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जीवन अशाश्वत है : २७३
झठी काया माया जैसे बादल की छाया सम, पुण्य खिस जाय नहीं ठहरे पाय पल है । दामिनी उजास जैसे संझा को प्रकाश जाण, ठहरे नहीं मूढ़ ! जैसे अंजलि को जल है ॥ डाभ - अग्रबिन्दु जैसे इन्द्र के धनुष्य सम, कुंजर को कान जैसे तरुवरदल है । अमीरख कहे चेत-चेत हो हुसियार नर, गाफिल रहे ते आगे पड़े मुसकिल है ॥ भावार्थ स्पष्ट है । इतना सब कुछ अशाश्वत, अनिश्चित जानते हुए भी मोह के कीचड़ में पड़कर मनुष्य अपना अमूल्य जीवन बर्बाद कर देता है ।
सेठ सुखलाल बहुत ही धनाढ्य थे । श्रावक के घर में उन्होंने जन्म लिया था, मगर वे धर्म को छोड़कर धन के पीछे पागल बने हुए थे । पुण्य प्रबल था, इसलिए व्यापार में खूब मुनाफा होता था । वे यही सोचा करते थे - जितना कमाया जा सके, उतना धन कमा लूं । जीवन को वे चिरस्थायी समझते थे । इसलिए इस समय कोई धर्म की बात कहता तो उन्हें सुहाती नहीं थी । जो इन्द्रियों के विषय, स्वजन - परिजन, देह - सुख, अस्थिर और नाशवान हैं, उनमें और चंचल लक्ष्मी को उपार्जित करते में ही वह रात-दिन लगे रहते थे । जबकि धर्मग्रन्थ पुकार -पुकार कहते हैं
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अइलालिओ वि देहो पहाण सुगंधेहिं विविध भक्ोहि । aणमित्तं वि विडइ जल भरिओ आम-घडओ व्व ॥ जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बंधेइ रई इयरजणाणं अपुण्णाणं ॥ "देखो तो सही, यह शरीर, जिसे मनुष्य स्नान, सुगन्धित पदार्थों और अनेक प्रकार के भोजनादि भोज्य पदार्थों से अत्यन्त लालन-पालन करता है, वह भी पानी से भरे हुए कच्चे घड़े की तरह क्षणभर में फूट-टूट जाता है ।"
"जो लक्ष्मी अत्यन्त पुण्योदयवश चक्रवर्ती को मिलती है, उसके पास भी वह शाश्वत नहीं है, तब फिर जो पुण्यहीन या अल्पपुण्य हों, उनके पास तो वह कैसे रह सकती है ? चाहे वह कुलीन, धैर्यधारी हो, पण्डित हो, योद्धा हो, पराक्रमी हो, सुन्दर हो, लोक - मान्य हो ।”
सेठानी बहुत धर्मात्मा थी । उसे सेठजी की धर्मविमुखता बहुत ही खलती थी । वह बार-बार कहती थी- ' थोड़े से जीने के लिए क्यों इतना धन कमाने में रचे-पचे रहते हो ? क्यों सांसारिक सुखों में लुब्ध हो रहे हो ? न धन टिकेगा, न ये भोग-सुख
१. कार्तिकेयानुप्रेक्षा - अध वानुप्रेक्षा गाथा, ६-१०
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