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जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २६५
(३) धर्म के प्रति बार-बार शंका, फलाकांक्षा आदि करके उसके आचरण में शिथिलता लाना।
(४) धर्माचरण में भ्रष्टता भी असम्यक् धर्माचरण है।
(५) धर्माचरण में अविवेक करना । जिनका (अनीति आदि का) त्याग पहले करना हो उनका त्याग किये बिना ही अविवेकपूर्वक धर्म के उच्च तत्त्वों का पालन करने लग जाना।
(६) धर्म से सम्बन्धित कुरूढ़ियों, कुरीतियों, गलत परम्पराओं आदि को ही धर्म मानकर पालन करना ।
(७) चमत्कार 'सिद्धियों' लब्धियों आदि का प्रदर्शन, आडम्बर, दिखावा आदि के जरिये धर्माचरण का सब्जबाग दिखाना ।
(८) धर्माचरण के साथ फलाकांक्षा, भोग-वांछा, इहलौकिक-पारलौकिक सुखभोग की इच्छा आदि को जोड़कर धर्म को दूषित करना ।
__(8) किसी स्वार्थ, लोभ, प्रलोभन या भय आदि से प्रेरित होकर धर्माचरण करना।
(१०) धर्माचरण के साथ धर्म के प्रति वफादारी, श्रद्धा एवं ज्ञान न हो।
(११) धर्म के दो रूपों (निश्चय और व्यवहार) में से किसी एक को एकान्त रूप से ग्रहण कर लेना।
ये और इस प्रकार की कुछ बातें हैं, जो धर्म के साथ मिलकर धर्म को दूषित और बदनाम कर देती हैं।
अतः जितना शीघ्र धर्माचरण को दूषित करने वाले इन स्रोतों का निवारण किया जाएगा, उतना ही साधक श्रेय और अपवर्ग (मोक्ष) के निकट पहुँचेगा। अगर इसी प्रकार से असंयम एवं अविधि से धर्म किया गया तो उसका परिणाम भयंकर आता है । उत्तराध्ययन सूत्र भी इस बात का साक्षी है
विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्यं जह कुग्गहीयं ।
एसो वि धम्मो विसओववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो॥
"जैसे पीया हुआ कालकूट विष और उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र अपना ही घातक होता है, वैसे ही शब्दादि विषयों की प्राप्ति के लिए किया गया धर्म भी अनियंत्रित वेताल की तरह साधक को मार डालता है।"
____ बन्धुओ ! जिनोपदिष्ट धर्म की विशेषताओं, उसके तत्त्वों और सिद्धान्तों को भली-भाँति समझकर श्रद्धापूर्वक धर्म का सम्यक् आचरण करने में ही जीवन का कल्याण निहित है। यही इस जीवनसूत्र में बताया गया है
__ "धम्मं चरे साहू जिणोवइलैं" जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित धर्म का साधु सम्यक् प्रकार से आचरण करे ।
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