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________________ दरिद्र के लिए दान दुष्कर : २१३ कैदियों को बाँटने के लिए तत्कालीन स्वास्थ्य एवं कर-मन्त्री श्री अब्दुल कय्यूम अंसारी आए । उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा-"आप लोगों ने आलस्य छोड़कर अपने को सुधार कर जो यह पैसे कमाए हैं, यह आपकी पवित्र नैतिक कमाई है । गया सेंट्रल जेल के कैदियों ने वार्षिक १०६३ रुपये कमाए हैं । यह रकम अभी आप लोगों में बाँटी जायेगी। इस सम्बन्ध में आप लोगों को कुछ कहना है ?'' इस पर एक कैदी उठा, और बोला- "हम लोगों की पापवृत्तियाँ अब दब गई हैं। हम मनुष्य-सेवा को अपने जीवन का अंग बनाना चाहते हैं । यह पैसा हमने अपने लिए नहीं, मुसीबत में फंसे हुए उन लोगों के लिए कमाया है, जो हर तरह निर्बल, दीन-हीन और दयनीय जीवन बिता रहे हैं। हम गिरे हुए समाज को उठाने में अपनी धर्म की कमाई लगाकर धर्म को व्यावहारिक रूप देना चाहते हैं।" __ “आप सबने क्या तय किया है ?'' यह पूछने पर एक कैदी ने सुझाव दिया“यह रकम किसी आध्यात्मिक संस्था को दान दी जाए, जो जनता की सेवा द्वारा भगवान् की सेवा करती हो।” मंत्रीजी ने कहा-"तो फिर यह रकम 'जवाहरलाल नेहरू स्मारक कोष' को दानस्वरूप दे दी जाए, बोलो सबको मंजूर है ?" सबने एक स्वर से कहा-"मंजूर है। यही दान सबसे अच्छा रहेगा।" बस, वह १०६३ रुपये कैदियों की ओर से उस संस्था को दान दे दिये गये। वस्तुतः कैदियों की ओर से अपने नैतिक पारिश्रमिक की राशि का इस प्रकार दान करना बहुत ही दुष्कर दान है । इस प्रकार के दान ने कैदियों के जीवन का कायापलट कर दिया है । इसीलिए महर्षि गौतम कहते हैं _ 'दानं दरिद्दस्स...."सुदुक्कर' दरिद्र व्यक्ति के लिए दान देना बहुत दुष्कर है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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