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________________ द्यूत में आसक्ति से धन का नाश : ७६ के खेल से सम्बन्धित इन भयंकर भूलों के फलस्वरूप पाण्डवों का तेज और सत्त्व नष्ट हो गया । वे यश और श्री से वंचित हो गये, अन्य कलाएँ भी भूल गये, शरीर - सौन्दर्य और सौष्ठव भी लुप्त हो गया, साधु-सन्तों की सेवा एवं धर्माचरण का सुयोग भी कठिन हो गया । १३ वर्ष तक घरबार छोड़कर परिवार और समाज से अलग-थलग होकर कठोर कष्टमय वनवास के रूप में दर-दर की खाक छाननी पड़ी । क्या द्यूत व्यसनासक्त लोग इससे प्रेरणा-पाठ नहीं ले सकते ? द्यूत का विशाल परिवार परन्तु आज कई द्यूतक्रीडा के शौकीन तथा बिना श्रम के धन प्राप्ति के लोलुप यह कहते हैं कि हम क्या पांडवों की तरह अपनी पत्नी, वैभव या सत्ता को दाँव पर लगा सकते हैं ? हम इतने बुद्ध नहीं हैं कि नल की तरह राज्य से हाथ धोकर अपनी प्रिया दमयन्ती को छोड़ने जैसी मूर्खता करेंगे ? और फिर हम तो पांडवों और नल राजा जैसा जुआ थोड़े ही खेलते हैं । महाभारतकाल में चौपड़ या पासे के रूप में जुआ खेला जाता था, यह बात हम मानते हैं, लेकिन आज भी तो शतरंज के रूप में मोहरा या पासा फेंककर हारजीत का निर्णय होता है और खेल के प्रारम्भ में ही नकद रुपये या कोई न कोई चीज हार जाने पर देनी पड़ेगी, यह शर्त खोल ली जाती है। मुगलकाल में शतरंज के रूप में आ प्रचलित हुआ । इसमें भी पहले से जीत की अमुक धनराशि निश्चित की जाती है, हारने वाले को जीतने वाले को उतनी राशि तुरन्त चुकाना या चुकाने का प्रबन्ध करना पड़ता है । ब्रिटिश शासनकाल में ताश के पत्तों के रूप में जूए का नया रूप सामने आया । इसमें भी पत्तों से खेलकर हार-जीत का निर्णय किया जाता है और बाजी पर बाजी खेली जाती है । हजारों रुपये की हार-जीत इसमें भी हो जाती है । आजकल के तथाकथित बुद्धिमान जुआरी इनमें से किसी भी रूप में जुआ खेलते हों पर बुद्धि का दिवाला तो तब निकल जाता है, जब अपनी गृहिणी को तो दाँव पर नहीं लगाते, लेकिन पैतृक गृह को, गृह की बहुमूल्य चीजों को, गृहिणी के प्रिय वस्त्राभूषणों को दाँव पर लगा देते हैं । कई लोग तो और कोई चारा न देखकर अपनी पत्नी को भी दाँव पर लगा देते हैं । सट्टा भी जूए का ही रूप है । रुई, जूट, सोना, चाँदी, एरंड, आदि वस्तुओं हाजिर न होने पर भी केवल लेने-बेचने का सौदा हो या वादा हो, अथवा एक तक के अंकों का फीचर हो, अथवा दो अंकों का दड़ा या आंक लगाना हो, ये सब जुए के ही विभिन्न रूप हैं । इसके अतिरिक्त वर्षा का जुआ भी होता है । वर्षा के पानी के अमुक निश्चित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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