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________________ छ त में आसक्ति से धन का नाश : ७३ चारों पैरों में सिर्फ एक ही पैर ठीक था, बाकी तीन पैर टूटे हुए थे। गाय बैल से पूछ रही थी-"आपके तीन पैरों का क्या हुआ ?" बैल ने कहा- "कल्याणि ! कलियुग का आगमन हुआ था। उसने आते ही मेरे तीन पैर काट डाले। और मुझे लगता है कि अब चौथा भी अधिक समय तक नहीं रह पायेगा।" गाय- "क्यों आर्य?" बैल-"आखिर कलि ही तो ठहरा ! और आप भी तो अब कृश हो गई हैं।" इन दोनों को देख परीक्षित ने सम्मानपूर्वक परिचय पूछा तो जाना कि पृथ्वी गाय के रूप में है, और धर्म वृषभ के रूप में है। धर्म के सत्य, शौच, करुणा और सेवा, इन चार चरणों में से तीन पैर विक्षत हो गए हैं । पृथ्वी भी कृश और क्षीण है। परीक्षित ने उनसे पूछा- "कलियुग कहाँ रहता है ?" धर्म ने बताया- "कलि मन में रहता है। और यहीं से मनुष्य को भ्रान्त करता है, जिससे उसे धारण करने वाले धर्म की यह दशा हुई।" परीक्षित ने कलि को खोजा और जब वह शिशु के रूप में मिला तो उसे मारने को उद्यत हुए, मगर कलि ने चीत्कार कर कहा-"क्षमा करें, आर्य ! मैं आपकी शरण हूँ।" ___ शरणागत प्रतिपाल के आदर्श से प्रेरित परीक्षित के हाथ वहीं रुक गये । परन्तु उन्होंने कहा-“मैं तुम्हें इसी शर्त पर क्षमा कर सकता हूँ कि तुम पृथ्वी पर से चले जाओ।" कलि बोला-"कहाँ चला जाऊँ ? नियति ने मुझे पृथ्वी पर रहने का आदेश दिया है। हाँ, आप जो स्थान बतायें, वहीं रहने लगूगा, वहाँ से रंचमात्र भी इधर-उधर नहीं होऊँगा।" इस पर राजा परीक्षित ने कहा-"ठीक है, तुम्हारे रहने के लिए मैं ५ स्थान नियत कर देता हूँ-(१) धूत (छल), (२) मद्यपान (व्यसन), (३) परस्त्री-संग (व्यभिचार), (४) हिंसा और (५) सुवर्ण (लोभ) जहाँ हों, वहीं तुम रहो।" कहते हैं, तब से कलि इन पाँचों स्थानों पर निवास करने लगा। इस पौराणिक कथा का आशय यह है कि कलि (पाप) धर्म का शत्र है। उस कलि का निवास सर्वप्रथम चूत में है । जहाँ द्यूत होता है, वहाँ स्वर्ण का लोभ मनुष्य में आ ही जाता है । स्वर्ण आता है, वहाँ मद्यपान, व्यभिचार और हिंसा; इन तीनों दोषों के आते देर नहीं लगती। इसलिए द्यूत धर्म का शत्रु है, क्योंकि वह धर्म के शत्र ओं-छल, व्यभिचार, लोभ, हिंसा, एवं व्यसनों आदि को ले आता है। जूआ : निर्दयता एवं कठोरता का जनक जूआ खेलने का जो मनुष्य आदी हो जाता है, उसे यदि कोई मना करता है तो वह उससे लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जाता है । उस समय वह यह नहीं सोचता कि यह मेरा हितैषी है, माता-पिता आदि आप्त पुरुष हैं, गृहिणी या पुत्र-पुत्री आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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