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________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ७५ है । मनुष्य का नैतिक धन तो तभी समाप्त होने लगता है, जब जुआरी झूठ बोलता है, झूठे वादे करता है, बोलकर बदल जाता है, धोखा-धड़ी करता है, हराम की कमाई खाता है । इस प्रकार जूए में हार और जीत दोनों के कारण उसका नैतिक धन नष्ट होता है । हार जाने पर चोरी, डाका, लूट, बेईमानी, जेबकटी, तस्कर व्यापार आदि को अपनाकर नैतिक पथ से भ्रष्ट हो जाता है । तिलोक काव्य संग्रह में भी जूए के कारण मनुष्य के नैतिक पतन का स्पष्ट चित्रण किया गया है--- " जूवा रचे नर नीच अपावन हिरि, सिरि, लक्ष्मी मूल मावे | लोक मांही अपवाद वदे बहु लहेणायत माँगन को धावे ॥ गाले देवे कायदो नहीं राखत, मित्र सनेही कदेय न आवे । जूवा के खेल को मेल दे चातुर, कहत तिलोक तो लोक सरावे ॥' जूए में सर्वस्व हार जाने के बाद जुआरी की हालत भिखारी की सी दयनीय हो जाती है । अनेक चिन्ता, दुःख और उपाधियों से वह घिर जाता है । वह धन और सुबुद्धि दोनों खोकर कभी-कभी आत्महत्या तक कर बैठता है । वह घर में से पत्नी के गहनों तथा कीमती सामग्री को चोरी-छिपे उठाकर ले जाता है और जूए में हुई हा की पूर्ति करता है। जुआरी की साख उठ जाती है, उस पर कोई विश्वास नहीं करता । समाज में किसी से कर्ज के रूप में उसे धन नहीं मिलता । जूए जैसे अनैतिक धंधे के लिए सरकार भी कर्ज नहीं देती । अन्ततोगत्वा, वह पत्नी से गहनों आदि की माँग करता है । इन्कार करने पर गृह कलह का सूत्रपात होता है, छीना-झपटी, मारपीट, हत्या, आदि अपराध जूए की बदौलत होते हैं । यहाँ तक कि सब तरह से निराश होने पर जुआरी गला घोंटकर, ट्रेन के नीचे आकर, पानी में डूबकर या जहर खाकर आत्महत्या कर बैठता है, जो स्पष्टत: नैतिकता का दिवाला है । मैंने समाचारपत्र में पढ़ा था- एक सटोरिये ने मालामाल हो जाने की धुन में अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। मगर जब वह सब कुछ हार गया तो सट्ट हुई क्षति की पूर्ति के लिए उसने पत्नी से गहने माँगे । पत्नी ने उस पर अविश्वास प्रगट करते हुए गहने बिलकुल नहीं दिये । फलतः वह निराश होकर स्थानीय तालाब में डूबकर मर गया । 1 जुआरी जब जीत जाता है, तब भी नैतिक धन का नाश करने से नहीं चुकता । वह अपनी झूठी शान बघारता है, अपनी बढ़-चढ़कर प्रशंसा करता है, दूसरों का अपमान कर बैठता है, मान कषाय से घिर जाता है । विजय के नशे में वह लोगों को शराब - मांस की दावत देता है । वेश्या की महफिल लगवाता है, सुन्दरियों १. तिलोक काव्य संग्रह, प्रकीर्णक काव्य ४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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