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वेश्या-संग से कुल का नाश : १२७
ने ताना मारा और उससे क्लेश करने लगीं। अतः कृतपुण्य घर छोड़कर निराधार चल दिया।
यह है वेश्यागमन या वेश्यासक्ति का दुःखद परिणाम ! सचमुच वेश्या उस कलुष रात्रि के समान अत्यन्त स्वार्थी है कि जब उसका स्वामी चन्द्र पूर्णकलायुक्त व निर्मल होता है, तब वह भी निर्मल श्वेत रहती है, परन्तु जब चन्द्र की कला समाप्त हो जाती है तो वह भी काली हो जाती है ।
वेश्या के पीछे लगे हुए बड़े-बड़े सत्ताधीश और धनाधीश तबाह और दर-दर के भिखारी हो गये । इसीलिये सत्येश्वर गीता में कहा है
वेश्यागमन करो नहीं, उजड़ेगा संसार ।
स्वास्थ्य नाश धननाश है, जीवन बंटाढार ॥ श्री अमृत काव्य संग्रह में भी वेश्या-संग की निन्दा की गई हैपरधन ठगिबे को करत कला अनेक,
हावभाव दाखे मीठे वचन उच्चारे है। पतंग के रंग सम, जनावे अनित्य प्रीति,
तन-मन-धन लूटी करत असार है। नीच मुखलब नित चाटत अभक्ष ऐसी,
कुटिला कुपात्र महा अशुचि-आगार है । कहे अमीरिख सबै चातुरी भले है करे,
पातुरी को संग ताको कोटिन धिक्कार है। भावार्थ स्पष्ट है।
वेश्यावर्ग : आवश्यक या अनावश्यक कई लोग कहते हैं-जिनमें समाज सुधारक भी हैं, कि यद्यपि वेश्यावर्ग एक घृणित, पतित, निन्द्य वर्ग है, अनैतिक है, लेकिन वह समाज, परिवार और राष्ट्र की स्वच्छता के लिए आवश्यक भी है। यूरोपीय नीति का इतिहास लेखक 'लेकी' कहता है-"यद्यपि वेश्यावर्ग दुर्गुणों का सबसे बड़ा प्रतीक है, लेकिन वह सद्गुणों का का सुदक्ष द्वारपाल और रक्षक भी है । वेश्या न होती तो असंख्य सुखी परिवारों की पवित्रता अवश्य नष्ट हो जाती है । वही वर्ग ऐसा है जो स्वयं जनता के पापों का शिकार बनकर मानव की काम-पिपासा पूर्ण करता है।"
कुछ भारतीय विचारक भी इस भ्रम के शिकार हैं कि जिस तरह किसी नगर, गांव या मकान की स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के लिये नालियाँ, परनाले, गटर, टट्टीघर, पेशाबघर एवं कूड़ा-दान आदि जरूरी हैं, समाज की स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के लिए वेश्यावर्ग की आवश्यकता है, जिसमें से होकर समाज की सारी गन्दगी बह जायेगी।
ये और इस प्रकार की अन्य युक्तियाँ देकर कुछ लोग वेश्यावर्ग की उपयोगिता सिद्ध करने का मिथ्या प्रयास करते हैं। वे यह नहीं समझते कि इससे वेश्यावर्ग की
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