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धर्म : जीवन का वाता : २९७
यह सच है कि विश्व के सम्पूर्ण क्रिया-कलाप, व्यवसाय, प्रवृत्तियाँ और कार्य धर्म के आधार पर ही टिके हुए हैं, व्यवस्थित हैं । धर्म के कारण ही अशान्त परिस्थितियों का निवारण होकर सुख-शान्ति की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं । लोकजीवन का धारणपोषण करने वाला, उसे सुखमय बनाने वाला अगर कोई तत्त्व है तो धर्म ही है । क्या पारिवारिक. क्या वैयक्तिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में धर्म के होने से स्थिति ठीक रहती है और धर्म के नष्ट होते ही पारिवारिक आदि क्षेत्रों में विनाशलीला प्रारम्भ हो जाती है, पतन होना शुरू हो जाता है । जिस दिन संसार में धर्म का पूर्णतया लोप हो जाएगा, उस दिन संसार को सर्वनाश से कोई भी न बचा सकेगा।
इस युग में जो अधर्माचरण बढ़ रहा है, उससे मनुष्य को नैतिक अवस्था, जीवनव्यवस्था एवं सुख-शान्ति में बहुत बड़ा व्याघात उत्पन्न हो रहा है। अधिकांश लोगों के मन में शान्ति और सन्तोष नहीं है । सर्वत्र स्वार्थ, भोग, असंयम और शोषण का जाल फैला हुआ है । इस जाल में ग्रस्त मनुष्य बुरी तरह छटपटा रहा है । परन्तु बुद्धि पर अज्ञान का पर्दा पड़ जाने से त्राण का कोई रास्ता उसे सूझ नहीं रहा है । इसलिए तन्दुल वैचारिक ग्रन्थ में स्पष्ट मार्गदर्शन दिया है
धम्मो ताणं धम्मो सरणं धम्मो गइपइट्ठा य ।
धम्मेण सुचरिएण लब्भइ अयरामरं ठाणं ॥ "धर्म ही त्राण-रक्षक है, धर्म ही शरणरूप है। धर्म ही गति एवं आधार है। धर्म की सम्यक् आराधना करने से जीव अजर-अमर स्थान को पाता है।"
यों तो धर्म शब्द में हो धारण, पोषण एवं रक्षण का अर्थ निहित है । 'धून धारणे' धातु से धर्म शब्द निष्पन्न हुआ है । इसका एक अर्थ इस प्रकार है
"ध्रियते लोको प्रजाः वाऽनेन अथवा धरति लोकं प्रजाः वा इति धर्मः ।"
"जो लोक अथवा प्रजा (जनता) को धारण करता है, अर्थात् लोक या प्रजा की स्थिति की रक्षा करने वाला तत्त्व धर्म है अथवा जो शुद्ध और पवित्र बनाकर रक्षा करे वह धर्म है । धर्म सुख-शान्ति की परिस्थितियों का जनक है।
धर्म के दो रूप : अन्तरंग और बाप धर्म के दो रूप हमें परिलक्षित हो रहे हैं-एक धर्म का बाह्य रूप है, जिसे क्रियाकाण्ड, पूजा-पाठ, जप-तप, वेशभूषा आदि के रूप में देखा जाता है। यह धर्म की सुरक्षा के लिए कलेवर है। धर्म का असली रूप तो अहिंसा, सत्य, सेवा, दया, ब्रह्मचर्य, क्षमा आदि हैं । यह धर्म का अन्तरंग रूप है, प्राण है। धर्म का अन्तरंग रूप ही वास्तविक धर्म है । धर्म पर चलने का अर्थ है-धर्म के इन अंगों एवं सिद्धान्तों का पालन करना। इन्हें अपने व्यवहार और आचरण में स्थान देना ।।
वास्तविक धर्म के अभाव में सुरक्षा कैसे हो ? आज हम देखते हैं कि धर्म के अन्तरंग रूप का पालन करने से लोग कतराते
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