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१८. धर्म : जीवन का त्राता प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ!
आज मैं धर्म की ही विशेषता पर आपके समक्ष चिन्तन प्रस्तुत करूंगा। धर्म जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण पाथेय है, जिसकी पद-पद पर जीवन में आवश्यकता पड़ती है, वह मानव-जीवन की बाह्य और आभ्यन्तर रूप से रक्षा करता है । धर्म की इसी विशेषता को बताने के लिए महर्षि गौतम यह जीवनसूत्र प्रस्तुत करते हैं
धम्मो य ताणं "धर्म मानव-जीवन का त्राता है-रक्षक है।" गौतमकुलक का यह चौरासीवाँ जीवनसूत्र है।
धर्म मानव-जीवन का कैसे रक्षक-त्राता बनता है ? वह मनुष्य-जीवन की किन-किन से कब और क्यों रक्षा करता है ? आइए, इन सब पहलुओं पर हम गहराई से चिन्तन करें। धर्म : जीवन का रक्षक कैसे ?
यह जीवन इस तरह विनिर्मित हुआ है कि इसमें संघर्ष, दीनता, परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव, विपरीत-अनिष्टसंयोग आदि के अप्रत्याशित आक्रमण सभी को सहन करने पड़ते हैं । कष्टों, संकटों एवं परेशानियों की आँधी आती है तो साधारण मनुष्य को झकझोरकर रख देती है, उसकी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं, बुद्धि ठीक तरह से काम नहीं करती, निराशा चारों ओर से घेर लेती है । ऐसे समय में रक्षा की एक चाह उत्पन्न होती है । कौन हमारी रक्षा करेगा? कौन हमारा उद्धार करेगा ? कौन हमें आश्वासन देकर यथार्थ-पथ का ज्ञान करायेगा ? उत्तराध्ययन सूत्र में इस समस्या का समाधान करते हुए कहा है
‘एगो हु धम्मो नरदेव ! ताणं" "राजन् ! इस संसार में एकमात्र धर्म ही जीवन की रक्षा करने वाला है।" वैदिक धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ महाभारत में भी यही बताया गया है
यो धर्मो जगदाधारः, स्वाचरणे तमानय । मा विडम्ब्य तं स ते ह्य को मार्गे सहायकः ॥
१. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १४, गा० ४०।
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