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७४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
मेरे शुभचिन्तक हैं । वह उस समय आवेश में आकर निर्दयतापूर्वक दुष्कृत्य तक कर डालता है । प्रेम, क्षमा, दया, सेवा, सहानुभूति, बन्धुता आदि सद्गुणों, इतना ही नहीं, मनुष्यता तक को तिलांजलि दे बैठता है ।
निषेध राज्य का स्वामी नल राजा सुखपूर्वक राज्य करता था । उसके भाई कुबेर को राज्यलोभ ने आ घेरा । नल राजा को फुसलाकर जुआ खेलने के लिए तैयार कर लिया । उस समय नल राजा को उसकी रानी दमयन्ती, प्रजा एवं हितैषी जनों ने जुआ न खेलने के लिए बहुत समझाया; परन्तु भाई के प्रति मोहवश नल ने किसी की भी न मानी । बुद्धि में विकार आ जाने पर हितकर बात भी उलटी लगती है । कुबेर ने चालाकी से इस प्रकार पासें फेंके कि नल बाजी पर बाजी हारता ही गया । उसने क्रमश: अपना धन, बहुमूल्य सामग्री और राज्य तक सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। अब क्या था ? कुबेर ने अपना अभीष्ट मनोरथ पूर्ण होते ही नल से निष्ठुरतापूर्वक साफ-साफ कह दिया- -" अब राज्य मुझे सौंप दो और तुम यहाँ से रवाना होकर अन्यत्र चले जाओ ।"
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यह है—द्यूत के कारण निर्दयता और कठोरता का आगमन ! नल राजा भी बुद्धिभ्रष्ट होकर अपनी चिरसंगिनी गृहिणी दमयन्ती को भी निष्ठुरतापूर्वक वन में अकेली छोड़कर चला गया । नल राजा को जूए के फलस्वरूप कितने कष्ट उठाने पड़े ! सुना है, एक जगह दो भाई ताश के पत्तों से जुआ खेल रहे थे । उनमें से एक जानबूझकर चालाकी करने लगा । दूसरे भाई ने उसे टोका । इस पर कहासुनी हो गई और पहले दूसरे भाई के पेट में छुरा भौंक दिया । फलतः उसने वहीं दम तोड़ दिया ।
कहना न होगा कि जूआ क्रूरता पैदा करने वाला एक भयंकर दुर्गुण है ।
जुए में हारने पर जब परिवार वाले उसे कोसते हैं, तो वह एकदम कुपित होकर सर्प की तरह उन पर टूट पड़ता है, क्रोध में आग-बबूला होकर पास में खड़ी माँ, बहन, पुत्री या स्त्री तक को पीट देता है ।
जुआरी पर जब कर्ज चढ़ जाता है और साहूकार उससे तकाजा करने आता है तो वह झूठी कसमें खाता है, झूठे वचन देता है, धोखाधड़ी करता है, अपशब्द बोलता है । वसुनन्दि श्रावकाचार में जुआरी की इस क्रूरता और असत्यता की मनोवृत्ति का स्पष्ट चित्रण किया गया है । '
जूआ : नैतिक धन का विनाशक
जूआ वैसे तो आसान धंधा लगता है, परन्तु इसके कारण मनुष्य की स्वार्थवृत्ति और लोभवृत्ति भयंकर रूप से बढ़ जाती है, तब यह नैतिक धन को स्वाहा कर देता
१. अलियं करेइ, सबहं जंपइ मोसं भणेइ अइदुट्ठं । पासम्म बहिणि मायं सिसु पि हणे कोहंधा ॥६७॥
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- वसुनन्दि श्रावकाचार
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