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________________ ७८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ सामाजिक जीवन में जीवन-निर्वाहयोग्य धर्मयुक्त अर्थसम्पन्नता गुण है, किन्तु जुआरी धन से खाली हो जाता है, उसके यश पर भी कालिमा छा जाती है, वह अपने कुलपरम्परागत आचार को भी छोड़ देता है, जूए के कारण सीखी हुई कलाओं को भी वह भूल जाता है। अहर्निश चिन्ता के कारण उसका शारीरिक सौन्दर्य और तेज भी फीका पड़ जाता है, उसके मित्र, स्वजन, हितैषी सभी उससे किनाराकशी कर जाते हैं, विपत्ति में पड़ा होने से साधु-संतों की सेवा, धर्मध्यान आदि से वह कोसों दूर हो जाता है। जूए के कारण जहाँ रात-दिन आर्तध्यान-रौद्रध्यान चलता हो, वहाँ धर्मध्यान कहाँ टिक सकता है ? धर्माचरण करना तो और भी दूर की बात है। क्या आप कह सकते हैं पाण्डवों का पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन क्यों छिन्न-भिन्न हो गया था ? क्यों उन्हें भरी सभा में अपमान की कड़वी घूट पीनी पड़ी? अपने सामने देखते ही देखते सती द्रौपदी का चीरहरण हुआ, कोई भी उनके पक्ष में न बोल सका, स्वयं पाण्डव भी बुत की तरह लाचार बैठे रहे, और फिर १२ वर्ष वनवास और १ वर्ष अज्ञातवास का कठोर कष्टकर दण्ड भोगना पड़ा। इन सब विडम्बनाओं से सामाजिक जीवन-धन के विनष्ट होने का क्या कारण था ? एकमात्र छु तक्रीड़ा ही पाण्डवों पर आई हुई विपत्तियों की जड़ थी, जिससे पूर्वोक्त सामाजिक गुणों का विनाश हो गया था। पाण्डवों के जूआ खेलने की कहानी तो आप सब जानते ही हैं। संक्षेप कह द् तो ठीक रहेगा। कहते हैं, द्रौपदी के एक तीखे व्यंग्यवाक्य-'अंधे के पुत्र अंधे ही तो होते हैं। ने दुर्योधन के मन में आग लगा दी और इसका बदला लेने की दृष्टि से दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि से मिलकर पाण्डवों का राज्य हस्तगत करने का एक षड्यंत्र रचा, वह था--पाण्डवों को जूआ खेलने के लिए प्रोत्साहित करना और जूए में हराकर उनसे राज्य, खजाना, तथा अन्य सर्वस्व हस्तगत कर लेना। पाण्डवों की पहली गलती तो तब हुई, जब शकुनि मनोविनोद के लिये जूभा खेलने के लिये उन्हें तैयार करने और प्रोत्साहित करने लगा तभी उस प्रस्ताव को ठुकराया नहीं, उसके लिये स्पष्ट निषेध नहीं किया । लज्जा, बुद्धिभ्रष्टता और लिहाज के कारण पाण्डवों ने उस धूत-क्रीड़ा के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, यह बहुत भयंकर गलती थी। उस समय विदुरजी आदि कई हितैषियों के मना करने और सावधान करने पर भी बुद्धिभ्रष्टतावश उनकी बात न मानी, यह दूसरी गलती हुई। और तीसरी गलती पाण्डवों की यह हुई कि जब पाण्डवों ने राज्य आदि सर्वस्व दाँव पर लगा दिया, तब तो उन्हें जमा बन्द कर देना चाहिए था मगर विपरीत बुद्धिवश अपनी धर्मपत्नी सती द्रौपदी को भी उसकी इच्छा के बिना जूए में दांव पर लगा दिया । इसका मूल्य उन्हें भरी सभा में भयंकर अपमान के रूप में चुकाना पड़ा । जूए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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