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जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २८३
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वषः कपिलादिषु ।
युत्तिमद वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ "मुझे तीर्थंकर महावीर के प्रति कोई पक्षपात नहीं है, और न ही सांख्यमतप्रवर्तक कपिल आदि के प्रति द्वष है, जिसका भी वचन युक्तिसंगत हो उसका ग्रहण कर लेना चाहिए।" इसलिए जिनोपदिष्ट धर्म सर्वथा निष्पक्ष, उदार, निःस्वार्थ है। इसे वर्तमान में जैनधर्म कहते हैं। कई लोगों का इस धर्म पर आक्षेप है कि , यह बहुत ही कठोर धर्म है । इसका पालन करने में बहुत ही दिक्कतें आती हैं। आम आदमी ही नहीं, विशिष्ट व्यक्ति-राजा, धनिक या सत्ताधीश भी इसका पालन कर ही कैसे सकता है ? भला इतनी उच्च अहिंसा का पालन कैसे होगा, किसी से ? यह धर्म तो केवल साधुओं के लिए ही है, जिनका घर-बार, परिवार, धन-सम्पत्ति आदि से कोई वास्ता न हो, जो गृहस्थ की जिम्मेवारियों से मुक्त हों।"
___ मैं कहता हूँ, ऐसी बातें वे ही लोग कहते हैं, जिनको जैनधर्म के सिद्धान्तों और विधि-विधानों का बहुत ही कम ज्ञान है। तथा जो जैनधर्म के इतिहास से बिलकुल अनभिज्ञ हैं, जैन-जीवन से जो बिलकुल अछूते है। अथवा जो लोग अत्यन्त भोगी-विलासी हैं, जिन्हें धर्म का बिलकुल स्पर्श नहीं है, जो जरा-सा भी, थोड़ी देर के लिए भी, त्याग, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि नहीं कर सकते, जिन्हें यह भान नहीं है कि जीवन का लक्ष्य जब त्याग, प्रत्याख्यान, तप, नियम आदि से आत्मशुद्धि
और आत्मविकास करके मुक्ति-प्राप्ति है न कि केवल सुख-भोग, आमोद-प्रमोद, दुर्व्यसनासक्ति, या विलासिता होता है, वे ही जिनोपदिष्ट धर्म को कठोर, कष्टकारक एवं अरुचिकर मानते हैं। जिन्हें अपने जीवन का कल्याण प्रिय है, जिन्हें अपनी आत्मा पर आए हुए आवरणों को दूर करके आत्मा को शुद्ध एवं विकसित करना है, और अन्त में सर्वदुःखों-कर्मों से मुक्त करना है, वे कदापि इस धर्म को कठोर, कष्टकर एवं अरुचिकर नहीं कहते ।
यही कारण है कि बहुत-से लोग जैनधर्म के विषय में गलत-फहमियाँ फैलाते हैं और ऐसे धर्म को ढूढ़ते हैं, जिसमें कुछ करना-धरना न पड़े। जो सब प्रकार की इन्द्रिय-सुखभोगों की छूट देता हो, इन्द्रियों और मन को उन्मुक्त रूप से विषय-भोगों का स्वाद लेने के लिए प्रेरित करता हो, संभोग से समाधि मानता हो, जिसमें रातदिन खाने-पीने की, हर एक वस्तु खाने-पीने की स्वतन्त्रता हो, कोई नियम नहीं, कोई त्याग-प्रत्याख्यान नहीं, कोई व्रत या संकल्प नहीं, कोई मर्यादा या सीमा नहीं। उच्छृखल, स्वच्छन्द और उन्मुक्त रूप से विचरण करने की बात कहता हो वामाचार-पंचमकार (मद्य, मीन, मैथुन, मांस और मुद्रा) को ही धर्म कहता हो क्या इस प्रकार की स्वच्छन्दता और मनमानी से आत्मा पर जमे हुए कर्मों के आवरण जाल टूट जाएँगे? इच्छाओं का भला कोई अन्त है, कोई सीमा है उनकी ? इच्छाअं
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