वाले थे, वे रुक जाएंगे, इस प्रकार दुःख या पीड़ा का अनुभव बहुत ही कम होगा, कष्टों को वह प्रसन्नता से सहन कर सकेगा। इस सम्बन्ध में उत्तराध्ययन सूत्र की एक शास्त्रीय कथा लीजिए युवक अनाथी मुनि के तेजस्वी रूप-रंग, लावण्य, क्षमा, सहिष्णुता, निर्लोभता और निःसंगता आदि देखकर मगधराज श्रेणिक ने बहुत ही श्रद्धा और आश्चर्य से वन्दन-नमन करके सविनय पूछा- 'मुनिवर ! आप इस तरुणावस्था में सांसारिक सुखभोगों को छोड़कर श्रमणधर्म में क्यों दीक्षित हुए ? क्या कोई अभाव था ?" __ अनाथी मुनि ने शान्त और स्निग्ध स्वर में कहा-"राजन् ! मैं अनाथ था, संसार For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ही शरण और गति है : ३२१ में मुझे कष्टों से उबारने वाला या शरण देने वाला कोई नाथ नहीं था। इसलिए मैं धर्मरूपी नाथ की शरण लेकर सनाथ बनने हेतु दीक्षित हुआ हूँ।" यह बात सुनते ही श्रेणिक मुस्कराकर कहने लगा-"तब तो चलिए मेरे राज्य में, मैं आपका नाथ बनता हूँ। किसी बात की कमी नहीं रहने दूंगा, सब प्रकार के सुख-भोगों से, सुविधाओं से आपको सम्पन्न बना दूंगा।" अनाथी-'राजन्! आप स्वयं अनाथ हैं, आप कैसे मेरे नाथ बनेंगे ?" श्रेणिक-"मेरे पास प्रचुर धन, वैभव तथा सभी प्रकार के सुख-साधन हैं, विपुल अन्तःपुर हैं, दास-दासियाँ हैं, भोगों की सब सामग्री है, मैं कैसे मान लूकि मैं अनाथ हूँ ?" अनाथी-"राजन् ! आप सनाथ और अनाथ के रहस्य को नहीं जानते, इसी लिए अपने आपको इन भौतिक सुख-सामग्रीयुक्त होने से सनाथ समझते हैं, किन्तु भौतिक सुख-सामग्री की मेरे पूर्वाश्रम में क्या कमी थी? मेरे पिता नगर के प्रमुख धनाढ्यों में से एक थे। मेरा परिवार सभी भौतिक सुखों से सम्पन्न था। मेरे यहाँ भी मेरे बहुसंख्यक पारिवारिक जनों के अतिरिक्त दास-दासी भी कम न थे । फिर भी मैं अपने को अनाथ महसूस करता था ?" श्रेणिक-"इतनी सुखसामग्री होते हुए भी आप अनाथ कैसे थे ? आपने उसे क्यों छोड़ा ?" ____ अनाथी— “सुनिये तो, मैं उसका रहस्य बताता हूँ। एक बार मेरे नेत्रों में भयंकर पीड़ा उत्पन्न हुई । सारे शरीर में भयंकर जलन होने लगी। जैसे कोई मेरी आँखों में शूल भौंक रहा हो, इस प्रकार की दारुण वेदना से पीड़ित देखकर मेरे पिताजी ने एक से एक नामी मंत्र-तंत्रविशारदों, चिकित्सकों, शल्यक्रिया में कुशल जर्राहों, आदि को बुलाकर दिखाया। उन्होंने अपनी ओर से भरसक उपचार किया, फिर भी मेरी वेदना वे दूर न कर सके। मेरे पिता ने मेरे रोग को मिटाने के लिए प्रचुर धन पानी की तरह वहाया, फिर भी मुझे उस कष्ट से वे मुक्त न कर सके। यह मेरी अनाथता थी। मेरे बड़े-छोटे भाई, मेरी सहोदर बहनें, मेरी माता और मेरी धर्मपत्नी ये सब मेरी पीड़ा देख-देखकर आंसू बहाते थे । वे सब मेरी सेवा में अहर्निश तैनात रहते थे। कोई भी मेरी पीड़ा के कारण सुखपूर्वक नहीं सोता था। नींद तो मेरी वैरिन बन गई थी। इस भयंकर पीड़ा के मारे मेरा एक क्षण भी सुख-शान्ति में नहीं बीतता था। इस प्रकार मेरे सभी हितैषी परिजन मेरी शुश्रुषा में जुटे हुए थे, परन्तु कोई भी मेरे दुःख को दूर न कर सका । ये सब मेरी अनाथता के कारण थे। "इतनी सुख-भोगसामग्री, धन-वैभव और परिवार आदि होते हुए भी बताइए राजन् ! मेरे दुःख को वे कम न कर सके। मैं दुःखों से पीड़ित होकर अपने को अनाथ-सा महसूस कर रहा था। इसी बीच एक दिन मैंने चिन्तन किया- 'इतनी पीड़ा देने वाला कौन है ? कौन-सा मूल कारण है दुःख का ? आत्मा ही अशुभकर्मों For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ : आनन्द प्रवचन भाग : १२ से बद्ध होने के फलस्वरूप इन दुःखों को पाकर अनाथ हो जाता है। अतः दुःखों के मूल कारण-कर्मों को मिटाने का सर्वोत्तम उपाय धर्म है, धर्माचरण है । धर्म ही समस्त दुःखों से मुक्त कर सकता है, बशर्ते कि मनुष्य श्रद्धापूर्वक उसकी शरण ग्रहण करके अपने जीवन को धर्म से ओतप्रोत कर ले ।' बस, इसी चिन्तन के फलस्वरूप मैंने संकल्प कर लिया- 'अगर मैं इस दारुण वेदना से-दुःख से मुक्त हो गया तो क्षान्त, दान्त एवं निरारम्भ होकर अनगारधर्म की शरण ग्रहण करूंगा।' इस प्रकार चिन्तन करते-करते मैं सो गया। रात्रि व्यतीत हुई। प्रातःकाल देखता हूँ-धर्म शरण का चमत्कार कि मेरी सारी वेदना नष्ट हो गई । मैं बिलकुल स्वस्थ हो गया। बस, मैंने अपने पारिवारिक जनों के समक्ष अनगार धर्म में प्रवजित होने का अपना संकल्प बताया । पहले तो सब आनाकानी करने लगे । फिर मेरी दृढ़ता देखकर सबने प्रसन्नतापूर्वक मुझे अनगारधर्म में दीक्षित होने की अनुमति दे दी। राजन् ! उसी दिन से मैं अनगार धर्मशरण लेकर अनाथ से सनाथ बना । मैं अपना और दूसरों का नाथ बना, संसार के समस्त त्रस-स्थावर प्राणियों का भी नाथ बना।' __ इस प्रकार अनाथी मुनि ने दृढ़तापूर्वक धर्म की गोद में अपने आपको बिठाकर धर्मांशरण ली, उसका प्रत्यक्ष चमत्कार तो उन्होंने देख ही लिया, अनगारधर्म में दीक्षित होते ही सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक विकास करके उभयलौकिक जीवन सार्थक कर लिया। धम्म सरणं पवज्जामि : क्यों और किसलिए ? __ इसीलिए महाभारत में धर्म-शरण का महत्त्व बताते हुए कहा गया है-"धर्म ही सत्पुरुषों का हित है, धर्म ही सत्पुरुषों का आश्रय है, और चर-अचर तीनों लोक धर्म से ही चलते हैं। सभी धर्मशास्त्र एक स्वर से धर्म का महत्त्व मानते हैं। धर्मविहीन मनुष्य को पशु बतलाया है। जंगल में घूमने वाले पशुओं और ऐसे धर्मविहीन मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं होता। इसलिए मानना होगा कि धर्म की शरण लेने से मनुष्य में मनुष्यत्व का विकास होता है । धर्म की शरण ले लेने और उस पर दृढ़ रहने से इहलोक में मनुष्य का सर्वतोमुखी विकास होता ही है, परलोक में भी धर्म ही साथ जाता है । मृत्यु सिरहाने खड़ी हो, उस समय धर्म की ही शरण ली जाती है। स्त्री, पुत्र, माता, पिता, परिवार, जाति आदि के लोग कोई भी न परलोक में साथ जाता है, और न ही इहलोक में मृत्यु, रोग आदि के संकट में कोई सहायता दे सकता है। किन्तु यहाँ धर्म की ली हुई शरण परलोक में मी मनुष्य को सहायता देती है। इसीलिए बौद्धधर्म में धम्मं शरणं गच्छामि का उद्घोष प्रत्येक धर्मसाधक करता है, वैसे ही जैनधर्म में 'धम्म सरणं पवज्जामि' (धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ) का उद्घोष करता है। उसका कारण यह है कि धर्म की शरण स्वीकार करने से रोग, शोक, दुःख, संकट और विपत्ति के समय मनुष्य को धर्म का ही विचार आए, धर्म का ही चिन्तन चले । For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ही शरण और गति है : ३२३ अन्तिम समय में धर्म का ही स्मरण रहे, ताकि कुटुम्ब, परिवार, सगे-सम्बन्धी, धन, जमीन जायदाद आदि में मोह-ममता न रहे, और एकमात्र धर्म, भगवान् और धर्मगुरु में ही लौ लगी रहे । धर्म शरणविहीन जीवन : कितना लाभकर, कितना हानिकर ? जो धर्म की शरण नहीं लेता है, मृत्यु के समय उसका ध्यान धर्म, धर्मदेव ( वीतराग प्रभु ) एवं धर्मगुरु में नहीं रहता, सांसारिक मोहमाया में उसका ध्यान लगा रहता है । एक व्यक्ति मरणशय्या पर पड़ा था । मृत्यु के द्वार पर था । उसके बचने रात होने को आई तो भी घर में दीपक नहीं जला । नहीं जलाया जाता । उसने अंधेरे में आँखें खोलीं की अब कोई आशा न थी । घर में कोई मरता हो तो दीपक और अपनी पत्नी से पूछा - " अपना बड़ा लड़का कहाँ है ?" पत्नी बोली - " आप निश्चित रहें । आपके पैर के पास ही बैठा है ।" पत्नी का हृदय प्रसन्नता से भर उठा, क्योंकि जीवन में यह पहला ही अवसर था, जबकि उसने अपने पुत्र को इतने प्रेम से बुलाया था । वह अपने पुत्रों से हमेशा प्रायः यही पूछा करता था - ' - ' तिजोरी की चाबी, या बहीखाते कहाँ रखे हैं ?' मतलब यह है कि धर्म के सम्बन्ध में उसका कोई ध्यान ही नहीं था । न तो उसने स्वयं ने धर्म की शरण ली और न ही अपने पुत्रों को धर्म की शरण दिलाई । अतः उस धनिक ने फिर पूछा - " मझला लड़का कहाँ है ?" वह भी वहीं उपस्थित था, छोटा लड़का भी उपस्थित था । चौथे लड़के के सम्बन्ध में पूछने पर वह एकदम बैठा होकर पूछने लगा - ' - "पांचवां लड़का कहाँ है ?" उसकी पत्नी ने कहा - "आप जरा भी चिन्ता न करिये । सोये रहिए । हम सब यहीं हाजिर हैं, और पाँचवाँ लड़का भी आपके पास ही बैठा है । सेठ कोहनी टेककर एकदम बोला - "यह क्या ? सब यहीं हैं तो फिर दुकान में कौन है ?" सेठ की पत्नी भ्रम में थी, उसे लगा कि पति अपने पुत्रों के प्रति प्रेमवश पूछताछ कर रहा है, परन्तु उनका ध्यान तो दुकान खुली है या बन्द इसमें था । सेठ मृत्यु की घड़ियाँ गिन रहा है, परन्तु उसका ध्यान तो व्यापार-धन्धे में था । मन सांसारिक मोहमाया में भटक रहा है । मौत सामने खड़ी हँस रही है, पर मनुष्य अभी तक भविष्य के प्लान बना रहा है । भागते हुए मन वाले व्यक्ति को अन्तिम समय में मंगलपाठ सुनाया जाए, तो उसके पल्ले क्या पड़ने वाला है ? मनुष्य धर्म की शरण ग्रहण न करके कितना घाटे में रहता है ? अमूल्य मानव-जीवन धर्मं शरण रहित बिताकर खो दिया, परलोक भी सुधार न सका । बस, बाजी हाथ से खो दी । अतः सभी धर्मशास्त्र, सभी धर्म और सभी धर्मगुरु यही सलाह देते हैं कि धर्म की शरण अवश्य स्वीकार करो। मृत्यु निकट हो, उस समय तो चार शरणों में से धर्म की For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ शरण विशेष रूप से लेना हितावह है ही, परन्तु उससे पहले जब स्वस्थ दशा में हो, तब से ही धर्म की शरण लेनी चाहिए और प्रतिक्षण जागृत रहना चाहिए । धर्म की शरण लिए बिना जो अपना जीवन व्यतीत करता है, वह किस प्रकार जीता है ? एक कवि की भाषा में देखिये बिना धर्म कोई सहारा नहीं है, गाफिल ने बिलकुल विचारा नहीं है ॥ध्र व॥ तन को, वसन को, सदन को संवारा, सही रूप को पर निखारा नहीं है ॥बिना""१॥ अड़ा शत्रुओं से, लड़ा वीरता से, अहंभाव को किन्तु मारा नहीं है ।बिना ॥२॥ मनोहर कलाएँ व विद्याएँ सीखीं, विकृत भावना को सुधारा नहीं है ।बिना "३।। वैभव बढ़ाया व विभुता बढ़ाई, सही सम्पदा को निहारा नहीं है ॥बिना ४।। कवि ने अपनी अन्तर्व्यथा धर्मशरणरहित जीवन बिताने वाले के लिए कितने मार्मिक शब्दों में व्यक्त कर दी है। सचमुच धर्मशरणविहीन जीवन असंस्कृत और अविकसित होता है। कुछ लोग, जो धर्म की शरण लेने का विरोध करते हैं, कहते हैं- "धर्म की शरण लेने और उसे मानने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि धर्म की शरण में जाते हैं तो हमें आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, पुण्य-पाप, कर्मफल आदि मानने पड़ते हैं, धर्मशास्त्रों में जीवन पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध बता रखे हैं-यह मत करो, वह मत करो, यह मत खाओ, यह मत पीओ आदि; हम क्यों धर्म की शरण लेकर आत्मा-परमात्मा आदि के जंजाल में पड़ें क्यों अपने पर जान-बूझकर प्रतिबन्ध लगाएँ ? धर्म की शरण लेने वाले लाभ तो यही बताते हैं कि इससे हमारे अन्दर सत्य, अहिंसा, न्याय, नीति, क्षमा, दया, तप, त्याग आदि चरित्र-सम्बन्धी सद्गुण उत्पन्न होते हैं, हम धर्म की शरण लिये बिना ही चरित्र सम्बन्धी इन गुणों को अपने में चरितार्थ करते रहेंगे।" धर्मशरण-विरोधियों का यह कथन ऊपर से सुनने में रोचक प्रतीत होता है। गहराई से विचार करने पर स्पष्ट परिलक्षित होता है कि धर्मशरण स्वीकार किये बिना तथा धर्म से सम्बद्ध आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, कर्मफलसिद्धान्त आदि को माने बिना चरित्र सम्बन्धी सद्गुण टिके नहीं रह सकते। मनुष्य की नैतिकता या धर्म के अहिंसा, सत्यादि अंग, अत्मा-परमात्मा आदि के अस्तित्व तथा कर्मफलसिद्धान्त आदि पर ही तो टिके हुए हैं; अन्यथा धर्मशरणविहीन व्यक्ति रोग, व्यथा, संकट और कष्ट के समय चरित्रगुणों पर स्थिर नहीं रह सकेगा। For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ही शरण और गति है : ३२५ जब यह मान्यता हो जाएगी कि आत्मा नाम की कोई सत्ता नहीं है, वह तो सिर्फ पंचभूतों— जड़ पदार्थों का संयोग है, जो यहीं - इसी जन्म में खत्म हो जाता है, आगे उसके पुण्य-पाप का कोई लेखा-जोखा नहीं है, तब वह मनुष्य क्यों धर्म के इन स्वपर-कल्याणकारी गुणों को अपनाएगा ? जब सारा खेल यहीं - इसी जन्म में समाप्त हो जाएगा, तो मनुष्य में बुरे कर्मों से बचने की प्रवृत्ति नहीं होगी, फिर तो यही विचार होगा कि जो कुछ ( विषय ) - सुख भोगना हो, भोग लो । जैसे भी हो इसी जीवन को भौतिक सुखों से भर लो । इस वृत्ति प्रवृत्ति के वश होकर मनुष्य अपने जीवन को अपने मनःकल्पित सुख से परिपूर्ण बनाने के लिए किसी को सताने, मारने, पीड़ित करने से नहीं चूकेगा, झूठ - फरेब, दम्भ, छल-कपट, धोखाधड़ी, अन्याय, अनीति और अत्याचार का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाएगा, क्योंकि उसे तो इसी जन्म को सुखी बनाना है । जब धर्मशरणविहीन व्यक्ति का लक्ष्य आत्मा-परमात्मा की सत्ता, पुनर्जन्म, कर्मफल आदि सिद्धान्तों को न मानकर केवल अपने वर्तमान जीवन को सुखी बनाना रह जाएगा तो वह क्यों किसी दीन-दुःखी पर दया करेगा ? क्यों माता-पिता की सेवा करेगा ? और माँ-बाप भी क्यों अपनी संतान का पालन-पोषण करेंगे ? क्यों वह सामाजिक, पारिवारिक, वैवाहिक, आर्थिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों की धर्ममर्यादाओं को मानेगा ? वह उच्छृंखल होकर कल्पित सुख की अंधी दौड़ में क्यों दूसरों के दुःख को दूर करने, सेवा करने, परोपकार करने और अपने जीवन में उत्तम सद्गुणों का विकास करने का प्रयत्न करेगा आत्मा-परमात्मा आदि को न मानने की अवस्था में अच्छा या बुरे व्यक्ति का या अच्छे बुरे कर्म का निर्णय कैसे किया जाएगा ? नास्तिक लोगों के द्वारा कल्पित पंच भौतिक जड़-आत्मा अच्छाई-बुराई का निर्णय कैसे कर सकेगी ? सभी कर्म एक जैसे मानने पर दुराचरण या सदाचरण, अनैतिक कार्य या नैतिक कार्य का कोई विवेक नहीं हो सकेगा । 'सबधान बाइस पंसेरी' वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी । इस प्रकार धर्मशरण के अभाव में मनुष्य का जीवन भी दैत्यों का-सा बन जाएगा और संसार नरक-तुल्य बन जाएगा । संसार में अराजकता छा जाएगी । ये और इस प्रकार के कई भयंकर दोष धर्मशरण न लेने से आते हैं, भौतिकवादी नास्तिकों के पास इन प्रश्नों का कोई यथार्थ समाधान नहीं है । धर्मशरणविहीन लोग संकट और कष्ट के समय धर्मध्यान के अभाव में आर्तध्यान करेंगे, वे या तो विलाप, रुदन या शोक, पश्चात्ताप करेंगे या फिर निमित्तों को कोसकर दूसरों को मारने-पीटने, सताने, ठगने, चोरी-डकैती करने, झूठ - फरेब करने, धनादि छीनने का उपक्रम करें रौद्रध्यान करेंगे । इस प्रकार अपने अमूल्य जीवन की कब्र अपने हाथों से खोंदेंगे । धर्मशरण में कितनी दृढ़ता, कितनी श्रद्धा हो ? कहा जा सकता है, धर्मशरण के बिना काम नहीं चलता और उसे ग्रहण करना For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ अनिवार्य ही हो तो एक बार ग्रहण कर ली जाए, परन्तु शरण ग्रहण कर लेने के बावजूद भी संकट, विपत्ति और दुःख आएँ तो उसे छोड़ देने में क्या हर्ज है ? दूसरी बात यह है कि आत्मा पर कष्ट या संकट आता है, या उसका विकास रुकता है-कर्मशत्रु ओं के कारण, अतः कर्मशत्रु ओं को नष्ट करने का ही पुरुषार्थ होना चाहिए, धर्मशरण ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है ? प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि धर्मशरण दृढ़विश्वास और प्रबल श्रद्धा के साथ ग्रहण करनी चाहिए। जो मनुष्य दृढ़तापूर्वक शरण ग्रहण नहीं करता है, बार-बार जिसका मन डांवा-डोल हो जाता है, वह व्यक्ति धर्मशरण से लाभ नहीं उठा सकता । पतिव्रता नारी एक बार जिस पति को हृदय से स्वीकार कर लेती है, जिसकी शरण ग्रहण कर लेती है, वह फिर आजीवन उसे नहीं छोड़ती, न ही उसका मन छोड़ने के लिए उतावला होता है। इसी प्रकार लौकिक व्यवहार में देखा जाता है, जो व्यक्ति एक बार किसी समर्थ पुरुष की शरण में चला जाता है, फिर उसे जिंदगीभर नहीं छोड़ता; तब फिर महाशक्तिमान् सर्वसमर्थ व्यापक शुद्ध धर्म की शरण एक बार ग्रहण करने पर छोड़ देना कैसे हितावह हो सकता है ? दूसरे प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि यह निश्चित है कि कर्मों के भोगे बिना कर्मों का नाश नहीं हो सकता, किन्तु कर्म भोगने के दो तरीके हैं-उदय के मार्ग से और क्षय के मार्ग से । धर्म की शरण लेने पर भी कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं, किन्तु भोगे जाते हैं-क्षय के मार्ग से, उदय के मार्ग से नहीं। उदयमार्ग की अपेक्षा क्षयमार्ग शॉर्टकट है, छोटा है । अतः धर्म की शरण लेने से पूर्वकर्मों का नाश और साथ ही नवीन कर्मों का निरोध, ये दोनों कार्य साथ-साथ होते हैं, इस कारण शीघ्र कर्मों का क्षय हो सकता है। वैद्य वही अच्छा होता है, जो रोगी के पुराने रोग को मिटाता है और नये आते हुए रोग को रोक देता है, इसी प्रकार धर्मरूपी वैद्य की शरण लेने से पुराने कर्मरोग मिटते हैं और नये आने वाले कर्मरोग रुकते हैं। धर्म की शरण अनन्यभाव से लेने पर आत्मा के कर्मरोग मिट जाते हैं । अतः पूर्णरूप से आध्यात्मिक रोग मिटाना हो तो धर्मरूपी वैद्य की शरण ग्रहण करना अनिवार्य है। धर्म की शरण एक बार स्वीकार कर लेने पर फिर चित्त को डांवाडोल करना अच्छा नहीं है । क्योंकि शरणग्रहण का अर्थ है-समर्पण करना, Surrender करना, 'अप्पाणं वोसिरामि' करना । जब एक बार व्यक्ति ने अपने समस्त विषय-कषाय आदि विकारों के हथियार डाल दिये, धम क समक्ष समर्पित कर दिया, तब कोई संकट या विघ्नबाधा उपस्थित होने पर धर्म की शरण का त्याग देना उचित नहीं है । बड़े ही पुण्ययोग से धर्म की शरण मिली, उससे सभी उत्तमोत्तम संयोग मिले, किन्तु जरा-सी कोई मनोकामना पूर्ण नहीं हुई, अपना मनचाहा न हुआ तो धर्म को छोड़ बैठना बुद्धिमानी नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ही शरण और गति है : ३२७ मैं एक ऐतिहासिक उदाहरण आपको बता दूँ कि बड़े से बड़ा संकट या प्रलोभन आने पर भी धर्म पर कैसे दृढ़ रहा जा सकता है पाण्डवों के जीवन का एक प्रसंग है । संधिदूत बनकर श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से दुर्योधन के पास पहुँचे । बहुत समझाया, संधि के लिए; मगर दुराग्रही दुर्योधन ने साफ-साफ कह दिया कि "मैं तो बिना युद्ध के सुई की नोक पर आए, उतनी जमीन भी नहीं दूंगा ।" ऐसी स्थिति में युद्ध अनिवार्य हो गया । पाण्डवगण भी युद्ध की तैयारी करने लगे । कृष्ण वती नदी के तट पर पाण्डवों ने अपना सैन्य शिविर लगाया । सेना एकत्रित करने लगे । बीचों-बीच कृष्ण का तम्बू, उसके आसपास पांचों पाण्डवों का तम्बू और वहीं द्रौपदी का भी डेरा लगा हुआ था । शिविर में सेनापति धृष्टद्युम्न, राजा द्रुपद, विराट्राज आदि के डेरे भी लगे हुए थे । पाण्डव सबकी यथोचित व्यवस्था करने में लगे थे । पाण्डवों ने भी सब राजाओं के पास युद्ध का निमन्त्रण भेजा, जिसमें स्पष्ट लिख दिया - जो अन्याय के प्रतिकार में सहायक बनना चाहें, वह हमारी ओर से युद्ध में सम्मिलित हो । कौरवों ने भी कई राजाओं को आमंत्रण भेजा था । अतः कई राजा पाण्डवों की ओर सम्मिलित हुए, कई कौरवों की ओर । कुण्डिनपुर के राजा भीम के पुत्र रुक्म ने आमंत्रण पाकर सोचा - - ' युद्धका आमंत्रण आया है, इसलिए सम्मिलित होना चाहिए । युधिष्ठिर का पक्ष बलवान है और न्याय भी उसी ओर है, अतः युधिष्ठिर के पक्ष में ही युद्ध करना ठीक है । लेकिन बहन ( रुक्मिणी) के विवाह के समय कृष्ण ने मेरा जो अपमान किया था, वह काँटे की तरह चुभ रहा है । इस युद्ध में उस अपमान का बदला लेना चाहिए । परन्तु सुना है, कृष्ण स्वयं युद्ध नहीं करेंगे । ऐसी स्थिति में मैं उनसे बदला कैसे ले सकता हूँ । उनके मित्र ( पाण्डवों) का अपमान करके मैं उस अपमान की भरपाई कर लूंगा ।' यों विचार कर अपनी विशाल सेना लेकर रुक्म सीधा पाण्डवों के शिविर में पहुँचा । युधिष्ठिर ने उसका स्वागत किया । रुक्म ने पूछा - " आप सब आनन्द में हैं न ?" --- युधिष्ठिर - " वैसे तो आनन्द ही है, आपके आगमन से विशेष आनन्द हुआ ।" रुक्म - "दुर्योधन का अत्याचार और आपका सौजन्य जगत् में प्रसिद्ध हो चुका है । ऐसा होते हुए भी मैं आपका आमन्त्रण पाकर भी समय पर न आता, तो मेरा क्षत्रियत्व कलंकित होता ।" युधिष्ठिर - " आपके विचार उच्च हैं । आपका हमारे प्रति प्रेम है, इसी कारण आप आए हैं ।" रुक्म - " मैं क्षात्रधर्म का पालन करने आया हूँ । क्षत्रियों का धर्म न्याय की रक्षा For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ करना है । जो धर्म की रक्षा करता है, वही वस्तुतः क्षत्रिय है । ऐसे प्रसंग पर मैं न आता तो मेरी माता को भी कलंक लगता।" युधिष्ठिर-"आपका कथन यथार्थ है। आपको ऐसा ही विचार रखना चाहिए।" युधिष्ठिर ने सहदेव को बुलाकर कहा- "देखो यह रुक्म आए हैं । इनका और इनकी सेना का सत्कार करो और इनके स्थानादि का यथोचित प्रबन्ध करो।" __यह सुनकर रुक्म ने कहा- "स्वागत-सत्कार से पहले एक बात का स्पष्टीकरण हो जाना चाहिए।" युधिष्ठिर-"अगर कोई बात स्पष्टीकरण करने योग्य हो तो उसका स्पष्टीकरण अवश्य हो जाए।" रुक्म-'मेरे हाथ में जो धनुष है, उसका नाम 'विजय' है । संसार में तीन प्रसिद्ध धनुष हैं-(१) गाण्डीव, (२) सारंग और (३) विजय । सारंग कृष्ण के पास है मगर उन्होंने निरस्त्र रहने का निर्णय किया है । रहा गाण्डीव वह विजय धनुष की समानता नहीं कर सकता। यह अकेला ही सारी कौरव सेना पर विजय पर सकता है। कौरवों पर विजय पाने के लिए आप में से किसी को कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। इस विजय की सहायता से मैं अकेला ही आपको विजयी बना सकता हूँ। इसके लिए मेरे कथनानुसार अर्जुन यदि एक कार्य करें तो मैं अपना समस्त बल आपको दे सकता हूँ।" अर्जुन बोला-"पहले आप कार्य बतलाइए । कार्य को समझे बिना मैं करने की हाँ नहीं भर सकता।" रुक्म-“कार्य यही है कि तुम मेरे पैर पर हाथ रखकर कह दो कि मैं भयभीत हूँ और तुम्हारी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा करो। बस इतना करने से मेरा समस्त बल तुम्हारे पक्ष में हो जाएगा।" भीम उस समय नहीं मौजूद थे । रुक्म की बात सुनकर अर्जुन के नेत्र लाल हो गए । मगर युधिष्ठिर ने उसे रोककर रुक्म से कहा- "अभी तो आप आए हैं । थोड़ी देर विश्राम कीजिए। इस सम्बन्ध में फिर विचार किया जाएगा।" रुक्म- “ऐसा नहीं होगा। इसका निर्णय तो अभी हो जाना चाहिए । बोलो, अर्जुन ! तुम क्या कहते हो ? अर्जुन-"मुझे आश्चर्य होता है कि आपके मन में ऐसे विचार क्यों आए ? मैंने कृष्ण के चरणों को हाथ लगाया है। मेरी यह प्रतिज्ञा है कि कृष्ण के सिवाय मैं किसी अन्य के चरणों को हाथ नहीं लगाऊंगा। आप मुझ से झूठमूठ कहलाना चाहें मैं भयभीत हैं। भला मैं कब भयभीत हुआ हूँ ? इसके अतिरिक्त आपके लिए भी यह शोभनीय नहीं है कि आप स्वयं किसी को अपनी शरण में बुलावें। मैंने सिर्फ कृष्ण की शरण ली है, इसलिए दूसरे किसी की शरण नहीं ले सकता । आप आए हैं For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ही शरण और गति है : ३२९ तो मित्र की भाँति आनन्दपूर्वक रहिये, लेकिन अर्जुन आपकी शरण में आए, ऐसी आशा न रखिये।" ___ अर्जुन का स्पष्ट उत्तर सुनकर रुक्म क्रुद्ध हो गया। वह कहने लगा"मैं इतनी विशाल सेना लेकर तुम्हारी सहायता के लिए आया हूँ, तुम इतने से शब्द भी नहीं कह सकते । अगर तुम इतना कह दो तो एक घड़ी के छठे भाग में मैं तुम्हें विजयी बनाकर युधिष्ठिर के मस्तक पर राजमुकुट रखवा सकता हूँ। अगर मेरा कहना नहीं माना तो अपनी मृत्यु निकट ही समझ लेना । मैं अभी तुम्हारे शत्र के पक्ष में मिल जाऊँगा।" ___रुक्म की इस प्रकार की प्रलोभन और भय की बातें सुनकर भी वीर अर्जुन ने परवाह नहीं की । अर्जुन ने यही कहा-"अगर आपकी इच्छा विरुद्ध पक्ष में जाने की है तो आप खुशी से जा सकते हैं । हम आपकी इच्छा के विरुद्ध आपको रोकना नहीं चाहते । लेकिन आपके सामने मैं इस प्रकार की दीनता नहीं दिखला सकता । आप कौरव-पक्ष में सम्मिलित होने की बात सोचते हैं मगर दुर्योधन आपसे अधिक बुद्धिमान् है, वह आपके मनचाहे शब्द हर्गिज नहीं कहेगा।" रुक्म- 'दुर्योधन को भी मेरे कहे हुए शब्द कहने पड़ेंगे । वह नहीं कहेगा तो मैं उसके पक्ष में भी शामिल नहीं होऊँगा।" रुक्म यों कहकर देखते ही देखते अपनी विशाल सेना के साथ पाण्डवों की छावनी से कौरवों की छावनी में जा पहुंचा। अर्जुन ने सोचा-'ऐसे अभिमानी व्यक्ति कभी विजय नहीं दिला सकते । विजय धनुष ने इसे जीत लिया है, फिर भी थोथा अहंकार है। हमारे पक्ष में उच्चश्रेणी के थोड़े-से भी योद्धा होंगे तो हमारी विजय निश्चित है।' ___अर्जुन के मन में दृढ़ता थी। इसलिए वह श्रीकृष्ण की शरण पर दृढ़ रहा, रुक्म की शरण स्वीकार नहीं की। दूसरा होता तो रुक्म के द्वारा दिये हुए विजय के प्रलोभन पर या उसके द्वारा दी गई धमकी पर बदल जाता, रुक्म को शरण स्वीकार कर लेता। इसी प्रकार आप भी धर्म की शरण स्वीकार करने के बाद चाहे कितने ही भय या प्रलोभन आएँ कठिन अवसर आएँ, धर्म की शरण छोड़कर धन या किसी धनिक, सत्ताधीश या प्रबल व्यक्ति की शरण न स्वीकारें, दीनता-हीनता न दिखलाएँ । धर्मशरण को छोड़कर अन्याय, अनीति, दानवी शक्ति आदि के आगे न झुकें । अर्जुन ने सेना सहित रुक्म को जाने दिया, पर अपना धर्म नहीं जाने दिया। मेवाड़ राज्य का तो मुद्रालेख ही यह है "जो दृढ़ राखे धर्म को, तिहि राखै करतार ।" बन्धुओ ! चाहे कितने ही संकट आएँ, भय आएँ या प्रलोभन, किसी भी मूल्य For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ पर स्वीकृत धर्म-शरण को न छोड़ें । धर्म आपकी जीवन-शक्ति को प्रबल बनाकर स्वतः आपको उस सत्कार्य में विजयी बनाएगा। धर्म : गति-प्रगति दायक इस जीवनसूत्र का दूसरा अंश है-'धर्म गतिदायक है।' अर्थात्-धर्म मानवजीवन को गति देता है, प्रगति की प्रेरणा करता है, आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देता है, वह मानव-जीवन को निष्क्रिय नहीं बनाता । एक जगह ठप्प होने की अनुमति या आदेश नहीं देता । धर्म यह बात कतई नहीं कहता कि एक बार आगे बढ़ने पर पीछे हटो। एक बार धर्म का अंगीकार करके फिर नैतिक नियमों, व्रतों, मर्यादाओं को मत तोड़ो, यदि उसे छोड़ दोगे तो कायरता कहलाएगी । धर्म कायरता या ढोंग करना नहीं सिखाता। __ यह तो आप जानते ही हैं कि गति ही जीवन है और निष्क्रियता ही मृत्यु है । इसलिए जीवन को अमर रखने के लिए धर्म में सतत गतिशीलता या प्रगति करना आवश्यक है। कई लोग कहते हैं, जैनधर्म तो निवृत्तिवादी है, वह प्रवृत्ति (गति) की प्रेरणा कैसे कर सकता है ? परन्तु यह भ्रान्ति है । जैनधर्म न तो एकान्तनिवृत्तिवादी है, और न ही एकान्तप्रवृत्तिवादी । वह निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों पर धर्म का अंकुश रखता है। इसलिए धर्म निष्क्रियता या एकान्त निवृत्ति की कदापि प्रेरणा नहीं दे सकता । जहाँ प्रवृत्ति में दोष आते हैं, वहां वह उन्हें दूर करके आत्मशुद्धि के लिए ध्यान, मौन, चिन्तन, आत्मनिरीक्षण, प्रतिक्रमण आदि करता है, वह भी एक प्रकार की मानसिक या वाचिक क्रिया है; एकान्तनिवृत्ति नहीं। इसलिए धर्म कहता है-आलस्य, प्रमाद और निद्रा में पड़े रहकर जीवन को निष्क्रिय मत बनाओ । सतत धर्म का अंकुश रखते हुए यथोचित प्रवृत्ति और निवृत्ति करो। धर्म मनुष्य की खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, सोने-बैठने आदि की प्रवृत्ति को रोकता नहीं, परन्तु धर्मविवेक (यतना) रखकर सभी क्रियाएँ करने की प्रेरणा देता है। कई लोग कहते हैं कि अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि में अंधाधुध अत्यधिक प्रवत्ति है, इसलिए उनमें अनेक दोष आ जाते हैं, अगर सर्वथा प्रवृत्ति बंद करदी जाए तो दोषों की कोई गुजाइश नहीं रहेगी। अतः मनुष्य को चुपचाप समस्त इन्द्रियों एवं शरीर को निश्चेष्ट बनाकर रहना चाहिए। परन्तु यह बात असम्भव है, अव्यवहार्य है । मनुष्य को आवश्यक क्रियाएँ तो करनी ही होंगी, अन्यथा वह जिन्दा नहीं रह सकता। कदाचित् इन्द्रियों को कोई निश्चेष्ट बनाकर बैठ जाए, पर कितनी देर बैठेगा ? खानेपीने, मल-मूत्र क्रिया करने या श्वास लेने-छोड़ने की क्रिया तो करनी ही होगी। कदाचित् इन्हें भी कुछ घंटों के लिए बन्द कर दे तो भी मन से विचार तो करेगा ही, उसे For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ही शरण और गति है : ३३१ कहाँ गठरी बाँधकर रखेगा ? अतः आवश्यक प्रवृत्ति तो करनी ही होगी, परन्तु उन प्रवत्तियों की गति धर्म के नियंत्रण में होगी। मन, वचन, काया से जो भी प्रवृत्ति होगी, वह धर्म के प्रकाश मे होगी। निवृत्ति भी होगी, वह भी धर्म के प्रकाश में होगी। इस दृष्टि से धर्म गति-प्रगति देता है । वह कहता है धर्माचरण में आगे से आगे बढ़ते जाओ, गति करते जाओ प्रतिक्षण प्रत्येक प्रवृत्ति या कार्य में धर्म को गति दो; आगे बढ़ने दो। धर्म-प्रगति में बाधक तत्त्वों को ठुकराकर धर्म में आगे बढ़ो धर्म कहता है-तुम्हारी प्रगति में, विकास में बाधक तत्त्वों को ठुकरा दो, उन्हें छोड़ दो और आगे बढ़ो । जैसे—कुछ धार्मिक नियमोपनियम ऐसे हैं, जो बहुत प्राचीन काल में बने थे, आज वे विकासघातक, युगबाह्य एवं दम्भवर्द्धक बन गए हैं, उन पर चलना असंम्भव-सा हो गया है, वे केवल कुरूढिमात्र रह गए हैं, तो उन्हें धर्म की प्रगति में बाधक समझकर उनमें संशोधन, परिवर्द्धन करके धर्म में आगे बढ़ो। ___ इसी प्रकार तपस्या, धर्मपालन आदि के कारण कुछ सिद्धियाँ, उपलब्धियां या लब्धियां प्राप्त हो गईं। किन्तु साधक उनके मोह में या अहंकार में पड़कर उनसे स्वार्थसिद्धि, प्रसिद्धि, आडम्बर या चमत्कार प्रदर्शन करता है तो वह अपना आत्मप्रकाश आत्मविकास वहीं ठप्प कर देता है, इस सम्बन्ध में धर्म कहता है-उन भयों, प्रलोभनों, ऋद्धि-सिद्धियों, लब्धियों-उपलब्धियों आदि को प्रगति में बाधक समझकर उन्हें ठुकरा कर या उनकी उपेक्षा करके आगे बढ़ो। एक लकड़हारा था, वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी काट लाता और बाजार में बेचकर अपनी आजीविका चलाता था। एक दिन उसकी दयनीय दशा देख एक सिद्ध पुरुष को दया आई, उन्होंने उससे कहा-"तुम एक ही जगह लकड़ी क्यों काटते हो ? आगे क्यों नहीं बढ़ते ?" सिद्धपुरुष का कहना मानकर वह अब आगे बढ़ा तो उसे चन्दन के वृक्ष मिले। इन्हें बेचने पर अधिक धन मिला । कुछ दिन बाद फिर उसे सिद्धपुरुष की बात याद आई-"आगे बढ़ो।" तदनुसार वह आगे बढ़ा तो उसे ताँबे की खान मिली, फिर कुछ दिन बाद और आगे बढ़ा तो क्रमशः चांदी, सोने और हीरे की खान मिली । लकड़हारा बहुत ही प्रसन्न हुआ और अपने राष्ट्र का सबसे बड़ा धनाढ्य हो गया। इसी लकड़हारे की तरह मनुष्य धर्ममार्ग में उत्तरोत्तर गति-प्रगति करता जाए तो उसे क्रमशः चतुर्थ, पंचम आदि गुणस्थानों से लेकर बारहवें-तेरहवें गुणस्थान प्राप्त हो सकते हैं, उसकी आत्मा आत्मिक गुणों से पूर्णतः प्रकाशमान हो सकती है, परन्तु कब ? जब वह पीछे न हटकर, धर्म के बल से आगे से आगे ही बढ़ता जाएगा। धर्ममार्ग श्रेय-मार्ग है, वह प्रेयमार्ग से हटकर जाता है। सांसारिक पदार्थों, सुख-भोगों आदि का प्रलोभन प्रेयमार्ग है। श्रेयमार्ग में गति करने वाले साधक को For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ लुभावने प्रेयमार्ग से बचना बहुत जरूरी है । धर्म श्रेयमार्ग में गति करने की, आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है । आज पूर्व और पश्चिम दोनों ही प्रायः प्रेयमार्ग की ओर तेजी से प्रगति कर रहे हैं । यही कारण है कि मद्य, मांस, द्यूत, व्यभिचार, फैशन और विलास आदि में तेजी से प्रगति हो रही है, भौतिक विज्ञान नित नये आविष्कार कर रहा है । मनुष्य उस प्रगति के अहंकार में फूला नहीं समाता । परन्तु आखिर इसका परिणाम दुःखान्त ही आता है । भौतिक या प्रेयमार्ग की ओर गति करते समय धर्म उस पर अपना वरद अंकुश रखता है, वह कहता है- प्रगति तो हो, पर आत्म - विकास में अवरोध करने वाली न हो । उससे आत्मा पर आवरण न आए, यही देखना धर्म का कार्य है । इसीलिए महर्षि गौतम ने एक ही जीवनसूत्र में कह दिया 'धम्मो सरणं गइ य' धर्म ही शरण है, धर्म ही गति है । आप भी धर्म की शरण में आकर उससे आत्मा की प्रगति की प्रेरणा लें । 00 For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००. धर्म सेवन से सर्वतोमुखी सुख प्राप्ति धर्म-प्रेमी बन्धुओ ! आज मैं गौतमकुलक के अन्तिम जीवनसूत्र पर आपके समक्ष प्रबचन करूंगा । धर्माचरण का फल क्या होगा ? इस सम्बन्ध में प्राचीनकाल से मनुष्य जिज्ञासा करता आया है । वह धर्म का सेवन - आचरण करता है, बहुत ही श्रद्धापूर्वक आचरण करता है, परन्तु भ्रान्तिवश जब अपना मनमाना सुख पाना चाहता है, तब वैसा सुख न मिलने पर उसका मन डाँवाडोल हो उठता है । जीवन के उस अन्धकार के दिनों में महर्षि गौतम एक महत्त्वपूर्ण अश्वासनात्मक जीवनसूत्र देते हैं 'धम्मं निसेवित्त सुहं लहंति' धर्म का सेवन - आचरण करके मनुष्य सुख प्राप्त करते हैं । गौतमकुलक का यह छयासीवां जीवनसूत्र है । धर्माचरण को सुख प्राप्ति का कारण बताने के बाद भी जिज्ञासु मानव के समक्ष यह प्रश्न बना रहता है कि धर्म जीवन में कैसे सुख प्राप्त कराता है ? धर्म का किस रूप में कैसे और किस प्रकार सेवन करना सुखावह एवं हितावह है ? आइए, इन सब प्रश्नों पर हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें धर्म- सेवन के लिए धर्मदृष्टि धर्मसंस्कार आवश्यक मनुष्य जीवन में जैसे भोजन आवश्यक है, हवा-पानी भी आवश्यक है, वैसे ही मानव-जीवन के उच्चस्तरीय निर्माण के लिए धर्म की आवश्यकता होती है । भोजनादि से शरीर का निर्माण हो सकता है किन्तु जीवन-निर्माण के लिए धर्म की आवश्यकता है । मनुष्य के पास धन हो, सन्तान हो, स्त्री हो, अन्य सभी सुख के साधन हों, किन्तु धर्म के संस्कार न हों तो इन नाशवान वस्तुओं के वियोग, विनाश या विकृत होते ही मनुष्य घबरा जाएगा, दुःख का अनुभव करने लगेगा, सारा संसार उसे दुःखमय लगने लगेगा, सारी परिस्थितियाँ प्रतिकूल लगने लगेंगी । तात्पर्य यह है कि धर्मसंस्कार या धर्मदृष्टि जीवन में न हो तो व्यक्ति को सच्चा और स्थायी सुख नहीं मिलता । धर्मदृष्टि का मतलब है - प्रत्येक प्रवृत्ति में धर्म का विचार करना, धर्म-तत्त्व का चिन्तन करना । जिसके जीवन में धर्मदृष्टि आ जाती है, उसका जीवन धर्ममय हो जाता है । वह अर्थ और काम का सेवन भी करता है तो धर्म से युक्त हो, तभी करता है । वह. अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति को धर्म की तराजू पर तौलता है, धर्म के गज से नापता है । जहाँ जिस प्रवृत्ति के पीछे धर्म का पुट न हो, धर्म जिस वचन, विचार और आचरण के साथ न हो, उसे धर्मनिष्ठ पुरुष कभी नहीं अपनाता । धर्मनिष्ठ मनुष्य चाहे गांव में For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ रहे, चाहे नगर में, जंगल में रहे या एकान्त गुफा में, अकेले में हो चाहे जन समूह में, धर्म को छोड़कर कोई कार्य नहीं कर सकता। खान-पान में, सोने-जागने में, चलनेफिरने या बैठने में, बोलने में या किसी भी कार्य में धर्मदृष्टि वाला व्यक्ति धर्म को छोड़कर कोई भी प्रवृत्ति नहीं करता । धर्म उसकी साँस-साँस में ओतप्रोत हो जाता है। शास्त्र में इस प्रकार धर्म का सेवन करने वाले व्यक्ति के लिए कहा गया है- 'अट्ठिमिज पेमाणुरागरत्त' उसकी हड्डियाँ और रग-रग धर्मानुराग से रंगी हुई होती हैं । धर्म-शुद्ध धर्म उसके रोम-रोम में रम गया है। ऐसा व्यक्ति बीच में कष्ट या आफत आने पर धर्म के प्रति अधिकाधिक श्रद्धालु और सुदृढ़ हो जाता है। .. श्रमण भगवान् महावीर ने स्थानांगसूत्र (स्था० ४) में दुःख आ पड़ने पर मनुष्य कसे घबरा जाता है ? इसे समझाने के लिए चार गोलों का दृष्टान्त दिया है। वे चार गोले यों हैं--(१) मोम का गोला, (२) लाख का गोला, (३) काष्ठ का गोला और (४) मिटटी का गोला। मोम का गोला जैसे दूर से ही अग्नि की गर्मी लगते ही पिघलने लगता है, वैसे कई व्यक्ति दुःख आने वाले हैं, यह सुनते ही घबरा जाते हैं और पहले से ही घबराकर काम बिगाड़ बैठते हैं । ऐसे लोग घबराकर ज्योतिषी या मांत्रिक-तांत्रिक अथवा सामुद्रिक शास्त्री के पास दौड़ जाते हैं । ग्रहशान्ति कराते हैं, इस प्रकार भविष्य में आ पड़ने वाले माने हुए कल्पित दुःखों के निवारणार्थ कृत्रिम उपाय करने में जुट जाते हैं, पर वे व्रत-नियम,तप-संयम रूप धर्माचरण नहीं करते, धर्म सेवन को वे दुःखनिवारण का कारण नहीं मानते । क्योंकि उनकी धर्मदृष्टि ही नहीं है, उनमें धर्म संस्कार भी नहीं है । न धर्मरुचि है, और न ही धर्माचरण का वातावरण उनके इर्दगिर्द है। कई लोग लाख के गोले के समान होते हैं, जैसे लाख का गोला अग्नि के पास रखा जाता है, तभी पिघलने लगता है, वैसे ही कई मनुष्य दुःख के दिन निकट आते ही हताश, निराश और अनुत्साही होकर निरुपाय बन जाते हैं । वे किंकर्तव्यविभूढ़ होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। उन्हें दुःख निवारण का कोई भी उपाय नहीं सूझता । वे तो केवल दुःख के मारे रोते-चिल्लाते हैं, आत ध्यान करते हैं । परन्तु वे लोग दुःख का प्रतीकार करने के लिए धर्म की शरण नहीं लेते, न ही धर्मा चरण करते हैं, त्याग, तप, व्रत-नियम, धर्मध्यान सामायिक आदि तो वे परलोक की चीज या सुखी-सम्पन्न लोगों के करने की वस्तु मानते हैं; क्योंकि वे धर्मसंस्कारों से दूर रहे, इसलिए ऐसी संकटापन्न स्थिति में धर्मसेवन की बात उन्हें सूझती ही नहीं। तीसरे प्रकार के लोग काष्ठ के गोले के समान हैं। जैसे काष्ठ का गोला अग्नि में रखा जाता है तभी वह जलकर थोड़ी देर में भस्म हो जाता है वैसे ही कई लोग दुःख से घिरने के बाद उसी दुःख की चिन्ता-ज्वाला में जलकर भस्म होने लगते हैं, और वे सत्त्वहीन हो जाते हैं। सत्त्वहीनता उस व्यक्ति की कमर तोड़ देती है, फिर सस्वहीन व्यक्ति भविष्य में निरुपाय बनकर इधर-उधर देखता ही रहता है। सत्त्वहीनता उसे उठने नहीं देती। For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति : ३३५ चोथे प्रकार के लोग मिट्टी के गोले के समान हैं। मिट्टी का गोला आग में डालते ही क्रमशः कठिन होता जाता है। जैसे-जैसे अग्नि विशेष प्रज्वलित की जाती है वैसे-वैसे वह मिट्टी का गोला अधिकाधिक पक्का और मजबूत बनता जाता है । वैसे ही कई लोग जो धर्मनिष्ठ होते हैं । उस पर जैसे-जैसे अधिक दुःख आ पड़ने लगता है, वैसे-वैसे वह धर्म के प्रति अधिक श्रद्धालु, जागृत और मजबूत बनता जाता है । वह अधिकाधिक धर्माचरण करने लग जाता है और आत्मानन्द में मस्त रहता है । धर्म के प्रताप से वह आतरौद्रध्यान छोड़कर धर्मध्यान में संलग्न रहता है । जप-तप, त्याग, व्रत-नियम आदि धर्म क्रियाओं को अधिक उत्साह से करने लगता है । एक उदाहरण द्वारा मैं अपनी बात को स्पष्ट कर दूं--- ___ एक सेठ था, वह सब प्रकार से सुखी था। उसे सुशील और समविचार वाली धर्मपत्नी मिली थी। उसके यहाँ व्यापार के जरिये धन-वैभव खूब ही बढ़ता जाता था। उनके घर को दो वर्ष का पुत्र चन्द्रभान और पाँच वर्ष की पुत्री चन्दनबाला, अपनी बालक्रीड़ाओं से प्रसन्न और आह्लादित करते थे। सांसारिक दृष्टि से जिन्हें आप सुख कहते हैं, वे सभी सुख उनके यहां विद्यमान थे। सेठ-सेठानी इस लौकिक सुख-सम्पन्नता को सद्धर्म का ही प्रसाद मानते थे। दोनों की दृढ़ मान्यता थी कि धर्म के प्रताप से ही लौकिक और लोकोत्तर सभी प्रकार के सुख मिलते हैं । इस श्लोक के अनुसार उनका मन्तव्य था"धर्म पालय । जिनं समाराधय । भिक्षुकानन्दय । धर्म एव प्लवः मान्यः।" "अर्थात्-सद्धर्म का पालन करो, जिनेन्द्र भगवान् की आराधना करो, याचकों और जरूरतमन्दों को उनकी अनिवार्य आवश्यकतानुसार वस्तु देकर सन्तुष्ट करो । धर्म संसारसागर को पार कराने-तारने में वे नौका-समान है । दूसरा कोई भी साधन धर्म की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म ही सभी सुखों का दाता है । वे अपनी अन्तरात्मा को प्रतिक्षण यही समझाया करते थे मेरी जान धर्म चित्त धर रे, नादान धर्मचित्त धर रे, सुज्ञान धर्म चित्त धर रे, धर्म है मुक्ति का दाता, धर्म से होती सुख-साता॥ एक दिन धर्मशीला सेठानी विचार करने लगी—'ये बालक किसी पूर्वपुण्योदयवश इस सुखी घर में आये हैं, परन्तु इनका पुण्य कितना है ? वह कहाँ तक टिकेगा ? इनका हमें पता नहीं है। अगर हमें अपनी सन्तानों के प्रति सच्ची लगन हो तो हमें उनमें धर्म के संस्कार डालने चाहिए । अगर हम अपने बालकों को धर्म-संस्कार नहीं देंगे तो हम उनके परम शत्र कहलाएँगे । कहा भी है - For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ " माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न संस्कृतः ।" "वह माता शत्रु है, और वह पिता वैरी है, जिसने बालक को धर्मसंस्कारों से सुसंस्कृत नहीं किया ।" धर्मसंस्कारहीन बालक 'धर्मेण हीना पशुभिः समाना:' इस नीतिवाक्य के अनुसार पशुओं के समान रहेंगे । अतः हमारा कर्तव्य है कि इन बालकों में धर्मसंस्कार भरें । • ऐसा विचार करके सेठ-सेठानी दोनों बालकों में धर्म के संस्कार भरने लगे । आज तो अधिकांश धनिकों की स्थिति यह है कि वे धन-सम्पत्ति, सत्ता और अधिकार मिलने पर उसके नशे में भक्ष्य - अभक्ष्य, प्रेय- अप्रेय आदि का विचार नहीं करते । इस जन्म का सुख देखकर वे परभव का भविष्य भूल जाते हैं, परन्तु याद रखिये, इस भव का भविष्य ( सुखसम्पन्नता) तो पूर्वजन्म में बंधा हुआ है, वही है । अब तो आगामी भविष्य ( सुखसम्पन्नता) के लिए इस जन्म में ही विचार करना है । सेठ-सेठानी बालकों के भविष्य का विचार करते हैं । वे सोचते हैं—अपने बच्चों को नाशवान धन-वैभव, बंगला, कार एवं अन्य सुखोपभोग साधन देने के वजाय, धर्म IT अक्षय, अविनाशी जीवन - पाथेय देना चाहिए जो सदैव चल सके । श्रेष्ठ प अपने पुत्र तथा पुत्री में धर्म- विचारों का बीजारोपण करते हुए कवि का यह संगीत उनके हृदय मन्दिर में गुरौंजा दिया क्यों फिरता प्यारे आवारा, धर्म कर काम आएगा । खूब ही पटका, पाया नरक-सा धर्म ॥ कर तू चहुंगति में भटका, कर्मों ने उलटा गर्भ में लटका, दुःख न चलता कोई भी चारा इस जग में तू अकेला, आया और यह चलता-फिरता मेला, संग चले बता कोई पाप ने तारा ॥ धर्म कर जाए अकेला । पाई न धेला । ॥१॥ ॥२॥ इस प्रकार वे प्रतिदिन दोनों बालकों को विभिन्न पहलुओं से धर्म का माहात्म्य चमत्कार और गौरव बताकर धर्म-संस्कार डालने लगे । तीन चार वर्षों में तो उनमें धर्म संस्कार कूट-कूटकर भर दिये । एक दिन इस कुटुम्ब को दुर्भाग्य ने आ घेरा । स्वस्थ और सशक्त सेठानी का हार्टफेल से देहान्त हो गया । इस वज्रपात के कारण शोक के दिनों में गद्दी तथा गोदमों के बीमे की अवधि पूरी हो गई फिर भी बीमे की अवधि बढ़वाने की बात सेठ एकदम भूल गए । संयोग से बीमे की अवधि पूर्ण होने के चौथे ही दिन अकस्मात् गोदाम में आग लग गई । सारा माल जलकर भस्म हो गया । बीमे की अवधि पूरे For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति ३३७ होने पर भूल से पुनः बीमा चालू न कराने के कारण गोदाम के बीमे की राशि न मिल सकी। _ 'विपत्ति आती है, तब अकेली नहीं आती, किन्तु दल-बल-सहित आती है' इस कहावत के अनुसार सेठ के धर्मनिष्ठ परिवार पर विपत्तियों के बादल टूट पड़े। सेठ धर्म के स्वरूप को समझते थे, कर्म की विचित्रता को भी जानतेमानते थे, धन-वैभव की क्षणभंगुरता भी उनके ध्यान में थी, दुःख से पीड़ित होते हुए भी वे अधिकधिक धर्मनिष्ठ बनने लगे, वे अधिकाधिक धर्मध्यान और धर्मश्रवण करने लगे। स्थानांग सूत्र में उल्लिखित चार गोलों के समान मानवों में से वे चतुर्थ प्रकार के मिट्टी के गोले के समान धर्मिष्ठ मानव थे । जैसे-जैसे वे दुःखाग्नि में तपते जाते थे वैसे-वैसे वे धर्मश्रद्धा में दृढ़ होते जाते थे। उन्होंने बाकी बची हुई मिल्कियत, सामान, फर्म का मकान एवं आभूषण आदि बेचकर पाई-पाई कर्ज चुका दिया । उन्होंने पराई रकम दबाकर दीवाला निकालने का जरा भी विचार नहीं किया । सबकी रकम याद करके चुका दी । जिन-जिनकी वस्तुएँ गिरवी रखी हुई थीं, उनकी वस्तुएँ भी याद याद करके पहुँचा दी । सेठ यद्यपि निर्धन हो चुके थे, परन्तु वे आत्मिक धन एवं धर्मरूपी धन से सुशोभित हो गये । अपने बचे हुए एक छोटे-से मकान में बालकों सहित रहने लगे । अब तो उनके यहाँ कोई भी नहीं फटकता था । सगा भाई भी सेठ से विमुख हो गया, दूसरे सम्बन्धियों का तो कहना ही क्या ? सेठ ने अपने को परिस्थिति के साथ एडजस्ट कर लिया। वह उदर-पूर्ति के लिए गाँवों में जाकर साग-भाजी बेचने लगा। बालक भी धीरे-धीरे सयाने होने लगे। धार्मिक संस्कारों से वे अब समृद्ध हो गए थे। परन्तु कर्मों से छुटकारा कहाँ हुआ? अवस्था और संकटों से जर्जरित सेठ को रुग्ण-शय्या पकड़नी पड़ी। अबोध बालकों की चिन्ता से ग्रस्त सेठ की बीमारी बढ़ती गई। समझदार धर्मसंस्कारी-बालकों ने पिता से कहा-"पिताजी ! आप हमारी चिन्ता बिलकुल न करें । हम धर्म के प्रताप से आत्मधन से बहुत समृद्ध हैं । आपकी कृपा से प्राप्त हुए धर्म-संस्कारों से हमारा जीवन ओत-प्रोत है । अतः आप हमारी चिन्ता किये बिना जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों में अपना चित्त पिरो दें। आत्मकल्याण के लिए तत्पर रहें । सदैव आनन्द में रहें, जो कुछ परिस्थिति आ पड़े, उसे धीर बनकर हंसते-हँसते सह लें। मन में यही सोच लें कि मेरे जैसे कर्म होंगे, तदनुसार मुझे फल मिले हैं । हृदय में प्रभु के प्रति श्रद्धा रखकर कर्म-विकारों को दूर करें। आर्त्त-रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान में अपना चित्त लगाएँ । संसार के प्रपंचों को छोड़ दें। मन को स्थिर रखकर कल्याण मार्ग में जोड़ें । आपका और हमारा सम्बन्ध तो केवल इसी जन्म का है, धर्म से सम्बन्ध जोड़े। वही सम्बन्ध स्थायी है। आपने ही तो यह सुभाषित सिखाया था For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ मात-पितसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । तवाऽनन्तानि जातानि, कस्य ते कस्य वा भवान् ॥ "माता, पिता के रूप में आपके हजारों जन्म हुए हैं, पुत्र, पत्नी आदि के रूप में भी सैकड़ों जन्म हुए हैं । यों अनन्त बार विभिन्न रूपों में जन्मे हैं । यहाँ कौन किसका रहा है ?" इस प्रकार पुत्र-पुत्री द्वारा पिता ने धर्मपुनीत वचन ग्रहण किए । अन्तिम समय में लोकलज्जावश सेठ के सगे सम्बन्धी भी आए । सेठ का छोटा भाई भी देखा-देखी सेठ का कुशल-मंगल पूछने आया। यह जानकर सेठ ने उसे आदर पूर्वक बिठाया। उसने सेठ से कहा- "बड़े भाई ! बालकों की जरा भी चिन्ता न करना। मैं इन्हें अपने ही बालकों की तरह रखूगा । आप शान्तिपूर्वक परमात्मा में ध्यान लगाएँ।" भाई के वचन सुनकर सेठ को सन्तोष हुआ । उनकी चिन्ता दूर हुई । जैसे कछुआ अपना अंग सिकोड़ लेता है, वैसे ही सेठ भी सांसारिक मोहमाया से अपना चित्त समेटकर एकमात्र आत्मध्यान में लीन हो गए । शान्तिपूर्वक शरीर छोड़ा। सद्गति प्राप्त की। छोटे भाई ने उनके पीछे लौकिक क्रियाकर्म करने के लिये उनके घर की बची हई सब वस्तुएँ बेच डालों । सेठ का जो छोटा-सा घर था, वह भी बेच डाला। दोनों बालकों को अपने यहाँ ले गया । चन्द्रभान को उसने अपनी दूकान में लगा दिया और चन्दनबाला को गृह-कार्य में । इस प्रकार चाचा-चाची को केवल रोटी के बदले मुफ्त में दो नौकर मिल गये । चाचा मुफ्त का अहसान जताने लगा। चाची भी कम नहीं थी, वह कठोर स्वभाव की और कपटी थी। पशुओं का सारा काम उसने चन्दनबाला पर डाल दिया। यद्यपि धर्मसंस्कारी चन्दनबाला सब कुछ सहन करती हुई घर के सब काम करती थी। फिर भी उसे चाची की गालियां, ताने, मार-पीट आदि अनेक हृदयविदारक कष्ट सहने पड़ते । चन्दनबाला किसी को भी दोष न देकर अपने ही अशुभकर्मों का दोष मानकर आत्मा को कर्म-बन्धन से बचाने लगी। आखिर तो उसमें सद्धर्म के संस्कार थे। चन्दनबाला की स्थिति एक नौकरानी से बदतर देखकर दयालु पड़ोसियों ने उसकी चाची को दो शब्द कहे भी, परन्तु इससे तो चाची का पारा और गर्म होगया। उसने चन्दनबाला ही उपालम्भ दिया कि 'तू ही पड़ोसियों के सामने मेरी बदनामी करती है।' यों कहकर वह चन्दनबाला पर और अधिक अत्याचार करने लगी। एक दिन चन्दनबाला पानी का घड़ा सिर पर रखकर आ रही थी, अचानक लड़ते हुए दो सांड़ों के चपेट में आ गई । इस कारण मिट्टी का घड़ा फूट गया। चाची ने देखा तो वह आगबबूला हो गई और उसे डांटने-फटकारने लगी। चाचा ने अपनी पत्नी को बहुत समझाया, पर वह नहीं समझी। फिर उसे स्वार्थ की दृष्टि से समझाते For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति : ३३६ हुए कहा-“देख, तू सोच तो सही, तुझे ऐसी अच्छी नौकरानी मुफ्त में मिली है, चन्द्रभान भी दुकान का बहुत-सा कार्य करके मुझे आराम पहुंचाता है। अत: तुझे अपने स्वार्थ की खातिर भी शान्त रहना चाहिए।" यों समझाने पर कुछ दिन तो चाची शान्त रही, किन्तु फिर अपनी पुराने चाल से चलने लगी। वह दोनों बालकों के बारे में चाचा के कान में जहर उगलने लगी। एक दिन चन्दनबाला के हाथ से घी की हंडिया छूटकर गिर पड़ी। घी जमीन पर गिर गया। इस पर चाची का रौद्ररूप देखकर चाचा भी ठंडे पड़ गये । चाची ने आज स्पष्ट सुना दिया- “या तो इस घर में ये दोनों छोकरे नहीं, या मैं नहीं।" चाचा के समझाने पर भी वह टस से मस न हुई। चाचा को भी आखिर उस चण्डी के आगे झुकना पड़ा। दोनों बालकों ने चाचा-चाची से बहुत विनयपूर्वक प्रार्थना की, परन्तु चाचा ने एक न मानी और तुरन्त भाई के दोनों बालकों को घर से बाहर निकाल दिया। सेठ के किसी भी मित्र या सम्बन्धीजन ने इन्हें आश्रय न दिया। पापकर्म का उदय होता है, तब सभी पासे उलटे पड़ते हैं। नीतिकार कहते हैं वृक्ष क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः शुष्कं सरः सारसाः। निद्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिका भ्रष्टं नृपं मत्रिणः॥ पुष्पं पर्युषितं त्यजन्ति मधुपाः दग्धं वनान्तं मृगाः। सर्वः कार्यवशात् जनोऽभिरमते, तत् कस्य को वल्लभः ? "फलहीन होते ही वृक्ष को पक्षिगण तुरन्त छोड़ देते हैं, शुष्क सरोवर को सारस छोड़ देते हैं, धनहीन पुरुष को वेश्या शीघ्र छोड़ देती है, जिस राजा के हाथ से राज्य चला गया हो, उसे मंत्रिगण छोड़ देते हैं, नीरस और बासी पुष्पों को भौंरे छोड़ देते हैं, जले हुए वनप्रान्त को हिरण आदि पशु छोड़ देते हैं। सभी लोग मतलब से किसी पर प्रेम करते हैं, ऐसे स्वार्थी संसार में कौन किसका प्रिय है ?" निष्कर्ष यह है कि स्वार्थवश संसार में एक दूसरे को लोग चाहते हैं । स्वार्थ सिद्ध होते ही कोई किसी को नहीं पूछता। . यों विचार करते-करते 'भाई-बहन चाचा के यहां से निकलकर आगे बढ़े। कहाँ जाएं, क्या करें? यही समस्या थी। परिचित-अपरिचित साधनसम्पन्न धनिक मिलते हैं, पर कौन इन निर्धन भाई-बहन को पूछता? दोनों ने अपने ननिहाल जाने का विचार किया। चलते-चलते वे रास्ता भूल गये और एक जंगल का मार्ग पकड़ कर चलने लगे। दोनों को भूख-प्यास सता रही थी। बहन का कंठ सूख गया घा, वह बोली- "भाई ! अब तो पानी के बिना मेरे से एक कदम भी नहीं चला जाता । चाहे जहाँ से थोड़ा सा पानी ले आओ तो मैं आगे चल सकती हूँ।" ___ स्नेही भाई ने चन्दनबाला को एक पेड़ की छाया में बिठाया और स्वयं एक For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० :आनन्द प्रवचन : भाग १२ ऊँचे वृक्ष पर चढ़कर आसपास देखने लगा। कुछ ही दूर पर एक छोटा-सा सरोवर दिखाई दिया। उतावले कदमों से वह शीघ्र सरोवर की ओर चल पड़ा । हृदय में पंचपरमेष्ठी का स्मरण, वचन में नमस्कार मंत्र का रटन और पांवों से गमन हो रहा था। इधर पेड़ के नीचे अकेली बैठी चन्दनबाला पर एक शिकारी की दृष्टि पड़ी। सुकोमल कन्या को देखकर वह मुग्ध और आसक्त हो गया। वह चन्दनबाला के पास आकर कहने लगा- "सुन्दरी ! मेरे लिए भगवान ने तुम्हें भेजा है, अतः और कोई विचार किये बिना मेरी दूसरी पत्नी बनकर सुखपूर्वक जीवन बिताओ। तेरे जैसी सुकोमल पुष्पकली की यहाँ वन में अकेली मुरझाना उचित नहीं है।" शिकारी के अप्रत्याशित और धर्मविहीन वचन सुनकर चन्दनबाला चौंकी, शिकारी को समक्ष देखकर वह बोली- "देखो भाई ! सती और सन्त को सताने से कुल, धर्म और वंश का समूल नाश हो जाता है। नहीं मानते हो तो देखलो, रावण, कौरव और कंस का हाल । उनका नामोनिशान भी न रहा । और भी सुनो, मेरे भाई ! कृपण धन को, सिंह मूछ को तथा सती अपना हाथ-ये तीनों जीते-जी दूसरे के हाथ में अपनी ये चीजें नहीं सौंपते।" परन्तु दुष्ट और दुराचारी को यह शिक्षा कहाँ सुहाती ! सशस्त्र और वासनापिपासु शिकारी ने चन्दनबाला को भी एक सामान्य शिकार समझा । परन्तु 'निर्बल के बल राम' इस कहावत के अनुसार शील के प्रभाव से अनायास ही गर्जता हुआ एक भयंकर सिंह वहाँ आ पहुँचा और पंजे की एक झपट मारकर उस दुष्ट को यमलोक पहुँचा दिया। इसी दौरान चन्दनबाला का भाई भी बर्तन में पानी लेकर आ पहुँचा । चन्दनबाला ने पानी पीया। इतने में दोनों के धर्म के प्रभाव से एक सज्जन राजा वहाँ आ गया। राजा ने दोनों बालकों को देखा। उनमें शील और धर्म का तेज देखकर वह अत्यन्त प्रभावित हुआ। राजा ने दोनों बालकों से कहा- “जो चाहिए, सो माँग लो। मैं तुम्हें वचन देता हूँ।" उत्तर में दोनों धर्मनिष्ठ बालकों ने कहा- "राजन् ! अगर आप हम पर प्रसन्न हुए हों तो हम दोनों को जैनधर्म की भागवती दीक्षा दिला दें। हमारे पापकर्म के उदय से हम पर दुःख के पहाड़ टूट पड़े थे, लेकिन धर्म के प्रताप से हमारी रक्षा हुई । हमें मनुष्य-जन्म आदि सब कुछ मिला, आप जैसे पालक पिता मिले । इसलिए अब हम अपना समस्त जीवन धर्म की सेवा में लगाना चाहते हैं।" राजा ने कहा- "ठीक है, तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी।" दोनों की इच्छानुसार राजा ने पता लगवाया कि साधु-साध्वी किस नगर में विराजमान हैं । फिर दोनों (भाई-बहन) को साथ लेकर उस नगर में पहुंचे। तत्पश्चात् For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति : ३४१ धूमधाम से दोनों को भागवती दीक्षा दिलाई। दोनों मुनिधर्म में दीक्षित होकर धर्म की आराधना करने लगे। उत्कृष्ट चारित्र पालन कर दोनों सुखी हुए, सद्गति में पहुंचे। यह है, धर्मसेवन का अनुपम सुखरूप फल ! धर्मसेवन का समग्न रूप : श्रवण, श्रद्धा और आचरण चाणक्य नीतिसूत्र का सर्वप्रथम श्लोक है- 'सुखस्थ मूलं धर्मः-धर्म सुख का मूल है।' सुखरूपी फल प्राप्त करने के लिए धर्मरूपी बीज बोना आवश्यक है। जो व्यक्ति धर्मरूपी बीज न बोकर यों ही सुखरूपी फल प्राप्त करना चाहे, उसे सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? आज लोग धर्म का फल तो प्राप्त करना चाहते हैं, परन्तु धर्म का विचार और आचार के रूप में सेवन नहीं करना चाहते । साथ ही वे पाप का फल बिलकुल नहीं चाहते, किन्तु पाप बेखटके करते जाते हैं। भला ऐसे लोग कैसे धर्मसेवन का सुखरूप फल प्राप्त कर सकते हैं ! इसीलिए सुभाषितरत्न-भाण्डागार में कहा है धर्मस्य फलमिच्छन्ति, धर्म नेच्छन्ति मानवाः । फलं पापस्य नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति सादराः ॥ इसका भावार्थ ऊपर स्पष्ट कर चुका हूँ। इसी आशय का एक सवैया तिलोक काव्य संग्रह में प्रस्तुत किया गया है धरम को नाम लेत हर कोई हरखत, अधर्म को काम करे, लाभ का उपाव में। शुद्ध तत्व न विचारे, बाज दृष्टिसं निहारे, दृगसु न भारे दीर्घ कर्म का उछाव में । आतमा-उद्धार चाहे, जैसे को अजाण नर, कहे मैं सागर तरू बैठ नहीं नाव में। कहत तिलोक' चीन रहिये सुज्ञान लीन, धरम-वसाव निज आतमस्वभाव में ॥३८॥ बहुत-से लोग पहले तो आवेश में आकर खूब धर्माचरण करते हैं, क्रियाकाण्डों को बहुत फूंक-फूककर करते हैं। किन्तु कई वर्ष हो जाने पर भी जब उन्हें धर्म का कोई इहलौकिक सुख-साधन के रूप में फल नहीं मिलता, तब वे अपना धैर्य छोड़ बैठते हैं, या किसी पूर्वकृत पापकर्म के उदय से अच्छे कार्यों में विघ्न-बाधाएँ, अड़चनें आ खड़ी होती हैं तो वे चिन्तित और बैचेन हो उठते हैं । व्यापार आदि में घाटा लगने से दुःखित और हताश हो जाते हैं और धर्माचरण को छोड़ने के लिए उद्यत हो जाते हैं। धर्म के प्रति उनकी श्रद्धा डांवाडोल हो जाती है । अमुक आकांक्षा पूरी न हुई तो धर्म के प्रति १. तिलोक काव्यसंग्रह, तृतीय बावनी, छंद ३८ For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ विश्वास उठ जाता है । ये सब धर्म के प्रति शिथिलता के नमूने हैं। यदि कोई व्यक्ति धर्म के प्रति अखण्ड एवं सतत, अविचल अटल श्रद्धा रखकर उसका सेवन-आचरण करता है तो अवश्य ही उसके फल के रूप में उसे सभी प्रकार के इहलौकिक पारलौकिक एवं लोकोत्तर सुखों की प्राप्ति होती है । एक प्राचीन श्लोक इस बात का साक्षी है धर्माज्जन्मकुले शरीरपटुता सौभाग्यमायुर्बलं, धर्मेणैव भवन्ति निर्मलयशो, विद्यार्थसम्पत्तयः । कान्ताराच्च महाभयाच्च सततं धर्मः परित्रायते, धर्मः सम्यगुपासितो नरभवे स्वर्गापवर्गदः ॥ "धर्म से अच्छे कुल में जन्म शरीर स्वस्थता, सौभाग्य, दीर्घआयु, बल, निर्मल यश, विद्या और धन-संपत्तियां मिलती हैं। धर्म भयंकर जंगल में रक्षा करता है और तो क्या मनुष्य-जन्म में भलीभांति आराधना किया हुआ धर्म स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) को देने वाला है।" ये जितनी भी उपलब्धियाँ हैं, वे सब लौकिक-लोकोत्तर सुख की प्रतीक हैं। परन्तु ये सब उपलब्धियाँ भी तभी प्राप्त हो सकती हैं, जब धर्म के प्रति अटल श्रद्धा हो, धर्माचरण को किसी भी मूल्य पर छोड़े नहीं । मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्म निवेशयेत् । अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन् विपर्ययम् ॥ "अधर्म करने वाले पापियों को सुखी एवं धनी और धार्मिकों को दुःखी एवं निर्धन देखकर भी अधर्म में मन नहीं लगाना चाहिए।" परन्तु दुःख है कि आज अधिकांश लोग धर्माचरण करते-करते जब उन्हें मनोवांछित फल नहीं मिल पाता, तव झुंझलाकर धर्म को छोड़ बैठते हैं, वे अधर्म का आश्रय तो नहीं लेते, परन्तु धर्माचरण से विमुख हो जाते हैं, धर्मश्रद्धा से डिग जाते हैं। कई तो अधर्माचरण या पापाचरण के पथ पर भी चढ़ जाते हैं । धर्मश्रद्धा से च्युत होकर पाप या अधर्म के मार्ग पर एक बार चढ़ जाने के बाद पुनः धर्मश्रद्धा, धर्माचरण या धर्मश्रवण का अवसर मिलना बहुत कठिन होता है। इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में धर्मसेवन की समग्रता के लिए श्रवण, श्रद्धा और आचरण की दुर्लभता का प्रतिपादन किया गया है-- 'उत्तम धम्म सुई हु दुल्लहा' 'सद्दहणा पुणरा विदुल्लहा।' 'दुल्लहया काएण फासणया।२ १. मनुस्मृति ४/१७१ २. उत्तराध्ययन १०/१८-१९-२० For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति : ३४३ "उत्तम धर्म का श्रवण प्राप्त होना निश्चय ही कठिन है।" "धर्म-श्रवण करके उस पर श्रद्धा करना और भी कठिन है।" "धर्म में श्रद्धा हो जाने पर भी उसे काया के द्वारा स्पर्श (आचरण) करना पिछले कार्यों से भी दुष्कर है।" एक धर्मश्रद्धालु बुढ़िया थी । नगर में जो भी साधु-साध्वी पधारते, वह उनके दर्शन करने तथा उपदेश सुनने स्वयं भी जाती और पड़ोस की बहनों को भी प्रेरणा देकर ले जाती । वह स्वयं धर्मध्यान एवं धर्मक्रिया करती थी, दूसरी स्त्रियों को भी प्रेरणा करती थी। बहनों में धर्म-भावना फैलाती, उन्हें धर्म में दृढ़ करती थी। बुढ़िया के एक ही लड़का था। पति के गुजरने के बाद उसने स्वयं पाल-पोस कर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, उसकी शादी की । लड़के की शादी हुए लगभग १२ वर्ष हो गये, लेकिन उसके कोई भी सन्तान नहीं हुई। एक दिन बुढ़िया को बैठे-बैठे विचार आया-'मैं इतने वर्षों से धर्मध्यान करती आरही हूँ, दूसरों को भी धर्म-पालन के लिए प्रेरणा करती हूँ; मगर मेरे अभी तक एक पोता भी न हुआ । क्या धर्म मुझे एक पोता (लड़के के लड़का) भी नहीं दे सकता ? सुनती हूँ धर्म से इहलौकिक-पारलौकिक सुखसाधन तो मिलते ही हैं, मोक्षसुख तक प्राप्त हो सकता है । परन्तु जो धर्म मुझे साधारण-सा सुख-साधन नहीं दे सकता, वह मोक्षसुख क्या देगा? इतने वर्ष मेरे पुत्र को शादी किये हो गये मगर धर्म ने उसको एक पुत्र भी न दिया, ऐसे धर्म को रखकर मैं क्या करूं?' इस प्रकार बुढ़िया को धर्म के प्रति श्रद्धा घटने लगी। धीरे-धीरे उसे धर्म के प्रति अरुचि हो गई । अब वह स्वयं भी साधु-साध्वियों के पास नहीं जाती और जो बहनें जाती थीं, उन्हें भी रोकती और बहकाती--'क्या रखा है, साधु-साध्वियों के दर्शन में, धर्मश्रवण में या धर्मध्यान करने में ? मैंने बहुत वर्षों तक धर्मध्यान कर लिया, कुछ भी नहीं है, इसमें । क्यों फिजूल घर के कार्य का नुकसान करती हो? वहाँ कुछ स्वाद होता तो मैं क्यों छोड़ती ?" एक बार एक वृद्ध साधु नगर में पधारे। वे सभी धर्मधोरी बहनों से परिचित थे। उन्होंने जब बुढ़िया को धर्मसभा मे नहीं देखा तो बहनों से पूछा- “एक बुढ़िया जो पहले बहुत धर्मध्यान करती थी, वह कहाँ गई ?" बहनों ने कहा- “महाराजश्री ! बह है तो इसी शहर में, पर आजकल वह मिथ्यात्वी हो गई है । उसे अब धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं रही। वह कहीं भी आती जाती नहीं।" वृद्ध मुनिराज ने कहा-"जरा उससे कहना तो सही कि तुम्हारे परिचित साधु आए हैं, व्याख्यान सुनना।" एक महिला ने मुह विचकाकर कहा--"महाराज ! हम तो उससे नहीं कहेंगी। वह हमें ही फटकारने लगती है-'तुम्हीं जाओ, मैंने तो बहुत दर्शन कर लिये, व्याख्यान सुन लिये, कोई मुराद पूरी नहीं हुई। ___ अतः वृद्ध साधु ने कहा-"अच्छा, फिर मैं ही भिक्षा के लिए जाऊँगा, तब बात करूंगा।" For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ साधु प्राणिमात्र के हितैषी होते हैं । उन्हें किसी के प्रति द्वेष या रोष नहीं होता । वृद्धा को सन्मार्ग पर लाने के लिहाज से वे स्वयं उसके यहाँ भिक्षा के लिए गये । वृद्धा घर में बैठी चर्खा कात रही थी । मुनिराज को आये देख वृद्धा उठी, वन्दना की, सुख- साता पूछी । आहार लेने की प्रार्थना करने लगी । मुनिराज ने कहा - "बुढ़िया मांजी ! आजकल तुम धर्मध्यान नहीं करतीं, क्या बात है ?" बुढ़िया - "यह धर्म आपको ही मुबारक हो ! संभालिए अपने धर्म को । मुझे नहीं चाहिए। बहुत कर लिया धर्म मैंने ! क्या रखा है, इस धर्म में, महाराज !" मुनिराज - " क्या धर्म ने तुम्हें धोखा दिया है ?" बुढ़िया - "क्या कहूँ, महाराज ! क्या आप सुनना चाहते हैं ?" साधु – “हाँ, बहन ! सुनने के लिए ही तो आया हूँ ।" बुढ़िया - " तो सुनिये ! मेरे एक लड़का है । उसकी शादी हुए १२ वर्ष हो गये । आप जानते ही हैं, मैं पहले कितना धर्मध्यान करती थी ? कैसी धर्मसेवा करती थी ? मुझे आशा थी कि धर्म के प्रताप से मेरे पोता होगा । मगर मेरी आशा पूरी नहीं हुई । बहुत धर्म करने पर भी आशा निराशा में पलट गई। इस कारण धर्म के प्रति श्रद्धा घट गई । " मुनिराज ने समवेदना दिखलाते हुए कहा - " बहन ! सच कहती हो । जो धर्म आशा पूर्ण न करे, सांसारिक सुख-साधन न दे वह धर्म ही कैसा ?" अपने पक्ष का समर्थन होते देख वृद्धा बोली - "महाराज ! आप सच फरमाते हैं। झूठ कहती हूँ तो बताइए ।" साधु - "नहीं, बहन ! तुम झूठ नहीं कहती । मगर एक बात तुमसे पूछता हूँ । धर्म ने तुम्हें पोता नहीं दिया, यह माना; किन्तु संसार-सम्बन्धी कुछ बाधाएँ ऐसी होती हैं, जिसके कारण पोता न हुआ हो, इसमें बेचारे धर्म का क्या दोष ? अगर अकेला धर्म ही पोता दे सकता तो वह घर में बहू के आने से पहले ही दे देता । पर ऐसा नहीं; कुछ सांसारिक कारण मिलते हैं, तब पोता होता है । मुझे तो यही संभावना मालूम होती है ।" वृद्धा - "नहीं महाराज ! मेरी उम्र पक गई है । मैं बुद्ध नहीं हूँ । अगर सांसारिक बाधा कारण होती तो मैं धर्म न छोड़ती ।" साधु - "बहन ! हो सकता है, तुम्हें ज्ञात न हो । सम्भव है, बहू रोगिणी रहती हो । रोगिणी के भी बच्चा नहीं होता ।" बुढ़िया - "महाराज ! उसके तो नख में भी रोग नहीं है । स्वस्थ और पुष्ट है ।" साधु – “तब तुम्हारे लड़के में कोई त्रुटि हो सकती है ।" बुढ़िया - "यह भी नहीं है । लड़का स्वस्थ, बलिष्ठ और सुन्दर है । ऐसा न होता तो मैं सन्तोष कर लेती कि लड़के में कमी है तो पोता कैसे हो ?" For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति : ३४५ साधु-- "सम्भव है, पति-पत्नी में आपस में मेल न हो, इस कारण भी संतान नहीं होती।" बुढ़िया-"नहीं, मुनिवर ! दोनों में बहुत मेल है । इतना प्रेम है, जितना सीता और राम में था।" साधु-"और सब कुछ ठीक हो, पर यदि तुम्हारा बेटा परदेश चला जाता हो और बहू तुम्हारे पास ही रहती हो तो पोता कैसे हो ? एक बात और भी सम्भव है कि पति-पत्नी रहते तो साथ ही हों, मगर पुरुष को धन की चिन्ता सताती हो, इसमें तुम्हारा लड़का घुलता हो तो भी पोता न होना सम्भव है।" वृद्धा हँसकर बोलो-“मैं ऐसी भोली नहीं हूँ। ऐसा होता तो समझ जाती। मगर ऐसा कुछ भी नहीं है।" साधु- “अच्छा एक बात और पूछता हूँ। जो माता-पिता की सेवा नहीं करते, उनके प्रायः पुत्र नहीं होता । बेटा-बहू तुम्हारी सेवा नहीं करते होंगे।" वृद्धा- "मेरा पुत्र और पुत्रवधू मिलकर ऐसी सेवा करते हैं कि शायद ही किसी को नसीब होती है । अब बताइये किसका दोष है ? साधु-"तब तो धर्म का ही दोष है।" वृद्धा जरा तेज स्वर में बोली-“महाराज ! मैं पहले ही कहती थी-यह धर्म का ही दोष है। इसी कारण मैंने धर्म छोड़ दिया । मुझे दूसरी स्त्रियाँ मिथ्यात्विनी कहती हैं, कहें, मेरा क्या बिगड़ता है ?" साधु- "माना मैंने, अब तो मुझे धर्म के दरबार में अर्ज करनी पड़ेगी कि बहुतसे लोग बेचारे बूढ़े होकर मर जाते हैं, पर बेटे का मुंह नहीं देख पाते । तुमने उस वृद्धा को लड़का देकर और दुःखी कर दिया । नहीं तो, वह धर्मध्यान करती । अब पोते के बिना उसे चैन नहीं पड़ती, उसे रात-दिन चिन्ता करनी पड़ती है।" बृद्धा चौंककर बोली-ऐं महाराज ! यह क्या कहते हैं ? यह तो धर्म का प्रताप है। धर्म के प्रताप से बेटा मिला है।" साधु-“कई लोगों के विवाह नहीं होते, तुम्हारे लड़के का विवाह जल्दी हो गया, यह बुरा हुआ, धर्म को अर्ज करना पड़ेगा।" बृद्धा- "अजी, महाराज ! यह भी धर्म का प्रताप है।" साधु-'कई पति-पत्नी बीमार रहते हैं, पर धर्म ने अगर तुम्हारे बेटा-बहू को स्वस्थ न रखा होता तो तुम्हें पोते की चिन्ता न करनी पड़ती। तुम सन्तोष मानकर धर्म तो करतीं।" वृद्धा-“यह भी धर्म का ही प्रताप है।" साधु-"अच्छा, धर्म ने तुम्हें पैसा देकर बुरा किया । लोग तो पैसे-पैसे के लिए मोहताज रहते हैं।" For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ वृद्धा- "आप यह क्या फरमाते हैं ? यह भी धर्म का ही प्रताप है । और भी सुख के साधन धर्म की ही कृपा से प्राप्त हुए हैं । सच बात कहने में मैं नहीं झिझकती।' साधु-"पति-पत्नी अविनीत और माता से झगड़ा करने वाले मिलते तो तुम्हें पोता होने की फिक्र न रहती।" वृद्धा-“जिसने खोटे कर्म किये हों, उसी को ऐसे लड़का-बहू मिलते हैं । आपकी कृपा से, कुछ धर्मध्यान किया, उसी का यह प्रताप है।" साधु-'बहन ! तुम इतने सब सुख-साधनों की प्राप्ति धर्म के प्रताप से मानती हो, किन्तु एक पोता नहीं दिया, उसमें तुम धर्म पर इतनी नाराज हो गई कि उसे छोड़ बैठीं। भला, जो धर्म इतनी सब चीजें दे सकता था, क्या उसमें इतनी ताकत नहीं है कि वह तुम्हें एक पोता दे दे ? वास्तव में यह धर्म का दोष नहीं, तुम्हारे ही किसी अन्तराय कर्म का दोष है। परन्तु तुम तो धर्म को छोड़कर तथा दूसरों से छुड़ाकर और अधिक अन्तराय कर्म बाँध रही हो।" वृद्धा-“धन्य हो महाराज ! क्षमा करिये, मुझसे बहुत भूल हुई । मुझे कोई इस प्रकार समझाने वाला नहीं मिला । मैं धर्म का उपकार मानना भूलकर कृतघ्नी और पापिनी बनी । अब मैं समझ गई । मेरा अज्ञान और मोह दूर हो गया । आपने मुझ पर असीम कृपा करके सन्मार्ग बताया । अब मैं पुनः धर्म की सेवा करूंगी।" इस प्रकार वृद्धा ने पुनः धर्म की सेवा-उपासना की। उसका अन्तराय कर्म टूटा और दूसरे वर्ष पोता भी हो गया। उसे फिर कभी धर्म पर अश्रद्धा नहीं हुई। बन्धुओ ! आप में से भी कई भाई-बहन ऐसे होंगे, जो अपनी मनोवांछा पूरी न होने पर धर्म के प्रति अश्रद्धा लाकर उसे छोड़ देते हैं । परन्तु याद रखिये, इस प्रकार धर्म की दुर्दशा एवं बदनामी करने से आपकी ही दुर्दशा एवं बदनामी होती है, धर्म का कुछ भी नहीं बिगड़ता। उसकी महिमा तो शाश्वत और अटल है । भगवान् महावीर का अमोघ वचन है "धम्मं च कुणमाणस्स सफला जंति राइओ।" "धम्म पि काऊणं, जो गच्छइ परं भवं.."सो सुही होइ।" "धम्मसद्धाएण सायासोक्खेसु रज्जमाणं विरज्जइ ।" "धर्माचरण करने वाले व्यक्ति के दिन-रात सफल व्यतीत होते हैं।" "धर्म की आराधना करके जो परभव में जाता है, वह सुखी होता है।" "धर्म पर हढ़श्रद्धा हो जाने से व्यक्ति सातावेदनीयजनित पौद्गलिक सुखों की आसक्ति से विरक्त हो जाता है।" वास्तव में जिसकी धर्मनिष्ठा अटल हो जाती है, उसे सुख-सुविधाओं की, 1. उत्तराध्ययनसूत्र १४/२५, १६/२१, २६/६ For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म- सेवन से सर्वतोमुखी सुख प्राप्ति: ३४७ सांसारिक सुखों की कोई चिन्ता नहीं रहती, सांसारिक दुःख भी उसे दुःखरूप महसूस नहीं होते । वह सारे संसार के कल्याण के लिए जो भी दुःख, आफत, संकट अपने पर आते हैं, उन्हें समभाव से सहर्ष सह लेता है । धर्मसेवन से सर्वतोमुखी सुख के तीन मूल माध्यम अब प्रश्न यह है — धर्मसेवन से सर्व सुख प्राप्ति होती है, परन्तु उसके सेवन के माध्यम कौन-कौन-से हैं ? दशवैकालिक सूत्र की इस गाथा में यह स्पष्ट बता दिया है " धम्मो मंगलमुविकट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । " "धर्म उत्कृष्ट मंगल (सुख) है । वह धर्म अहिंसा, संयम और तप के माध्यम से होता है ।" अहिंसा के माध्यम से जब धर्म का सेवन व्यक्ति करता है, तब वह प्राणिमात्र प्रति आत्मीय भाव, आत्मौपम्य भाव लाता है, वहाँ तेरे-मेरे की संकीर्ण भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं । वह अपनत्व के संकीर्ण घेरे में से निकलकर परिवार समाज-राष्ट्र और उससे भी बढ़कर विराट् विश्व में फैल जाता है, तभी वह स्थायी सुख-शान्ति, संतोष और आत्म-समृद्धि प्राप्त कर लेता है । जिसके जीवन में तंगदिली है, जो तेरे-मेरे के संकीर्ण घेरे में बन्द हो जाते हैं, तब संकटों और दुःखों के काँटे उनके चारों ओर विखर जाते हैं । यह मैं हूँ, यह मेरा है, मैं स्वामी हूँ, मेरे सब दास हैं, मैं ही अकेला संसार के सुखों को प्राप्त करू ं, दूसरे मरें चाहे जीएँ, सुखी हों या दुःखी, मुझे क्या मतलब ? इस प्रकार की दानवी भावना पाप का पुंज इकट्ठा करती है और उसके फलस्वरूप दुःखों की प्राप्ति होती है अन्तर् में भी दुःखों की सृष्टि कर लेती है । अहिंसा के माध्यम से धर्म-पालन करने वाले व्यक्ति में स्वार्थ के अतिरेक की यह रेखा अंकित नहीं होती । भगवान् महावीर ने समग्रत्व में ही सुख की निधि - पुण्यराशि बताई है सव्व भूयपभूप्यस्स सम्मं भूयाई पस्सओ । पहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ ।। "समस्त संसार की आत्माओं को अपनी आत्मा के तुल्य समझने वाला, आस्रव द्वारों को अवरुद्ध करने वाला दान्त महापुरुष कभी पापकर्म से लिप्त नहीं होता । " जो पापकर्म से लिप्त नहीं होता, वह एकमात्र पुण्यराशि के संचय के फलस्वरूप सुख की निधि प्राप्त कर लेता है, अथवा पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों क्षय करके मोक्ष की अनन्त सुख - निधि अथवा उसी का बहुलांश सुख प्राप्त कर लेता है । जैसा दुःख तुझे होता है, वैसा ही जैसे तू अपने जीवन में सुख चाहता है, वैसे ही सभी प्राणी चाहते की विराटता जब मन में सबको होता है, हैं, इस प्रकार १. दशवेकालिकसूत्र १ । १ For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ अंकित हो जाती है, तब पुण्य की प्रबल राशि चारों ओर से संचित होती है । अहिंसा का सक्रिय आचरण सहजभाव से हो जाता है । उपनिषद् के एक ऋषि से पूछा गया कि "सारे दुःखमय संसार में कहीं सुख भी है या नहीं ? यदि सुख है तो वह मिले कैसे ?" ऋषि ने शान्त और मधुर स्वर में कहा - "यो वै भूमा तत्सुखम् नाल्पे सुखमस्ति ।" जो भूमा है, विराट् है, समग्रत्व है, वही सुख, शान्ति और आनन्द है; जहाँ मन का दायरा छोटा है, अपनत्व है, एकत्व है, संकीर्णता है, अल्पत्व है, स्वार्थ है, वहाँ सुख नहीं है, वहाँ है - दुःख, दैन्य, दरिद्रत्व । निष्कर्ष यह है कि मानव जहाँ मन में विराट् विश्वत्व या समग्रत्व की भावना लेकर चलता है, वहाँ सहज ही अहिंसाधर्मं चरितार्थ हो जाता है, और उसके फलस्वरूप उसे स्थायी सुख, शान्ति एवं संतोष प्राप्त होता है । उसकी भावना सबको सुखी, निरामय, देखने की सर्व कल्याण की होती है ।' उसकी वृत्ति दूसरों को जिलाकर जीने की होती है । वह सर्व सेवा, सर्वभूतदया, सर्वमंत्री और सर्वात्मौपम्य के सांचे में अपने जीवन को ढालता है । भला उसे दुःख कहाँ हो सकता है ? जो सारे विश्व के कल्याण, दया, सेवा और मैत्री महापथ पर अग्रसर होता है, उसके सुख की चिन्ता सारा विश्व करता है । वह अपनी चिन्ता विराट् अहिंसाधर्म की वेदी पर चढ़ा देता है । समग्रता की प्राप्ति के लिए अहिंसा के ही मुख्य चार चरण अपेक्षित हैं( १ ) सेवा, (२) दया, ( ३ ) करुणा या सहानुभूति और ( ४ ) परोपकार । सेवा एक धर्म है, जिसे हम अहिंसा का ही एक विधेयात्मक रूप कह सकते हैं । जहाँ निःस्वार्थ और निष्काम सेवा जीवन में आती है, वहाँ व्यक्ति अपना पृथक् अस्तित्व नहीं मानता, उसमें अर्पणता की भावना आ जाती है । वह अपने आप को समाज का एक नम्र अंग मानता है । ऐसा निःस्पृह सेवक अपनी शक्ति, योग्यता एवं क्षमता का कोई भी अंश बचाता या छिपाता नहीं है । दुःखित, पीड़ित, रुग्ण, पददलित को देखकर उसका हृदय हो उठता है । वह दया को अपनी भूमिका में रहते हुए चरितार्थ करने का प्रयास करता है । यहाँ भी वह संकीर्णता, क्षुद्रता, घेरा या पंथवाद से दूर रहता है । किसी दुःखी या पीड़ित को देखकर सहानुभूति प्रगट करना और सक्रिय करुणा का आचरण करना उसके जीवन का ध्येय होगा । जहाँ परोपकार या पर-सेवा निःस्वार्थ भाव से की जाती है, वहाँ जीवन में परमार्थ का सक्रिय एवं सच्चा स्वरूप आ जाता है । सेवा आदि द्वारा किसी दूसरे को सुखी बनाने में जो सुख, शान्ति, आत्मसंतोष होता है, उसकी तुलना में शारीरिक सुख तुच्छ एवं नगण्य है । तात्पर्य यह है कि इन चारों अहिंसा के चरणों से अक्षय आत्मिक सुख प्राप्त होता है, जिसकी तुलना में सांसारिक इन्द्रियजन्य सुख कुछ भी नहीं है । १ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत् ॥ For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति : ३४६ संयम के माध्यम से-- जहाँ जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में संयम और नियंत्रण की या आत्मदमन (स्वेच्छा से नियमन) की वृत्ति आ जाती है, वहाँ स्वाभाविक रूप से धर्मपालन तो होता ही है, उससे यहाँ और वहाँ सर्वत्र सुख-शान्ति भी प्राप्त होती है। जिस व्यक्ति के जीवन में खान, पान, वस्त्र, शयन, विविध सुख-साधन आदि पर संयम नहीं है, जो स्वेच्छा से नियमन नहीं कर सकता, जो स्वयं उपभोग-परिभोग की मर्यादा नहीं कर सकता, उपभोग की सीमा नहीं बाँध सकता, अपना जीवन उच्छंखल और अमर्याद बिताता है, उसे भला सुख कैसे हो सकता है ? यही कारण है कि अमेरिका जैसे धनाढ्य देशों में सब प्रकार के सुख साधन होते हुए भी वहाँ के नागरिकों में संयम, स्वैच्छिक नियमन की वृत्ति न होने से या उपभोग-परिभोग की सीमा न होने से वे मानसिक दुःखों से आक्रान्त रहते हैं, शारीरिक दुःख भी उन्हें घेरे रहते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी इन्द्रियों और मन पर लगाम रखते हैं, अपनी आवश्यकताओं को सीमित करके उनके उपभोग और संग्रह पर संयम रखते हैं, इच्छाओं पर ब्रेक लगाते हैं, वे आत्मिक या स्थायी सुख से सम्पन्न हैं। संयमधर्म का सहज आचरण ही जीवन को सुखी बनाने का मूलमंत्र है। तप के माध्यम से-तप मर्त्यलोक का कल्पवृक्ष है। वह जब निष्काम एवं निष्कांक्षभाव से जीवन में उतरता है, उसके पीछे किसी प्रकार के प्रदर्शन, यश, प्रसिद्धि या कीर्ति की इच्छा नहीं रहती तब अनेक प्रकार से सुखों की उपलब्धि होती है । तप का अर्थ है-स्वेच्छा से इन्द्रियों और मन को तपाना, आत्मा में पड़े हुए काम, क्रोध, तृष्णा, सांसारिक पदार्थों की भोगेच्छा आदि विकारों को-संचित मलों को तपस्यारूपी अग्नि से तपाकर आत्मा की शुद्धि (कर्मनिर्जरा) करना । धर्मपालन करने तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए एवं शील आदि की सुरक्षा के लिए जो भी कष्ट, परीषह, उपसर्ग आदि आ पड़ें, उन्हें समभाव से, शान्ति और धैर्य से सहन करना भी तप है । तप से आत्मा में सहनशक्ति बढ़ती है, आत्मा बलवान् बनती है, आत्म-विकास होता है। इस प्रकार की आत्म-तृप्ति से जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, उसे ही हम धर्म-सेवनजनित स्थायी सुख कह सकते हैं । वास्तव में तपस्या से शारीरिक सुखों को मिटाने, अपनी इच्छाओं को दबाने तथा भूख-प्यास, रहन-सहन आदि पर स्वेच्छा से नियंत्रण करने से, शरीर और पदार्थों के प्रति आसक्तिभाव समाप्त होने लगता है, शरीर और आत्मा का पृथक् अस्तित्व तथा उनकी पृथक् आवश्यकताएँ स्पष्टतः दिखाई देने लगती हैं। आत्मिक शक्तियाँ परिष्कृत एवं विकसित होने से विलक्षण सुखानुभूति होने लगती है। इस प्रकार अहिंसा, संयम और तप की त्रिवेणी में स्नान करने से सर्वोत्तम आत्मिक सुखों का अनुभव प्रत्यक्ष होने लगता है। इसीलिए महर्षि गौतम ने कहा है __धम्मं निसेवित्त सह लहंति । धर्म की उपासना-सेवा करने से सुख की प्राप्ति होती है। For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा महत्वपूर्ण साहिय १-१२ आनन्द प्रवचन : भाग १ से १२ तक (अत्यन्त उपयोगी विविध विषयों पर लगभग ३०० प्र विशाल संग्रह । भाग ७ से १२ पाँच भाग में गौतम कुला (प्रवचन । १३ भावना योग १४ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन १५ तीर्थंकर महावीर १६ आनन्द वाणी (हिन्दी-मराठी) १७ आनन्द वचनामृत (हिन्दी-मराठी) १८ आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि अभिनन्दन ग्रन्थ १६ सुरसुन्दरि चरियं २० चित्रालंकार काव्य : एक विवेचन २१ अमृत काव्य संग्रह २२ तिलोक काव्य संग्रह श्री रत्न जैन पुस्त संपर्क करें : बुरुड़गांव रोड, अहमदनगर (महारा For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उपयोगी प्रवचन साहित्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज जैन धर्म, दर्शन, इतिहास और संस्कृति के गम्भीर विद्वान तो हैं ही, साथ ही चिन्तनशील प्रवक्ता भी हैं / आपके विचार बहुत ही उदार, सुस्पष्ट तथा तथा व्यापक अध्ययन-मनन से परिपूर्ण है। अत: आपश्री के प्रवचनों में भी इस सर्वांगीण व्यापकता की स्पष्ट छाप है। १--आनन्द प्रवचन : [ भाग 1 से 7 ] इन सात भागों में जैन आचार, दर्शन व कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित विविध उपयोगी, मननीय प्रवचन हैं। २-आनन्द प्रवचन : [भाग 8 से 12 ] पांच भाग का मूल्य 75) [ गौतम कुलक - प्रवचन : 108 प्रवचन ] इन पाँच भागों में जैन साहित्य के महान सूक्त-ग्रन्थ 'गौतम कुलक' की 20 गाथाओं पर 108 प्रवचन हैं। विविध विषयों की जीवन स्पी , ज्ञानपूर्ण सामग्री से ओत-प्रोत इन प्रवचनों में जैसे ज्ञान और विज्ञान का, अनुभव और चिन्तन का खजाना-सा खुला मिलेगा, विज्ञपाठक इस ज्ञान-सागर में डुबकी लगाकर भरपूर लाभ उठा सकता है। ३-भावनायोग : [ मल्य 12)] जैन धर्म में भाव/भावना का अत्यन्त महत्व है। भावना के सर्वा गीण स्वरूप पर शास्त्रीय प्रमाणों के साथ जीवन-निर्माणकारी विवेचन : शोध प्रबन्ध-सा गम्भीर और प्रवचन सा रोचक / ४-आनन्द वाणी : आनन्द वचनामत, आदि प्रवचन साहित्य भी। पठनीय मननीय है। serving JinShasan O सम्पूर्ण साहित्य के नि कालय 020155 2589, मदनगर (महाराष्ट्र) श्री gyanmandir@kobatirth.org आवरण पृष्ठ के मुद्रक : 'शैल प्रिन्टर्स' माईथान, आगरा-३ / JainEdu rary.org