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________________ धू त में आसक्ति से धन का नाश : ८१ दुर्योनियों में उसे भटकाते हैं, जहाँ उसे न तो सम्यक्बोधि का लाभ होता है, न ज्ञान और चारित्र का अवसर ही मिलता है। धर्मपालन की तो रुचि ही सम्यक्बुद्धि पर पर्दा पड़ जाने से कैसे होती ? यही बड़ी भारी आत्मिक हानि है। वसुनन्दि श्रावकाचार में इसे स्पष्ट किया गया है जूयं खेलंतस्स हु कोहो माया माण लोहा य। एए हवंति तिव्वा पावइ पावं तदो बहुगं ॥६॥ पावेग तेण जर-मरण-वीचिपउरम्मि दुक्ख सलिलम्मि । चउगइ गमणावत्तम्मि हिंडइ भवसमुद्दम्मि ॥६१॥ तत्यवि दुक्खमणंतं छेयण-मेयण-विकत्तणाईणं । पावइ सरणविरहिओ जूयस्स फलेण सो जीवो ॥६२॥ जूए के व्यसनी में क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय तीव्र हो जाते हैं, जिनसे वह अधिकाधिक पापकर्म का बन्ध कर लेता है। उस पापकर्म के फलस्वरूप जीव जन्म, जरा, मरण रूपी तरंगों वाले दुःखरूप जल से पूर्ण, चतुर्गतिगमनरूप भँवरों से युक्त संसार-समुद्र में परिभ्रमण करता है। इस प्रकार जन्म-मरणरूप संसार में छू तक्रीड़ा के फलस्वरूप जीव शरणरहित होकर छेदन, भेदन, कर्तन आदि के अनन्त दुःख पाता है। यही तो आत्मिक धन की-आत्मविकास एवं आत्मशुद्धि की बहुत बड़ी क्षति है। इसी कारण महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र के द्वारा सावधान किया है ___'जूए पसत्तस्स धणस्स नासो' जूए की आसक्ति से धन का नाश हो जाता है । 000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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