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८० : आनन्द प्रवचन : भाग १२
की हुई नाली से बहकर नीचे गिर जाने या न गिरने पर से जीत-हार का सौदा होता है ।
इसके पश्चात् अंग्रेजों ने जूए का एक विचित्र प्रकार चलाया जो आज लॉटरी के नाम से प्रसिद्ध है । नंबर छपी हुई टिकटों में से जिसकी प्रथम टिकट निकल जाये उसे पहला इनाम मिलता है, उसके बाद दूसरे, तीसरे, चौथे टिकट नंबर वालों को द्वितीय-तृतीय- चतुर्थ इनाम मिलते हैं । यह भी बिना परिश्रम की कमाई होने से जूआ है । पहले लॉटरी चलाने वाली प्राइवेट कम्पनियाँ होती थीं, अब भारत के प्रत्येक प्रान्त की राज्य सरकार लॉटरी व्यवसाय चलाती है । चाहे कोई भी चलाये, है यह जू का ही प्रकार ।
प्राचीनकाल में एक और किस्म का जुआ प्रचलित था, जिसे 'समाह्वय' कहते थे । इसका रूप ऐसा था कि मुर्गी, तीतर, बटेर, साँड़ आदि को लड़ाकर इन पर जुआरी लोग हार-जीत की बाजी लगाते थे । इसमें भी हजारों-लाखों रुपये की हारजीत होती थी । अंग्रेजों ने घुड़-दौड़ के रूप में जुए का एक नया प्रकार चलाया, जितने घोड़े दौड़ के लिये उद्यत होते, उन पर नम्बर लगा दिये जाते और लोग अपनेअपने मनोनीत घोड़े पर निर्धारित रकम लगाते । अगर उस नम्बर का घोड़ा घुड़दौड़ (Race) में सबसे आगे रहता तो उस पर दाँव लगाने वाले को पहला इनाम मिलता । इस प्रकार दौड़ में घोड़े की जीत पर निर्धारित इनाम दिया जाता है । यह भी जूए का प्रकार है । आजकल समाचार-पत्रों या साप्ताहिक पत्रों में छपने वाली क्रॉसवर्ड स पहेलियाँ भी जू का ही रूप है । व्यापारिक क्षेत्र में भी भावों में तेजी - मन्दी की कल्पना के आधार पर लोग दाँव लगाते हैं । हानि-लाभ के साथ अनिश्चितता जुड़ी होने से इसे भी आ ही माना जायेगा ।
और इस प्रकार के अनेक रूप हैं जूए के । जूए के विशाल परिवार में किसी भी रूप के जूए को छोटी बुराई समझकर उसकी उपेक्षा करना बड़ी भारी भूल होगी । इनमें से कुछ तो कानूनी तौर पर अपराध भी हैं ।
जूए से आत्मिक धन का नाश
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जू से भौतिक, नैतिक और सामाजिक धन का नाश होकर ही बस नहीं होती, आगे चलकर आत्मिक धन का भी नाश हो जाता है । आत्मा के निजी गुण या परम्परागत गुण एक प्रकार से आध्यात्मिक धन के रूप हैं । वे इस प्रकार हैं- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख, वीर्य आदि तथा अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, न्याय-नीति, अलोभवृत्ति, धर्मध्यान आदि । जब भी मनुष्य किसी भी रूप में जुआ खेलने का आदी बन जाता है, तब धर्मध्यान, न्याय, नीति, ईमानदारी, सत्य, अहिंसा, अलोभवृत्ति आदि आत्मिक गुणों का लोप होने लगता है अथवा हो जाता है । क्योंकि क्रोध, अभिमान, छल-कपट और लोभ इन चारों से जुआरी घिर जाता है, इनके कारण तीव्र अशुभ पापकर्मों का बन्धन होता है, जो आत्मा पर आवरण डालकर नाना दुर्गतियों और
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