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________________ २७२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ होता । देवों के सागरोपमों जितने आयुष्यकाल की अपेक्षा से मनुष्य का आयुष्य तो सिन्धु बिन्दु जितना है । इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में भी इस का बात स्पष्ट प्रतिपादन किया है— असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्त, frog विहिमा अजया गर्हिति ॥' "यह जीवन असंस्कृत है - नष्ट हो जाने पर पुनः जोड़ा नहीं जा सकता, अतः प्रमाद मत करो। बुढ़ापे के निकट आ जाने पर भी जीवन की सुरक्षा नहीं होती । प्रमादीजन इस प्रकार समझें और वे पराजित जन अजय होकर विशेष हिंसा को क्यों पकड़े हैं ?" अशाश्वत जीवन को भ्रमवश शाश्वत-सा मानते हैं जीवन अशाश्वत है, उसके सभी अंगोपांग, अनित्य एवं क्षणभंगुर हैं, जीवन की जितनी भी स्थितियाँ या अवस्थाएं हैं, वे सभी परिवर्तनशील हैं, आयुष्य भी क्षणभंगुर है, कोई भी तत्त्व अविनाशी नहीं है, सिवाय आत्मा के । इतना सब प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सिद्ध हो जाने के बावजूद भी अधिकांश लोग भ्रमवश जीवन को शाश्वत समझते हैं, या निश्चित रूप से चिरस्थायी समझते हैं । वे कहते हैं- "अभी जवानी है, इसके बाद प्रौढ़ अवस्था आएगी, फिर आएगा बुढ़ापा, तब आएगा मृत्यु का नंबर | अभी से हम मृत्यु की चिन्ता क्यों करें ?" परन्तु वे यह नहीं जानते कि जीवन और मरण का अविनाभावी सम्बन्ध है । जो जन्म लेता है, वह अवश्य मरता है और मृत्यु का कदम कोई निश्चित नहीं है कि वह बुढ़ापे के बाद ही आए । किसी भी समय वह मनुष्य को चेलेंज दे सकती हैं । इतना जानते हुए भी लोग जीवन को चिरस्थायी बनाने हेतु धन का अन्धाधुन्ध संग्रह करते हैं, भोग-विलास में अपना बहुमूल्य समय - शक्ति और धन खर्च करते हैं, सांसारिक विषयों के उपभोग का ही अधिकतर चिन्तन करते हैं, वे जीवन-निर्माण के मूलभूत तत्त्वों की ओर बिलकुल ध्यान नहीं देते हैं, अगर कभी सुन या पढ़ भी लेते हैं तो भी उस पर ध्यान देकर तदनुसार अपना भविष्य उज्ज्वल नहीं बनाते । जहाँ आवीचिमरण की दृष्टि से क्षण-क्षण में समुद्र की तरंगों की तरह आयुष्य क्षीण होता रहता है, वहाँ निश्चिन्त होकर बैठना कितनी मूढ़ता है ? जहाँ मृत्यु की तलवार सिर पर लटक रही हो, क्या शान्ति से बैठा जा सकता है ? श्री अमृतकाव्य संग्रह में ठीक ही कहा है १. उत्तराध्ययन सूत्र, अ. ४, गा. १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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