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________________ मांस में आसक्ति से दया का नाश : ८३ कौन-सा आहार उपयुक्त, कौन-सा अनुपयुक्त ? आहार का प्रभाव मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा पर पड़ता है । अतः हमें देखना होगा कि जिस आहार से मनुष्य को सुख-शान्ति, शक्ति, सामर्थ्य, पवित्रता, सात्त्विकता, दीर्घ आयु, स्वास्थ्य, स्फूर्ति मिले, जिससे उत्साह, तेज, सत्त्व और स्मृति बढ़े, जो आहार शुद्धधर्म, स्वभाव, सद्गुण ( मानवता आदि ) प्रकृति, रुचि और आदत के अनुकूल हो; विश्व में मनुष्य की श्रेष्ठता के अनुरूप हो, वही आहार मनुष्य के लिए ग्राह्य एवं उपयुक्त है । जो आहार मनुष्य के तन, मन, बुद्धि और आत्मा को विकृत, अपवित्र, अस्वस्थ बनाता हो, जो आहार मनुष्य की मानसिक, शारीरिक, बैद्धिक और आत्मिक शक्तियों को नष्ट करता हो, जिस आहार से तामसिकता, अप्रसन्नता, अपवित्रता, अस्वस्थता एवं अल्पायुष्कता प्राप्त होती हो, मानवजीवन की सुख-शान्ति का ह्रास करता हो, जिस आहार से उत्साह, तेज, सत्त्व और स्मृति का कोई विकास न होता हो, जो आहार मनुष्य के स्वाभाविक धर्म, रुचि, स्वभाव, गुण, प्रकृति और आदत के प्रतिकूल हो तथा मनुष्य की श्रेष्ठता के अनुरूप न हो, वह आहार मनुष्य के लिए ग्राह्य एवं उपयुक्त नहीं हो सकता । मनुष्य जीवन की सुख-शान्ति और सुरक्षा केवल शरीर पर उतनी अवलम्बित नहीं, जितना इनका सम्बन्ध मन, बुद्धि और आत्मा की शुद्धता से है । जो आहार शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा को शुद्ध नहीं रख सकता, वह भले ही पौष्टिक एवं गरिष्ठ हो, मनुष्य का स्वाभाविक आहार कभी नहीं हो सकता । उपनिषद् में कहा भी है "आहारशुद्ध सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः ।" - आहार-शुद्धि होने पर सत्त्व (अन्तःकरण की ) शुद्धि होती है, और सत्त्वशुद्धि होने पर ही स्मृति स्थायी होती है । मनुष्य इस संसार में सुख-शान्ति और निर्द्वन्द्वता का जीवन जीने लिए आया है, जो आहार किसी के प्राण छीनकर तैयार होता हो, जिससे मनुष्य के मानवता, दया, करुणा, सहानुभूति आदि स्वाभाविक गुण नष्ट होते हों, वह आहार मनुष्य के लिए कथमपि उपयुक्त नहीं हो सकता । आप इस कहावत से तो भलीभाँति परिचित होंगे कि 'जैसा अन्न वैसा मन ।' आन्तरिक उन्नति के । । अर्थात् अक्ष (आहार) के अनुसार मनुष्य का मन बनता है लिए मनुष्य के तन, मन और बुद्धि निर्विकार होने चाहिए मनुष्य के इन तीनों साधनों का निर्माण उस अन्न - भोजन से होता है, जो मनुष्य खाता है । भोजन से रस, रक्त, वीर्य, मज्जा आदि सारे शारीरिक तत्त्व बनते हैं, और अपने में वे सारे गुण-अवगुण समाहित कर लेते हैं, जो उस भोजन या अन्न में होते हैं । यही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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