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________________ ८६ : मांस में आसक्ति से दया का नाश प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष नैतिक जीवन के सन्दर्भ में द्वितीय व्यसन के सम्बन्ध में कहूँगा । द्वितीय व्यसन है— मांसाहार । महर्षि गौतम ने नैतिक जीवन के लिए मांसाहार - त्याग अनिवार्य बताया है । इस सन्दर्भ में उन्होंने चेतावनी के रूप में जीवनसूत्र प्रस्तुत किया है; जिसका रूप इस प्रकार है 'मंसं पसत्तस्स दयाइ नासो' - जो व्यक्ति मांसाहार में रत होता है, उसमें दया विनष्ट हो जाती है । गौतमकुलक का यह ७२वाँ जीवनसूत्र है । मांसाहार नैतिक जीवन के लिए क्यों त्याज्य है ? उससे क्या-क्या हानियाँ हैं ? मांसाहार - त्याग से क्या-क्या लाभ हैं ? ये और इस प्रकार के विविध पहलुओं पर विचार कर लेना आवश्यक है, तभी मांसाहार - त्याग की महत्ता आपकी समझ में आयेगी । आहार : सुख-शान्ति और प्राणरक्षा के लिए आवश्यक इस विश्व में जितने भी देहधारी प्राणी हैं, चाहे वे मनुष्य हों, या पशु-पक्षी अथवा कीट-पतंग, सभी सुख-शान्ति चाहते हैं, अपनी प्राणरक्षा या जीवन- सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । इसके लिए वे - १. आहार, २. भय, ३. मैथुन और ४. परिग्रह - इन चार सहज संज्ञाओं से प्रेरित रहते हैं । इन चारों में सर्वप्रथम और प्रमुख संज्ञा आहार है, जो भूख और प्यास की बाधाओं को दूर करने के लिए किया जाता है । प्राणी और सब कुछ सहन कर सकता है, बड़े से बड़ा कष्ट, विपत्ति, अभाव और संकट का सामना वह कर सकता है, किन्तु लम्बे समय तक भूखा और प्यासा जीवित नहीं रह सकता । हाँ, भूखा और प्यासा रहने की सीमाएँ, कालावधियाँ प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक प्राणी की भिन्न-भिन्न एवं न्यूनाधिक हो सकती हैं । साथ ही इस संज्ञा को शान्त करने के लिए ग्रहण की जाने वाली खाद्य-पेय-सामग्री की मात्रा, रूप और प्रकार में भिन्नता भी हो सकती है । परन्तु ऐसा कोई प्राणी नहीं, जो भूखाप्यासा रहकर सारी जिन्दगी काट सके । जन-सामान्य की तो बात ही क्या, गृहत्यागी एवं आरम्भ - परिग्रहत्यागी, घोर तपस्वी, साधु- मुनिवर भी, जिनका एकमात्र उद्देश्य धर्मसाधना है, शरीर का संरक्षण करते ही हैं क्योंकि धर्मपालन का मूलाधार शरीर ही है और शरीर को सक्षम बनाए रखने के लिए उपयुक्त आहार का ग्रहण करना अत्यावश्यक है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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