SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ तो समय-समय पर युगप्रभावक आचार्यों ने उन्हें दूर करके धर्म को शुद्ध रखने का प्रयत्न किया है । जिनोपदिष्ट धर्म का अर्थ होता है - वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादितप्ररूपित धर्म । वह धर्म, जो रागद्वेषरहित, वीतराग, सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा कथित हो, भला उसमें किसी के लिए पक्षपात या किसी के लिए अहित की कोई सम्भावना हो सकती है ? भावनाशतक में कहा है जिस योगी ने रागद्वेष का जड़ से कर डाला है नाश, जिसको कुछ भी स्वार्थ नहीं है, नहीं ममत्वभाव भी पास । उस उपकारी परमार्थी का कहा धर्म है सत्य महान, कर्मरोग का नाशक है वह है हितकारी पथ्य-समान || जिसका किसी से कोई स्वार्थ नहीं है, किसी से कुछ लेना-देना नहीं है, जिसे किसी भी सजीव-निर्जीव पदार्थ के प्रति आसक्ति, ममता मूर्च्छा, लालसा, स्पृहा, तृष्णा, वासना आदि जरा भी नहीं है, जो महापुरुष अहेतुक एवं निःस्वार्थभाव से, परमार्थ दृष्टि से जगत के दुःखपीड़ित जीवों पर करुणा एवं दया करके अपना प्रवचन - विश्वहितंकर धर्मकथन करते हैं, वह धर्म शुद्ध, निखालिस, श्र ेयस्कर, सत्य, हितकर एवं पथ्यकर हो इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता । प्रश्नव्याकरणसूत्र इस बात का साक्षी है कि तीर्थंकर प्रवचन (धर्मकथन) क्यों करते हैं " सव्वजगजीव रक्खणदयट्ट्याए पावयणं भगवया सुकहियं ।" " सारे विश्व के जीवों की रक्षारूप दया से प्रेरित होकर भगवान् ने प्रवचन कहे हैं।" जिस प्रकार हितैषी एवं निष्पक्ष वैद्य की दवा कड़वी होती है, उसके साथ पथ्यपालन भी सावधानीपूर्वक करना पड़ता है, अन्यथा रोग मिटेगा नहीं, रोगी वैद्य पार बार-बार शिकायत करेगा । इसी प्रकार भवभ्रमणरूप रागद्वेषादि विकार - रोगों को मिटाने के लिए कुशल, सर्वहितैषी, निःस्वार्थ, निष्पक्ष वीतराग, (जिन) वैद्य की दवा चाहे कड़व हो, उसके साथ नियमोपनियम- मर्यादारूप पथ्य का कठोरता से पालन करना होगा । तभी आत्मिक रोग मिट सकेंगे । परन्तु कोई पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर यों ही कह दे कि वीतराग-वाणी तो जैनों के लिए है, या जैनसाधुओं के लिए हैं उनके द्वारा कथित धर्म हमारे लिए नहीं है । हम क्यों जिनोपदिष्ट धर्म को निष्पक्ष मानें तो बात ही दूसरी है --- जिन वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं । उनकी वाणी में पक्षपात, पूर्वाग्रह, विकार लिप्त होने का दोष कदापि नहीं हो सकता । समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि ने तो स्पष्ट कहा है १. भावनाशतक - धर्मभावना, ह२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy