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२९४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
किन्त मेरी तो सुषमा पर आसक्ति है। अतः सुषमा का सिर और तलवार एक ओर डाल दिये। तीसरा पद है-संवर । संवर का अर्थ-पाँचों इन्द्रियों और मन के विषयों को रोकना । मुझमें तो इनमें से एक पर भी संवर नहीं है।' यों विचार करके चिलातीपुत्र के संवर किया, और वहीं कायोत्सर्ग में खड़ा रहा।
उसका शरीर खून से लथपथ था, उसकी गंध से चीटियाँ आ-आकर खाने लगीं । शरीर चलनी-चलनी कर दिया । ऐसा उपद्रव होने पर भी वह ध्यान से विचलित न हुआ। यह उपसर्ग ढाई दिन तक रहा । उपसर्ग को समभावपूर्वक दृढ़ता से सहन किया । फलस्वरूप समाधिपूर्वक मृत्यु हुई । चिलातीपुत्र साधु मरकर देवलोक में गये ।
बन्धुओ ! चिलातीपुत्र चोर ने धर्म के तीन तत्त्वों को ग्रहण करके तथा तत्काल मुनि बनकर उन्हें आचरण में लाकर क्रियान्वित किया जिसका सुखद फल उन्हें मिला। ढाई दिन में धर्माचरण करके अपना जीवन सार्थक कर लिया। धर्म का आचरण करो, परन्तु सम्यक् रूप में
प्रस्तुत में महर्षि गौतम ने धर्म का आचरण करने के निर्देश के साथ 'साहु' शब्द जोड़ा है, उसका अर्थ है-धर्म का सम्यक् रूप से आचरण करो।
जैनधर्म की प्रत्येक धर्मसाधना के साथ यह हिदायत दी गई है कि किसी भी धर्म की साधना करते समय शुद्धता का ध्यान रखो । धर्म का आचरण चाहे थोड़ा ही हुआ हो, पर उसकी शुद्धता देखो कि वह सम्यक् प्रकार से विधिपूर्वक हुआ या नहीं ? अविधिपूर्वक आचरित धर्म विपरीत परिणाम लाता है । सम्बोधसत्तरी में स्पष्ट कहा है--
जह भोयणमविहिकयं विणासए विहिकयं जीयावेइ ।
तह अविहिकओ धम्मो देइ भवं, विहिफओ मुक्खं ॥ "जैसे अविधि से किया गया भोजन मार डालता है, और विधिपूर्वक किया हुआ जीवन देता है, उसी प्रकार अविधिपूर्वक किया हुआ धर्म संसार में भटकाता है और विधिपूर्वक किया हुआ धर्म मोक्ष देता है।"
___ यही कारण है कि हितैषी महर्षि ने जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करने के साथसाथ चेतावनी दी है कि धर्म का आचरण करो पर सम्यकप से करो, अविधिपूर्वक नहीं । जैनधर्म क्वालिटी (गुणवत्ता) को महत्त्व देता है, क्वांटिटी (संख्या) को नहीं । जहाँ-जहाँ भी धर्म की सामायिक, पौषध आदि साधनाएं बताई गई हैं, वहाँ 'सम्म' शब्द द्वारा स्पष्टतः बता दिया है कि सम्यक् रूप से करो। असम्यक् धर्माचरण के स्रोत
मैं यहाँ असम्यक् (अविधिपूर्वक) धर्माचरण के कुछ स्रोतों का संक्षेप में उल्लेख करूंगा, ताकि आप धर्माचरण के असम्यक् रूप से बच सकें । वे स्रोत इस प्रकार हैं
(१) पंचेन्द्रियविषयों की प्राप्ति के लिए किया गया धर्माचरण।।
(२) धर्म के अंतरंग तत्त्व के बदले स्थूल क्रियाकाण्डों का पालन करके सन्तुष्ट हो जाना।
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