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________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २६३ जो केवल धर्म के सिद्धान्तों का बखान करता है, वह धर्म का सुफल नहीं पा सकता। कोई भी व्यक्ति कैसी भी स्थिति में धर्माचरण करता है वह उसका उत्तम फल प्राप्त करता ही है । जैन इतिहास का एक चमकता उदाहरण लीजिए चिलातीपुत्र राजगृहनिवासी धन्य सार्थवाह के यहाँ रहने वाली चिलाती नाम की दासी का पुत्र था। चिलातीपुत्र धीरे-धीरे बड़ा हुआ। इधर धन्य सार्थवाह के भी पाँच पुत्रों के बाद छठी पुत्री हुई । उसका नाम था सुषमा । चिलातोपुत्र सुषमा को खिलाता था। परन्तु धीरे-धीरे सुषमा के साथ चिलातीपुत्र का इतना स्नेह हो गया कि वह जो भी खाने-पीने की अच्छी चीज होती, चिलातीपुत्र को देती थी। सार्थवाह को यह बात खटकती थी, वह सुषमा को भी फटकारता और चिलातीपुत्र को भी; किन्तु चिलातीपुत्र सुषमा के साथ प्रणयरंग में रंग गया था, यह देख सेठने उसे डांटकर घर से निकाल दिया। चिलातीपुत्र भी गुस्से में आगबबूला होकर सिंहगुफा नामक चोरपल्ली में पहुँचा। वहाँ के पल्लीपति से मिला। वहीं रहने लगा। धीरे-धीरे वह नामी चोर होगया। पल्लीपति ने उसे अपने स्थान पर पल्लीपति बना दिया। एक दिन चिलातीपुत्र ने अपने साथी चोरों से कहा-'हम राजगृह चलें, वहाँ धन्य सार्थवाह के यहाँ चोरी करेंगे । जो भी माल हाथ लगे, वह तुम्हारा, और उसकी पुत्री सुषमा हाथ आए तो मेरी।" । सभी चोर सहमत होकर आए। वे धन्य सार्थवाह के यहाँ घुसे । अन्य चोरों ने जितना धन हाथ लग सकता था; लिया और चिलातीपुत्र सुषमा का अपहरण करके चला । धन्य सार्थवाह जाग गया। चोरों के पीछे-पीछे भागा। पर वे हाथ नहीं आए। सेठ कोतवाल तथा अपने पाँचों पुत्रों को लेकर उनके पीछे दौड़े। कोतवाल तो उन चोरों से धन लेकर लौट गया। सेठ पाँचों पुत्रों सहित चिलातीपुत्र के पीछे भागे। सुषमा का वजन उठाकर दौड़ने में असमर्थ चिलातीपुत्र ने उसका सिर काटा और धड़ वहीं छोड़कर दौड़ा। धन्य सेठ ने पुत्री की मृत्यु जानकर आगे बढ़ना उचित न समझा । वे सब हताश होकर वापस लौट गए। चिलातीपुत्र सुषमा का कटा हुआ सिर हाथ में लिए दिङ मूढ़ होकर भागा जा रहा था। इसी दौरान उसे एक भव्य तपोमूर्ति जैन साधु के दर्शन हुए, जो वहाँ आतापना ले रहे थे। उनसे चिलातीपुत्र कहने लगा-“या तो मुझे सक्षेप में धर्म कहिये, अन्यथा इसी तरह आपका भी मस्तक काट लूगा।" विज्ञ मुनिवर ने कहा-उपशम, विवेक और संवर । इन तीन पदों को सुनकर चिलातीपूत्र एकान्त में उन पर चिन्तन करने लगा'उपशम का अर्थ तो क्रोधादि का शमन करना है, मैं तो क्रोधादि से भरा हूँ। विवेक का अर्थ है-किसी व्यक्ति, धन या सांसारिक पदार्थों पर आसक्ति का त्याग करना; Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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