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जीवन अशाश्वत है : २७९
कालान्तर में एक दिन राजा द्विमुख उधर से निकले तो इन्द्रध्वज में लगे विशाल खंभे को भूमि पर गिरा देखा, अब वह एक सूखे ठूठ-सा था। उस पर कितनी ही धल की परतें जम गई थीं। आस-पास रहने वाले बच्चों ने उस पर पेशाब-टट्टी करके जगह-जगह से गंदा कर दिया था। कई कुत्तों ने भी उस पर टट्टी-पेशाब करके उसे घिनौना बना दिया था। मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। चारों ओर से बदबू आ रही थी। राजा ने इन्द्रध्वज के स्तम्भ की दुर्दशा देखी तो वह गहरे चिन्तन में डूब गया। सोचा- 'एक दिन वह था, जब इस स्तम्भ की पूजा धूमधाम से की गई थी, इसे नाना वस्त्राभूषणों से सुसज्जित किया गया था। झंडियों, पताकाओं से यह ध्वज आसमान में फरक रहा था। चारों ओर धूप और मधुर सुगंध की महक थी। सभी नर-नारी इसकी पूजा कर रहे थे। और आज इसकी यह दुर्दशा !" क्या जीवन की भी यही दशा नहीं है, आज मेरी पूजा-भक्ति सर्वत्र हो रही है । जीवन-पुष्प कुम्हलाते और मुरझाते ही सबकी यही दशा श्मशान में होती है। संसार की सभी वस्तुएँ, जीवन की सभी अवस्थाएँ, धन, यौवन, सत्ता आदि सब इसी तरह तो नाशवान हैं।' द्विमुखराय का अन्तश्चेतन जागृत हो गया । संसार के विषय-भोगों के प्रति वह विरक्त हो गया। इस नाशवान जीवन को सार्थक करने का संकल्प कर लिया, राज्य आदि सबका परित्याग कर दिया । देवों ने उनके संकल्प के अनुसार उन्हें मुनिवेष पहनाया और द्विमुख राजर्षि प्रत्येकबुद्ध होकर भूमण्डल पर विचरण करने लगे।
बन्धुओ ! प्रबुद्ध होते ही जीवन का तथा इससे सम्बद्ध तमाम सांसारिक पदार्थों का विनाशशील स्वरूप समझकर उन्होंने अपने जीवन को प्रबल धर्माचरण से सार्थक किया।
महर्षि गौतम ने इसीलिए जीवन का यह सत्य उद्घाटित करके इस सूत्र के माध्यम से प्रस्तुत कर दिया है
'असासयं जीवियमाहु लोए।' लोक में यह जीवन अशाश्वत कहा गया है।
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